आध्यात्म/Spiritual ☆ श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – दशम अध्याय (34) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

दशम अध्याय

(भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का कथन)

 

मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम्‌।

कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा ।।34।।

 

सर्वाहारी मृत्यु हूँ हूँ उद्भव की चाह

नारी में वाणी क्षमा कीर्ति स्मृति परवाह।।34।।

 

भावार्थ :  मैं सबका नाश करने वाला मृत्यु और उत्पन्न होने वालों का उत्पत्ति हेतु हूँ तथा स्त्रियों में कीर्ति (कीर्ति आदि ये सात देवताओं की स्त्रियाँ और स्त्रीवाचक नाम वाले गुण भी प्रसिद्ध हैं, इसलिए दोनों प्रकार से ही भगवान की विभूतियाँ हैं), श्री, वाक्‌, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा हूँ।।34।।

 

And I am all-devouring death, and prosperity of those who are to be prosperous; among feminine qualities (I am) fame, prosperity, speech, memory, intelligence, firmness and forgiveness.।।34।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ शहीद ए वतन ☆ कर्नल अखिल साह

कर्नल अखिल साह 

(ई- अभिव्यक्ति में कर्नल अखिल साह जी का हार्दिक स्वागत है। आप एक सम्मानित सेवानिवृत्त थल सेना अधिकारी हैं। आप  1978 में सम्मिलित रक्षा सेवा प्रवेश परीक्षा में प्रथम स्थान के साथ चयनित हुए। भारतीय सैन्य अकादमी, देहरादून में प्रशिक्षण के पश्चात आपने इनफेंटरी की असम रेजीमेंट में जून 1980 में कमिशन प्राप्त किया। सेवा के दौरान कश्मीर, पूर्वोत्तर क्षेत्र, श्रीलंका समेत अनेक स्थानों  में तैनात रहे। 2017 को सेवानिवृत्त हो गये। सैन्य सेवा में रहते हुए विधि में स्नातक व राजनीति शास्त्र में स्नाकोत्तर उपाधि विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान के साथ प्राप्त किया । कर्नल साह एक लंबे समय से साहित्य की उच्च स्तरीय सेवा कर रहे हैं। यह हमारे सैन्य सेवाओं में सेवारत वीर सैनिकों के जीवन का दूसरा पहलू है। ऐसे वरिष्ठ सैन्य अधिकारी एवं साहित्यकार से परिचय कराने के लिए हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी का हार्दिक आभार।   हमारा प्रयास रहेगा कि उनकी रचनाओं और अनुवाद कार्यों को आपसे अनवरत साझा करते रहें।  आज प्रस्तुत है उनकी कविता ‘शहीद ए वतन ‘

एक नागरिक के तौर पर शहीदों को समर्पित कविताएं भावनात्मक हो सकती है किन्तु, ऐसी कविता के पीछे निहित भावनाएं कोई सैन्य सेवारत ही समझ सकता है जो अपने साथी को तिरंगे के कफ़न  में लपेटकर उसके परिवार को सौंपता है। )

☆ शहीद ए वतन

सो रहा है अब जो बेखबर

तिरंगा बना है जिसका कफ़न,

वह अपना ही एक साथी है

जो हो गया शहीद ए वतन।

 

बस कल ही संग अपने

खुशी से लगा था चहक

यारों के साथ जाम टकराकर

मस्ती में रहा था वह बहक।

 

आज हमें वह छोड़ कर

हो गया है बेगाना,

चला गया अब बहुत दूर

वतन का अज़ब दीवाना।

 

जब बरस रहे थे अंगारे

चारों तरफ था हाहाकार,

फट रहे थे बम के गोले

घायलों का था चीत्कार…

 

तब भी मुड़कर ना देखा

ना सोचा एक भी पल

घर पर छोड़ आया जिन्हें

क्या होगा उनका कल..

 

बस आगे ही बढ़ता गया

मुसीबतों से बन अनजान,

दुश्मनों से जूझते जूझते

हो गया वह कुर्बान।

 

भुला सकेगा ना वक्त जिसको

सदा चमकेगा जिसका माथा,

मर कर भी जो अमर रहेगा

उस शहीद ए वतन की यह गाथा।

 

© कर्नल अखिल साह

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 36 – मछलियों को कायदे से…. ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  अग्रज डॉ सुरेश  कुशवाहा जी  की एक विचारणीय कविता  “मछलियों को कायदे से….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 36 ☆

☆ मछलियों को कायदे से…. ☆  

 

आजकल वे सेमीनारों में

हुनर दिखला रहे हैं

मछलियों को कायदे से

तैरना सिखला रहे हैं।

 

अकर्मण्य उछाल भरते मेंढकों से

‘जम्प’ कैसे लें, इसे सब जान लें

और कछुओं से रहें अंतर्मुखी तो

आहटें खतरों की तब पहचान लें।

मगरमच्छ नृशंष,

लक्षित प्राणियों को मार कर

हर्षित हृदय से निडर हो

जो खा रहे हैं। मछलियों को कायदे………

 

वे सतह पर अंगवश्त्रों से सुसज्जित

किंतु गहरे में रहे बिन आवरण है

वे बगूलों से, सफेदी  में  छिपाए

कालिखें, कल्मष, कुटेवी आचरण है।

साधनों के बीच में

लेकर हिलोरें झूमते वे

साधना औ’ सादगी के

भक्ति गान सुना रहे है। मछलियों को कायदे………..

 

कर रहे हैं मंत्रणा मक्कार मिलकर

हवा, पानी, पेड़-पौधे, खेत, फसलें

हों नियंत्रण में, सभी इनके रहम पर

बेबसी, लाचारियों से ग्रसित नस्लें।

योजनाएं योजनों हैं दूर

अंतिम आदमी से

चोर अब आयोजनों में

नीतिशास्त्र  पढ़ा रहे हैं।

मछलियों को कायदे से

तैरना सिखला रहे हैं।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – माटी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – माटी 

क्रोध, आक्रोश,

प्रेम, आवेश,

भय, चिंता,

पौरुष के सारे प्रवाहों का

‘डस्टबिन’ होती है औरत,

विमर्शकों का

मंथन जारी था..,

असहाय होता है डस्टबिन

एकत्रित करता है कूड़ा

और दुर्गंध से

सना रह जाता है,

सुनो-

विमर्शक नहीं हूँ मैं

किंतु

चिंतन में उठती हैं लहरें..

माटी सोखती है

सारा चुका हुआ

सारा हारा हुआ,

माटी देती है

हर बीज को

अपनी उर्मि

अपना पोषण,

बीज उल्टा पड़ा हो

या सीधा

टेढ़ा या मेढ़ा

आम का हो

या बबूल का,

सारे विमर्शों से परे

माटी अँकुआती है जीवन

धरती को करती है हरा

धरती को रखती है हरा,

हरापन-

प्राणवान होने का प्रमाण है,

माटी फूँकती है प्राण..

मित्रो!

स्त्री, माटी होती है

और दुनिया के

किसी भी शब्दकोश में

माटी का अर्थ

‘डस्टबिन’ नहीं होता।

 

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य 0अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 38 – अनुभव ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी  एक अतिसुन्दर कविता  “*अनुभव*.  सुश्री प्रभा जी की  यह  कविता हमें स्त्री विमर्श से जोड़ती है। निःसंदेह प्रत्येक स्त्री पुरुष का स्वभाव उनकी वैचारिकता को दर्शाता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन को अपने तरीके से जीता है।  जैसे वह जीता है , वैसा ही उसका अनुभव होता है।  संभवतः इस कविता में कहीं न कहीं कवियित्री का अनुभव अपने आप लेखनी के माध्यम से  हृदय से कागज़ पर उतर आता है। इस अतिसुन्दर कविता के लिए  वे बधाई की पात्र हैं। उनकी लेखनी को सादर नमन ।  

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 38 ☆

☆ अनुभव  ☆ 

 

आपण वेगळे आहोत इतरांपेक्षा,

हे जाणवले तिला—

त्या सा-याजणीं च्या

घोळक्यात!

 

नवीन  घरात रहायला गेल्यावर

समवयस्क बायकांशी

गप्पा मारायला गेली होती ती,

सोसायटीच्या बागेत!

 

उद्या वटपौर्णिमा आहे…

“कुठे जाणार वडाची पूजा करायला?”

“मी फांदी आणणार आहे.”

अशा  आणि या सारख्याच…

पारंपरिक वळणाच्या…..

गप्पा मधे ती नाही

रमत….

गेली कित्येक वर्षे!

त्या पेक्षा ऐकावी

एकांतात रफी ची जुनी गाणी

लता… आशा…गीता दत्त..

चे तलम रेशमी स्वर..

घ्यावेत लपेटून मनावर…

बाल्कनीत ल्या झोक्यावर बसून

वाचावी गौरी देशपांडे….

सानिया…

अंबिका सरकार…

ईरावती कर्वेंची जुनी संग्रहित

पुस्तके…पुनःपुन्हा!

 

एवढे संपन्न  अनुभव पाठीशी

असताना—

कुठल्याही पठडीत नाही बसवता येत स्वतःला!

आयुष्याची सांज कातर होते…

 

जे हवे  असते ते हरवत जाते….

इथे तिथे….

 

हा ही एक  अनुभवच ….

वेगळेपण जपण्याचा!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ पुस्तक विमर्श #7 – स्त्रियां घर लौटती हैं – “एक अनोखा काव्य संग्रह हिन्दी जगत में आया है” – श्री आलोक मिश्रा ☆ श्री विवेक चतुर्वेदी

पुस्तक विमर्श – स्त्रियां घर लौटती हैं 

श्री विवेक चतुर्वेदी 

( हाल ही में संस्कारधानी जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी का कालजयी काव्य संग्रह  स्त्रियां घर लौटती हैं ” का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली में संपन्न हुआ।  यह काव्य संग्रह लोकार्पित होते ही चर्चित हो गया और वरिष्ठ साहित्यकारों के आशीर्वचन से लेकर पाठकों के स्नेह का सिलसिला प्रारम्भ हो गया। काव्य जगत श्री विवेक जी में अनंत संभावनाओं को पल्लवित होते देख रहा है। ई-अभिव्यक्ति  की ओर से यह श्री विवेक जी को प्राप्त स्नेह /प्रतिसाद को श्रृंखलाबद्ध कर अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास है।  इस श्रृंखला की चौथी कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं श्री आलोक कुमार मिश्र के विचार “एक अनोखा काव्य संग्रह हिन्दी जगत में आया है ” ।)

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☆ पुस्तक विमर्श #7 – स्त्रियां घर लौटती हैं – “एक अनोखा काव्य संग्रह हिन्दी जगत में आया है ” – श्री आलोक कुमार मिश्र  ☆

‘आंगन में बंधी डोरी पर

सूख रहे हैं कपड़े

पुरुष की कमीज़ और पतलून

फैलाई गई है पूरी चौड़ाई में

सलवटों में सिमटकर

टंगी है औरत की साड़ी

लड़की के कुर्ते को

किनारे कर

चढ़ गयी है लड़के की जींस

झुक गई है जिससे पूरी डोरी

उस बाँस पर

जिससे बाँधी गई है डोरी

लहरा रहे हैं पुरुष अन्तःवस्त्र

पर दिखाई नहीं देते महिला अन्तःवस्त्र

वो जरूर छुपाये गये होंगे तौलियों में ।।’

‘डोरी पर घर’ नाम की यह कविता सूखने को डाले गये कपड़ों के बहाने घर-परिवार-समाज में स्त्री की स्थिति की थाह ही नहीं लेती बल्कि पितृसत्ता के महीन धागों को उघाड़ती भी है। यह कविता हाल ही में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुए काव्य संग्रह ‘स्त्रियाँ घर लौटती हैं’  में शामिल ऐसी ही कई स्त्री चेतना और पूर्ण समानुभूति से लैस कविताओं में से एक है। इस संग्रह के रचयिता हैं हमारे समय के चर्चित कवि विवेक चतुर्वेदी जी।

पहली ही कविता ‘स्त्रियाँ घर लौटती हैं’ से यह संग्रह पाठक को सम्मोहित कर लेता है। रोजमर्रा की पारिवारिक घटना जब इस उदात्त संवेदना के साथ सामने आती है तो अपने ही घर की महिलाएँ हमारे जेहन में अपनी सशक्त उपस्थिति के साथ आ धमकती हैं और हमें खुद में झाँकने का संदेश देने लगती हैं। पंक्तियां देखिए-

‘स्त्रियों का घर लौटना

पुरुषों का घर लौटना नहीं है

पुरुष लौटते हैं बैठक में ,फिर गुसलखाने में

फिर नींद के कमरे में

स्त्री एक साथ पूरे घर में लौटती है

वो एक साथ, आँगन से

चौके तक लौट आती है।’

सच में हम पुरुषों को कितने ही स्त्रैण गुणों को सीखने की जरूरत है, वह यह कविता स्पष्ट करती है।

‘माँ’ पर न जाने कितनी कविताएँ लिखी गईं पर इस संग्रह में शामिल ‘माँ’ कविता उसे पूरी दुनिया के बच्चों की नेमत घोषित करती है न कि अपनी माँ को खुद से ही जोड़ती है। दूर होने के बाद भी वह नेमतों संग दिखती है।

‘माँ चाँद के आँगन में बैठी है

अब वो दुनिया भर के

बच्चों के लिए

आम की फाँक काट रही है।।’

कविता ‘औरत की बात’ में औरत होने को सृजन और उत्पादकता से जोड़ कर विवेक चतुर्वेदी जिस तरह पेश करते हैं वह लाजवाब है। उनके चलने, देखने, करने से प्रकृति सहयोजित होकर चलती है। एक पिता का अपनी नन्हीं बच्ची के साथ होने से पैदा हो रही भावुकता कविता ‘भोर…होने को है’ में एक नहीं सैकड़ो ऐसी पृथ्वियों की कल्पना से एकाकार हो जाती है जो अपनी पूरी प्रकृति में सभी दोषों से विमुक्त हो। कविता ‘टाइपिस्ट’ एक छोड़ी हुई औरत की हिम्मत और जिजीविषा को पूरी गरिमा के साथ उपस्थित करती है।

तमाम मंचीय स्त्री विमर्श के खोखलेपन को उजागर करते हुए कवि ने नेपथ्य में चलने वाली पुरुषों की कामुक लोलुपता के संवादों को कविता ‘स्त्री विमर्श’ में उघाड़ कर रख दिया है। वे लिखते हैं-

‘उस रात विमर्श में

स्त्री बस नग्न लेटी रही

न उसने धान कूटा

न पिघलाया बच्चे को दूध

न वो ट्राम पकड़ने दौड़ी

न उसने देखी परखनली

न सेंकी रोटी

रात तीसरे पहर उन सबने

अलगनी पर टंगे

अपने मुखौटे पहने

और चल दिए

वहाँ छूट गई

स्त्री सुबह तक

अपनी इयत्ता ढूंढती रही।।’

‘शो रूम में काम करने वाली लड़की’ नामक लंबी कविता में कवि कुछ इस तरह परकाया प्रवेश कर जाता है कि लगता है जैसे ऐसी कोई कामगार लड़की ही हमसे आँखों में आंख डाल बात कर रही हो और पूछ रही हो- ‘सुनो! इस सदी में स्त्री को/ जबरिया काम पर भेजने वाले/ स्त्री के मुक्तिकामी विमर्शकारों/ अपना कोलाहल बंद करो/ ये लड़की क्यों घर जाना चाहती है।।’ वे स्त्री के प्रति घनीभूत संवेदना के कवि होते हुए भी एकल पहचान के दायरे को तोड़ वर्गीय विभाजन की दहलीज में भी बार-बार पैर रखते हैं। जिसे इस कविता में तो महसूस किया ही जा सकता है लेकिन ‘वर्गवादी’ कविता में तो खुले रूप से देखा जा सकता है जब वे सुबह-सुबह नौकर द्वारा दरवाजा खटखटाने के बाद हो सकने वाली प्रतिक्रियाओं को औरों के मुकाबले तौलते हैं। ‘हरी मिर्च और नमक’ में तो न केवल वो रोते हैं अपितु पाठक को भी रुला देते हैं। सचमुच विवेक चतुर्वेदी जी दमित पहचानों के पक्षधर कवि बनकर उभरे हैं इन कविताओं में।

इस संग्रह में रिश्ते-नातों की पोटली भी अपने पूरे सुगंध के साथ खुलती हुई दिखती है। यहाँ माँ, बाबूजी जहाँ स्मृतियों से होते हुए वर्तमान की हर संवेदना से एकाकार दिखाई देते हैं वहीं नन्हीं बिटिया, प्रेमिका, पत्नी भी अपनी पूर्ण उपस्थिति लिए साथ कदमताल करती हैं। कविता ‘माँ’, ‘प्रार्थना की साँझ’, ‘माँ को खत’ जहाँ माँ को याद करते हुये और अधिक मासूम हो जाने की कविताएँ हैं वहीं कविता ‘पिता’, ‘बाबू’, ‘तुम आए बाबा’, ‘सुनो बाबू’, ‘उनकी प्रार्थना में’, ‘पिता की याद’ पिता की बात-बात करते-करते जीवन के रूखे मौसमों में प्रेम और सम्मान की नमी को संजोये रखने और जिजीविषा बनाए रखने के संदेश से लैस हैं। वो पिता जो कभी अम्मा के लिए कनफूल न ला पाए पर जब कभी वो उसके पसंद के फूल क्यारी में अंकुआते हैं तब एक पुत्र प्रेम के मायने और जीवन का पाठ पढ़ता है।

कविता ‘चुप’, ‘तुम यहीं तो मिले हो’, ‘किसी दिन…कोई बरस’, ‘कहाँ हो तुम’, ‘तेरे बिराग से’, ‘तुम्हारे साथ जो भी काता मैंने’ जैसी कविताएँ प्रेम से पगी कोमल भावनाओं की कविता हैं जो अंतस तक उतर जाती हैं। संग्रह में कुछ कविताएँ अन्य तरह की सामाजिक व्यवस्थाओं से भी जुड़ी हुई हैं व सवाल उठाती हैं।

एक कविता मुझे एक शिक्षक के रूप में बहुत अंदर तक कुरेद गई। वह है बचपन के अपने स्कूल को याद करते हुए उसकी तुलना जेल और कैद से करती हुई कविता ‘मेरे बचपन की जेल’। कवि अपनी संवेदना और अनुभूति को इस कविता में बहुत गहन तरीके से उतारते हुए हमें हमारे स्कूली दिनों में पहुंचा देता है। स्कूल की एक-एक गतिविधि को कुरेदते याद करते वह मानवीयता के उन स्याह कोनों की थाह ले आते हैं जो हर एक के बस की नहीं। वे आज भी इन स्कूलों को शंका से देखते हुए इस लंबी कविता के अंत में आते-आते कहते हैं कि- ‘आज बरसों के बाद/ मैं उस जेल के सामने/ फिर आकर खड़ा हूँ इसके/ देखता हूँ/ जेल की इमारत कुछ और/ रंगीन हो गई है/ जैसे कि कभी जहर रंगीन होता है।’ यहाँ वास्तविकता की गहरी पड़ताल होते हुए भी विनम्रता पूर्वक कवि से असहमत होते हुए मैं उन्हें वर्तमान स्कूलों, उसे संचालित करने वाले शिक्षा दर्शन व दस्तावेजों का और गहरा अवलोकन करने की सलाह दूँगा क्योंकि स्थिति अब इतनी भयावह नहीं। बहुत से सकारात्मक बदलावों ने अपनी जगह बना ली है।

कुल मिलाकर यह कहना चाहूँगा कि सन् 2019 बीतते-बीतते और नये वर्ष में यह एक ऐसा अनोखा काव्य संग्रह हिन्दी जगत में आया है जो पाठकों की अपेक्षाओं पर पूरा खरा उतरेगा। इसे पढ़ते हुए नई और बेहतर दुनिया का सपना और अधिक संभव होने के करीब महसूस होगा। कवि विवेक चतुर्वेदी को उनके इस सुंदर संग्रह की बधाई देते हुए मेरी कामना है कि वे इसी तरह भविष्य में अपने रचना कर्म से हमें चकित करते रहें

-आलोक कुमार मिश्र

 

 

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 17– महात्मा गांधी का भारत की राजनीति में आगमन ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “महात्मा गांधी का भारत की राजनीति में आगमन?

☆ गांधी चर्चा # 15 – महात्मा गांधी का भारत की राजनीति में आगमन

महात्मा गांधी  अफ्रीका को हमेशा के लिए अलविदा कर लंदन पहुँचे जहाँ उन्हे अफ्रीका में बसे भारतीयों की सेवा करने के लिए वायसराय लार्ड हर्डिंग ने 6 अगस्त 1914 को ”कैसरे हिन्द” के  तमगे से बिभूषित किया। लंदन से गांधीजी समुद्री जहाज से लंबी यात्रा कर 13 जनवरी 1915 को बम्बई पहुँचे। अपनी आत्मकथा “सत्य के प्रयोग” में वे लिखते है – “कुछ दिनों में हम बम्बई पहुँचे।जिस देश में सन 1905 में वापस आने की आशा रखता था, उसमें दस बरस बाद तो वापस आ सका, यह सोचकर मुझे बहुत आन्नद हुआ। बम्बई में गोखले ने स्वागत- सम्मेलन आदि की व्यवस्था कर ही रखी थी। उनका स्वास्थ्य नाजुक था; फिर भी वे बम्बई आ पहुँचे थे। मैं इस उमंग के साथ बम्बई पहुँचा था कि उनसे मिलकर और अपने को उनके जीवन में समाकर मैं अपना भार उतार डालूंगा। किन्तु विधाता ने कुछ दूसरी ही रचना कर रखी थी।…. मेरे बम्बई पहुँचते ही गोखले ने मुझे खबर दी थी : “गवर्नर आपसे मिलना चाहते हैं। इसलिए मैं उनसे मिलने गया। साधारण बातचीत के बाद उन्होने कहा :

“मैं आपसे एक वचन माँगता हूँ । मैं चाहता हूँ कि सरकार के बारे में आप कोई भी कदम उठाएँ, उससे पहले मुझसे मिल कर बात कर लिया करें।“

मैंने जबाब दिया: “ यह वचन देना मेरे लिए बहुत सरल है। क्योंकि सत्याग्रही के नाते मेरा यह नियम ही है कि किसी के विरुद्ध कोई कदम उठाना हो, तो पहले उसका दृष्टिकोण उसीसे समझ लूँ और जिस हद तक उसके अनुकूल होना संभव हो उस हद तक अनुकूल हो जाऊँ। दक्षिण अफ्रीका मैं मैंने सदैव इस नियम का पालन किया है और यहाँ भी वैसा ही करने वाला हूँ।

लार्ड विलिंग्डन ने आभार माना और कहा: “आप जब मिलना चाहेंगे, मुझसे तुरंत मिल सकेंगे और आप देखेंगे कि सरकार जान-बूझकर कोई बुरा काम नहीं करना चाहती।“

मैंने जबाब दिया : “यह विश्वास ही तो  मेरा सहारा है।“

इसके बाद गांधीजी ने  गोखलेजी से गुजरात में आश्रम खोल वहाँ बसने व सार्वजनिक कार्य करने की इच्छा बताई। गोखलेजी  ने  उन्हे आश्रम खोलने के लिए उनके पास से धन लेने का आग्रह किया और गोखलेजी की  सलाह पर गांधीजी एक वर्ष तक रेलगाड़ी के तीसरे दर्जे में बैठ भारत के विभिन्न स्थानों की यात्रा करते रहे। इसी बीच 25 मई 1915 को अहमदाबाद के  पास कोचरब में साबरमती नदी के तट पर पचीस लोगों के रहने के लिए सत्याग्रह आश्रम की स्थापना हुई। और इसी के साथ गांधीजी का भारत में सार्वजनिक जीवन प्रारंभ हो गया।

भारत में गांधीजी के सार्वजनिक जीवन में उनकी चम्पारन यात्रा का विशिष्ट स्थान है। वे सत्य के प्रयोग में लिखते हैं –“ राजकुमार शुक्ल नामक चम्पारन के एक किसान थे। उन पर दुख पड़ा था।यह दुख उन्हे अखरता था। लेकिन अपने इस दुख के कारण उनमें नील के इस दाग को सबके लिए धो डालने की तीव्र लगन पैदा हो गई थी। जब मैं लखनऊ काँग्रेस  में गया तो वहाँ इस किसान ने मेरा पीछा पकड़ा। ‘वकील बाबू आपको सब हाल बताएंगे’ – यह वाक्य वे कहते जाते थे और मुझे चम्पारन आने का निमंत्रण देते जाते थे।“ बाद में गांधीजी की मुलाक़ात वकील बाबू अर्थात बृजकिशोर बाबू से राजकुमार शुक्ल ने करवाई जिसके फलस्वरूप गांधीजी के परामर्श पर बृजकिशोर बाबू काँग्रेस में चम्पारन के बारे में बोले और एक सहानुभूति सूचक प्रस्ताव पास हुआ। 15 अप्रैल 1917 को जब मोहनदास करमचंद गांधी चम्पारन पंहुचे तब वहाँ के किसानों का जीवन गुलामी से भरा हुआ था। गोरे अंग्रेज उन्हे नील  की खेती के लिए विवश कर शोषण करते थे। गांधीजी के सत्याग्रह  आंदोलन के फलस्वरूप तीन कठिया व्यवस्था समाप्त हुयी व चम्पारन के किसानों को लगभग 46 प्रकार के करों से मुक्ती मिली, देश को डॉ राजेंद्र प्रसाद जैसे लगनशील नेता मिले।

चम्पारन में ,जो राजा जनक की भूमि है व गंगा के उस पार हिमालय की तराई में बसा है, गांधीजी ने लोगों की दुर्दशा करीब से देखी और महसूस किया कि गाँव में शिक्ष का प्रवेश होना चाहिए। अत: उन्होने प्रारंभ में छह गाँव में बालकों के लिए पाठशाला खोलने का निर्णय लिया। शिक्षण कार्य के लिए स्वयंसेवक आगे आए और कस्तूरबा गांधी आदि महिलाओं ने अपनी योग्यता के अनुसार शिक्षा कार्य में सहयोग दिया। गांधीजी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं – “ प्राय: प्रत्येक पाठशाला में एक पुरुष और एक स्त्री की व्यवस्था की गई थी। उन्ही के द्वारा दवा और सफाई के काम करने थे। स्त्रियों की मार्फत स्त्री- समाज में प्रवेश करना था। साफ सफाई का काम कठिन था। लोग गंदगी दूर करने को तैयार नही थे। जो लोग रोज खेतों की मजदूरी करते थे, वे भी अपने हाथ से मैला साफ करने के लिए तैयार ना थे। मुझे याद है कि सफाई की बात सुनकर कुछ जगहों में लोगों ने अपनी नाराजी भी प्रकट की थी।“

चम्पारन में प्रवास के दौरान गांधीजी को अनेक अनुभव हुये। ऐसे ही एक अनुभव का वर्णन करते हुये वे लिखते हैं – “ इन अनुभवों में से एक जिसका वर्णन मैंने स्त्रियों की कई सभाओं में किया है, यहाँ  देना अनुचित न होगा। भीतिहरवा एक छोटा सा गाँव था। उसके पास उससे भी छोटा एक गाँव था। वहाँ कुछ बहनों के कपड़े बहुत मैले दिखाई दिये। इन बहनों को कपड़े बदलने के बारे में समझाने के लिए मैंने कस्तूरबाई से कहा। उसने उन बहनों से बात की। उनमे से एक बहन कस्तूरबाई को अपनी झोपड़ी में ले गई और बोली ‘ आप देखिए, यहाँ कोई पेटी या अलमारी नहीं कि जिसमे कपड़े बंद हों। मेरे पास यही एक साड़ी है, जो मैंने पहन रखी है।  इसे मैं कैसे धो सकती हूँ? महात्माजी से कहिए कि वे कपड़े दिलवाए। उस दशा में मैं रोज नहाने और कपड़े बदलने को तैयार रहूँगी।‘ हिन्दुस्तान में ऐसे झोपड़े अपवाद स्वरूप नहीं हैं। असंख्य झोपड़ों में साज-सामान, सन्दूक-पेटी, कपड़े-लत्ते कुछ नही होते और असंख्य लोग केवल पहने हुये कपड़ों पर ही निर्वाह करते हैं।“

शायद यही वह घटना है जिसने गांधीजी से उनके वस्त्र व काठियावाड़ी पगड़ी छीन ली और वे हमारे देश के असंख्य गरीबों के लिए लंगोटी वाले बाबा बन गए, मसीहा बन गए, जन जन में पूज्यनीय हो गए। आज भी उन जैसा दूसरा व्यक्तित्व देश में पैदा नाही हुआ।

रियासतकालीन बुंदेलखंड में भी किसान मजदूर पीढ़ित व शोषित थे। इन शोषणों के विरुद्ध समय समय पर चरणपादुका जैसे अनेक अहिंसक आंदोलन  हुये जिनकी प्रेरणा गांधीजी के चम्पारन सत्याग्रह से ही मिली।स्थानीय नेतृत्व को पनपने दिया गया, जन सैलाब को तैयार किया गया, मध्यस्तता की संभावनाएँ खोजी गई,  किसानों ले लाठियाँ व गोलियाँ खाई, बातचीत के दरवाजे खुले रखे गए, समस्याओं के समाधान की ईमानदारी से कोशिश की गई  और  अंततः किसानो को काफी हद तक शोषण  से मुक्ती मिली। आज पुनः किसान परेशान है, समस्याओं से घिरा है,पहले दो जून की रोटी की आस में  आसमान पर घुमड़ते बादलों को देखता था अब सूखते तालाबों, सिकुडती नदियों, घटते  जल स्तर से परेशान है, पहले उसे चिंता थी खाद कैसे मिले अब परेशान है खाद के अधिक प्रयोग से बंजर होते खेत से, पहले लगान चुकाने में असमर्थ था अब बैंकों का कर्ज नहीं चुका पा रहा है। मैं सोचता हूँ क्या इन समस्याओं का कोई निदान है, क्या मात्र ऋणमाफ़ी से किसान खुशहाल हो जाएगा। हमने किसानो को बैंकों से दिये जाने वाले कर्ज को पाँच साल मे  दुगुना कर दिया और उसके दुष्परिणाम भी आत्महत्या के रूप मैं देख रहे हैं। पहले तो ऐसा नहीं सुनने मैं आता था। मुंशी प्रेमचन्द जैसे ग्रामीण परिवेश के साहित्यकारों ने भी कहानियों में दुखों की चर्चा का अंत कभी आत्महत्या से नहीं किया। आज  जबकि  हमारे पास कृषि विशेषज्ञों की फौज है, अनेक कृषि विश्वविद्यालय है, उन्नत तकनीक है तब भी हम  किसानों को  समस्याओं से निजात नहीं दिला पा रहें है। मुझे लगता है हमे एक बार फिर 15 अप्रैल 1917 की ओर मुड़कर देखना होगा, जब मोहनदास करमचंद गांधी चंपारण पंहुचे थे, शायद उन्ही के तरीके से किसानों की खुशहाली का कोई नया  उपाय निकल कर सामने आए।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 15 ☆ लघुकथा – वाह री परंपरा ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक  अत्यंत विचारणीय लघुकथा  “वाह री परम्परा। श्रीमती कृष्णा जी की यह लघुकथा भारतीय समाज  की एक ऐसी प्रथा  के परिणाम और दुष्परिणाम पर विस्तृत दृष्टि डालती है जिस पर अक्सर लोग सब कुछ जानते हुए भी विवाद में न पड़ते  हुए कि  लोग क्या कहेंगे सोच कर निभाते हैं , तो  कुछ लोग दिखावे मात्र के लिए निभाते हैं ताकि लोग  उनका  उदहारण  दे।   समाज की परम्पराओं पर पुनर्विचार की महती आवश्यकता  है ।

☆ साप्ताहक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 14 ☆

☆ लघुकथा – वाह री परम्परा ☆

 एक  करीबी रिश्तेदार की मौत हो जाने  पर तेरह दिनों मे कम से कम सात दिन समय निकाल कर आना जाना पड़ा।  गाँव का मामला था।  सभी धनाढ्य सम्पूर्ण थे।  जब भी हम जाते तभी चूल्हे पर परिवार की लड़कियाँ गैस जमीन पर रख गरमी सह कर ढेर सारा भोजन बनाती दिखती। उन्हें दोपहर में ही कुछ घंटे मिलते। उसमे वे बेटियाँ अपनी कंघी चोटी करती। खारी के बाद से दिन होने तक साफ सफाई के बाद से यह प़किया चल पड़ती। आने वाले से भेंट करना दुख प़कट करना यहां का रिवाज  है।

गंगा जी जाना। फिर हिन्दू पध्दति से पूजन करना आवश्यक होता है। प़तिदिन  सैकड़ो आदमियों का खाना होता।

ताज्जुब हमें तब हुआ जब हमने तेरहवी के दिन सुबह पूजन के बाद ब़ाम्हणो का भोज बिदाई कार्यक्रम देखा।

और फिर नाते रिश्तेदार  सभी ने तेरहवीं का खाना खाया खाया। करीब रात के आठ बजे तक पूरा का पूरा गाँव भोजन कर चुका था और भोजन के बाद बाहर आते ही भोजन की बढ़ाई या बुराई शुरु। ये पुरानी परम्पराओं का क्या कहीँ विराम नहीं? एक तो घर का प्राणी चला जाये और उस पर यदि उसके पास पैसा नहीं तो कर्जा कर आयोजन करवाना और झूठी शान पर जिन्दा रहना कब तक चलेगा?

जाने वाला तो चला गया पर उसके साथ और थोड़ा बहुत जीवन बसर का पैसा धेला बचा वह भी समाज के ठेकेदारों ने नोच खाया. कब बदलाव आयेगा? हम कब समझेंगे पता नहीं?

अगर किसी रोगी या बहन-बेटी या किसी बुजुर्ग की सेवा के लिये यह अधिक लगने वाला पैसा उपयोग में आ जाता तो जीवन जीने लायक और भविष्य को निर्मित कर देता पर  यह नहीं है।

बस दिखावा और रूढिवाद का बोलवाला।

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य- कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #1 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

आचार्य सत्य नारायण गोयनका

(हम इस आलेख के लिए श्री जगत सिंह बिष्ट जी, योगाचार्य एवं प्रेरक वक्ता योग साधना / LifeSkills  इंदौर के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के महान कार्यों से अवगत करने में  सहायता की है। आप  आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के कार्यों के बारे में निम्न लिंक पर सविस्तार पढ़ सकते हैं।)

आलेख का  लिंक  ->>>>>>  ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी 

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆  कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #1 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

(हम  प्रतिदिन आचार्य सत्य नारायण गोयनका  जी के एक दोहे को अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे, ताकि आप उस दोहे के गूढ़ अर्थ को गंभीरता पूर्वक आत्मसात कर सकें। )

आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे बुद्ध वाणी को सरल, सुबोध भाषा में प्रस्तुत करते है. प्रत्येक दोहा एक अनमोल रत्न की भांति है जो धर्म के किसी गूढ़ तथ्य को प्रकाशित करता है. विपश्यना शिविर के दौरान, साधक इन दोहों को सुनते हैं. विश्वास है, हिंदी भाषा में धर्म की अनमोल वाणी केवल साधकों को ही नहीं, सभी पाठकों को समानरूप से रुचिकर एवं प्रेरणास्पद प्रतीत होगी. आप गोयनका जी के इन दोहों को आत्मसात कर सकते हैं :

सदाचार ही धर्म है, दुराचार ही पाप I

पर-सेवा ही धर्म है, पर-पीड़न ही पाप II

– आचार्य सत्यनारायण गोयनका

#विपश्यना

साभार प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

Please feel free to call/WhatsApp us at +917389938255 or email [email protected] if you wish to attend our program or would like to arrange one at your end.

Our Famentals:

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga.  We conduct talks, seminars, workshops, retreats, and training.

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Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer

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आध्यात्म/Spiritual ☆ श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – दशम अध्याय (33) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

दशम अध्याय

(भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का कथन)

 

अक्षराणामकारोऽस्मि द्वंद्वः सामासिकस्य च ।

अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः ।।33।।

 

हूँ अकार अक्षरों में द्वंद समास समास

मैं ही अक्षर काल हूँ धाता सविश्वास।।33।।

 

भावार्थ :  मैं अक्षरों में अकार हूँ और समासों में द्वंद्व नामक समास हूँ। अक्षयकाल अर्थात्‌काल का भी महाकाल तथा सब ओर मुखवाला, विराट्स्वरूप, सबका धारण-पोषण करने वाला भी मैं ही हूँ।।33।।

 

Among the  letters  of  the  alphabet,  the  letter  “A”  I  am,  and  the  dual  among  the compounds. I am verily the inexhaustible or everlasting time; I am the dispenser (of the fruits of actions), having faces in all directions.।।33।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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