मराठी साहित्य – मराठी कविता – ☆ सावली ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे
*सावली*
(प्रस्तुत है श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी की एक अत्यंत भावप्रवण कविता। जीवन  के सत्य को अपनी गंभीर एवं दर्शनिक दृष्टि से चुने हुए शब्दों के साथ इस रचना को रचने के लिए आपकी कलम को नमन।) 

माझ्याच सावलीला फसतो कधी कधी

पाहून सूर्य मजला हसतो कधी कधी

 

हा आरसा बिलोरी मज सत्य सांगतो

मी चेहर्‍यात माझ्या नसतो कधी कधी

 

बाहेर चांदणे हे आहे टिपूर पण

नाराज चंद्र घरचा असतो कधी कधी

 

टाळून संकटांना जाणार मी कुठे

त्यांच्याच बैठकीला बसतो कधी कधी

 

पाऊल शेपटीवर पडले चुकून तर

मी साप पाळलेला डसतो कधी कधी

 

© अशोक भांबुरे, धनकवडी, पुणे.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (28) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(सांख्ययोग का विषय)

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।

अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ।।28।।

निराकार जो पूर्व में,मध्य में रह साकार

निराकार होते पुनः तो क्या दुख-आधार।।28।।

      

भावार्थ :   हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं, केवल बीच में ही प्रकट हैं, फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है?।।28।।

 

Beings are unmanifested in their beginning, manifested in their middle state, O Arjuna,and unmanifested again in their end! What is there to grieve about? ।।28।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल – ☆ Nirvana ☆ – Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

Nirvana is an Illusion, Serving for a Cause is Divine

I am penning this piece on the banks of the holy Ganga in the sacred land of Sages and Rishis on the foothills of the Himalayas.

I feel blessed as I am attending an international festival of yoga in Rishikesh. Around me are more than a thousand yoga gurus and yogis from more than a hundred countries. It is but natural to feel high on yoga, meditation and spiritual discourses from 4 am to 10 pm.

Last night was a restless one for me. Thoughts moved as fleeting clouds the whole night in my mind. Is nirvana a necessity or a luxury? Is it for real? Or, is it an illusion, delusion, confusion, or hallucination created by the spiritual guys?

I am an old man now by worldly standards. Even then, I stand on the crossroads like an Arjuna on the battle ground of Kurukshetra, with no Krishna around.

All my life, I tried all the available faiths and doctrines by hit and trial. I did not find much solace anywhere. Finally, I saw a silver lining – the path of the Buddha. Meditation is the quintessence of his teachings. I started practicing it.

I am just a step away from nirvana. Nirvana looks down upon me and gives a wry smile. I feel I am not interested in taking the next step. It seems futile. What will anyone else gain if I am enlightened?

I have seen the glow in the eyes of spiritual persons at the sight and smell of dollars. And feel saddened when they ignore us who have the most valuable currency – authenticity and happiness. It really hurts.

I do have a few vices remaining – ego which erupts from time to time, aversion towards those who play games, and craving for the beautiful ones. I sometimes feel that I am a sexual volcano on a human, spiritual journey.

I tried to attain all the perfections and succeeded to some extent. I admit that I have not been able to develop patience, temperance and humility. Why should I be polite to the hypocrites, scoundrels and rascals?

As I told you, I am almost in the neighborhood of Nirvana but I am not interested now. I feel disillusioned by the very concept of nivana.

Nirvana is non-productive. It makes people idle and alienates them from real world and their duties. To be here and now in the present moment, I feel one should be totally engaged in work, play, love and relationships. That is true happiness!

I feel the best form of spiritual life is serving for a social or humanitarian cause. One should strive to be a Mother Teresa, a Gandhi, a Martin Luther King, an Abraham Lincoln or a Malala or Satyarthi, instead of chasing a mirage called nirvana.

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
Courtesy – Shri Jagat Singh Bisht, LifeSkills, Indore

 

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद-16 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–16    

मैं अक्सर आपसे अपनी एक प्रिय नज्म की पंक्तियाँ टुकड़ों में साझा करता रहता हूँ।

यदि आप गौर करेंगे तो पाएंगे यह मेरी ही नहीं तकरीबन मेरे हर एक समवयस्क मित्रों की भी अभिव्यक्ति है।

आज मैं अपनी वही नज़्म आपसे संवाद स्वरूप साझा करना चाहता हूँ।

एहसास 
जब कभी  गुजरता हूँ  तेरी  गली  से  तो क्यूँ ये एहसास होता है 
जरूर   तुम्हारी निगाहें भी कहीं न कहीं खोजती होंगी मुझको।
बाग के दरख्त जो कभी गवाह रहे हैं हमारे उन हसीन लम्हों के  
जरूर उस वक्त वो भी जवां रहे होंगे इसका एहसास है मुझको। 
बाग के फूल पौधों से छुपकर लरज़ती उंगलियों पर पहला बोसा 
उस पर वो  झुकी निगाहें सुर्ख गाल लरज़ते लब याद हैं मुझको।  
कितना  डर  था हमें उस जमाने में सारी दुनिया की नज़रों का 
अब बदली फिजा में बस अपनी नज़रें घुमाना पड़ता है मुझको। 
वो  छुप छुप कर मिलना वो चोरी  छुपे  भाग कर फिल्में देखना 
जरूर समाज के बंधनों को तोड़ने का जज्बा याद होगा तुमको।  
सुरीली धुन और खूबसूरत नगमों  के हर लफ्ज के मायने होते थे
आज क्यूँ नई धुन में नगमों के लफ्ज  तक  छू  नहीं पाते मुझको।   
  
वो शानोशौकत की निशानी साइकिल के पुर्जे भी जाने कहाँ होंगे 
यादों की मानिंद कहीं दफन हो गए हैं इसका एहसास है मुझको।  
इक दिन उस वीरान कस्बे में काफी कोशिश की तलाशने जिंदगी 
खो गये कई दोस्त जिंदगी की दौड़ में जो दुबारा  न  मिले मुझको। 
दुनिया के शहरों से रूबरू हुआ जिन्हें पढ़ा था  कभी किताबों में 
उनकी खूबसूरती के पीछे छिपी तारीख ने दहला दिया मुझको।  
अब ना किताबघर  रहे  ना किताबें ना ही उनको पढ़ने वाला कोई
सोशल साइट्स पर कॉपी पेस्ट कर सब ज्ञान बाँट  रहे हैं मुझको।  
अब तक का सफर तय किया एक तयशुदा राहगीर की मानिंद 
आगे का सफर पहेली है इसका एहसास न तुम्हें  है  न  मुझको।  
आज बस इतना ही

हेमन्त बावनकर

1 अप्रैल 2019

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – सवाल एक – जबाब अनेक – 2 – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

 

 

 

 

“सवाल एक –  जबाब अनेक (2 एवं  3)”

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी का  एक प्रश्न के विभिन्न  लेखकों के द्वारा  दिये गए विभिन्न उत्तरआपके ज्ञान चक्षु  तो अवश्य ही खोल  देंगे।  तो प्रस्तुत है यह प्रश्नोत्तरों की श्रंखला।  

वर्तमान समय में ठकाठक दौड़ता समाज घोड़े की रफ्तार से किस दिशा में जा रहा, सामूहिक द्वेष और  स्पर्द्धा को उभारकर राजनीति, समाज में बड़ी उथल पुथल मचा रही है। ऐसी अनेक बातों को लेकर हम सबके मन में चिंताएं चला करतीं हैं। ये चिंताएं हमारे भीतर जमा होती रहतीं हैं। संचित होते होते ये चिंताएं क्लेश उपजाती हैं, हर कोई इन चिंताओं के बोझ से त्रास पाता है ऐसे समय लेखक त्रास से मुक्ति की युक्ति बता सकता है। एक सवाल के मार्फत देश भर के यशस्वी लेखकों की राय पढें इस श्रृंखला में………

तो फिर देर किस बात की जानिए वह एकमात्र प्रश्न  और उसके अनेक उत्तर।  प्रस्तुत है  दूसरा उत्तर लखनऊ से विख्यात व्यंग्यकार एवं प्राध्यापक श्री अलंकार रस्तोगी जी की ओर से   –  

सवाल :  आज के संदर्भ में, क्या लेखक  समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?

लखनऊ से श्री अलंकार रस्तोगी जी  ___2 

(श्री अलंकार रस्तोगी जी लखनऊ से प्रसिद्ध कवि, व्यंग्यकार एवं प्राध्यापक हैं।) 

इस सवाल पर मेरी यह नितांत व्यक्तिगत राय है और इससे सहमत होना कतई आवश्यक नही है। भाई मुझे तो ऐसा लगता है कि लेखक एक समाज के लिए लगाम की तरह नही बल्कि उस कसी हुई लगाम की तरह होता है जैसी लगाम राणा प्रताप के घोड़े के लगी हुई थी। बस पुतली फिरी नही कि  चेतक मुड़ जाता था। विशेषकर एक व्यंग्यकार के पास तो समाज मे विसंगतियां देखकर उसे सही दिशा देने की लगाम तो होती ही है। अगर वह लगाम बनता है तो उसे आंखे बनने की ज़रूरत ही नही है क्योंकि आँखे भले ही गलत देखें लेकिन कसी हुई लगाम उसे अपने मार्ग से विचलित नही होने देती है। एक लेखक के पास वह शक्ति और ज़िम्मेदारी होती है कि वह अपने हर शब्द से समाज के अंदर वह वांछित परिवर्तन ला सके जिससे समाज अपने अपने कुत्सित स्वरूप से अवगत भी हो और उसमें सुधार भी ला सके।

  • अलंकार रस्तोगी, व्यंग्यकार लखनऊ


सवाल :  आज के संदर्भ में, क्या लेखक  समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?

सवाल एक, जबाब अनेक : ब्रजेश कानूनगो __ 3 

(श्री ब्रजेश कानूनगो जी  25 सितंबर 1957 को  देवास  जन्मे सेवानिवृत्त बैंकर हैं। आपका साहित्य के क्षेत्र में विशेष योगदान रहा है। आपकी प्रसिद्ध पुस्तकों में  व्यंग्य संग्रह – पुनः पधारें, सूत्रों के हवाले से, मेथी की भाजी और लोकतंत्र। कविता संग्रह- धूल और धुंएँ के पर्दे में,इस गणराज्य में,चिड़िया का सितार, कोहरे में सुबह।  कहानी संग्रह – ‘रिंगटोन’। बाल कथाएं- ‘फूल शुभकामनाओं के।’ बाल गीत- ‘ चांद की सेहत’। उपन्यास- ‘डेबिट क्रेडिट’ एवं  आलोचना (साहित्यिक नोट्स) – ‘अनुगमन’ हैं ।

संप्रति: इंदौर से सेवानिवृत्त बैंक अधिकारी। साहित्यिक,सांस्कृतिक और सामाजिक गतिविधियों में संलग्न। तंगबस्ती के बच्चों के व्यक्तित्व विकास शिविरों में सक्रिय सहयोग।)

प्रश्न – आज के संदर्भ में, क्या लेखक  समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?

उत्तर – –

जहां तक इस सवाल की बनावट की बात है वह कुछ इस तरह होना चाहिए कि ‘ क्या लेखक वर्तमान दौर में समाज की आंख है या लगाम?

मेरा मानना है कि समाज लोगों, प्रकृति,पर्यावरण,जीव जंतु,पशु पक्षी सबको शामिल करके बनता है। यदि इसमें मनुष्य शामिल है तो वहां केवल आंख और लगाम का जिक्र करके मुद्दे को सीमित नहीं किया जा सकता। पूरे समाज को हम मात्र एक घोड़ा नहीं मान सकते। समाज का एक व्यापक स्वरूप, रीति नीति और मस्तिष्क के विवेकपूर्ण इस्तेमाल करने की क्षमता का होना भी स्वीकार करना होगा।

घोड़े की आंखों के आसपास यदि तांगा मालिक पट्टियां लगाकर केवल एक दिशा में देखने को बाध्य कर देता है तो ऐसा किसी सच्चे लेखक के साथ करना लगभग असंभव होगा। इसी तरह केवल लेखक के हाथ में ही समाज की लगाम नहीं होती।अनेक बल और घटक होते हैं जिससे समाज की रीति नीति तय होती है। सरकारों और सत्ताधारियों की लोक कल्याणकारी नीतियों और विचारधारा की भूमिका भी बहुत कुछ भविष्य की दिशा तय करती है। एक समय राष्ट्रीयकरण को विकास और समाज के लिए कल्याणकारी माना जाता है तो आगे ‘निजीकरण’ में विकास के रास्ते खोजे जाने लगते हैं।यह एक महज उदाहरण है। ऐसी अनेक बाते होती हैं जो समाज को दिशा देती हैं।

जहां तक इस काम में एक सजग लेखक की भूमिका का सवाल है उसका काम लोगों के  हित में समाज में मौजूद विषमताओं, असमानताओं, साधन,सुविधाओं के समान वितरण की विसंगतियों की ओर इशारा करना होता है ताकि उन पर नीति निर्माताओं और कार्यान्वयन के जिम्मेदारों का ध्यान आकर्षित हो। मेरा यह भी मानना है कि लेखक की भूमिका सदैव सत्ता और सरकार के विपक्ष की तरह होना चाहिए चाहे सत्ता में उसके प्रिय और उसकी अपनी विचारधारा के लोग ही क्यों न बैठे हों।उसकी जिम्मेदारी सत्ता से ज्यादा जनता के दुख दर्दों के साथ होना चाहिए।

गंदे पानी में दो बूंद फिटकरी पानी को शुद्ध करने का काम करने का प्रयास करती है, समाज में सच्चे और ईमानदार लेखक की भी लगभग यही भूमिका होती है। वर्तमान समय में लेखक को तांगे में जुटे घोड़े में बदलने के प्रयास दिखाई देते हैं उससे सचेत रहने की जरूरत है। किसी भी गणराज्य में समाज की लगाम तो अंततः संविधान और जनता के हाथों में होती है। इसमें विचलन तो कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता।

  • श्री ब्रजेश कानूनगो

(अगली कड़ियों में हम आपको विभिन्न साहित्यकारों के इसी सवाल के विभिन्न जवाबों से अवगत कराएंगे।)

 

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मराठी साहित्य – मराठी कथा – *अपुरे घरटे* – श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

*अपुरे घरटे*

(इस अत्यंत शिक्षाप्रद एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा के लिए  श्रीमति रंजना जी की लेखनी को सादर नमन)

सकाळची वेळ होती कोवळे ऊन पडलेले होते. सर्वत्र उत्साहाचे वातावरण होतं.

आज मंगळवार  बाजारचा दिवस असल्यामुळे मजूर लोकांना कामाला सुट्टी होती. ओळखीचे  एकजण सुट्टीच्या दिवाशी “काही काम आहे का ताई” विचारायला आले . काय काम सांगावे हा विचार करत असतानाच, घराच्या दोन्ही बाजूला बाभळीच्या फांद्या मधे डोकावणाऱ्या फांद्या दिसल्या.  येताजाता त्यांचे काटे अंगाला टोचत असत. ” मामा याच्या मधे आलेल्या फांद्या कट कराल का?”  “हो करतो की ताई” असे म्हणून ते कुऱ्हाड आणायला निघून गेले आणि मी शाळेला गेले.

चार वाजता येऊन पाहिले आणि  त्याला फांद्या तोडायला सांगून अक्षम्य अपराध केल्यासारखे वाटायला लागले .

कारण डेरेदार वाढलेल्या बाबळीच्या प्रत्येक फांदीवर सुगरणींचे अनेक घरटे जवळजवळ शेवटच्या टप्प्यावर आलेले होते जवळपास एक महिन्याच्या अथक प्रयत्नांची पराकाष्ठा करून ते बिचारे जीव घरटे तयार करत होते.

मुख्य म्हाणजे पोर्च मधे बसून त्यांची कारागीरी पाहणे हा माझ्यासाठी आवडता छंदच बणलेला होता. काडी काडी जमवून घरटे तयार करणारे सुगरण पक्षी पाहून एक नवीन चैतन्य मनात संचारत असे, परंतु मात्र मन पुरतं कोलमडून गेलं होतं. या नराधमाने त्या बाभळीच्या  सर्वच्या सर्व  फांद्या तोडून त्यावरील घरटे मुलांना खेळायला देऊन टाकले होते. या माणसाचं काय करावं तेच कळत नव्हतं

जातायेता टोचणाऱ्या  काट्यां पेक्षा शेजारच्या झाडावरून पाहणाऱ्या दहाबारा सुगरणींच्या नजरा आज मला जास्तच टोचत होत्या.

आपण याला फांद्या तोडायला सांगून फार मोठा गुन्हा केला आहे असं सतत जाणवत होतं.  पुढचे दोन दिवस पक्षांची हालत पाहावी वाटतच नव्हती. परंतु नंतर मात्र ते सारे नवीन घरट्याच्या तयारीला लागले. परंतु आजही झाडाकडे पाहिले की ते अपुरे घरटे चटका लावून जाते.

तात्पर्य :- काम करणाऱ्याची वैचारिक कुवत लक्षात न घेता इतरांना गृहीत धरून काम सांगितले की असे अनर्थ ओढावतात, मग पश्चात्ताप करूनही काहीच उपयोग नसतो. त्यामुळे संभाव्य धोके लक्षात  घेऊन स्पष्ट सुचना देणे फार महत्वाचे असते.

 

© श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

 

 

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल – Vipassana Meditation: All You Wanted to Know – Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

Vipassana Meditation: All You Wanted to Know About the 10-Day Retreat

Vipassana is an ancient technique of meditation discovered by the Buddha more than two thousand and five hundred years ago. It is non-sectarian and open to people of all colour and creed.

The 10-day retreat of silence and meditation is a unique experience which everyone should have at least once in lifetime. It’s a boot camp for the mind and gives you a first-hand feel of virtue, mindfulness and wisdom.

During the tenure of the course, you observe five precepts: abstaining from killing, stealing, sexual misconduct, lies and intoxicants.

You wake up at 4 am and meditation begins at 4.30 am. All through the day, you meditate, meditate and meditate! Of course, you have breaks for breakfast, lunch and evening meals. You are in your bed by 9.30 pm.

The accommodation is simple and hygienic, with basic amenities. No television. No internet. You live like a monk/nun for ten days of your life.

The food is simple and nutritious. Some people have an impression that they might starve there. That’s not correct.

On the zero day, you have to report at the centre by afternoon. You are required to deposit your mobile phone, cash and valuables in a locker allotted to you.

Please carry simple and comfortable clothing with you for the course. Don’t carry too many of those. Laundry service is usually available at the centre.

What you learn in the ten days is truly valuable and often life transforming. For the first three days, you learn to concentrate by focussing on your breath, next six days are for gaining insight into your body and mind, and on the last day you enjoy the bliss of loving kindness meditation.

The course also guides you subtly to a routine of moral discipline, purity of mind and loving kindness for all beings.

You learn the basic technique there and then go back home to continue meditating and progressing in the path of spirituality.

The course gets over on the eleventh day at 7 am.

It’s an experience you will cherish, adore and would like to repeat frequently!

You may register for a 10-day course at the global website for Vipassana Meditation.

May your life be filled with happiness, love, peace and tranquillity!

 

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
Courtesy – Shri Jagat Singh Bisht, LifeSkills, Indore
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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (27) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(सांख्ययोग का विषय)

जातस्त हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।

तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ।।27।।

 

जो भी लेता जन्म है ध्रुव उसका अवसान

इससे जो निश्चित नियम उसमें क्या दुख भान।।27।।

 

भावार्थ :   क्योंकि इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है। इससे भी इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने योग्य नहीं है।।27।।

 

For, certain is death for the born and certain is birth for the dead; therefore, over the inevitable thou shouldst not grieve. ।।27।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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