हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ विश्वास बनाम बर्दाश्त ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं. आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी  का रिश्तों को लेकर एक बेहद संवेदनात्मक एवं शिक्षाप्रद आलेख “विश्वास बनाम बर्दाश्त”.  रिश्तों की बुनियाद ही विश्वास पर टिकी होती है.  रिश्तों में एक बार भी शक की दीमक लग गई तो रिश्तों की दीवार ढहने में कोई समय नहीं लगता.   कहते हैं कि – शक की बीमारी का इलाज हकीम लुकमान के पास भी नहीं था।  डॉ मुक्ता जी  ने वर्तमान समय में  रिश्तों की अहमियत, उन्हें निभाने की कला एवं रिश्तों में कड़वाहट आने से टूटने तक की प्रक्रिया की बेहद बेबाक एवं बारीकी से  विवेचना की  है.  इस बेहद संवेदनशील आलेख के लिए उनकी कलम को नमन. )

 

☆ आलेख –  विश्वास बनाम बर्दाश्त ☆

 

‘रिश्ते बनते तो विश्वास से हैं, परंतु चलते बर्दाश्त से हैं‘ इस वाक्य में इतनी बड़ी सीख छिपी है… जैसे सीप में अनमोल मोती। विश्वास ज़िन्दगी की अनमोल दौलत है। विश्वास द्वारा आप किसी का हृदय ही नहीं जीत सकते, उसमें स्थायी बसेरा भी स्थापित कर सकते हैं। विश्वास से बड़े-बड़े देशों में संधि हो सकती है, युद्ध-विराम की कसौटी पर भी  विश्वास सदा खरा उतरता है। विश्वास द्वारा आप गिरते को थाम कर, उसमें धैर्य, साहस व उत्साह का संचार कर सकते हैं, जिसे जीवन में धारण कर वह कठिन से कठिन आपदाओं का सामना कर सकता है। हिमालय पर्वत की चोटी पर परचम लहरा सकता है, सागर के अथाह जल में थाह पा सकता है…यह है विश्वास की महिमा।

‘रिश्ते विश्वास से बनते हैं’और जब तक विश्वास कायम रहता है, रिश्ते मज़बूत रहते हैं, पनपते हैं, विकसित होते हैं…परंतु जब हृदय रूपी आकाश पर संदेह रूपी बादल मंडराने लगते हैं, शक़ हदय में स्थान बना लेता है…तब थम जाता है यह दोस्ती का सिलसिला और एक-दूसरे को बर्दाश्त करना कठिन हो जाता है।  ह्रदय का स्वभाव बन जाता है… हर पल दोषारोपण करने का, कमियां ढूंढने का, अवगुणों को उजागर करने का, अहं-प्रदर्शन करने का और ज़िन्दगी उस पड़ाव पर आकर थम जाती है, जहां वह स्वयं को एकांत से जूझता हुआ अनुभव करता है। लाख चाहने पर भी वह शंका रूपी व्यूह से मुक्त नहीं हो पाता

शायद! इसीलिए हमारे ऋषि मुनि सहनशीलता का संदेश बखानते हैं, क्योंकि यह वह संजीवनी है जो बड़े-बड़े दिग्गजों के हौंसले पस्त कर देती है। दूसरे शब्दों में  ‘सहना है, कहना नहीं ‘ इसी का प्रतिरूप है, मानो ये सिक्के के दो पहलू हैं। नारी को  बचपन से ही मौन रहने व ऊंचा न बोलने की हिदायत दी जाती है और बचपन में ही यह अहसास दिला दिया जाता है कि उसे दूसरे घर में जाना है।सो! उसे मौन रूपी गुणों को आत्मसात् कर प्रत्युत्तर नहीं देना है। यही दो घरों की इज़्ज़त बचाने का मात्र साधन है,उपादान है, कुंजी है। इसी के आधार पर ही वह दो कुलों की मान-मर्यादा की रक्षा कर सकती है।

परंतु आजकल इससे उलट होता है। संसार का कोई भी प्राणी किसी के अंकुश में नहीं रहना चाहता। हर इंसान अहर्निश अहं में डूबा रहता है, स्वयं को सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम स्वीकारता है जिसके सम्मुख दूसरों का अस्तित्व नगण्य होता है। वास्तव में रिश्ते बर्दाश्त से चलते हैं अर्थात् उनका निर्वाह दूसरे को उसकी कमियों के साथ स्वीकारने से होता है। जैसा कि सर्वविदित है कि इंसान गलतियों का पुतला है, अवगुणों की खान है, स्व-पर व राग-द्वेष की ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ इंसान मोह-माया के जंजाल से मुक्त नहीं हो पाता। संसार के आकर्षण उसे हर पल आकर्षित कर पथ-भ्रष्ट करते हैं और वह स्वार्थ के आधीन होकर,अपने जीवन के मूल लक्ष्य से भटक जाता है

रिश्ते बनाना बहुत आसान है। मानव पल भर में रूप-सौंदर्य व वस्तुओं-संसाधनों की ओर आकर्षित हो जाता है, जो देखने में सुंदर-मनभावन होते हैं। परंतु कुछ समय बाद उसका भ्रम टूट जाता है और विश्वास के स्थान पर जन्म लेता है…अविश्वास, संदेह,  भ्रम व आशंका, जिसके कारण संबंध अनायास टूट जाते हैं।

सत्य ही तो है, ‘आजकल संबंध व स्वप्न ऐसे टूट जाते हैं, जैसे भुने हुए पापड़।’  एक-दूसरे को बर्दाश्त न करने के कारण संबंध-विच्छेद होने में पल भर भी नहीं लगता। उसके पश्चात् मानव ‘तू नहीं, और सही’ की राह पर चल निकलता है और ‘लिव इन’ में रहना पसंद करता है… जहां कोई बंधन नहीं, सरोकार नहीं, दायित्व नहीं…. और एक दिन यह उन्मुक्तता जी का जंजाल बन जाती है, जिसके परिणाम- स्वरूप वह रह जाता है, नितांत अकेला, खुद से बेखबर, अपनों की भीड़ में अपनों को तलाशता, सुक़ून पाने को लालायित, इत-उत झांकता,परिवार- जनों से ग़ुहार लगाता… परंतु सब निष्फल।

ऐसी विसंगतियों से उपजे रिश्ते कभी स्थायी नहीं होते। आजकल तो रिश्तों को ग्रहण लग गया है।कोई भी रिश्ता पाक़-साफ़ नहीं रहा। गुरु-शिष्य व पिता- पुत्री का संबंध, जिसे सबसे अधिक पावन स्वीकारा जाता था, उस पर भी कालिख पुत गई है। अन्य संबंधों  की चर्चा करना तो व्यर्थ है। आजकल बहन- बेटी का रिश्ता भी अस्तित्वहीन हो गया है और शेष बचा है, एक ही रिश्ता… औरत का, जिसे वासना पूर्ति का मात्र साधन समझा जाता है। समाज में गिरते मूल्यों के कारण चंद दिनों की मासूम कन्या हो या नब्बे वर्ष की वृद्धा…दबंग लोग उससे दुष्कर्म करने में भी संकोच नहीं करते क्योंकि उन्हें तो पल भर में अपनी हवस को शांत करना होता है। उस स्थिति में वे जाति-पाति व उम्र के बंधनों से ऊपर उठ जाते हैं।

रिश्तों की दास्तान बड़ी अजब है। खून आजकल पानी होता जा रहा है और इंसान मानवता के नाम पर कलंक है, जिसका उदाहरण है…गली-गली,चप्पे- चप्पे पर दुर्योधन और दु:शासन का द्रौपदी का चीर- हरण कर, मर्यादा की सीमाओं को लांघ जाना… जिसके उदाहरण हर शहर में निर्भया, आसिफ़ा व अन्य पीड़िता के रूप में मिल जाते हैं, जो लंबे समय तक ज़िन्दगी व मौत के झूले में झूलती संघर्षरत देखी जा सकती हैं। उन्हें हरपल सामाजिक अवमानना, शारीरिक व मानसिक प्रताड़ना सहन करनी पड़ती है। तनिक स्वयं को उसके स्थान पर रख कर देखिए …क्या मन:स्थिति होगी उन मासूम बालिकाओं की, जिन्होंने इतने दंश झेले होंगे। आजकल तो सबूत मिटा डालने के लिए, निर्मम हत्या कर डालने का प्रचलन बदस्तूर जारी है।

यह है समाज का घिनौना सत्य….यहां ऐसिड अटैक का ज़िक्र करना आवश्यक है। एकतरफ़ा प्यार या प्रेम का प्रतिदान न मिलने की स्थिति में सरे-आम तेज़ाब डालकर उस मासूम को जला डालने को सामान्य-सी घटना समझा जाता है। क्या कहेंगे आप इसे… अहंनिष्ठता, विकृत मानसिकता या दबंग प्रवृत्ति, जिसके वश में हो कर इंसान ऐसे कुकृत्य को अंजाम देता है, जिसका मूल कारण है… संस्कार- हीनता, जीवन-मूल्यों का विघटन व समाज में बढ़ गई संवेदनशून्यता, जिसके कारण रिश्ते रेत होते जा रहे हैं।

संदेह, शक़ व अविश्वास के वातावरण में व्यक्ति एकांत की त्रासदी झेलने को विवश है और मानव स्वयं को इन रिश्तों के बोझ तले दबा हुआ असहाय-सा पाता है और उन्हें निर्भयता से तोड़ कर स्वतंत्रता-पूर्वक अपना जीवन-यापन करना चाहता है। संबंधों को गले में लिपटे हुए मृत्त सर्प की भांति अनुभव करता है, जिनसे वह शीघ्रता से मुक्ति प्राप्त कर लेना चाहता है। इसलिए रिश्तों में ताज़गी,माधुर्य व संजीदगी के न रहने के कारण, वह उसे बंधन समझ कुलबुलाता है और ठीक-गलत में भेद नहीं कर पाता। आजकल मानव रिश्तों को ढोने में विश्वास नहीं करता और उन्हें सांप की केंचुली की भांति उतार फेंकने के पश्चात् ही सुकून पाता है… जिसका मुख्य कारण है, सहनशीलता का अभाव। मानव अपनी मनोनुकूल स्थिति में  जीना चाहता है। ‘खाओ पीओ, मौज उड़ाओ’ और ‘जो गुज़र गया, उसे भूल जाओ’ तथा स्मृतियों में व उसके साथ ज़िन्दगी मत बसर करो और जो तुम्हारे गले की फांस बन जाए, उसे अनुपयोगी समझ अपनी ज़िन्दगी से बेदखल कर, नये जीवन साथी की तलाश करो।’यही ज़िन्दगी का सार है और आज की संस्कारहीन युवा पीढ़ी इन सिद्धांतों में विश्वास रखती है, जो ज़िन्दगी को नरक बना कर रख देते हैं। ऐसे लोग, जिनमें सहनशीलता का अभाव होता है..जो दूसरों पर विश्वास नहीं करते, कभी भी उस भटकन से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकते। सो! सहनशीलता मानव का सर्वश्रेष्ठ, सर्वोच्च व सर्वोत्तम आभूषण है।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – अक्स – ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – अक्स

कैसे चलती है कलम

कैसे रच लेते हो रोज?

खुद से अनजान हूँ

पता पूछता हूँ रोज,

भीतर खुदको हेरता हूँ

दर्पण देखता हूँ रोज,

बस अपने ही अक्स

यों ही लिखता हूँ रोज।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण – ☆ एक सजीव अमर संस्मरण ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है।

आज प्रस्तुत है  श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी का एक  बेबाक एवं अविस्मरणीय किन्तु ,शिक्षाप्रद संस्मरण। अक्सर हम जीवन में कई ऐसे अवसर अनजाने में अथवा जानबूझ कर खो देते हैं,  जिन्हें हम दुबारा नहीं जी सकते और आजीवन पश्चाताप के अलावा हमारे पास कुछ भी नहीं बचता।अतः जीवन के प्रत्येक अवसर को सोच समझ कर सकारात्मक दृष्टिकोण से ले चाहिए।  दूसरी सबसे बड़ी  बात उस गलती को स्वीकारना है जो हमसे हुई है और साथ ही दुःख इस बात का कि हम विश्व को एक अनमोल धरोहर विरासत में देने से वंचित रह गए। )

 

संस्मरण – एक सजीव अमर संस्मरण ☆

 

वाट्सएप फेसबुक पर बहुत पढते रहते हैं कि हार-जीत खोना-पाना सुख-दुख इन सबसे मन को विचलित नहीं करना चाहिए। सच कहें तो कहना बहुत आसान है लेकिन अमल करना बहुत ही कठिन है। अक्सर पुरानी यादें ताजा होकर पछतावे का एहसास करवा जाती हैं।ऐसा ही एक संस्मरण आपके दरबार में रख रही हूँ।

1979/80 के साल की बात है। मैं हिन्दी साहित्य में एम ए कर रही थी। मेरी 70 वर्षीय नानी हमारे घर कुछ दिनों के लिए आईं थीं।  दो भैय्या भाभी भतीजे भतीजियों से भरे पूरे परिवार में – – – एक कोने में छोटी सी परछत्ती में मैं पढाई करती रहती। बहुत बार नानी मेरे पास आ जातीं और बडे़ कौतुक से मेरे आसपास बिखरे उपन्यास और साहित्यिक पुस्तकों को उलटती पलटती रहतीं। उन्हे अक्षर ज्ञान नहीं था। लेकिन कुछ जानने की सुनने की ललक बहुत थी।

कई बार मैं उन्हें प्रेमचंद की कहानियों के अंश प्रसाद निराला की कविताएं मीरा सूर तुलसी के पद जो खुद पढती उन्हें सुना देती। वे बड़ी रुचि से सुनतीं और खुश होतीं।

एक बार बड़े ही हिचकिचाते हुए वे मुझसे बोलीं बिट्टी हम तो लिख नईं सकत आएं। तुम हमरे गाने लिख कै रख लौ बाद मे ऐसी पुस्तक मा छपा देना।

उस उम्र के अनचीन्हे एहसासों और नादान ऐबों से संचालित मैं मन ही मन हंस पड़ी मगर उनको हाँ कह दिया और भूलभाल गई । दूसरे दिन वे सचमुच मेरे पास आ बैठीं और बोलीं हाँ चलो सुरु हो जाओ। हम गावत हैं तुम लिखौ।

अब मैं बडे़ धर्मसंकट में। कुछ दिन बाद पेपर हैं। परीक्षा का खौफ और उस पर नानी का ये ह्रदय स्पर्शी आग्रह। उनके बुंदेलखंडी भाषा के गाने बहुत ही प्यारे होते थे। लेकिन – -अभी क्या करूँ???

पढाई करते वक्त बाहर की आवाजों से बचने के लिए मैं अक्सर कान में छोटे कपास के गोले लगा लेती थी।बस मैंने रास्ता निकाल लिया। नोटबुक निकाला और नानी को गाना गाने के लिए बोल दिया। मेरी नानी— वह भोली भाली सरस्वती गाती रहती – – – बारहमासी ऋतु गीत, छठी, बरहों, मुंडन गीत, जच्चा के सोहर, शहनाईयों से भी मधुर बन्ना बन्नी, श्रीगणेश की स्तुति से लेकर कान्हा की शरारतों तक के मौलिक पदऔर कान्हा को बरजतीं जसोदा की झिड़की तक के मधुर भजन—रामजी के नाम की महिमा से लेकर रावण द्वारा लक्ष्मण को उपदेश तक के आख्यान – – भैरव गीत से लेकर देवी मैया के जस,  सावनी से लेकर कजरी की मधुर ताल, रसिया से लेकर दादरा ठुमरी तक – – – मधुर आंचलिक गीतों के अक्षय भंडार को वे लुटाती रहतीं और मैं – – –

शर्म आती है आज अपने आप पर कि मैं अपने नोट्स की प्रैक्टिस करती रहती—- लिखती रहती नोट बुक में दिनकर और पंत की कविताओं के संदर्भ सहित अर्थ – – या ध्रुव स्वामिनी के संवाद–या प्रेमचंद के पात्रों का चरित्र चित्रण।

बीच बीच में नानी पूछती “लिख लौ” दिल में घबराहट होती मगर मैं झूठमूठ मुस्कान लपेटे कह देती “हाँ लिख लिया”! मजबूरी परीक्षा की मैं खुद को माफ कर देती।

उन्हें अक्षर ज्ञान नहीं था। वे मेरी नोटबुक को हाथ में लेकर बड़ी उत्कंठा से उलटती पलटती – – सृजन का आल्हाद चेहरे को अनूठी चमक से भर देता। मन ही मन अपने आप पर हजारों हजार लानतें भेजती मैं अपने चेहरे को भावहीन बना लेती। आज भी आँखों के साथ साथ हदय भी नम हो रहा है यह संस्मरण लिखते समय।

यह सिलसिला कई दिनों तक चलता रहा। नानी दिन भर गुनगुन गुनगुनाती गाने याद करती रहतीं और शाम को मेरे पास” लिखवातीं। ” कुछ दिनों बाद नानी चलीं गईं गांव वापस और कुछ समय बाद भगवान के पास। लेकिन वे अपना एक अटूट विश्वास, एक अदृश्य अमानत मेरे पास रखा गईं कि मैं उनके गानों को सहेज कर रखूंगी। हो सका तो पुस्तक बनाउंगी।

लेकिन मेरा दुर्भाग्य कि मैं  तो खाली हाथ थी। काश नानी की थाती में से कुछ तो लिख लेती।

मैं तो मगन थी लिखे लिखाए साहित्य को पढ़कर परीक्षा हाॅल में ज्यादा से ज्यादा पन्ने काले करने की कला को तराशने में। पढाई के नाम पर फर्स्ट क्लास मेरिट मेडल की जद्दोजहद में मैं भूल गई नानी को और नानी के विश्वास की थाती को।

लेकिन पकती उम्र के साथ नानी की वह गुनगुनाहट, अकुलाहट, सुरों की झनझनाहट अधिक याद आने लगी है। बहुआयामी, अमूल्य, आंचलिक, मौलिक साहित्य की अवहेलना करके मैंने जो खोया है उसके सामने आज का स्वलिखित या किसी का भी लिखा अन्य बेशकीमती साहित्य भी मुझे नहीं भरमाता।

आज नानी नहीं हैं, मैं खुद दादी नानी बन चुकी हूँ – – – अनेकानेक क्षमादान की अभिलाषा के साथ – – चाहत है कि – – -मेरी नानी का अलिखित अलख आशीर्वाद बन कर मेरी लेखनी के लिए वरदा रहे! बस यही मांगती हूँ नानी से! – – और आप सुधि पाठकों से कि मेरे संस्मरण से सीख लेकर अपनी पुरानी अमानतों को आंचलिक, बोली- भाषाओं के मौलिक, मौखिक साहित्य को  बचाएं– संजोएं– सजाएं। वर्तमान के छलावों से बचें अतीत को ना बिसराएं कि हमें भी तो एक दिन अतीत बनना है।

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 10 ☆ पतझड़ ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की  एक भावप्रवण कविता  ‘पतझड़ ‘।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 10 ☆

☆ पतझड़

मैंने देखा,
पतझड़ में
झड़ते हैं पत्ते,
और
फल – फूल भी
छोड़ देते हैं साथ।
बचा रहता है
सिर्फ ठूँस
किसलय की
बाँट जोहते हुए।

मैंने देखा
उसी ठूँठ पर
एक घोंसला
गौरेय्ये का,
और सुनी
उसके बच्चों की
चहचहाट साँझ की।
ठूँठ पर भी
बसेरा और
जीवन बहरते
मैंने देखा
पतझड़ में ।

© सुजाता काले
पंचगनी, महाराष्ट्रा।
9975577684

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 12 – अंतिम चेतावनी ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “अंतिम चेतावनी ।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 12 ☆

 

☆ अंतिम चेतावनी  

 

रावण ने कहा –  “हे बेवकूफ वानर, मैं वही रावण हूँ जिनकी बाहों की शक्ति पूरा कैलाश जानता है। मेरी बहादुरी की सराहना महादेव ने भी की है जिनके आगे मैंने अपने सिर भेट स्वरूप चढ़ायेहैं । तीनों दुनिया मेरे विषय में जानती है”

अंगद ने कहा –  “आप अपने रिश्तेदारों के विषय में जानते हैं। ताड़का, मारिच, सुभाहू, और अन्य कई अब वह कहाँ हैं? वे भगवान राम के द्वारा जैसे वो बच्चों को खेल खिला रहे हो इस तरह मारे गए।भगवान परशुराम (अर्थ : राम जिनके पास हमेशा एक कुल्हाड़ी हो), जिन्होंने क्षत्रियों के पूरे वंश को कई बार मारा था को भगवान राम ने बिना किसी भी कुल्हाड़ी के पराजित किया था। वह इंसान कैसे हो सकते है? हे मूर्ख, क्या राम एक इंसान है? क्या काम देव (कामुक या यौन प्रेम की इच्छाओं के भगवान), केवल एक तीरंदाज है? क्या गंगा (दुनिया की सबसे पवित्र नदी), केवल एक नदी है? क्या कल्पवृक्ष (इच्छा-पूर्ति करने वाला दिव्य वृक्ष) केवल एक वृक्ष है? क्या अनाज केवल एक दान है? क्या अमृत (अमरता का तरल), केवल एक रस ​​है ? क्या गरुड़ केवल एक पक्षी है? क्या शेषनाग (एक दिव्य सांप जो यह दिखाता है कि विनाश के बाद क्या बचा है), केवल एक साँप है? क्या चिंतामाणि (इच्छा-पूर्ति करने वाला रत्न), केवल एक मणि है? क्या वैकुण्ठ (भगवान विष्णु का निवास, हर आत्मा का अंतिम गंतव्य), केवल एक लोकहै? क्या वह वानर जिसने तुम्हारे बेटे और तुम्हारी सेना को मार डाला, एवं अशोक वटिका को नष्ट कर दिया, और तुम्हारे नगर जला को डाला केवल एक वानर है? हे, रावण, भगवान राम के साथ शत्रुता को भूल जाओ और उनकी शरण में चले आओ, अन्यथा तुम्हारे कुल का नामोनिशान तक मिट जायेगा”

 

 

© आशीष कुमार  

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 9 ☆ तू तेजस्विनी ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है. श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होतं आहे रे ”  की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  उनकी कविता तू तेजस्विनी जो स्त्री जीवन पर आधारित महान महिलाओं को स्मरण कराती हुई एक अद्भुत कविता है.  श्रीमती उर्मिला जी  की सुन्दर कविता के माध्यम से उन समस्त स्त्री शक्तियों को नमन  एवं श्रीमती उर्मिला जी को ऐसी सुन्दर कविता के लिए हार्दिक बधाई. )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 9 ☆

 

☆ तू तेजस्विनी ☆

(विषय :- स्त्री जीवन)

 

तू तेजस्विनी माऊलींची मुक्ताबाई !

तू शूर शिवरायांची आई जिजाबाई !

तू कोल्हापूरची राणी पराक्रमी ताराबाई !

तू वीर शंभूराजे ची राजकुशल येसूबाई !

तू रायगडाच्या बुरुजावरची हिरकणी !

तू देशाची प्रथम प्राध्यापिका क्रांतीज्योती फुले सावित्रीबाई !

तू भगिनी निवेदिता विविकानंद बहिणाई !

तू आदीवासींची प्रथम शिक्षिका वाघ अनुताई !

तू कवयित्री बहिणाबाई, शेळके शांताबाई !

तू कुसुम देव राज्यातील पहिली महिला तडफदार फौजदार !

तू लेफ्टनंट साताऱ्याची जिद्दी स्वाती महाडीक !

तू आदीवासींची डॉक्टर राणी बंग व आमटे मंदाकिनी !

तू चपलगामिनी महाराष्ट्राची माणदेशी ललिता बाबर !

तू डोक्यावर पाटे-वरवंटे विकून झालेली पोलीस उपनिरीक्षक पद्मशिला तिरपुडे !

तू प्रसिद्ध इन्फोसिस कंपनीची उद्यमशीला सुधा मूर्ती !!

 

सलाम या नारी शक्तीला

 

©®उर्मिला इंगळे, सातारा

दिनांक:-४-१०-१९

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (32) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( विस्तार से ध्यान योग का विषय )

 

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।

सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ।।32।।

 

अर्जुन ! जो सबको सदा लखता आत्म समान

सुख में या दुख में हो कोई,योगी वही महान।।32।।

 

भावार्थ :  हे अर्जुन! जो योगी अपनी भाँति (जैसे मनुष्य अपने मस्तक, हाथ, पैर और गुदादि के साथ ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र और म्लेच्छादिकों का-सा बर्ताव करता हुआ भी उनमें आत्मभाव अर्थात अपनापन समान होने से सुख और दुःख को समान ही देखता है, वैसे ही सब भूतों में देखना ‘अपनी भाँति’ सम देखना है।) सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख अथवा दुःख को भी सबमें सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है।।32।।

 

He who, through the likeness of the Self, O Arjuna, sees equality everywhere, be it  pleasure or pain, he is regarded as the highest Yogi! ।।32।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – अक्षय – ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

We present an English Version of this poem with the title  ☆ Inexhaustiblepublished today. We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation.)

 

☆ संजय दृष्टि  – अक्षय ☆

बचपन में उसने तीन ‘द’ की कहानी पढ़ी थी।  दानवों से दया, देवताओं से इंद्रिय दमन और मनुष्यों से दान अपेक्षित है।वह अकिंचन था। देने के लिए कुछ नहीं था उसके पास। फिर वह अपनी रोटी में से एक हिस्सा दूसरों को देने लगा। प्यासों में बाँटकर पानी पीने लगा। छोटों को हाथ और बड़ों को साथ देने लगा।

सुनते हैं, अकिंचन का संचय सदा अक्षय रहा।

जीवन ऊर्जा अक्षय रहे।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 19 ☆ तेरे दर्शन पाऊं ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी  की  एक आध्यात्मिक  कविता/गीत   “तेरे दर्शन पाऊं”.  डॉ  मुक्ता जी के इस  रचना में  गीत का सार भी  कहीं न  कहीं इस पंक्ति “मन मंदिर की  बंद किवरिया, कैसे बाहर आऊं “ में निहित है.) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 19 ☆

 

☆ तेरे दर्शन पाऊं ☆

 

मनमंदिर की जोत जगा कर तेरे दर्शन पाऊं

तुम ही बता दो मेरे भगवान कैसे तुझे रिझाऊं

मन मंदिर……

 

पूजा-विधि मैं नहीं जानती, मन-मन तुझे मनाऊं

जनम-जनम की  दासी  हूं  मैं, तेरे ही गुण गाऊं

मन मंदिर……

 

मेरी अखियां रिमझिम बरसें, कैसे दर्शन पाऊं

कब रे  मिलोगे, गुरुवर नाम की  महिमा गाऊं

मन मंदिर……

 

जीवन नैया ले हिचकोले, पल-पल डरती जाऊं

बन जाओ तुम  ही खिवैया, बार-बार यही चाहूं

मन मंदिर…….

 

घोर अंधेरा राह न  सूझे, मन-मन  मैं घबराऊं

मन ही मन डरूं बापुरी, नाम की टेर  लगाऊं

मन मंदिर…….

 

सुबह से  सांझ हो  चली,  तुझे पुकार लगाऊं

मन मंदिर की  बंद किवरिया, कैसे बाहर आऊं

मन मंदिर…….

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 17 ☆ व्यंग्य – मोहनी मन्त्र ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी  का  समाज के एक विशिष्ट वर्ग के व्यक्तित्व का चरित्र चित्रण करता बेबाक व्यंग्य   “मोहिनी मंत्र ”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 17  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ व्यंग्य – मोहिनी मंत्र

 

जब भगवान् विष्णु ने मोहनी रूप धारण किया तो असुर और देव सब उसे पाने के लिए   दौड़ पड़े यहाँ तक की विरागी नारद का भी मन डोल गया।

मै अभी कथा के किसी भाग तक पहुंची ही थी कि मेरा ध्यान आधुनिक काल के असुरों  देवों और नारदों की और चला गया।  .

कहते है जो मन में हो उसे कह डालना चाहिए और खास तौर पर स्त्रियों के लिए कहा जाता है की ज्यादा समय तक अपने पेट में रखती है तो गड़बड़ झाला हो जाता है यानि पेचिश की सम्भावना बढ़ जाती है।  मै नही चाहती की मै किसी गड़बड़ झाले में फसूं इसलिए उन सुंदर चरित्रों का वर्णन करने विवश हो रही हूँ जो मोहनी मन्त्र के मारे है।

अब इनमे कुछ तो ऐसे मिलेंगे जो ‘आ बैल मुझे मार’ की कहावत को चरितार्थ करते है। तो अब मै आपके कथा रस को भंग नहीं करूंगी सुनिए ….एक दिन सुबह-सुबह मुआ मोबाईल बज उठा। जैसे ही फोन उठाया एक मरदाना स्वर उभरा नमस्कार मैडम नमस्कार तो इतने लच्छेदार था भाई जलेबी इमरती क्या होगी मानो सारा मेवा मलाई मिश्रित सुनकर मै चौंक गई नमस्ते कहकर सोच में पड़ गई इतने मधुर कंठ से कोई कुंवारा ही बोल रहा है जिसे चाशनी को जरुरत है। उन्होंने बड़े ही अदब से कहा आप डॉ. साहिबा ही बोल रही है।  मैंने कहा जी कहिये क्या इलाज करवाना है वहां से स्वर फूटा अजी आप करेंगी तो हम जरुर करवा लेंगे। आपकी बात करने की अदा लाजबाव है जी।  हमसे रहा नही गया हमने कहा ‘न जान न पहचान मै तेरा मेहमान’। अरे मैम बात हो गई समझो जान पहचान हो गई मै मिलकर पहचान बनाने में विश्वास नही रखता।  आपका मधुर स्वाभाव है मिर्ची जैसा तीखापन आपको शोभा नही देता। आपके लेख की तारीफ करने के लिए फोन किया है मै भी एक लेखक हूँ। ओह्ह्ह मुझे लगा आप किसी कॉलेज के छात्र है। उनका कहना था अरे डियर आप अपना शिष्य बना लीजिये गुरु दक्षिणा मिलती रहेगी इतना सुनते ही हमने छपाक से फोन रख दिया।

अगले दिन सुबह फोन का स्वर कर्कश-सा जान पड रहा था नम्बर  बदला हुआ था। फोन उठाते ही वही स्वर राधे–राधे उभरा हमने भी राधे-राधे कहा और चुप हो गए फोन रखने लगे तो आवाज़ आई प्लीज मैडम कल की गुस्ताखी के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ, आपके शहर में आया हूँ, आपके दर्शन का अभिलाषी हूँ। हमारा दिमाग गरम हो रहा, पारा आसमान छू रहा है सुनिए दर्शन करना हो तो मंदिर जाइये।  भगवान के दर्शन करेंगे तो कुछ लाभ मिलेगा बुद्धि में सुधार होगा। अरे मैडम आपके दर्शन करके हम धन्य हो जायेंगे ज्ञान बुद्धि सबका विकास हो जायेगा। आप जनाब हद पार कर रहे है और अब आपसे यही कहना है कृपा करके रोज-रोज घंटी न घनघनाये जब मुझे आवश्यकता होगी तब आपको कॉल कर लेंगे राधे-राधे ……..

इन ज्ञानी ध्यानी लेखक के विषय में सारी पोल परत—दर-परत खुलती चली गई। वह चरित्र हीन नहीं है पर महिलाओं से फोन पर बाते करने का आशिक है उनका नम्बर  पत्र  पत्रिकाओं से पढ़कर उनकी रचनाओं की तारीफ करते है भले ही रचना पढ़ी न हो पर तारीफ इतनी की जैसे घोल कर पी लिया हो और बातों के मोहजाल में इस कदर फांस लेते है लगता है मोहनी मन्त्र जैसे यंत्र की कला में पारखी है।  जो इन जैसे लोगो को समझ नही पाती वे अपनी तारीफ सुनकर लट्टू हो जाती है और इन जैसे लोग अपना समय पास करने के लिए घंटों फोन पर बाते करते है और वह डियर, डार्लिंग, मोहना, मेरी राधा आदि शब्दों की वरमाला पहनाकर फोन से ही आश्वस्त हो जाते है।

इसी तरह एक और महाशय है जो तलाकशुदा शुदा है लेकिन अब दुबारा शादी नही कर रहे बस यहाँ वहां राधा को तलाश करते है वह भी नामी है पर फिर भी परवाह नही नाम की, एक दिन उन्हें भी मुंह की खानी पड़ी गलती से ‘सांप के बिल में हाथ डाल’ दिया कहने लगे डियर तुम बहुत खूबसूरत हो, मिलती नहीं तो क्या कम से कम फोन पर ही जाम पिला दो। इतना कहना ही क्या था इन्हें बातों की इतनी पन्हैया लगाई की सारी आशिकी हवा हो गई।  अब लगता है कभी वो सामना करने की भी जुर्रत नही करेंगे लेकिन ऐसे लोगो को कोई फर्क नही पड़ता है।

एक और महाशय फेस बुक पर आये और चैट करने लगे वे कहते है आपकी फोटो इतनी सुंदर है तो आप कितनी सुंदर होगी। पता चला ये महाशय कवि है और कविता के माध्यम से इतनी तारीफ की वो तो फूली नही समाई और बोल पड़ी आपसे मिलने का मन है पहले तो ये महाशय खुश हुए फिर बोले नही मै किसी से मिलता नही यदि मै मिल लिया तो मेरा धर्म कर्म नष्ट हो जायेगा मै भ्रष्ट की श्रेणी में आ जाऊंगा।  तो सखी बोल पड़ी अच्छा बाते करने से धर्म कर्म नष्ट नही होता मोहनी मन्त्र के अदृश्य जाल में फांसते हो सबको जैसे कृष्ण भगवान ने तो अपने मोह पाश में सबको मोह कर वे भगवान् कहलाये आप अपने को कृष्ण न समझो युग बदल गया है।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311

ईमेल : [email protected]

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