डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख कामयाबी और सब्र। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 226 ☆

☆ कामयाबी और सब्र… ☆

‘कामयाबी हमेशा वक्त मांगती है और वक्त हमेशा सब्र / और यूँ ही चलता रहता है ज़िंदगी का सफ़र।’ सिलसिले ज़िंदगी के चलते रहते हैं और मौसम व दिन-रात यथासमय दस्तक देते रहते हैं। यह समाँ भी रुकने वाला नहीं है। ऐ मानव! तू हादसों से मत डर और अपनी मंज़िल की ओर निरंतर बढ़ता चल। प्रकृति पल-पल रंग बदलती है; समय नदी की भांति निरंतर बहता रहता है। ज़िंदगी में तूफ़ान आते-जाते रहते हैं। परंतु तू बीच डगर मत ठहर और न ही बीच राह से लौट। स

मरण रहे, ‘ज़िंदगी इम्तिहान लेती है/ यह दिलोजान लेती है।’  इसलिए मानव को सफलता पाने के लिए निरंतर कर्मशील रहना चाहिए। सफलता ख़ैरात नहीं; उसे पाने के लिए मानव को स्वयं को निरंतर श्रम की भट्ठी में झोंकना पड़ता है, क्योंकि परिश्रम का कोई विकल्प नहीं होता। जो व्यक्ति केवल अपनी मंज़िल पर लक्ष्य साध कर जीता है, उसकी राहों में कोई आपदा व बाधा उपस्थित नहीं हो सकती।

सफलता कोई सौगा़त नहीं, जो दो दिन में आपकी झोली में आकर गिर जाए। उसे पाने के लिए परिश्रम करना पड़ता है, झुकना पड़ता है और  सुख-सुविधाओं का त्याग करना पड़ता है। जो व्यक्ति इन रेतीली, कंटीली, पथरीली राहों पर चलना स्वीकार लेता है तथा असफलता को अनुभव के रूप में अपना लेता है; वह एडीसन की भांति सफलता के झंडे गाड़ देता है। बल्ब का आविष्कार करते हुए उसे अनेक बार असफलता का सामना करना पड़ा। दोस्तों ने उसे उस राह को त्यागने का मशविरा दिया, परंतु उसने आत्मविश्वास-

पूर्वक यह दलील दी कि उसे अब इन प्रयोगों में पुनः अपना समय नष्ट नहीं करना पड़ेगा। सो! वह मैदान-ए-जंग में डटा रहा और बल्ब का आविष्कार कर उसने नाम कमाया।

कामयाबी प्राप्त करने के लिए जहाँ वक्त की आवश्यकता होती है, वहीं वक्त को सब्र की अपेक्षा रहती है। जिस व्यक्ति में संतोष का भाव है, उतावलापन नहीं है; जो हर बात पर तुरंत प्रतिक्रिया नहीं देता और धैर्यपूर्वक अपने कार्य को अंजाम देता है; गीता के निष्काम कर्म को धारण करता है; अतीत में नहीं झाँकता– सदैव उज्ज्वल भविष्य की ओर अग्रसर रहता है।

अतीत कभी लौटता नहीं और भविष्य कभी आता नहीं। इसलिए वर्तमान में जीना श्रेयस्कर है, क्योंकि भविष्य भी सदैव वर्तमान के रूप में दस्तक देता है। ‘आगे भी जाने ना तू/ पीछे भी जाने ना तू/ जो भी बस यही एक पल है/ तू पूरी कर ले आरज़ू।’ इंसान को हर लम्हे की कद्र करनी चाहिए। गुज़रा वक्त लौटता नहीं और अगली साँस लेने के लिए हमें पहली साँस का त्याग करना पड़ता है– यह प्रकृति का नियम है, जो त्याग के महत्व को दर्शाता है। ‘जो बोओगे, सो काटोगे और कर भला, हो भला’ भी हमें यह सीख देते हैं कि मानव को सदैव सत्कर्म करने चाहिए, क्योंकि ये मुक्ति की राह दर्शाते हैं।

सब्र वह अनमोल हथियार है, जो मानव को फ़र्श से अर्श पर पहुंचाने की सामर्थ्य रखता है। आत्मविश्वास व आत्मसंतोष सफलता के सोपान हैं; जो उसे जीवन में कभी मात नहीं खाने देते। बचपन से मैंने आत्मविश्वास व आत्मसंतोष को धरोहर के रूप में संजोकर रखा और जो मिला उसे प्रभु की  सौग़ात समझा। यह शाश्वत् सत्य है कि समय से पहले और भाग्य से अधिक व्यक्ति को कुछ भी प्राप्त नहीं होता। सो! अधिक की कामना व कल की चिन्ता करना व्यर्थ है। सृष्टि का चक्र नियमित रूप से निरंतर चलता रहता है और समय से पूर्व कोई कार्य सम्पन्न नहीं होता। यह सोच हमें आत्माववलोकन व दूसरों में दोष देखने की घातक प्रवृत्ति से बचने का का संदेश देती है। कबीरदास के ‘बुरा जो देखन मैं चला, मोसे बुरा ना कोय’ के माध्यम से मानव को अंतर्मन में झाँकने की सीख दी गयी हैं। मानव ग़लतियों का पुतला है। बुद्धिमान लोग दूसरों के अनुभव सीखते हैं और मूर्ख लोग अक्सर अपने अनुभव से भी नहीं सीखते। वेमात्र दूसरों की आलोचना कर सुक़ून पपाते हैं।

सब्र और  सुक़ून का गहन संबंध है और चोली दामन का साथ है। यह दोनों अन्योन्याश्रित हैं और एक के बिना दूसरा अस्तित्वहीन है। जहाँ सब्र है, अधिक की इच्छा नहीं; वहाँ सुक़ून है। सुकून वह मानसिक स्थिति है, जहाँ आनंद ही आनंद है। सब ग़िले-शिकवे समाप्त हो जाते हैं; राग-द्वेष का शमन हो जाता है और इंसान पंच विकारों से ऊपर उठ जाता है। वहाँ अनहद नाद के स्वर सुनाई पड़ते हैं। यह अलौकिक आनंद की स्थिति है, जहाँ मानव संबंध-सरोकारों से ऊपर उठ जाता है, क्योंकि उसके हृदय में दैवीय वृत्तियों का वास हो जाता है।

इंसान कितना भी अमीर हो जाए, वह तकलीफ़ बेच नहीं सकता और सुक़ून खरीद नहीं सकता। इसलिए संसार में सबसे खुश वे लोग रहते हैं, जो यह जान चुके हैं कि दूसरों से किसी भी तरह की उम्मीद रखना व्यर्थ है, बेमानी है। यह मानव को अंधकूप में ले जाकर पटक देती है। यह निराशा की कारक है। सो! मानव को अपनी ग़लती मानने में संकोच नहीं होना चाहिए, क्योंकि सामने वाला सदैव ग़लत नहीं होता। जो लोग स्वयं को सदैव ठीक स्वीकारते हैं; उन्नति के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकते, क्योंकि वे अहंवादी हो जाते हैं और अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। सो! मानव में यदि अहं का भाव घर कर जाता है कि ‘अहंकार किस बात का करूँ मैं/ जो आज तक हुआ है/ सब उसकी मर्ज़ी से हुआ है।’

ज़रूरत से ज़्यादा सोचना भी इंसान की खुशियाँ छीन लेता है और समय बीत जाने के बाद यदि उसकी कद्र की जाए, तो वह कद्र नहीं, अफ़सोस कहलाता है। कबीरदास जी ने भी ‘अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत’ के माध्यम से मानव को सचेत रहने का संदेश दिया है। कोई भी आदत इतनी बड़ी नहीं होती, जिसे आप छोड़ नहीं सकते। बस अंदर से एक मज़बूत फैसले की ज़रूरत होती है। इसलिए मन पर नियंत्रण रखें, क्योंकि दुनिया की कोई ताकत आपको झुका नहीं सकती। ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत’–जी हाँ! इंसान स्वयं अपने मन का स्वामी है। जब तक मानव अपनी सुरसा की भांति बढ़ती आकांक्षाओं पर अंकुश नहीं लगा पाता; वह अधर में लटका रहता है तथा कभी भी अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए इंसान को अपनी नज़रें आकाश की ओर तथा कदम धरती पर टिके रहने चाहिए। यही जीवन की पूंजी है; इसे संजोकर रखें ताकि जीवन में सब्र व सुक़ून क़ायम रह सके और हम दूसरों के जीवन को आलोकित व ऊर्जस्वित कर सकें।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

23 फरवरी 2024**

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments