हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 28 ☆ कुमाऊं ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जीसुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “कुमाऊं”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 28☆

☆ कुमाऊं

जुलाई में जब बादल फूटा था-

हर तरफ बेबसी का आलम था,

एहसास पानी के आवेग में डूब रहे थे,

भावों का नाम-ओ-निशाँ नहीं था,

ख्वाहिशें लाश की तरह टपक रही थीं|

 

कुछ महीनों बाद

बेबसी को सब भूल चुके थे,

एहसास फिर उभर आये थे,

और ख्वाहिशों का भी जनम हो चुका था-

हर तरफ ख़ुशी झरनों सी फूट रही थी!

 

ऐसा लगता था जैसे सब

भूल चुके हैं

जुलाई की वो शाम,

पर जिसने देखा था उसे

या जिसने महसूस किया था उसे,

उसका दिल पथरा चुका था

और शायद आंसू भी सूख चुके थे-

एक अजब सी खामोशी थी

जो हौले हौले उसे बनाती जा रही थी

जीती-जागती लाश!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सृजन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – सृजन 

मेरे लिखे पर

इतना निहाल मत होना

कि सृजन ही ठहर जाए,

माना कि

तुम्हारा यूँ मुग्ध होना

मुझे अच्छा लगता है

पर प्राण के बिना भला

कौन जी सकता है..?

 

रात्रि 8.22 बजे, 23.2.20

©  संजय भारद्वाज

(कविता संग्रह ‘चेहरे’ से ली गई एक रचना।)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य 0अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 8 ☆ संस्कार और विरासत ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा। अब आप प्रत्येक मंगलवार को मेरी रचनाएँ पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है मेरी एक प्रिय कविता कविता “संस्कार और विरासत”।)

मेरा परिचय आप निम्न दो लिंक्स पर क्लिक कर प्राप्त कर सकते हैं।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 8

☆ संस्कार और विरासत ☆

 

आज

मैं याद करती हूँ

दादी माँ की कहानियाँ।

राजा रानी की

परियों की

और

पंचतंत्र की।

 

मुझे लगता है

कि

वे धरोहर

मात्र कहानियाँ ही नहीं

अपितु

मुझे दे गईं हैं

हमारी संस्कृति की अनमोल विरासत

जो ऋण है मुझपर।

 

जो देना है मुझे

अपनी अगली पीढ़ी को।

 

मुझे चमत्कृत करती हैं

हमारी संस्कृति

हमारे तीज-त्यौहार

उपवास

और

हमारी धरोहर।

 

किन्तु,

कभी कभी

क्यों विचलित करते हैं

कुछ अनुत्तरित प्रश्न ?

 

जैसे

अग्नि के वे सात फेरे

वह वरमाला

और

उससे बने सम्बंध

क्यों बदल देते हैं

सम्बंधों की केमिस्ट्री ?

 

क्यों काम करती है

टेलीपेथी

जब हम रहते हैं

मीलों दूर भी ?

 

क्यों हम करते हैं व्रत?

करवा चौथ

काजल तीज

और

वट सावित्री का ?

 

मैं नहीं जानती कि –

आज

‘सत्यवान’ कितना ‘सत्यवान’ है?

और

‘सावित्री’ कितनी ‘सती’?

 

यमराज में है

कितनी शक्ति?

और

कहाँ जा रही है संस्कृति?

 

फिर भी

मैं दूंगी

विरासत में

दादी माँ की धरोहर

उनकी अनमोल कहानियाँ।

 

उनके संस्कार,

अपनी पीढ़ी को

अपनी अगली पीढ़ी को

विरासत में।

 

18 जून 2008

© हेमन्त बावनकर

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हिन्दी साहित्य ☆ पुस्तक विमर्श #7 – स्त्रियां घर लौटती हैं – “विवेक अभिव्यक्ति के लिए नितान्त भिन्न तरह से करना चाहते हैं” – श्री लीलाधर जगूडी ☆ श्री विवेक चतुर्वेदी

पुस्तक विमर्श – स्त्रियां घर लौटती हैं 

श्री विवेक चतुर्वेदी 

( हाल ही में संस्कारधानी जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी का कालजयी काव्य संग्रह  स्त्रियां घर लौटती हैं ” का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली में संपन्न हुआ।  यह काव्य संग्रह लोकार्पित होते ही चर्चित हो गया और वरिष्ठ साहित्यकारों के आशीर्वचन से लेकर पाठकों के स्नेह का सिलसिला प्रारम्भ हो गया। काव्य जगत श्री विवेक जी में अनंत संभावनाओं को पल्लवित होते देख रहा है। ई-अभिव्यक्ति  की ओर से यह श्री विवेक जी को प्राप्त स्नेह /प्रतिसाद को श्रृंखलाबद्ध कर अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास है।  इस श्रृंखला की चौथी कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं  श्री गणेश गनीके विचार “विवेक अभिव्यक्ति के लिए नितान्त भिन्न तरह से करना चाहते हैं ” ।)

अमेज़न लिंक >>>   स्त्रियां घर लौटती हैं

☆ पुस्तक विमर्श #7 – स्त्रियां घर लौटती हैं – “विवेक अभिव्यक्ति के लिए नितान्त भिन्न तरह से करना चाहते हैं ” – श्री लीलाधर जगूडी ☆

 

कविता संग्रह ‘स्त्रियां घर लौटती हैं’ पर हिन्दी के वरिष्ठ कवि व्यास सम्मान से सम्मानित  श्री लीलाधर जगूडी जी की टिप्पणी…

विवेक चतुर्वेदी की कविता में सबसे अच्छी बात जो मुझे लगी वह यह कि वे  भाषा का प्रयोग सहसा  अपनी अभिव्यक्ति के लिए नितान्त भिन्न तरह से करना चाहते हैं और उस भाषा के लिए वे निरंतर अपनी संवेदना को तराशते प्रतीत होते हैं वे अकथ के लिए कोई  कथनीय सौंदर्य गढ़ना चाहते हैं तभी तो ‘रात के रफूगर’ और ‘धूप की खीर’ जैसी उक्ति उनकी कविता में पैदा हो सकी है

‘पिता’ कविता में घर के भीतर खंटता- बंटता पिता का प्रेम अनायास उठता है और मुंडेर पर पीपल की तरह फैल जाता है जैसे पिता का छतनार होना ही मुक्ति का उद्घोष हो लेकिन विडम्बना का बिम्ब देखिए जो पिता अम्मा के लिए कनफूल नहीं ला सका वो चुपके से क्यारी में अम्मा की पसंद के फूल खिलाता रहा है

‘मेरे बचपन की जेल’ कविता के पात्र जेल में अच्छा नागरिक नहीं जेलर की नजर में अच्छा कैदी बनने में लगे हैं इस कविता में आए बिम्ब लगभग थर्रा देते हैं यह पृथकता उनकी हर कविता में दिखती है

अभी उनकी कविताओं में कहानी जैसे कथानक ज्यादा हैं और वे कविता की निज भाषा खोजने- संवारने में जुटे लगते हैं मेरी शुभकामनाएं हैं कि वे  कविता में काव्य तत्व की और दायित्वपूर्ण सरल भाषा की खोज कर सकें।

                                                    – लीलाधर जगूडी

 

© विवेक चतुर्वेदी, जबलपुर ( म प्र ) 

ई-अभिव्यक्ति  की ओर से  युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी को इस प्रतिसाद के लिए हार्दिक शुभकामनायें  एवं बधाई।

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #38 – जरीचे धागे ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता “जरीचे धागे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 38☆

☆ जरीचे धागे ☆

 

उभ्या आडव्या धाग्यांमधली सुंदर नक्षी

कधी मोर तर कधी साजरा दिसतो पक्षी

 

अशी पैठणी पदरावरती मोर नाचरा

पदर पिसारा स्थिरावलेला माझ्या वक्षी

 

कधी जरीचे धागे असती बुट्यांवरती

मोल तयांचे भरून आहे माझ्या चक्षी

 

जन्मा येता वस्त्राशी या जडते नाते

धडपड असते वस्त्रासाठी येथे अक्षी

 

वस्त्र हरण हे करणारे तर घरचे होते

श्रीकृष्णाचा धावा करता लज्जा रक्षी

 

या झेंड्याचे प्राणपणाने करतो रक्षण

तुझ्याचसाठी मनात श्रद्धा तू तर बक्षी

 

रक्षण करते देहाचे या वस्त्र जरी हे

त्याच्या खाली मांस शोधती हे नरभक्षी

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 27 ☆ व्यंग्य संग्रह – मुर्गे की आत्मकथा – श्री अजीत श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  श्री अजीत श्रीवास्तव जी  के  व्यंग्य  संग्रह  “ मुर्गे की आत्मकथा  ” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 27☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य संग्रह  –  मुर्गे की आत्मकथा 

पुस्तक – मुर्गे की आत्मकथा (व्यंग्य  संग्रह)

लेखक – श्री अजीत श्रीवास्तव

प्रकाशक –अयन प्रकाशन , नई दिल्ली

मूल्य २५० रु , पृष्ठ १२८, हार्ड बाउंड

☆ व्यंग्य संग्रह   – मुर्गे की आत्मकथा  – श्री अजीत श्रीवास्तव –  चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव

किताबें छप तो बहुत रही हैं, किन्तु पढ़ी बहुत कम जा रही हैं. मेरा प्रयास है कि कम से कम पुस्तकों के कंटेंट की कुछ चर्चा होती रहे,  जिस पाठक को रुचि हो वह जानकारी के आधार पर पुस्तक ढ़ूंढ़कर पढ़ सके. आप सब के फीड बैक से इस प्रयास के सुपरिणाम परिलक्षित होते दिखते हैं तो नई ऊर्जा मिलती है. अनेक लेखक व प्रकाशक अपनी पुस्तकें इस हेतु भेज रहे हैं, कई कई पाठको की प्रतिक्रियायें मिल रही हैं .

इसी क्रम में मुर्गे की आत्मकथा व्यंग्य उपन्यासिका मिली. दरअसल पुस्तक में एक नही दो लघु व्यंग्य उपन्यासिकायें हैं. पहली राजनीति के योगासन है. राजनीति प्रत्येक व्यंग्यकार का सर्वाि प्रिय कच्चामाल है. अजीत श्रीवास्तव जी ने राजनीति के योगासन में  र आसन राशन, भ आसन भाषण, अश्व आसन आश्वासन, करजोड़ासन, पदासन, शासन, निष्कासन, पुनरागमनआसन, चमचासन, कुर्सियासन, सिंहासन, वगैरह वगैरह शब्दों की विशद विवेचना करते हुये हास्य, व्यंग्य के संपुट के साथ नवाचार किया है. यह रोचक शैली पठनीय है.

इसी क्रम में एक मुर्गे की आत्मकथा, में मुर्गे को प्रतीक बना कर बिल्कुल नई शैली मे समाज की विद्रूपताओ पर मजेदार कटाक्ष किये गये हैं. समाज में हर कोई दूसरे को मुर्गा बनाने में जुटा हुआ है, ऐसे समय में यह उपन्यासिका वैचारिक पृष्ठभूमि निर्मित करती है. अजीत जी पुरस्कृत, वरिष्ठ व्यंग्यकार हैं, पेशे से एड्वोकेट हैं,  उनका कार्यक्षेत्र बड़ा है, लेखन दृष्टि परिपक्व है, अभिव्यक्ति की सशक्त नवाचारी क्षमता रखते हैं, किताब पढ़कर ही सही मजे ले पायेंगे . आपकी उत्सुकता जगाना ही इस चर्चा का उद्देश्य है.

चर्चाकार … विवेक रंजन श्रीवास्तव  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 37 – लघुकथा – ममता ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  एक अनुकरणीय, प्रेरक  एवं मार्मिक लघुकथा  “ममता’”।  विधि की यह  कैसी विडम्बना है कि-  एक माँ  अपनी ममता को कुचलकर अपने बच्चे को कूड़े के ढेर में फेंक देती है  तथा दूसरी ओर एक  माँ  अपने हृदय में अपार ममता लिए एक बच्चे के लिए तरस जाती है।  श्रीमती सिद्धेश्वरी जी  की यह लघुकथा समाज के ऐसे  लोगों को आइना दिखाती है । यह  भावुक एवं मार्मिक लघुकथा  भी सहज ही हमारे नेत्र नम कर देती है। श्रीमती सिद्धेश्वरी जी  ने  मनोभावनाओं  को बड़े ही सहज भाव से इस  लघुकथा में  लिपिबद्ध कर दिया है ।इस अतिसुन्दर  लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई। 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 37 ☆

☆ लघुकथा – ममता 

बच्चों वाला अस्पताल, हमेशा भीड़ भाड़। छोटे-बड़े बच्चों से भरा वार्ड। किसी की हालत बहुत नाजुक तो कोई रो रो परेशान। कुल मिलाकर सभी माँ पिता जी और उनका परिवार, सभी परेशान। कुछ चिड़चिड़ाते गुस्सा करते नजर आते कि ठीक से संभाल नहीं सकती हो।

पीछे गटर और कचरे का ढेर। शायद अनुमान नहीं लगा सकते कि कितनी गंदगी फैली रहती है। सफाई कर्मचारी साफ सफाई कम निर्देश ज्यादा देते नजर आते हैं।

ऐसे ही एक महिला कर्मचारी आया बाई ‘माया’ जो बहुत ही शांत स्वभाव की। सभी का काम करती और सभी बच्चों को बहुत ध्यान से बहला फुसलाकर दवाई देने व इंजेक्शन लगवाने में मदद करती थी। सभी उसकी काम की तारीफ करते।

माया नाम था उसका। सच में ममता और माया से परिपूर्ण थी। परंतु उसकी अपनी कहानी बहुत दुखद थी। पति हमेशा इसलिए लड़ाई-झगड़ा करता था कि “तुम्हारे बच्चे नहीं हो रहे हैं”। इसलिए वह पति को छोड़ चुकी थी और बच्चे वाले वार्ड में अपने जीवन यापन करने के लिए काम कर अपना मन बहलाती थी और पति से अलग रहने लगी थी।

कुछ समय बाद एक ठंड से ठिठुरती रात में पीछे कचरे के ढेर से हल्की हल्की सी रोने की आवाज आ रही थी। जैसे कोई पिल्ला रो रहा हो। सभी ने सोचा कुत्ते का बच्चा ठंड से रो रहा होगा। परंतु माया रात पाली में ड्यूटी कर रही थी। उससे रहा नहीं गया। वह वाचमेन को उठाकर कचरे के ढेर के पास जा पहुंची। टार्च की रोशनी से देख ढूंढने लगी।

उसने देखा कि एक नन्हीं सी जान – एक मासूम बच्ची जिसके शरीर पर कपड़ा भी नहीं था। कचरे के ढेर में पड़ी है और उसी के रोने की आवाज आ रही थी। शरीर पर चोट के निशान थे। माया की ममता फूट पड़ी। तुरंत ही उसने, उसे निकाल कर छाती से लगाया और बदहवास सी डॉक्टर की केबिन की ओर दौड़ पड़ी।

कब उसने दो मंजिल तय कर ली उसे पता ही नहीं चला। डॉक्टर ने पूछताछ शुरू की माया रोने लगी “मेरी बच्ची को बचा लीजिए… मेरी बच्ची को बचा लीजिए.. डॉक्टर साहब मेरी बच्ची को बचा लीजिए“। डॉ ने उसकी स्थिति को देखकर तुरंत इलाज शुरु कर दिया जिससे बच्ची खतरे से बाहर हो गई।

माया तो जैसे इसी दिन का इंतजार कर रही थी। उसने डाक्टर साहब से कई कई बार कहा “डॉक्टर साहब इस बच्ची पर सिर्फ मेरा अधिकार है, आप समझ रहे हो ना, सिर्फ मेरा अधिकार है, आप साक्षी हैं मैंने इसे कचरे के ढेर से पाया है, इस पर सिर्फ मेरा अधिकार है”।

डॉक्टर साहब भी मां की ममता के आगे विवश थे। उसने पुलिस के हस्तक्षेप के बाद उस बच्ची का माता का नाम” माया” लिख दिया और पक्की मोहर लगा दी। माया की वर्षों की सेवा सफल हो गई। उसकी गोद में नन्हीं बिटिया मिल गई। अब वह बांझ नहीं कहलाएगी।  अब वह एक बच्चे की मां बन चुकी थी ।  बिटिया को सीने से लगाए आज इस दुनिया में सबसे सुखी इंसान थी। कभी वह अपने को और कभी अपनी बिटिया को देखते-देखते  बार-बार आंखों से आंसू गिरा रही थी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

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हिन्दी साहित्य- कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

आचार्य सत्य नारायण गोयनका

(हम इस आलेख के लिए श्री जगत सिंह बिष्ट जी, योगाचार्य एवं प्रेरक वक्ता योग साधना / LifeSkills  इंदौर के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के महान कार्यों से अवगत करने में  सहायता की है। आप  आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के कार्यों के बारे में निम्न लिंक पर सविस्तार पढ़ सकते हैं।)

आलेख का  लिंक  ->>>>>>  ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी 

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆  कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

(हम  प्रतिदिन आचार्य सत्य नारायण गोयनका  जी के एक दोहे को अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे, ताकि आप उस दोहे के गूढ़ अर्थ को गंभीरता पूर्वक आत्मसात कर सकें। )

आचार्य सत्यनारायण गोयन्का के दोहे बुद्ध वाणी को सरल, सुबोध भाषा में प्रस्तुत करते है. प्रत्येक दोहा एक अनमोल रत्न की भांति है जो धर्म के किसी गूढ़ तथ्य को प्रकाशित करता है. विपश्यना शिविर के दौरान, साधक इन दोहों को सुनते हैं. विश्वास है, हिंदी भाषा में धर्म की अनमोल वाणी केवल साधकों को ही नहीं, सभी पाठकों को समानरूप से रुचिकर एवं प्रेरणास्पद प्रतीत होगी. गोयन्काजी ने स्वयं इन दोहों को सबको समर्पित  करते हुए कहा है:

न तेरे!

न मेरे!

ये दोहे धरम के!

काम आयें सबके!

मैल काटें मन के!

साभार प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

Please feel free to call/WhatsApp us at +917389938255 or email [email protected] if you wish to attend our program or would like to arrange one at your end.

Our Famentals:

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga.  We conduct talks, seminars, workshops, retreats, and training.

Email: [email protected]

Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer

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आध्यात्म/Spiritual ☆ श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – दशम अध्याय (32) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

दशम अध्याय

(भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का कथन)

 

सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन ।

अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम्‌॥

 

आदि,मध्य औ” अंत हूँ सकल सृष्टि का पार्थ!

विद्या में अध्यात्म हूँ वाचालों में वाद।।32।।

      

भावार्थ :  हे अर्जुन! सृष्टियों का आदि और अंत तथा मध्य भी मैं ही हूँ। मैं विद्याओं में अध्यात्म विद्या अर्थात्‌ ब्रह्मविद्या और परस्पर विवाद करने वालों का तत्व-निर्णय के लिए किया जाने वाला वाद हूँ।।32।।

 

Among creations I am the beginning, the middle and also the end, O Arjuna! Among the sciences I am the science of the Self; and I am logic among controversialists. ।।32।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

आचार्य सत्य नारायण गोयनका

(हम इस आलेख के लिए श्री जगत सिंह बिष्ट जी, योगाचार्य एवं प्रेरक वक्ता योग साधना / LifeSkills  इंदौर के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के महान कार्यों से अवगत करने में  सहायता की है।) 

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆  ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका ☆ 

आचार्य सत्य नारायण गोयनका  ने बुद्ध की ध्यान विधि विपश्यना को शुद्धतम रूप में सारे विश्व में पहुँचाया. उनके इस अमूल्य योगदान के लिए सम्पूर्ण मानवता उनकी हमेशा ऋणी रहेगी.

विपश्यना बुद्ध द्वारा सिखाई गयी ध्यान की महत्वपूर्ण विधि है. बुद्ध के परिनिर्वाण के पश्चात ५०० वर्ष तक उनकी वाणी और प्रयोगात्मक शिक्षा विपश्यना शुद्ध रूप में कायम रही. उसके बाद धीरे-धीरे वह क्षीण होते होते भारत से पूर्णत: लुप्त हो गयी. बाहर के कुछ देशों में बुद्ध की केवल वाणी कायम रही. लेकिन विपश्यना विद्या केवल बर्मा (अब म्यान्मार) में बहुत थोड़े से लोगों में कायम रखी गयी.

आचार्य सत्य नारायण गोयनका  का जन्म बर्मा देश के मांडले शहर में २९ जनवरी १९२४ को  हुआ. उन्होंने कम उम्र में ही अनेक वाणिज्यिक और औद्योगिक संस्थानों की स्थापना की और खूब धन अर्जित किया. वर्ष १९५५ में .गोयनका जी माइग्रेन के सिरदर्द से बहुत दुखी हुए विशेषकर इस दर्द को दूर करने के लिए जो मॉर्फिन के इंजेक्शन  दिए जाते थे उनसे बहुत पीड़ित हुए. तब डॉक्टरों की सलाह पर वे सारे विश्व के बड़े बड़े देशों के प्रसिद्ध डॉक्टरों से इलाज कराने गए लेकिन निराशा ही हाथ लगी. उनके एक मित्र ने सुझाव दिया कि उनका यह असाध्य रोग मन से सम्बंधित है और उन्हें मानसिक शांति के लिए विपश्यना ध्यान करना चाहिए.

सयाजी ऊ बा खिन से .गोयनका जी ने विपश्यना विद्या सीखी और १४ वर्षों तक उनके चरणों में बैठकर अभ्यास करने के साथ बुद्धवाणी का भी अध्ययन किया. १९६९ में वो भारत आये और बम्बई (अब मुंबई) में पहला विपश्यना शिविर एक धर्मशाला में आयोजित किया. इसके बाद देश के अनेक स्थानों पर निरंतर शिविर होते रहे. १९७६ में इगतपुरी में पहला निवासीय विपश्यना केंद्र बना. आज सारे विश्व के ९४ देशों में, ३४१ स्थलों पर, जिनमें से २०२ स्थाई विपश्यना केंद्र हैं, १०-दिवसीय विपश्यना शिविर आयोजित किये जाते हैं. सबका संचालन नि:शुल्क होता है. भोजन, निवास आदि का खर्च शिविर से लाभान्वित साधकों के स्वेच्छा से दिए दान से चलता है.

आचार्य सत्य नारायण गोयनका  ने बुद्ध की ध्यान विधि विपश्यना को शुद्धतम रूप में सारे विश्व में पहुँचाया. आज भी विश्व भर में, १०-दिवसीय विपश्यना शिविर समान रूप से, पूर्ण अनुशासन में, संचालित होते हैं. शिविर में १० दिन तक साधक मौन रहकर एक भिक्षु की तरह शील-सदाचार का पालन करते हैं, ध्यान-समाधि का गहन अभ्यास करते हैं और बुद्ध की वाणी से ज्ञान-प्रज्ञा जागते हैं. इससे बेहतर अध्यात्म की कार्यशाला शायद ही कहीं कोई और हो. १० दिन में मानो पूरा जीवन ही बदल जाता है. उनके इस अमूल्य योगदान के लिए सम्पूर्ण मानवता उनकी हमेशा ऋणी रहेगी. भारत ही नहीं, विश्व भर में विपश्यना साधना निर्बाध रूप से बढती चली जा रही है और करोड़ों मानव-मानवी इससे लाभान्वित हुए हैं. ध्यान की यह विद्या सीखने हर संप्रदाय और हर वर्ग के लाखों लोग प्रतिवर्ष आते हैं.

आचार्यजी का व्यक्तित्व अत्यंत मोहक था. एक साधारण मानवी की वेशभूषा, कोई आडम्बर नहीं. चेहरे पर हमेशा मंद-मंद मुस्कान, साधकों के लिए ह्रदय में गहन करुणा भाव लेकिन बाह्य रूप से पूर्णतः अनुशासन-प्रिय. आवाज़ बहुत बुलंद और गहरा प्रभाव डालने वाली. शिविर के दौरान सायंकालीन प्रवचन रोचक प्रसंगों से भरपूर लेकिन कुलमिलाकर धीर-गंभीर और बुद्ध वाणी का सरल भाषा में निचोड़. वैसे भी वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे – साहित्यकार, हिंदी-सेवी, समाज सेवक और उद्योगपति.

विपश्यना द्वारा धर्म-सेवा करने के लिए आचार्य सत्य नारायण गोयनका  को अनेकों विशिष्ट अलंकरणों से सम्मानित किया गया. भारत सरकार ने भारत तथा विश्व में सामाजिक सेवाओं के लिए वर्ष २०११ में  गोयनका जी को पद्मभूषण राष्ट्रीय पुरुस्कार से सम्मानित किया. २९ सितम्बर २०१३ को मुंबई में उनका देहावसान हुआ. हमें लगता है कि आज भी कहीं दूर से, अपनी चिर-परिचित मुस्कान और करुणा-भाव से, हम सबको देखते हुए, वो वही आशीर्वचन कहते होंगे जो प्रत्येक संबोधन के उपरांत अपनी असरदार, जादुई वाणी में गायन कर कहते थे – भवतु सब्ब मंगलम! सबका कल्याण हो! सबका मंगल हो!

प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

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Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
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Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer

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