श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  रचित – “मेरी आत्मकथा -पहचानो मैं कौन हूं ?)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 157 ☆

 ☆ मेरी आत्मकथा -पहचानो मैं कौन हूं ? ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

 मैं अपने बारे में सब कुछ बताऊंगा। तब आप को मेरे बारे में बताना है । क्या, आप मेरे आत्मकथा सुनना चाहते हो ? हां, तो लो सुनो। मैं अपनी आत्मकथा सुनाता हूं।

मेरे बिना दुनिया का काम नहीं चलता है । आप भी मेरे बिना नहीं रह सकते हो। यह सुन कर आप को मेरे बारे में कुछ पता नहीं चला होगा ?

चलो ! मैं अपने बारे में और कुछ बताता हूं। मुझे सब से पहले हान राजवंश के समय खोजा गया था । मेरे खोजकर्ता का नाम काईलुन था। यह 202 ई की बात है । उस से पहले मेरे अन्य रूप का उपयोग किया जाता था। उस समय तक मुझे बांस या रेशम के कपड़े के टुकड़े के रूप में उपयोग में  लिया जाता था।

अब आपको कुछ पता चला ? नहीं । कोई बात नहीं। मैं कुछ ओर बताता हूं । इस रुप के बाद में मुझे भांग, शहतूत, पेड़ की छाल तथा अन्य रेशों की सहायता से बनाया जाने लगा। उस वक्त मैं मोटा और खुरदरा था । मुझे कई तरकीब से चिकना किया जाता था ।

मेरा आविष्कार जिस व्यक्ति ने किया था उस कोईलुन को कागज का संत कहते थे।

मैं 610 में चीन से चला था। यहां से जापान पहुंचा। मैं वही नहीं रुका। मैं ने अपनी यात्रा जारी रखी। यहां से होता हुआ 751 में समरकंद पहुंच गया। यहां मुझे बहुत प्यार और मोहब्बत मिली।

इसलिए मैंने अपनी यात्रा जारी रखी है। वहीं से 793 में बगदाद पहुंचा। यहां मेरा बहुत उपयोग किया गया। यहां से मैं 1150 में स्पेन पहुंचा। जहां सबसे पहले व्यापारिक तौर पर  मेरा निर्माण शुरू हुआ।

लोग मुझे बहुत प्यार करते थे । मेरी वजह से ही उन को बहुत सी बातें याद रहती थी।  इसलिए वे मुझे अपनी यात्रा में अपने साथ ले जाते रहे । मेरी यात्रा यहीं नहीं रुकी। यहां से इटली, फ्रांस, जर्मनी, इंग्लैंड, पोलैंड होते हुए आस्ट्रिया, रूस, डेनमार्क, नार्वे पहुंचा। इस तरह मैं धीरे-धीरे मैं पूरे विश्व में फैल गया।

पहले पहल में बहुत मोटा बनाया जाता था। धीरे-धीरे मुझ में बहुत सुधार हुआ। आजकल बहुत ही पतला बनाया जाने लगा हूं। इतना पतला कि आप मेरा अंदाज नहीं लगा सकते।

आपको पता होगा कि मिस्र में नील नदी बहती है। उसी के किनारे पेपरिस नामक घास बहुतायात में पैदा होती है। इस  घास के डंठल के बाहरी आवरण रेशेदार होते हैं । इसी रेशेदार आवरण से मुझे बनाया जाने लगा।

इस के लिए वे एक विधि का उपयोग करते थे। घास के रेशे को आड़ातिरछा जमा लिया जाता था। फिर भारी चीज से दबा दिया जाता था। तब उसे सुखा लिया जाता था। सूखने पर ही मेरा उपयोग किया जाता था। इसे पेपरिस कहते थे । जो आगे चल कर पेपर कहलाया।

इस के पूर्व, अलग रूप में मेरा उपयोग होता था । रूस तथा यूनान में लकड़ी की पतले पटिए का उपयोग किया जाता था। वहीं चीन में 250  ई.पू. कपड़े के रुप में  मेरा उपयोग होता था। उस पर  ऊंट के बालों से बने ब्रश से मुझ पर लिखा जाता था।

भारत में ताड़ नामक वृक्ष पाया जाता है। इस वृक्ष के पत्ते को ताड़पत्र कहते हैं । यहां ताड़पत्र के रूप में मेरे उपयोग किया जाने लगा। भोजपत्र नामक वृक्ष एक पतली परत छोड़ता है । इसी पतली पर्त पर मेरा उपयोग किया जाता था।

प्राचीन रोम में जिस वृक्ष की छाल का लिखने के लिए उपयोग करते थे उसे लिबर कहते थे। जहां इस पत्र को रखते थे उसे लिब्रेरी कहा जाता था। यही शब्द आगे चल कर लैटिन में लाइब्रेरी बना।

यूनान में 4000 वर्ष पूर्व भेड़बकरी की खाल का उपयोग किया जाता था। इसी पर लिखा जाता था। इस पर पार्चमेंट से लिखते थे। यह लिखी हुई खाल बहुत ज्यादा सुरक्षित मानी जाती थी।

अब तो आप समझ गए होंगे कि मुझे क्या कहते हैं ? नहीं समझे  ? तो मैं बताता हूं। मुझे हिन्दी में कागज या पन्ना और अंग्रेजी में पेपर कहा जाता है । यही मेरी कहानी है।

आशा है आप को मेरी कहानी यानी आत्मकथा बहुत पसंद आई होगी।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

09-02-2021

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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