हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 73 ☆ ख़ामोशी एवं आबरू ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख ख़ामोशी एवं आबरू यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 73 ☆

☆ ख़ामोशी एवं आबरू

‘शब्द और सोच दूरियां बढ़ा देते हैं, क्योंकि कभी हम समझ नहीं पाते, कभी समझा नहीं पाते।’ शब्द ब्रह्म है, सर्वव्यापक है, सृष्टि का मूलाधार व नियंता है और समस्त संसार का दारोमदार उस पर है। सृष्टि में ओंम् शब्द सर्वव्यापक है, जो अजर, अमर व अविनाशी है। इसलिए दु:ख, कष्ट व पीड़ा में व्यक्ति के मुख से ‘ओंम् तथा मां ‘ शब्द ही नि:सृत होते हैं। परमात्मा ने शिशु की उत्पत्ति व संरक्षण का दायित्व मां को सौंपा है। वह नौ माह तक भ्रूण रूप में गर्भ में पल रहे शिशु का, अपने लहू से सिंचन व भरण-पोषण करती है, जो किसी करिश्मे से कम नहीं है। जन्म के पश्चात् शिशु के मुख से पहला शब्द ओंम, मैं व मां ही प्रस्फुटित होता है। मां के संरक्षण में वह पलता-बढ़ता है और युवा होने पर वह उसके लिए पुत्रवधु ले आती है, ताकि वह भी सृष्टि-संवर्द्धन में योगदान देकर, अपने दायित्व का वहन कर सके।

घर में गूंजती बच्चों की किलकारियां सुनने को आतुर मां… अपने आत्मज के बच्चों को देख पुनः उस अलौकिक सुख को पाना चाहती है और यह बलवती लालसा उसे हर हाल अपने आत्मजों के परिवार के साथ रहने को विवश करती है। वहां रहते हुए वह खामोश रहकर हर आपदा सहन करती रहती है, ताकि हृदय में खटास उत्पन्न न हो और कटुता के कारण दिलों में दूरियां न बढ़ जाएं। वह परिवार रूपी माला के सभी मनकों को स्नेह रूपी डोरी में पिरोकर रखना चाहती है, ताकि घर में सामंजस्य व सौहार्द बना रहे। परंतु कई बार यह खामोशी उसके अंतर्मन को सालने लगती है।

वैसे ख़ामोशी की सार्थकता, सामर्थ्य व प्रभाव- क्षमता से सब परिचित हैं। खामोशी सबकी प्रिय है और वह आबरू को ढक लेती है, जो समय की ज़बरदस्त मांग है। ‘रिश्ते खामोशी का भूषण धारण कर, न केवल जीवित रहते हैं, बल्कि पनपते भी हैं। वे केवल उसकी शोभा ही नहीं बढ़ाते…उसके जीवनाधार हैं।’ लड़की जन्मोपरांत पिता व भाई के सुरक्षा-दायरे में, विवाह के पश्चात् पति के घर की चारदीवारी में और उसके देहांत के बाद पुत्र के आशियां में सुरक्षित समझी जाती है। परंतु आजकल ज़माने की हवा बदल गई है और वह कहीं भी सुरक्षित नहीं है। सो! समय की नज़ाकत को देखते हुए बचपन से ही उसे खामोश रहने का पाठ पढ़ाया जाता है और असंख्य आदेश-उपदेश दिए जाते हैं; प्रतिबंध लगाए जाते हैं और हिदायतें भी दी जाती हैं। अक्सर भाई के साथ प्रिय व असामान्य व्यवहार देख उसका हृदय क्रंदन कर उठता है और उसके समानाधिकारों की मांग करने पर, उसे यह कहकर चुप करा दिया जाता है कि ‘वह कुल-दीपक है, जो उन्हें मोक्ष के द्वार तक ले जाएगा।’  परंंतु तुझे तो यह घर छोड़ कर जाना है… सलीके से मर्यादा में रहना सीख। खामोशी तेरा श्रृंगार है और तुझे ससुराल में जाकर सबकी आशाओं पर खरा उतरने के लिए खामोश रहना है… नज़रें झुका कर हर हुक्म बजा लाना है तथा उनके आदेशों को वेद-वाक्य समझ, उनके हर आदेश की अनुपालना करनी है।

इतनी हिदायतों के बोझ तले दबी वह नवयौवना, पति के घर की चौखट लांघ, उस घर को अपना घर समझ सजाने-संवारने में लग जाती है और सबकी खुशियों के लिए अपने अरमानों का गला घोंट, अपने मन को मार, ख्वाहिशों को दफ़न कर पल-पल जीती, पल-पल मरती है; कभी उफ़् नहीं करती है। परंतु जब परिवारजनों की नज़रें सी•सी•टी•वी• कैमरों की भांति उसकी पल-पल की गतिविधियों को कैद करती हैं और उसे प्रश्नों के कटघरे में खड़ा कर देती हैं, तो उसका हृदय चीत्कार कर उठता है। परंतु फिर भी वह खामोश अर्थात् मौन रहती है, प्रतिकार अथवा विरोध नहीं दर्ज कराती तथा प्रत्येक उचित-अनुचित व्यवहार, अवमानना व प्रताड़ना को सहन करती है। परंतु एक दिन उसके धैर्य का बांध टूट जाता है और उसका मन विद्रोह कर उठता है। उस स्थिति में उसे अपने अस्तित्व का भान होता है। वह अपने अधिकारों की मांग करती है, परंतु कहां मिलते हैं उसे समानाधिकार …और वह असहाय दशा में तिलमिला कर रह जाती है। वह स्वयं को चक्रव्यूह में फंसा हुआ पाती है, क्योंकि जिस घर को वह अपना समझती रही, वह उसका कभी था ही नहीं। उसे  तो  किसी भी पल उस घर को त्यागने का फरमॉन सुनाया जा सकता है।

अक्सर महिलाएं परिवार की आबरू बचाने के लिए खामोशी का बुर्क़ा अर्थात् आवरण ओढ़े घुटती रहती हैं;  मुखौटा धारण कर खुश रहने का स्वांग रचती हैं। विवाहोपरांत माता-पिता के घर के द्वार उनके लिए बंद हो जाते हैं और पति के घर में वे सदा परायी अथवा अजनबी समझी जाती हैं…अपने अस्तित्व को तलाशती, हृदय पर पत्थर रख अमानवीय व्यवहार सहन करतीं, कभी प्रतिरोध नहीं करतीं। अन्तत: इस संसार को अलविदा कह चल देती हैं।

परंतु इक्कीसवीं सदी में महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति सजग हैं। बचपन से लड़कों की तरह मौज-मस्ती करना, वैसी वेशभूषा धारण कर क्लबों व पार्टियों से देर रात घर लौटना व अपने हर शौक़ को पूरा करना… उनके जीवन का मक़सद बन जाता है और वे अपने ढंग से अपनी ज़िंदगी जीने लगती हैं। सो! प्रतिबंधों व सीमाओं में जीना उन्हें स्वीकार नहीं, क्योंकि वे पुरुष की भांति हर क्षेत्र में दखलांदाज़ी कर सफलता प्रात कर रही हैं। अब वे सीता की भांति पति की अनुगामिनी बनकर जीना नहीं चाहतीं, न ही अग्नि-परीक्षा देना उन्हें मंज़ूर है। वे पति की जीवन-संगिनी बनने की हामी भरती हैं, क्योंकि कठपुतली की भांति नाचना उन्हें अभीष्ठ नहीं। वे स्वतंत्रता-पूर्वक अपने ढंग से जीना चाहती हैं। मर्यादा की सीमाओं व दायरे में बंध कर जीवन जीना उन्हें स्वीकार नहीं, जिसके भयावह परिणाम हमारे समक्ष हैं। वे रिश्तों की अहमियत नहीं स्वीकारतीं; न ही घर-परिवार के क़ायदे-कानून उनके पांवों में बेड़ियां डाल कर रख सकते हैं। वे तो सभी बंधनों को तोड़ स्वतंत्रता-पूर्वक जीना चाहती हैं। सो! बात-बात पर पति व परिवारजनों से व्यर्थ में उलझना, उन्हें भला-बुरा कहना, प्रताड़ित व तिरस्कृत करना… उनके स्वभाव में शामिल हो जाता है, जिसके भीषण परिणाम तलाक़ के रूप में हमारे समक्ष हैं।

संयुक्त परिवारों का प्रचलन तो गुज़रे ज़माने की बात हो गया है। एकल परिवार व्यवस्था के चलते पति-पत्नी एक छत के नीचे अजनबी-सम रहते हैं, एक-दूसरे के सुख-दु:ख व संबंध- सरोकारों से बेखबर… अपने-अपने द्वीप में कैद। वैसे हम दो, हमारे हम दो का प्रचलन ‘हमारा एक’ तक आकर सिमट गया। परंतु अब तो संतान को जन्म देकर युवा-पीढ़ी अपने दायित्वों का निर्वहन करना ही नहीं चाहती, क्योंकि आजकल वे सब ‘तू नहीं और सही’ में विश्वास करने लगे हैं और ‘लिव-इन’ व ‘मी-टू’ ने तो संस्कृति व संस्कारों की धज्जियां उड़ाकर रख दी हैं। इसलिए हर तीसरे घर की लड़की तलाक़शुदा दिखाई पड़ती है। लड़के भी अब इसी सोच में आस्था व विश्वास रखने लगे हैं और वे भी यही चाहते हैं। परंतु उन्हें न चाहते हुए भी घर में सुख-शांति व संतुलन बनाए रखने के लिए उसी ढर्रे पर चलना पड़ता है। अक्सर अंत में वे उसी कग़ार पर आकर खड़े हो जाते हैं, जिसका हर रास्ता अंधी गलियों में खुलता है अर्थात् विनाश की ओर जाता है। सो! वे भी ऐसी आधुनिक जीवन-संगिनी से निज़ात पाना बेहतर समझते हैं। अक्सर लड़के तो आजकल विवाह करना ही नहीं चाहते, क्योंकि वे अपने माता-पिता को सीखचों के पीछे देखने की भयावह कल्पना-मात्र से कांप उठते हैं। शायद! यह विद्रोह व प्रतिक्रिया है– उन ज़ुल्मों के विरुद्ध, जो महिलाएं वर्षों से सहन करती आ रही हैं।

‘शब्द व सोच दूरियां बढ़ा देते हैं। कई बार दूसरा व्यक्ति उसके मन के भावों को समझना ही नहीं चाहता और कई बार वह उसे समझाने में स्वयं को असमर्थ पाता है…दोनों स्थितियां भयावह व गंभीर हैं।’ इसलिए वह अपनी सोच, अपेक्षा व भावों को उजागर भी नहीं कर पाता। इन असामान्य परिस्थितियों में मन की दरारें इस क़दर बढ़ती चली जाती हैं ,जो खाई के रूप में मानव के समक्ष आन खड़ी होती हैं, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है। शायद! इसीलिए कहा गया है कि ‘ताल्लुक बोझ बन जाए तो उसको तोड़ना अच्छा’ अर्थात् अजनबी बनकर जीने से बेहतर है– संबंध-विच्छेद कर, स्वतंत्रता व सुक़ून से अपनी ज़़िंदगी जीना। जब ख़ामोशियां डसने लगें और हर पल प्रहार करने लगें, तो अवसाद की स्थिति में जीने से बेहतर है… उनसे मुक्ति पा लेना। जीवन में केवल समस्याएं नहीं हैं, धैर्यपूर्वक सोचिए और संभावनाओं को तलाशने का प्रयास कीजिए। हर समस्या का समाधान उपलब्ध होता है और उसके केवल दो विकल्प ही नहीं होते। आवश्यकता है, शांत मन से उसे खोजने की… अपनाने की और विषम परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करने की। इसलिए ‘व्यक्ति जितना डरेगा, लोग उसे उतना डरायेएंगे’…सो! हिम्मत करो, सब सिर झुकायेंगे। ‘लोग क्या कहेंगे’ इस धारणा-भावना को हृदय से निकाल बाहर फेंक दें, क्योंकि आपाधापी भरे युग में किसी के पास किसी के लिए समय है ही कहां… सब अपने- अपने द्वीप में कैद हैं। सो! व्यर्थ की बातों में मत उलझिए, क्योंकि दु:ख में व्यक्ति अकेला होता है और सुख में तो सब साथ खड़े दिखाई देते हैं।

इसलिए दु:ख आपका सच्चा मित्र है, सदा साथ रहता है… सबक़ सिखाता है और जब छोड़कर जाता है, तो सुख देकर जाता है। वास्तव में दोनों का एक स्थान पर इकट्ठे रहना संभव नहीं है। इसलिए संसार में रहते हुए स्वयं को आत्मसीमित अर्थात् आत्मकेंद्रित मत कीजिए, क्योंकि यहां अनंत संभावनाएं उपलब्ध हैं। इसलिए यह मत सोचिए कि ‘मैं नहीं कर सकता।’ पूर्ण प्रयास कीजिए और सभी विकल्प आज़माइए। परंतु यदि फिर भी सफलता न प्राप्त हो, तो उस विषम व असामान्य परिस्थिति में अपना रास्ता बदल लेना श्रयेस्कर है, ताकि आबरू सुरक्षित रह सके।

ख़ामोशी मौन का दूसरा रूप है। मौन रहने व तुरंत प्रतिक्रिया न देने से समस्याएं, बाधाओं के रूप में आपका रास्ता नहीं रोक सकतीं…स्वत: समाधान निकल आता है। इसलिए समस्या के उपस्थित होने पर, क्रोधित होकर त्वरित निर्णय मत लीजिए… चिंतन-मनन कीजिए…सभी पहलुओं पर सोच-विचार कीजिए, समाधान आपके सम्मुख होगा। यही है…जीने की सर्वश्रेष्ठ कला। परिवार, दोस्त व रिश्ते अनमोल होते हैं। उनके न रहने पर उनकी कीमत समझ आती है और उन्हें सुरक्षित रखने के लिए खामोशी के आवरण की दरक़ार है, क्योंकि वे प्रेम व त्याग की बलि चाहते हैं। खामोशी अथवा मौन रहना उर्वरक है, जो परिवार में प्रेम व रिश्तों को गहनता प्रदान करता है। दोनों स्थितियों में प्रतिदान का भाव नहीं आना चाहिए, क्योंकि वह तो हमें स्वार्थी बनाता है। सो! किसी से आशा व अपेक्षा मत रखिए, क्योंकि अपेक्षा ही दु:खों का कारण है और मांगना तो मरने के समान है। देने में सुख व संतोष का भाव निहित है। इसलिए सहन-शक्ति बढ़ाएं। यह सर्वश्रेष्ठ दवा है और खामोशी की पक्षधर है, जिसके संरक्षण में संबंध फलते-फूलते व पूर्ण रूप से विकसित होते हैं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Article ☆ BSF Day – Life on the edge for BSF wives…. ☆ Shri Ajeet Singh

Shri Ajeet Singh

(We present an article ‘Life on the edge for BSF wives….’ on the eve of  BSF Day – 1st December written by Shri  Ajeet  Singh ji, Director (News), Doordarshan. We are extremely thankful to Shri Ajeet Singh ji for sharing his experience while he was AIR’s correspondent in Jammu and Kashmir for over 19 years.) 

☆ BSF Day – 1st December ☆ Sometime in Srinagar: Life on the edge for BSF wives…☆

(Writer Shri Ajeet Singh ji was AIR’s correspondent in Jammu and Kashmir for over 19 years.  He retired as Director of News, Doordarshan, Hisar.)

Sometime in Srinagar:

Mrs Ekka suddenly held me by both my wrists and asked me to tell the truth as I, standing at the door, conveyed her a message that she should get ready to go to the army Base Hospital in Srinagar and a vehicle was on the way to pick her up.

Her husband, BSF Assistant Commandant Ekka who lived in the room next to mine in the Safe Zone declared Tourist Reception Centre, had been injured in an encounter with militants in Chhanpora locality of the summer capital of Jammu and Kashmir state. Message had been received on my landline phone as I only had the facility on the second floor of the tourist hotel under security.

She feared the worst. I told her that I had been to the hospital for a coverage and met her husband who was slightly injured in the arm and he was fine after some sort of first aid only. She didn’t believe me.

“Why didn’t he come home if it was an injury requiring first aid only?

Please tell me the truth”, she pleaded and clinched both my wrists as if not to let me go without telling her the truth.

I had not been to the hospital. Ekka’s officer Deputy Commandant Garg had told me on phone about the incident and requested me to bring Mrs Ekka to the hospital. He also cautioned me to ensure that Mrs Ekka was not scared as I conveyed the information.

We locked our rooms and came downstairs where a vehicle waited for us. It was a 20-minute journey. Mrs Ekka was tense but silent.  She almost continuously stared at me as if to read my face or eyes to know whether or not I had told her the truth about her husband.

This scared me too from inside. What if Ekka’s injuries were grave or he was ….. no more.

She suddenly turned to the driver and asked him if he had seen her husband.

“He is ok madam. Deputy sahib told me”, he said.

That seemed of not much relief to Mrs. Ekka.

Soon we were in the ward where Ekka was admitted. He was cheerful and welcomed his wife. ” Hey! You need not have bothered. See it is only a minor injury near the elbow”.

Trying to control her tears, Mrs Ekka saw the injured arm and turned her face towards the wall as if praying for the safety of her husband. Deputy Commandant Garg told us that Ekka had killed a militant in the encounter.

She looked at me this time with folded hands.

“Thanks and sorry. Like army wives, we the BSF wives too live constantly praying for our husbands and fearing the worst. It is a life always on the edge”.

I saw this and much more first hand about 25 years ago as the correspondent of All India Radio Srinagar.

I remembered it on the BSF Day that falls on the first of December.

Kashmir is still in turmoil.

©  Shri Ajeet Singh 

Ex Director (News) Doordarshan

Mo. – 9466647037

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ दस्तक ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ दस्तक ☆

तकलीफदेह है

बार-बार दरवाज़ा खोलना

जानते हुए कि

कोई दस्तक नहीं दे रहा,

ज़्यादा तकलीफदेह है

हमेशा दरवाज़ा बंद रखना

जानते हुए कि

कोई दस्तक दे रहा है,

बार-बार; लगातार!

©  संजय भारद्वाज 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ वास्तु दोष ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी लघुकथा  “लघुकथा – वास्तु दोष ।)

☆ लघुकथा – वास्तु दोष ☆

अच्छा भला घर था. अच्छे भले लोग थे. अपना सुंदर सा घर पाकर घर वाले खूब खुश थे. उनकी खुशी पड़ोसी से नहीं देखी गई. वास्तु दोष निकालते हुए उसने घर के मुखिया से कहा- बहुत बड़ा वास्तु दोष है. उसमें परिवर्तन की जरूरत है, वरना घर के किसी सदस्य के मरने का अंदेशा है.

घर का बदलाव करते करते घरवाला सड़क पर आ गया. आधा घर टूटा पड़ा है. आधा टूटने वाला है. मकान मालिक का दिल कितनी जगह से टूटा है. यह कोई नहीं जानता है.

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 25 ☆ एहसास ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “एहसास)

☆ किसलय की कलम से # 25 ☆

☆ एहसास

मुझे लगता है, जब हम अपनी पूर्ण सामर्थ्य और श्रेष्ठता से कोई कार्य करते हैं, सेवा करते हैं या फिर प्रयास करते हैं तब सफलता के प्रति अधिक आशान्वित रहते हैं। सफलता मिलती भी है। सफलताएँ अथवा असफलताएँ समय एवं परिस्थितियों पर भी निर्भर करती हैं। ये परिस्थितियाँ उचित-अनुचित अथवा अच्छी-बुरी भी हो सकती हैं। अक्सर सफलता का श्रेय हम स्वयं को देते हैं, जबकि इसमें भी अनेक लोगों का योगदान  निहित होता है।

जब असफलता हाथ लगती है तब हम अपने भाग्य के साथ साथ दूसरों को भी कोसते हैं। कमियों को भी खोजते हैं।

सबसे महत्त्वपूर्ण बातें ये होती हैं कि उस समय हमें अपने द्वारा किये अधर्म, अन्याय, बुरे कर्म, अत्याचार, दुर्व्यवहार आदि की स्मृति अवश्य होती है। कदाचित पश्चाताप भी होता है।

आखिर  खुद या अपने निकटस्थों के अनिष्ट पर उपरोक्त कर्मों को स्मरण करते हुए हम घबराए, चिंतित और पश्चाताप की मुद्रा में क्यों आ जाते हैं, जबकि यह पूर्णरूपेण सत्य नहीं होता!

जब सफलता का श्रेय स्वयं को देते हैं तब असफलता अथवा अनिष्ट होने पर भाग्य को, अनैतिक कार्यों को, दुर्व्यवहार को दोष क्यों देते हो जबकि आप के द्वारा किये गए कार्य अथवा कमियाँ ही इसकी जवाबदार होती हैं। अब मुद्दे की बात ये है कि अनिष्ट को  अपने कर्मों, दुर्व्यवहारों और अनैतिक कार्यों का परिणाम निरूपित करने के पीछे उपरोक्त कारक सक्रिय क्यों हो जाते है। यह एक मानव का सामान्य स्वभाव है कि जब हताशा होती है तो हम अपने भूतकाल को स्मृतिपटल पर बार-बार दोहराते हैं और सोचते हैं, कहीं मेरे द्वारा किये गए फलां कार्य का यह परिणाम तो नहीं है। फिर ‘का बरसा जब कृषी सुखानी’ की तर्ज पर सोचने लगते हैं कि मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। पर “अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत” लेकिन ये सभी बातें हैं कि मानस पटल से ओझल होती ही नहीं। आशय यही है कि कहीं न कहीं हम भयभीत जरूर होते हैं कि हमारे दुष्कर्मों के कारण ही ये अनिष्ट हुआ है। इन परिस्थितियों में हमारे मन को “बुरे कर्म का बुरा नतीजा” की बात सही लगती है। वास्तव में भी यदि व्यापक दृष्टिकोण से देखा जाए तो कुल मिलाकर अंत में यही सिद्ध होता है और निष्कर्ष भी यही निकलता है कि हमें बुरे कर्मों से बचना ही चाहिए।

इसमें दो मत नहीं है कि यदि हम जीवन में सदाचार, सरलता, सादगी, सत्यता और संतोष अपना लेते हैं, तो कम से कम पिछले बुरे कर्मों को दोष देने से बच सकते हैं। इसे  जग के हर एक इंसान को एक चेतावनी के रूप में देखा जाना चाहिए कि अब इंसानियत पुनर्जीवित करने के लिए आपको एक अवसर और दिया जाता है।

इसीलिए बुरे वक्त में पिछली बुरी बातें याद आती हैं और उन गल्तियों का एहसास भी होता है, जो एक अच्छे इंसान के रूप में नहीं करना चाहिए थीं।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : vijaytiwari5@gmail.com

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 71 ☆ गीत – “मैं जीवन हूँ , तू ज्योति है…” ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं उनकी एक  भावप्रवण गीत  “गीत – मैं जीवन हूँ ,तू ज्योति है… । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 70 – साहित्य निकुंज ☆

☆ गीत – मैं जीवन हूँ ,तू ज्योति है…  ☆

भुलाकर दुश्मनी हमको, गले सबको लगाना  है ।

प्यार से जीवन है जीना, प्यार से गुनगुनाना है।

 

दूर न रह पाउँगा तुझसे, तुझे अपना बनाना है

तू मेरे ही करीब आये, तू मेरा शामियाना है।

 

तुझे मैंने ही चाहा है, तुझे मैंने ही जाना है

मेरा दिल तो तेरा ही, अब पागल दीवाना है।

 

तू प्यारा ही मुझे लगता, तेरे बस  गीत गाना है।

तेरे छोटे से दिल में तो. मेरा बस ही ठिकाना है।

 

मैं सच कहता हूँ बस तुझसे, मेरा तू आशियाना है।

मैं जीवन हूँ ,तू ज्योति है, तुझे बस मुस्कुराना है।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : bhavanasharma30@gmail.com

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सेतू – कवी स्व वसंत बापट  ☆  कवितेचे रसग्रहण सौ.अमृता देशपांडे

स्व वसंत बापट

जन्म – 25 जुलाई 1922

मृत्यु – 17 सितम्बर 2002

☆ कवितेचा उत्सव ☆ सेतू ☆ कवी स्व वसंत बापट  ☆  प्रस्तुति – सौ. अमृता देशपांडे ☆ 

शरदामधली पहाट आली तरणीताठी

हिरवे हिरवे चुडे चमकती दोन्ही हाती

शिरि मोत्याचे कणिस तरारुन झुलते आहे

खांद्यावरती शुभ्र कबूतर खुलते आहे

 

नुक्ते झाले स्नान हिचे ते राजविलासी

आठ बिचा-या न्हाऊ घालित होत्या दासी

निरखित अपुली आपण कांती आरसपानी

थबकुन उठली चाहुल भलती येता कानी

 

उठली तो तिज जाणवले की विवस्त्र आपण

घे सोनेरी वस्त्र ओढुनी कर उंचावुन

हात दुमडुनि सावरता ते वक्षापाशी

उभी राहिली क्षण ओठंगुन नीलाकाशी

 

लाल ओलसर पाउल उचलुन तशी निघाली

वारा नखर करीत भवती

रुंजी घाली

निळ्या तलावाघरचे दालन उघडे आहे

अनिश्चयाने ती क्षितिजाशी उभीच आहे

 

माथ्यावरती निळी ओढणी तलम मुलायम

गालावरती फुलचुखिने व्रण केला कायम

पायाखाली येइल ते ते

खुलत आहे

आभाळाची कळी उगिच

उमलत आहे

 

झेंडू डेरेदार गळ्याशी

बिलगुन बसले

शेवंतीचे स्वप्न सुनहरी

आजच हसले

निर्गंधाचे रंग पाहुनी

गहिरे असले

गुलाब रुसले, ईर्षेने

फिरुनि मुसमुसले

 

फुलांफुलांची हनु कुरवाळित

अल्लड चाले

तृणातृणाशी ममतेने ही

अस्फुट बोले

वात्सल्य न हे! हे ही

यौवन विभ्रम सारे

सराईताला कसे कळावे

मुग्ध इशारे

 

दिसली ती अन् विस्फारित

मम झाले नेत्र

स्पर्शाने या पुलकित झाले

गात्र नि गात्र

ही शरदातिल पहाट…..

की……ती तेव्हाची  तू?

तुझिया माझ्या मध्ये

पहाटच झाली सेतु

 

कवी – स्व वसंत बापट 

(चित्र साभार लोकमत https://www.lokmat.com/maharashtra/todays-memorial-day-vasant-bapat/)

(या कवितेचे रसग्रहण काव्यानंद मध्ये दिले आहे.)

सौ अमृता देशपांडे

पर्वरी- गोवा

9822176170

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 56 – जीवनाच्या रंगमंची ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 56 – जीवनाच्या रंगमंची ☆

जीवनाच्या रंगमंची

सुख दुःखाची आरास।

समन्वय साधुनिया

नाट्य येईल भरास।

 

बालपण प्रवेशात

स्वर्ग सुखाचे आगर।

बाप विधाता भासतो

माय मायेचा सागर।

 

स्वार्थ रंगी रंगलेली

सारी स्वप्नवत नाती।

तारुण्यास मोहवीते

स्वप्न परी ती सांगाती।

 

आलो भानावर जरा

खाच खळगे पाहून ।

माय पित्याच्या भोवती

लाखो संकटे दारूण।

 

इथे पिकल्या पानांना

सोडू पाहे जरी खोड।

रंगविती पिलांसाठी

वसंताचे स्वप्न गोड।

 

जीवनाच्या रंगमंची

खेळ रंगे जगण्याचा।

दुःख उरी दाबुनिया

अभिनय हासण्याचा।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ आकाशगंगा ☆ सौ. सुनिता गद्रे

☆ विविधा ☆ आकाशगंगा ☆ सौ. सुनिता गद्रे ☆ 

घटना तशी जुनीच. म्हणजे १९६५ सालातली. मी अकरावीत शिकत होते. म्हणजे त्यावेळचे मॅट्रिक. आमच्या सायन्सच्या सरांनी एके दिवशी रात्री आम्हा सर्व विद्यार्थ्यांना एका त्यावेळच्या तीन मजली बिल्डिंग च्या टेरेस वर बोलावलं होतं. अमावस्येची रात्र होती….. घाबरायचं कारण नाही. आम्हाला ते खगोल  शास्त्रातील’आकाश गंगा’प्रत्यक्ष दाखवून ग्रह तारे नक्षत्र यांची माहिती देणार होते.

आमच्या सायन्सच्या सरांइतका उत्साही शिक्षक मी आजवर पाहिला नाही. आपल्या विषयातील संपूर्ण ज्ञान त्यांना होते. आणि ते विद्यार्थ्यांपर्यंत पोहोचवायची तळमळ ही होती. फिजिक्स केमिस्ट्री मधले कितीतरी प्रयोग …. अभ्यासक्रमाबाहेरचे …त्यांनी आमच्याकडून करवून घेतले होते.

त्या रात्री सरांनी उत्तर-दक्षिण पसरलेला तार्‍यांनी तुडुंब भरलेला चकाकणारा आकाशगंगेचापट्टा दाखवला. खूप सगळी माहिती सांगितली. त्यामुळे खगोलशास्त्राचा वेगळा अभ्यास करावाच लागला नाही.

लग्नानंतर दिल्लीला गेल्यावर बरेचदा मुद्दामून सातव्या मजल्याच्या टेरेसवर जाऊन मी आकाशगंगा शोधायचा प्रयत्न करायचे पण लाईटच्या झगमगाटात ती आकाशगंगा मला कधीच दिसली नाही. आता तर छोट्या छोट्या गावात सुद्धा बिजली च्या झगमगाटामुळे  आकाशगंगा आपल्यापासून खूप दूर गेलेली आहे. उन्हाळ्यात दिल्लीला आम्ही त्यावेळी रात्री टेरेस वर झोपायला जायचो. आता ए.सी मुळे. त्याही गंमतीला आपण मुकले आहोत.मुलांना मी थोडंसं लक्षात राहिलेला ज्ञान द्यायचे. मृगनक्षत्र… हरीण… त्याच्या पोटात घुसलेल्या बाणाचे तीन तेजस्वी तारे…. व्याध. तसेच सप्तर्षींचा  पतंग… दोरी सारखा खूप दूर असलेला ध्रुवतारा.. जो जास्त चमकत नाही… वशिष्ठ ऋषी.. त्यांच्या शेजारी छोटीशी चमकणारी अरुंधती ची चांदणी… सगळं त्यांना दाखवायचे. खरं तर सगळंच फार फिकट दिसायचं. शर्मिष्ठा देवयानी ययातीचा तो M सारखा तारा समूह.. जो एका वेगळ्याच आकाशगंगेच्या भाग आहे (बहुतेक). जो सरांनी दाखवला होता… तो मला कधीच दिसला नाही. शुक्र मंगळ ग्रह पण दिसले नाहीत. पुढं मुलं मोठी झाल्यावर मी त्यांना प्लॅनेटोरियम मध्ये घेऊन गेले होते. तिथं मॉडर्न टेक्निकनं दाखवलेली आकाशगंगा पाहिली. पण सरांनी दाखवलेली आकाशगंगा मला तिथं सापडलीच नाही…… ती हरवून गेली होती.

वर्षापूर्वी मला कर्नाटकातल्या एका खेड्यात जायचा प्रसंग आला. आम्ही तिघं जणं होतो. एका छोट्याशा स्टॅन्डवर बस थांबली. आम्ही आमच्या गंतव्या कडे… साधारण दोन-अडीच मैल चालत निघालो. तीपण अमावस्येची (एखादा दिवस मागेपुढे) रात्र होती. चालताना दृष्टी वर गेली आणि मुग्ध होऊन मी पाहतच राहिले. तो दक्षिणोत्तर पसरलेला तारकांचापट्टा-milky way-मला खुणावत होता. पूर्ण गोलाकार क्षितिज…. काळे कभिन्न आकाश.. ते म्हणजे एक खोलगट वाटी…. अन त्यावर चमकणारा आकाशगंगेच्या पट्टा. तो इतका जवळ वाटत होता की शिडीवर चढून आपण त्याला हात लावू शकू …. आणि हे काय?…. त्या मृगाच्या चौकोनात असंख्य तारे चमकत होते. मग मी माझ्या ओळखीचे तारे शोधण्याचा प्रयत्न करू लागले. ‘खरंच आता सर असायला हवे होते’ मनात विचार चमकून गेला.

पंधरा वीस मिनिटानंतर”काकू थांबू नको.. लवकर ये “. या पुतण्याच्या हाकेनं मी भानावर आले .’मध्ये रुपया ‘नसलेल्या सुपभर लाहया मी मनात भरून घेतल्या.

शेवटी लहानपणी पाहिलेली….अन् हरवून गेलेली आकाशगंगा मला सापडली होती.

© सौ. सुनिता गद्रे,

माधव नगर. मो – 960 47 25 805

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ जीवनपट ☆ सुश्री दीप्ती कुलकर्णी

सुश्री दीप्ती कुलकर्णी

☆ कवितेचा उत्सव ☆ जीवनपट ☆ सुश्री दीप्ती कुलकर्णी

जीवनाच्या या पटावरी

कितीतरी प्यादी येती जाती

माझे,माझे म्हणती सारे

फोलता ही नच,कुणाही ठावे

 

क्षणभंगुरता कळेल का परी

उरते अंगी म्रुत्तिका जरी

यात्रिक सारे सममार्गावरी

नियतीचीही मिरासदारी

 

नियतीचीही सर्व खेळणी

कुणा छत्र,कुणी अनवाणी

श्वासासंगे श्वास येई रे

दुजा न कोणी सांगाती

 

जीवनाच्या या पटावरी

कितीतरी प्यादी येती जाती.

 © सुश्री दीप्ती कुलकर्णी

कोल्हापूर

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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