हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 64 ☆ क्या निस्वार्थ और निष्पक्ष चुनाव सम्भव है? ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख “क्या निस्वार्थ और निष्पक्ष चुनाव सम्भव है?।)

☆ किसलय की कलम से # 64 ☆

☆ क्या निस्वार्थ और निष्पक्ष चुनाव सम्भव है? ☆

चुनाव शब्द का स्मरण होते ही सबसे पहले हमारे जेहन में मतदान, प्रत्याशी, दल और हार-जीत के भाव उभरते हैं, जबकि हम सब जीवन के पग-पग पर चुनाव करते रहते हैं। बिना चुनाव के जिंदगी चलना बहुत मुश्किल है। जीवन में चुनाव का अत्यधिक महत्त्व होता है। जीवन-साथी का चुनाव, निवास स्थान का चुनाव, पोशाकों का चुनाव, यहाँ तक कि हम मित्र के चुनाव में भी सतर्कता बरतते हैं। एक सज्जन व शाकाहारी व्यक्ति किसी सज्जन व्यक्ति को ही मित्र बनाना चाहेगा, लेकिन वह सज्जन व्यक्ति यदि मांसाहारी हो तो क्या वह उसे मित्र के रूप में चयन कर पाएगा? शायद नहीं। एक धनाढ्य प्रेमिका किसी गरीब लड़के को अपना जीवनसाथी चुनती है तो उसका चुनाव विचारधाराओं पर आधारित होता है, जबकि मानव की सदैव यही आकांक्षा होती है कि वह अधिक से अधिक सुख-संपन्न व समृद्ध हो। आशय यही है कि चुनाव में हमारी भावनाएँ, हमारे दृष्टिकोण व हमारे हित भी जुड़े होते हैं।

मेरी दृष्टि से चुनाव कभी निःस्वार्थ नहीं हो सकते। राजनीतिक चुनाव में भी विचारधाराओं की जीत अथवा हार का महत्त्व होता है। यहाँ यह बात मायने नहीं रखती कि हम निष्पक्ष व निस्वार्थ रूप से चयन प्रक्रिया संपन्न करें। हमारी स्वयं की जो विचारधारा अथवा जो दृष्टिकोण होता है हम उसका ही समर्थन करते हैं, और वही सब अपने समाज तथा व्यक्तिगत जीवन में भी चाहते हैं।

राजनीतिक चुनावों में निष्पक्षता  होती ही कहाँ है? हम तो किसी एक पक्ष को चुनते हैं। यदि आप किसी एक पक्ष के व्यक्ति हैं, लेकिन आपके विचारों व भावों वाला उम्मीदवार विपक्ष का है, तब आप किसे चुनेंगे? मुझे तो संशय है कि आप अपनी विचारधारा से मेल खाते विपक्षी उम्मीदवार को चुनेंगे! यहाँ भी आप अपने स्वार्थ को महत्त्व देंगे न कि अपनी विचारधारा को। बड़ी विडंबना है कि आज हम पक्ष और स्वार्थ दोनों के बीच ऐसे भ्रमित रहते हैं कि हमारा उचित निर्णय भी यथार्थ की कसौटी पर खरा नहीं उतरता और हम आदर्श मार्ग चुनते-चुनते रह जाते हैं।

जीवन में उचित चुनाव बेहद जरूरी होते हैं। आपका चुनाव आपकी जिंदगी बदल देता है। आप के शैक्षिक विषयों का चयन, आपके विद्यालय का चयन, आपकी नौकरी का चयन जो, शायद आपकी विचारधारा व रुचियों से मेल नहीं खाता हो फिर भी आप चुनने हेतु बाध्य हो जाते हैं। अर्थात ये चुनाव परिस्थितियों वश निष्पक्ष अथवा निःस्वार्थ हो ही नहीं पाते और यदि हम ऐसा करते हैं तो भविष्य में विकट संघर्ष की स्थितियाँ निर्मित हो सकती हैं। यही हाल संतानोत्पत्ति में संख्या व लिंग का होता है, संतानों के भविष्य निर्माण को लेकर निर्णय की होती है। बड़ी विचित्र बात है कि जब हमें अनेक अवसरों पर अपने हित-अहित का चुनाव स्वयं करना होता है, तब भी हम अपने उद्देश्यों में सफल नहीं हो पाते! आखिर समाज में रहने की खातिर वह सब क्यों करते हैं जो एक आदर्श मार्ग की ओर ले जाने से हमें रोकता है। तब इसका हल क्या हो सकता है? तब यह जरूर कहा जा सकता है कि यह भी हमारे वश में है, बशर्ते आप ने प्रारंभ में ही शिक्षा और संस्कार प्राप्त किए हों। यदि इस दायित्व को हम अपने अभिभावकों पर भी छोड़ दें तो भी हम अपनी बालसुलभ प्रवृत्तियों के चलते कई बार सुसंस्कारों व शिक्षा को अपेक्षाकृत कम हृदयंगम कर पाते हैं। एक अन्य बात भी अक्सर देखी जाती है कि हम अपने बुजुर्गों के अनुभवों का लाभ जानबूझकर नहीं उठाते। हम यह समझने की कोशिश ही नहीं करते कि हमारे बुजुर्गों ने जिन अनुभवों को प्राप्त करने में वर्षों लगाये हैं, उन्हें आधार बनाकर उसके बढ़ना चाहिए। बल्कि आप पुनः शून्य से वही प्रक्रिया प्रारंभ करते हैं जिससे आपके बहुमूल्य जीवन का एक लंबा समय जाया होता है। क्या यह  चुनाव आपकी समय बर्बादी या प्रगति में विलंब का कारण नहीं है? अधिकांशत यही नवपीढ़ी द्वारा चयन की त्रुटि बन जाती है।

आज का मानव आदर्श, नैतिकमूल्य, परोपकार, निस्वार्थता, निष्पक्षता, सौहार्दता, दायित्व निर्वहन आदि को किताबी बातें मानने लगा है। चुनाव करते वक्त आज प्रसिद्धि, लोकप्रियता, संपन्नता आदि बातों का ध्यान रखा जाने लगा है। जिन बातों से स्वार्थ सिद्ध हो उसे लोग अपना लेते हैं, भले ही वे अन्य दृष्टियों में कमतर अथवा विपरीत क्यों न हों।

तब क्या जीवन भर हमें निष्पक्ष अथवा निस्वार्थभाव से ही चुनाव करते रहना चाहिए? यदि ऐसा होता है तब समाज में तरह-तरह की विसंगतियाँ भी उत्पन्न होने की संभावनाएँ बढ़ जाएँगी। हम विपक्षी उम्मीदवार को चुनने लगेंगे। हम मनपसंद प्रेमी अथवा प्रेमिका को न चुनकर किसी और का चयन करने लगेंगे। हम निस्वार्थ भाव से नौकरी करेंगे जो इस जमाने में पागलपन ही कहलाएगा।

अंत में हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि परिवार, समाज और देश को चलाने के लिए हमें अपनी विचारधारा तथा निष्पक्षता में सामंजस्य बिठाना होगा, तब ही हम अपनी और अपने समाज की गाड़ी वर्तमान सामाजिक व्यवस्थाओं के बीच आगे ले जाने में सफल हो सकेंगे। हमें इसमें निश्चित रूप से कुछ खोना भी पड़ सकता है। मिलने की संभावनाएँ और आशाएँ तो रहती ही हैं। कहा भी गया है कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है।

इस तरह मानव जीवन में जब भी चुनाव की परिस्थितियाँ निर्मित हो तो हमें स्वयं के साथ-साथ समाज के भी हितों का ध्यान रखना चाहिए, क्योंकि हम स्वयं, परिवार और समाज परस्पर जुड़े हुए हैं।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #112 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 112 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

थर थर  वो तो कांपती, बड़ी ठंड है यार।

गले लगा लो तुम इसे, कर लो इससे प्यार।।

 

मार्गशीर्ष की सुबह तो, गाती शीतल  गीत।

मिल बैठो तुम संग तो, बन जाओ मनमीत।।

 

ठंड जरा बढ़ने लगी, आया कंबल याद।

जाड़े में करने लगे, गरमी की फरियाद।।

 

ठंड ठंड अब मत कहो, लो इसका आनंद।

खुश होकर दिन काटते, लिखते प्यारे छंद।।

 

ठिठुर ठिठुर कर रह गया, दे दी उसने जान।

हिम की चादर ने उसे, दिया कफन का मान।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 101 ☆ दुनिया को तुम क्या नया  दोगे…. ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  एवं विचारणीय रचना  “दुनिया को तुम क्या नया  दोगे…. । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 101 ☆

☆ दुनिया को तुम क्या नया  दोगे….

वहशी, नफरत, हवस, नशा दोगे

अपनी नस्लों को और क्या दोगे

 

मुहब्बतें रात भर सिसकती रहीं

वफ़ा का क्या यही सिला  दोगे

 

हाथ मसीहों के लिप्त हैं नशे में

तुम समाज को क्या  दिशा दोगे

 

दौलत की रंग-ए-महफ़िल यहाँ

क्या    नशे  में डूबे   युवा   दोगे

 

खुद को भूले  नशे की झोंक में

दुनिया को तुम क्या नया  दोगे

 

कौन   लाएगा   इन्हें  होश  में

“संतोष” लत की क्या दवा दोगे

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 106 – स्वीकार  … ! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? साप्ताहिक स्तम्भ # 106 – विजय साहित्य ?

☆ स्वीकार  .. . !  कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

अपघातानं

आलेलं

एकुलत्या 

एक मुलाचं

अपंगत्व

तिनं स्वीकारलं

पचवलं

पण

अपघातानं

आलेलं वैधव्य

समाज स्वीकारेल ?

तिला जगू देईल

उजळ माथ्याने ?

तिच्या कुटुंबासाठी . . . !

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते 

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  9371319798.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ चं म त ग ! ☆ टेक्निक ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? विविधा ?

? चं म त ग ! ⭐ श्री प्रमोद वामन वर्तक ⭐

? टेक्निक ! ??

“अगं ऐकलंस का, एक फक्कडसा चहा आण बघू, खूप दमलोय !”

“एवढ दमायला काय झालंय तुम्हांला ? चाळीतल्या पोरांनी ख्रिसमससाठी बनवलेलं ख्रिसमस ट्री  चढून एकदम घरात नाही नां आलात ?”

“काहीतरीच काय तुझं ? मला अजून पायाखालच नीट दिसतंय ! तुझ्या सारख्या त्या टीव्हीवरच्या रटाळ सिरीयल बघून, मला चष्मा नाही लागलाय अजून !”

“कळलं कळलं ! आता दमायला काय झालंय ते सांगा ?”

“अगं हे काय आणलंय ते बघ तरी !”

“अ s s ग्गो बाई ! डिनर सेट !”

“करेक्ट, अगं आपल्याला लग्नात मिळालेला डिनर सेट आता किती जुना झालाय ! म्हटलं घेऊन टाकू एक नवीन !”

“हो, पण त्यात एवढं दमायला काय झालंय म्हणते मी ?”

“अगं तो बॉक्स जरा उचलून तर बघ ! सेव्हन्टी टू पिसेसचा अनब्रेकेबल डिनर सेट आहे म्हटलं ! एवढा जड डिनर सेट दोन जिने चढून आणल्यावर दम नाही का लागणार ?”

“अगं बाई, खरच जड आहे हो हा !”

“आता पटली खात्री, मी का दमलोय त्याची ! मग आता तरी आणशील ना चहा ?”

“एकच मिनिटं हं !”

“आता का s य s ?”

“अहो, या बॉक्सवर Hilton कंपनीच नांव आहे !”

“बरोबर, म्हणजे तुला इंग्लिश वाचता येतं तर !”

“उगाच फालतू जोक्स नकोयत मला !”

“यात कसला जोक? तू नांव बरोब्बर वाचलंस म्हणून……”

“तुम्हांला ना, खरेदीतल काही म्हणजे काही कळत नाही !”

“आता यात न कळण्यासारखं काय आहे ? हा डिनर सेट नाही तर काय लेमन सेट आहे ?”

“तसं नाही, अहो Milton कंपनी डिनर सेट बनवण्यात प्रसिद्ध आहे आणि तुम्ही आणलात Hilton चा डिनर सेट, कळलं ! कुठून आणलात हा सेट ?”

“अगं तुझ्या नेहमीच्या ‘महावीर स्टोर्स’ मधून ! तो मालक मला म्हणाला पण, काय शेट आज भाभीजी नाय काय आल्या तुमच्या संगाती ! मी म्हटलं शेठ, तुमच्या भाभीजीला सरप्राईज देणार आहे आज, म्हणून तिला नाही आणलं बरोबर !”

“आणि पायावर धोंडा मारून घेतला !”

“आता यात कसला पायावर धोंडा ?”

“अहो Milton च्या ऐवजी Hilton चा डिनर सेट आणलात नां ?”

“अगं तो शेठच म्हणाला, ही Hilton कंपनी नवीन आहे, पण चांगले डिनर सेट बनवते आणि Milton पेक्षा खूपच स्वस्त, म्हणून….”

“स्व s s स्त s s ! एरवी मी दुकानात घासाघिस करतांना मला अडवता आणि आज स्वतःच डुप्लिकेट माल घेऊन आलात ना ?”

“यात कसला डुप्लिकेट माल ? हे बघ या बॉक्सवर चक्क लिहलय, Export Quality, Made in USA !”

“अहो, USA म्हणजे उल्हासनगर सिंधी अससोसिएशन पण होऊ शकत ना ? मला सांगा, हा डिनर सेट अनब्रेकेबल आहे कशावरून ?”

“अग असं काय करतेस ? शेटजीनी मला एक सूप बाउल आणि एक डिश खाली जमिनीवर आपटून पण दाखवली !”

“मग ?”

“मग काय मग, ते दोन्ही फुटले नाहीत, म्हणजे तो सेट अनब्रेकेबल नाही का ?”

“फक्त दोनच आयटम जमिनीवर टेस्ट केले ? सगळा डिनर सेट नाही ?”

“काय गं, तुम्ही बायका भात तयार झालाय की नाही हे बघायला, फक्त त्यातली एक दोनच शीत चेपून बघता ना ? का त्यासाठी अख्खा भात चिवडता ?”

“अहो भाताची गोष्ट वेगळी आणि डिनर सेटची गोष्ट वेगळी !”

“ठीक आहे, मग हा सूप बाउल घे आणि तूच बघ जमिनीवर टाकून.”

असं बोलून मी बायकोच्या हातात त्या सेट मधला सूप बाउल दिला ! तिने तो हातात घेऊन मला विचारलं

“नक्की नां ?”

“अगं बिनधास्त टाक, अनब्रेकेबल…”

माझं वाक्य पूरं व्हायच्या आत बायकोने तो सूप बाउल जमिनीवर टाकला आणि त्याचे एक दोन नाही तर चक्क चार तुकडे झाले मंडळी !

“आता बोला ? हा डिनर सेट अनब्रेकेबल आहे म्हणून !”

“अगं पण शेठजीने खरंच सूप बाउल खाली टाकला होता पण त्याला साधं खरचटलं पण नाही. शिवाय…..!”

“एक डिश पण नां ?”

असं बोलून तिने सेट मधली एक डिश घेतली आणि ती पण जमिनीवर टाकली. मंडळी काय सांगू तुम्हांला, ती डिश पण सूप बाउलच्या मागोमाग निजधामास गेली ! ते बघताच मी उसन अवसान आणून बायकोला म्हटलं, “अगं पण माझ्या समोर त्याने या दोन गोष्टी टाकल्या त्या कशा फुटल्या नाही म्हणतो मी ?”

“अहो हेच तर त्या व्यपाऱ्यांच टेक्निक असतं !”

“टेक्निक, कसलं टेक्निक ?”

“अहो त्यांचे खायचे दात वेगळे आणि दाखवायचे दात वेगळे असतात, हे तुम्हांला कधीच कळणार नाही !”

“म्हणजे ?”

“मला सांगा, त्या शेठने ज्या सेट मधल्या बाउल आणि डिश खाली टाकल्या तो सेट तुम्हांला दिला का ?”

“नाही नां, मला म्हणाला तो शोकेसचा पीस आहे, मी तुम्हांला पेटी पॅक सेट देतो !”

“आणि तुम्ही भोळे सांब त्याच्यावर विश्वास ठेवून पेटी पॅक सेट घेवून आलात, बरोबर नां ?”

“होय गं, पण मग आता काय करायच ?”

“आता तुम्ही नां, मेहेरबानी करून काहीच करू नका ! फक्त तो बॉक्स द्या माझ्याकडे, मी बघते काय करायच ते !”

“अगं पण….”

“आता पण नाही आणि बिण नाही, आता मी माझं टेक्निक दाखवते शेटजीला ! ही गेले आणि ही परत आले ! आणि हो, मी येई पर्यंत आपल्या दोघांसाठी चहा करा जरा फक्कडसा !”

असं बोलून बायकोने तो बॉक्स लिलया उचलला आणि ती घराबाहेर पडली ! मी आज्ञाधारक नवऱ्यासारखा चहा करायला किचन मधे गेलो ! माझा चहा तयार होतोय न होतोय, तेवढ्यात हिचा विजयी स्वर कानावर आला “हे घ्या !” असं म्हणत बायकोने Milton च्या डिनर सेटचा बॉक्स जवळ जवळ माझ्यासमोर आपटलाच !

“अगं हळू, किती जोरात टाकलास बॉक्स ! सेट फुटेल नां आतला !”

“आ s हा s हा s ! काय तर म्हणे सेट फुटेल ! अहो हा काय तुम्ही आणलेला डुप्लिकेट Hilton चा सेट थोडाच आहे फुटायला ?  ओरिजिनल Milton चा डिनर सेट आहे म्हटलं !”

“काय सांगतेस काय, Milton चा डिनर सेट ? अगं पण त्या शेटनं तो बदलून कसा काय दिला तुला ?”

“त्या साठी मी माझं टेक्निक वापरलं !”

“कसलं टेक्निक ?”

“लोणकढीच टेक्निक !”

“म्हणजे ?”

“अहो मी त्याला लोणकढी थाप मारली, की तू जर का मला हा Hilton चा सेट बदलून Milton चा सेट दिलास, तर मी आणखी पन्नास Milton चे सेट तुझ्याकडून घेईन !”

“काय आणखी पन्नास Milton चे डिनर सेट ? काय दुकान वगैरे….”

“अहो, मी त्याला सांगितलं पुढच्या महिन्यात माझ्या नणंदेच लग्न आहे. तेंव्हा पाहुण्यांना रिटर्न गिफ्ट म्हणून मला ते हवे आहेत !”

“अगं पण तुला मुळात नणंदच नाही तर तीच लग्न…..”

“अहो हेच ते माझं  लोणकढीच टेक्निक !”

“धन्य आहे तुझी !”

© श्री प्रमोद वामन वर्तक

२४-१२-२०२१

(सिंगापूर) +6594708959

मो – 9892561086

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 80 ☆ एक और फोन कॉल … ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है कोविड महामारी की काली छाया में उपजी सच्ची कहानियों पर आधारित हृदय को झकझोरने वाली लघुकथा ‘एक और फोन कॉल ’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 80 ☆

☆ लघुकथा – एक और फोन कॉल … ☆

फोन की घंटी बजती तो पूरे परिवार में सन्नाटा छा जाता। किसी की हिम्मत ही नहीं होती फोन उठाने की। पता नहीं कब, कहाँ से बुरी खबर आ जाए। ऐसे ही एक फोन कॉल ने तन्मय के ना होने की खबर दी थी।  तन्मय कोविड पॉजिटिव होने पर खुद ही गाडी चलाकर गया था अस्पताल में एडमिट होने के लिए। डॉक्टर्स बोल रहे थे कि चिंता की कोई बात नहीं, सब ठीक है। उसके बाद उसे क्या हुआ कुछ समझ में ही नहीं आया।अचानक एक दिन अस्पताल से फोन आया कि तन्मय नहीं रहा।  एक पल में  सब कुछ शून्य में बदल गया। ठहर गई जिंदगी। बच्चों के मासूम चेहरों पर उदासी मानों थम गई।  वह बहुत दिन तक समझ ही नहीं सकी कि जिंदगी  कहाँ से शुरू करे। हर तरह से उस पर ही तो निर्भर थी अब जैसे कटी पतंग। एकदम अकेली महसूस कर रही थी अपने आप को। कभी लगता क्या करना है जीकर ? अपने हाथ में कुछ है ही नहीं तो क्या फायदा इस जीवन का ? तन्मय का यूँ अचानक चले जाना भीतर तक खोखला कर गया उसे।

ऐसी ही एक उदास शाम को फोन की घंटी बज उठी, बेटी ने फोन उठाया।  अनजान आवाज में कोई कह रहा था – ‘बहुत अफसोस हुआ जानकर कि कोविड के कारण आपके मम्मी –पापा दोनों नहीं रहे।  बेटी ! कोई जरूरत हो तो बताना, मैं आपके सामनेवाले फ्लैट में ही रहता हूँ।’

बेटी फोन पर रोती हुई, काँपती आवाज में जोर–जोर से कह रही थी – ‘मेरी मम्मी जिंदा हैं, जिंदा हैं मम्मा। पापा को कोविड हुआ था, मम्मी को कुछ नहीं हुआ है। हमें आपकी कोई जरूरत नहीं है। मैंने कहा ना  मम्मी —‘

और तब से वह जिंदा है।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 100 – लघुकथा – नेताजी के अरमान ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  लघुकथा  “नेताजी के अरमान।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 100 ☆

☆ लघुकथा — नेताजी के अरमान ☆ 

नेता ने अपने पास बैठते ही ठेकेदार से कहा, “आजकल बहुत बड़े ठेकेदार बन गए हो। सुना हैं जिसका ठेका मिला है उसे बिना उद्घाटन भी चालू करवाना चाहते हो।”

“जी वह ऐसा है कि….”

“हां, जानता हूं। कोई न कोई बहाना बना कर पैसा बचाना चाहते हो? सोचते हो कि उद्घाटन में जितना पैसा खर्च होगा, उतने में दूसरा अन्य काम कर लोगे? यही ना?”

“नहीं, नेताजी ऐसी बात नहीं है. मैं उद्घाटन तो करना चाहता हूं, मगर, समझ में नहीं आ रहा है कि….”

“समझना क्या है। अच्छासा कार्यक्रम रखो। लोगों को बुलाओ। हम वहां अपने चुनाव का प्रचार भी कर लेंगे और तुम्हारे कार्य का अच्छा आरम्भ भी हो जाएगा।”

“मगर, मैं नहीं चाहता कि उसका उद्घाटन हो।” ठेकेदार अपने कागज पर कुछ हिसाब लिखते हुए बोला, “आप को कुछ पैसा देना था?”

“लेना देना चलता रहेगा। आपको दूसरा ठेका भी मिल जाएगा। मगर इस ठेके का क्या हुआ, जो आपने सीधे-सीधे कार्यालय से ले लिया था। जिसकी भनक तक हमें लगने नहीं दी। मगर इस बार चुनाव है। हम आपका पीछा नहीं छोड़ेंगे। इसका उद्घाटन बड़े धूमधाम से करवाएंगे।”

“हम इसका उद्घाटन नहीं कर सकते हैं नेताजी,” ठेकेदार ने नेताजी की जिद से घबराकर नेताजी को समझाना चाहा। लेकिन नेताजी सुनने के मूड में नहीं थे।

यह सुनते ही नेताजी को गुस्सा आ गया, “जानते हो तुम, हमारे साथ रहकर ठेकेदारी करना सीखे हो। हमारा साथ रहेगा तभी आगे बढ़ पाओगे। फिर इसका उद्घाटन धूमधाम से क्यों नहीं करवाना चाहते हो? या हमारा प्रचार करने में कोई दिक्कत हो रही है?”

“जी नहीं, नेताजी। हम आपके साथ हैं। मगर आप जानते हो हमने किसका ठेका लिया है? जिसका आप धूमधाम से उद्घाटन करना चाहते हो,” ठेकेदार ने सीधे खड़े होकर कहा, “वह श्मशान घाट के अग्निदाह के कमरे का ठेका था। वहाँ किसका उद्घाटन करके भाषण दीजिएगा?”

यह सुनते ही नेताजी को साँप सूँघ गया और उन्हें अपनी मनोकामना की लाश अग्निदाह वाले कमरे में जलती नजर आने लगी।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 134 ☆ कविता – संतुलन ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा लिखित एक भावप्रवण कविता  ‘संतुलन’ । इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 134 ☆

? कविता – संतुलन ?

*

संतुलन ही तो है

जीवन

समय के पहिये पर

भागम भाग के कांटे

जरा चूक हुई

और गिरे

*

पार करना है

अकेले

जन्म और जीवन की पूर्णता

के बीच बंधी रस्सी

अपने कौशल से

*

जो इस सफर को

मुस्कुरा कर

बुद्धिमत्ता से पूरा कर लेते हैं

उनके लिए

तालियां बजाती है दुनिया

उनकी मिसाल दी जाती है

और

जो बीच सफर में

लुढ़क जाते हैं

असफल

वे भुला दिए जाते हैं जल्दी ही ।

*

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी आलेख ☆ वेद व पुराण काळातील महत्वपूर्ण स्त्रिया: सावित्री ☆ सौ कुंदा कुलकर्णी

सौ कुंदा कुलकर्णी

 ? वेद व पुराण काळातील महत्वपूर्ण स्त्रिया ?

☆ सावित्री ☆ सौ कुंदा कुलकर्णी ☆ 

सावित्री ही सृष्टी कर्त्या ब्रह्मदेवाची पत्नी. ब्रह्मदेवाने सृष्टीची निर्मिती केली . महाप्रलयानंतर भगवान नारायण बराच काळ योग निद्रेत मग्न होते. ते जागृत झाले तेव्हा त्यांच्या नाभीतून एक दिव्य कमळ उगवले. त्या कमळातून ब्रह्मदेवाचा जन्म झाला. ब्रम्हा हा विश्वाचा मूळ निर्माता, प्रजापती, पितामह आणि हिरण्यगर्भ आहे. पण अख्ख्या विश्वात त्याचे मंदिर फक्त राजस्थान येथील पुष्कर सरोवरात आहे. याचे कारण त्याची पत्नी सावित्री  हिने दिलेला शाप.

ब्रम्हा कृतयुगे

पूज्यस्त्त्रेतायां

यज्ञ उच्चते !

द्वापरे पूज्यते

विष्णूवहं

पूज्यश्चतुर्ष्वपि

( ब्रम्हांडपुराण)

कृतयुगात ब्रम्हा पूज्य, त्रेतायुगात यज्ञ पूज्य, द्वापार युगात विष्णू पूज्य व चारही युगात मी( शिव) पूज्य आहे. असे ब्रम्हांड पुराणात सांगितले आहे. या श्लोकावरून सुरुवातीच्या काळात ब्रम्हा ची पूजा प्रचलित होती हे समजते. त्यानंतर वैदिक धर्मात यज्ञयागा ला प्राधान्य मिळाले.

ब्रह्मा आणि त्यांची पत्नी सावित्री यांनी एकदा मोठा यज्ञ करायचे ठरवले. सृष्टीचे कल्याण व्हावे म्हणून त्यांनी पुष्कर येथे यज्ञाचे आयोजन केले. नारदादी सर्व देव , ब्राह्मण उपस्थित झाले. यज्ञा चा मुहूर्त जवळ आला पण सावित्री चा पत्ता नव्हता. मुहूर्त साधण्यासाठी भगवान विष्णूच्या आदेशाने ब्रह्माने नंदिनी गायीच्या मुखातून एका स्त्रीची निर्मिती केली. तिचे नाव गायत्री ठेवले. पुरोहितांनी ब्रम्हाचे तिच्याशी लग्न लावले व यज्ञास सुरुवात केली. इतक्यात सावित्री तेथे आली. आपल्या जागी गायत्री पाहून ती रागाने बेभान झाली. तिने ब्रम्हा ला शाप दिला की ज्या सृष्टीच्या कल्याणासाठी यज्ञ सुरू केलास आणि माझा विसर पडला त्या सृष्टीत तुझी पूजा कोणीही करणार नाही. तुझे मंदिर बांधण्याचा प्रयत्न कोणी केला तर त्याचा नाश होईल. पतिव्रतेचा शाप खरा ठरला व आज तागायत ब्रह्मदेवाचे मंदिर कुठेही बांधले गेले नाही. तिची शापवाणी ऐकून सर्व देव देवता भयभीत झाले त्यांनी तिला शाप मागे घेण्याची विनंती केली. काही वेळाने तिचा राग शांत झाला व तिने ऊ:शाप दिला या पृथ्वीवर के वळ पुष्कर मध्ये तुझी पूजा केली जाईल. तेव्हापासून पुष्‍कर खेरीज कुठेही ब्रह्मदेवाचे देऊळ नाही व पूजाही केली जात नाही.

सावित्रीने ब्रम्हा ला शाप दिलाच पण विष्णूनेही साथ दिली म्हणून त्याला ही शाप दिला की तुम्हाला पत्नी विरहाच्या यातना भोगाव्या लागतील. भगवान विष्णू ने राम अवतार घेतला त्यावेळी त्याला 14 साल पत्नी विरह सहन करावा लागला. नारदाने ब्रह्माच्या विवाहाला संमती दिली म्हणून नारदाला शाप दिला तुम्ही आजीवन एकटेच रहाल. नारद मुनींचे लग्न झाले नाही. ब्राम्हणांनी हे लग्न लावले म्हणून सर्व ब्राह्मण जातीला शाप दिला तुम्हाला कितीही दान मिळाले तरी तुमचे समाधान कधीच होणार नाही तुम्ही कायम असंतुष्टच रहाल. ज्या गायीच्या मुखातून गायत्री निर्माण झाली त्या गाईला शाप दिला की कलियुगात तुम्ही घाण खाल. व हे सारे अग्नीच्या साक्षीने घडले म्हणून अग्नीला शाप दिला की कलियुगात तुमचा अपमान होईल. राग शांत झाल्यावर कोणाचेही न ऐकता ती पुष्कर तीर्था च्या मागे रत्नागिरी पर्वतावर निघून गेली. त्या ठिकाणी सावित्री मंदिर बांधले आहे. समुद्रसपाटीपासून दोन हजार तीनशे फूट उंचीवर ते मंदिर आहे. तिथे जाण्यासाठी शेकडो पायऱ्या चढाव्या लागतात. पण भाविक लोक आजही तिथे जातात.

राजस्थानात पुष्कर मध्ये ब्रम्हा इतकेच सावित्रीला पूज्य मानतात. तिला सौभाग्यदेवता मानतात. स्त्रिया भक्तिभावाने तिथे तिची पूजा करतात. तिथे मेंदी बांगड्या बिंदी तिला अर्पण करून भक्तिभावाने ओटी भरतात आणि सौभाग्याचे दान मागतात. इथे राहून सावित्री आजही आपल्या भक्तांचे रक्षण करते. अशी ही तेजस्वी पतिव्रता. पण अन्याय सहन करू शकली नाही. व तिचा राग योग्य असल्यामुळे ब्रह्मदेवाचे ही तिच्यापुढे काही चालले नाही. या सर्व प्रकारा मध्ये गायत्रीची काहीच चूक नव्हती म्हणून तिने तिला कोणताही शाप दिला नाही हे तिचे मोठेपण. आपल्या हक्कासाठी लढणाऱ्या या मानी देवतेला कोटी कोटी प्रणाम.

© सौ. कुंदा कुलकर्णी ग्रामोपाध्ये

क्यू 17,  मौर्य विहार, सहजानंद सोसायटी जवळ कोथरूड पुणे

मो. 9527460290

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #112 – कविता – अजनबी हैं…☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं एक अतिसुन्दर विचारणीय कविता  “अजनबी हैं…”)

☆  तन्मय साहित्य  #112 ☆

☆ कविता – अजनबी हैं…

अजनबी हैं, अपरिचय

बस एक यह पहचान है

बिन पते की मेढ़ पर

तैनात सजग मचान है।

 

गुलेलों से कंकड़ों के

वार फसलों पर

दिग्भ्रमित  पंछी

पड़ी है गाज नस्लों पर

देखता  हूँ  मंसूबे

अच्छे नहीं उनके

कर रहे तकरार वे

बेकार  मसलों पर

कलम की पैनी नजर का

इन सभी पर ध्यान है।

अजनबी हैं….

 

इन मचानों पर

उमड़ती घुमड़ती छाया

चार खंबों  पर 

टिकी है जर्जरी  काया

डगमगाने  भी  लगे हैं 

स्तंभ  अब  चारों

गीत फिर भी अमरता

का ही सदा गाया

हुआ तब वैराग्य जब

देखा कभी शमशान है।

अजनबी हैं……

 

है नहीं खिड़की

न दरवाजे, न दीवारें

विमल मन आकाश

हँसते चाँद औ’ तारे

बंद कर ताले,

हिफाजत चाबियों की फिर

ये  अजूबे  खेल  लगते

व्यर्थ  अब  सारे

बोझ अब लगने लगे

रंगीन नव परिधान है।

अजनबी हैं……

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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