श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 20 ☆

☆ कविता ☆ “एक दिन…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

ये ना समझो

कि हम भूल गए

ये समझो कि

बस लम्हें ही निकल गए

 

भला पानी को कभी प्यास

भूल सकती है क्या?

या दिन से कभी रात

जुदा हो सकती है क्या?

 

बस दायरे बढ़ गए हैं 

दरारें नहीं

बस वर्तमान सिमट गया है

भूत और भविष्य नहीं

 

शीशे की ये दीवारें

दुनिया ने खड़ी जो की हैं 

इस तरफ भी और उस तरफ भी

इससे बस धूप ही आती है

 

मगर एक दिन

शीशे ये टूटेंगे दिल नहीं

फिर बस प्यार ही खिलेगा

इन लफ्जों की जरूरत नहीं

 

वो दिन आएगा

हम वो लाएंगे

मरते दम तक दीवारों पे

इन लफ्जों के पत्थर मारेंगे

 

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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