(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना धूल भरी सड़कें और टूटे हुए सपने।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 39 – धूल भरी सड़कें और टूटे हुए सपने ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
शिवपुर के छोटे से गाँव में जीवन हमेशा सादगी और संघर्ष की एक मधुर धुन रहा है। यहाँ, सूरज गेहूं के सुनहरे खेतों को चूमता है, और हल्की हवा गाँव के कुएं के पास खेलते बच्चों की हंसी को लेकर आती है। लेकिन इस अद्भुत दृश्य के बीच खड़े हैं मास्टर विनय, एक समर्पित शिक्षक, जिनका जीवन सरल नहीं था। सालों से, उन्होंने अपने छात्रों में ज्ञान की रौशनी बिखेरी, उनके सपनों को संजोया। लेकिन जैसे-जैसे मौसम बदला, शिक्षा विभाग की मनमानी और नौकरशाही ने उनके समर्पण पर भारी पड़ना शुरू कर दिया। हर बार जब उन्होंने ट्रांसफर की अर्जी लिखी, वह फाइलों के गर्त में खो जाती, जैसे व्यस्त बाजार में एक भूला हुआ बच्चा। यह विडंबना भरी बात थी; वह सिस्टम, जो शिक्षा को ऊपर उठाने का वादा करता था, वह असल में शिक्षकों के कल्याण से ज्यादा कागजी कार्यवाही में उलझा था।
एक भाग्यशाली सुबह, एक पत्र आया जिसने विनय के जीवन के संतुलन को चूर-चूर कर दिया। उस लिफाफे पर शिक्षा विभाग का निशान था, जो झूठी आशा की एक चमक की तरह था। उनका दिल तेजी से धड़कने लगा जब उन्होंने उसे खोला, और उसमें शहर में ट्रांसफर की घोषणा थी—एक ऐसा स्थान, जो धूल, कंक्रीट, और तेज गति से भरा हुआ था, जो उनके शांत गाँव के साथ कड़ा विरोधाभास था। विनय का दिल टूट गया जब उन्होंने शहर की सड़कों की कल्पना की, जहाँ उनके छात्रों की हंसी की जगह कारों की हार्नेस और फाइलों की खड़खड़ाहट ले लेगी। उनकी पत्नी, सुषमा देवी, हमेशा उनके लिए ताकत का स्तंभ रही थी, लेकिन इस खबर ने उसे विश्वास और निराशा के बीच झूलने पर मजबूर कर दिया। उसकी आँखों में भरी आँसू हजारों अनकही डर की पीड़ा को दर्शाते थे: क्या वह सच में चले जाएंगे? उनके बच्चों के लिए एक बेहतर भविष्य बनाने के सपनों का क्या होगा? जब उन्होंने सुषमा के आँसू भरे चेहरे की ओर देखा, तो उन्हें एहसास हुआ कि इस ट्रांसफर की असली कीमत उनकी नौकरी की हानि से कहीं अधिक थी; यह एक परिवार, एक समुदाय, और एक शिक्षक की अटूट प्रतिबद्धता का टूटना था।
उनके जाने का दिन भारी दिल के साथ आया। विनय अपनी पुरानी साइकिल पर चढ़े, जिसका जंग लगा ढांचा उनके अनकहे दुख के बोझ की तरह कराह रहा था। नए स्कूल का रास्ता असहनीय लंबा लग रहा था, हर पैडल उन्हें याद दिला रहा था कि वे क्या छोड़ने जा रहे हैं। बच्चे उनका इंतजार कर रहे थे, उनकी मासूम आँखें उम्मीद और अनिश्चितता से चमक रही थीं। उनके छोटे हाथों में रंगीन चित्र थे, जो उन्होंने अपने प्रिय शिक्षक के लिए बनाए थे, एक ऐसे भविष्य की चित्रण जो उन्हें शामिल करता था। लेकिन खुशी की बजाय, विनय के दिल में एक दर्द महसूस हुआ। वह कैसे बता सकते थे कि वह उनके सपनों को छोड़ रहे हैं, कि शिक्षा प्रणाली ने युवा मनों की परवरिश के बजाय नौकरशाही के ट्रांसफर की सुविधा को चुन लिया है? उन्होंने कक्षा में प्रवेश किया, उनका दिल दुःख से भरा हुआ था, और ब्लैकबोर्ड पर लिखा, “शिक्षा केवल ज्ञान देने के बारे में नहीं है, बल्कि दिलों को जोड़ने के बारे में भी है।” ये शब्द खोखले लगे जब बच्चे उनकी ओर देख रहे थे, उनके चेहरों पर वही उलझन और डर था जो सुषमा के चेहरे पर था। वे पूरी तरह से नहीं समझते थे, लेकिन वे आने वाली हानि का अनुभव कर रहे थे, जो केवल भौगोलिक परिवर्तन से कहीं ज्यादा गहरी थी।
उस रात, जब विनय सुषमा के साथ भोजन कर रहे थे, उन्होंने एक निर्णय लिया जो सब कुछ बदल देगा। “मैं नहीं जाऊंगा, सुषमा। मैं उन्हें छोड़ नहीं सकता,” उन्होंने कहा, उनके विश्वास का वजन उनकी थकी हुई आँखों में रोशनी भर रहा था। सुषमा का चेहरा निराशा से विश्वास और फिर उम्मीद की झलक में बदल गया, लेकिन अज्ञात का डर अभी भी था। जब जोड़े ने अपने सपनों और डर साझा किए, विनय का संकल्प और मजबूत होता गया। अगली सुबह, जबकि शिक्षा विभाग के क्लर्क उसकी ट्रांसफर आदेश के लिए फाइलों की खोज कर रहे थे, वह स्कूल के मैदान में थे, उस छोटे पौधे की देखभाल करते हुए जिसे उन्होंने सालों पहले लगाया था—एक प्रतीक जो शिवपुर में उनकी जड़ों का प्रतीक था। शिक्षक का दिल भारी था, लेकिन यह अपने छात्रों और समुदाय के प्रति प्रेम से भरा था। उन्होंने सीखा कि सच्ची शिक्षा संबंध और प्रतिबद्धता में फलती-फूलती है, न कि नौकरशाही के ट्रांसफर में। उस पल, सुनहरे गेहूं के खेतों और बच्चों की हंसी के बीच, उन्हें एहसास हुआ कि परिवर्तन का मौसम सरकार द्वारा निर्धारित नहीं होता, बल्कि वह अपने दिल में धारण किए गए प्रेम और समर्पण से होता है। और जब सूरज शिवपुर के ऊपर अस्त हो रहा था, सुनहरी चमक के साथ, विनय ने समझा कि कभी-कभी, ठहरना और अपने सपनों को पोषित करना सबसे साहसी कार्य होता है।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “ऋतुराज बसंत सुहावत है…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
चारों ओर उल्लास का वातावरण, आम्र बौर की आहट, सरसों के फूलों का खिलना, पूरा परिवेश मानो पीताम्बर के रंग में डूबा हुआ माँ शारदे की आराधना कर रहा है। पीला रंग बौद्धिकता को बढ़ाता है, गुरु की कृपा, वाणी में दिव्यता, चहुँओर मानो एक आह्लादित नाद सुनाई दे रहा हो ऐसा अहसास होने लगता है। ऐसे में रसिक मन गुनगुना उठाता है…
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक कविता – “चलन से बाहर हुए सिक्के… ” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 332 ☆
कविता – चलन से बाहर हुए सिक्के… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
भिखारी भी अब
कम से कम
दस रुपए चाहता है
क्यू आर कोड का स्टीकर
लगा रखा है उसने
दान दाताओं की
मदद के लिए
उस दिन मैं
टैक्सी से उतरा
निकालने लगा मीटर पर दिखते इकसठ रुपए सत्तर पैसे
तो ड्राइवर बोला रहने दो साहब , बस साठ रुपए दे दीजिए
या फिर पे टी एम ही कर दीजिए
उसे पैंसठ रुपए देकर मैने उसकी दरियादिली से निजात पाई
अब सिक्के बस बैंक के ब्याज के हिसाब में एक पासबुक एंट्री भर
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य – “बस, कुछ जुगाड़ कीजिए ‘वह’ मिल जाएगा”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 203 ☆
☆ व्यंग्य- बस, कुछ जुगाड़ कीजिए ‘वह’ मिल जाएगा☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
मन नहीं मान रहा था। स्वयं के लिए स्वयं प्रयास करें। मगर, पुरस्कार की राशि व पुरस्कार का नाम बड़ा था। सो, मन मसोस कर दूसरे साहित्यकार से संपर्क किया। बीस अनुशंसाएं कार्रवाई। जब इक्कीसवे से संपर्क किया तो उसने स्पष्ट मना कर दिया।
“भाई साहब! इस बार आपका नंबर नहीं आएगा।” उन्होंने फोन पर स्पष्ट मना कर दिया, “आपकी उम्र 60 साल से कम है। यह पुरस्कार इससे ज्यादा उम्र वालों को मिलता है।”
हमें तो विश्वास नहीं हुआ। ऐसा भी होता है। तब उधर से जवाब आया, “भाई साहब, वरिष्ठता भी तो कोई चीज होती है। इसलिए आप ‘उनकी’ अनुशंसा कर दीजिए। अगली बार जब आप ‘सठिया’ जाएंगे तो आपको गारंटीड पुरस्कार मिल जाएगा।”
बस! हमें गारंटी मिल गई थी। अंधे को क्या चाहिए? लाठी का सहारा। वह हमें मिल गया था, इसलिए हमने उनकी अनुशंसा कर दी। तब हमने देखा कि कमाल हो गया। वे सठियाए ‘पट्ठे’ पुरस्कार पा गए। तब हमें मालूम हुआ कि पुरस्कार पाने के लिए बहुत कुछ करना होता है।
हमारे मित्र ने इसका ‘गुरु मंत्र’ भी हमें बता दिया। उन्होंने कहा, “आपने कभी विदेश यात्रा की है?” चूंकि हम कभी विदेश क्या, नेपाल तक नहीं गए थे इसलिए स्पष्ट मना कर दिया। तब वे बोले, “मान लीजिए। यह ‘विदेश’ यात्रा यानी आपका पुरस्कार है।”
“जी।” हमने न चाहते हुए हांमी भर दी। “वह आपको प्राप्त करना है।” उनके यह कहते ही हमने ‘जी-जी’ कहना शुरू कर दिया। वे हमें पुरस्कार प्राप्त करने की तरकीबें यानी मशक्कत बताते रहे।
सबसे पहले आपको ‘पासपोर्ट’ बनवाना पड़ेगा। यानी आपकी कोई पहचान हो। यह पहचान योग्यता से नहीं होती है। इसके लिए जुगाड़ की जरूरत पड़ती है। आप किस तरह इधर-उधर से अपने लिए सभी सबूत जुटा सकते हैं। वह कागजी सबूत जिन्हें पासपोर्ट बनवाने के लिए सबसे पहले पेश करना होता है।
सबसे पहले एक काम कीजिए। यह पता कीजिए कि पुरस्कार के इस ‘विदेश’ से कौन-कौन जुड़ा है? कहां-कहां से क्या-क्या जुगाड़ लगाना लगाया जा सकता है? उनसे संपर्क कीजिए। चाहे गुप्त मंत्रणा, कॉफी शॉप की बैठक, समीक्षाएं, सोशल मीडिया पर अपने ढोल की पोल, तुम मुझे वोट दो मैं तुम्हें वोट दूंगा, तू मेरी पीठ खुजा मैं तेरी पीठ खुजाऊंगा, जैसी सभी रणनीति से काम कीजिए। ताकि आपको एक ‘पासपोर्ट’ मिल जाए। आप कुछ हैं, कुछ लिखते हैं। जिनकी चर्चा होती है। यही आपकी सबसे बड़ी पहचान है। यानी यही आपका ‘पासपोर्ट’ होगा।
अब दूसरा काम कीजिए। इस पुरस्कार यानी विदेश जाने के लिए अर्थात पुरस्कार पाने के लिए वीजा का बंदोबस्त कीजिए। यानी उस अनुशंसा को कबाडिये जो आपको विदेश जाने के लिए वीजा दिला सकें। यानी आपने जो पासपोर्ट से अपनी पहचान बनाई है उसकी सभी चीजें वीजा देने वाले को पहुंचा दीजिए। उससे स्पष्ट तौर पर कह दीजिए। आपको विदेश जाना है। वीजा चाहिए। इसके लिए हर जोड़-तोड़ व खर्चा बता दे। उसे क्या-क्या करना है? उसे समझा दे।
सच मानिए, यह मध्यस्थ है ना, वे वीजा दिलवाने में माहिर होते हैं। वे आपको वीजा प्राप्त करने का तरीका, उसका खर्चा, विदेश जाने के गुण, सब कुछ बता देंगे। बस आपको वीजा प्राप्त करने के लिए कुछ दाम खर्च करने पड़ेंगे। हो सकता है निर्णयको से मिलना पड़े। उनके अनुसार कागज पूर्ति, अनुशंसा या कुछ ऐसा वैसा छपवाना पड़ सकता है जो आपने कभी सोचा व समझ ना हो। मगर इसकी चिंता ना करें। वे इसका भी रास्ता बता देंगे।
बस, आपको उनके कहने अनुसार दो-चार महीने कड़ी मेहनत व मशक्कत करनी पड़ेगी। हो सकता है फोन कॉल, ईमेल, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम आदि पर इच्छित- अनिच्छित व अनुचित चीज पोस्ट करनी पड़े। इसके लिए दिन-रात लगे रहना पड़ सकता है। कारण, आपका लक्ष्य व इच्छा बहुत बड़ी है। इसलिए त्याग भी बड़ा करना पड़ेगा।
इतना सब कुछ हो जाने के बाद, जब आपको विदेश जाने का रास्ता साफ हो जाए और वीजा मिल जाए तब आपको यात्रा-व्यय तैयार रखना पड़ेगा। तभी आप विदेश जा पाएंगे।
उनकी यह बात सुनकर लगा कि वाकई विदेश जाना यानी पुरस्कार पाना किसी पासपोर्ट और वीजा प्राप्त करने से कम नहीं है। यदि इसके बावजूद विदेश यात्रा का व्यय पास में न हो तो विदेश नहीं जा पाएंगे। यह सुनकर हम मित्र की सलाह पर नतमस्तक हो गए। वाकई विदेश जाना किसी योग्यता से काम नहीं है। इसलिए हमने सोचा कि शायद हम इस योग्यता को भविष्य में प्राप्त कर पाएंगे? यही सोचकर अपने आप को मानसिक रूप से तैयार करने लगे हैं।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।
(पूर्वसूत्र- समीर जिवंत राहिला तरी कधीच बरा होणार नाही हे डॉ.देवधर यांनी मला अतिशय सौम्यपणे समजावून सांगितलेलं होतं. त्यावेळी त्यांच्या केबिनमधे माझ्याबरोबर आलेले माझे ब्रँचमॅनेजर घोरपडे साहेब होते फक्त. ही गोष्ट घरी किंवा इतर कुणालाच मी मुद्दाम सांगितलेली नव्हती. असं असताना हे लिलाताईला कसं समजलं? मला प्रश्न पडला.)
विशेष म्हणजे या प्रश्नाचं उत्तर मी कुणाला न विचारताच त्याच दिवशी मला परस्पर मिळणार होतं आणि माझ्या दुःखावर फुंकर घालत मला
दिलासाही देणार होतं हे त्या क्षणी मात्र मला माहित नव्हतं. सगळं घडलं ते योगायोगाने घडावं तसंच.
‘ समीर पृथ्वीवरील औषधाने बरा होण्याच्या पलिकडे गेल्यामुळे तो बरा होण्यासाठी देवाघरी गेलाय आणि बरा होऊन परत येणाराय ‘
हे लिलाताईच्या पत्रातील वाक्य पुत्रवियोगाच्या धक्क्यातून मला अलगद बाहेर घेऊन आल़ं होतं. ही अंतर्ज्ञानाची खूणगाठच होती जशीकांही! एका क्षणार्धात माझं पुत्रवियोगाचं दु:ख विरुनच गेलं एकदम…
“कुणाचं पत्र..?”
“लिलाताईचं. घे. बघ तरी काय लिहलंय? वाच”
ती न बोलता उठली. ‘चहा करते..’ म्हणत आत जाऊ लागली.
“आधी वाच तरी.. मग चहा कर.”
“सांत्वनाचंच पत्र असणार. काय करू वाचून? आपला समीर गेलाय हे कटू सत्य बदलणाराय कां?” तिचा आवाज भरून आला.
“हो बदलणाराय. बघशील तू. आधी वाच..मग तूही कबूल करशील.”
तिने ते पत्र घेतलं. वाचलं. निर्विकारपणे मला परत दिलं.
“तुला हे वाचून खरंच काहीच वेगळं वाटलं नाही?”
“नाही. लिलाताईंचं मराठी भाषेवर प्रभुत्त्व आहे म्हणून त्यांनी चांगल्या भाषेत आपलं सांत्वन केलंय एवढंच. बाकी वेगळं काय आहे त्यात?” ती म्हणाली.
तिचंही बरोबरच होतं. समीरच्या आजारपणाच्या बाबतीतल्या कांही गोष्टी तिला त्रास होऊ नये म्हणून मी त्या त्या वेळी मुद्दामच सांगितल्या नव्हत्या. आता सगळं घडून गेल्यानंतर ते तिला सांगण्यात कशाचाच अडसर नव्हता. ते नाही सांगितलं तर या पत्रातलं मला जाणवलेलं वेगळेपण तिला कसं जाणवावं….? पण ती ते सगळं समजून घेण्याइतकी सावरलेली नाहीय. सगळं ऐकल्यानंतर ती बिथरली तर? नकोच ते. जे सांगायचं ते तिचा मूड पाहून तिच्या कलानेच सांगायला हवं. तरीही ती केव्हा सावरतेय याची वाट पहात आता गप्प राहून चालणार नाही. लवकरात लवकरात लवकर तिला या एकटेपणातून बाहेर काढायलाच हवं….’
कितीतरी वेळ असे उलट सुलट विचार माझ्या मनात गर्दी करत राहिले. तिने चहाचा कप माझ्यापुढे ठेवला आणि मी भानावर आलो. डोळे पुसत ती किचनमधला पसारा आवरु लागली.
“आरती, ऐक माझं. पटकन् जा आणि आवर तुझं. मी तयार होतोय..”
“कां ? कुणी येणार आहे कां?”
“नाही..” मी हसून म्हटलं “कुणीही येणार नाहीय, आपणच जायचंय..”
“आत्ता? कशाला? कुठं जायचंय..?”
मला एकदम लिलाताईच्या माहेरघराची आठवण झाली.ते सर्वजण किर्लोस्करवाडी सोडून कोल्हापूरला आले त्याला दहा वर्षं होत आली होती. सुरुवातीची एक दोन वर्ष कष्टात गेली तरी आता त्यांचं छान बस्तान बसलं होतं.स्वत:चं घर झालं. कोल्हापूरला उद्यमनगरमधे स्वतःचं वर्कशॉप होतं, दोन लेथ होते, मशिनरी स्पेअर पार्टसचं स्वतःचं दुकान होतं. सगळे भाऊ स्वतः राबत होते. दोन वर्षांपूर्वीपासून लिलाताईचे वडिल प्रकृती अस्वास्थ्यामुळे सर्व पसारा मुलांच्या हवाली करून अलिकडे घरी अंथरुणाला खिळून असायचे. क्वचित मधे कधीतरी एक दोनदा कामानिमित्ताने त्या भागात गेल्यानंतर मी उभ्या उभ्या त्यांच्या घरी जाऊन आलो होतो. पण त्यालाही बरेच दिवस गेले होते. शिवाय सगळी हालहवाल लिलाताई वाडीला भेटली की वेळोवेळी तिच्याकडून समजायचीच. माझा लहान भाऊ कोल्हापूरमधेच असल्याने नेहमी त्यांच्या संपर्कात असायचा. त्याच्याकडून चार दिवसांपूर्वीच लिलाताईचे वडील गेल्याचे समजले होते. या रविवारी मी त्यांच्या घरी भेटून यायचे ठरवले होतेच.त्यापेक्षा आरतीलाही बरोबर घेऊन आजच गेलो तर…? हा विचार मनात आला तेव्हाच आरतीने मला पुन्हा विचारले…”सांगा ना, कुठं जायचंय..?”
उद्यमनगरमधे. लिलाताईचे वडील नुकतेच गेलेत. तिच्या आईला भेटून तरी येऊ.” मी म्हणालो.
आरती गप्पच झाली एकदम.
“का गं? काय झालं?”
“नाही… नको.”
“का ?”
“आपला समीर अडीच तीन महिने दवाखान्यात अॅडमिट होता. त्यांच्यापैकी कुणी आलं होतं कां बघायला? तो गेल्याचंही समजलं असेलच ना त्यांना? त्यानंतरही कुणी आलं नाही.आपणच कां जायचं?”
मी निरुत्तर झालो. ती बोलली यात तथ्य होतंच.पण तरीही मला ते स्विकारता येईना.
हे बघ, त्यांनी केलं ते न् तसंच आपणही करायचं कां? लिलाताईचे वडीलही झोपून होते. त्यांचा कांही प्रॉब्लेम असेल. इतर कांही अडचणी असतील. त्यामुळे येणं जमलं नसेल. पण ती अगदी साधी माणसं आहेत गं. माणुसकी सोडून वागणारी तर अजिबातच नाहीयत.आणि आपण रहायला जातोय कां तिकडे? घटकाभर बसून बोलून येऊ. त्यांनाही बर वाटेल.”
ती न बोलता स्वतःचं आवरू लागली. मला तेवढं पुरेसं होतं. ती यायला तयार झालीय
हेच खूप होतं माझ्यासाठी.
त्यांच्या घराचं दार उघडंच होतं. हॉलमधे दारासमोरच्या भिंतीला टेकून लिलाताईच्या आई नेहमीसारख्या बसून होत्या.
मला दारात पहाताच त्यांना गलबलून आलं.
“ये रेss माज्या लेकरा..ये…” रडवेल्या आवाजातच त्यांनी अतीव मायेनं आमचं स्वागत केलं.आम्ही आत जाताच आरतीकडं पाहून त्यांचे डोळे भरुन आले.त्यांनी तिला जवळ बोलावलं..
“तू कां उबी? ये माझ्याजवळ.बैस अशी..” म्हणत तिला जवळ बसवून घेतलं.
” खूप आजारी होते कां हो बाबा?”
” हां तर काय? तरण्या वयापासून घाण्याला बांदलेल्या गुरासारका राबराब राबल्येला जीव त्यो. दोन वर्सं झाली आंथरुन सोडलं नव्हतं बग ल्येका. मी ही अशी.लांबून बघत बसायची निस्ती. पण समद्या पोरांनी लै शेवा केली बग त्येंंची.”
बोलता बोलता आरतीकडं लक्ष जाताच त्या बोलायचं थांबल्या.
” हे बघ बै.झालं गेलं गंगेला अर्पण करुन टाकायचं बग.त्यातच रुतून बसायचं न्है.कळतंय का? यील त्ये पदरात घ्यायचं न् पुढं जात -हायचं बग.” त्यांनी तिला समजावलं. त्यांच्या तोंडून बाहेर पडणारा प्रत्येक शब्द त्यांच्या अंत:करणातूनच उमटलेला असावा इतका आपुलकीने ओथंबलेला होता.”गप.रडू नको. तुजा इस्वास नाई बसनार,पन इतं गेटभाईर जीप हाय नव्हं , तिची डिलीवरी कवा मिळालीती सांगू?तुजं बाळ देवधर डाकतराकडं अॅडमीट झालंय त्ये आमाला समजलं त्याच दिवशी. मी कोल्हापूरच्या अंबाबाईचं दरसन घ्यून लई वर्सं झाली बग.पोरं म्हनत हुती ‘चल.तुला उचलून नव्या जीपमंदी बशीवतो न् अंबाबाईच्या दरसनाला बी तसंच उचलून घ्यून जातो म्हणून.तवा म्या काय म्हनले ठाव हाय? मी म्हनले, त्या म्हाद्वार रस्त्यावरच अरविंदाचं बाळ हाय नव्हं दवाखान्यात? अंबाबाईचं दरसन राहूं दे.. मला उचलून त्या दवाखान्यात नेताय का सांगा.तरच मी जीपमध्ये बशीन. त्येच्या बाळाला बगून तरी येते यकडाव. पन दोन अवगड जिनं चढाय लागत्यात म्हनली पोरं.त्ये कसं जमणार हुतं? म्हनून मग जीपमदे बसनं न् देवीचं दरसन दोनी बी नगंच वाटलं. आज तुमी दोगं आला झ्याक वाटलं बगा…
आरती थक्क होऊन ऐकत होती. तिच्या मनातल्या प्रश्नाचं प्रश्न न विचारताच तिला परस्परच उत्तर मिळालं होतं!
“तुझ्या आईला न् तुला बी माजी लिलाबाई भेटती न्हवं वाडीत न्हेमी? ती सांगत असती मला…”
“हो.बऱ्याचदा भेट होते आमची”
” तिची पन लई सेवा झालीय बग दतम्हाराजांची.तुला म्हनून सांगत्ये..,तुझ्या बाबावानी लिलाबाई बोलती त्ये बी खरं व्हाय लागलंय बग.”
त्या सहज बोलायच्या ओघात बोलून गेल्या न् मग लिलाताईबद्दलच कांहीबाही सांगत राहिल्या.तिच्या वाचासिध्दीबद्दलच्या अनुभवांबद्दलच सगळं. त्यातला प्रत्येक शब्द मला निश्चिंत करणारा होता! सगळं ऐकत असताना लिलाताईच्या पत्रातला मजकूर माझ्या नजरेसमोर तरळत राहिला होता! त्यातला शब्द न् शब्द खरा होणाराय हा विश्वास आरतीपर्यंत कसा पोचवायचा हा प्रश्न मात्र त्याक्षणीतरी अनुत्तरीतच राहिला होता..!!
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी द्वारा गीत-नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि विधाओं में सतत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ – एक लोकभाषा निमाड़ी काव्य संग्रह 3 हिंदी गीत संग्रह, 2 बाल कविता संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 कारगिल शहीद राजेन्द्र यादव पर खंडकाव्य, तथा 1 दोहा संग्रह सहित 9 साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनार्थ पांडुलिपि – गीत व हाइकु संग्रह। विभिन्न साझा संग्रहों सहित पत्र पत्रिकाओं में रचना तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी एवं लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, 3 वर्ष पूर्व तक साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर, विशेष— सन 2017 से महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा ” रात का चौकीदार” सम्मिलित। सम्मान : विद्या वाचस्पति सम्मान, कादम्बिनी सम्मान, कादम्बरी सम्मान, निमाड़ी लोक साहित्य सम्मान एवं लघुकथा यश अर्चन, दोहा रत्न अलंकरण, प्रज्ञा रत्न सम्मान, पद्य कृति पवैया सम्मान, साहित्य भूषण सहित अर्ध शताधिक सम्मान। संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवा निवृत्ति। आज प्रस्तुत है नर्मदा जयंती पर विशेष – माँ नर्मदा वंदन गीत “नर्मदा नर्मदा…” ।)
(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “सुनो शहर जी…” ।)
जय प्रकाश के नवगीत # 90 ☆ सुनो शहर जी… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆