डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील, हृदयस्पर्शी एवं विचारणीय लघुकथा ‘मान जाओ ना माँ !’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा  रचने   के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 108 ☆

☆ लघुकथा – मान जाओ ना माँ !  ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

मम्माँ किसी से मिलवाना है तुम्हें।

अच्छा, तो घर बुला ले उसे, पर कौन है? 

मेरा एक बहुत अच्छा दोस्त है।

मुझसे भी अच्छा? सरोज ने हँसते हुए पूछा।

इस दुनिया में सबसे पहले तुम ही तो मेरी दोस्त  बनी। तुम्हारे जैसा तो कोई हो ही नहीं सकता मम्माँ, यह कहते हुए विनी माँ के गले लिपट गई।

अरे ! दोस्त है  तो फिर पूछने की क्या बात है इसमें, आज शाम को ही बुला ले।  हम  सब  साथ में ही चाय पियेंगे।

सरोज ने शाम को चाय – नाश्ता  तैयार कर लिया था और बड़ी बेसब्री से विनी और उसके दोस्त का इंतजार कर रही थी। हजारों प्रश्न मन में उमड़ रहे थे। पता नहीं किससे मिलवाना चाहती है? इससे पहले तो कभी ऐसे नहीं बोली। लगता है इसे कोई पसंद आ गया है। खैर, ख्याली पुलाव बनाने से क्या फायदा, थोड़ी देर में सब सामने आ ही जाएगा, उसने खुद को समझाया। 

तभी दरवाजे की आहट सुनाई दी। सामने देखा विनी किसी अधेड़ उम्र के व्यक्ति के साथ चली आ रही थी।

मम्माँ ! आप  हमारे कॉलेज में अंग्रेजी के प्रोफेसर  हैं – विनी ने कहा।

नमस्कार, बैठिए – सरोज ने विनम्रता से हाथ जोड़ दिए। विनी बड़े उत्साह से प्रोफेसर  साहब  को अपनी पुरानी फोटो  दिखा रही थी। काफी देर तक तीनों बैठे बातें  करते रहे। आप लोगों के साथ बात करते हुए समय का पता ही नहीं चला, प्रोफेसर  साहब ने घड़ी देखते हुए कहा – अब मुझे चलना चाहिए।

सर ! फिर आइएगा विनी बोली।

हाँ जरूर आऊँगा,  कहकर वह चले गए।

सरोज के मन में उथल -पुथल मची हुई  थी। उनके जाते ही विनी से बोली – तूने प्रोफेसर  साहब की उम्र देखी है? अपना दोस्त कह रही है उन्हें? कहीं कोई गलती न कर बैठना विनी – सरोज ने चिंतित स्वर में कहा।

विनी मुस्कुराते हुए बोली – पहले बताओ तुम्हें कैसे लगे प्रोफेसर  साहब? 

बातों से तो भले आदमी लग रहे थे पर – 

तुम्हारे लिए रिश्ता लेकर आई हूँ प्रोफेसर साहब का, बहुत अच्छे इंसान हैं। मैंने उनसे बात कर ली है। सारा  जीवन तुमने मेरी देखरेख में गुजार दिया। अब अपनी दोस्त को  इस घर में अकेला छोड़कर मैं  तो शादी नहीं  कर सकती।  मान जाओ ना माँ !

©डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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Dr. Rajeshwar bundele

बहुत बढ़िया रचना…
जीवन के यथार्थ का स्वीकार करने के लिए प्रोत्साहित करने वाली कथा

हरीश कुमार 'अमित'

मन को छू लेनेवाली एक बेहतरीन लघुकथा। : हरीश कुमार ‘अमित’

Sushil Kanti

छोटी सी मगर बेहद प्यारी सी कहानी