हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 61 ☆ तदबीर ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  एक भावप्रवण रचना “तदबीर”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 61 ☆

☆ तदबीर ☆

 

अच्छी तस्वीर से अच्छी तहरीर

बनना ज़रूरी नहीं है जनाब-

हाँ, अच्छी तहरीर ज़रूर

अच्छी तस्वीर बना सकती है|

 

सुनो,

कूट-कूटकर जोश और जुस्तजू को

अपनी ज़िंदगी की किताब के

हर एक सफ्हे पर बिछा दिया करो,

फिर उसे रौशनी के जुगनुओं से

खूबसूरती से सजा दिया करो-

देखना कैसे तबस्सुम की लाली

तहरीर पर छा जायेगी!

हाँ! वो हर पढने वाले के

अंग-अंग में समा जायेगी,

और उस पढने वाले की तस्वीर में

रंगत ही रंगत छा जायेगी!

 

तहरीर से खूबसूरत तस्वीर बनाना

यही ख़ास तदबीर है!

 

तहरीर – writing

सफ्हे – page

तदबीर – strategy

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ किराये का घर ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी लघुकथा  “लघुकथा – किराये का घर ।)

☆ लघुकथा – किराये का घर ☆

घर इज्जत है. परिवार के सिर पर एक घर का साया जरूर होना चाहिए. जिनके पास घर नहीं है, व्यथा- कथा जरा उनसे पूछें.

फुटपाथों पर सोते सोते असमय ही काल कवलित हो गये.

लड़की ब्याहने वाला आजकल लड़के से पहले घर देखता है. घर रहने से बेरोजगार को भी लड़की ब्याह देता है.

लड़के वाले भी कम नहीं होते. किराये के घर को अपना बताकर लड़की ब्याह लेते हैं

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ आत्ममुग्ध ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ आत्ममुग्ध ☆

हवा से फूलकर

गुब्बारा कुप्पा हुआ,

पिन चुभने भर की देर थी

किया धरा धराशायी हुआ,

आत्ममुग्धता की हवा भरती है

तब सच की पिन चुभती है,

फूटा गुब्बारा बिना दाम का

आत्मघाती मोह किस काम का?

©  संजय भारद्वाज 

प्रात: 10:06 बजे, 2.11.20

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 46 ☆ व्यंग्य संग्रह – मोरे अवगुन चित में धरो – श्री आशीष दशोत्तर ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़  सकते हैं ।

आज प्रस्तुत है श्री आशीष दशोत्तर जी  के  व्यंग्य  संग्रह   “मोरे अवगुन चित में धरो” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 46 ☆ 
पुस्तक चर्चा

पुस्तक – व्यंग्य संग्रह – मोरे अवगुन चित में धरो

व्यंग्यकार – श्री आशीष दशोत्तर

प्रकाशक – बोधि प्रकाशन,

पृष्ठ – १८४

मूल्य – २०० रु

☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य  संग्रह  – मोरे अवगुन चित में धरो – व्यंग्यकार –श्री आशीष दशोत्तर ☆ समीक्षक -श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र☆

श्री आषीश दशोत्तर व्यंग्य के सशक्त समकालीन हस्ताक्षर के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुके हैं. वे विज्ञान,  हिन्दी, शिक्षा,  कानून में उपाधियां प्राप्त हैं. साहित्य अकादमी सहित कई संस्थाओ ने उनकी साहित्यिक प्रतिभा को पहचान कर उन्हें सम्मानित भी किया है. परिचय की इस छोटी सी पूर्व भूमिका का अर्थ गहरा है. आषीश जी के लेखन के विषयो की व्यापकता और वर्णन की विविधता भरी उनकी शैली में उनकी शिक्षा का अपरोक्ष प्रभाव दृष्टिगोचर होता है. किताब की भूमिका सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय ने लिखी है,  वे लिखते हैं ” आषीश दशोत्तर के लेखन में असीम संभावनायें है,  उनके पास व्यंग्य की दृष्टि है और उसके उचित प्रयोग का संयम भी है. ” मैने इस किताब के जो  कुछ व्यंग्य पढ़े हैं और जितना इस चर्चा से पहले से यत्र तत्र उन्हें पढ़ता रहा हूं उस आधार पर मेरा दृष्टिकोण भूमिका से पूरी तरह मेल खाता है. व्यंग्य तभी उपजता है जब अवगुन चित में धरे जाते हैं. दरअसल अवगुणो के परिमार्जन के लिये रचे गये व्यंग्य को समझकर अवगुणो का परिष्कार हो तो ही व्यंग्य का ध्येय पूरा होता है. यही आदर्श स्थिति है.  इन दिनो व्यंग्य की किताबें और उपन्यास,  किसी जमाने के जासूसी उपन्यासो सी लोकप्रियता तो प्राप्त कर रही हैं पर गंभीरता से नही ली जा रही हैं. हमारे जैसे व्यंग्यकार इस आशा में अवगुणो पर प्रहार किये जा रहे हैं कि हमारा लेखन कभी तो महज पुरस्कार से ऊपर कुछ शाश्वत सकारात्मक परिवर्तन ला सकेगा. आषीश जी की कलम को इसी यात्रा में सहगामी पाता हूँ.

किताब के पहले ही व्यंग्य पेड़ पौधे की अंतरंग वार्ता में वे लिखते हैं “पेड़ की आत्मा बोली अच्छा तुम्हें जमीन में रोप भी दिया गया तो इसकी क्या गारंटी है कि तुम जीवित रहोगे ही “. .. पेड़ की आत्मा पौधे को बेस्ट आफ लक बोलकर जाने लगी तो पौधा सोच रहा था उसे कोई न ही रोपे तो अच्छा है. ऐसी रोचक नवाचारी बातचीत  विज्ञान वेत्ता के मन की ही उपज हो सकती थी.

पुराने प्रतीको को नये बिम्बों में ढ़ालकर,  मुहावरो और कथानको में गूंथकर मजेदार तिलिस्म उपस्थित करते आषीश जी पराजय के निहितार्थ में लिखते है ” कछुये को आगे कर खरगोश ने राजनीति पर नियंत्रण कर लिया है,  कछुआ जहां था वहीं है,  वह वही कहता और करता है जो खरगोश चाहता है ” वर्तमान कठपुतली राजनीति पर उनका यह आब्जरवेशन अद्भुत है. जिसकी सिमली पाठक कई तरह से ढ़ूंढ़ सकता है. हर पार्टी के  हाई कमान नेताओ को कछुआ बनाये हुये हैं,  महिला सरपंचो को उनके पति कछुआ बनाये हुये हैं,  रिजर्व सीटों पर पुराने रजवाड़े और गुटो की खेमाबंदी हम सब से छिपी नही है,  पर इस शैली में इतना महीन कटाक्ष दशोत्तर जी ही करते दिखे.

शब्द बाणों से भरे हुये चालीस ताकतवर तरकश लिये यह एक बेहतरीन संग्रह है जिसे मैं खरीदकर पढ़ने में नही सकुचाउंगा. आप को भी इसे पढ़ने की सलाह है.

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ माँ की सीख ☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

(आज  प्रस्तुत है  डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव जी  की एक सार्थक लघुकथा माँ की सीख।  

☆ लघुकथा – माँ की सीख ☆

दुल्हन बनी कविता को दूसरे शहर विदा करते माँ ने कहा था…” बेटा अब ससुराल ही तुम्हारा परिवार है।”

लेकिन कविता ने आते ही अलग घर बसा लिया।

पति के टूर पर जाते ही वो पास पड़ोस की सहेलियों के साथ पार्टियों में मस्त हो जाती क्योंकि उसे सहेलियां बनाने का बड़ा क्रेज था ।

लॉक डाऊन की एक शाम सीढ़ियों से पैर फिसला होश अगले दिन हॉस्पिटल में आया ।

नर्स बोली..” बहुत खून निकला सिर से, कई टांके आए हैं तुम्हारे सास ससुर ननद देवर कल से यही है तुम्हारे पास है।”

सास बोली…”यह तो अच्छा हुआ बेटा तुम्हारी बाजू वाली सहेली ने अपने छत से तुम्हे गिरते देख लिया था तो हम लोगों को फोन कर दिया।

कविता ने आंखें बंद कर ली और सोचा माँ की जिस सीख पर मैंने ध्यान नहीं दिया था।

कोरॉना ने एहसास दिला दिया कि अपना परिवार हर हाल में अपना होता है।

© डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

मो 9479774486

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature ☆ Weekly Column – Abhivyakti # 26 ☆ Barricades ….. ☆ Hemant Bawankar

Hemant Bawankar

(All of the literature written by me was for self satisfaction. Today, I present my contemporary poem ‘Barricades …..’. .))

☆ Weekly Column – Abhivyakti # 26 

☆  Barricades ….. ☆

Barricades are erected on the road of life.

Experienced senior guards are vigilant

to regulate the speed of life

 

Sometimes some vehicles break

barricades and signals.

Sometimes someone bounces

stones of insensitivity

to spoil the non-violent atmosphere.

Then – power and forces are applied;

the lawmaker is bigger than persuader.

 

Why did you erect

so many barricades of

caste, religion, and sect.

Some barricades were erected

in our mind by us.

Some barricades were erected

by benefactors and you.

Often, we become puppets.

Then challans of negativity

are kept cut lifelong.

 

Hopefully!

You can remove barricades to see across

A positive life

A new dawn

A new sunrise.

 

© Hemant Bawankar

Pune

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 75 ☆ टेन्शन काय यायचं ? ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 75 ☆  टेन्शन काय यायचं ? ☆

समोर येईल ते खायचं

आणि गप्प राहायचं

वय झालं वेड्या तुझं

टेन्शन काय घ्यायचं ?

 

संसाराच्या डबक्यात

नाही तू बुडायचं

लग्न असो बारसं असो

गप्प बसून राहायचं

 

लक्ष देतो तुझ्याकडं

कोण इथं फारसं

कष्टानं घेतलेल्या

कौतुक नको कारचं

 

धोतर झालं जुनं आता

विरळ ते व्हायचं

उलटून गेली साठी आता

गाठी मारत जायचं

 

घरी नको अडचण

देवळात बसायचं

एकच काम तुला आता

रामनाम घ्यायचं

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

ashokbhambure123@gmail.com

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ घरोघर ईश्वर…☆ प्रा. सौ. सुमती पवार

प्रा. सौ. सुमती पवार

☆ कवितेचा उत्सव ☆ घरोघर ईश्वर… ☆ प्रा. सौ. सुमती पवार ☆ 

कुंदकळ्या सांडती मुखातून, जेंव्हा बोलते लेक

लडिवाळ किती तीअसते पहा, नजरेची तिच्या ती फेक..

डाळिंबाचे दाणे दात हो, नजरेतून ती सुमने

पाहता क्षणीच जिंकून घेते, साऱ्यांचीच ती मने..

 

आभाळातील जणू चांदणी, उतरून येते घरी

निळ्या नभातील चंद्रकोर ती, कोमल सुंदर परी

मायेचे ते कोंदण असते, भरजरी रेशमी शाल

जणू लक्षुमी घराघरातील, करते मालामाल…

 

नक्षत्रे नि तारे सारे, तिच्या पुढे हो लटके

छुन छुन पायी चाळ वाजवत,पहा कशी ती मटके

आनंदाचा असतो ठेवा, प्रसन्न असतो वारा

सुगंधित ती करून टाकते, घर नि परिसर सारा…

 

बागडते नाचते नि गाते, बनून जाते माय

जणू तापल्या दुधावरील ती, स्निग्ध मायाळू साय

लळा लावूनी जाते निघूनी, सावरण्या परघर

तुटत नाही माया तरीही, जरी राहते दूर….

 

जीव गुंततो माहेरी पण, गृहलक्ष्मी सासरची

प्रतीमाता ती … पाठवतो हो …

घरोघर ईश्वर …ती …

 

© प्रा.सौ.सुमती पवार ,नाशिक

दि:१४/०९/२०२०, वेळ:सकाळी :०९:४३

(९७६३६०५६४२)

svpawar6249@gmail.com

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – जीवन रंग ☆ कथा- निरागस भाग-२ ☆ सौ. सुनिता गद्रे

☆ जीवन रंग ☆ कथा- निरागस भाग-२ ☆ सौ. सुनिता गद्रे ☆ 

पाच नंबरचा बंगला आला की म्हणायची, “आजी थांब इथं.” कंपाउंड मधून आत बघत आज किती रॅबिट दिसत आहेत. ते मोजायची 3…5..7.” बघून पुढं निघालं की एका बंगल्यात पक्षांचे पिंजरे-घर दिसायचं… तसच पुढं गेलं की एका ठिकाणी बोट दिसायची. पिसं, पानं-फुलं गोळा करत त्यांचं फिरणं चालू असायचं. एका ठिकाणी वेगळ्या जातीची गलेलठ्ठ मांजरी दिसायची. कधीतरी ती दिसली नाही तर फिस्-फिस्-फिस् करून बोलावलं जायचं.

‘आपण पण ती बरोबर असल्यामुळे बालपणात शिरलोय’ शरयुताई विचार करायच्या.

मुख्य स्वयंपाक संध्याकाळीच. त्याची जबाबदारी शरयू ताईंनी अंगावर घेतली होती. संध्याकाळी दोघं कामावरून दमून यायची आल्या-आल्या छान छान पदार्थ वेगळ्यावेगळा मेनू!सगळी मनापासून त्याचा आस्वाद घ्यायची.

हर्षदा ला सकाळी शाळेत सोडून त्या थोडं फिरायला जायच्या. ते पण रेल्वे स्टेशनच्या रस्त्याला. चार माणसं तरी जाता-येताना दिसायची. नाही तर रस्त्यावर नुसता शुकशुकाट! पण कोणी अनोळखी जरी समोर दिसलं तरी ‘विश’ केलं जायचं. गोरी, भुरी,काळी सगळीजणच असं करायची. त्यांनीही मोठी हिंमत करून ‘विश’ करायला सुरुवात केली. एक सरदारजी कुटुंब, एक गुजराती बा, एक बांगलादेशी औरत, एक फिजी इंडियन महिला. सगळ्यांशीच त्यांची ओळख झाली.गप्पा सुरू झाल्या.

आपण परदेशात राहतोय हे त्या विसरूनच गेल्या.

एकदा संध्याकाळी हर्षदा ला घेऊन त्या एका बागेत गेल्या होत्या. घसरगुंडी, झोपाळ्यावर तीचं खेळणं चालू होतं. तिथं ती फिजी इंडियन-संगीता-आपल्या मुलांना घेऊन आली होती. मुलं खेळत होती आणि त्या दोघी गप्पा मारत होत्या. फीजींची भाषा हिंदीच असते पण उच्चारात थोडा फरक,  त्यामुळे शरयू ताईंना काही अवघड वाटले नव्हते. हर्षदा ते पहात होती. परत येताना रस्त्यात सरदारजी फॅमिली भेटली. “सत् श्रीअकाल” विश करुन थोड्याशा गप्पा सुरू झाल्या.

पुढे गेल्यावर हर्षदा त्यांना समजावण्याच्या सुरात सांगू लागली, “आजी फक्त मराठी लोकांशी बोलायचं. इतर कोणी इंग्लिश, फ्रेंच बोलत असलं ना तर त्यांच्याशी नाही बोलायचं. आईनंच मला सांगितलय. ती अंकल आणि ऑंटी मराठी होती का?”

“अगं बाई नाही. पण ती इंडियन होती ना. ती लोकं हिंदीत बोलत होती गं, आईला विचार ती पण सांगेल की हिंदी लोकांशी आपण बोलू शकतो म्हणून. “त्यांनी तिला समजावलं. घरी गेल्यावर त्यांनी खात्री करून घेतली.

“हो ग आई. “ज्योती म्हणाली. नंतर मोठे झाल्यावर बाहेरच्या जगाशी संपर्क आला की मुलांना इंग्लिश येईल पण मातृभाषा नाही ना येणार. म्हणून इकडे छोट्या शाळेत पण जोर देतात की घरात तुम्ही मुलांबरोबर मातृभाषेतच बोला. त्यामुळे हर्षुला बघ ना ,मराठी शिवाय इतर भाषा बोलता येत नाही. इंग्लिश थोडीशी समजते बस्स्. शिवाय इकडच्या मुलांचे संस्कार आणि आपले संस्कार यात फरक पडतो.समजा ती तीन-चार मुलं असली आणि आपलं एकटंच असलं तर ती फार आगाऊपणानं वागतात, दादागिरी करतात. म्हणून आम्ही आपलं सांगतो. फक्त आपल्या लोकांशी बोलायचं. इकडच्या लोकांना कसलाच रिस्पॉन्स द्यायचा नाही म्हणून…..बरं झालं बाई तुझी हिंदी भाषिकांची ओळख झाली ते. आता सहा महिने कसे जातील कळणार ही नाही” ती पुढे म्हणाली.

आजी नातीचं संध्याकाळी फिरायला जाणं मध्ये मध्ये गॅप पडत असली तरी चालूच होतं.

एक दिवशी शरयू ताई ज्योतीला सांगू लागल्या, “काय ग बाई आपलं हे पिल्लू !ते देशपांडे आजी-आजोबा भेटले होते. माझ्याशी बोलत होते. हिला किती प्रेमाने काही विचारत होते ,तर पठ्ठी चक्क पाठ करून उभी राहिली. त्यांच्याशी एक अक्षर पण बोलली नाही.

“हर्षु का ग बोलली नाहीस आजी आजोबांबरोबर” ज्योतीनं विचारलं.

“मला ना त्या दोघांची भीती वाटली” हर्षदाने सांगितले.

प्रकाश पण तिथेच होता. सासुबाईना दुजोरा देत तो म्हणाला “फार बेकार मुलगी आहे आई ही. मध्यंतरी एकदा आमच्या क्लबची क्रिकेट मॅच पाहायला तिला घेऊन गेलो होतो. तिथं माझा मित्र विथ-फॅमिली आला होता. हिनं साधा हाय-हॅलो पण केला नाही. ते हिचा फोटो काढायला लागले तर हाताने चेहरा झाकून टाकला हिने. आगावू कुठली!”

“आई अगं हीचं लाईक डिस् लाइकच फार जास्त आहे. कपडे, खेळणी, खाणं-पिणं आणि माणसं सगळ्यात तिची वेगळी त-हाचअसते.” ज्योती म्हणाली.

“असु दे. लहान आहे अजून. असतं एखादं  मुल लहरी.” हर्षुला जवळ घेत त्या म्हणाल्या.

क्रमशः…..

© सौ. सुनिता गद्रे,

माधव नगर, सांगली मो – 960 47 25 805

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ लाखेच्या किड्याची  शरीर रचना (भाग २) ☆ सौ. दीपा नारायण पुजारी

सौ. दीपा नारायण पुजारी

☆ विविधा ☆ लाखेच्या किड्याची  शरीर रचना (भाग २) ☆ सौ. दीपा नारायण पुजारी

आजच्या भागात जाणून  घेऊया  लाखेच्या  किड्याची शरीर रचना.  लाखेच्या  किड्यात नरकिडा आणि मादी किडा अशी दोन लिंगे असतात.  नर  आणि   मादी  लाख किड्यांच्या  बाह्य  शरीर  रचनेत,  आकारमानात  आणि  काही  अवयवांमध्ये फरक असतो.  नर लाख किडा  हा आकारान मोठा आणि  लाल रंगाचा  असतो.  शरीराचे  डोके, वक्ष आणि  उदर असे  भाग  होतात.  डोक्याला स्पर्शिकांची (जशा झुरळाला असतात.) एक  जोडी  आणि  डोळ्यांची एक  जोडी  असते.  या किड्याला मुखांगे (हे असे अवयव असतात जे अन्न ग्रहण करण्यास आवश्यक असतात.) नसतात. त्यामुळं  हा नर लाख किडा  खाऊ  शकत नाही. वक्षाच्या खालील  बाजूस तीन पायांच्या  जोड्या  असतात.  पंख असतातच  असं  नाही.  उदर हा शरीराचा  सर्वात  मोठा  भाग  असतो.   उदराच्या पश्च  टोकाला पुरुषांचे जननेंद्रिय असते.  आता जाणून घेऊया मादी लाख किडा कोणती  वैशिष्टे  दाखवितो. मादी  शरीराने लहान असते.  तिच्याही डोक्याला  स्पर्शिकांची एक  जोडी  असते.  तशीच  एक  सोंडही असते.  मादी लाख किड्याला डोळे  नसतात. मादी लाख किड्याला पंख  आणि  पायही नसतात. यामागचं  कारण ही तसंच  मजेशीर  आहे.  मादी अळी एकदा  एका  जागी स्थिर  झाली  की मुळी सुद्धा हलत नाही. वापर न झाल्यामुळं तिचे पाय आणि  पंख दोन्ही  नष्ट  होतात.  युज अँड डिसयुज हे उत्क्रांतितत्त्व  इथं  सिद्ध  झालेलं  दिसतं. या मादी लाख किड्यापासून आपल्याला लाखेचं उत्पादन  मिळते.

आता  आपण  लाखेच्या  किड्याचे जीवनचक्र  कसे असते  हे बघू.  या किड्याच्या जीवनचक्रात अनेक अवस्था  दिसून  येतात. जसं १ डिंभ, २ नर लाक्षाकोष्ठ, ३ मादी  लाक्षाकोष्ठ, ४.पंखहीन प्रौढ नर, ५. पंखयुक्त प्रौढ नर, ६. प्रौढ  मादी, ७. पक्व मादी  लाक्षाकोष्ठ आणि  ८. झाडाच्या  फांद्या वरील  लाखेचा थर.

सूक्ष्म, नावेसारख्या आकाराच्या  लाल रंगाच्या  डिंभापासून या किड्याच्या  जीवनचक्रास सुरुवात  होते.  डिंभाची लांबी शून्य  पॉइंट  पाच मिमी. आणि  रुंदी शून्य  पॉइंट  पंचवीस मिमी. असते.  एक  निकोप  मादी  तीनशे  ते एक हजार डिंभांना जन्म  देते.  डिंभ ही स्वतंत्रपणे  अन्न  मिळवून जगणारी  अवस्था  असं  म्हणता  येईल.  डिंभाचं प्रौढ किड्याशी साम्य  नसते.  (सोयीसाठी इथून पुढे डिंभाचा उल्लेख अळी असा केला आहे)ज्या झाडांवर   या अळ्या वाढतात त्या; म्हणजेच आश्रयी वृक्षांच्या रसाळ, कोवळ्या डहाळ्यांवर त्या  स्थिरावतातही.  आपली सोंड सालीत खुपसून अन्नरस शोषून  घेतात. त्या दाट रेझीनयुक्त द्रव स्त्रवतात. त्या स्त्रावाने त्यांचे  शरीर  आच्छादले जाते.  हा स्त्राव अळ्यांच्या उपत्वचेखाली असणार्‍या ग्रंथींमधून  स्त्रवला जातो. फक्त मुख, दोन  श्वासरंध्रे, आणि  गुदद्वार या भागांवर लाख स्त्रवणार्‍या ग्रंथी नसतात.  अळी अशारितीने  स्वत:च्या स्त्रावाने बनलेल्या कोष्ठाच्या आवरणामध्ये बंदिस्त  होते.  काही  काळानं  सर्व  अळ्यांचा स्त्राव एकरुप होतो. त्यामुळं  डहाळीवर एक  टणक  अखंड  थर तयार  होतो. (त्याच किड्यांचं  जीवनचक्र  पूर्ण  झाल्यावर  आणि  पुढच्या  पिढीतील डिंभ बाहेर  पडण्यास सुरुवात  होण्याच्या  वेळेला  डहाळ्या  कापून  घेतात, वाळवितात  आणि  लाख मिळवण्याची प्रक्रिया  करतात.)

 

संकलन व लेखन

© सौ. दीपा नारायण पुजारी

इचलकरंजी

मो.नं. ९६६५६६९१४८

Email:  deepapujari@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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