आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (35) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( फलसहित पृथक-पृथक यज्ञों का कथन )

( ज्ञान की महिमा )

 

यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।

येन भुतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ।।35।।

 

जिसे समझ फिर नासमझी का मोह न हेागा तुझे कभी

ब्रम्ह और निज रूप में देखेगा जग सकल को तू तब ही।।35।।

 

भावार्थ :  जिसको जानकर फिर तू इस प्रकार मोह को नहीं प्राप्त होगा तथा हे अर्जुन! जिस ज्ञान द्वारा तू सम्पूर्ण भूतों को निःशेषभाव से पहले अपने में (गीता अध्याय 6 श्लोक 29 में देखना चाहिए।) और पीछे मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा में देखेगा। (गीता अध्याय 6 श्लोक 30 में देखना चाहिए।)।।35।।

 

Knowing that, thou shalt not, O Arjuna, again become deluded like this; and by that thou shalt see all beings in thy Self and also in Me! ।।35।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ देवों के देव महादेव, महायोगी की महिमा: सर्वविदित है ☆ – डॉ ज्योत्सना सिंह राजावत

डॉ ज्योत्सना सिंह राजावत

 

(डॉ. ज्योत्सना सिंह रजावत जी का e-abhivyakti में हार्दिक स्वागत है। आप जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं । आज प्रस्तुत है श्रावण माह के पवित्र अवसर पर आपका  आलेख “देवों के देव महादेव, महायोगी की महिमा: सर्वविदित है”

 

संक्षिप्त साहित्यिक परिचय

  • दो काव्य संग्रह प्रकाशित हाइकू छटा एवं अन्तहीन पथ (मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद हिन्दी अकादमी के सहयोग से …)
  • कहानीं संग्रह प्रकाशाधीन
  • स्थानीय विभिन्न समाचार पत्रों में नियमित प्रकाशन,आकाशवाणी एवं दूरदर्शन एवं अन्य चैनल पर प्रस्तुति एवं साक्षात्कार।
  • 15 राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय शोध आलेख

 

☆ देवों के देव महादेव, महायोगी की महिमा: सर्वविदित है

 

या सृष्टिः स्त्रष्टुराद्या वहति विधिहुतं या हविर्या च होत्री,
ये द्वे कालं विधत्तः श्रुतिविषयगुणा या स्थिता व्याप्य विश्वम्।
यामाहुः सर्वबीजप्रकृतिरिति  यया प्राणिनः प्राणवन्तः,
प्रत्यक्षाभिः प्रपत्रस्तनुभिरवतु वस्ताभिरष्टाभिरीशः1

कालिदास ने अभिज्ञान शाकुन्तलम् के मंगलाचरण में शिव की आराधना इस प्रकार की है’ जो विधाता की प्रथम सृष्टि जल स्वरूपा है एवं विधिपूर्वक हवन की गई सामग्री को वहन करने वाली अग्निरूपाा मूर्ति है, जो हवन करने वाली अर्थात् यजमानरूपा मूर्ति है, दो कालों का विधान करने वाली अर्थात् सूर्य एवं चन्द्र रूपा मूर्ति है, श्रवणेन्द्रिय का विषय अर्थात् शब्द ही है गुण जिसका, ऐसी जो संसार को व्याप्त करके स्थित है अर्थात् आकाश रूपा मूर्ति, जिसे सम्पूर्ण बीजों की प्रकृति कहा गया है अर्थात् पृथ्वी रूपा मूर्ति तथा जिससे सभी प्राणी प्राणों से युक्त होते हैं अर्थात् वायुरूपा मूर्ति-इन प्रत्यक्ष रूप से दृष्टिगत होने वाली मूर्तियों से युक्त ‘शिव’ आप इन आठों मूर्तियों को धारण करने वाले शिव एक हैं और शिव के इस स्वरूप का सबसे महत्वपूर्ण तत्व यह है कि इनका प्रत्येक रूप प्रत्यक्ष का विषय है। कालिदास ने स्वयं माना है कि हम जो कुछ देख सकते हैं, जो कुछ जान सकते हैं वह सब शिवस्वरूप ही हैं। अर्थात एक मात्र शिव की ही सत्ता है, शिव से अतिरिक्त  कुछ भी नहीं है। समस्त सृष्टि शिवमयहै। सृष्टि से पूर्व शिव हैं और सृष्टि के विनाश के बाद केवल शिव ही शेष रहते हैं।

शिव स्त्रोत में शिव की प्रार्थना के साथ शिव के स्वरूप का वर्णन इस प्रकार किया गया है

नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय भस्माङ्गरागाय महेश्वराय।
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय तस्मै नकाराय नम: शिवाय।।

संसार का कल्याण करने वाले शिव नागराज वासुकि का हार धारण किये हुए हैं, तीन नेत्रों वाले हैं, भस्म की राख को सारे शरीर में लगाये हुए हैं, इस प्रकार महान् ऐश्वर्य सम्पन्न वे शिव नित्य अविनाशी तथा शुभ हैं। दिशायें जिनके लिए वस्त्रों का कार्य करती हैं, ऐसे नकार स्वरूप शिव को मैं नमस्कार करता हूँ।

वेद वेदांग ब्राह्मण ग्रंथ,तैत्तरीय संहिता, मैत्रायणी संहिता वाजसनेयी संहिता इन संहिताओं में शिव के विराट स्वरूप का शिव शक्ति का, मंत्रों में वर्णन पढ़ने को आज भी सर्वसुलभ है..

नमः शिवाय च शिवतराय च (वाजसनेयी सं. १६/४१,
यो वः शिवतमो रसः, तस्य भाजयतेह नः। (वाजसनेयी सं. ११/५१)

शिव की महत्ता सृष्टि रचना से पूर्व भी रही होगी शिव ही संसार के नियन्ता है पोषक हैं संघारक है शिव यानि कल्याण, मंगल, शुभ, के देवता। संसार के कण-कण में शिव है। ऐसे निराकारी  शिव की साधना के लिए शिव रात्रि में व्रत पूजापाठ का बहुत विधान है निम्न मंत्र में व्रत की महिमा का वर्णन प्रत्यक्ष है…

देवदेव महादेव नीलकंठ नमोस्तु ते।
कुर्तमिच्छाम्यहं देव शिवरात्रिव्रतं तव।।
तव प्रभावाद्धेवेश निर्विघ्नेन भवेदिति।
कामाद्या: शत्रवो मां वै पीडां कुर्वन्तु नैव हि।।

देव को देव महादेव नीलकंठ आपको नमस्कार है। हे देव  मैं आपके शिवरात्रि-व्रत का अनुष्ठान करना चाहता हूं। देव आपके प्रभाव से मेरा यह व्रत बिना किसी विघ्न-बाधा के पूर्ण हो और काम आदि शत्रु मुझे पीड़ा न दें। इस भांति पूजन करने से आदिदेव शिव प्रसन्न होते हैं।

सावन में शिव पूजा का विशेष महत्व है शिव मंदिरों में सोमवार के दिन बड़ी भक्ति भाव के साथ कांवड़िए दूर दराज से गंगाजल लाकर भगवान भोले का अभिषेक करते हैं। वेदों में शिवलिंग पर चढ़ने वाले बिल्वपत्र के वृक्ष की महिमा असाधारण मानी गई है । प्रार्थना करते हैं कि बिल्वपत्र अपने तपो-फल से आध्यात्मिक शक्ति से  दरिद्रता को मिटाए और शिव उपासक को ‘श्री’कल्याण का मार्ग प्रशस्त करे। इस वृक्ष की डालियाँ फल और पत्ते सभी की महिमा वर्णित है।

…पतरैर्वेदस्वरूपिण स्कंधे वेदांतरुपया तरुराजया ते नमः।

आदित्यवर्णे तपसोऽध्जिातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः।
तस्य फलानि तपसानुदन्तु मायान्तरायाश्च बाहया अलक्ष्मीः।।

महाशिवरात्रि पूजा में शिवलिंग पर चढाने के लिए धतूरे का फल, बेलपत्र, भांग, बेल, आंक का फूल, धतूरे का फूल, गंगा जल, दूध शहद, बेर, सिंदूर फल, धूप, दीप को आवश्यक माना गया है।

परम कल्याणकारी शिव की महिमा अनंत है। शिव अनन्त, शिव कृपा अनन्ता ….भगवान शिव की स्तुति रामचरित मानस के अयोध्याकांड में तुलसीदास ने इस प्रकार की है…

सुमिरि महेसहि कहई निहोरी,

बिनती सुनहु सदाशिव मोरी’।

‘आशुतोष तुम औघड़ दानी,

आरति हरहु दीन जनु जानी।।’

भारत के कोने-कोने में आज भी प्राचीन जीर्ण-शीर्ण अवस्था में शिव मंदिरों की भव्यता को एवं उस मन्दिर की मान्यता को शिव रात्रि के पर्व पर बड़ी संख्या में स्थानीय निवासियों के द्वारा श्रद्धा एवं भक्ति भाव के साथ शिव का पूजन करते हुए देखा जाता है। ग्रामीण इलाकों में छोटे छोटे पत्थरों को शिव का प्रतीक मान कर महिलाएं  बच्चे बच्चियां शिव रात्रि पर व्रत करते, पूजन करते हैं जल चढ़ाते शिव के भजन कीर्तन करते हुए शिवमय हो जाते हैं। हिमालय गाथा के उत्सव पर्व में लेखक सुदर्शन जी ने लिखा है कि महाशिवरात्रि का उत्सव कृष्ण चतुर्दशी के फागुन माह में मनाया जाता है यह पर्व महाशिवरात्रि से आरंभ होकर 1 सप्ताह तक चलता है। यह उत्सव पर्व कुल्लू, के रघुनाथ जी मंडी के माधवराव जी की शोभायात्रा निकाली जाती है।

महाशिवरात्रि के पर्व पर राजा चित्रभानु की कथा का प्रसंग पुराणों में पढ़ने को मिलता है, भले ही आज के लोग इस कथा को कपोल कल्पित कल्पना माने पर यह हमारे ऋषि-मुनियों के आत्मज्ञान और साधना का निचोड़ है। जिन्होंने कथाओं के माध्यम से सृष्टि की प्रत्येक रचना की महत्ता को किसी न किसी रूप में प्रकट की है।
पौराणिक कथाओं में नीलकंठ की कहानी सबसे ज्यादा चर्चित है। ऐसी मान्यता है कि महाशिवरात्रि के दिन ही समुद्र मंथन के दौरान कालकेतु विष निकला था। भगवान शिव ने संपूर्ण ब्राह्मांड की रक्षा के लिए स्वंय ही सारा विष पी लिया और नीलकंठ महादेव कहलाये।

शिव ही हैं, जो बंधन, मोक्ष और सुख-दुख के नियामक हैं। समस्त चराचर के स्वामी संसार के कारण स्वरूप रूद्र रूप में संसार के सृजनकर्ता, पालक और संहारक सबका कल्याण करें। श्रीशिवमहापुराण रुद्र संहिता के दशमें अध्याय में ब्रह्मा विष्णु संवाद में विष्णु कहते है कि हे ब्रह्मन वेदों में वर्णित शिव ही समस्त सृष्टि के कर्ता-धर्ता भर्ता, हर्ता,  परात्पर परम ब्रम्ह परेश निर्गुण नित्य, निर्विकार परमात्मा अद्वैत अच्युत अनंत सब का अंत करने वाले स्वामी व्यापक परमेश्वर सृष्टि पालक सत रज तम तीनों गुणों से युक्त सर्वव्यापी माया रचने में प्रवीण,ब्रह्मा विष्णु महेश्वर नाम धारण करने वाले, अपने में रमण करने वाले, द्वन्द्व से रहित, उत्तम शरीर वाले, योगी,गर्व को दूर करने वाले दीनों पर दया करने वाले, सामान्य देव नहीं, देवों के देव हैं, महायोगी हैं।

 

© डॉ ज्योत्सना सिंह राजावत
असिस्टेंट प्रोफेसर, जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर, मध्य प्रदेश
9425339116

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – सैडिस्ट ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। )

 

☆ संजय दृष्टि  – सैडिस्ट 

 

रास्ते का वह जिन्न,

भीड़ की राह रोकता

परेशानी का सबब बनता,

शिकार पैर पटकता

बाल नोंचता

जिन्न को सुकून मिलता

जिन्न हँसता,

पुराने लोग कहते हैं-

साया जिस पर पड़ता है

लम्बा असर छोड़ता है..,

 

रास्ता अब वीरान हो चुका,

इंतज़ार करते-करते

जिन्न बौरा चुका

पगला चुका,

सुना है-

अपने बाल नोंचता है

सर पटकता है,

अब भीड़ को सकून मिलता है,

झुंड अब हँसता है,

पुराने लोग सच कहते थे-

साया जिस पर पड़ता है

लम्बा असर छोड़ता है..।

 

आपका दिन निर्भीक बीते।

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे

9890122603

[email protected]

आपका दिन निर्भीक बीते।

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #7 – जंगल ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  सातवीं  कड़ी में उनकी  एक सार्थक कविता  “जंगल ”। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #7  ☆

 

☆ जंगल ☆

 

बियाबान जंगल से

मिलती हैं उसे रोटियां,

अनजान जंगल से

मिटती है बच्चों की भूख,

खामोश जंगल से

जलता है उसका चूल्हा,

परोपकारी जंगल से

बनता है उसका घर,

अनमने जंगल से

बुझती है उसकी प्यास,

बहुत ऊँचे जंगल से

मिलती है उसे ऊर्जा,

उजड़े जंगल से

सूख जाते हैं उसके आंसू,

अब प्यारे जंगल से

भगाने की हो रही हैं बातें।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ पत्र पेटिका ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी की कवितायें हमें मानवीय संवेदनाओं का आभास कराती हैं। प्रत्येक कविता के नेपथ्य में कोई न कोई  कहानी होती है। मैं कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी का हृदय से आभारी हूँ जिन्होने इस कविता के सम्पादन में सहयोग दिया। आज प्रस्तुत है कविता “पत्र पेटिका”। इस पत्र पेटिका का महत्व मेरी समवयस्क पीढ़ी अथवा मेरे वरिष्ठ जन ही जान सकते हैं।  इस पत्र पेटिका से हमारी मधुर स्मृतियाँ जुड़ी हुई हैं जिन्हें श्री सूबेदार पाण्डेय जी ने अपनी कविता के माध्यम से पुनः जीवित कर दिया है। )

 ☆ पत्र पेटिका ☆

 

मै पत्र-पेटिका वहीं खडी़,

युगों से जहां खडी़ रही मै

सर्दी-गर्मी-वर्षा सहती,

सदियों से मौन पडी़  हूँ मै…

 

लाल  रंग की चूनर ओढ़े,

सबको पास बुलाती थी।

अहर्निश सेवा महे का

सबको पाठ पढ़ाती  थी…

 

कोई आता था पास मेरे,

प्यार का इक पैगाम लिये

कोई आता था पास मेरे

प्यार का इक तूफां लिए…

 

कोई सजनी प्रेम-विरह की

पाती रोज इक छोड़ जाती थी

कोई बहना भाई के खातिर

राखी भी दे जाती थी…

 

कोई रोजगार पाने का

इक आवेदन दे जाता था

मैं इन सबका संग्रह कर

मन ही मन इठलाती थी…

 

सुबह-शाम दो बार हर

रोज डाकिया आता था

खोल चाभी से बंद ताले को

सब पत्रों को ले जाता था…

 

हाय, विधाता! आज हुआ क्या

कैसा ये उल्टा दिन आया

बदनज़र लगी मुझको या

घोर अनिष्ट का है साया…

 

टूटे पेंदे, जर्जर काया, बिन ताले,

अपनी किस्मत को रोती हूँ

खामोश खड़ी चौराहे पर खुद

ही अपनी अर्थी ढोती हूँ…

 

 

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #10 – कन्या भ्रूण हत्या रोकने में आस्थाओ का महत्व ☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज  दसवीं कड़ी में प्रस्तुत है “कन्या भ्रूण हत्या रोकने में आस्थाओ का महत्व”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 10 ☆

 

☆ कन्या भ्रूण हत्या रोकने में आस्थाओ का महत्व ☆

 

पुरुषो की तुलना में निरंतर गिरते स्त्री अनुपात के चलते इन दिनो देश में “बेटी बचाओ अभियान”  की आवश्यकता आन पड़ी है.  नारी-अपमान, अत्याचार एवं शोषण के अनेकानेक निन्दनीय कृत्यों से समाज ग्रस्त है. सबसे दुखद ‘कन्या भ्रूण-हत्या’ से संबंधित अमानवीयता, अनैतिकता और क्रूरता की वर्तमान स्थिति हमें आत्ममंथन व चिंतन के लिये विवश कर रही है. एक ओर नारी स्वातंत्र्य की लहर चल रही है तो दूसरी ओर स्त्री के प्रति निरंतर बढ़ते अपराध दुखद हैं.  साहित्य की एक सर्वथा नई धारा के रूप में स्त्री विमर्श, पर चर्चा और रचनायें हो रही हैं, “नारी के अधिकार “, “नारी वस्तु नही व्यक्ति है”, वह केवल “भोग्या नही समाज में बराबरी की भागीदार है”, जैसे वैचारिक मुद्दो पर लेखन और सृजन हो रहा है, पर फिर भी नारी के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण में वांछित सकारात्मक बदलाव का अभाव है.

हमारे देश की पहचान एक धर्म प्रधान, अहिंसा व आध्यात्मिकता के प्रेमी  और नारी गौरव-गरिमा का देश होने की है,  फिर क्या कारण है कि इस शिक्षित युग में भी बेटियो की यह स्थिति हुई है कि उन्हें बचाने के लिये सरकारी अभियान की जरूरत महसूस की जा रही है. एक ओर कल्पना चावला और सुनीता विलियम्स जैसी बेटियां अंतरिक्ष में भी हमारा नाम रोशन कर रही हैं, महिलायें राजनीति के सर्वोच्च पदो पर हैं, पर्वतारोहण, खेल, कला,संस्कृति, व्यापार,जीवन के हर क्षेत्र में लड़कियो ने सफलता की कहानियां गढ़कर सिद्ध कर दिखाया है कि ” का नहिं अबला करि सकै का नहि समुद्र समाय ”  तो दूसरी और माता पिता उन्हें जन्म से पहले ही मार देना चाहते हैं. ये विरोधाभासी स्थिति मौलिक मानवाधिकारो का हनन तथा समाज की मानसिक विकृति की सूचक है.

बेटियों की निर्मम हत्या की  कुप्रथा को जन्म देने में अल्ट्रा साउन्ड से कन्या भ्रूण की पहचान की वैज्ञानिक खोज का दुरुपयोग जिम्मेदार है. केवल सरकारी कानूनो से कन्या भ्रूण हत्या रोकने के स्थाई प्रयास संभव नही हैं. दरअसल इस समस्या का हल क़ानून या प्रशासनिक व्यवस्था से कहीं अधिक स्वयं ‘मनुष्य’ के अंतःकरण, उसकी आत्मा, प्रकृति व मनोवृत्ति, मानवीय स्वभाव, उसकी चेतना,  मान्यताओ व धारणाओ और उसकी सोच में बदलाव तथा नारी सशक्तिकरण ही इस समस्या का स्थाई हल है.  समाज की  मानसिकता व मनोप्रकृति  में यह स्थाई बदलाव आध्यात्मिक चिंतन तथा ईश्वरीय सत्ता में विश्वास और पारलौकिक जीवन में आज के अच्छे या बुरे कर्मों का तद्नुसार फल मिलने के कथित धार्मिक सिद्धान्तों की मान्यता पर ढ़ृड़ता से संभव है. विज्ञान  धार्मिक आस्थाओ पर प्रश्नचिन्ह लगाता है, किन्तु सच यह है कि आध्यात्म, विज्ञान का ही विस्तारित स्वरुप है.  विभिन्न धर्मो के आडम्बर रहित धार्मिक विधिविधान वे सैद्धांतिक सूत्र हैं जो हमें ध्येय लक्ष्यो तक पहु्चाते हैं.

“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः” अर्थात जहाँ नारियो की पूजा होती है वहां देवताओ का वास होता है यह उद्घोष, हिन्दू समाज से कन्या भ्रूण हत्या ही नही, नारी के प्रति समस्त अपराधो को समूल समाप्त करने की क्षमता रखता है, जरूरत है कि इस उद्घोष में व्यापक आस्था पैदा हो. नौ दुर्गा उत्सवो पर कन्या पूजन, हवन हेतु अग्नि प्रदान करने वाली कन्या का पूजन हमारी संस्कृति में कन्या के महत्व को रेखांकित करता है, आज पुनः इस भावना को बलवती बनाने की आवश्यकता है.

पैग़म्बर मुहम्मद  ने कन्या हत्या रोकने के लिये  भाषण देने, आन्दोलन चलाने, और ‘क़ानून अदालत या जेल’ का प्रकरण बनाने के बजाय केवल इतना कहा है कि ‘जिस व्यक्ति के बेटियां हों, वह उन्हें ज़िन्दा गाड़कर उनकी हत्या न कर दे, उन्हें सप्रेम व स्नेहपूर्वक पाले-पोसे, उन्हें नेकी, शालीनता, सदाचरण व ईशपरायणता की उत्तम शिक्षा-दीक्षा दे, बेटों को उनसे बढ़कर न माने, नेक रिश्ता ढूंढ़कर बेटियो का घर बसा दे, तो वह स्वर्ग में मेरे साथ रहेगा’. मुस्लिम समाज कुरानशरीफ की इस प्रलोभन भरी शिक्षा को अपनाकर, बेटी की अच्छी परवरिश से स्वर्ग-प्राप्ति का  अवसर मानकर प्रसन्न हो सकता है और लालच में ही सही पर लड़कियो के प्रति अपराध रुक सकते हैं. जरूरत है इस विश्वास में भरपूर आस्था की.  कुरान में कहा गया है कि परलोक में हिसाब-किताब वाले दिन, ज़िन्दा गाड़ी गई बच्ची से ईश्वर पूछेगा, कि वह किस जुर्म में क़त्ल की गई थी ? इस तरह कन्या-वध करने वालों को अल्लाह ने चेतावनी भी दी है.

ईसाई समाज में भी पत्नी को “बैटर हाफ” का दर्जा तथा लेडीज फर्स्ट की संकल्पना नारी के प्रति सम्मान की सूचक है. जैन संप्रदाय में तो छोटे से छोटे कीटाणुओ की हिंसा तक वर्जित है. इसी तरह अन्य धर्मो में भी मातृ शक्ति को महत्व के अनेकानेक उदाहरण मिलते हैं. किन्तु इन धार्मिक आख्यानो को किताबो से बाहर समाज में व्यवहारिक रूप में अपनाये जाने की जरूरत है.

मनुष्य  कभी कुछ काम लाभ की चाहत में करता है और कभी  भय से, और नुक़सान से बचने के लिए करता है। इन्सान के रचयिता ईश्वर से अच्छा, भला इस मानवीय कमजोरी  को और कौन जान सकता है ? अतः इस पहलू से भी धार्मिक मान्यताओ में रुढ़िवादी आस्था ही सही किन्तु ईश्वरीय सत्ता में विश्वास, पाप पुण्य के लेखाजोखा की संकल्पना, कन्या भ्रूण हत्या के अनैतिक सामाजिक दुराचरण पर स्थाई रोक लगाने में मदद कर सकता है.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? रंजना जी यांचे साहित्य #-9 – आधुनिक तंत्रज्ञान  मुलां-मुलींसाठी योग्य की अयोग्य’ ??? ? – श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनके द्वारा  बच्चों के लिए नवीन तकनीकी ज्ञान (विशेषकर मोबाइल, टेलिविजन चैनल एवं मीडिया की महत्ता  पर आधारित बच्चों एवं बड़ों के लिए भी ज्ञानवर्धक आलेख  आधुनिक तंत्रज्ञान  मुलां-मुलींसाठी योग्य की अयोग्य ???।)

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य #-9 ? 

 

? आधुनिक तंत्रज्ञान  मुलां-मुलींसाठी योग्य की अयोग्य ???  ?

 

उन्हाळ्याच्या सुट्ट्या लागल्या आणि भाऊ, बहीण, दीर इत्यादी नातेवाईकांकडे जाण्याचे योग आले. यांची चुणचुणीत नातवंड पाहून खूप प्रसंन्न वाटलं. गप्पा मारत त्यांनी आम्हा दोघांच्याही मोबाईलचा नकळत ताबा घेतला, अगदी पासवर्ड सहीत. आमची मुले मोठी असल्यामुळे मोबाईलवर गेम्स नव्हते त्यांनी हवे ते डाऊन लोड करून घेतले व ती खेळण्यात रंगून गेली. तीन मुलं असूनही घरं अगदी चिडीचूप, कधीतरी खेळण्यात लवकर नंबर लागला नाहीतर तक्रार येई. अगदी के जी ते तिसरी चौथीची मुलं परंतु मोबाईलचा अचूक सफाईदार वापर पाहून नवीन पिढीच्या कौशल्याचं कौतुक करावं तितकं कमीच आहे असं वाटून गेलं.

कारण स्क्रीन टच मोबाईल वापरताना सुरूवातीला लागलेली पुरेवाट आठवली की आजही हसायला आल्या शिवाय राहत नाही. फक्त गेम नव्हे तर गाणी, गोष्टी, अनेक कार्यानुभवाच्या कलाकृती अभ्यासक्रमाचे सुद्धा अनेक  व्हिडीओ त्यांनी मला वापरून दाखवले.

अवघड वाटणारा इतिहास नाट्य रूपात एकदम सोप्या पद्धतीने मुलांच्या सहज गळी उतरवता येऊ शकतो म्हणण्यापेक्षा तो अगदी आनंददायी पद्धतीने मुलांना  हसत खेळत शिकता येतो. कठीण वाटणाऱ्या गणिताच्या अनेक मनोरंजक पद्धती मुलांना समजावून देता येतात विज्ञानाचे अनेक प्रयोग प्रत्यक्ष पाहाता येतील भूगोलाच्या भूकंप, भूगोलार्धाची रचना, ग्रह तारे सुर्यमाला, उल्कापात, चंद्रावरील मोहीम , मंगळाच्या संदर्भातील दृश्य  माहितीपट अशा अनेक संकल्पना अगदी सहज आणि क्षणार्धात समोर हजर करणारे इंटरनेट म्हणजे पृथ्वीवरील अल्लाउद्दीनचा चिराग म्हटल्यास वावगे ठरणार नाही.

आमच्या लहानपणी एखादी आलेली शंका कुणाला विचारायची हा फार मोठा प्रश्न असायचा कारण ती माहिती कुठे मिळेल हे शोधणे आणि ज्यांना माहीत आहेत ते मुलांच्या प्रश्नांना किती महत्व देतील हाही प्रश्नच! परंतु इंटरनेट हे मुलांच्या अनेक प्रश्नांची अचूक  हमखास उत्तरे देणाऱ्या  बिरबला सारखे रत्न आहे म्हणावे लागेल.

थोड्या मोठ्या वयोगटातील मुले तंत्रज्ञानाचा आणखी कल्पकतेने वापर करताना दिसतात. संदर्भ ग्रंथ अभ्यासणे, आवडत्या लेखक/कविंचे संग्रह अभ्यासणे, बुद्धीबळासारखे बौद्धिक खेळ खेळणे. मित्र मैत्रीणींशी गप्पागोष्टी मेसेज मेल इत्यादीचा कौशल्याने उपयोग करतात आणखी एक सर्वांचाआवडता उपयोग म्हणजे ज्या मालिका टीव्हीवर  पाहता येत नाहीत त्या मोबाईलचा वापर करून पाहताना दिसतात.

एक ना दोन हजारो फायदे या तंत्रज्ञानाचे असले तरीसुद्धा त्याची दुसरी बाजू सुद्धा मानवी जीवनासाठी  तितकीच  महत्त्वाची आहे म्हणून या बाबीचाही तितकाच सखोल अभ्यास आणि विचार करणे महत्त्वाचे आहे.

सुरूवात खेळा पासूनच करूयात थोडंस आपल्या बालपणात जाऊयात. भन्नाट मैदानी खेळ, मित्राच्या टाळ्या, हशा, प्रोत्साहन, जिंकल्याचा आनंद, हारल्याची खंत पण पुन्हा नव्याने जिंकण्याची जिद्द, यातूनच  अपयश पचवण्याची, संकटांना पराजयाला हसत मुखाने सामोरे जाण्याची   खिलाडू वृत्ती, इत्यादी गुण खेळातून कळत नकळत अंगी बाणवले जात. परस्पर प्रेम, सहकार्य, घाम गळे पर्यंत घेतलेली अंग मेहनत, मुक्त आनंददायी  हालचाली,  मोठ्यांचा खोटाच राग/ ओरडा. सारं काही चित्ताकर्षक, मनाला भुरळ घालणारे आजही हवेहवेसे वाटणारे क्षण खरोखरच आजकालच्या एका ठिकाणी  बसून गेम खेळणाऱ्या मुलांना अनुभवायला मिळतात का? हा प्रश्न मनाला विचारलं तरं उत्तर नक्कीच नाही असं येईल, कुठे गल्ली गोळा होई पर्यंत  आरडाओरडा करणारे आपण आणि राग चीड आनंद व्यक्त करण्यासाठी स्वतःशीच  पुटपुटणारी, भावना दाबून  जगणारी आजकालची मुलं पाहिली की यांच्या भावनांचा उद्रेक हा ज्वालामुखीच्या उद्रेका पेक्षाही किती भयानक असेल असेल याची कल्पनाही करवत नाही.

आपल्या लहानपणी मुलं दिवसाकाठी रिकामा मिळालेला जास्तीतजास्त वेळ खेळ गप्पागोष्टी यासाठी वापरत असत, त्यामुळे भरपूर व्यायाम होऊन आरोग्य  शारीरिक सुधारण्यास मदत होत असे. गप्पागोष्टीमुळे मुलांचे संभाषण कौशल्य विकसित होई शिवाय परस्पर नाते संबंध दृढ आणि जिव्हाळ्याचे बनत .अभिव्यक्तीला वाव मिळाल्यामुळे मनातील सल, दुःख, वेदना कमी होण्यास मदत होऊन शारीरिक आरोग्या सोबतच मानसिक आरोग्य सुद्धा संतुलित  राहत असे परंतु  हल्लीच्या मुलांच्या  खूप वेळ एकाच जागी बसून  शरीरावर, डोळ्यांवर ताण येऊन शारीरिक व्याधी निर्माण होण्याची शक्यता नाकारता येत नाही शिवाय मुले एक्कलकोंडी हट्टी चिडचिडी होत चालली आहेत ही गोष्ट वेगळीच!

मुख्य म्हणजे हे सगळे गेम खेळायचे म्हणजे मोबाईल हवा नेट पॕक हवे. म्हणजे जो आनंद फुकट काच कांगऱ्या, बुद्धीबळ, कॕरम, भातुकली खेळभांडे, शाळा शाळा, खार कबुतर या सारखे  बैठे खेळ व चिपलंग, लंगडी, खो-खो, कब्बडी, लपंडाव अंधळी कोशिंबीर यासारख्या मैदानी खेळातून  मित्रांसोबत अतिशय धमाल मस्ती  करून मिळायचा तोच आनंद विकत आणि तोही तुटपुंजा आनंद किती खेदाची बाब आहे ही!   पुन्हा त्यात ज्यांचा मोबाईल भारीचा तो शेखी मिरवणार म्हणजे खेळाच्या निर्मळ आनंदावर विरझन पडणार ते वेगळंच.

दुसरी बाब म्हणाल, तर आपल्या लहानपणीचा रेडिओ असो की, पुढील काळातील दूरदर्शन असो. अगदी आजी आजोबाचे भजन, बाबांच्या बातम्या, आईची आपली आवड असो की ताई दादांची युवावाणी, किंवा  आपलं बालजगत सगळं प्रत्येकाला इतरांसाठी का असेना ऐकावंच लागे. त्याचा परिणाम म्हणून कळत नकळत एक सर्वगुण संपन्न व्यक्तीमत्व आकाराला येई . घरातील इतरांच्या आवडी निवडी,मते यांचा आदर करणे, त्यांची मते जाणून घेणे या गोष्टी सहज साध्य होत परंतु आज मुले कार्टून शो तासन् तास पाहताना किंवा गेम खेळताना दिसतात .पालक सुद्धा मुलं शांत बसलेली आहेत यातच धन्यता मानत असतात परंतु भाऊ- बहीण, आई- वडील, मित्र- मैत्रीणी  यांच्यातील संवाद संपत चालला आहे. मुख्य म्हणजे आजी आजोबांची गोष्टी सांगण्यासाठी  नातवंडांची सलगी एक स्वर्गीय आनंददायी  जिव्हाळा पार नाहीसा झाला आहे. माणूस तंत्रज्ञानाला कवटाळण्याच्या नादात माणूस आणि माणुसकी पासून फारकत घेतो आहे असं खेदाने म्हणावं लागत आहे. मोबाईल टीव्ही यासारख्या माध्यमांचा अतिशयोक्ती वाटावी असा वापर मुलांच्या नव्हे तर कुटुंब आणि समाज व्यवस्थेच्या  शारीरिक व मानसिक आरोग्यासाठी नक्कीच घातक आहे, ही बाबही  नक्कीच दुर्लक्षीत करून चालणार नाही.

‘सुग्रास अन्न शिजवणारा अग्नी घर पेटवण्याचे विघातक कृत्य करू शकतो तद्वतच  मानवाच्या उन्नतीसाठी असलेले तंत्रज्ञान अधोगतीचे कारण व्हायला वेळ लागणार नाही’  याचा विसर पडता कामा नये.

म्हणूनच तंत्रज्ञानाचा वापर मुलांसाठी पालक/ शिक्षक यांच्या मार्गदर्शनाने ठराविक वेळेचे बंधन पाळून..  त्यांच्या किंवा अन्य जाणकारांच्या  नियंत्रणाखाली व योग्य प्रमाणातच होणे आवश्यक आहे.

 

©  रंजना मधुकर लसणे✍

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (34) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( फलसहित पृथक-पृथक यज्ञों का कथन )

( ज्ञान की महिमा )

 

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ।।34।।

 

नम्र भाव से प्रश्न अगर सेवा कर पूँछे जायेंगे

तत्व ज्ञान दर्शी गुरू,अर्जुन ज्ञान तुझे समझायेंगे।।34।।

 

भावार्थ :  उस ज्ञान को तू तत्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दण्डवत्‌प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म तत्व को भलीभाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे।।34।।

 

Know that by long prostration, by question and by service, the wise who have realised the Truth will instruct thee in (that) knowledge. ।।34।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 10 – व्यंग्य – सनकी बाबूलाल: प्रसंग दो ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है  उनकी  व्यंग्य रचना “सनकी बाबूलाल : प्रसंग दो”।  जिस तरह एक झूठ छुपाने के लिए दस झूठ और बोलने पड़ते हैं  उसी तरह आज के जमाने में यदि कोई एक गलती सुधारना चाहे तो सामाजिक प्रणाली उससे दस गलतियाँ और करने के लिए बाध्य करती हैं। ऐसे में हमें बाबूलाल जैसे निरीह प्राणी के चरित्र की बजाय दारोगा जैसे चरित्र पर हँसी आनी चाहिए। किन्तु, अक्सर ऐसा होता नहीं है। हम आप तक ऐसा ही  उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 10 ☆

 

☆ व्यंग्य – सनकी बाबूलाल: प्रसंग दो ☆

 

बाबूलाल को रिश्वत लेते हुए रंगे हाथ धर लिया गया है। अब बाबूलाल धीरज की मूर्ति बना, मौन,थाने में बैठा है। आसपास पुलिस वाले घूम रहे हैं।

सामने वाली कुर्सी पर बैठा दरोगा कहता है, ‘अब तुम गये काम से। जेल जाना पक्का है।’

बाबूलाल सहमति में सिर हिलाता है।

दरोगा पूछता है, ‘तुम्हें डर नहीं लगता?’

बाबूलाल ज्ञानी की नाईं कहता है, ‘डरने से क्या होने वाला है? जैसा किया है वैसा भोगेंगे।’

दरोगा कुछ मायूस हो जाता है। थोड़ी देर मौन रहने के बाद जाँघ पर हाथ पटककर जोर-जोर से हँसने लगता है। बाबूलाल आश्चर्य से उसे देखता है।

हँसी रुकने पर दरोगा कहता है, ‘कुच्छ नहीं होगा। बेफिकर रहो। तुम दूध के धुले साबित होगे।’

बाबूलाल मुँह बाये उसकी तरफ देखता है।

दरोगा कहता है, ‘सब परमान-सबूत तो हमारे पास ही हैं न। हम बड़े बड़े केसों का खात्मा अपने लेविल पर कर देते हैं। हम कहेंगे कि सबूत पर्याप्त नहीं हैं।’ वह फिर ताली पीट कर हँसने लगता है।

बाबूलाल पूछता है, ‘यह कैसे होगा?’

दरोगा जवाब देता है, ‘रोज होता है। कुछ पैसे का त्याग करोगे तो तुम्हारे केस में भी हो जाएगा।’

बाबूलाल थोड़ी देर सोचता है, फिर कहता है, ‘लेकिन यह ठीक नहीं होगा।’

अब दरोगा अचरज में है। पूछता है, ‘क्यों ठीक नहीं होगा?’

बाबूलाल कहता है, ‘हम जीवन भर ईमानदार रहे। सिर्फ इसी बार हमारी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी। हम भ्रष्ट तो हो गये, लेकिन अब हम झूठे और बेईमान नहीं होना चाहते। हम अपने किये की सजा भुगतेंगे।’

दरोगा अपने बाल नोचने लगता है, कहता है, ‘तुम पागल हो। हमारी बात मानोगे तो तुम बच जाओगे और हमें भी अपने पेट के लिए तुमसे दो पैसे मिल जाएंगे।’

बाबूलाल असहमति में सिर हिलाता है, कहता है, ‘नईं दरोगा जी,हमसे एक पाप हो गया, दूसरा नईं करेंगे। आप अपना काम करो ।हम सजा के लिए तैयार हैं। झूठ नहीं बोलेंगे।’

दरोगा माथा पीट कर कहता है, ‘ससुरा सनकी कहीं का!’ फिर सिपाहियों की तरफ देखकर कहता है, ‘कुछ लोग ऐसे होते हैं कि दूसरे का नुकसान करने के लिए अपना सिर कटवा दें। खुद मरें और दूसरे को भी नरक में ढकेलते जाएं।’

 

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #7 – मिट्टी – जमीन ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की  सातवीं कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 7 ☆

 

☆ मिट्टी – जमीन ☆

 

आदमी मिट्टी के घर में रहता था, खेती करता था। अनाज खुद उगाता, शाक-भाजी उगाता, पेड़-पौधे लगाता। कुआँ खोदता, कुएँ की गाद खुद निकालता। गाय-बैल पालता, हल जोता करता, बैल को अपने बच्चों-सा प्यार देता। घास काटकर लाता, गाय को खिलाता, गाय का दूध खुद निकालता, गाय को माँ-सा मान देता। माटी की खूबियाँ समझता, माटी से अपना घर खुद बनाता-बाँधता। सूरज उगने से लेकर सूरज डूबने तक प्रकृति के अनुरूप आदमी की चर्या चलती।

आदमी प्रकृति से जुड़ा था। सृष्टि के हर जीव की तरह अपना हर क्रिया-कलाप खुद करता। उसके रोम-रोम में प्रकृति अंतर्निहित थी। वह फूल, खुशबू, काँटे, पत्ते, चूहे, बिच्छू, साँप, गर्मी, सर्दी, बारिश सबसे परिचित था, सबसे सीधे रू-ब-रू होता । प्राणियों के सह अस्तित्व का उसे भान था। साथ ही वह साहसी था, ज़रूरत पड़ने पर हिंसक प्राणियों से दो-दो हाथ भी करता।

उसने उस जमाने में अंकुर का उगना, धरती से बाहर आना देखा था और स्त्रियों का जापा, गर्भस्थ शिशु का जन्म उसी प्राकृतिक सहजता से होता था।

आदमी ने चरण उटाए। वह फ्लैटों में रहने लगा। फ्लैट यानी न ज़मीन पर रहा न आसमान का हो सका।

अब अधिकांश आदमियों की बड़ी आबादी एक बीज भी उगाना नहीं जानती। प्रसव अस्पतालों के हवाले है। ज्यादातर आबादी ने सूरज उगने के विहंगम दृश्य से खुद को वंचित कर लिया है। बूढ़ी गाय और जवान बैल बूचड़खाने के रॉ मटेरियल हो चले, माटी एलर्जी का सबसे बड़ा कारण घोषित हो चुकी।

अपना घर खुद बनाना-थापना तो अकल्पनीय, एक कील टांगने के लिए भी कथित विशेषज्ञ  बुलाये जाने लगे हैं। अपने इनर सोर्स को भूलकर आदमी आउटसोर्स का ज़रिया बन गया है। शरीर का पसीना बहाना पिछड़ेपन की निशानी बन चुका। एअर कंडिशंड आदमी नेचर की कंडिशनिंग करने लगा है।

श्रम को शर्म ने विस्थापित कर दिया है। कुछ घंटे यंत्रवत चाकरी से शुरू करनेवाला आदमी शनैः-शनैः यंत्र की ही चाकरी करने लगा है।

आदमी डरपोक हो चला है। अब वह तिलचट्टे से भी डरता है। मेंढ़क देखकर उसकी चीख निकल आती है। आदमी से आतंकित चूहा यहाँ-वहाँ जितना बेतहाशा भागता है, उससे अधिक चूहे से घबराया भयभीत आदमी उछलकूद करता है। साँप का दिख जाना अब आदमी के जीवन की सबसे खतरनाक दुर्घटना है।

लम्बा होना, ऊँचा होना नहीं होता। यात्रा आकाश की ओर है, केवल इस आधार पर उर्ध्वगामी नहीं कही जा सकती। त्रिशंकु आदमी आसमान को उम्मीद से ताक रहा है। आदमी ऊपर उठेगा या औंधे मुँह गिरेगा, अपने इस प्रश्न पर खुद हँसी आ रही है। आकाश का आकर्षण मिथक हो सकता है पर गुरुत्वाकर्षण तो इत्त्थमभूत है। सेब हो, पत्ता, नारियल या तारा, टूटकर गिरना तो ज़मीन पर ही पड़ता है।

 

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©  संजय भारद्वाज , पुणे

[email protected]

 

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