यात्रा-संस्मरण – ☆ पूरब और मक्का एक ही ओर है जहाँ से … ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

☆ पूरब और मक्का एक ही ओर  है  जहाँ से … ☆

(आज प्रस्तुत है श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी की 12 किमी ऊंचाई से  एक प्रायोगिक यात्रा संस्मरण जो आपको अपनी कई यात्राएं एवं उसके पीछे की स्मृतियाँ अवश्य याद दिला देगा।  धरती से  हजारों किमी ऊपर हवा में उड़ते हुए क्या आपको नहीं लगता कि आप एक वैश्विक ग्राम (Global Village) के सदस्य हो गए हैं?)

 जमीन से कोई 12 किमी ऊपर, 800 करोड़ के यान में, एक बेड आपका हो, आप 12000 किमी की यात्रा पर कोई 1000 किमी प्रति घण्टे की रफ्तार से पहली बार सफर पर हों , तो मन पसन्द सुस्वादु खाते पीते , सारी यात्राये स्मरण हो आना स्वाभाविक ही है ।

वह पहली विमान यात्रा का पल पल याद आया जब हमें एम टेक करते हुए पहले सेमेस्टर के अंत मे पहली स्टाइपेंड मिली थी और मित्रों श्री प्रदीप व श्री सनत जैन के साथ इंडियन एयरलाइन के 14 सीटर सिंगल इंजिन हवाई जहाज से स्टूडेंट्स कनसेशन की  शायद केवल 180 रु की टिकिट पर महज हवाई यात्रा करने के लिए भोपाल से इंदौर का जीवन का पहला हवाई सफर किया था ।

लंदन के पास समुद्र सतह से 12 कि मी ऊपर कही आसमान से न्यूयॉर्क की ओर बढ़ते हुए

फिर याद आया वह हवाई सफर जब पत्नी, पिताजी और तीनों छोटे छोटे बच्चों के संग गोएयर की फ्लाइट से नागपुर से हैदराबाद का सफर किया था, वह यात्रा इसी अमिताभ को लेकर मैथ्स ओलम्पियाड के राष्ट्रीय राउंड में उसकी सहभागिता के लिए थी , जिस बेटे के न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी से  पोस्ट ग्रेजुएशन के कन्वोकेशन में हिस्सेदारी के लिए आज सपत्नीक आज दुबई से न्यूयॉर्क के इस सफर पर हैं हम । बेटे से दामाद श्री अभिमन्यु बेटी अनुव्रता ने  दुनियां की सबसे प्रतिष्ठित एतिहाद एयर लाइंस के बिजनेस क्लास में श्रेष्ठतम यात्री विमान एयरबस में टिकिट करवा दी है । लेटे हुए सामने लगे टी वी स्क्रीन पर देख रहा हूं हमारा जहाज लंदन के ऊपर से गुजर रहा है । 7 घण्टो की लगभग आधी यात्रा हो चुकी है । मेरा हृदय सारी समग्रता से छोटी बेटी अनुभा को अशेष आशीष दे रहा है, वह इस समय लंदन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स में अपने एल एल एम की परीक्षा की तैयारी कर रही होगी ।

तीनो बच्चों की ऐसी वैश्विक सफलता के लिए दिल परमात्मा का कोटिशः धन्यवाद कर रहा है । भगवान यदि ऊपर कहीं है, जैसा हम सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी मानते आए हैं, तो मैं अभी धरती की अपेक्षा कम से कम उनके 12 किलोमीटर निकट हूं।

सुकोमल काली पट्टी आँखों पर पहनकर  माँ और पिताजी व पत्नी कल्पना के उस हर छोटे बड़े संघर्ष, समर्थन, बच्चों को प्रोत्साहन, के वे सारे मौके एक साथ दिख रहे हैं जिनकी परिणीति बच्चों की ये उपलब्धियां हैं ।

एक आम सर्विस क्लास भले ही मेरी तरह सरकारी उच्चतम वेतनमान के अंतिम पायदान पर ही क्यों न हो विदेश यात्राओं के लिए किसी सेमिनार की स्पॉन्सरशिप तलाशता रहता है । पर हमें बच्चे  ऐसे अवसर व साधन सुलभ करवा रहे हैं कि कल मनमोहक  नाती रुवीर को गोद मे लिए उत्फुल्ल था और अभी इस विमान में  पूरी फुरसत में हूँ।

सोच रहा हूँ दुनियां क्या सचमुच ग्लोबल विलेज बन गई है ? शायद नहीं यू एन ओ के होते हुए आज तक न तो सारे विश्व में कार ड्राइविंग में केवल लेफ्ट हैंड या राइट हैंड की  एक रूपता आ पाई है ,जो निर्णय बहुत सहजता से लिया जा सकता है , एक से जिप कोड , एक से रोड साइन , इमरजेंसी हेतु एक से टेलीफोन नम्बर्स ,एक से बिजली के सॉकेट एक सा वोल्टेज  व ऐसे ही जाने कितनी ही वैश्विक समरूपता  सरकारें ला सकती हैं । पर जाने क्यों देश तो लड़ने में लगे हैं , सामने लाइव टीवी पर बीबीसी बता रहा है कि ईरान के विरोध में अमेरिका ने अपने जंगी जहाज पर पेट्रियाड मिसाइल भेज दी हैं । पाकिस्तान में ग्वादर के पांच सितारा होटल पर आतंकी हमला होने की खबर भी आ रही है।

मुझे तो कल नाती को गोद में लिए हुए केवल उसके रोने व मुस्कराने की भाषा से उसकी हर डिमांड को डिकोड करती मेरी बेटी व पत्नी की तुतलाकर उससे होती बातें याद आ रही हैं । काश सारी दुनिया के सारे लोग इसी तरह सहजता से डिकोड हो सकते तो शायद दुनियां वास्तव में ग्लोबल बन पाती ।

फिलहाल जहां मेरा विमान है , वहाँ से काशी और काबा दोनों ही एक ओर हैं … पूरब की ओर सिर नवा कर मेरी एक सहयात्री बुरका नशीन महिला रमजान में पवित्र नमाज अदा कर रहीं हैं । मैं भी आदिदेव सूर्य को प्रणाम करते हुए मन ही मन प्रार्थना करता हूँ कि हमारे बच्चों की पीढियों के लिए ही सही प्री इमिग्रेशन क्लियरेंस में किसी दाढ़ी वाले या बुर्के वाली को अब और ह्यूमिलेट न होना पड़े । जब मेरा बेटा हमें लेने न्यूयॉर्क एयरपोर्ट पर आएगा तो उसके साथ बाते करते हुए विश्व बंधुत्व पर मैं उसे ऐसी आश्वस्ति देने योग्य हो सकूँ कि वास्तव में हम सब उसी ग्लोबल विलेज के रहवासी हैं जहाँ पक्षी बिना वीजा या पासपोर्ट के साइबेरिया से भारत आ जाते हैं और भारत की सरहद पर गूंजती स्वर लहरियां बिना प्रतिबंध पाकिस्तान के बॉर्डर को पार कर जाती हैं ।

आमीन कहना चाहते हैं न आप ।

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

 

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Laughter Yoga in Gandhi Ashram for Girls ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

☆ Laughter Yoga in Gandhi Ashram for School Girls☆

I feel proud to share with you this out-of-the-world experience we had with school girls and their mentors in Gandhi Ashram. We (Radhika and me) have been blessed with several fulfilling experiences in the journey of Laughter Yoga but this one simply astounded us. We could never have even dreamed of such ecstasy and inner fruits. Our sincere gratitude to the God Almighty for blessing us with this Heavenly experience and hats off to Giggle Guru, Dr Madan Kataria, who propounded such a profound concept which has enabled us to serve humanity in such a wonderful manner.

We recently visited Kausani at the foothills of Himalayas in north India. It is one of the most picturesque and tranquil places we have ever been to. Mahatma Gandhi called it the Switzerland of India. He complied the Gujarati translation ‘Anasakti Yoga’ of the Bhagavad Geeta while staying at an ashram, now named as Anasakti Ashram, here.

Sarla Ben, fondly remembered as Gandhi’s British daughter, established Lakshmi Ashram here in 1946. It was set up as a basic education program where girls would receive academic education along Gandhian lines and get trained to become social activists. So that they would in turn, work to become self reliant to uplift their village sisters of remote Uttarakhand.

Most of the students at the ashram today are from poor, rural families. Others are from particularly remote villages where access to post primary school is still s problem, especially for girls. Most of them come from small, off-road villages and relatively uneducated families. The school considers it very important that everone at the ashram lives and works together irrespective of caste and other social differences.

We reached the ashram, after a steep climb, in the afternoon. Two little girls guided us to Kanti Didi, affectionately called Odee by all in the ashram, a devoted Gandhian and in-charge of the school activities. She was very warm and loving and bonded with us in no time. We told her about Laughter Yoga and she could see the deep value hidden in it for her school girls.

Odee summoned a girl and asked her to ring the ashram bell. All the girls assembled in a jiffy and were told to proceed to the Shanti Bhavan, their community hall for prayers and cultural activities. In her simple, yet sincere and effective way, Odee announced that we had something valuable to share with them and everyone should pay apt attention.

There were about 60-70 lovely, little girls there. We told them how much we loved children and how sweet each one of them was. Then, we explained the concept of Laughter Yoga in a simple manner very briefly. A laughter session followed after that. Oh, what an amazing session it was! We had never experienced anything like that before. It was joy, cheers and energy all around. Odee, probably in her seventies, was as ecstatic as the kids. The session lasted for one and a half hours! Pure joy, nothing else. Towards the end, everyone was lying down, facing upwards, meditating laughingly as if in a trance.

They offered us Kaadha, a drink prepared from a concoction of Himalayan herbs, and requested us to stay back for the evening play time with the girls. We felt happy and privileged and obliged readily.

In the evening, we went to a lush green play field, surrounded by beautiful trees, and all the girls, clutching our hands tightly with heartfelt affection, took us many years back, right into our own childhood days. We ran and played with them like mad kids. First, we formed a laughter train and ran around the entire field and then marched like soldiers with loud shouts of hoho haha. Towards the end, we performed a laughter orchestra. We had slipped into super consciousness!

All the girls are richly talented in their own way – some are super atheletes, some good at games and almost everyone can sing and dance well. We are sure that many of them can compete at the national level with a bit of coaching and opportunity. Everyone of them is a wonderful soul.

There were some volunteers with us there: Michelle (from Denmark), Alexandra (U.K.), Leo (Germany), David (U.K.), Pramila (Italy) and Uma (Hyderabad). It was an awesome evening.

By now, we were like a family and the girls wouldn’t let us go back. We promised that we would come back the next day, stay and laugh whole day and have lunch with them. And, we did.

We were there with them on the next evening also and joined them for their evening prayers in Gandhian manner. Thereafter, they arranged an impromptu cultural evening and farewell for us. It was singing+dancing+playing+laughter=joy all the way.What terrific talent those girls possess! Unbelievable. It was a marvelous night brimming with emotions. By now, we were all theirs and they were all ours. We would be going there again and again. It is a home for us now.

Next time, when we go there, we are going to stay at the ashram itself. Odee has been benevolent to accept us as their family members. The girls surrounded us and held our hands with so much warmth that Radhika had tears in her eyes. It was really difficult to depart. Two girls, with torches, came down the hills to escort us back to our hotel in the pitch darkness of the mountain slopes.

As we were preparing to leave Kausani with a heavy heart early in the morning, we saw Odee knocking at our hotel room door to bid adieu. How thoughtful of her! She assured us that they will do Laughter Yoga regularly in their ashram and they find immense value in it and appreciate the philosophy underlying it. Had it not been for Laughter Yoga, we would never have had such a soul stirring experience ever!

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
[email protected]

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (72) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

 

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।

स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ।।72।।

 

ऐसी स्थिति ब्राही जिसमें रह निर्मोह

अर्जुन पाती आत्मा,चिदानंद आरोह।।72।।

 

भावार्थ :   हे अर्जुन! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है, इसको प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नहीं होता और अंतकाल में भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मानन्द को प्राप्त हो जाता है।।72।।

 

This is  the  Brahmic  seat  (eternal  state),  O  son  of  Pritha!  Attaining  to  this,  none  is deluded. Being established therein, even at the end of life one attains to oneness with Brahman. ।।72।।

 

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे सांख्ययोगो नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥2॥

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ जिसका जीवन मां चरणों में ईश्वर उसे दिखता है ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

मातृ दिवस विशेष 

☆ जिसका जीवन मां चरणों में ईश्वर उसे दिखता है ☆

 

जो निज गर्भ में नौ माह सृजन करती है,

निज लहू से निज संताने सींचा करती है।

निज मांस मज्जा जीन गुणसूत्र उसे देती है,

जो पालन पोषण करती है वो मां होती है।।

 

जीवन देती दुनिया में लाती प्रथम गुरु होती है,

मां की जान सदा ही निज बच्चों में ही होती है।

जैसे धरा की दुनिया सूर्य के चंहु ओर होती है,

मां की दुनिया संतानों के आसपास ही होती है।।

 

क्षिति जल पावक गगन समीरा भी मां होती है,

जग से वही मिलाती और सही ग़लत बताती है।

व्यक्तित्व गढ़ सवांरती संस्कार वही सिखाती है ,

दु:ख निराशा असफलता में धीरज दिखाती है।

 

जीवन है संघर्ष धरती पर जो हारे वो गिरता है,

गिर कर उठ जाए जो संग्राम वही जय करता है।

असफलता से सफलता दुख से सुख मिलता है,

जो निराश हो नहीं उठे वो मां का दूध लजाता है।।

 

वो बेटे में प्रेमी खोजे और निज पति सा रूप गढ़े,

वो बेटे की दोस्त बने और उसमें पिता भी पा जाए,

वो बेटी की दोस्त बने व संस्कार सर्जना सिखलाए,

वो बेटी में खुद को खोजे और मां को भी पा जाए।।

 

मां जब हमसे बिछड़ती है जीवन सूना लगता है,

अपनापन खो जाता है सब कुछ दूभर लगता है।

मां की उपेक्षा करे जो धिक्कार उसे सब करता है,

अपमानित जग से होता वो जीते जी ही मरता है।।

 

जीते जी स्वर्ग नहीं मिलता भगवान नहीं मिलता है,

मां का आंचल मिले जिसे स्वर्ग उसे यहां दिखता है।

मां नहीं मिलती दुनिया में बाकी सब मिल जाता है,

जिसका जीवन मां चरणों में ईश्वर उसे दिखता है।।

 

© डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

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मराठी साहित्य – मराठी कविता – ? वांझोटी ? –श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(प्रस्तुत है श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी की  मातृ दिवस पर विशेष एक भावप्रवण कविता ।  स्त्री का बांझ होना अभिशाप क्यों माना जाता है। माँ सिर्फ जन्म देने वाली ही हो तो क्या पालने वाली माँ नहीं हो सकती? उत्तर आप ही दें।  )

मातृ दिवस विशेष 

? वांझोटी ?

 

जन्म नाही दिला तिनं

तरी तीच माझी आई

अनाथाला ही पोसते

आहे थोर माझी माई

 

काही म्हणतात तिला

आहे वांझोटी ही बाई

त्यांना बाई म्हणायला

जीभ धजावत नाही

 

बाळ श्रावण होण्याचं

स्वप्न पाहतोय मीही

त्यांना डोईवर घ्यावं

फिराव्यात दिशा दाही

 

मुक्ती मिळूदे मजला

त्यांच्या ऋणातून थोडी

त्यांच्या पायात असावी

माझ्या कारड्याची जोडी

 

© अशोक भांबुरेधनकवडी

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ कोहराम ……. ☆ – डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता

 

(डॉ . मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की  मातृ दिवस पर विशेष लघुकथा कोहराम …… ।)

मातृ दिवस विशेष 

☆ कोहराम ……. ☆

रेवती के पति का देहांत हो गया था। अर्थी उठाने की तैयारियां हो रहीं थीं।

उसके तीनों बेटे गहन चिंतन में मग्न थे। वे परेशान थे कि अब माँ  को कौन ले जायेगा? उसका बोझ कौन ढोयेगा? उसकी देखभाल कौन करेगा? इसी विचार-विमर्श में उलझे वे भूल गये कि लोग अर्थी को कांधा देने के लिये उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।

श्मशान से लौटने के बाद रात को ही तीनों ने माँ को अपनी-अपनी मजबूरी बताई कि उनके लिये वापिस जाना बहुत ज़रूरी है। उन्होंने माँ को आश्वस्त किया कि वे सपरिवार तेरहवीं पर अवश्य लौट आयेंगे।

उनके चेहरे के भाव देख कोई भी उनकी मनःस्थिति का अनुमान लगा सकता था।

उन्हें देख ऐसा लगता था मानो एक-दूसरे से पूछ रहे हों ‘क्या इंसान इसी दिन के लिये बच्चों को पाल-पोस कर बड़ा करता है? क्या माता पिता के प्रति बच्चों का कोई कर्त्तव्य नहीं है?’ वे आंखों में आंसू लिये हैरान, परेशान चिंतित एक-दूसरे का मुंह ताक रहे थे। उनके भीतर का कोहराम थमने का नाम नहीं ले रहा था।

ऐसी स्थिति में रेवती को लगा, सिर्फ पति ही नहीं, शेष संबंधों की डोरी भी खिंच गयी है। उसके टूटने की आशंका बलवती होने लगी है।

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003

ईमेल: drmukta51@gmail.com

 

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हिन्दी साहित्य- कविता – ☆ माँ तू कितनी प्यारी है ☆ – सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

☆ माँ तू कितनी प्यारी है ☆

(प्रस्तुत है सुश्री मालती मिश्रा  जी  की  मातृ दिवस  पर  एक अतिसुन्दर भावप्रवण कविता।)

 

(मातृ दिवस विशेष )

हे मात तुझे शत-शत वंदन,

शब्दों से करती अभिनंदन।

गर पा जाऊँ एक अवसर मैं,

कर दूँ तुझ पर जीवन अर्पण।

 

अपनी सारी ममता माँ ने,

निज बच्चों पर वारी है।

माँ तू कितनी भोली है,

माँ तू कितनी प्यारी है।

 

बच्चों का बचपन माँ से है,

गोद में दुनिया समाई है।

हर मुश्किल में खड़ी रही,

माँ तू बनकर परछाई है।

 

इस कच्चे मन के अंतस को,

देकर संस्कार सजाया है।

इंसानों की भीड़ में मुझको,

मुझसे परिचित करवाया है।

 

माँ तेरी ही ममता से तो,

खुशियों की किलकारी है।

माँ तू कितनी भोली है,

माँ तू कितनी प्यारी है।

 

देती है हरपल ज्ञान हमें,

हर अच्छा-बुरा बताती है।

बनकर पहली गुरु बच्चों की,

जीवन का पाठ पढ़ाती है।

 

शीत में मीठी धूप है माँ,

खुशियों की फुलवारी है।

माँ तू कितनी भोली है,

माँ तू कितनी प्यारी है।

 

उँगली पकड़ चलना सीखा,

निज पैरों पर मैं खड़ी हुई।

तेरी ममता की छाया में,

मैं ना जाने कब बड़ी हुई।

 

अच्छी हूँ या कि बुरी हूँ माँ,

हूँ झूठी या फिर सच्ची हूँ।

दुनिया की नजर में बड़ी हुई,

पर आज भी तेरी बच्ची हूँ।

 

मेरे सब स्वप्न सजाने को,

अपनी नींदें वारी है।

माँ तू कितनी भोली है,

माँ तू कितनी प्यारी है।

 

©मालती मिश्रा ‘मयंती’✍️
दिल्ली
मो. नं०- 9891616087
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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ सवाल एक – जवाब अनेक – 9 ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

 

 

 

“सवाल एक – जवाब अनेक (9)”

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के एक प्रश्न का  विभिन्न  लेखकों के द्वारा  दिये गए विभिन्न उत्तरआपके ज्ञान चक्षु  तो अवश्य ही खोल  देंगे।  तो प्रस्तुत है यह प्रश्नोत्तरों की श्रंखला। 

वर्तमान समय में ठकाठक दौड़ता समाज घोड़े की रफ्तार से किस दिशा में जा रहा है, सामूहिक द्वेष और  स्पर्द्धा को उभारकर राजनीति, समाज में बड़ी उथल पुथल मचा रही है। ऐसी अनेक बातों को लेकर हम सबके मन में चिंताएं चला करतीं हैं। ये चिंताएं हमारे भीतर जमा होती रहतीं हैं। संचित होते होते ये चिंताएं क्लेश उपजाती हैं, हर कोई इन चिंताओं के बोझ से त्रास पाता है ऐसे समय लेखक त्रास से मुक्ति की युक्ति बता सकता है। एक सवाल के मार्फत देश भर के यशस्वी लेखकों की राय पढें इस श्रृंखला में………

तो फिर देर किस बात की जानिए वह एकमात्र प्रश्न  और उसके अनेक उत्तर।  प्रस्तुत है  पुणे से श्री हेमन्त बावनकर, जबलपुर से श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव , बीकानेर से डॉ. अजय जोशी  एवम मुंबई से श्री संजीव निगम की ओर से  –  

सवाल :  आज के संदर्भ में, क्या लेखक  समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?

पुणे से श्री हेमन्त बावनकर जी का जबाब ___
लेखक बाज की आँख की तरह समाज को आईना दिखाता है

जनाब पहले तो यह तय करें कि आज के संदर्भ में आप किस लेखक की बात कर रहे हैं? उस लेखक की जो दिन रात दिमाग में विचारों के घोड़े दौड़ाते हुए हृदय, मस्तिष्क और कलम में सामंजस्य बैठाकर सकारात्मक साहित्य की रचना कर रहा है या उस लेखक की बात कर रहे हैं जो सोशल मीडिया में कट-पेस्ट-फॉरवर्ड कर तथाकथित साहित्य की रचना कर रहा है या कि शब्दों में कुछ हेरफेर कर दूसरों की रचना अपने नाम से प्रकाशित कर रहा है। कुछ ऐसे लेखक भी हैं जो उस समाज के घोड़े की आँख हैं जिनकी आँख के ऊपर कवर लगा होता है, नाक की सीध में चलते हैं, किसी न किसी के अंधभक्त हैं, उनकी लगाम उनके हाथ में भी नहीं होती है, शब्दों के चाबुक चलाते रहते हैं। कुछ लेखक तो सम्मान की दौड़ में किसी भी स्तर तक जा सकते हैं। और भी किस्म किस्म के लेखक है जिनकी व्याख्या करने से शब्द सीमा के बाहर शब्दों के घोड़े दौड़ने लगेंगे।

मुद्दे की बात इतनी सी है जनाब कि मैं तो सिर्फ पहले किस्म के लेखक की नब्ज़ जानता हूँ। वह समय पड़ने पर समाज के घोड़े की आँख का उपयोग बाज के आँखों की मानिंद करता है और व्यंग्य जैसी विधा से लगाम लगा कर समाज को आईना दिखाने में कोई गुरेज नहीं करता।

– हेमन्त बावनकर, पुणे

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जबलपुर से श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी का जबाब ___

लेखक की भूमिका तो समाज के घोड़े की आँख, लगाम से आगे मस्तिष्क की भी है  

लेखक समाज के घोड़े की आंख या लगाम मात्र नही , दरअसल वह भी समाज का ही हिस्सा होता है . लेखन कर्म से  वही जुड़ता है जो अपेक्षाकृत अधिक संवेदनशील व जागरूख होता है . वह परिवेश में घट रही घटनाओ का मूक साक्षी भर नही होता जहां वह अच्छाई का समर्थक व प्रशंसक होता है . वहीं कुरीतियो और बुराई पर लेखक अपनी कलम से हर संभव वार करता है  . इस सबके साथ ही अनेक बार स्वयं लेखक भी समाज सापेक्ष कमजोरियो से ग्रसित भी होता है , तब वह भी यहां वहां चारे पर मुंह मारने से बाज नही आता . किन्तु  उसका चैतन्य लेखन समाज के घोड़े की आंख का तटस्थ युग दृष्टांत  होता है .  वह अपने लेखन की चाबुक से समाज के घोड़े को सही राह पर चलाये रखने सतत प्रयत्नशील रहता है . वह यथा संभव लगाम खींच कर समाज को सही मार्ग दिखाने का यत्न करता नजर आता है . यदि समाज को केवल एम एफ हुसैन के घोड़े में ही चित्रित करना हो तो लेखक की भूमिका समाज के घोड़े की आंख , लगाम ,या सरपट भागते  पैरों   से अधिक घोड़े के मस्तिष्क की हैं .

– विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

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बीकानेर से डॉ. अजय जोशी जी का जबाब ___
लेखक समाज की ना आँख है ना लगाम 

मुझे लगता है कि लेखक समाज घोड़े की ना तो आंख है और ना ही लगाम। देश की जनसंख्या में युवा वर्ग सर्वाधिक है। यही समाज का बड़ा हिस्सा है। इस वर्ग को लिखे गए किसी तरह के  साहित्य से कोई खास  लेना देना ही नही है। उनका एक बड़ा वर्ग आपने रोजगार और काम धंधे को ढूंढने और परिवार के भरण पोषण की जुगाड़ में संघर्ष कर रहा है तो दूसरा वर्ग अपनी अलग मस्ती में मस्त है। उसका अपना एक अलग संसार है। उसको खाने पीने और मौज मस्ती करने से ही फुरसत नही है।वह बढ़िया से बढ़िया कपड़े पहनता है,जूते पहनाता है, महंगी और बढ़िया गाड़ियों में घूमता है। अपनी गर्लफ्रैंड के साथ होटलों और रेस्ट्रोरेंट में मजे करता है और पार्टियां करता है। बहुत से युवा नशे की चपेट में भी है उनको दीन दुनिया से कोई लेना देना ही नही है। युवाओं का बड़ा वर्ग फेसबुक, व्हाट्सएप, यूट्यूब, इंस्टाग्राम जैसे सोसल मीडिया की आभासी दुनिया में व्यस्त और मस्त है। उसका अधिकांश समय इसमें ही बीतता है। इस सब के बीच उसके पास लेखक द्वारा लिखे गए को ना तो गंभीरता से पढ़ने का समय  है और ना ही अमल करने में उसकी कोई रुचि। पढ़ने की रुचि और प्रवर्ति निरन्तर समाप्त हो रही है इसलिए वह लेखक के लिखे साहित्य की आंख से देखने का ना तो वो सोचता है और ना ही देखता है। यह पीढ़ी किसी बंधन को स्वीकार करने को भी तैयार ही नही है इसलिए लेखक के लिखे को घोड़ की लगाम को स्वीकार करने के लिए वह कतई तैयार ही नही है। युवा वर्ग का एक बहुत छोटा वर्ग पढ़ता लिखता है और गंभीर भी है लेकिन वह अन्य युवाओं को प्रभावित करने की स्थिति में नही है।युवा वर्ग के आलवा जो पीढ़ी है वह अब इस स्थिति में रही ही नही कि वो लेखक के लिखे को आंख के रूप में देख सके और लगाम के रूप में स्वीकार कर सके। दूसरी तरफ आज जो लिखा जा रहा है वह ना तो आंख की तरह दृष्टि देने में सक्षम है और ना ही समाज को इतना प्रभावित कर पाता है कि समाज उसको लगाम की तरह स्वीकार करे।

– डॉ. अजय जोशी, बीकानेर

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मुंबई से श्री संजीव निगम जी का जबाब ___

साहित्यकार समाज को एक सच्ची दृष्टि दे तो वही लगाम की तरह सार्थक होगी 

क्या ही मस्त सवाल रखा है सामने, आज के संदर्भ में। ये ठकाठक दौड़ता समाज वाकई घोड़े की रफ्तार से दौड़ रहा है। इस समाज पर  साहित्य ही लगाम का काम कर सकता है लेकिन अफसोस की बात यह है कि जीवन और समाज के बाकी क्षेत्रों की तुलना में साहित्य धीरे धीरे पीछे छूटता जा रहा है। हालांकि साहित्य आज भी उससे जो अपेक्षा है वह काम कर रहा है पर वह समाज पर वैसा असर नहीं छोड़ पा रहा है जो एक लगाम से अपेक्षित होता है। लेकिन हम कह सकते हैं कि साहित्य समाज के घोड़े की आंख जरूर है। अच्छे, बुरे को आज भी सही से देखता है और दिखाता है। अब ये समाज के विवेक पर है कि वह उन दृश्यों को देख कर अपने अंदर क्या सुधार करना चाहता है। आज का समाज सलाह पर तो फिर भी ध्यान दे देता है पर कोई बंधन स्वीकार नहीं करता है। साहित्य को भी इसी के अनुरूप चलना होगा, तभी वह कुछ मायनों में सार्थक हो पाएगा। साहित्यकार यदि एक सच्ची दृष्टि दे सके तो वह भी आज नहीं तो कल एक लगाम का काम करेगी।

– संजीव निगम, मुंबई

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? मी_माझी – #3 – अथांग… ? – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

? मी_माझी  – #3 – अथांग…? 

(स्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की  तृतीय कड़ी  अथांग …। इस शृंखला की प्रत्येक कड़ियाँ आप आगामी  प्रत्येक रविवार को पढ़ पाएंगे। )

 

सहज डोकावले… तसं डोकावायचं काही कारणही नव्हतं… पण किती वर्षांपासून हे करायचं राहूनच गेलं होतं… राहून गेलं होतं की मी ते मुद्दामून करत नव्हते…?

त्याने काय फरक पडणार आहे? गोष्टी घडायच्या तेव्हाच घडतात… मग उगाच दोष, आरोप वगैरे कशाला…?

असो, तर मी काय म्हणत होते?

काहीच नाही गं, तू आता काही बोलूच नकोस… फक्त ऐक…

पण काय ऐकू?

शांत हो, गप्प बस, डोळे बंद कर आणि ऐक सगळं…

म्हणजे?
काहीच बोलायचं नाही?

…………………….

सगळं कसं शांत झालं होतं. थोडंसं कोरडं कोरडं वाटत होतं. मी जरा अस्वस्थच झाले होते. पण आज पर्याय नव्हता. एकेक आवाज नाहीसा होऊ लागला, तशी माझी उत्सुकता वाढू लागली. प्रत्येक क्षणी काय घडतंय ह्याकडे लक्ष जायला लागलं. हळू हळू रंगही नाहीसे झाले, तरंग शांत झाले, तसे शहारे बोलू लागले.

सुरुवातीला अर्थ लागत नव्हते, पण आता काठावर बसून समोरच्या डोहातील माझं प्रतिबिंम्ब दिसत होतं, ते माझं आहे ह्यावर विश्वास ठेवताना अनेक गोष्टींनी
मनाभोवती फेर धरायला सुरुवात केली आणि… आणि पुन्हा गोंधळ, आरडा ओरडा, कोलाहल… असं वाटायला लागलं जणू कडेलोट होतोय, त्या डोहात जर मी पडले तर नाका तोंडात पाणी जाऊन जीव गुदमरेल.
नाही, नाही, मला ह्यातून बाहेर काढा, मला जगायचं आहे, हा आक्रोश सुरू झाला… जगण्याच्या धडपडीमध्ये, गटांगळ्या खात खात, त्या थंड पाण्याची बोच सहन करत पोहत राहायचे होते, थांबले तर, होत्याचं नव्हतं होणार हेच माहीत होतं.

आजही नेमकं तेच झालं… हात पाय मारत राहिले, पण एक वेळ अशी आली की माझ्या संघर्षामध्ये मी कुठेच नव्हते… हे लक्षात आलं…

म्हणजे?

ह्याचं उत्तर शोधायलाच हवं. ह्या संघर्षात मी नाही, असं कसं होईल ?

म्हणजे, बघ हं, ह्या डोहाकडेच बघ ना… पाऊस पडला की ह्यात पाणी साठणार, मग लोकं ते पाणी वापरणार, कोणी दगड मारतील, कोणी पोहायची मजा घेतील, कोणी माझ्यासारखे असतील, जे पाण्यात उतरायला कदाचित घाबरतील. आणि पाण्यात उतरले तर त्या पाण्याच्या प्रवाहाबरोबर वाहताना जीव मेटाकुटीला येईपर्यंत जीव वाचवायचा.

हाच डोह जेव्हा नदीला जाऊन मिळतो, तेव्हा आपल्याला फार कष्ट घ्यायला लागत नाहीत, नाही का! वाहणे आपोआप चालू राहते. तेव्हा एकच दिशा असते, समुद्राची अथांगता गाठणे, होय ना !

फारसं काही कळत नव्हतं. म्हणून मग पाण्यातून बाहेर येऊन काठावर बसले. आणि डोकावू लागले.

प्रपंचरूपी डोहाला सर्वस्व मानून, जगण्याच्या गर्दीत स्वतःला हरवून बसले होते. ह्यातून मार्ग काढत भक्तिमय नदीचा एक भाग बनून परमेश्वराच्या अथांगतेमध्ये झोकून द्यायचं आहे, ह्याची जाणीव झाली, आणि… सगळं शांत झालं, एक अनुभूती मनाचा ताबा घेऊ लागली, जीवाला सतत अस्वस्थ करणारी भावना नष्ट होऊन सगळं हलकं वाटू लागलं, जणू मी पाण्यावर तरंगते आहे. अथांग… !

© आरुशी दाते

 

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मराठी साहित्य – मराठी कविता – ☆ फाटक कापड…!! ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

(युवा मराठी साहित्यकार श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ  अक्सर हमारे सामाजिक परिवेश  के आसपास ही घूमती है । प्रस्तुत  है  एक बेटे द्वारा माँ की  व्यथा की कल्पना करती  उनकी  मातृ दिवस पर विशेष कविता फाटक कापड़ …!)

मातृ दिवस पर विशेष

☆ फाटक कापड…!! 

 

माझी माय

जितक्या सहज

सुईत दोरा ओवते ना..

तितक्याच सहज जर

बापाला मरणाच्या दारातून

परत आणता आलं असतं तर ?

किती बरं झाल असतं…!

आज …

तो असता तर ,

आमच्या चिमूकल्या डोंळ्यात

भरून आलेल्या आभाळा ऐवजी

इंद्रधनूचे रंग असते.. . .

आणि.. . .

त्याच्या आठवणीत बोचणा-या

सा-याच क्षणांना

फुलपाखरांचे पखं असते

तो असता तर. . . .

मायेच्या हातातली सुई

कँलेडरच्या कोणत्यातरी पानावर

फडफडत राहीली असती

दिवस रात्र…

पण आता मात्र

हातशिलाई करताना ती

टोचत राहते मायेच्या बोटांना

अधूनमधून

आणि…

शिकवत जाते

एकट्या बाईन संसार

करायचा म्हटंला तर

टोचत राहणाऱ्या समाजाकडे

दुर्लक्ष करून

आपण आपल्या संसाराचं

फाटकं कापड कसं शिवायचं ते..!

 

© सुजित कदम

मो.727628262

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