(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “आँख की बही स्याही… ”। )
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता ‘नकली इंजेक्शन’)
☆ संस्मरण # 97 ☆ स्वच्छता मिशन ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆
ये बात ग्यारह साल पहले की है, जब स्वच्छता मिशन चालू भी नहीं हुआ था…….. ।
समाज के कमजोर एवं गरीब वर्ग के सामाजिक और आर्थिक उत्थान में स्टेट बैंक की अहम् भूमिका रही है। ग्यारह साल पहले हम देश की पहली माइक्रो फाइनेंस ब्रांच लोकल हेड आफिस, भोपाल में प्रबंधक के रुप में पदस्थ थे। ग्वालियर क्षेत्र में माइक्रो फाइनेंस की संभावनाओं और फाइनेंस से हुए फायदों की पड़ताल हेतु ग्वालियर श्रेत्र जाना होता था। माइक्रो फाइनेंस अवधारणा ने बैंक विहीन आबादी को बैंकिंग सुविधाओं के दायरे में लाकर जनसाधारण को परंपरागत साहूकारों के चुंगल से मुक्त दिलाने में प्राथमिकता दिखाई थी, एवं सामाजिक कुरीतियों को आपस में बातचीत करके दूर करने के प्रयास किए थे।
एक उदाहरण देखिए……..
स्व सहायता समूह की एक महिला के हौसले ने पूरे गाँव की तस्वीर बदल डाली , उस महिला से प्रेरित हो कर अन्य महिलाऐं भी आगे आई …. महिलाओं को देख कर पुरुषों ने भी अपनी मानसिकता को त्याग दिया और जुट गए अपने गाँव की तस्वीर बदलने के लिए….. ।
………ग्वालियर जिले का गाँव सिकरोड़ी की अस्सी प्रतिशत जनसँख्या अनुसूचित जाति की है लोगों की माली हालत थी , लोग शौच के लिए खुले में जाया करते थे, स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया ने माइक्रो फाइनेंस योजना के अंतर्गत वामा गैर सरकारी संगठन ग्वालियर को लोन दिया , वामा संस्था ने इस गाँव को पूर्ण शौचालाययुक्त बनाने का सपना संजोया …. अपने सपने को पूरा करने के लिए उसने स्टेट बैंक की मदद ली , गाँव के लोगों की एक बैठक में इस बारे में बातचीत की गई , बैठक के लिए शाम आठ बजे पूरे गाँव को बुलाया गया , हालाँकि उस वक़्त तक गाँव के पुरुष नशा में धुत हो जाते थे और इस हालत में उनको समझाना आसान नहीं था , लेकिन वामा और स्टेट बैंक ने हार नहीं मानी, और फिर बैठक की ….बैठक में महिलाओं और पुरुषों को शौचालय के महत्त्व को बताया , पुरुषों ने तो रूचि नहीं दिखी लेकिन एक महिला के हौसले ने इस बैठक को सार्थक सिद्ध कर दिया । विद्या देवी जाटव ने कहा कि वह अपने घर में कर्जा लेकर शौचालय बनवायेगी , वह धुन की पक्की थी उसने समूह की सब महिलाओं को प्रेरित किया इस प्रकार एक के बाद एक समूह की सभी महिलाएं अपने निश्चय के अनुसार शौचालय बनाने में जुट गईं , पुरुष अभी भी निष्क्रिय थे …. जब उन्होंने देखा कि महिलाओं में धुन सवार हो गई है तो गाँव के सभी पुरुषों का मन बदला और तीसरे दिन ही वो भी सब इस सद्कार्य में लग गए और देखते ही देखते पूरा गाँव शौचालय बनाने के लिए आतुर हो गया , प्रतिस्पर्धा की ऐसी आंधी चली कि कुछ दिनों में पूरे गाँव के हर घर में शौचालय बन गए और साल भर में कर्ज भी पट गए …. तो भले राजनीतिक लोग स्वच्छता अभियान, और शौचालय अभियान का श्रेय ले रहे हों,पर इन सबकी शुरुआत ग्यारह साल पहले स्टेट बैंक और माइक्रो फाइनेंस ब्रांच भोपाल ने चालू कर दी थी।
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है महामारी कोरोना से ग्रसित होने के पश्चात मनोभावों पर आधारित एक व्यंग्य कविता “# परिवर्तन #”।)
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘स्वर्ग-प्राप्ति में पति की उपयोगिता’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 100 ☆
☆ व्यंग्य – स्वर्ग-प्राप्ति में पति की उपयोगिता ☆
गुनवंती देवी पिछली शाम प्रवचन सुनने गयीं थीं। तभी से कुछ सोच में थीं। बार बार नज़र पति के चेहरे पर टिक जाती थी, जैसे कुछ टोह रही हों।
आखिर बोल फूटा, बोलीं, ‘मन्दिर में दो दिन से पुखराँय वाले पंडिज्जी का प्रवचन चल रहा है। कल कहने लगे, कितना भी भगवान की भक्ति और सेवा कर लो,स्त्री को पति की सेवा के बिना स्वर्ग नहीं मिल सकता। कह रहे थे पति के बिना स्त्री की कोई गति नहीं है।’
पतिदेव दाँत खोदते हुए अन्यमनस्कता से बोले, ‘अच्छा!’
गुनवंती देवी थोड़ा सकुचाते हुए बोलीं, ‘अब देखिए, स्वर्ग की इच्छा तो हर प्रानी को होती है। हम भी स्वर्ग जाना चाहते हैं। इसलिए हमने सोच लिया है कि अब मन लगाकर आपकी सेवा करेंगे और आपके आसिरवाद से स्वर्ग का प्रवेश पक्का करेंगे।’
पतिदेव घबराकर बोले, ‘अरे भई, अब तक तो तुमने कोई खास सेवा की नहीं है। दिन भर बातें ही सुनाती रहती हो। अब सेवा करने से पिछला कैसे पूरा होगा?’
गुनवंती देवी कुछ लज्जित होकर बोलीं, ‘हाँ जी, आप ठीक कहते हैं। अब तक तो आपकी कुछ खास सेवा नहीं हो पायी। अब वो अंगरेजी में कहते हैं न, ‘कंसेंट्रेटेड’ सेवा करेंगे तो पिछला भी पूरा हो जाएगा।’
फिर बोलीं, ‘अब हम सबेरे उठने पर और रात को सोते बखत आपके चरन छुएंगे। इससे काफी पुन्न मिलेगा। लेकिन आप अपने पैरों को थोड़ा साफ रखा करो। ऐसे ही गन्दे रखोगे तो हमें दूर से धरती छू कर ही काम चलाना पड़ेगा।
‘दूसरी बात यह है कि अब आपके नहाने के बाद बनयाइन वगैरा हमीं छाँटेंगे। लेकिन आप अपनी बनयाइन रोज बदल लिया करो। परसों हमने धोने के लिए डाली तो पसीने से इतनी गंधा रही थी कि हमें उबकाई आ गयी।’
पतिदेव पत्नी की मधुर बातें सुनते उन्हें टुकुर-टुकुर निहारते रहे।
गुनवंती देवी बोलीं, ‘अब जब आप खाना खाओगे तो हम बगल में बैठकर पंखा डुलाएंगे। हमारे पास पुराना बाँस का पंखा पड़ा है।’
पतिदेव बोले, ‘क्या करना है? सीलिंग फैन तो लगा है।’
गुनवंती देवी ने जवाब दिया, ‘सीलिंग फैन तो अपना काम करेगा, लेकिन उससे पुन्न थोड़इ मिलेगा। हम आपके खाने की मक्खियाँ भगायेंगे।’
पतिदेव बोले, ‘अपने घर में मक्खियाँ कहाँ हैं?’
गुनवंती देवी बोलीं, ‘नहीं हैं तब भी हम भगायेंगे। पुन्न तो मिलेगा।’ फिर बोलीं, ‘लेकिन जब हम पास बैठें तो डकार जरा कंट्रोल से लेना। ऐसे डकारते हो कि पूरा घर हिल जाता है।’
पतिदेव भावहीन चेहरा लिये उनके वचन सुनते रहे।
गुनवंती देवी बोलीं, ‘खाने के बाद हाथ हमीं धुलवायेंगे।’
पतिदेव भुनभुनाये, ‘वाश-बेसिन तो है।’
जवाब मिला, ‘वाश-बेसिन पर ही धोना, लेकिन हम जग से पानी डालेंगे। नल से नहीं धोना। हाथ धोने के बाद पोंछने के लिए हम तौलिया देंगे।’
गुनवंती देवी आगे बोलीं, ‘जब हम पूजा करेंगे तब आप बगल में बैठे रहा करो। पूजा के बाद आपकी आरती उतारकर तिलक लगाएंगे और प्रसाद खिलाएंगे। लेकिन आपको रोज नहाना पड़ेगा। अभी तो जाड़े में पन्द्रह पन्द्रह दिन बदन को पानी नहीं छुआते। गन्दे आदमी की आरती कौन उतारेगा?
‘रात में पाँव धो के सोओगे तो थोड़ी देर पाँव भी दबा दिया करेंगे। उसमें पुन्न का परसेंटेज बहुत ज्यादा रहता है।’
पतिदेव ने सहमति में सिर हिलाया।
अगले सबेरे से गुनवंती देवी का पति-सेवा अभियान शुरू हो गया। सबेरे पाँच बजे से पति को हिलाकर उठा देतीं, कहतीं, ‘उठो जी!बैठकर पाँव जमीन पर रखो। लेटे आदमी का पाँव छूना अशुभ होता है।’
पतिदेव चरणस्पर्श का पुण्यलाभ देकर फिर बिस्तर पर लुढ़क जाते। लेकिन उनका सुकून थोड़ी देर का ही रहता। फिर उठ कर नहा लेने के लिए आवाज़ लगने लगती। वे ऊँघते ऊँघते, मन ही मन पुखराँय वाले पंडिज्जी को कोसते, बाथरूम में घुस जाते।
गुनवंती देवी पति-परमेश्वर की आरती उतारतीं तो भक्ति के आवेग में आँखें मूँद लेतीं। परिणामतः पतिदेव को आरती की मार से अपनी ठुड्डी और नाक को बचाना पड़ता। कभी नाक में आरती का धुआँ घुस जाता तो छींकें आने लगतीं।
रात को गुनवंती देवी नियम से पति के पैर चाँपती थीं, लेकिन उनकी डाँट- फटकार से बचने के लिए पतिदेव को अपने पैर और तलुए रगड़ रगड़ कर धोने पड़ते थे। फिर भी सुनने को मिलता—‘हे भगवान, तलुए कितने गन्दे हैं!देखकर घिन आती है।’
पतिदेव का दोस्तों के घर रात देर तक जमे रहना बन्द हो गया क्योंकि गुनवंती देवी को दस बजे नींद आने लगती थी और सोने से पहले पाँव दबाने का पुण्य प्राप्त कर लेना ज़रूरी होता था। वे घड़ी देखकर एक आज्ञाकारी पति की तरह दस बजे से पहले घर में हाज़िर हो जाते। कभी देर तक बाहर रहना ज़रूरी हो तो पाँव दबवाकर फिर से सटक लेते थे।
इस तरह दो ढाई महीने तक गुनवंती देवी की ठोस पति-सेवा चली और इस काल में उन्होंने पर्याप्त पुण्य-संचय कर लिया। लेकिन इस पुण्य-दान में पतिदेव की हालत पतली हो गयी।
फिर एक दिन गुनवंती देवी पति से बोलीं, ‘कल बनारस के एक पंडिज्जी का प्रवचन सुना। उन्होंने समझाया कि परलोक सुधारने के लिए पति की सेवा जरूरी नहीं है। पति और गिरस्ती वगैरा तो सब माया हैं। भगवान की पूरी सेवा से ही स्वर्ग मिलेगा। इसलिए अब हम आपकी सेवा नहीं करेंगे। आपको जैसे रहना हो रहो। जब उठना हो उठो और जितने दिन में नहाना हो नहाओ।’
सुनकर पतिदेव की बाँछें खिल गयीं, लेकिन वे तुरन्त अपनी खुशी दबाकर, ऊपर से मुँह लटकाकर, बाहर निकल गये। उन्हें डर लगा कि उनकी खुशी पढ़कर कहीं गुनवंती देवी अपना फैसला बदल न दें।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 98 ☆ स्वतन्त्रता दिवस विशेष – जयहिंद! ☆
विश्व के हर धर्म में स्वर्ग की संकल्पना है। सद्कर्मों द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति का लक्ष्य है। हमारे ऋषि-मुनियों ने तो इससे एक कदम आगे की यात्रा की। उन्होंने प्रतिपादित किया कि मातृभूमि स्वर्ग से बढ़कर है, ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। विदेशी आक्रांताओं के विरुद्ध हमारे राजाओं का संघर्ष इसी की परिणति था।
कालांतर में अँग्रेज़ आया। संघर्ष का विस्तार हुआ। आम जनता भी इस संघर्ष में सहभागी हुई।
संघर्ष और स्वाधीनता का परस्पर अटूट सम्बन्ध है। स्वाधीन होने और स्वाधीन रहने के लिए निरंतर संघर्ष अनिवार्य है। मृत्यु का सहज वरण करने का साहस देश और देशवासियों की अखंड स्वतंत्रता का कारक होता है।
एक व्यक्ति ने एक तोता पकड़ा। उड़ता तोता पिंजरे में बंद हो गया। वह व्यक्ति तोते के खानपान, अन्य सभी बातों का ध्यान रखता था। तोता यूँ तो बिना उड़े, खाना-पीना पाकर संतुष्ट था पर उसकी मूल इच्छा आसमान में उड़ने की थी। धीरे-धीरे उस व्यक्ति ने तोते को मनुष्यों की भाषा भी सिखा दी। एक दिन तोते ने सुना कि वह व्यक्ति अपनी पत्नी से कह रहा था कि अगले दिन उसे सुदूर के एक गाँव में किसी से मिलने जाना है। सुदूर के उस गाँव में तोते का गुरु तोता रहता था। तोते ने व्यक्ति से अनुरोध किया कि गुरू जी को मेरा प्रणाम अर्पित कर मेरी कुशलता बताएँ और मेरा यह संदेश सुनाएँ कि मैं जीना चाहता हूँ। व्यक्ति ने ऐसा ही किया। शिष्य तोते का संदेश सुनकर गुरु तोते अपने पंख अनेक बार जोर से फड़फड़ाए, इतनी जोर से कि निष्चेष्ट हो ज़मीन पर गिर गया।
लौटकर आने पर व्यक्ति ने अपने पालतू तोते सारा किस्सा कह सुनाया। यह सुनकर दुखी हुए तोते ने पिंजरे के भीतर अपने पंख अनेक बार जोर-जोर से फड़फड़ाए और निष्चेष्ट होकर गिर गया। व्यक्ति से तोते की देह को बाहर निकाल कर रखा। रखने भर की देर थी कि तोता तेज़ी से उड़कर मुंडेर पर बैठ गया और बोला, ” स्वामी, आपके आपके स्नेह और देखभाल के लिए मैं आभारी हूँ पर मैं उड़ना चाहता हूँ और उड़ने का सही मार्ग मुझे मेरे गुरु ने दिखाया है। गुरुजी ने पंख फड़फड़ाए और निश्चेष्ट होकर गिर गए। संदेश स्पष्ट है, उड़ना है, जीना है तो मरना सीखो।”
नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने भी जून 1944 के अपने ऐतिहासिक भाषण में अपने सैनिकों से यही कहा था। उनका कथन था,” किसी के मन में स्वतंत्रता के मीठे फलों का आनंद लेने की इच्छा नहीं होनी चाहिए। एक लंबी लड़ाई अब भी हमारे सामने है। आज हमारी केवल एक ही इच्छा होनी चाहिए- मरने की इच्छा ताकि भारत जी सके। एक शहीद की मौत मरने की इच्छा जिससे स्वतंत्रता की राह शहीदों के खून से बनाई जा सके।”
देश को ज़िंदा रखने में मरने की इस इच्छा का महत्वपूर्ण योगदान होता है। 1947 का कबायली हमला हो, 1962, 1965, 1971 के युद्ध, कश्मीर और पंजाब में आतंकवाद, कारगिल का संघर्ष या सर्जिकल स्ट्राइक, बलिदान के बिना स्वाधीनता परवान नहीं चढ़ती। क्रांतिकारियों से लेकर हमारे सैनिकों ने अपने बलिदान से स्वाधीनता को सींचा है।स्मरण रहे, थे सो हम हैं।
आज स्वाधीनता दिवस है। स्वाधीनता दिवस देश के नागरिकों का सामूहिक जन्मदिन है। आइए, सामूहिक जन्मोत्सव मनाएँ, सबको साथ लेकर मनाएँ। इस अनूठे जन्मोत्सव का सुखद विरोधाभास यह कि जैसे-जैसे एक पीढ़ी समय की दौड़ में पिछड़ती जाती है, उस पीढ़ी के अनुभव से समृद्ध होकर देश अधिक शक्तिशाली और युवा होता जाता है।
देश को निरंतर युवा रखना देशवासी का धर्म और कर्म दोनों हैं। चिरयुवा देश का नागरिक होना सौभाग्य और सम्मान की बात है। हिंद के लिए शरीर के हर रोम से, रक्त की हर बूँद से ‘जयहिंद’ तो बनता ही है।…जयहिंद!
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण कविता ‘मानसून की पहली बूंदे….….’। )
(श्री अरुण कुमार डनायक जी महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जीहमारे प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है “कुमायूं – 15 – जिम उर्फ़ जेम्स एडवर्ड कार्बेट”)
☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #77 – 15 – जिम उर्फ़ जेम्स एडवर्ड कार्बेट☆
भारत लम्बे समय तक ब्रिटिश राज के आधीन रहा और जहाँ एक ओर उसने जनरल डायर सरीखे खूंखार मानवद्रोहियों के अत्याचार सहे तो ऐसे अनेक अंग्रेज भी इस धरा पर आये जिन्होंने यहाँ के निवासियों का दिल अपनी सेवा भावना व न्यायप्रियता से जीता । उस वक्त संयुक्त प्रांत या आज के उत्तरप्रदेश के अंग रहे उत्तराखंड को, ऐसी ही दो महान हस्तियों का सानिध्य मिला, एक बन्दूक के शौक़ीन जिम कार्बेट और दूसरी अहिंसा की पुजारिन लन्दन में जन्मी कैथरीन उर्फ़ सरला देवी ।
जिम यानी जेम्स एडवर्ड कार्बेट 1875 में कालाढुँगी के पोस्टमास्टर की ग्यारहवीं संतान के रूप में जन्मे और जब वे केवल चार वर्ष के नन्हे बालक थे तो उनके पिता की मृत्यु हो गई । कुमाऊं के अपेक्षाकृत मैदानी इलाके में बसे कालाढुँगी के खूबसरत जंगल जानवरों और परिंदों से भरे थे और यहाँ के बृक्ष, हिंसक जानवर,कोसी के अज़गर, चारा चरते हिरण और आसमान में उड़ते परिंदे नन्हे जिम के पहले साथी बने । आठ वर्ष की उम्र में, गुलेल और तीर कमान से जंगली मुर्गियों और मोरों का शिकार करने वाला यह नन्हा शिकारी, दुनाली भरतल बंदूक का मालिक बना । ऐसी बंदूक जिसकी दाईं नाल फटी हुई थी और पीतल के तारों से बन्दूक के कुंदे और नालों को आपस में जोड़कर बांधा गया था । पर इससे क्या ? नन्हे शिकारी के लिए यह थी तो गर्व की बात । और यह गौरव पूर्ण क्षण जिम ने सबसे पहले अपने चाचा की उम्र के कुंवर सिंह के साथ साझा किये जिसने उसे शिकार खेलने की बारीकियां समझाई और साथ ही पेड़ों पर चढ़ना भी सिखाया । बाद के दिनों में कुंवर सिंह अफीमची हो गया और बहुत बीमार पड़ा तब जिम कार्बेट ने उसकी बड़ी सेवा की और मौत के मुंह से बाहर निकाला ।
जिम, जिसे कुमाऊं के पहाड़ी लोग आदर से कापेट साहब कहते थे , ने अठारह वर्ष की उम्र में अपनी स्कूली शिक्षा नैनीताल से पूरी की और फिर रेलवे में नौकरी कर ली । इस सिलसिले में उन्हें अपने प्रिय जंगलों से हज़ार किलोमीटर दूर बिहार के मोकामा घाट में जाना पडा । यहाँ रहते हुए उन्होंने अपने कामगारों के बच्चों के लिए स्कूल खोला और इस काम में उनके साथी बने स्टेशन मास्टर रामसरन, जो खुद तो ज्यादा पढ़े लिखे न थे पर शिक्षा का महत्व समझते थे । बाद में सरकार ने स्कूल को अधिकृत कर मिडिल स्कूल बना दिया और जिम के साथी रामसरन को ‘राय साहब’ का खिताब मिला । खेलकूद के शौक़ीन जिम ने मैदान साफ़ करवाकर फुटबाल और हॉकी के खेल शुरू किए और इसी दौरान वे प्रथम विश्वयुद्ध के समय वे सेना में भर्ती हो गये । मोकामाघाट में ही उन्होंने माल लदाई का ठेका लिया ।
सेना की नौकरी से त्यागपत्र देकर जिम 1922 में कालाढुँगी आकर बस गए । यहाँ उन्होंने खेती की जमीनें खरीदी, जंगली जानवरों से खेतों की रक्षा के लिए लम्बी बाउंड्री वाल बनवाई, सत्रह कृषक परिवारों को न केवल बसाया वरन उनके लिए पक्के मकान बनवाये, अपने लिए एक शानदार बँगला बनवाया । जिम का यह बँगला कोई दो हेक्टेयर जमीन के एक छोटे से हिस्से में बना था । और इसमें वे अपनी बहन मैगी और शिकारी कुत्ते रोबिन के साथ सर्दियों के मौसम में रहते थे । उनकी गर्मिया व्यतीत होती थी नैनीताल के गुर्नी हाउस में । 1947 में भारत आज़ाद हुआ और जिम ने भरे मन से अपने इस प्यारे देश, जहाँ उसका जन्म हुआ और नाम व प्रसिद्धि मिली, को अलविदा कह दिया और वे अपनी बहन के साथ केन्या में जा बसे, जहाँ उनकी मृत्यु 1955 में हो गई । जब वे भारत छोड़ कर जा रहे थे तब कालाढुँगी का बँगला चिरंजीलाल को बेच दिया और खेती की जमीनें कृषकों के नाम कर दी । वन विभाग ने इस बंगले को 1965 में खरीदकर, जिम कार्बेट के द्वारा उपयोग में लाई गई अनेक वस्तुएं, बर्तन, मेज-कुर्सी, शिकार व अन्य गतिविधियों को दर्शाते उनके चित्रों व छायाचित्रों को संग्रहित कर संग्रहालय का स्वरुप दिया है । ऐसा कर उत्तराखंड के वन विभाग ने इस महान शिकारी, अद्भुत लेखक और एक शानदार इंसान, जिसे अपने लोगों व सहकर्मियों से और इस देश के वाशिंदों से बेपनाह प्यार था, को सच्ची श्रद्धांजलि दी है ।
जिम कार्बेट जब केन्या में बस गए तो उन्हें भारत में बिताए अपने पचहत्तर से कुछ कम वर्षों की बहुत याद आती और अपनी इन्ही यादों को, शिकार की कहानियों को, भारत के जंगल की वनस्पतियों व जानवरों को, जंगल के प्राकृतिक सौन्दर्य और सबसे बढ़कर नैनीताल की हरी-भरी वादियों से लेकर कालाडुंगी के मैदानों और फिर सूदूर बिहार के मोकामाघाट के भोले-भाले ग्रामीणों के साथ बिताए दिनों का शानदार वर्णन उन्होंने कोई आधा दर्जन किताबों के माध्यम से किया । उनकी चर्चित कृतियों में कुमाऊं के नरभक्षी, जीती जागती कहानी जंगल की और मेरा हिन्दुस्तान बहुत लोकप्रिय है । कुमाऊं के नरभक्षी की कहानियां तो महाविद्यालय के अंग्रेजी पाठ्यक्रम में लम्बे समय तक शामिल रही ।
जिम कार्बेट का जंगल ज्ञान अद्भुत था । उन्हें पत्ता खडकने, वृक्षों को देखकर, जानवरों के पदचिन्ह देखकर जंगल में क्या घटने वाला है इसका अंदाजा हो जाता था । वे शेर की आवाज निकालने में माहिर थे और अक्सर नरभक्षी शेर को मादा शेर की आवाज निकालकर अपनी ओर आकर्षित कर लेते थे । कुमाऊं के प्रशासन ने जंगलों में पनाह लिए दुर्दांत दस्यु सुल्ताना को पकड़ने के लिए जिम कार्बेट की मदद ली थी और उन्होंने अनेक बार पुलिस टीम को जंगल में भटकने से बचाया था । उनका निशाना इतना गजब का था कि शायद ही कोई गोली बेकार गई हो । अपनी बहादुरी और जंगल ज्ञान के कारण उन्होंने कोई दस नरभक्षी शेरों का शिकार हिमालय की तराई में बसे जंगलों में किया । वे 1931में गिर्जिया गांव के पास मोहन नरभक्षी शेर का शिकार करने नैनीताल जिला प्रशासन द्वारा भेजे गए। शेर के संबंध में जानकारियां एकत्रित करते वक्त ग्रामीणों ने बताया कि जब कभी रात में शेर गांव में आता है तो रूक-रूककर हल्के कराहने की आवाज सुनाई देती है । जिम ने उनके द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर अंदाज लगाया कि शेर घायल हैं और बंदूक की गोली या साही के नुकीले कांटे ने उसके पैर में जख्म बना दिए हैं । ग्रामीण जिम की बात से असहमत थे क्योंकि उन्होंने दिन में इसी शेर को पूर्णतः स्वस्थ देखा है। लेकिन जब जिम ने इस नरभक्षी का शिकार किया तो ग्रामीणों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा क्योंकि उसके अगले बाएं पैर से साही के चार से पांच इंच तक लंबे तीस कांटे निकले । इन्हीं घावों ने इस शेर को नरभक्षी बना दिया और चलते वक्त उसके कराहने की आवाज ग्रामीणों को सुनाई देती थी।
हम सब, कभी न कभी जंगल , वन अभ्यारण्य या वाघ संरक्षण केन्द्रों का , आनन्द लेने जिप्सी सफारी से गए होंगे और अगर हमने जंगल में बाघ, तेंदुए या अन्य किसी बड़ी बिल्ली को नहीं देखा होगा तो चिड़ियाघरों में तो वनराज के दर्शन अवश्य करे होंगे । इस दौरान आपने कभी गौर किया कि जंगल में जब बाघ विचरता होगा तो कैसा दृश्य निर्मित होता होगा ? इसका शानदार चित्रण जिम कॉर्बेट ने अपनी पुस्तक ‘Man Eaters of Kumaon’ के एक अध्याय ‘The Bachelor of Powalgarh’ में किया है । कुमायूं के जंगलों में विचरण करने वाला यह 10 फीट 7 इंच लंबा मानवभक्षी बाघ अंतत: जिम की बन्दूक से निकली गोली का शिकार बना पर शिकार होने से पहले 1920 से 1930 तक इसकी उपस्थिति मात्र से पहाड़ के बहादुर निवासी भी अपने-अपने घरों में दुबक जाते थे । आप भी जिम की इस कहानी के छोटे से हिस्से का मजा लीजिये ।
Sitting on a tree stump and smoking, I had been looking at this scene for sometimes when the hind nearest to me raised her head, turned in my direction and called ; and a movement later the Bachelor stepped Into the open, from the thick bushes below me. For a long minute he stood with head held high surveying the scene, and then with slow unhurled steps started to cross the glade. In his rich winter coat, which the newly risen sun was lighting up, he was a magnificent sight as, with head turning now to the right and now to the left, he walked down the wide lane the deer had made for him. At the stream he lay down and quenched his thirst, then sprang across and, as he entered the dense tree jungle beyond, called three times ।n acknowledgement of the homage the jungle folk had paid him, for from the time he had entered the glade every chital had called, every jungle fowl had cackled, and every one of a troupe of monkeys on the trees had chattered.
जिम कार्बेट को जंगल के जानवरों की न्यायप्रियता पर इंसानों से ज्यादा भरोसा था । एक बार जंगल में उन्होंने इसका अद्भुत नज़ारा देखा । जंगल के खुले मैदान में एक शेरनी महीने भर के बकरी के बच्चे का पीछा करते हुए जिम को दिखी । मेमना शेरनी को आते हुए देखकर मिमियाने लगा और शेरनी ने भी दबे पाँव उसका पीछा करना बंद किया और सीधे उसकी तरफ बढी । जब शेरनी मेमने से कुछ ही गज दूर थी तो बच्चा शेरनी से मिलने उसकी तरफ बढ़ा । शेरनी के बिलकुल नज़दीक पहुंचकर उसने अपना मुख आगे बढ़ाकर शेरनी को सूंघा । दिल में होने वाली दो-चार धडकनों तक जंगल की रानी और मेमना नाक से नाक मिलाये खड़े रहे । फिर अचानक शेरनी पलटी और जिस रास्ते आई थी उसी रास्ते वापस चली गई । जिम ने इस घटना को द्वितीय विश्वयुद्ध मे ख़त्म होने पर ब्रिटिश राज के बड़े नेताओं द्वारा हिटलर और दुश्मन देशों के नेताओं को ‘जंगल का क़ानून ‘ लागू करने संबंधी बयान पर आपत्ति दर्ज करते हुए अपने संस्मरणों में लिखा है कि ‘यदि ईश्वर ने वही क़ानून इंसानों के लिए बनाया होता जो उसने जंगली जानवरों के लिए बनाया है तो कोई जंग होती ही नहीं क्योंकि तब इंसानों में जो ताकतवर होते उनके दिल में अपने से कमजोर लोगों के लिए वही जज्बा होता जोकि जंगल के क़ानून में हम अभी देख चुके हैं ।’
जिम की कहानियों में उन ग्रामीणों का भी वर्णन है जो बड़ी मुफलिसी और गरीबी में अपने दिन गुजार रहे थे । उनकी इन कहानियों के पुनवा, मोती, कुंती, पुनवा की माँ जैसे अनेक नायक हैं जो ईमान की खातिर रुपये पैसे की परवाह नहीं करते थे । उनकी ऐसी ही कहानी का नायक उच्च जाति का ग्रामीण पहाड़ी है जो जंगल में दलित परिवार के दो बिछुड़े बच्चों को खोजकर लाता है और जब उसे घोषित ईनाम के पचास रुपये गाँव के लोग देने की बात करते हैं तो वह यह रकम लेने से ही इनकार कर देता है, क्योंकि उसकी निगाह में पुण्य का कोई मोल नहीं है । जिम की इन काहनियों से हमें तत्कालीन भारत की गरीबी, बाल विवाह, जात-पात, ऊँच नीच के भेदभाव का वर्णन मिलता है।
(श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें सफर रिश्तों का तथा मृग तृष्णा काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता ‘मौत से रूबरू ’। )
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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 45 ☆
☆ मौत से रूबरू ☆
वैसे तो मुझे यहां से जाना ना था,
मुझे अभी तो और जीना था,
कुछ मुझे अपनों के काम आना था,
कुछ अभी दुनियादारी को निभाना था,
एक दिन अचानक मौत रूबरू हो गयी,
मैं घबरा गया मुझे उसके साथ जाना ना था,
मौत ने कहा तुझे इस तरह घबराना ना था,
मुझे तुझे अभी साथ ले जाना ना था,
सुनकर जान में जान आ गयी,
मौत बोली तुझे एक सच बतलाना था,
बोली एक बात कहूं तुझसे,
यहाँ ना कोई तेरा अपना था ना ही कोई अपना है,
मैं मौत से घबरा कर बोला,
मैं अपनों के बीच रहता हूँ यहां हर कोई मेरा अपना है,
मैंने मौत से कहा तुझे कुछ गलतफहमी है,
सब मुझे जी-जान से चाहते हैं हर एक यहां मिलकर रहता है,
मौत बोली बहुत गुमान है तुझे अपनों पर,
तेरे साथ तेरा कोई नहीं जायेगा जिन पर तू गुमान करता है,
मैंने भी मौत से कह दिया,
तुझ पर भरोसा नहीं, तुझ संग कभी इक पल भी नहीं गुजारा है,
भले अपने कितने पराये हो जाये,
मुझे इन पर भरोसा है इनके साथ सारा जीवन बिताया है ||