(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत “देख देख कर बीत गये हैं...”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 233 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆
☆ “देख देख कर बीत गये हैं...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆
(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व “चर्चित कथाकार एवं मेरे श्रद्धेय अग्रज – स्व. श्री हर्षवर्धन जी पाठक” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)
स्व. श्री हर्षवर्धन जी पाठक
☆ कहाँ गए वे लोग # ५० ☆
☆ “चर्चित कथाकार एवं मेरे श्रद्धेय अग्रज – स्व. श्री हर्षवर्धन जी पाठक” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆
(पुण्य तिथि पर शत शत प्रणाम)
यह भी दुर्लभ संयोग ही है कि नवरात्रि के एकदम बाद हर्षवर्धन पाठक का पुण्य स्मरण किया जा रहा है जिनके माता पिता दोनो के नाम भगवती पाठक थे। 9 अप्रैल 1948 को शिक्षक माता पिता के घर जन्मे हर्षवर्धन खुद भी काफी प्रतिभाशाली थे। उन्होंने शिक्षा की प्रारंभिक अवस्था में ही मेरिट के साथ उत्तीर्ण कर अपनी बौद्धिक क्षमता का परिचय दे दिया था। उन्होंने जबलपुर के पं. लज्जाशंकर झा शासकीय माडल हायर सेकेंडरी स्कूल से हायर सेकेंडरी की परीक्षा उत्तीर्ण की और हितकारिणी कॉलेज से हिंदी में एम ए किया। उन्होंने जबलपुर में ही नवीनदुनिया समाचार पत्र में। पत्रकारिता कार्य करते हुए संपअपनी क्षमता को प्रदर्शित किया। इस दौरान उनके लेखों और कहानियों ने पाठकों को अत्यधिक प्रभावित किया। कहते हैं कि कमल काटों में ही खिला करता है। उन्हें भी सेहत के मामले में काफी तकलीफों का सामना करना पड़ा लेकिन मार्ग के ये कांटे भी उनकी यश गाथा के सफर को अवरूद्ध नही कर सके। सन 1972 वे जनसंपर्क में सहायक जनसंपर्क अधिकारी पद के लिए चुने गए और कैरियर में कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ते हुए अपर संचालक जनसंपर्क के पद को एक दशक से अधिक समय तक सुशोभित करने के बाद रिटायर हुए। प्रदेश के अखबारों में उन्होंने विशेषतः सांस्कृतिक विषयों पर जो लेख लिखे वे धरोहर ही माने जा सकते हैं। उन्होंने देश के प्रतिष्ठित हिंदी सम्मेलन में भी शिरकत की।
आदरणीय श्री हर्षवर्धन पाठक ने वैसे तो साहित्य की विभिन्न विधाओं में प्रभावी सृजन किया लेकिन कथाकार के रूप में काफी प्रतिष्ठित रहे । इस संबंध में उनकी प्रमुख कहानियां दस इंजेक्शन, कल्पना और सत्य, घाटे की बचत लक्ष्मी की वापसी, परसादीलाल, इत्यादि काफी चर्चित रहीं ।
विगत वर्षों में में राधा कृष्ण के अलौकिक प्रेम संबंधों पर आधारित उनका शोध परक उपन्यास आराधिका राष्ट्रीय स्तर पर अत्यंत पठनीय और लोकप्रिय सिद्ध हुआ । जिसकी समीक्षा अहा ज़िंदगी सहित सभी महत्वपूर्ण पत्र – पत्रिकाओं में प्रकाशित की गई थी.
19 अप्रैल 2021को कोरोना से उनका देहावसान हो गया । आज हमारे आदरणीय अग्रज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी स्मृतियां अशेष हैं —
वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।
प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन
आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य “सर पर माथा पच्ची”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ प्रतुल साहित्य # 3 ☆
☆ व्यंग्य ☆ “सर पर माथा पच्ची” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆
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वर्माजी बहुत देर से मेरे सामने “सिर झुकाए” बैठे थे। वे बीच – बीच में अपना “सिर खुजाते हुए” भाई साहब बोलते और फिर चुप हो जाते। उनके “भाई साहब, भाई साहब” कहने और फिर लंबी चुप्पी साध लेने की अदा से मेरा सिर चढ़ गया।
मैंने उन्हें “सिर से पैर तक देखते हुए” कहा, भाई जी किस बात ने आपको “सिर नीचा करने” पर मजबूर कर दिया, हमेशा “सिर ऊंचा करके, उठाकर चलना चाहिए। बड़ी से बड़ी बात भी सिर पर आ पड़े तब भी न तो सिर गरम होना चाहिए न ही सिर फटना चाहिए। देश के विपक्षी नेताओं से कुछ सीखो जिनके सिर का बोझ देश के मुखिया बने हुए हैं विपक्षियों के सिर से पैर तक आग लगी है लेकिन वे जानते हैं कि सिर पर पैर रख कर भागने, सिर पीटने, सिर धुनने, सिर फिरने, सिर भारी होने अथवा सिर पकड़ कर बैठने से समस्या हल नहीं होगी। समस्या के समाधान के लिए हमेशा सिर ठंडा रखना पड़ता है चाहे धीरज से रखो, चाहे गम खाकर या अमिताभ बच्चन के बताए ठंडे ठंडे कूल कूल तेल को लगाकर। अगर यह नहीं कर सकते तो उस चम्पी वाले को ढूंढो जो सड़कों पर गाता फिरता है, सर जो तेरा चकराये या दिल डूबा जाए, आज प्यारे पास हमारे काहे घबराये, कहे घबराये.. “
वर्मा जी मेरी बात सिर हिला हिला कर सुन रहे थे। मैंने कहा, वर्मा जी “मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना”। उन्होंने सिर के कुछ बालों को नोंचते हुए मासूमियत से पूछा- “क्या मतलब भाई साहब ?” वर्मा जी की बात सुनकर मेरा मन अपना सिर पत्थर से फोड़ने का हुआ लेकिन ईश्वर की कृपा से आसपास पत्थर नहीं था। मैने कहा “भाई जी तात्पर्य यह की प्रत्येक सिर में भिन्न विचार होते हैं। विपक्षियों के सिरों में भी पक्ष को हटाने भिन्न भिन्न विचार हैं। वे अपने अपने ढंग से पक्ष को जनता के सिर से उतारने की कोशिश में लगे हैं। किसी ने भारत जोड़ो यात्रा करके देश भर में मोहब्बत की दुकानें खोल डाली हैं तो कोई विपक्षी एकता के लिए प्रदेश प्रदेश भटक रहा है। कोई अपने बयान रूपी बाणों से पक्ष को घायल करने उतारू है। अब जब सब के सिर फिर गए हैं तो सब सिर जोड़कर बैठने उतावले हो रहे हैं।”
मेरी लंबी बात सुनकर वर्मा जी ने चुप्पी तोड़ी बोले “भाई साहब आपने इतनी सारी बातें कर दीं पर वह नहीं बताया जो मैं जानना चाहता हूं।” मैंने कहा, “वर्मा जी अब पानी सिर के ऊपर हो गया है आप बहुत देर से मेरे सामने बैठे भाई साहब, भाई साहब का राग अलाप कर न सिर्फ मेरा सिर खा रहे हैं बल्कि मेरे सिर को पचाने की जुर्रत भी कर रहे हैं या तो मुद्दे की बात पर आकर अपना और मेरा दोनों का सिर ठंडा करो या मेरा पीछा छोड़ो।” वे बोले “भाई साहब एक प्रश्न मुझे सुबह से परेशान करे है कि जब दुनिया में इतनी व्हेरायटी के तेल हैं तो छछूंदर अपने सिर में चमेली का तेल ही क्यों पसंद करती हैं ?” इसी समय मेरी श्रीमती जी ने चाय के प्यालों के साथ कमरे में प्रवेश किया और मेरी ओर बढ़ीं। मैंने कहा “पहले मुझे नहीं छछूंदर को दो।” पत्नी ने आश्चर्य से प्रश्न किया “छछूंदर कौन ?” मैंने कहा “मेरा मतलब वर्मा जी को दो।” पत्नी जोर से हंसने लगी। वर्मा जी नाराज होकर खड़े हो गए पर मुझे मालूम था कि वे नाराजगी में भी चाय पिये बिना नहीं जायेंगे। मैंने कहा “भाई जी सिर पर चढ़ गए क्रोध को थूक दो।” मेरी जुबान याने टंग देश के युवा नेता की तरह फिसल गई थी ओर वह वर्मा जी की जगह छछूंदर कह गई।
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “सूर्य बनकर तुम आए थे...”।)
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण कविता ‘प्रकृति…‘।)
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य – ‘एक सामाजिक प्राणी ‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 285 ☆
☆ व्यंग्य ☆ एक सामाजिक प्राणी ☆
चमन भाई पूरे सामाजिक प्राणी हैं। समाज पर उन्हें भारी भरोसा है। असामाजिक , आत्मसीमित लोगों से उन्हें चिढ़ होती है। रामनाम की जगह वे बात बात में ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ जपते रहते हैं।
समाज की उपयोगिता पर चमन भाई घंटों भाषण दे सकते हैं। वे चीटियों का उदाहरण देते हैं जो मिलजुल कर पहाड़ उठा लेती हैं। वे भेड़िया-बालक जैसे आदम-समाज से बाहर पले प्राणियों की बात करते हैं जो आदमी होकर भी पशु बन गये ।आज के समाज में बढ़ती हिंसा और क्रूरता पर उनकी टिप्पणी है कि यह आदमी के समाज से कटते जाने और अपने में सिमटते जाने के कारण ही है।
चमन भाई इस हद तक सामाजिक हैं कि अपनी ज़्यादातर ज़रूरतों के लिए समाज पर ही निर्भर रहते हैं। उन्होंने न टेलीफोन का झंझट पाला, न फ्रिज का, न स्कूटर का। जब सब चीज़ें मुहल्ले में सहज उपलब्ध हैं तो फिर फ़िज़ूलखर्ची क्यों की जाए? तीन-चार साल पहले उन्होंने एक मोपेड खरीदी थी। वह रखे रखे जंग खा गयी क्योंकि चमन भाई उसे कभी चलाते ही नहीं थे। जब दूसरों की गाड़ियां दौड़ रही हों तो अपनी गाड़ी को दौड़ाने का क्या मतलब? दूसरों के स्कूटर की पिछली सीट खाली जाए तो वह भी एक तरह से फिज़ूलखर्ची हुई।
लैंडलाइन फोन के ज़माने में मुहल्ले के किसी भी घर में पहुंचकर चमन भाई टेलीफोन अपनी तरफ खींचकर डायल घुमाना शुरू कर देते। वार्ता कभी-कभी इतनी देर तक चलती कि गृहस्वामी का ब्लड-प्रेशर बढ़ने लगता। चमन भाई को इशारा किया जाता, ‘चमन भाई, टेलीफोन के रेट बढ़ गये हैं।’ जवाब में चमन भाई बढ़ती महंगाई पर आधे घंटे का भाषण दे मारते। सरकार को कोसते, कर्मचारियों-अधिकारियों को गाली देते और जनता पर पड़ने वाले बोझ की बात करते-करते दुखी हो जाते। लेकिन दुबारा ज़रूरत पड़ने पर फिर नि:संकोच उस घर में टेलीफोन करने हाज़िर हो जाते।
मुहल्ले में कई लोगों ने चमन भाई के आतंक से टेलीफोन ड्राइंग रूम से हटाकर भीतर छिपा दिया था। वे फोन करने पहुंचते तो सुनने को मिलता, ‘फोन खराब है, चमन भाई। माफ कीजिएगा।’ चमन भाई ‘अच्छा’ कह कर वापस आ जाते। गुस्सा नहीं होते। गुस्सा होने से सामाजिक संबंध टूटते हैं। गुस्सा सामाजिकता के लिए घातक होता है। आगे के लिए रास्ता बन्द होता है। इसलिए वे हमेशा परमहंस बने, गलती करने वालों को माफ करते रहते।
चमन भाई पिछले पंद्रह बीस साल से दूसरों के स्कूटर पर बैठकर दफ्तर जा रहे हैं। मुहल्ले में उनके दफ्तर के दो साथी रहते हैं। दोनों ने दुर्भाग्य से स्कूटर खरीद रखा है। चमन भाई बारी-बारी से उनको उपकृत करते रहते हैं। वे ठीक दस बजे उनमें से एक के घर पहुंच कर बाहर खड़े हो जाते हैं और स्कूटर स्टार्ट होने पर चुपचाप पिछली सीट पर बैठ जाते हैं। दो-चार बार उनके साथी चिढ़कर दस से पहले निकल गये, लेकिन चमन भाई ने बुरा नहीं माना। अगले दिन फिर वे दस बजे शान्त भाव से उसी ठिये पर पहुंच गये। उनके साथी भी आखिर कब तक भागते? इस तरह के मामूली झटके लगने के बाद फिर सब यथावत चलने लगता। चमन भाई धैर्य नहीं खोते। धीरज का फल मीठा होता है।
बाज़ार जाने के लिए चमन भाई दूसरा नुस्खा आज़माते हैं। चौराहे पर थैला लेकर खड़े हो जाते हैं और किसी भी भले दिखने वाले स्कूटर वाले को रोक लेते हैं। स्कूटर रुकते ही पीछे की सीट पर बैठ जाते हैं, कहते हैं, ‘थोड़ा बाजार तक छोड़ दीजिएगा।’ अगर वह कहता है कि उसे बीच में ही कहीं रुकना है तो वे जवाब देते हैं, ‘हां हां, वहीं छोड़ दीजिएगा। वहां से चला जाऊंगा।’ उस स्थान से चमन भाई किसी दूसरे स्कूटर वाले को ढूंढ़ते हैं। नहीं मिलता तो गाते-गुनगुनाते पैदल बाकी रास्ता तय कर लेते हैं, लेकिन विचलित नहीं होते। रिक्शे- विक्शे पर पैसा बर्बाद नहीं करते। जब पूरा समाज स्कूटरों पर दौड़ रहा हो तो एक व्यक्ति को अपनी चिन्ता करने की क्या ज़रूरत? एक आदमी तो कहीं भी अंट सकता है।
चमन भाई ने कॉरपोरेशन का नल नहीं लगवाया। जिस दिन उनके पड़ोसी के घर नल लगा उसके दूसरे दिन उन्होंने एक लंबी सटक खरीद ली। नल खाली दिखते ही सटक लगाकर ज़रूरत के हिसाब से पानी भर लेते। देर तक नल खाली न मिले तो पड़ोसी का बर्तन हटाकर सटक लगा देते। टिप्पणी भी कर देते, ‘दो-चार बाल्टी पानी के लिए कितना इन्तजार करें?’ पड़ोसी की शराफत की बदौलत चमन भाई का काम चलता रहता है।
पहले उन्होंने टीवी भी नहीं खरीदा था। पड़ोसी की बुद्धि भ्रष्ट हुई तो उसने खरीद लिया। चमन भाई महीनों सपरिवार हर शाम उसके घर की शोभा बढ़ाते रहे। रामायण और महाभारत की सारी कड़ियां उसी के घर देखीं। टीवी बन्द होता तो कहते, ‘चालू करो भाई।’ चमन परिवार देर तक जमा रहता तो पड़ोसी कहता, ‘चमन भाई, अब तो नींद आ रही है।’ चमन भाई टीवी पर निगाहें जमाये हुए कहते, ‘ हां हां, आप सोइए। आराम से सोइए। हम बैठे हैं। जाते टाइम आपको बता देंगे।’
बीच में पड़ोसी के मेहमान आ जाते, तब भी चमन परिवार अपनी जगह बैठा टीवी देखता रहता। कभी मेहमान के कारण टीवी बन्द करना पड़ता तो चमन परिवार उनके जाने का इन्तज़ार करता जमा रहता। मेहमान के लिए जो चाय-पानी आता उसमें हिस्सा भी बंटा लेते। हार कर पड़ोसी ने शाम को घर में ताला ठोकना शुरू कर दिया। शाम को निकल जाते और अपने एक रिश्तेदार के यहां टीवी देख लेते। यह नुस्खा काम कर गया और चमन भाई ने मायूस होकर टीवी खरीद लिया। लेकिन पड़ोसी की इस असामाजिकता पर वे हफ्तों घूम घूम कर दुख प्रकट करते रहे। गुस्सा उन्हें फिर भी नहीं आया।
उनका पड़ोसी एफ एम रेडियो सुनने का शौकीन है। चमन भाई मुफ्त में उसका आनन्द लेते रहते हैं। जब कुछ अच्छे गाने शुरू होते हैं तो खिड़की से झांक कर कहते हैं, ‘आचारिया जी, जरा तेज कर दीजिए। लाउड। बहुत बढ़िया भजन है। मजा आ गया।’
चमन भाई पड़ोस से मुक्त भाव से चाय, दूध, शक्कर, आटा मांग लेते हैं। पड़ोसियों के फ्रिज में आइसक्रीम जमा लेते हैं। पड़ोसी उतने सामाजिक नहीं हैं, इसलिए वे चमन भाई से चीज़ें नहीं मांगते।
मुहल्ले में पांच छः कारें हैं। ज़रूरत पड़ने पर चमन भाई वहां भी दस्तक दे देते हैं। मिल गयी तो ठीक, नहीं तो कोई बात नहीं। चमन भाई पर कोई असर नहीं होता। वे यह मानते हैं कि ‘उनसे पहले वे मरे जिन मुख निकसत नाहिं।’ इस दोहे की पहली पंक्ति उनके खिलाफ जाती है, इसलिए वे बस दूसरी पंक्ति ही दुहराते हैं।
मुहल्ले में सुविधाएं बढ़ने के साथ चमन भाई के लिए समाज की उपयोगिता के नये आयाम खुलते हैं। कई झटके लगने के बाद भी समाज और आदमी पर उनकी आस्था में निरन्तर वृद्धि ही होती है। उनका विश्वास है कि समाज में भले लोग भी हैं और बुरे भी। इसलिए जो मिल जाए उसे ग्रहण कर लेना चाहिए और जो न मिले उसे त्याज्य समझ कर छोड़ देना चाहिए। जीवन में सुख का इससे बेहतर नुस्खा कोई नहीं है।
(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे।
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय गद्य क्षणिका “– पराये भी अपने…” ।)
~ मॉरिशस से ~
☆ कथा कहानी ☆ — पराये भी अपने —☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆
दिवाली से चार दिन पहले हमारे पड़ोसी नंदलाल के घर में मृत्यु हुई थी। शोकातुर घर के लिए हमारे घर से खाना जाता था। वहाँ दिवाली के चिराग नहीं जले। मेरे पिता ने दिन के वक्त ही हमसे कहा था हम दो ही चिराग जलायेंगे। हमने ऐसा ही किया। शोकग्रस्त नंदलाल के घर के उधर के पड़ोसी ने भी दो ही दीये जलाये। मेरे पिता ने इस बार कहा था, “पड़ोसी ऐसा ही होना चाहिए।”
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 285 ☆ शेष.. विशेष…अशेष!
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।
संत कबीर का यह दोहा अपने अर्थ में सरल और भावार्थ में असीम विस्तार लिए हुए है। जैसे वृक्ष से झड़ा पत्ता दोबारा डाल पर नहीं लगता, वैसे ही मनुष्य देह बार-बार नहीं मिलती। मनुष्य देह बार-बार नहीं मिलती अर्थात दुर्लभ है। जिसे पाना कठिन हो, स्वाभाविक है कि उसका जतन किया जाए। देह नश्वर है, अत: जतन का तात्पर्य सदुपयोग से है।
ऐसा भी नहीं कि मनुष्य इस सच को जानता नहीं पर जानते-बूझते भी अधिकांश का जीवन पल-पल रीत रहा है, निरर्थक-सा क्षण-क्षण बीत रहा है।
कोई हमारे निर्रथक समय का बोध करा दे या आत्मबोध उत्पन्न हो जाए तो प्राय: हम अतीत का पश्चाताप करने लगते हैं। जीवन में जो समय व्यतीत हो चुका, उसके लिए दुख मनाने लगते हैं। पत्थर की लकीर तो यह है कि जब हम अतीत का पश्चाताप कर रहे होते हैं, उसी समय तात्कालिक वर्तमान अतीत हो रहा होता है।
अतीतजीवी भूतकाल से बाहर नहीं आ पाता, वर्तमान तक आ नहीं पाता, भविष्य में पहुँचने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। अपनी एक कविता स्मरण हो आ रही है,
हमेशा वर्तमान में जिया,
इसलिए अतीत से लड़ पाया,
तुम जीते रहे अतीत में,
खोया वर्तमान,
हारा अतीत
और भविष्य तो
तुमसे नितांत अपरिचित है,
क्योंकि भविष्य के खाते में
केवल वर्तमान तक पहुँचे
लोगों की नाम दर्ज़ होते हैं..!
अपने आप से दुखी एक अतीतजीवी के मन में बार-बार आत्महत्या का विचार आने लगा था। अपनी समस्या लेकर वह महर्षि रमण के पास पहुँचा। आश्रम में आनेवाले अतिथियों के लिए पत्तल बनाने में महर्षि और उनके शिष्य व्यस्त थे। पत्तल बनाते-बनाते महर्षि रमण ने उस व्यक्ति की समस्या सुनी और चुपचाप पत्तल बनाते रहे। उत्तर की प्रतीक्षा करते-करते व्यक्ति खीझ गया। मनुष्य की विशेषता है जिन प्रश्नों का उत्तर स्वयं वर्षों नहीं खोज पाता, किसी अन्य से उनका उत्तर क्षण भर में पाने की अपेक्षा करता है।
वह चिढ़कर महर्षि से बोला, ‘आप पत्तल बनाने में मग्न हैं। एक बार इन पर भोजन परोस दिया गया, उसके बाद तो इन्हें फेंक ही दिया जाएगा न। फिर क्यों इन्हें इतनी बारीकी से बना रहे हैं, क्यों इसके लिए इतना समय दे रहे हैं?’
महर्षि मुस्कराकर शांत भाव से बोले, ‘यह सत्य है कि पत्तल उपयोग के बाद नष्ट हो जाएगी। मर्त्यलोक में नश्वरता अवश्यंभावी है तथापि मृत्यु से पहले जन्म का सदुपयोग करना ही जीवात्मा का लक्ष्य होना चाहिए। सदुपयोग क्षण-क्षण का। अतीत बीत चुका, भविष्य आया नहीं। वर्तमान को जीने से ही जीवन को जिया जा सकता है, जन्म को सार्थक किया जा सकता है, दुर्लभ मनुज जन्म को भवसागर पार करने का माध्यम बनाया जा सकता है। इसका एक ही तरीका है, हर पल जियो, हर पल वर्तमान जियो।’
स्मरण रहे, व्यतीत हो गया, सो अतीत हो गया। अब जो शेष है, वही विशेष है। विशेष पर ध्यान दिया जाए, जीवन को सार्थक जिया जाए तो देह के जाने के बाद भी मनुष्य रहता अशेष है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
12 अप्रैल 2025 से 19 मई 2025 तक श्री महावीर साधना सम्पन्न होगी
प्रतिदिन हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमन्नाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें, आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
Anonymous Litterateur of social media # 232 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 232)
Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.
Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.
He is also an IIM Ahmedabad alumnus.
His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!
English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 232
(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा। आज प्रस्तुत है एक लघुकथा “फर्ज़”। )
☆ लघुकथा – फर्ज़ ☆
( इंडिया टुडे में प्रकाशित सत्य घटना पर आधारित)
शैलेंद्र भैया आज होते तो कितने खुश होते? भाई को याद कर ज्योति के नेत्र नम हो गए। बड़ी मुश्किल से वह अपने आँसू रोक पा रही थी। यही स्थिति घर के सभी लोगों की थी। कोई किसी से कुछ भी नहीं कह पा रहा था। सभी अपने आंसुओं के सैलाब को रोक कर विवाह के रस्मों को निभाने का प्रयास कर रहे थे।
अचानक एक गाड़ी आकर रुकती है। धड़धड़ाते हुए कुछ फौजी अपने शोल्डर बैग लेकर उतरते हैं। घर-परिवार के सब लोग विस्मित नेत्रों से देखते हैं। अरे! इनमें से कुछ तो शैलेंद्र के मित्र हैं, जो उसकी निर्जीव देह तिरंगे में लपेट कर लाये थे।
सब लोगों के साथ बाबूजी भी स्तब्ध थे। तभी उन फ़ौजियों में से एक ने आगे बढ़कर बाबूजी के चरण स्पर्श करते हुए कहा – “बाबूजी, हम शैलेंद्र के मित्र हैं, आपके बेटे और ज्योति बहन के भाई।”
बाबूजी के नेत्र भर आए और उसे गले लगाकर रो पड़े। शैलेंद्र के मित्रों की आँखें भी भर आईं थीं। तभी एक और मित्र आगे बढ़ा और बाबूजी के कंधे पर हाथ रखकर बोला – “बाबूजी, ऐसे दिल छोटा नहीं करते। चलिये हम सब मिलकर शादी की रस्में पूरी करते हैं।”
और फिर देखते ही देखते शादी का माहौल ही बदल गया।
यह बात बिजली की तरह सारे गाँव में फैल गई।
सारे गाँव ने और यहाँ तक कि दूल्हे के परिवार ने भी देखा कि कैसे शैलेंद्र के मित्रों ने बढ़ चढ़ कर शादी की एक एक रस्म निभाने का भरसक प्रयत्न किया जो एक भाई को निभानी होती हैं।
शैलेंद्र के पिताजी का सीना गर्व से चौड़ा हो गया। वे मन ही मन सोच रहे थे कि – “आज मेरा बेटा इस दुनिया में नहीं है किन्तु, ईश्वर ने मुझे इतने बेटे दिये हैं जो मेरे सुख और दुख में शामिल होने के लिए सदैव तैयार हैं।”
दूसरी ओर शैलेंद्र के मित्र नम नेत्रों से अपने मित्र को याद कर रहे थे और सोच रहे थे – “ईश्वर हमें शक्ति दें, ताकि हम देश की सुरक्षा के साथ ही अपने भाइयों के सुख दुख में शामिल हो सकें।”