(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक सकारात्मक कविता ‘दरअसल ’)
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है महामारी कोरोना से ग्रसित होने के पश्चात मनोभावों पर आधारित एक अविस्मरणीय भावप्रवण कविता “# हे राही ! तू क्यों है उदास #”।)
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘ टैक्नॉलॉजी के पीड़ित‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 98 ☆
☆ व्यंग्य – टैक्नॉलॉजी के पीड़ित ☆
अफसर, कर्मचारी, चपरासी सब भारी दुखी हैं। यह तो बड़ी धोखाधड़ी हो गयी,हिटिंग बिलो द बैल्ट। आये, मुस्करा मुस्करा कर नोट दिये, और बिना जाने फोटू उतारकर चले गये, जैसे कोई चतुर चोर आँख से अंजन या दाँत से मंजन चुरा ले जाए। अब दो दिन बाद टीवी पर नोट समेटने के फोटू उतर रहे हैं, जैसे कपड़े उतर रहे हों। हद हो गयी भई, ऐसे ही चला तो आदमी का आदमी पर से भरोसा उठ जाएगा। ऐसे शत्रु-समय में रिश्वत लेने का जोखिम कौन उठाएगा, और रिश्वत बन्द हो गयी तो काम का क्या होगा? बिना ‘इन्सेन्टिव’ के कौन काम करेगा? सब के बाल-बच्चे हैं।
पूरे दफ्तर में अफरातफरी और हड़कम्प है। जिनके फोटू नहीं उतरे वे दौड़कर नुक्कड़ के मन्दिर में नारियल चढ़ा आये हैं। अच्छा हुआ कि उस दिन पत्नी की टाँग टूटने के कारण छुट्टी पर थे वर्ना—-। वाइफ के फ्रैक्चर्ड फुट की जय। भगवान ने बचा लिया। जय जय जय हनुमान गुसाईं।
एक अफसर टीवी पर भोलेपन से कहते हैं, ‘हमने तो उधार दिये थे, वही वापस लिये थे।’
चैनल का प्रतिनिधि पूछता है, ‘किस से वापस लिये थे?’
जवाब मिलता है, ‘अब यह तो चेहरा देख कर ही बता सकते हैं। आप चेहरा दिखा दीजिए तो हम बता देंगे।’
प्रतिनिधि पूछता है, ‘आप क्या दफ्तर में उधार लेने-देने का काम करते हैं?’
बड़ा मासूम सा जवाब मिलता है, ‘नईं जी। कभी कभी देना पड़ता है। किसी पहचान वाले को डिपार्टमेंट में जमा करने के लिए पैसे कम पड़ जाएँ तो वह किससे माँगेगा? यह तो इंसानियत का तकाज़ा है। आख़िर हम भी इंसान हैं जी।’
पूरे डिपार्टमेंट में भुनभुन मची है। जहाँ देखो गोल बनाकर लोग फुसफुसा रहे हैं, जो फँसे हैं वे भी, और जो नहीं फँसे हैं वे भी। भई हद हो गयी। पानी सर के ऊपर चढ़ गया। यानी कि प्राइवेसी नाम की चीज़ रह ही नहीं गयी। कल के दिन पता चलेगा कि हमारे बाथरूम और बेडरूम के भीतर के फोटू भी उतर गये। दिस इज़ टू मच। मीडिया मस्ट बी केप्ट विदिन लिमिट्स।
अफसरों और कर्मचारियों की जो बीवियाँ रोज़ की ऊपरी कमाई से साड़ियाँ और ज़ेवर खरीदती रही हैं, वे भारी कुपित हैं।’झाड़ू मारो ऐसे मीडिया को। मेरे घर आयें तो बताऊँ। सारा फोटू उतारना भूल जाएंगे। दूसरे का सुख नहीं देखा जावै ना!बड़े दूध के धुले बने फिरते हैं।’
एक छोटे अफसर आला अफसर के सामने रुँधे गले से कह आये हैं—-‘सर, ऐसइ होगा तो हम तो अपने बाल-बच्चों को आपके चरनों में पटक जाएंगे। ऐसी हालत में कोरी तनखाह में घर का खरचा कैसे चलाएंगे?’
बड़े साहब ने पूरे डिपार्टमेंट की मीटिंग बुलायी है। जो जो फँसे हैं वे सिर झुकाये बैठे हैं। जो नहीं फँस पाये वे गर्व से सब तरफ गर्दन घुमा रहे हैं। साहब थोड़ी देर तक ज़मीन का मुलाहिज़ा करने के बाद चिन्तित मुद्रा में सिर उठाते हैं, कहते हैं, ‘यह दिन डिपार्टमेंट के लिए शर्म का दिन है। आप लोगों ने हमारी नाक कटा दी।’
आरोपी नज़र उठाकर साहब के चेहरे की तरफ देखते हैं। नाक तो बिलकुल साबित है। साहब कहते हैं, ‘मुझे इस बात का ज़्यादा अफसोस नहीं है कि आप लोगों ने गलत काम किया। ज़्यादा अफसोस इस बात का है कि आप गलत काम करते पकड़े गये और आपने फोटो भी खिंचने दिया। अब पूरे मुल्क में हमारी थू थू हो रही है।’
कुछ देर सन्नाटा। झुके हुए सिर और झुक गये हैं। जो छोटे साहब अपने बाल-बच्चों को बड़े साहब के चरनों में पटकने की कह आये थे वे धीरे धीरे उठ कर खड़े हो जाते हैं। कहते हैं, ‘सर, हम इस बात को लेकर बहुत लज्जित हैं कि हम पैसा लेते फोटू में आ गये। लेकिन मेरा निवेदन यह है कि इस के लिए आज की टैकनालॉजी जिम्मेदार है। आज टैकनालॉजी इतनी बढ़ गयी है कि आदमी को पता ही नहीं चलता और उसकी फोटू उतर जाती है। इसलिए जो कुछ हुआ उसमें कसूर हमारा नहीं, टैकनालॉजी का है। हम करप्ट नहीं हैं, नयी टैकनालॉजी के सताये हुए हैं।’
सब फँसे हुए लोग यह तर्क सुनकर प्रसन्न हो जाते हैं। क्या बात कही पट्ठे ने! अपराध- बोध और शर्म तत्काल आधी हो जाती है।
साहब सहमति में सिर हिलाते हैं, कहते हैं, ‘यू आर राइट। द होल प्राब्लम इज़ कि आज टैक्नॉलॉजी बहुत तेजी से बढ़ रही है और हम उसके साथ कदम मिलाकर नहीं चल पा रहे हैं। इसीलिए सारी गड़बड़ियाँ पैदा होती हैं। हमें आज की तब्दीलियों के हिसाब से अपने को एडजस्ट करना चाहिए। इसी को मैनेजमेंट की ज़बान में मैनेजमेंट ऑफ चेंज कहते हैं। लेकिन आपकी गलती यह है कि यू वर नॉट एनफ केयरफुल। आप सावधान होते तो यह घटना न घटती और डिपार्टमेंट को जिल्लत न उठानी पड़ती।’
छोटे साहब कहते हैं, ‘हम अपनी गलती मानते हैं और आपको विश्वास दिलाते हैं कि आगे हम इतनी सावधानी से काम करेंगे कि कोई हमारी फोटू न उतार सके। हम टैकनालॉजी की चुनौती को स्वीकार करते हैं। हम भी देखेंगे कि इस लड़ाई में टैकनालॉजी जीतती है या आदमी जीतता है। फिलहाल आपसे निवेदन है कि स्थिति को सुधारने की दिशा में तत्काल यह व्यवस्था कर दी जाए कि फालतू लोग डिपार्टमेंट में प्रवेश न कर सकें। यह बहुत जरूरी है।’
साहब उठते उठते कहते हैं, ‘ठीक है, मैं इन्तज़ाम करता हूँ। अब आप लोग अपने काम में लग जाएं।’
सब अधिकारी-कर्मचारी निश्चिंत और प्रसन्न मन से उठकर अपनी अपनी सीट पर पहुँचते हैं और निष्ठापूर्वक अपने काम में लग जाते हैं।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 96 ☆ पर्यावरण दिवस की दस्तक ☆
लौटती यात्रा पर हूँ। वैसे यह भी भ्रम है, यात्रा लौटती कहाँ है? लौटता है आदमी..और आदमी भी लौट पाता है क्या, ज्यों का त्यों, वैसे का वैसा! खैर सुबह जिस दिशा में यात्रा की थी, अब यू टर्न लेकर वहाँ से घर की ओर चल पड़ा हूँ। देख रहा हूँ रेल की पटरियों और महामार्ग के समानांतर खड़े खेत, खेतों को पाटकर बनाई गई माटी की सड़कें। इन सड़कों पर मुंबई और पुणे जैसे महानगरों और कतिपय मध्यम नगरों से इंवेस्टमेंट के लिए ‘आउटर’ में जगह तलाशते लोग निजी और किराये के वाहनों में घूम रहे हैं। ‘धरती के एजेंटों’ की चाँदी है। बुलडोजर और जे.सी.बी की घरघराहट के बीच खड़े हैं आतंकित पेड़। रोजाना अपने साथियों का कत्लेआम देखने को अभिशप्त पेड़। सुबह पड़ी हल्की फुहारें भी इनके चेहरे पर किसी प्रकार का कोई स्मित नहीं ला पातीं। सुनते हैं जिन स्थानों पर साँप का मांस खाया जाता है, वहाँ मनुष्य का आभास होते ही साँप भाग खड़ा होता है। पेड़ की विवशता कि भाग नहीं सकता सो खड़ा रहता है, जिन्हें छाँव, फूल-फल, लकड़ियाँ दी, उन्हीं के हाथों कटने के लिए।
मृत्यु की पूर्व सूचना आदमी को जड़ कर देती है। वह कुछ भी करना नहीं चाहता, कर ही नहीं पाता। मनुष्य के विपरीत कटनेवाला पेड़ अंतिम क्षण तक प्राणवायु, छाँव और फल दे रहा होता है। डालियाँ छाँटी या काटी जा रही होती हैं तब भी शेष डालियों पर नवसृजन करने के प्रयास में होता है पेड़।
हमारे पूर्वज पेड़ लगाते थे और धरती में श्रम इन्वेस्ट करते थे। हम पेड़ काटते हैं और धरती को माँ कहने के फरेब के बीच ज़मीन की फरोख्त करते हैं। खरीदार, विक्रेता, मध्यस्थ, धरती को खरीदते-बेचते एजेंट। विकास के नाम पर देश जैसे ‘एजेंट हब’ हो गया है!
मन में विचार उठता है कि मनुष्य का विकास और प्रकृति का विनाश पूरक कैसे हो सकते हैं? प्राणवायु देनेवाले पेड़ों के प्राण हरती ‘शेखचिल्ली वृत्ति’ मनुष्य के बढ़ते बुद्ध्यांक (आई.क्यू) के आँकड़ों को हास्यास्पद सिद्ध कर रही है। धूप से बचाती छाँव का विनाश कर एअरकंडिशन के ज़रिए कार्बन उत्सर्जन को बढ़ावा देकर ओज़ोन लेयर में भी छेद कर चुके आदमी को देखकर विश्व के पागलखाने एक साथ मिलकर अट्टहास कर रहे हैं। ‘विलेज’ को ‘ग्लोबल विलेज’ का सपना बेचनेवाले ‘प्रोटेक्टिव यूरोप’ की आज की तस्वीर और भारत की अस्सी के दशक तक की तस्वीरें लगभग समान हैं। इन तस्वीरों में पेड़ हैं, खेत हैं, हरियाली है, पानी के स्रोत हैं, गाँव हैं। हमारे पास अब सूखे ताल हैं, निरपनिया तलैया हैं, जल के स्रोतों को पाटकर मौत की नींव पर खड़े भवन हैं, गुमशुदा खेत-हरियाली हैं, चारे के अभाव में मरते पशु और चारे को पैसे में बदलकर चरते मनुष्य हैं।
माना जाता है कि मनुष्य, प्रकृति की प्रिय संतान है। माँ की आँख में सदा संतान का प्रतिबिम्ब दिखता है। अभागी माँ अब संतान की पुतलियों में अपनी हत्या के दृश्य पाकर हताश है।
और हाँ, पर्यावरण दिवस के आयोजन भी शुरू हो चुके हैं। हम सब एक सुर में सरकार, नेता, बिल्डर, अधिकारी, निष्क्रिय नागरिकों को कोसेंगे। कागज़ पर लम्बे, चौड़े भाषण लिखे जाएँगे, टाइप होंगे और उसके प्रिंट लिए जाएँगे। प्रिंट कमांड देते समय स्क्रीन पर भले ही शब्द उभरें-‘ सेव इन्वायरमेंट। प्रिंट दिस ऑनली इफ नेसेसरी,’ हम प्रिंट निकालेंगे ही। संभव होगा तो कुछ लोगों, खास तौर पर मीडिया को देने के लिए इसकी अधिक प्रतियाँ निकालेंगे।
कब तक चलेगा हम सबका ये पाखंड? घड़ा लबालब हो चुका है। इससे पहले कि प्रकृति केदारनाथ के ट्रेलर को लार्ज स्केल सिनेमा में बदले, हमें अपने भीतर बसे नेता, बिल्डर, भ्रष्ट अधिकारी तथा निष्क्रिय नागरिक से छुटकारा पाना होगा।
चलिए इस बार पर्यावरण दिवस के आयोजनों पर सेमिनार, चर्चा वगैरह के साथ बेलचा, फावड़ा, कुदाल भी उठाएँ, कुछ पेड़ लगाएँ, कुछ पेड़ बचाएँ। जागरूक हों, जागृति करें। यों निरी लिखत-पढ़त और बौद्धिक जुगाली से भी क्या हासिल होगा?
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 52 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 52) ☆
Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.
Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.
His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.
हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित बुंदेली ग़ज़ल ‘मंजिल की सौं…’। )
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा 5 जून पर्यावरण दिवस पर विशेष कविता “नदी की मनोव्यथा “। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 40 ☆ पर्यावरण दिवस विशेष – नदी की मनोव्यथा☆
जो मीठा पावन जल देकर हमको सुस्वस्थ बनाती है
जिसकी घाटी और जलधारा हम सबके मन को भाती है
तीर्थ क्षेत्र जिसके तट पर हैं जिनकी होती है पूजा
वही नर्मदा माँ दुखिया सी अपनी व्यथा सुनाती है
पूजा तो करते सब मेरी पर उच्छिष्ट बहाते हैं
कचरा पोलीथीन फेंक जाते हैं जो भी आते हैं
मैल मलिनता भरते मुझमें जो भी रोज नहाते हैं
गंदे परनाले नगरों के मुझमें ही डाले जाते हैं
जरा निहारो पड़ी गन्दगी मेरे तट और घाटों में
सैर सपाटे वाले यात्री ! खुश न रहो बस चाटों में
मन के श्रद्धा भाव तुम्हारे प्रकट नहीं व्यवहारों में
समाचार सब छपते रहते आये दिन अखबारों में
ऐसे इस वसुधा को पावन मैं कैसे कर पाउँगी ?
पापनाशिनी शक्ति गवाँकर विष से खुद मर जाउंगी
मेरी जो छबि बसी हुई है जन मानस के भावों में
धूमिल वह होती जाती अब दूर दूर तक गांवों में
प्रिय भारत में जहाँ कहीं भी दिखते साधक सन्यासी
वे मुझमें डुबकी, तर्पण,पूजन,आरति के हैं अभिलाषी
तुम सब मुझको माँ कहते, तो माँ को बेटों सा प्यार करो
((श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है।
ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री सुरेश पटवा जी जी ने अपनी शीघ्र प्रकाश्य कथा संग्रह “प्रेमार्थ “ की कहानियां साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया है। इसके लिए श्री सुरेश पटवा जी का हृदयतल से आभार। प्रत्येक सप्ताह आप प्रेमार्थ पुस्तक की एक कहानी पढ़ सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है – अंग्रेज़ी बाबा से देसी बाबा – बाबा आमटे। )
☆ कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ #5 – अंग्रेज़ी बाबा से देसी बाबा – बाबा आमटे☆ श्री सुरेश पटवा ☆
एक हिंदू ब्राह्मण परिवार में 26 दिसंबर 1914 को हिंगनघाट, वर्धा में देवीदास के घर एक बच्चे का जन्म हुआ। उसका नाम मुरलीधर रखा गया। देवीदास ब्रिटिश सरकार के जिला प्रशासन और राजस्व विभाग में अधिकारी थे। मुरलीधर को अंग्रेज़ी तौर तरीक़ों की तर्ज़ पर बचपन में बाबा करके पुकारा जाता था। वह आठ बच्चों में सबसे बड़ा था। उसका बचपन एक अच्छी हैसियत के ब्रिटिश नौकरशाह के सबसे बड़े बेटे के रूप में शिकार और खेलों की रोमांचक घटनाओं के बीच बीता था। वह चौदह वर्ष की उम्र में बंदूक लेकर भालू और हिरण का शिकार करता था। जब वह गाड़ी चलाने योग्य हुआ तो पिता ने उसे पैंथर की खाल से बनी कुशन की गद्दियों वाली स्पोर्ट्स कार भेंट की थी। यद्यपि वह एक धनी परिवार में पैदा हुआ था, लेकिन हमेशा भारतीय समाज में व्याप्त असमानता के बारे में सोचता रहता था। वह अपने पिता की नाराज़गी के बावजूद नौकरों के बच्चों के साथ नियमित रूप से खेलता था। दीवाली के दिन जब पूरा शहर जगमगा रहा था तब दोस्तों के साथ बाज़ार में मटरगश्ती करते हुए उसका एक अंधे भिखारी से सामना हुआ। उसने मौज में आकर अपनी सिक्कों से भरी जेब को भिखारी के कटोरे में खाली कर दिया। भिखारी को बहुत सारे सिक्कों की खनक से और कटोरे के भार से महसूस हुआ कि उसे मूर्ख बनाया जा रहा है। वह बोला- “मै एक मजबूर भिखारी हूँ। मेरे कटोरे में पत्थर मत डालो, बाबा।”, लड़के ने जवाब दिया “ये चोखे सिक्के हैं, पत्थर नहीं। आप चाहें तो कुछ ख़रीद कर इन्हें परख लें।”
इस घटना ने लड़के के मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव छोड़ा कि इस तरह के दुःखी इंसान उसकी ज़िंदगी के बिलकुल करीब मौजूद हैं, जिनकी जिंदगियों में आशा और विश्वास सिरे से नदारद हो चुके हैं। उसे अपने पिता की विलासिता से भरी दुनिया में ग़रीबों के प्रति मौजूद उपेक्षापूर्ण निर्दयता से चिढ़ होती थी। लोग इतने बेरहम कैसे हो सकते हैं कि आसपास बजबजाती ग़रीबी और भूखमरी से अनजान बने रहकर गुलछर्रे उड़ाते रहते हैं।
मुरलीधर एक डॉक्टर बनने की इच्छा रखता था, लेकिन उसके पिता ने उसे वकील बनने के लिए मजबूर किया। वह चाहते थे कि उनका बेटा बड़ा वकील बनकर परिवार की मिल्कियत को संभाले। लड़के ने धनाढ्य वातावरण के जीवन को बहुत अच्छी तरह से अपना लिया। अपने दिन घुड़सवारी, शिकार, क्लब में ताश के पत्तों और टेनिस खेलने में बिताता था। वह अमीरों का एक समृद्ध जीवन जी रहा था जो मानते हैं कि पैतृक विशेषाधिकार केवल भाग्यशाली को जीने का मौका देते हैं और उनका ग़रीबों के भाग्य के प्रति कोई दायित्व नहीं है। इस विलासिता पूर्ण जीवन के बीच वह बेचैन रहता था। एक दिन उसे लगा जैसे उसे दुनिया में एक बड़ा उद्देश्य पूरा करना है।
मुरलीधर कानून में प्रशिक्षित होकर वर्धा में वकालत शुरू करके एक सफल वकील बन गया। वह महात्मा गांधी और बिनोवा भावे से प्रभावित होकर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गया। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल होने के कारण अंग्रेज सरकर द्वारा कैद में डाला गया। उन्होंने भारतीय नेताओं के लिए एक बचाव वकील के रूप में काम करना शुरू किया। महात्मा गांधी द्वारा शुरू किए गए सेवाग्राम आश्रम में कुछ समय बिताया और गांधीजी के अनुयायी बन गए। उन्होंने चरखे से बनाई खादी पहनकर गांधीजी के विचारों प्रचार किया। जब गांधीजी को पता चला कि मुरलीधर ने एक ब्रिटिश अफ़सर के अत्याचार व उत्पीड़न से एक भारतीय लड़की को बचाया है, तब उन्होने उसे “सत्य का निडर साधक” नाम दिया था।
उन दिनों कुष्ठ रोग से पीड़ित लोगों को एक सामाजिक कलंक माना जाता था। ऐसे रोगी समाज की मुख्य धारा से कटकर उपेक्षित जीवन जीने को अभिशप्त थे। मुरलीधर ने इस विचारधारा को, कि कोढ़ एक संक्रामक छुआछूत रोग है, को दूर करने का प्रयास किया। यहां तक कि उन्होंने एक कोढ़ी को साथ रहने की अनुमति दी। यह साबित करने के उद्देश्य से एक प्रयोग के हिस्से के रूप में उन्हें इंजेक्शन भी लेने पड़े थे। तुलसीराम नाम के कुष्ठ पीड़ित व्यक्ति के साथ मुलाक़ात ने उनकी आत्म-छवि को चकनाचूर कर दिया। उसने देखा तुलसीराम कुष्ठ रोग के अंतिम चरण में वह एक मांस के टुकड़ों के साथ हाथ-पैर की उंगलियों के बिना कीड़े और घावों के साथ वास्तव में एक जीवित लाश था। वह संक्रमण से घबरा गया। उसने खुद को निडर बनाने के बारे में सोचा। अगले 6 महीनों के लिए वह इस संकट की बेदर्द पीड़ा में रहा। उसने सोचा “जहाँ भय है वहाँ प्रेम नहीं है, और जहाँ प्रेम नहीं वहाँ कोई भगवान नहीं है।” भय और घृणा से घिरे कोढ़ियों की इस समस्या पर काबू पाने का उसे केवल एक ही तरीका लग रहा था कि उसे कुष्ठ पीड़ित लोगों के साथ रहना और काम करना होगा। उन्होंने सोचा और संकल्प किया “मुझे किसी भी चीज़ से कभी डर नहीं लगा जब मैंने एक भारतीय महिला का सम्मान बचाने के लिए ब्रिटिश ठोकरों से लड़ाई लड़ी, गांधी जी ने मुझे ‘अभय साधक’ कहा, जो सत्य का निर्भीक साधक था। जब वरोरा के सफाईकर्मियों ने मुझे नाले की सफाई के लिए चुनौती दी, तो मैंने ऐसा किया, लेकिन जब मैंने तुलसीराम की जीवित लाश देखी, मैं डर गया। मुझे इस डर पर क़ाबू पाकर कुष्ठ पीड़ितों के प्रति प्रेम में बदलना होगा।”
मुरलीधर ने कुष्ठ रोगियों की सेवा करने का निर्णय इस कारण लिया कि उन्हें एक ऐसे समाज का हिस्सा बनने में घृणा महसूस होती थी जो ऐसे दलित मनुष्यों की दुर्दशा के प्रति बहुत ही उदासीन था। उन्होंने इस उदासीनता को ‘मानसिक कुष्ठ’ के रूप में माना, जो कि सबसे भयावह बीमारी है जो किसी के अंगों को ही नहीं गला रही है, लेकिन अन्य मनुष्यों के लिए दया और करुणा महसूस करने के लिए प्रेम की ताकत खो रही है।
उन्होंने लिखा:- “मैंने भगवान से अपनी आत्मा मांगी, लेकिन मेरी आत्मा नदारत थी। मैंने अपने में भगवान की तलाश की, लेकिन मेरे भीतर भगवान भी नदारत था, तब मैंने सेवा हेतु भाई-बहनों की मांग की, मुझे उनमें आत्मा, भगवान और जीवन लक्ष्य मिल गया।”
उन्होंने 1949 में 4 रुपये, 6 कुष्ठ रोगियों और एक लंगड़ी गाय के साथ वरोरा में आश्रम स्थापित करके पूरे महाराष्ट्र में अपना काम फैलाया है। अब वे बाबा कहलाने लगे थे। कई संगठनों ने बाबा के कार्यों से प्रेरणा ली है और देश भर में और यहां तक कि पूरी दुनिया में काम करते रहे हैं। दुनिया भर में मुरलीधर ने जो प्रभाव डाला, वह अचूक है और उनकी आत्मा एक दुर्लभ रत्न है जिसे दुनिया भाग्यशाली मानती थी।
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #52 गुरु दक्षिणा श्री आशीष कुमार☆
एक बार एक शिष्य ने विनम्रतापूर्वक अपने गुरु जी से पूछा- ‘गुरु जी, कुछ लोग कहते हैं कि जीवन एक संघर्ष है, कुछ अन्य कहते हैं कि जीवन एक खेल है और कुछ जीवन को एक उत्सव की संज्ञा देते हैं। इनमें कौन सही है?’
गुरु जी ने तत्काल बड़े ही धैर्यपूर्वक उत्तर दिया- ‘पुत्र, जिन्हें गुरु नहीं मिला उनके लिए जीवन एक संघर्ष है; जिन्हें गुरु मिल गया उनका जीवन एक खेल है और जो लोग गुरु द्वारा बताये गए मार्ग पर चलने लगते हैं, मात्र वे ही जीवन को एक उत्सव का नाम देने का साहस जुटा पाते हैं।’
यह उत्तर सुनने के बाद भी शिष्य पूरी तरह से संतुष्ट न था। गुरु जी को इसका आभास हो गया।वे कहने लगे- ‘लो, तुम्हें इसी सन्दर्भ में एक कहानी सुनाता हूँ। ध्यान से सुनोगे तो स्वयं ही अपने प्रश्न का उत्तर पा सकोगे।’
उन्होंने जो कहानी सुनाई, वह इस प्रकार थी-
एक बार की बात है कि किसी गुरुकुल में तीन शिष्यों नें अपना अध्ययन सम्पूर्ण करने पर अपने गुरु जी से यह बताने के लिए विनती की कि उन्हें गुरुदाक्षिणा में, उनसे क्या चाहिए। गुरु जी पहले तो मंद-मंद मुस्कराये और फिर बड़े स्नेहपूर्वक कहने लगे- ‘मुझे तुमसे गुरुदक्षिणा में एक थैला भर के सूखी पत्तियां चाहिए, ला सकोगे?’
वे तीनों मन ही मन बहुत प्रसन्न हुए क्योंकि उन्हें लगा कि वे बड़ी आसानी से अपने गुरु जी की इच्छा पूरी कर सकेंगे। सूखी पत्तियाँ तो जंगल में सर्वत्र बिखरी ही रहती हैं| वे उत्साहपूर्वक एक ही स्वर में बोले- “जी गुरु जी, जैसी आपकी आज्ञा।’’
अब वे तीनों शिष्य चलते-चलते एक समीपस्थ जंगल में पहूंच चुके थे।लेकिन यह देखकर कि वहाँ पर तो सूखी पत्तियाँ केवल एक मुट्ठी भर ही थीं, उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वे सोच में पड़ गये कि आखिर जंगल से कौन सूखी पत्तियां उठा कर ले गया होगा? इतने में ही उन्हें दूर से आता हुआ कोई किसान दिखाई दिया।वे उसके पास पहुँच कर, उससे विनम्रतापूर्वक याचना करने लगे कि वह उन्हें केवल एक थैला भर सूखी पत्तियां दे दे। अब उस किसान ने उनसे क्षमायाचना करते हुए, उन्हें यह बताया कि वह उनकी मदद नहीं कर सकता क्योंकि उसने सूखी पत्तियों का ईंधन के रूप में पहले ही उपयोग कर लिया था। अब, वे तीनों, पास में ही बसे एक गाँव की ओर इस आशा से बढ़ने लगे थे कि हो सकता है वहाँ उस गाँव में उनकी कोई सहायता कर सके। वहाँ पहूंच कर उन्होंने जब एक व्यापारी को देखा तो बड़ी उम्मीद से उससे एक थैला भर सूखी पत्तियां देने के लिए प्रार्थना करने लगे लेकिन उन्हें फिर से एकबार निराशा ही हाथ आई क्योंकि उस व्यापारी ने तो, पहले ही, कुछ पैसे कमाने के लिए सूखी पत्तियों के दोने बनाकर बेच दिए थे लेकिन उस व्यापारी ने उदारता दिखाते हुए उन्हें एक बूढी माँ का पता बताया जो सूखी पत्तियां एकत्रित किया करती थी। पर भाग्य ने यहाँ पर भी उनका साथ नहीं दिया क्योंकि वह बूढी माँ तो उन पत्तियों को अलग-अलग करके कई प्रकार की ओषधियाँ बनाया करती थी।।अब निराश होकर वे तीनों खाली हाथ ही गुरुकुल लौट गये।
गुरु जी ने उन्हें देखते ही स्नेह पूर्वक पूछा- ‘पुत्रो, ले आये गुरुदक्षिणा?’
तीनों ने सर झुका लिया।
गुरू जी द्वारा दोबारा पूछे जाने पर उनमें से एक शिष्य कहने लगा- ‘गुरुदेव, हम आपकी इच्छा पूरी नहीं कर पाये। हमने सोचा था कि सूखी पत्तियां तो जंगल में सर्वत्र बिखरी ही रहती होंगी लेकिन बड़े ही आश्चर्य की बात है कि लोग उनका भी कितनी तरह से उपयोग करते हैं।”
गुरु जी फिर पहले ही की तरह मुस्कराते हुए प्रेमपूर्वक बोले- ‘निराश क्यों होते हो? प्रसन्न हो जाओ और यही ज्ञान कि सूखी पत्तियां भी व्यर्थ नहीं हुआ करतीं बल्कि उनके भी अनेक उपयोग हुआ करते हैं; मुझे गुरुदक्षिणा के रूप में दे दो।’
तीनों शिष्य गुरु जी को प्रणाम करके खुशी-खुशी अपने-अपने घर की ओर चले गये।
वह शिष्य जो गुरु जी की कहानी एकाग्रचित्त हो कर सुन रहा था, अचानक बड़े उत्साह से बोला- ‘गुरु जी,अब मुझे अच्छी तरह से ज्ञात हो गया है कि आप क्या कहना चाहते हैं।आप का संकेत, वस्तुतः इसी ओर है न कि जब सर्वत्र सुलभ सूखी पत्तियां भी निरर्थक या बेकार नहीं होती हैं तो फिर हम कैसे, किसी भी वस्तु या व्यक्ति को छोटा और महत्त्वहीन मान कर उसका तिरस्कार कर सकते हैं? चींटी से लेकर हाथी तक और सुई से लेकर तलवार तक-सभी का अपना-अपना महत्त्व होता है।’
गुरु जी भी तुरंत ही बोले- ‘हाँ, पुत्र, मेरे कहने का भी यही तात्पर्य है कि हम जब भी किसी से मिलें तो उसे यथायोग्य मान देने का भरसक प्रयास करें ताकि आपस में स्नेह, सद्भावना, सहानुभूति एवं सहिष्णुता का विस्तार होता रहे और हमारा जीवन संघर्ष के बजाय उत्सव बन सके। दूसरे, यदि जीवन को एक खेल ही माना जाए तो बेहतर यही होगा कि हम निर्विक्षेप, स्वस्थ एवं शांत प्रतियोगिता में ही भाग लें और अपने निष्पादन तथा निर्माण को ऊंचाई के शिखर पर ले जाने का अथक प्रयास करें।’
“यदि हम मन, वचन और कर्म- इन तीनों ही स्तरों पर इस कहानी का मूल्यांकन करें, तो भी यह कहानी खरी ही उतरेगी। सब के प्रति पूर्वाग्रह से मुक्त मन वाला व्यक्ति अपने वचनों से कभी भी किसी को आहत करने का दुःसाहस नहीं करता और उसकी यही ऊर्जा उसके पुरुषार्थ के मार्ग की समस्त बाधाओं को हर लेती है। वस्तुतः, हमारे जीवन का सबसे बड़ा ‘उत्सव’ पुरुषार्थ ही होता है-ऐसा विद्वानों का मत है।
(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गीजी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)
☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग – 17 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆
(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)
(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी कर रहीं हैं। इस श्रंखला को आप प्रत्येक शनिवार पढ़ सकते हैं । )
जैसे कली से कमल थोड़ा-थोड़ा बडा होकर खिलता है, वैसे ही मेरी प्रगति धीरे-धीरे बढ़ रही थी। मेरे व्यक्तित्व के अच्छे गुण भी पल्लवित हो रहे थे। नवरत्न दीपावली अंक के माध्यम से हमारा छोटा सा ‘वाचन कट्टा’ महिलाओं की कविता, कहानियों से भर गया। उसी के कारण हमारा कविता सुनाना शुरू हो गया। उनमें की सहेली सौ. मुग्धा कानीटकर ने अपने घर के हॉल में मेरा अकेली का नृत्य का कार्यक्रम रखा था। उसी के साथ हमारे सहेलियों को भी आमंत्रित किया था। उसमें मैंने भरतनाट्यम का नृत्याविष्कार पेश किया। कविता भी सुनाई। सभी सहेलियों ने हृदय से मेरी प्रशंसा की। उनके प्रतिसाद के कारण मुझे प्रोत्साहन मिला।
उसके साथ-साथ मिरज के पाठक वृद्धाश्रम में ८ मार्च ‘महिला दिन’ पर कार्यक्रम में मेरी अदा का सादरीकरण करने का मौका मिल गया। सभी दीदियों ने मुझ पर आनंद और खुशियां बरसा दी।
५ जानेवारी २०२० में हमारे ‘नवरत्न’ दीपावली अंक का पुरस्कार प्रदान समारोह सेलिब्रिटी श्री प्रसाद पंडित इनके साथ संपन्न हुआ। उस वक्त मुझे स्वातंत्रवीर सावरकरजी के ‘जयोस्तुते’ गीत नृत्य के रूप में पेश करने को मिला। विशेषता यह थी कि सब दर्शकों ने हाथ से नृत्य और गाने को ताल लगाकर अभिवादन किया। यह सब अर्थ मुझे बाद में समझ आ गया। सब दर्शकों ने पूरा सहयोग दिया। विशेषता यह है कि श्री. प्रसाद पंडित जी ने मेरे प्राविण्यता को पीठ थपथपाकर गर्व से कहा, “शिल्पा ताई हमें आपके साथ एक फोटो खींचना है।”
मेरी वक्तृत्व की कला देखकर मैं सूत्रसंचालन भी कर सकूंगी ऐसा समझ में आने के बाद मुझे तीन बड़े कार्यक्रम का सूत्र संचालन करने का मौका दिया गया। ‘नवरत्न’ दीपावली अंक के प्रकाशन में वक्त सूत्रसंचालन करके गोखले चाची की मदद से यशस्विता प्राप्त कर ली। अध्यक्ष जी बहुत भावुक हो गए, उन्होंने ही मुझे शॉल और श्रीफल देकर गौरव किया। उसके बाद मेरे भाई न्यायाधीश होने के बाद मेरे माता और पिता जी ने भाई की विद्वता को जानकर एक छोटे से समारोह का आयोजन किया था। उसके भी सूत्र संचालन की जिम्मेदारी मैंने संपन्न की। लोगों ने मेरा बहुत बड़ा सम्मान किया। दूसरे दिन पंकज भैया मुझे बोले, शिल्पा ने कल सामने कागज नहीं होते हुए भी मुंह से जोर-जोर से शब्दों का भंडार सबके सामने रखा। मेरी सहेली सौ. अनीता खाडीलकर के ‘मनपंख’ पुस्तक का प्रकाशन भी संपन्न हुआ। उस पुस्तक के प्रकाशन का सूत्र संचालन भी मैंने यशस्विता के साथ संपन्न किया।
मेरी आंखों के सामने हमेशा के लिए सिर्फ काला-काला अंधेरा होते हुए भी मैं नजदीक वाले लोगों के सामने प्रकाश का किरण ला सकी। इस बात की मुझे बहुत बड़ी खुशी है। यह सब करिश्मा भगवान का है।