हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 26 – सजल – सीमा पर हैं खड़े बाँकुरे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है दोहाश्रित सजल “सीमा पर हैं खड़े बाँकुरे… । आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 26 – सजल – सीमा पर हैं खड़े बाँकुरे… 

समांत- आया

पदांत- अपदांत

मात्राभार- 30

 

श्रीनगर के लाल चौक पर,

आज तिरंगा मुस्कराया।

आजादी पश्चात् है देखो,

बड़ी शान से लहराया।।

 

जान हथेली रख कितनों ने,

फहराने की कोशिश की,

कालनेमि के षड़यंत्रों ने ,

हर पथ रोड़ा अटकाया।

 

घाटी में आतंकी छाए

जिसे स्वर्ग सब कहते हैं,

खून खराबा दहशतगर्दी,

कर वर्षों से उलझाया।

 

साँप पले थे आस्तीनों में

हाथों में पत्थर रखते थे,

अपने फौजी घायल करते

भारत का दिल दुखलाया।

 

दुश्मन के हाथों बिक जाते,

कुछ दो कौड़ी नेता गण,

जब चाहे वे चरण चाटते,

नहीं देश को है भाया।

 

मुँह काला हो गया सभी का

सपने चकनाचूर हुए,

भारत की शक्ति के आगे,

अरि की अकड़ को झुठलाया।

 

तीन सौ सत्तर हटा देश से,

एक राष्ट्र स्वीकार हुआ,

समाधान हो गया देश का,

भारत ने है नाम कमाया।

 

हर विकास की गंगा को,

लेकर भागीरथ आए हैं।

होगा नव निर्माण देश में,

स्वर्ग-गगन है हर्षाया।

 

काश्मीर मस्तक भारत का,

आँच कभी ना आएगी।

सीमा पर हैं खड़े बाँकुरे,

दुश्मन भी अब घबराया।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 149 ☆ व्यंग्य – बुरा मानकर भी कर क्या लोगे ! ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय  व्यंग्य बुरा मानकर भी कर क्या लोगे !

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 149 ☆

? व्यंग्य – बुरा मानकर भी कर क्या लोगे ! ?

बुरा न मानो होली है कहकर, बुरा मानने लायक कई वारदातें हमारे आपके साथ घट गईं. होली हो ली. सबको अच्छी तरह समझ आ जाना चाहिये कि बुरा मानकर भी हम सिवाय अपने किसी का कुछ बिगाड़ नहीं सकते.बुरा तो लगता है जब धार्मिक स्थल राजनैतिक फतवे जारी करने के केंद्र बनते दिखते हैं. अच्छा नहीं लगता जब  सप्ताह के दिन विशेष भरी दोपहर पूजा इबादत के लिये इकट्ठे हुये लोग राजनैतिक मंथन करते नजर आते हैं. बुरा लगता है जब सोशल मीडीया की ताकत का उपयोग भोली भीड़ को गुमराह करने में होता दिखता है. बुरा लगता है जब काले कपड़े में लड़कियों को गठरी बनाने की साजिश होती समझ आती है. बुरा लगता है जब भैंस के आगे बीन बजाते रहने पर भी भैंस खड़ी  पगुराती ही रह जाती है.  बुरा लगता है जब मंच से चीख चीख कर भीड़ को वास्तविकता समझाने की हर कोशिश परिणामों में बेकार हो जाती है. इसलिये राग गर्दभ में सुर से सुर मिलाने में ही भलाई है. यही लोकतंत्र है. जो राग गर्दभ में आलाप मिलायेंगे, ताल बैठायेंगे,  भैया जी ! वे ही नवाजे जायेंगे. जो सही धुन बताने के लिये अपनी ढ़पली का अपना अलग राग बजाने की कोशिश करेंगे, भीड़ उन्हें दरकिनारे कर देगी. भीड़ के चेहरे रंगे पुते होते हैं. भीड़ के चेहरों के नाम नहीं होते. भीड़ जिससे भिड़ जाये उसका हारना तय है. लोकतंत्र में भीड़ के पास वोट होते हैं और वोट के बूते ही सत्ता होती है.

सत्ता वही करती है जो भीड़ चाहती है. भीड़ सड़क जाम कर सकती है, भीड़ थियेटर में जयकारा लगा सकती है,  भीड़ मारपीट, गाली गलौज, कुछ भी कर सकती है. फ्री बिजली, फ्री पानी, फ्री राशन और मुफ्तखोरी के लुभावने वादों से भीड़ खरीदना लोकतांत्रिक कला है.  बेरोजगारी भत्ते, मातृत्व भत्ते, कुपोषण भत्ते, उम्रदराज होने पर वरिष्ठता भत्ते जैसे आकर्षक शब्दों के बैनरों से बनी योजनाओ से बिन मेहनत कमाई के जनोन्मुखी कार्यक्रम भीड़ को वोट बैंक बनाये रखते हैं.

भीड़ बिकती समझ आती है पर बुरा मानकर भी कर क्या लोगे ! खरीदने बिकने के सिलसिले मन ही मन समझने के लिये होते हैं, बुरा भला मानने के लिये नहीं. खिलाड़ियो को नीलामी में बड़ी बड़ी कीमतों पर सरे आम खरीद कर, एक रंग की पोशाक की लीग टीमें बनाई जाती हैं. मैच होते हैं, भीड़ का काम बिके हुये खिलाड़ियों को चीयर करना होता है. चीयर गर्ल्स भीड़ का मनोरंजन करती हैं. भीड़ में शामिल हर चेहरा व्यवस्था की इकाई होता है. ये चेहरे सट्टा लगाते है, हार जीत होती है करोड़ो के वारे न्यारे होते हैं. बुद्धिमान भीड़ को हांकते हैं. जैसे चरवाहा भेड़ों को हांकता है. भीड़ को भेड़ चाल पसंद होती है. भीड़ तालियां पीटकर समर्थन करती है.  काले झंडे दिखाकर, टमाटर फेंककर और हूट करके भीड़ विरोध जताती है. आग लगाकर, तोड़ फोड़ करके भीड़ गुम हो जाती है.  भीड़ को कही गई कड़वी बात भी किसी के लिये व्यक्तिगत नहीं होती. भीड़ उन्मादी होती है. भीड़ के उन्माद को दिशा देने वाला जननायक बन जाता है. 

भीड़ के कारनामों का बुरा नहीं मानना चाहिये, बल्कि किसी पुरातन संदर्भ से गलत सही तरीके से उसे जोड़कर सही साबित कर देने में ही वाहवाही होती है. भीड़ प्रसन्न तो सब अमन चैन. सो बुरा न मानो, होली है, और जो बुरा मान भी जाओगे तो कुछ कर न सकोगे क्योंकि तुम भीड़ नही हो, और अकेला चना भाड़ नही फोड़ सकता. इसलिये भीड़ भाड़ में बने रहो, मन लगा रहेगा.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ मोबाइल है, या मुसीबत  – भाग – 1 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है एक संस्मरणात्मक आलेख – “मोबाइल है, या मुसीबत.)

☆ आलेख ☆ मोबाइल है, या मुसीबत  – भाग – 1 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

अभी मैने जैसे ही लिखा, कि मोबाइल के भीतर से एक आवाज़ आई “जिस थाली में खाते हो उसी में छेद करते हो”, नाशुक्रे, गद्दार, एहसानफरामोश, नमकहराम।

हमने उसे कहा ज़रा रुको अभी आगे तो देखो! तुम तो हमारे जैसे बुजुर्गों के समान अधीर हो रहे हो। पूरी बात सुनते नहीं और अपना रोना रोने लग जाते हो। हम तो सठिया गए है, तुम तो अभी अभी पैदा ही हुए हो।

मोबाइल भी आज  सुनने के मूड में था, पुरानी कोई कसक रही होगी!  

दिवाली पर मैं भी छः वर्ष का हो जाऊंगा, बैटरी जवाब दे रही है। दिन भर बिजली का करंट लगता रहता है। इतने सारे ग्रुप बना लिए हो, मेमोरी भी हमेशा लबालब रहती है, जैसे कि भादों में उफनाती नदियां हो जाती है। मेरे स्क्रीन पर इतने स्क्रेचेस है, जितने आपके चेहरे पर झुरियां नही हैं। हर एक सेकंड में कोई नया SMS आ जाता है, और तो और, आप भी हर SMSपर प्रतिक्रिया करने में All India Ranker के टॉप दस में रहते हो। दिन भर आंखे गड़ाए इंतजार करते रहते हो। कोई नया MSG आए तो बिना पढ़े ही दूसरे ग्रुप में सांझा कर Most active मेंबर की ट्रॉफी पर हक़ बना रहे।

अब तो सुबह उठने के लिए मुझे ही मुर्गा बना रखा है, प्रातः और सांय भ्रमण में भी मुझसे अपने कदम गिनवा लेते हो।    

तंग आकर मैंने कहा बस कर मेरे बाप!            

आप लोगों को बताना कुछ और चाह रहा था।

खैर अब शेष लिखूंगा भाग 2 में📱

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 118 – कविता – होली के रंग… ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है होली / रंग पंचमी पर्व पर विशेष कविता  “*होली के रंग … *”। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 118 ☆

☆ कविता – होली के रंग  

कभी भंग ऐसा चढता

अपनों को लगाए रंग।

गिले-शिकवे भूलकर

मिलता अपनों का संग।।

 

इंद्रधनुष के सात रंग,

बनाओ अपना भंग।   

लगाकर इनको सबके मांथ,

जीत लोअपनी जंग।।

 

बैंगनी रंग प्रीत का रंग,

धर्मपत्नी पर उछालो।।

साथ कभी ना छोड़ूं तेरा,

दिल से दिल मिला लो।।

 

रंग रंगों नीला मात-पिता,

चरणों में मिले आसमान।।

सिर झुका उनकी सदा,

रखना सदैव सम्मान ।।

 

आसमानी है रंग अनूठा,

साली जी को भाएं।।

जब भी जाए घर उनके,

सुंदर उपहार ले जाएं।।

 

हरा रंग में भंग मिला,

लगा दो अपनी भौजाई।।

घर आंगन महकता रहे,

उनकी खुशबु अगनाई।।

 

पीला रंग बिखराओं,

अपनी अपनी फुलवारी।

हंसते-हंसते सजा रहे,

बच्चों की नव क्यारी ।।

 

नारंगी रंग वीरों को भाएं,

बाटं दो सारे जवान।

उनके संरक्षण में सदा,

खिलता अपना हिंदुस्तान।।

 

भंग चढ़ाकर लाल रंग,

लगा दो अपने परिवार।

सारी उम्र टूटे नहीं,

बनाओ ऐसा घर द्वार।।

 

गुलाबी रंग हैं न्यारी,

होती सबसे प्यारी।

अबीर गुलाल लेकर देखों,

लगाई बारी-बारी।।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 130 ☆ फाळणी ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 130 ?

☆ फाळणी ☆

फक्त देहाची नको रे मागणी

भावनांची त्यात व्हावी पेरणी

 

लावणी ही सांगते आध्यात्म पण

का तरी बदनाम केली लावणी ?

 

अब्रु नाही राखता आली तिला

फास झाली तीच माझी ओढणी

 

प्राण तू मातीत आहे ओतला

का तरीही मोडतातच खेळणी ?

 

पाठिवर नागीन काळी डोलते

अन् फण्यावरती सुगंधी चांदणी

 

ना सुखाने नांदता आले तुम्हा

व्यर्थ केली का उगाचच फाळणी

 

जीवनाचे सार झालेले सपक

त्यास दे तू छान आता फोडणी

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ प्रश्न ?? # 3 ☆ प्रस्तुति – सुश्री मंजिरी गोरे ☆

? वाचताना वेचलेले ?

☆ प्रश्न ?? # 3 ☆ प्रस्तुति – सुश्री मंजिरी गोरे ☆

  1. नाती का जपायची ?

रेशमाच्या धाग्याचा गुंता सोडवून पहा एकदा…

 

  1. आठवणींची एक गंमत आहे.

त्याच्यात गुंतून राहिलात तर नवीन निर्माण नाही होत !!

 

  1. माणूस देवाला म्हणाला “माझा तुझ्यावर विश्वासच नाही.”

देव म्हणाला “वा !!  श्रद्धेच्या खूप जवळ पोहोचला आहेस तू. प्रयत्न सुरु ठेव.”

 

  1. गवई एकदा तानपुऱ्याला म्हणाला,”तू नसलास तर कसं होईल माझं?”

तानपुरा म्हणाला ,”अरे वेड्या ! माझी गरज लागू नये हेच तर ध्येय आहे.”

 

  1. विठुमाऊली एकदा एकादशीला दमून खाली बसली. मी विचारलं,”काय झालं ?”

विठुराय म्हणाले, “पुंडलिकाचा गजर करतात लेकाचे पण मायपित्यांना एकटं सोडून अजून माझ्याच पायाशी येऊन झोंबतात वेडे कुठले. !”

 

  1. एकटं वाटलं म्हणून समुद्रावर गेलो एकदा. त्याला विचारलं “कसा एकटा राहतोस वर्षानुवर्ष ?”

तो म्हणाला “एकटा कुठला, मीच माझ्यात रमावं म्हणून ईश्वराने लाटा दिल्या आहेत ना मला.”

मी विचारलं “माझं काय?”

तो हसून म्हणाला

 “नामस्मरण आणि माझ्या लाटांमध्ये काहीच साम्य दिसत नाही का तुला?”

 

संग्राहिका : सुश्री मंजिरी गोरे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 80 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 80 –  दोहे ✍

मन में उपजी कामना, कह सकते आसक्ति।

बिना किसी भी रूप के, क्या रह सकता व्यक्ति।।

 

मेरे मन की विकलता, माप सकेगा कौन?

अपनी गति, मति देखकर, रह जाते सब मौन।।

 

जिसको चाहो टूटकर, वही करे संदेह।

मन की कीमत कुछ नहीं, बहुत कीमती देह।।

 

प्रिया शरीरी तुम नहीं, रूप शिखा द्मुतिमान ।

रोम रोम में बस गए, अर्पित जीवन प्राण।।

 

बैरी हैं सब रूप के, चाह रहे अधिकार।

डाले बंसी प्रेम की, तकते रहे शिकार।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत #82 – “बहुत दूभर दिन यहाँ …” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “बहुत दूभर दिन यहाँ …।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 82 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “बहुत दूभर दिन यहाँ ”|| ☆

पेड़ अपने साये में

सहमे किनारे के ।

बहुत दूभर दिन यहाँ

पर हैं गुजारे के।।

 

मुश्किलें बढती लगीं

संजीदगी लेकर ।

थक रहा उत्साह है

यह जिन्दगी देकर।

 

इसी मुश्किल वक़्त को

लकवा लगा है

मेम्बर दहशतजदा हैं

इस इदारे के ।।

 

उद्धरण हल क्या बताये

व्याकरण का ।

हर इक कोना व्यस्त है

पर्यावरण का।

 

यह हरापन प्रचुरतम

देता नसीहत।

सभी मानव साक्षी हैं

जिस सहारे के ।।

 

इधर जंगल जान है

मानव जगत की।

जो बचाए चेतना

इसकी परत की ।

 

जहाँ  संस्कृतियां परस्पर

उन्नयन कर।

बचाती नैवेद्य हैं सन्ध्या-

सकारे के ।।

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

23-03-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 129 ☆ “शादी – ब्याह के नखरे” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर व्यंग्य  “शादी – ब्याह के नखरे”।)  

☆ व्यंग्य # 129 ☆ “शादी – ब्याह के नखरे” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

काये भाई इटली शादी करन गए थे और हनीमून किसी और देश में मनाने चले गए….. का हो गओ तो…… शादी में कोऊ अड़ंगा डाल रहो थो क्या ? तबई भागे भागे फिर रहे थे। छक्के पर हम सब लोग छक्कों की तरह ताली बजा बजाकर तुमसे छक्का लगवाते रहे हैं और तुम शादी के चक्कर में इटली भाग गये। जो साऊथ की इडली में मजा है वो इटली की इडली में कहां है। और सीधी-सादी बात जे है कि शादी करन गये थे तो देशी नाऊ और देशी पंडित तो ले जाते कम से कम। बिना नाऊ और पंडित के शादी इनवेलिड हो जाती है मैरिज सर्टिफिकेट में पंडित का प्रमाणपत्र लगता है। सब लोग कह रहे हैं कि यदि इटली में जाकर शादी की है तो इण्डिया में मैरिज सर्टिफिकेट नहीं बनेगा, इण्डिया में तुम दोनों को अलग अलग ही रहना पड़ेगा……. लिव इन रिलेशनशिप में रहोगे तो 28 प्रतिशत जीएसटी देना पड़ेगा और खेल में भी मन नहीं लगेगा। 

पेपर वाले कह रहे हैं कि शादी करके उड़ गए थे फिर कहीं और हनीमून मनाके लौट के बुद्धू यहीं फिर आये, कहीं फूफा और जीजा तंग तो नहीं कर रहे थे। यहां आके शादी की पब्लिसिटी के लिए दिल्ली और मुंबई में मेगा पंगत पार्टी करके चौके-छक्के वाली वाह वाही लूट ली। 

दाढ़ी वालों का जमाना है दाढ़ी वाले जीतते हैं और विकास की भी बातें करते हैं पर ये भी सच है कि शादी के बाद दाढ़ी गड़ती भी खूब है। कोई बात नहीं दिल्ली की हवेली में जहां तुम आशीर्वाद लेने के चक्कर में घुसे हो उस बेचारे ने शादी करके देख लिया है, तुम काली दाढ़ी लेकर आशीर्वाद लेने गए हो तो वो तुम्हारी दाढ़ी में पहले तिनका जरूर ढूढ़ेगा….. शादी के पहले और शादी के बाद पर कई तरह के भाषण पिला देगा। तुम शादी की मेगा पंगत में खाने को बुलाओगे तो वो झटके मारके बहाने बना देगा….. तुम बार बार पर्दे के अंदर झांकने की कोशिश करोगे तो डांटकर कहेगा – बार बार क्या देखते हो बंगले में “वो “नहीं रहती, हम ब्रम्हचारी हैं….. शादी करके सब देख चुके हैं दाढ़ी से वो चिढ़ती है और दाढ़ी से हम प्यार करते हैं……. अरे वो क्या था कि पंडित और नाऊ ने मिलकर बचपन में शादी करा दी थी तब हम लोग खुले में शौच जाया करते थे…… शादी के बहुत दिन बाद समझ में आया कि इन्द्रियों के क्षुद्र विषयों में फंसे रहने से मनुष्य दुखी रहता है इन्द्रियों के आकर्षण से बचना, अपने विकारों को संयम द्वारा वश में रखना, अपनी आवश्यकताओं को कम करना दुख से बचने का उपाय है…… सो भाईयो और बहनों जो है वो तो है उसमें किया भी क्या जा सकता है जिनके मामा इटली में रहते हैं उनको भी हमारी बात जम गई है…….. 

-हां तो बताओ इटली में जाकर शादी करने में कैसा लगा ? 

—-सर जी, हमसे एक भूल हो गई अपना देशी नाऊ और देशी पंडित शादी में ले जाना भूल गए, इटली वालों को जल्दी पड़ी थी। सर यहां के लोग कह रहे हैं कि मैरिज सर्टिफिकेट यहां नहीं बनेगा….. अब क्या करें ? 

—बात तो ठीक कह रहे हैं 125 करोड़ देशवासियों का देश है, फिर भी देखते हैं नागपुर वालों से सलाह लेनी पड़ेगी। 

….. शहर का नाम लेने से डर लगता है क्योंकि वे शादी-ब्याह से चिढ़ते हैं शादी के नाम पर गंभीर हो जाते हैं घर परिवार और मौजूदा हालात से उदासीन रहते हैं शादी का नाम लो तो उदासी ओढ़ लेते हैं उदासी जैसे मानसिक रोग से पीड़ित रोगी सदा गंभीर और नैराश्य मुद्रा बनाये रखते हैं आधुनिक देशभक्ति पर जोर देते हैं, आधार को देशभक्ति से जोड़ने के पक्षधर होते हैं ऐसे आदमी देखने में ऐसे लगते हैं जैसे वे किसी मुर्दे का दाहकर्म करके श्मशान से लौट रहे हों। 

पान की दुकान में खड़ा गंगू उदास नहीं है बहुत खुश दिख रहा है खुशी का राज पूछने पर गंगू ने बताया कि वह दिल्ली की मेगा पंगत पार्टी से लौटा है और बाबा चमनबहार वाला पान खा रहा है। गंगू ने बताया कि कम से कम 100 करोड़ की शादी हुई होगी, इटली में शादी…. एक और देश जिसका नाम अजीब है वहां हनीमून और दिल्ली में पंगत……….. 

गंगू ने मजाक करते हुए हंसकर बताया कि महिला का नाम भले ही कुछ भी क्यों न हो….. भले शादी में 100 करोड़ ही क्यों न ख़र्च किए हों लेकिन वो 50 पर्सेंट की सेल की लाइन में खड़े होने में शर्मा नहीं सकती पति कितना भी विराट क्यों न हो बीबी उसे झोला पकड़ा ही देती है। 

शादी की मेगा पंगत पार्टी के अनुभवों पर चर्चा करते हुए गंगू ने बताया कि 100 नाई और 100 पंडित की फरमाइश पर जमीन पर बैठ कर पंगत लगाई गई बड़े बड़े मंत्री और उद्योगपतियों की लार टपक रही थी अरे शादी की पंगत में जमीन पर बैठ कर पतरी – दोना में खाने का अलग सुख है वे सब ये सुख लेने के लिए लालायित थे पर अहं और आसामी होने के संकोच में कुछ नहीं कर पा रहे थे। तो पंगत बैठी परोसने वाले की गलती से गंगू को “मही-बरा” नहीं परोसा गया तो गंगू ने हुड़दंग मचा दी, वर-वधू को गालियाँ बकना चालू कर दिया और खड़े होकर पंगत रुकवा दी चिल्ला कर बोला – इस पंगत में गाज गिरना चाहिए, जब पंडितों ने पूछा कि गाज गिरेगी तो गंगू तुम भी नहीं बचोगे…. तब गंगू ने तर्क दिया कि जैसे पंगत में मठा – बरा सबको मिला और गंगू की पतरी को नहीं मिला वैसई गाज गिरने पर गंगू बच जाएगा। तुरत-फुरत गंगू के लिए मही-बरा बुलवाया गया तब कहीं पंगत चालू हो पाई। 

पंगत के इस छोर पर 50 पुड़ी खाने के बाद एक पंडित बहक गये कहने लगे – शादी जन्म जन्मांतर का बंधन होता है छक्के मारते रहने से मजबूत गठबंधन बनता है छक्के – चौके लगाने से फिल्मी स्टारों से शादी हो जाती है और शादी से सम्पत्ति बढ़ती है। हालांकि भले बाद में पछताना पड़े पर ये भी सच है कि शादी वो लड्डू है जो खाये वो पछताये जो न खाये वो भी पछताये….. और पंडित जी ने दोना में रखे दो बड़े लड्डू एक साथ गुटक लिए……… ।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #73 ☆ # होली # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है होली के पर्व  के अवसर पर आपकी एक भावप्रवण कविता “# होली #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 73 ☆

☆ # होली # ☆ 

बहुत बुरा हुआ कि

कुछ नहीं हुआ

इस सादगी ने तो

दिल को है छुआ

रंगों में ढूंढते रहे

वो लाल रंग

वो मायूस हो गये के

क्यों कुछ नहीं हुआ ?

 

सब साजिशें फेल हो गई

रंगों की सब तरफ

रेल-पेल हो गई

रंगों से पुते चेहरे

मिलते हुए गले

लग रहा था जैसे

सबमें मेल हो गई

 

कुछ पे चढ़ा हुआ था

मदिरा का नशा

कुछ पे चढ़ा हुआ था

भांग का नशा

कुछ डुबे हुए थे

रंगों के हौद में

कुछ पे चढ़ा हुआ था

सियासत का नशा

 

यह रंगों का,

उमंगों का त्योहार है

शिकवे गिले भूलकर

क्षमा का त्योहार है

मीठा मीठा खाओ,

मीठा मीठा बोलो

सबको प्यार से गले लगाने का

त्योहार है /

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

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