हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ एक रूह जो कुछ भी नकार सकती है ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का सार्थक  एवं सटीक  व्यंग्य   “एक रूह जो कुछ भी नकार सकती है।  इस व्यंग्य को पढ़कर निःशब्द हूँ। मैं श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर ही छोड़ता हूँ। अतः आप स्वयं  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

☆☆ एक रूह जो कुछ भी नकार सकती है ☆☆

मि. डिनायल में नकारने की एक अद्भुत प्रतिभा है. क्या आप उनसे मिलना चाहेंगे? इसके लिये आपको उनकी रूह को महसूस करना होगा. रूह जो समूचे आर्यावर्त में भटक रही है और मौका-जरूरत इस या उस शरीर में आवाजाही करती रहती है. आज़ाद भारत में उसकी आवाजाही सबसे ज्यादा अमात्य परिषद में देखी गई है. कुछ दिनों पहले उसे वित्त-प्रमुख के शरीर में देखा गया, जो कह रहे थे कि जीडीपी गिरी नहीं है – ये हमारे अर्थव्यवस्था चलाने का नया अंदाज़ है. वो सीमांत प्रदेश-प्रभारियों में दीखायी पड़ती है जो असामान्य परिस्थितियों को स्थिति के सामान्य होने का नया अंदाज़ कहते हैं. आप उससे कहिये कि देश में भुखमरी है. वो तुरंत अमात्यों, जनपरिषद के सदस्यों के भोजन करते हुवे फोटो लेकर इन्स्टाग्राम पर डालेगी. फिर आप ही से पूछेगी – ‘बताईये श्रीमान, कहाँ है भुखमरी?’ वो मृत्यु को नकार सकती है – ‘ये किसानों की आत्महत्याएँ नहीं हैं, यमदूतों के आत्माएँ ले जाने का नया अंदाज़ है’. वो अनावृत्त होते नायकों से कहलवा देती है – ‘ये सियासत में खजुराहो को साकार करने का हमारा नया अंदाज़ है’.

एक बार मैंने रूह से पूछा – ‘तुम गंभीर से गंभीर मसलों को भी इतनी मासूमियत से कैसे नकार लेती हो?’ उसने कहा – ‘शुतुरमुर्ग मेरे इष्टदेव हैं. मैं उनसे प्रेरणा और शक्ति ग्रहण करती हूँ. तूफान आने से पहले रेत में सर छुपा लेती हूँ. जब गुजर जाता है तब सवाल करनेवालों से ही सवाल पूछ लेती हूँ – कहाँ है तूफान? जवाब सुने बगैर रेत में फिर सर घुसा लेती हूँ.’

संकटों से निपटने का उसका ये अनोखा अंदाज़ आर्यावर्त के राजमंदिर की हर प्रतिमा में उतर आया है. उसके डिनायल अवाक् कर देने वाले होते हैं. मि. डिनायल की रूह दंगे करवानेवालों में समा सकती है, बलात्कार करनेवालों में समा सकती है, स्कैमस्टर्स में तो समाती ही है. आप उससे नौकरशाहों में रू-ब-रू हो सकते हैं. वो आपको परा-न्यायिक हत्या के बाद कोतवालों में मिलेगी, सट्टेबाज क्रिकेटरों में मिलेगी, वो न्याय के पहरेदारों में मिलेगी, वो पॉवर की हर पोजीशन में मिलेगी. इस रूह का कोई चेहरा नहीं होता – वो बेशर्म होना अफोर्ड कर पाती है, दिल भी नहीं होता – निष्ठुर होना अफोर्ड कर पाती है, जिगर तो होता ही नहीं है – तभी तो वो कायराना हरकतें कर पाती है. वो जिस शरीर में उतर आती है उसमें सच स्वीकार करने का माद्दा खत्म हो जाता है.

मि. डिनायल की रूह की एक खासियत है, वो समानता के सिद्धान्त का अनुपालन करती है। वो किसी भी दल के किसी भी जननायक में समा सकती है, वो किसी भी समुदाय के किसी भी धर्मगुरु में समा सकती है, वो भाषा, मज़हब, प्रांत का भेद नहीं करती, सबसे एक जैसा झूठ बुलवाती है। वो अधिक पढ़े-लिखों में, बुद्धिजीवियों में, अधिकारियों में स्थायी होने की हद तक निवास करती है.

रूहें जवाबदेह नहीं होतीं, वो भी नहीं है. यों तो वो आपसे हर दिन मुखातिब है, मगर अब के बाद आप उसे ज्यादा शिद्दत से महसूस कर पायेंगे. निकट भविष्य में वो आर्यावर्त से फना होनेवाली तो नहीं ही है.

 

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, TT नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – तलाश ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  तलाश 

 

परिचितों की फेहरिस्त

जहाँ तक आँख जाती है

अपनों की तलाश में पर

नज़र धुंधला   जाती है 

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साहित्य निकुंज # 26 ☆ कविता ☆ समय ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है उनकी एक अतिसुन्दर कविता  ‘समय। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 26 साहित्य निकुंज ☆

☆ समय

 

समय फिसलता जाता है

रेत की तरह

लेकिन मन में है एक आस

मन की देहरी पर

ठिठक जाता है कोई पल

स्मृतियों  के कोहरे से झांक रहा है

वह निकलेगा हल।

बीतता जाता है समय

अब समय हो गया है

व्यतीत ।

रह जाता है अतीत

समय को रोक पाया है कोई

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 17 ☆ अंतर्मन में ज्योति जलाएं ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष”  की अगली कड़ी में प्रस्तुत है उनकी एक अतिसुन्दर प्रेरणास्पद कविता  अंतर्मन में ज्योति जलाएं. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 17 ☆

अंतर्मन में ज्योति जलाएं

अंतर्मन में ज्योति जलाएं ।

आओ तम को दूर भगायें ।।

 

पग पग पर अवरोध बहुत हैं ।

लोगों में प्रतिशोध बहुत है ।।

आओ मिलकर द्वेष हटाएं ।

अंतर्मन में ज्योति जलाएं ।।

 

छल,प्रपंच,पाखंड ने घेरा ।

लोभ,मोह का सघन अंधेरा ।।

मन से तृष्णा दूर भगायें ।

अंतर्मन में ज्योति जलाएं ।।

 

असल सत्य को जान न पाये ।

स्वयं अहंता से इतराये  ।।

क्षमा,दया,करुणा अपनाएं ।

अंतर्मन में ज्योति जलाएं ।।

 

चिंतन और चरित्र की सुचिता ।

परोपकार आचार संहिता ।।

अंतर से हँसे मुस्काएँ  ।

अंतर्मन में ज्योति जलायें ।।

 

अनीति का तिरस्कार करें हम

साहस का संचार करें हम

“संतोष” यह कौशल अपनाएं ।

अंतर्मन में ज्योति जलाएं ।।

 

सब मिल ऐसे कदम बढ़ायें ।

दिव्य गुणों को गले लगायें ।।

आओ तम को दूर भगायें ।

अंतर्मन में ज्योति जलाएं ।।

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – अष्टम अध्याय (25) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अष्टम अध्याय

(ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर )

( शुक्ल और कृष्ण मार्ग का विषय)

धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण षण्मासा दक्षिणायनम्‌।

तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ।।25।।

 

धूप रात्रि कृष्ण पक्ष दक्षिणायन छःमास

च्ंद्र ज्योति को प्राप्त कर आते फिर आवास।।25।।

 

भावार्थ :  जिस मार्ग में धूमाभिमानी देवता है, रात्रि अभिमानी देवता है तथा कृष्ण पक्ष का अभिमानी देवता है और दक्षिणायन के छः महीनों का अभिमानी देवता है, उस मार्ग में मरकर गया हुआ सकाम कर्म करने वाला योगी उपयुक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले गया हुआ चंद्रमा की ज्योत को प्राप्त होकर स्वर्ग में अपने शुभ कर्मों का फल भोगकर वापस आता है।।25।।

 

Attaining to the lunar light by smoke, night-time, the dark fortnight or the six months of the southern path of the sun (the southern solstice), the Yogi returns.।।25।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 11 ☆ लघुकथा – ग्रहण ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है उनकी एक  सामयिक, सार्थक एवं  मानसिक रूप से विकृत पुरुष वर्ग के एक तबके को स्त्री शक्ति से सतर्क कराती  सशक्त लघुकथा “ग्रहण ”. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 11 ☆

☆ लघुकथा – ग्रहण ☆ 

 

बहू! दोपहर १२ बजे से सूर्यग्रहण लग रहा है। आज ऑफिस में ही कुछ खा लेना। ग्रहण में कुछ खाते नहीं है।

अम्माजी, मैं ये सब नहीं मानती, ऑफिस से आकर ही खाना खाऊँगी।

सासू माँ को उसका उत्तर पसंद नहीं आया। सास-ससुर दोनों उसकी निंदा में उलझ गए। ये आजकल की बहुएँ थोड़ा पढ़-लिख क्या गई अपने सामने किसी को कुछ समझती नहीं। बहू की निंदा से जो सिलसिला शुरू हुआ वह परिवार के कई सदस्यों को टटोलता हुआ बहुत देर तक चलता रहा—– भगवान ! सुजाता जैसी लड़की किसी को न दे, ब्राह्मण की लड़की कायस्थों में चली गई, नाक कटा दी हमारी। अरे, अपने महेश को देखो। रिश्तेदारों से माँग-माँगकर लड़की की शादी निपटा ली। जाते समय मिठाई का एक टुकड़ा भी नहीं दिया। छोटा भाई है तो क्या? माना एक लड़की और है शादी के लिए, बेटा भी अभी पढ़ ही रहा है- तो क्या? हमारी तो बेकदरी हुई शादी में। घराती क्या खाना नहीं खाते, शादी ब्याह में?

और अपनी दया बहन जी। पति का शुगर बढ़ा हुआ है- तो क्या आफत आ गई? आलू नहीं खायेंगे, भिंडी बनाओ। अपना बैठी रहेंगी हमें काम पर लगा देंगी…… पर निंदा चलती रही। दोपहर १२ बजे से ग्रहण था। उसके पहले ही भरपेट नाश्ता करके दोनों बैठे थे। चार बजे के बाद ही कुछ खाना था। दोनों को कोई काम था नहीं और भरपेट निंदा में बहुत बल था- ‘पर निंदा परं सुखम्।‘

दूरदर्शन पर सूर्यग्रहण पर निरंतर चर्चा चल रही थी। ग्रहण से जुडे मिथकों की वास्तविकता बतायी जा रही थी। अंधविश्वासों का ग्रहण से कोई संबंध नहीं है। गंगा स्नान से पाप धुल जाते तो दुनिया में पापी रह ही नहीं जाते ?

टी.वी. देखते देखते सास-ससुर की चर्चा फिर शुरू हो गयी| हम दोनों ने क्या पाप किए हैं जो बिना खाए-पिए बैठे ग्रहण हटने का इंतजार कर रहे हैं। आशा ! हम दोनों ने तो कभी किसी की बुराई भी नहीं की। कबीर का दोहा मुझे याद आ रहा था-

‘निंदक नियरे राखिये —

कबीर के निंदक को मैं तलाश रही थी। ग्रहण मुझे वहाँ स्पष्ट दिख रहा था।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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Weekly column ☆ Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 19 – The Poetry ☆ Ms. Neelam Saxena Chandra

Ms Neelam Saxena Chandra

 

(Ms. Neelam Saxena Chandra ji is a well-known author. She has been honoured with many international/national/ regional level awards. We are extremely thankful to Ms. Neelam ji for permitting us to share her excellent poems with our readers. We will be sharing her poems on every Thursday Ms. Neelam Saxena Chandra ji is Executive Director (Systems) Mahametro, Pune. Her beloved genre is poetry. Today we present her poem “The Poetry.)

☆ Weekly column  Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 19

☆  The Poetry ☆

 

Poetry should be loved forever,

And to keep loving it,

You have to keep it

In the chambers of your fragile heart.

 

If you throw it out

And still expect it to love you,

You are in a world of illusion.

 

Hoping that it will adjust

To its new surroundings

Outside your heart,

Is a misapprehension.

 

Love is its forte

And it shall keep loving you,

But it shall

Neither knock at your door,

Nor even be visible to your naked eyes.

 

One day,

When you shall finally understand

How much did the poetry love you,

You will miss its benign presence,

You will yearn for it to come back,

You will crave to hold its hands,

You will long to clasp it in your warm embrace;

But it won’t return.

 

After all,

Poetry is a butterfly

And its wings are fragile.

 

© Ms. Neelam Saxena Chandra

(All rights reserved. No part of this document may be reproduced or transmitted in any form or by any means, or stored in any retrieval system of any nature without prior written permission of the author.)

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आत्ममंथन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

(We present an English Version of this Hindi Poetry “ आत्ममंथन ”  as ☆ Introspection ☆.  We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation. )

☆ संजय दृष्टि  – आत्ममंथन ☆

(कविता संग्रह ‘योंही’ से)

जब कभी

अपने आप से मिलता हूँ

एक नई रचना रचता हूँ,

आज पीछे मुड़कर देखा

अपनी रचनाओं को गिना

तो लगा,

इतना लंबा जीवन जी चुका हूँ

कितनी कम बार

अपने आप से मिल सका हूँ!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 5 ☆ गीत – आर्यावर्त है देश हमारा ☆ – डॉ. राकेश ‘चक्र’

डॉ. राकेश ‘चक्र’

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। यह हमारे लिए गर्व की बात है कि डॉ राकेश ‘चक्र’ जी ने  ई- अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से अपने साहित्य को हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर लिया है। इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  राष्ट्र को समर्पित एक गीत  “आर्यावर्त है देश हमारा.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 5 ☆

☆  आर्यावर्त है देश हमारा ☆ 

 

सत्य, सनातन गौरवशाली,

आर्यावर्त है देश हमारा।

शुचिता ,समता के सपनों का

भारतवर्ष बनेगा प्यारा।।

 

इसका शिखर हिमालय हमको,

मोर मुकुट पहनाता है।

पावन-भावन गंगा से नित,

जन-जीवन मुस्काता है।

तपी ,तपस्वी ,ज्ञानी ,ध्यानी

थाती की परिपाटी में।

मर्यादाएं दीप जलाएं,

रोम-रोम हर्षाता है।

 

धन्य धरा हो विश्व पटल पर।

आओ मिल सब करें उजारा।।

 

विवस्वान राजा का पुत्र,

वैवस्वत मनु भारत कहलाया।

आर्यावर्ते भरतखंडे आदित्य,

बना गगन में प्रतिछाया।

दुष्यंत पुत्र थे भरत वीर प्रतापी,

हुए क्षत्रिय भारतनामी।

शौर्य पराक्रम भारतों का वर्षा,

भारतवर्ष यही कहलाया।

 

मान और सम्मान बढ़ाएं।

मिटे धरा से सब अंधियारा।।

 

करें आरती सभी आर्यजन,

वेद नीति के कमल खिलाएं।

गूँजे भारती, कृष्ण सारथी,

टूटे मन को सभी मिलाएं।

पुण्ड्या भारत भूमि जग में,

आर्यजनों के वंशज जिसमें।

सुसंस्कार, सुसंस्कृति सभ्यता,

प्रीति की ऐसी रीति चलाएँ।

 

काले गोरे थाती सब ही।

मिलकर सबने देश सँवारा।।

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

e-mail –  [email protected]

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English Literature – Poetry – ☆ Introspection ☆ – Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(We are extremely thankful to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for sharing his literary and artworks with e-abhivyakti.  An alumnus of IIM Ahmedabad, Capt. Pravin has served the country at national as well international level in various fronts. Presently, working as Senior Advisor, C-DAC in Artificial Intelligence and HPC Group; and involved in various national-level projects.

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi Poetry “ आत्ममंथन” published in today’s edition as  संजय दृष्टि  – आत्ममंथन  We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation.)

 

☆ Introspection  ☆

 

I meet myself

A new creation emerges,

Looking back today

Counted my creations

Then I felt

Though lived such a long life

But,

How seldom

Could I meet myself..!

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

 

 

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Poetry,
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