डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘गुल्लू भाई का रिटायरमेंट’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 110 ☆

☆ व्यंग्य – गुल्लू भाई का रिटायरमेंट

गुल्लू भाई पैंतीस साल की आरामतलबी और कामचोरी के बाद दफ्तर से बाइज्ज़त रिटायर हो गये।विदाई की पार्टी में उनके साथियों ने उन्हें बेहद ईमानदार और कर्तव्यपरायण घोषित किया। पार्टी के बाद वे गुल्लू भाई को घर तक छोड़ कर आखिरी सलाम कर गये और उन्हें आगे के लिए ‘भाभी जी’ के हवाले कर गये।

रिटायरमेंट के पहले गुल्लू भाई अपने साथियों से कहा करते थे, ‘बहुत नौकरी कर ली।अब घर में आराम से रहेंगे और भगवान का भजन करेंगे।’ सो अब वे घर में होलटाइमर बनकर पधार गये। वैसे उन्होंने नौकरी की अवधि में वास्तव में कितनी नौकरी की थी यह वे ही बेहतर जानते थे।

कहते हैं गुल्लू भाई की सफल नौकरी का राज़ उनके एक कोट में छिपा है। गुल्लू भाई अपनी कुर्सी की पीठ पर एक पुराना कोट स्थायी रूप से टाँगे रहते थे। जब भी कोई अफसर उधर आकर पूछता, ‘ये कहाँ हैं?’ तो उनके वफादार साथी जवाब देते, ‘यहीं बगल के कमरे में गये हैं। वह देखिए, कोट टँगा है।’ इस तरह उस चमत्कारी कोट और साथियों की वफादारी के बूते गुल्लू भाई ने हँसते खेलते नौकरी की वैतरणी पार कर ली। रिटायर होते वक्त उन्होंने वह कोट अपने एक साथी को दान कर दिया ताकि वह उसके जीवन को भी सुख-समृद्धि से परिपूर्ण करे और आपदाओं से बचाए।

रिटायरमेंट के बाद गुल्लू भाई का नित्य का कार्यक्रम बदल गया था। पहले वे सात बजे उठते थे और नहा-धो कर दफ्तर की तैयारी में लग जाते थे। अब वे छः बजे उठकर घूमने निकल जाते थे और सात बजे वापस आकर फिर बिस्तर पर लंबे हो जाते थे। फिर नौ बजे तक उनकी नाक का ऑर्केस्ट्रा बजता रहता था।

उनकी पत्नी सात बजे उठ जाती थी। वे उनका नासिका-राग सुनकर कुढ़ कर कहतीं, ‘यह क्या नौ बजे तक अजगर की तरह पड़े रहते हो। जब सबेरे उठ ही जाते हो तो नहा धो कर भगवान का भजन-पूजन करना चाहिए। रिटायरमेंट क्या दिन भर खटिया तोड़ने के लिए होता है? घर में झाड़ू-पोंछा करना मुश्किल हो जाता है।’

गुल्लू भाई अपराध भाव से कहते, ‘अरे भाई, रिटायरमेंट के बाद टाइम काटने का नया कार्यक्रम बनाना पड़ता है, वर्ना टाइम कैसे कटेगा?’

पत्नी जवाब देती, ‘टाइम काटने का मतलब यह थोड़इ है कि सारे टाइम लंबे पड़े रहो। बैठकर और खड़े होकर भी टाइम काटा जा सकता है।’

रिटायरमेंट के बाद शाम को गुल्लू भाई के घर पर उन्हीं जैसे ठलुआ दोस्तों का जमावड़ा होने लगा। ताश की बाज़ी जमने लगी। पहले यह बाज़ी दफ्तर में जमती थी। बीच में दो तीन बार चाय की फरमाइश होती। एक डेढ़ महीने तक यह स्वागत-सत्कार चला, फिर घर में भृकुटियाँ तनने लगीं। दोस्तों के चले जाने पर गुल्लू भाई को सुनने को मिलता,  ‘रिटायरमेंट के बाद हमारा घर ठलुओं का अड्डा बन गया है। अपना यह रोज का कार्यक्रम बदल बदल कर रखा करो। दूसरों की बीवियों को भी सेवा-सत्कार का मौका दिया करो। अब चाय एक बार ही मिलेगी। और पीना हो तो महफिल खतम होने के बाद दोस्तों के साथ चौराहे पर पी लिया करो।’

रिटायरमेंट के बाद गुल्लू भाई शाम को सब्ज़ी खरीदने टहलते हुए चौराहे चले जाते। उन्हें भ्रम था कि उन्हें सब्ज़ियों के गुण और उनके भाव की अच्छी समझ है। लेकिन लौटने पर उन्हें सुनने को मिलता, ‘यह कड़ी भिंडी और सड़ी तोरई कहाँ से उठा लाये? घर में सब्ज़ीवाली आती है, उससे खरीद लेंगे। आपको तकलीफ करने की ज़रूरत नहीं है।’

चूँकि अब गुल्लू भाई किसी स्थायी मुसीबत की तरह दिन भर घर में ही हाज़िर रहते हैं, इसलिए उन्होंने घर की हर गड़बड़ी को दुरुस्त करने का बीड़ा उठा लिया है। वे प्रेत की तरह दिन भर घर में इधर उधर मंडराते रहते हैं और जहाँ भी लाइट या पंखा फालतू चालू दिख जाता है वहाँ स्विच ऑफ करने के बाद दोषी से जवाब तलब करने बैठ जाते हैं। ऐसे ही दिन भर में घर में घूम कर वे स्विचों के साथ खटर-पटर करते रहते हैं।

गुल्लू भाई अब सूँघते हुए किचिन में भी पहुँच जाते हैं। रोटियों के डिब्बे में झाँक कर झल्लाते हैं, ‘ये इतनी रोटियाँ क्यों बना लेती हो? रोज इतनी बासी रोटियाँ वेस्ट होती हैं। हिसाब से बनाया करो।’

पत्नी भी चिढ़ कर जवाब देती हैं, ‘आप घर के सब सदस्यों की रोटी की माँग इकट्ठी करके मुझे रोज बता दिया करो। उससे ज्यादा रोटियाँ नहीं बनायी जाएँगीं। फिर कम पड़ें तो मेरा दिमाग मत खाना।’

गुल्लू भाई मौन धारण करके खिसक जाते हैं।

अब वे घर में अनुशासन- अधिकारी भी बन गये हैं। लड़के-लड़कियाँ देर से घर लौटें तो वे कमर पर हाथ रखकर, नाराज़, टहलने लगते हैं। लड़कियों पर ख़ास नज़र रहती है। मोबाइल पर बार बार पूछते हैं कि कहाँ हैं और कितनी देर में लौटेंगीं। मोबाइल पर ही चिल्लाना शुरू कर देते हैं।

नतीजा यह कि एक दिन बेटे बेटियों ने बैठकर उन्हें समझा दिया, ‘पापाजी, आप तो जिन्दगी भर दफ्तर में बैठे रहे और दफ्तर के बाहर दुनिया बहुत आगे बढ़ गयी। आप नयी हवा को समझो। हम अपना भला-बुरा समझते हैं। आपको फालतू परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। और हाँ, हमारे दोस्तों के सामने हम पर चिल्लाया मत करिए। हमारी भी कुछ इज्ज़त है।’ उस दिन से गुल्लू भाई काफी शान्त हो गये।

एक दिन सोचते सोचते गुल्लू भाई पत्नी से बोले, ‘देखो भाई, मेरी तो पूरी जिन्दगी दफ्तर की चारदीवारी में कट गयी। घर और बाहर की दुनिया को कुछ समझा ही नहीं। चलो एकाध महीने के लिए तीर्थयात्रा पर हो आते हैं। फिर लौट कर नये हालात के साथ ‘एडजस्ट’ करेंगे।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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