हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #27 – निष्कर्ष ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 27 ☆

☆ निष्कर्ष ☆

 

दूसरे के जागने-सोने, खाने-पीने, उठने-बैठने, हँसने-बोलने, यहाँ तक की चुप रहने में भी मीन-मेख निकालना, आदमी को एक तरह का विकृत सुख देता है। तुलनात्मक रूप से एक भयंकर प्रयोग बता रहा हूँ, विचार करना।

रात को बिस्तर पर हो, आँखों में नींद गहराने लगे तो कल्पना करना कि इस लोक की यह अंतिम नींद है। सुबह नींद नहीं खुलने वाली। …यह विचार मत करना कि तुम्हारे कंधे क्या-क्या काम हैं। तुम नहीं उठोगे तो जगत का क्रियाकलाप कैसे बाधित होगा। जगत के दृश्य-अदृश्य असंख्य सजीवों में से एक हो तुम। तुम्हारा होना, तुम्हारे लिए महत्वपूर्ण हो सकता है पर जगत में तुम्हारी हैसियत दही में न दिखाई देनेवाले बैक्टीरिया से अधिक नहीं है। तुम नहीं उठोगे तो तुम्हारे सिवा किसी पर कोई दीर्घकालिक असर नहीं पड़ेगा।

तुम तो यह विचार करना कि क्या तुम्हारे होने से तुम्हारे सगे-सम्बंधी, तुम्हारे परिजन-कुटुंबीय, मित्र-परिचित, लेनदार-देनदार आनंदी और संतुष्ट हैं या नहीं। बिस्तर पर आने तक के समय का मन-ही-मन हिसाब करना। अपने शब्दों से किसी का मन दुखाया क्या, आचरण में सम्यकता का पालन हुआ क्या, लोभवश दूसरे के अधिकार का अतिक्रमण हुआ क्या, अहंकारवश ऊँच-नीच का भाव पनपा क्या..?… आदि-आदि..। हाँ आत्मा के आगे मन और आचरण को अनावृत्त कर अपने प्रश्नों की सूची तुम स्वयं तैयार कर सकते हो।

प्रश्नों की सूची टास्क नहीं है। प्रश्न तुम्हारे, उत्तर भी तुम्हारे। असली टास्क तो निष्कर्ष है। अपने उत्तर अपने ढंग व अपनी सुविधा से प्राप्त कर क्या तुम मुदित भाव से शांत और गहरी नींद लेने के लिए प्रस्तुत हो?

यदि हाँ तो यकीन मानना कि तुम इहलोक को पार कर गए हो।

सच बताना उठकर बैठ गए हो या निद्रा माई के आँचल में बेखटके सो रहे हो?

निष्कर्ष से अपनी स्थिति की मीमांसा स्वयं ही करना।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 30 ☆ व्यंग्य – अफसर के घर सत्यनारायण ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं।  कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है. आज का व्यंग्य  है अफसर के घर सत्यनारायण ।  प्रिय प्रबुद्ध पाठकों , आप कहेंगे  कि  सत्यनारायण जी की कथा तो सबके यहाँ होती है, फिर अफसर के घर की कथा अलग कैसे ?  डॉ परिहार जी की पैनी व्यंग्य दृष्टि  से भला वे  पात्र कैसे बच सकते हैं जिनके ध्यान  का केंद्र कथा वाचक से अधिक कथा आयोजक हों।  अब जब भी आप कही कथा में  जायेंगे तो अपने आप इनमें से कोई न  कोई पात्र जरूर ढूंढ लेंगे। हास्य का पुट लिए ऐसे  मनोरंजक एवं सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 30 ☆

☆ व्यंग्य – अफसर के घर सत्यनारायण ☆

 

सज्जनो! आप जो इस भवन के सामने कारों का हुजूम देख रहे हैं सो यहाँ न तो कोई ब्याह- शादी है, न किसी मंत्री का भाषण हो रहा है। यह तो आयकर अधिकारी श्री दामले के यहाँ सत्यनारायण की कथा हो रही है और ये कारें उन व्यापारियों की हैं जो श्री दामले के अधिकार-क्षेत्र में आते हैं।

श्री दामले के घर में भक्तों की भीड़ प्रति क्षण बढ़ती नदी की तरह बढ़ रही है। ये वे भक्तगण  हैं जिनको आपने कभी किसी मन्दिर में नहीं देखा होगा, लेकिन आज इनकी भक्ति देखने से ताल्लुक रखती है।

सारे अतिथि इस कोशिश में हैं कि श्री दामले उनका चेहरा देख लें और उनकी उपस्थिति दर्ज हो जाए। इसलिए लोग पच्चीस पच्चीस गज से दामले जी की ओर नमस्कार मार रहे हैं। जिनकी आवाज़ अभी तक दामले साहब के कानों तक नहीं पहुँची वे नर्वस हैं। क्या करें?

भक्तों की पत्नियाँ श्रीमती दामले को घेरकर ऐसे बैठी हैं जैसे चन्द्रमा को घेरकर तारे। जो महिलाएँ श्रीमती दामले तक नहीं पहुँच पायी हैं उनके मुख मलिन हैं। उधर पंडित जी कथा पढ़ रहे हैं और इधर महिलाएँ श्रीमती दामले के रूप, उनकी साड़ी और आभूषणों की भूरि-भूरि प्रशंसा करने में व्यस्त हैं।

एक भक्त दामले जी के छोटे पुत्र को गोद में उठाकर बाहर घुमाने ले गया है। दूसरा उनके बड़े पुत्र को किराने की दूकान से टॉफी दिलाने ले गया है। ये सारे कृत्य उस कथा के ही अंग हैं जिसके हेतु ये श्रद्धालु यहाँ इकट्ठे हुए हैं।

भक्तों की भीड़ अपेक्षा से अधिक होने के कारण प्रसाद कम पड़ने की स्थिति उत्पन्न हो गयी है। दामले साहब एक कार वाले भक्त की तरफ कुछ नोट बढ़ाकर कहते हैं, ‘लो भई, ज़रा मीठा मंगा लो।’  भक्त हाथ जोड़कर दुहरा हो जाता है, कहता है, ‘लज्जित मत कीजिए साहब। इस पुण्यकार्य में थोड़ा सा योगदान मेरा भी सही।’

और एक चमचमाती हुई कार बाज़ार की ओर बढ़ जाती है।

आरती हो रही है। सब भक्त आरती में शामिल होने के लिए कमरे में घुस आये हैं। सब एक दूसरे से ज़्यादा ज़ोर से आरती गाने की कोशिश कर रहे हैं ताकि दामले जी का ध्यान उनकी तरफ आकर्षित हो। यह भी उपस्थिति दर्ज कराने का ही एक तरीका है। जिन्होंने जीवन में कभी आरती नहीं गायी वे भी आज मजबूरी में आरती गा रहे हैं। कर्कश स्वर मीठे स्वरों पर हावी हो रहे हैं। जो नहीं गा सकते वे फिल्म अभिनेताओं की तरह आरती के शब्दों पर मुँह चला रहे हैं।

आरती के बाद आरती की थाली नीचे रखी जाती है और भक्त लोग इच्छानुसार उसमें द्रव्य डालकर प्रणाम कर रहे हैं। एक अमीर भक्त हाथ में पाँच सौ का नोट लिये बौखलाया सा इधर उधर देख रहा है और कह रहा है, ‘थाली कहाँ है भाई?’  दरअसल थाली तो ठीक उसकी नाक के सामने है लेकिन अभी दामले साहब की नज़र उसके नोट पर नहीं पड़ी है। दामले साहब घूमकर  उसके नोट को देखते हैं और वह तुरन्त नोट को थाली में छोड़कर भक्तिपूर्वक प्रणाम करता है।

अब प्रसाद लेने के लिए ठेलमठेल हो रही है। भक्तों ने सुन रखा है कि प्रसाद ग्रहण न करने के कारण कलावती कन्या के पति की नाव अन्तर्ध्यान हो गयी थी और उनका सारा धन लता-पत्र में बदल गया था। शायद इसीलिए लोग प्रसाद के लिए आतुर हो रहे हैं।

दरअसल इन भक्तजनों को दामले साहब में ही भगवान के दर्शन हो रहे हैं। उनका प्रसाद अगर ग्रहण न किया तो पता नहीं वे कब इन भक्तजनों की नैया को डुबा दें या बड़ी मेहनत से कमाये हुए इनके काले धन को धूल-पत्थर बना दें। इसी भय से, हे सज्जनो, भक्तों की यह भीड़ प्रसाद प्राप्त करने के लिए संघर्षरत है।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 15 – कल, आज और कल ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी एक  भावप्रवण रचना कल, आज और कल अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 15 – विशाखा की नज़र से

☆ कल, आज और कल  ☆

 

रखते हैं तानों भरा तरकश हम अपनी पीठ पर

देते हैं उलाहनों भरा ताना अपने अतीत को

जो, आ लगता है वर्तमान में,

हो जाते हैं हम लहूलुहान ..

 

भविष्य को तकते, रखते है

उम्मीदों की रंग- बिरंगी थाल दहलीज़ पर

निगरानी में खुली रखतें हैं आँखे,

पर रंगों की उड़ती किरचों से हो जाती है आँखें रक्तिम …

 

कल और कल के बीच क्षणिक से “आज” में

झूलते हैं  दोलक की तरह

बजते, टकराते है अपनी ही चार दिवारी में

और,

काल बदल जाता है

इसी अंतराल में ।

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 4 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

 

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 4 – खुशियों भरे दिन ☆

(आपने अब तक पढ़ा – आपने पढा़ किसान परिवार में जन्मी दमयन्ती को माँ बाप के प्यार ने पगली नाम दे दिया। बचपन बीता, जवानी के दहलीज पर कदम रखते विवाह हुआ, उसकी सुहागरात नशे के चलते दर्द और पीड़ा की अनकही कहानी बन कर रह गई। अब आगे पढ़ें ——–)

इन्ही परिस्थितियों में संघर्ष करते करते पगली ने काफी समय ससुराल में गुजार दिया, उसका बचपन परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए युवावस्था के साथ समय के अंतराल में कहीं खो गया।

सुहागरात के दिन दोस्तों के साथ लगा नशे का चस्का पगली के पति तथा पगली के लिए अभिशाप सिद्ध हुआ था। नशा तो अब उसकी आदत बन चुकी थी। पगली जितना ही नशे को छुड़ाना चाहती वह उतना ही दीवाना होता चला गया। पगली को ससुराल आये काफी अरसा गुजर गया। वह युवावस्था पार कर प्रौढा़वस्था की दहलीज पर खड़ी थी, लेकिन अब भी उसका आंगन बच्चों की किलकारियों के लिए तरस रहा था। उसकी ममता निराशा के गर्त मे डूबी जा रही थी। उसके जीवन में एक खालीपन उभर आया था। सास-ससुर पोते पोतियों का मुंह देखने और उनके साथ खेलने की लालसा दिल में लिए ही स्वर्ग सिधार गये थे।

अब उसका अपने पति से मोह भंग हो चुका था। क्योंकि उसका पति कामचोर, ऐयाश एवम्ं जुआरी हो गया था। नशा और जुआ ही उसके जीवन का उद्देश्य बन कर रह गया था।  उसका ब्यक्तित्व बिखर चुका था।

यद्यपि उसका पति जब होश में होता तो उसे अपने कुकर्मो पर पश्चाताप भी होता। वह पगली के पैरों पर गिर कर क्षमा भी मांग लेता।  फिर कभी शराब न छूने की कसमें भी खाता। हर बार भोली भाली पगली पति के बाहों मे सिमट जाती। यह सोच कर कि वह जैसा भी है, है तो आखिर उसका पति ही।  वह  पगली को दिलोजान से चाहता भी था। वह उसके रूप सौन्दर्य का पुजारी था। ऐसा लगता जैसे प्रेम के कुछ पलों में वह अपना सारा प्यार पगली पर लुटा देना चाह रहा हो। यही वो पल होते जब पगली सारे गिले शिकवे भूल पति के साथ प्रेम के सागर में डूब जाती।

लेकिन अपनी आदतों के कारण जब उसका पति शराब के ठेके पर जाता तो अपनी सारी कसमें वादे भुला कर शराब पीने लगता और इंसान से हैवान बन पगली से पेश आता। सौतन शराब की पीड़ा इतना दुख दे जाती कि पगली आंसू भरे नेत्रों से भगवान की मूर्ति के समक्ष फूट फूट कर रो पड़ती।

अब माता पिता की मृत्यु के बाद उसका पति और स्वछंद हो गया था। पहले घर के जानवर बिके फिर, तन के गहने उसके बाद जमीन गिरवी पड़ती जा रही थी। संपन्नता की जगह विपन्नता ने डेरा डाल दिया था।

इन्ही परिस्थितियों में रहते, अचानक एक दिन पगली पर भगवान गोविन्द कृपालु हुए थे। सहसा उसे महसूस हुआ कि उसकी जिन्दगी में बहार आने वाली है।  खुशियों के पुष्प खिलने वाले हैं। उसके घर कोई नया मेहमान आने वाला है।  घर आने वाले बचपन के क्षणों की कल्पना कर मुस्कुरा उठी थी वह। उसका सारा दर्द सारी पीडा़ छू मंतर हो गई, सारे अवसाद के क्षण भूल कर पगली खुशियों के सागर में डूबती चली गई थी। ऐसा लगा था जैसे बहारों ने उसके घर में डेरा डाल दिया हो। जैसे धूप मे जलते पथिक को झुरमुटों की छांव मिल गई हो। खुशी के इन्ही पलों के साथ उसका समय कटता जा रहा था।

अब पगली का प्रसवकाल समीप था उसका पति उस दिन भरपूर पैग चढा़ गिरता पड़ता घर आया था, तथा टूटी चारपाई पर नशे में लेटा, उनींदी आखों से घर का भीतरी दृश्य देख रहा था।

लेकिन नशे की अधिकता उसके हाथ-पांव पर भारी पड़ रही थी।  वह उठ नही पा रहा था।  गहन अंधेरी रात का कुछ पहर बीतते बीतते पगली प्रसव पीड़ा से छटपटा उठी। उसकी चीखें सुनकर पड़ोसिने अपना पड़ोसी धर्म निभा रही थी। कोई दाइ बुलाने दौड़ा था, कोई पानी गर्म कर रहा था, कुछ बड़ी बूढ़ी महिलाए उसे धैर्य दिलासा दे  हिम्मत बंधा रही थी। उसका असहाय पति निर्निमेष निगाहों से अपना आंगन तक रहा था, जहां दर्द पीड़ा से छटपटाती पत्नी बिलख रही थी।  खुदगर्जी का शिकार उसका पति मन ही मन अपनी विवशता पर रोये जा रहा था।  इसी बीच दर्द और पीड़ा की अधिकता से पगली चीख पडी थी तथा उसका घर आंगन नवजात शिशु के रूदन से गूंज उठा। उसके आंगन में खुशियां ही खुशियां बिखर गई।  उसकी जीवन की डूबती नौका  को जीने का सहारा मिल गया था।  उसने अपनी आँखों में एक बार फिर नये सपने सजाये थे। अपनी गृहस्थी के घरौंदे को फिर से संवारने मे  जुट गई थी पगली। उसके जीवन से रूठे पल वापस आ गये थे।  उसने अपने बच्चे का नाम गौतम यानि (शान्ति का मसीहा) रखा था।

उसकी जीवन नौका को एक नया सहारा मिला था। उसने एक बार फिर निराश आंखों में नये सपने सजाये थे।  एक बार फिर वह सपने सजाने में जुट गई थी। उसके जीवन से रुठे खुशियों के पल वापस लौट आये थे।

 – अगले अंक में पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – भाग -5 – गौतम 

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य ☆ दीपिका साहित्य # 5 ☆ सहेली ☆ सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

( हम आभारीसुश्री दीपिका गहलोत ” मुस्कान “ जी  के जिन्होंने ई- अभिव्यक्ति में अपना” साप्ताहिक स्तम्भ – दीपिका साहित्य” प्रारम्भ करने का हमारा आगरा स्वीकार किया।  आप मानव संसाधन में वरिष्ठ प्रबंधक हैं। आपने बचपन में ही स्कूली शिक्षा के समय से लिखना प्रारम्भ किया था। आपकी रचनाएँ सकाळ एवं अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्रों / पत्रिकाओं तथा मानव संसाधन की पत्रिकाओं  में  भी समय समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। हाल ही में आपकी कविता पुणे के प्रतिष्ठित काव्य संग्रह  “Sahyadri Echoes” में प्रकाशित हुई है। आज प्रस्तुत है आपकी  पुरानी स्मृतियों को संजोती अतिसुन्दर कविता  सहेली । आप प्रत्येक रविवार को सुश्री दीपिका जी का साहित्य पढ़ सकेंगे।

☆ दीपिका साहित्य #5 ☆ सहेली ☆ 

 

आज तुम सयानी हो गयी ,

सब की आंखों की प्यारी हो गयी ,

बचपन बिताया साथ हमनें ,

अब वो बीते जमाने की कहानी हो गयी ,

खेले कूदे संग गली गलियारों में ,

अब वो सब परायी हो गयी,

कूदा-फांदी मस्ती-झगड़े के किस्से अपने ,

अब समझदारी में तब्दील हो गयी ,

पकड़म-पकड़ाई आधी नींद की जम्हाई,

सब अब यादों के पिटारा हो गयी ,

नए दोस्त बना लेने पर रूठना मनाना ,

वो छोटी नादानियाँ हंसी का पात्र हो गयी ,

खुश हैं आज बीते सुनहरे किस्से सोच कर  ,

खुश रहों सदा यही हमारी जुबानी हो गयी ,

आज तुम सयानी हो गयी ,

सब की आंखों की प्यारी हो गयी .

 

© सुश्री दीपिका गहलोत  “मुस्कान ”  

पुणे, महाराष्ट्र

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – नवम अध्याय (6) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

नवम अध्याय

( प्रभावसहित ज्ञान का विषय )

 

यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्‌ ।

तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ।।6।।

 

नभ में स्थित वायु ज्यों सतत स्वतः गतिवान

वैसे ही संसार यह है मुझमें , तू जान।।6।।

      

भावार्थ :  जैसे आकाश से उत्पन्न सर्वत्र विचरने वाला महान्‌ वायु सदा आकाश में ही स्थित है, वैसे ही मेरे संकल्प द्वारा उत्पन्न होने से संपूर्ण भूत मुझमें स्थित हैं, ऐसा जान।।6।।

 

As the mighty wind, moving everywhere, rests always in the ether, even so, know thou that all beings rest in Me.।।6।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – यात्रा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  –  यात्रा 

अंततः मिल गई उसे मन के उद्गार पढ़ने वाली मशीन। जीवन में लोगों से आहत होते-होते थक गया था वह। लोग बाहर से कहते कुछ, भीतर से सोचते कुछ। वह विचार करता कि ऐसा क्यों घटता है? इस तरह तो जीवन में कोई अपना  होगा ही नहीं! कैसे चलेगी जीवनयात्रा?

वह मशीन लेकर लौट रहा था कि रास्ते में एक शवयात्रा मिली। गलती से मशीन का बटन दब गया। मशीन पर उभरने लगा हरेक का मन। दिवंगत को कोई पुण्यात्मा मान रहा था तो कोई स्वार्थसाधु। कुछ के मन में उसकी प्रसिद्धि को लेकर द्वेष था तो कुछ को उसकी संपत्ति से मोह विशेष था। एक वर्ग के मन में उसके प्रति आदर अपार था तो एक वर्ग निर्विकार था। हरेक का अपना विचार था, हरेक का अपना उद्गार था। अलबत्ता दिवंगत पर इन सारे उद्गारों या टीका-टिप्पणी  का कोई प्रभाव नहीं था।

आज लंबे समय आहत मन को राहत अनुभव हुई। लोग क्या कहते हैं, क्या सोचते हैं, किस तरह की टिप्पणी करते हैं, उनके भीतर किस तरह के उद्गार उठते हैं, यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है अपनी यात्रा को उसी तरह बनाए रखना जिस तरह सारी टीकाओं, सारी टिप्पणियों, सारी आलोचनाओं, सारी प्रशंसाओं के बीच चल रही होती है अंतिमयात्रा।

अंतिमयात्रा से उसने पढ़ा जीवनयात्रा का पाठ।

चरैवेति, चरैवेति।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(प्रात: 4.11बजे,  21 दिसम्बर 20 19)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 21 ☆ तब पता चला ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

((सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की पर्यावरण और मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक भावप्रवण कविता  “तब पता चला”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 21 ☆

☆ तब पता चला

 

बड़ी सम्हाल से रखे हैं

अजीब से रिश्तें,

रेत से जब छूटने लगे,

तब पता चला।

 

जख्म किसी ने न देखा

कितना गहरा था ।

मरहम लगाने चले,

तब पता चला ।

 

दास्ताँ किसी ने न सुनी,

कितनी दर्दभरी थी।

कहते रात बीती,

तब पता चला ।

 

वजूद ही खो गया,

तनहा रहते रहते।

खत उसका आया,

तब पता चला ।

 

मंज़र जो मैंने देखा,

वह किसी ने न देखा।

दिल में छेद पाया,

तब पता चला ।

 

हसरतें तब न सुनी,

गुजर गए राह से ।

लोगों में चर्चा हुई,

तब पता चला ।

 

आहों में रात काटी,

नमी कम न हुई ।

हस्ती डूब गई,

तब पता चला ।

 

हसीन ख़्वाब टूटे,

रुख़सत जब हुए।

फारकत जब मिली

तब पता चला ।

 

© सुजाता काळे

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ भीड़ ☆– श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश”

श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश”

 

☆ भीड़ ☆

 

शोर है बाहर सड़कों पर……………….शायद।

कोई जुलूस निकल रहा है…….अरे यह क्या..?

सभी किसी को मार रहे है…………….शायद ।

भीड़………न्यायाधीश बन फैसला कर रही है।

हुजूम है सड़को पर………………………..शायद।

किसी सत्य को….गलत साबित करना है आज।

जन सैलाब है सड़को पर…………………शायद।

गुमराह लोग…….लोगों को गुमराह कर रहे हैं।

कुछ हरे से…..कुछ नीले से…..कुछ भगवा से।

एक नज़र से देखो तो इंद्रधनुषी से दिखते हैं।

सब कोहराम मचाकर कुछ…… सिखा रहे हैं।

कुछ नादान से….मगर मुँह पर कपड़ा बांधकर।

ये देश कि संपत्ति को….नुकसान पहुँचा रहे हैं।

शायद युवा हैं….रोज़गार की मांग कर रहे है।

कुछ नहाये-धोये……सफेद कपड़े पहने से हैं।

एक……दूसरे की ओर…… इशारा कर रहे हैं।

शायद…

ये देश के कर्ता-धर्ता हैं तो नहीं, पर लग रहे हैं।

कुछ सहमे से..कुछ उलझे…मगर असंमजस में।

शायद…

कुछ अच्छे की आस में  केन्डिल जला रहे है।

यह “भीड़”  की ताकत का दुरूपयोग तो नही है।

 

© माधव राव माण्डोले “दिनेश”, भोपाल 

(श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश”, दि न्यू इंडिया एश्योरंस कंपनी, भोपाल में उप-प्रबन्धक हैं।)

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मराठी साहित्य – कादंबरी ☆ मित….. (भाग-2) ☆ श्री कपिल साहेबराव इंदवे

श्री कपिल साहेबराव इंदवे 

(युवा एवं उत्कृष्ठ कथाकार, कवि, लेखक श्री कपिल साहेबराव इंदवे जी का एक अपना अलग स्थान है. आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशनधीन है. एक युवा लेखक  के रुप  में आप विविध सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने के अतिरिक्त समय समय पर सामाजिक समस्याओं पर भी अपने स्वतंत्र मत रखने से पीछे नहीं हटते. हमें यह प्रसन्नता है कि श्री कपिल जी ने हमारे आग्रह पर उन्होंने अपना नवीन उपन्यास मित……” हमारे पाठकों के साथ साझा करना स्वीकार किया है। यह उपन्यास वर्तमान इंटरनेट के युग में सोशल मीडिया पर किसी भी अज्ञात व्यक्ति ( स्त्री/पुरुष) से मित्रता के परिणाम को उजागर करती है। अब आप प्रत्येक शनिवार इस उपन्यास की अगली कड़ियाँ पढ़ सकेंगे।) 

इस उपन्यास के सन्दर्भ में श्री कपिल जी के ही शब्दों में – “आजच्या आधुनिक काळात इंटरनेट मुळे जग जवळ आले आहे. अनेक सोशल मिडिया अॅप द्वारे अनोळखी लोकांशी गप्पा करणे, एकमेकांच्या सवयी, संस्कृती आदी जाणून घेणे. यात बुडालेल्या तरूण तरूणींचे याच माध्यमातून प्रेमसंबंध जुळतात. पण कोणी अनोळखी व्यक्तीवर विश्वास ठेवून झालेल्या या प्रेमाला किती यश येते. कि दगाफटका होतो. हे सांगणारी ‘मित’ नावाच्या स्वप्नवेड्या मुलाची ही कथा. ‘रिमझिम लवर’ नावाचं ते अकाउंट हे त्याने इंस्टाग्रामवर फोटो पाहिलेल्या मुलीचंच आहे. हे खात्री तर त्याला झाली. पण तिचं खरं नाव काय? ती कुठली? काय करते? यांसारखे अनेक प्रश्न त्याच्या मनात आहेत. त्याची उत्तरं तो जाणून घेण्यासाठी किती उत्साही आहे. हे पुढील भागात……”

☆ मित……  (भाग 2)☆

(मन प्रीतीने भरते आणि प्रेमाचा खेळ सुरू होतो. मग कधीकाळी उजाड वाटणारं रानही मग हिरवे गार मनमोहक वाटायला लागते. एक फोटो पाहून त्यावर भाळलेला मितवर त्याचा काय बदल होतोय……..)

फोटो पाहता त्याला कधी झोप लागली ते त्याला कळलेच नाही. रात्री उशीरापर्यंत तो जागा होता. आणि थंडीचे दिवस होते. म्हणून मित सकाळी उशीरापर्यंत झोपून राहीला. पहाटेची गुलाबी थंडीत त्याला झोपणयाचा अधिक मोह चढत होता. सकाळी फोन वाजला तेव्हा त्याला जाग आली. त्याने उशाखालून मोबाईल घातला आणि न पाहताच फोन उचलला आणि तसाच अर्ध झोपेत बोलायला लागला. समोरचा कणखर आवाज ऐकून त्याची झोपच उडाली. मित ” हो पप्पा मी बसतो गाडीत. सायंकाळपर्यंत पोहोचेन घरी ” आणि फोन ठेवला.

बाबांनी बोलावून घेतलं म्हणून मित घरी आला. सहा सात महिन्यानंतर तो घरी परतला होता. बाबांनी त्याला दहा -पंधरा दिवसांसाठी बोलावले होते. तसा मनमिळाऊ स्वभाव तर त्याचा होताच. पण मोठ्या शहरात शिकतो आणि उत्तम लिखाण करून ब-याच ठीकाणी त्याने बक्षिसे मिळविल्या कारणाने गावातली लोक त्याला विषेश आदराने बघायचे. त्याचं बोलणं एखाद्याला मोटिवेट करण्यासारखं असायचं. म्हणून कधी फोनवर तर कधी प्रत्यक्ष भेटून त्याची मित्रमंडळी त्यांच्याकडून कधी सल्ला तर कधी मार्गदर्शन घ्यायचे. गावात आल्यापासून त्याच्या भोवती मित्रमंडळ  असायचे. त्याला तशी क्रिकेटची ही भारी आवड होती. मित आला म्हणून सुमितने त्याला क्रिकेट खेळायला शाळेच्या मैदानावर बोलावले. खेळून झाल्यावर सर्व आपापल्या घरी परतले पण मित मात्र अजूनही तेथेच होता. शाळेच्या आवारात लावलेल्या झाडांजवळ जाऊन तो बालपणातल्या शाळेतल्या आठवणी जागा करू लागला. आणि एकटाच स्वतःशी हसत तर कधी गंभीर मुद्रेत तया झाडाचं आणि शाळेचं  निरीक्षण करू लागला. शेवटी तो एका निलगीरीच्या झाडाजवळ येऊन त्या झाडाला टेकून उभा राहिला. आणि गाणे गायला सुरवात केली. ” ऐ दिल तेरी मर्जी है क्या बता भी दे, खो ना जाऊ जूल्फो मे कही, बचा भी ले ” सुरेल अशा आवाजात तो हे गाणे गात होता. त्याचं आवडतं गाणं होतं म्हणून त्याने ते त्याच्या आवाजात रेकॉर्डही केलं होतं. बाजूलाच रस्त्यावरून जात असलेले रामदास अहिरेंनी ते सुर एकले. आणि त्यांच्याही नकळत त्यांचे पाय मित कडे वळले.

गाणं संपल्यावर त्याने डोळे उघडले. समोरचा अंधूक नजारा आणि डोळयात झालेला गारवा अनूभवून मित प्रसन्न झाला. त्याच्या चेह-यावर हलके स्मित आपसूकच पसरले. त्याचे गाणे एकून जणू वातावरणच रोमँटीक झाले होते. त्याने आजूबाजूला नजर फिरवली. तेव्हा समोर रामदासभाऊ दिसले. त्याने स्मित हसून त्यांना नमस्कार वजा मान हलवली.   “सुरेल गातोस तू. मन अगदी प्रफुल्लित करतोस बघ” असं  म्हणून रामदास भाऊंनी त्याच्या पाठीवर कौतुकाची थाप मारली. “धन्यवाद. पण तुमच्या एवढे नाही” रामदासभाऊ गावातले गीत गायन पार्टीचे संस्थापक होते. कोणाचाही घरी काही खास कार्यक्रम असला की रामदासभाऊ आणि पार्टीला हमखास बोलावणे असायचं. आणि रामभाऊही कसलीही अपेक्षा न ठेवता निस्वार्थपणे सहभागी होत. ” तुझ्या बाबांनी एकदा म्हटलं होतं. पण अपेक्षेपेक्षा अधिक गोड आवाज आहे तुझा आज रात्री छगन आबांच्या घरी गीत गायनाचा कार्यक्रम आहे. ये सहभागी व्हायला ” रामभाऊंनी जास्त न घुमवत सरळ विचारले. त्यानेही स्मित हास्य करत होकारार्थी मान हलवली. ” ये मग रात्री साडेनऊला ” आणि ते तिथून निघून गेले.

 ( क्रमशः )

© कपिल साहेबराव इंदवे

मा. मोहीदा त श ता. शहादा, जि. नंदुरबार, मो  9168471113

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