( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख विश्व जनसंख्या दिवस – “जनसंख्या वृद्धि का सबसे अधिक खामियाजा भुगतने वाला देश भारत”. )
☆ किसलय की कलम से # 14 ☆
☆ जनसंख्या वृद्धि का सबसे अधिक खामियाजा भुगतने वाला देश भारत☆
जनसंख्या शब्द याद आते ही विश्व की बढ़ती आबादी का भयावह स्वरूप हम सबके सामने आ जाता है। खासतौर पर चीन और भारत की जनसंख्या वृद्धिदर जानकर। इसके पश्चात जनसंख्या वृद्धि को प्रभावित करने वाले प्रश्नों की अंतहीन श्रृंखला मानस पटल पर उभरने लगती है। ऐसा नहीं है कि पिछले छह-सात दशकों में शिक्षा का प्रतिशत न बढ़ा हो, जन जागरूकता न बढ़ी हो अथवा राष्ट्रस्तरीय जनसंख्या नियंत्रण हेतु प्रयास न किए गए हों। उक्त तीनों तथ्यों के अतिरिक्त हमारी सीमित सोच भी जनसंख्या नियंत्रण अभियान को प्रभावित करती है। हमने कभी सकारात्मकता पूर्वक सोचने का प्रयास ही नहीं किया कि हम जनसंख्या नियंत्रण में स्वयं कितना योगदान कर सकते हैं। हाँ, हमारा मस्तिष्क यह अवश्य सोच लेता है कि हमारी एक संतान के अधिक होने से क्या फर्क पड़ेगा। तब यह बताना आवश्यक है कि विश्व जनसंख्या के यदि एक अरब लोग भी इस सोच पर आगे बढ़ेंगे, तब वर्ष में एक अरब जनसंख्या तो वैसे ही बढ़ जाएगी। अब आप ही बताएँ कि यह सोच विश्वस्तर पर कितनी भारी पड़ेगी और देखा जाए तो भारी पड़ भी रही है। वह दिन दूर नहीं है, जब हमारा देश पहले क्रम पर आकर जनसंख्या वृद्धि का सबसे अधिक खामियाजा भुगतने वाला राष्ट्र बन जाएगा।
अकेली शिक्षा अथवा शासन जनसामान्य को कितना या किस हद तक सचेत करेगा। आज पृथ्वी पर संसाधन हैं। प्रकृति भी साथ दे पा रही है, लेकिन प्रकृति कब तक साथ देगी? धीरे-धीरे हवा, पानी और हरित भूमि भी कम होती जाएगी। जनसंख्या के दबाव से माँगें बढ़ती ही जा रही हैं। माँगों की तुलना में अन्य जरूरतें कम पड़ेंगी ही। बड़े-बड़े कार्यक्रम व सरकारों की सक्रियता से भी आशानुरूप परिणाम सामने नहीं आ पा रहे हैं। हम जनसंख्या नियंत्रण से संबंधित हर वर्ष नई-नई थीम पर केंद्रित ‘विश्व जनसंख्या दिवस’ मनाते चले आ रहे हैं और उन सब पर कार्य भी किये जा रहे हैं, लेकिन संतोषजनक परिणाम न आने के कारण चिंतित होना स्वाभाविक है।
अन्य राष्ट्रीय-पर्व व त्यौहारों के समान ही ‘विश्व जनसंख्या दिवस’ मनाने की परिपाटी बन गई है। 11 जुलाई अर्थात विश्व जनसंख्या दिवस के पूर्व कुछ तैयारियाँ प्रारंभ होती हैं। कुछ घोषणाएँ, कुछ भाषण, कुछ संदेश, कुछ बड़े-बड़े आलेखों और उनकी रिपोर्ट का मीडिया में प्रकाशन-प्रसारण हो जाता है। इस दिवस को मनाने का जैसे बस यही उद्देश्य बचा हो। किसी भी स्तर का कार्यक्रम क्यों न हो, उसका प्रमुख विषय यह कभी नहीं देखा गया कि जनसंख्या विषयक पिछले पूरे वर्ष में कितनी प्रगति हुई है। आज विज्ञप्तियों, विशिष्ट लोगों के संदेशों के अतिरिक्त और होता भी क्या है। आज तक कितने बार आपके दरवाजे पर कोई जनप्रतिनिधि, किसी सामाजिक संस्था के सदस्य अथवा किसी सरकारी अमले ने आकर इस समस्या के निराकरण हेतु आपसे कभी पूछा है या कोई समझाइश दी है? क्या आपने…., जी हाँ आपने कभी इस समस्या पर किसी से गंभीरता पूर्वक चर्चा की । आप किसी एक को भी जनसंख्या नियंत्रण हेतु प्रेरित कर पाए हैं।
जनसंख्या वृद्धि के दुष्परिणामों से आज हम सभी अवगत हैं, मुझे नहीं लगता कि उन बातों का यहाँ उल्लेख अनिवार्य है और न ही यहाँ बहुत बड़ी-बड़ी बातें लिखने का कोई विशेष लाभ है। महत्त्वपूर्ण यह है कि जब तक हम सबसे छोटी इकाई से यह कार्य प्रारंभ नहीं करेंगे। युवा, वयस्क एवं बुजुर्ग सभी इस सर्वहिताय जनसंख्या नियंत्रण अभियान को स्वहिताय नहीं मानेंगे, तब तक जनसंख्या वृद्धि दर के संतोषजनक परिणाम मिलना कठिन ही लगता है।
अंधविश्वास, अशिक्षा, जितने लोग होंगे उतनी अधिक कमाई होगी, जितना बड़ा परिवार उतनी बड़ी दमदारी, हमारे अकेले आगे आने से क्या होगा? ऐसे सभी बार-बार दोहराने वाले जुमलों को परे रखकर हम स्वयं से ही शुरुआत करें और जनसंख्या नियंत्रण में सहभागी बनना सुनिश्चित करें। जमीनी तौर पर यह सभी जानते हैं कि परिवार के सदस्य बढ़ेंगे तो संपत्ति तथा घर के भी अधिक भाग होंगे। चार-छह संतानों के बजाय एक संतान पर अधिक तथा समुचित ध्यान दिया जा सकता है। सीमित संसाधनों के चलते अधिक लोगों को नौकरी नहीं दी जा सकती तब ऐसे में बेरोजगारी तो बढ़ेगी ही। उच्च अर्थव्यवस्था के न होने से सबका खुश रहना और सभी आवश्यकताएँ पूर्ण करना संभव नहीं है। इन सभी बातों का उल्लेख प्राथमिक शालाओं के पाठ्यक्रम से ही प्रारंभ होना चाहिए। मोहल्ला समिति, ग्राम पंचायत, पार्षद, विधायक, सांसद तक प्रत्येक को अपनी दिनचर्या में जनसंख्या नियंत्रण विषय को शामिल करना होगा। अपने कार्यक्रमों, अपने उद्बोधनों एवं शासकीय नीतियों में प्रमुखता से जनसंख्या नियंत्रण की बात कहना होगी। जब तक जनसामान्य एवं सरकार इस विकराल समस्या को प्राथमिकता नहीं देगी, सच मानिए सफलता की आशा करना निरर्थक है।चिंतन-मनन-अध्ययन एवं कार्य भी वृहदरूप में हुए हैं, इसलिए जनसंख्या वृद्धि के दुष्परिणामों का संपूर्ण ब्यौरा देना यहाँ कदापि उचित नहीं है, उचित है तो बस जनसंख्या नियंत्रण हेतु इस अभियान के सुपरिणाम हेतु स्वस्फूर्त रूप से अग्रसर होना और लोगों को अधिक से अधिक प्रेरित करना, ताकि हम यह कह सकें कि हमारे देश में जनसंख्या नियंत्रण अभियान के सुखद परिणाम सामने आने लगे हैं।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं प्रदत्त शब्दों पर “भावना के दोहे”। )
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है “संतोष के दोहे”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी स्त्री विमर्श पर आधारित लघुकथा माँ आज भी गाती है। स्त्री जीवन के कटु सत्य को बेहद संजीदगी से डॉ ऋचा जी ने शब्दों में उतार दिया है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को जीवन के कटु सत्य को दर्शाती लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 43 ☆
☆ लघुकथा – माँ आज भी गाती है☆
माँ बहुत अच्छा गाती है, अपने समय की रेडियो कलाकार भी रही है। | पुरानी फिल्मों के गाने तो उसे बहुत पसंद हैं | भावुक होने के कारण हर गाने को इतना दिल से गाती कि कई बार गाते-गाते गला भर आता और आवाज भर्राने लगती। तब आँसुओं और लाल हुई नाक को धोती के पल्लू से पोंछकर हँसती हुई कहती- अब नहीं गाया जाएगा बेटा ! दिल को छू जाते हैं गाने के कुछ बोल !
‘तुझे सूरज कहूँ या चंदा, तुझे दीप कहूँ या तारा’, ‘ऐ मेरे प्यारे वतन, ए मेरे उजड़े चमन’ जैसे गाने माँ हमेशा गुनगुनाती रहती थी। वह ब्रजप्रदेश की है इसलिए वहाँ के लोकगीत तो बहुत ही मीठे और जोशीले स्वर में गाती है। लंगुरिया, होरी और गाली(गीत) गाते समय उसका चेहरा देखने लायक होता था। माँ गोरी है और सुंदर भी , गाते समय चेहरा लाल हो जाता। लोकगीतों के साथ-साथ थोड़ी हँसी-ठिठोली तो ब्रजप्रदेश की पहचान है, वह भला उसे कैसे छोड़ती? जैसा लोकगीत हो, वैसे भाव उसके चेहरे पर दिखाई देने लगते।
हम अपने समधी को गारी न दैबे,
हमरे समधी का मुखड़ा छोटा,
मिर्जापुर का जैसा लोटा….
लोटा कहते-कहते तो माँ हँस- हँसकर लोटपोट हो जाती। ढ़ोलक की थाप इस गारी (गीत) में और रस भर देती थी।
उम्र के साथ माँ धीरे-धीरे कमजोर होने लगी है। कुछ कम दिखाई देने लगा है, थोड़ा भूलने लगी है लेकिन अब भी गाने का उतना ही शौक और आवाज में उतनी ही मिठास। हाँ पहले जैसा जोश अब नहीं दिखता। अक्सर माँ फोन पर मुझसे कहती – ‘बेटा ! संगीत मन को बडी तसल्ली देता है। कभी-कभार अपने को बहलाने के लिए भी गाना चाहिए। जीना तो है ही, तो खुश रहकर क्यों ना जिया जाए। इस जिंदादिल माँ की आवाज में उदासी मुझे फोन पर अब महसूस होने लगी थी
वह अपने दोनों बेटों के पास है। बहुएँ भी आ गयी हैं , अपने-अपने स्वभाव की। पिता जब तक जिंदा थे माँ अपना सुख-दुख उनसे बाँट लेती थी। उनकी मृत्यु के बाद वह बिल्कुल अकेली पड़ गयी। ‘नाम करेगा रौशन जग में मेरा राज-दुलारा’ गा-गाकर जिन बेटों को पाल-पोसकर बड़ा किया, उनकी बुराई करे भी तो कैसे ? पर वह यह समझने लगी कि अब बेटों को उसकी जरूरत नहीं रही।
माँ उदास होती है तो छत पर बैठकर पुराने गाने गाती है। एक दिन माँ छत पर अकेली बैठी बड़ी तन्मयता से गा रही थी- ‘भगवान ! दो घड़ी जरा इन्सान बन के देख, धरती पर चार दिन मेरा मेहमान बन के देख तुझको नहीं पता कोई कितना……..’
‘निराश शब्द आँसुओं में डूब गया। गीत के बोल टूटकर बिखर रहे थे या माँ का दिल, पता नहीं।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक हाइबन “अफीम ”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन # 62 ☆
☆ अफीम ☆
अफीम को काला सोना भी कहते हैं । भारत में राजस्थान और मध्यप्रदेश के सीमावर्ती जिले चित्तौड़गढ़ व नीमच में इसकी भरपूर पैदावार होती है। समस्त प्रकार की दवाएं इसी से बनती है । इसे ड्रग का मूल स्रोत भी कह सकते हैं । इस के फल पर चीरा लगाकर इसे निकाला जाता है। जिसे अफीम लूना कहते हैं । इस फल से पोस्तादाना मिलता हैं । फल का खोल नशे में उपयोग लिया जाता हैं ।
एक फल डोड़े में 4 से 5 चीरे लगाए जाते हैं। एक बार के चीरे में 4 से 5 चीरे लगते हैं। दूसरे दिन सुबह इसी अफीम के दूध को एक विशेष प्रकार के चम्मच से एकत्रित किया जाता है।
अफीम के खेत में सामान्य व्यक्ति आधे घंटे से ज्यादा खड़ा नहीं हो सकता है। अफीम के द्रव की सुगंध से उसे चक्कर आने लगते हैं और वह बेहोश होकर गिर जाता है। मगर इस कार्य में संलग्न व्यक्ति आराम से बिना थकावट के कार्य करते रहते हैं।
अधिकांश बड़े स्मगलर इसी की तस्करी करते हैं । यह सरकारी लाइसेंस के तहत ₹1500 से लेकर ₹2500 किलो में खरीद कर संग्रहित की जाती है, जबकि तस्कर इसी मात्रा के एक से डेढ़ लाख रुपए तक देते हैं।
( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “मख्खी नहीं मधुमख्खी बने”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 32 – मख्खी नहीं मधुमख्खी बने ☆
जन्मोत्सव की पार्टी चल रही थी, पर उनकी निगाहें किसी विशेष को ढूंढ रहीं थीं, कि तभी वहाँ एक पत्रिका के संपादक आये और उनके चरण स्पर्श कर कहने लगे – चाचा जी जन्मदिवस की शुभकामनाएँ …..
“ओजरी भर विभा, वर्ष भर हर्ष मन,
शांति,सुख, कल्पना,आस्था, आचमन।
जन्मदिन की पुनः असीम शुभकामनाएँ…
उन्होंने कहा, “अब अच्छा लगा, कितनी भी खुशी मिले, उपहार मिलें सब अधूरे लगते हैं, जब तक बच्चों द्वारा खुशी न मिले।
बहुत बढ़िया पंक्तियाँ…… चाचा जी ने सिर पर हाथ रखते हुए शुभाशीष दिया।
इसी पार्टी में प्रमोशन सबंधी विवाद की चर्चा भी चल रही थी। जहाँ दो गुट आपस में भिड़े हुए थे।
चर्चा को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा, जिस तरह माह में दो पक्ष होते हैं, सिक्के में दो पहलू होते हैं, विचारों में दो विचार होते हैं,मतों में दो मत होते हैं, ठीक वैसे ही जब कोई शुभ आयोजन अच्छे से निपटता हुआ दिखे तो अवश्य ही कहीं न कहीं से अशुभ रूपी विघ्न आ धमकता है। पर हम तो ठहरे मोटिवेशनल लेखक सो ये तय है कि बस सकारात्मक पहलू ही देखना है, चाहे स्थिति कुछ भी हो।
तभी उनके संपादक भतीजे ने चुटकी लेते हुए कहा –
यहाँ एक बात और याद आती है कि अक्सर विवाद के बाद ही फ़िल्म रिकार्ड तोड़ कमाई करती है, अब ये उत्सव भी करेगा, बस सही योजना बने, जिससे नियमित कार्य शुरू हो और इस जन्मोत्सव के प्रायोजक का खर्चा – पानी भी निकल सके।
प्रायोजक महोदय ने गहरी साँस भरते हुए, गंभीर स्वर में कहा ” समयाभाव के कारण जितना कार्य किया है, वही रूप रेखा बना दी है, अब आप लोग सुझाएँ। आप तो गुरुदेव हैं, सबसे ज्यादा समझदार होना चाहिए आपको।”
उनका एक सहयोगी कहने लगा “चरणों तक पहुँच गया हूँ, माफी माँगने,अब क्या करूँ ?”
एक सदस्य रोनी सी सूरत लिए कहने लगा ” बेटा बन जाइये, बेटे की हर ग़लती माफ़ रहती है।”
पागलपन की हद हो गई मक्खी नहीं मधुमक्खी बनिए,अभी भी समय है सुधर जाएँ संपादक महोदय ने कहा।
तभी उन्होंने ने ज्ञान बाँट दिया समस्याओं से लड़ना चाहिए, शिखर पर पहुँचने में बहुत ठोकरें लगेंगी पर हार नहीं मानना चाहिए, संपादक को तो बिल्कुल नहीं पत्रिका सही थी, है और रहेगी। शुरुआत में तो सबको आलोचना सहनी पड़ती है बाद में प्रतिष्ठित होते ही जो लिखो वही सत्य बन जाता है, बस उस मुकाम तक पहुँचने की देर होती है।
वहाँ उपस्थित एक अधिकारी ने कहा “प्रभु आप तो साक्षात परमहंस की श्रेणी में आ गये, आप अवतारी हैं, कोई साधारण मानव नहीं ,अब कोई दुविधा नहीं जैसा चाहें वैसा निर्णय लें मैं तो सदैव अनुगामी हूँ।
चलो भाई इस निरर्थक वार्तालाप को विराम दें अब लंच का समय हो गया है, जन्मोत्सव का आनन्द उठाते हुए जम के रसगुल्ले और केक खाते हैं, पनीर टिक्का का नाम सुनते ही पानी आ जाता है, सभी हहहहहहह……. करते हुए खाने की टेबल की ओर चल दिए।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक विचारणीय आलेख साहित्य की चोरी और पुरस्कार की भूख। आलेख का शीर्षक ही साहित्यिक समाज में एक अक्षम्य अपराध / रोग को उजागर करता है। ऐसे विषय पर बेबाक रे रखने के लिए श्री विवेक रंजन जी का हार्दिक आभार। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 70 ☆
☆ साहित्य की चोरी और पुरस्कार की भूख ☆
जो सो रहा हो उसे जगाया जा सकता है, पर जो सोने का नाटक कर रहा हो उसे नहीं ।
अनेक लोगो को मैंने देखा सुना है जो बहुचर्चित रचनाओं विशेष रूप से कविता, शेर, गजलों को बेधड़क बिना मूल रचनाकार का उल्लेख किये उद्धृत करते हैं, कई दफा ऐसे जैसे वह उनकी रचना हो।
विलोम में कुछ लोग अपने कथन का प्रभाव जमाने के लिए सुप्रसिद्ध रचनाकार के नाम से उसे पोस्ट करते हैं। व्हाट्सएप, कम्प्यूटर ने यह बीमारी बधाई है, क्योंकि कट, कॉपी, पेस्ट और फारवर्ड की सुविधाएं हैं।
अनेक शातिराना लोगों को जो स्वयं अपने, अपनी पत्नी बच्चों के नाम से धड़ाधड़ लिखते दिखाई देते हैं उनके पास मौलिक चिंतन का वैचारिक अभाव होता है। वे आगामी जयन्ती, पुण्यतिथि के कैलेंडर के अनुसार 4 दिनों पहले ही चुराये गये उधार के विचारों को,शब्द योजना बदलकर सम्प्रेषित करते हैं। अखबार को भी सामयिक सामग्री चाहिए ही, सो वे छप भी जाते हैं, मांग कर, जुगाड़ से पुरस्कार भी पा ही जाते हैं, ऐसे लोगो को सुधारना मुश्किल है। कई दफा जल्दबाजी में ये सीधी चोरी कर लेते हैं व पकड़े जाते हैं। यह साहित्य के लिए दुखद है।
साफ सुथरा पुरस्कार सम्मान रचनाकार को आंतरिक ऊर्जा देता है। यह उसे साहित्य जगत में स्वीकार्यता देता है।
किंतु आदर्श स्थिति में ध्येय पुरस्कार नही लेखन होना चाहिए, पर आज समाज मे हर तरफ नैतिक पतन है, साहित्य में भी यह स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है। ऐसे लोगो को सुधारना मुश्किल काम है।
यू मैं तो यह मानता हूं कि ऐसी हरकतें सोशल मिडीया के इस समय मे छिपती नही है, और जब सब उजागर होता है तब सम्मानित व्यक्ति के प्रति श्रद्धा की जगह दया हास्य व वितृष्णा का भाव पनपने में देर नही लगती, अतः सही रस्ता ही पकड़ने की जरूरत है, सम्मान पाठकों के दिल मे लेखन की गुणवत्ता से ही बनता है।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को उनके “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं एक नवगीत “भीगिए, गाइए आज गाना”.)
(अग्रज एवं वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं। आप प्रत्येक बुधवार को श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ “तन्मय साहित्य ” में प्रस्तुत है आपकी एक और कालजयी रचना हम जड़ें हैं…..…..….। )