श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

 

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्‌।

आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ।।64।।

 

मन जिसका स्वाधीन है,राग द्वेष से दूर

इंद्रिय सुख लेते भी वह आंनद से भरपूर।।64।।

 

भावार्थ :   परंन्तु अपने अधीन किए हुए अन्तःकरण वाला साधक अपने वश में की हुई, राग-द्वेष रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है।।64।।

 

But the self-controlled man, moving amongst objects with the senses under restraint, and free from attraction and repulsion, attains to peace. ।।64।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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