हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 158 ☆ बाल गीत – बादल जी हैं बड़े चितेरे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 131मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 158 ☆

☆ बाल गीत – बादल जी हैं बड़े चितेरे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

बादल जी हैं बड़े चितेरे।

आसमान में चित्र उकेरे।।

 

कहीं चलाते घोड़ा गाड़ी

कभी चलाते हल और बैल।

कभी भागते ट्रैक्टर लेकर

करते नित्य अनोखे खेल।।

 

कभी – कभी तो सूर्य को घेरें

जल्दी आकर बड़े सवेरे।।

 

शेर कभी भालू बन जाते

कभी बनें चितकबरे जिराफ।

कभी उड़ें पर्वत के ऊपर

कभी निकालें मुख से भाप।।

 

सोनी , मौनी , जॉनी खुश हैं

जादूगर बादल को  टेरे।।

 

कभी मौसमी वर्षा लाते

खूब बरसते झम – झम – झम – झम।

कभी ठंड में ठंड बढ़ाते

कभी बरसते बिल्कुल कम – कम।।

 

कभी – कभी ओले बरसाते

खूब बर्फ के लगते डेरे।।

 

काम करें वह बड़ी लगन से

बुझती है धरती की प्यास।

पौधे – पेड़ प्रफुल्लित होते

हरी – भरी हो जाती घास।।

 

बिन स्वार्थ के वह तो बरसें

सच में लगते बड़े कमेरे।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #159 ☆ संत मीराबाई… ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 159 ☆ संत मीराबाई☆ श्री सुजित कदम ☆

कृष्णभक्त मीराबाई

 थोर भक्ती परंपरा

बारा तेराशे भजने

भक्तरस वाहे झरा…! १

 

जन्मा आली संत मीरा

रजपूत कुटुंबात

मातृवियोगात गेले

बालपण   आजोळात…! २

 

सगुणाची उपासक

कृष्ण मुर्ती  पंचप्राण

हरी ध्यानी एकरूप

वैराग्याचे  घेई वाण….! ३

 

एका एका अभंगात

वर्णियले कृष्णरूप

प्रेम जीवनाचे सार

ईश्वरीय हरीरुप….! ४

 

कृष्ण मुर्ती घेऊनी या

मीराबाई वावरली

भोजराज पती तिचा

नाही संसारी रमली..! ५

 

कुल दैवताची पूजा

कृष्णा साठी नाकारली 

कृष्ण भक्ती करताना

नाना संकटे गांजली…! ६

 

अकबर तानसेन

मंत्र मुग्ध अभंगात

दिला रत्नहार भेट

मीरा भक्ती गौरवात…! ७

 

आप्तेष्टांचा छळवाद

पदोपदी  नाना भोग

कृष्णानेच तारीयले

साकारला भक्तीयोग…! ८

 

राजकन्या मीरा बाई

गिरीधर भगवान

भव दु:ख विस्मरण

नामजप वरदान…! ९

 

नाना वाद प्रमादात

छळ झाला अतोनात

वैरी झाले सासरचे

मीरा गांजली त्रासात…! १०

 

खिळे लोखंडी लाविले

दृष्टतेने बिछान्यात

गुलाबाच्या पाकळ्यांनी

दूर केले संकटास…! ११

 

दिलें प्रसादात विष

त्याचे अमृत जाहले

भक्त महिमा अपार

कृष्णानेच तारियले…! १२

 

 लपविला फुलांमध्ये

जहरीला नागराज

त्याची झालीं फुलमाळा

सुमनांचा शोभे साज….! १३

 

गीत गोविंद की टिका

मीरा बाईका मलार

शब्दावली पदावली 

कृष्ण भक्तीचा दुलार..! १४

 

प्रेम साधना मीरेची

स्मृती ग्रंथ सुधा सिंधू

भव सागरी तरला

फुटकर पद बिंदू….! १५

 

भावोत्कट गेयपदे

दोहा सारणी शोभन

छंद अलंकारी भाषा

उपमान चांद्रायण….! १६

 

विसरून देहभान

मीरा लीन भजनात

भक्ती रूप  झाली मीरा

कृष्ण सखा चिंतनात….! १७

 

कृष्ण लिला नी प्रार्थना

कृष्ण विरहाची पदे

भाव मोहिनी शब्दांची

संतश्रेष्ठ मीरा वदे…! १८

 

गिरीधर नागरही

नाममुद्रा अभंगात

स्तुती प्रेम समर्पण

दंग मीरा भजनात…! १९

 

द्वारकेला कृष्णमूर्ती

मीराबाई एकरूप

समाधीस्थ झाली मीरा

अभंगात निजरूप….! २०

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ बकुळी… अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सौ. गौरी गाडेकर ☆

सौ. गौरी गाडेकर

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

☆ ? बकुळी… अज्ञात ? ☆ सौ. गौरी गाडेकर 

रुसून बसली एकदा

कृष्णवाटिकेत बकुळी

सगळी पुष्प लेवती मोहक रंग

मीच एकटी का सावळी — 

वाटिकेतील फुले पाने लता

कुजबुजती एकमेकांच्या कानात

नाजुक साजुक आपली कन्या

का बरे मुसमुसे एका कोपर्‍यात — 

गेल्या तिला समजवायला

मोगरा सोनटक्का सदाफुली

बकुळी म्हणे उदास होऊन

शुभ्रतेपुढे तुमच्या दिसे मी कोमेजलेली —

गुलाबराजा आला लवाजमा घेऊन

म्हणे कसले हे वेड घेतले मनी

बकुळी प्रश्न विचारी मुसमुसून

का मोहक पाकळ्या लेवू शकत नाही तनी —

सरतेशेवटी आला पारिजातक

सडा पाडत बकुळीच्या गालावर

थांब तुला सांगतो गुपित

मग हास्य फुलेल भोळ्या चेहर्‍यावर —

कृष्णाने माझी भेट दिली सत्यभामेला

सडा मात्र पडे रुक्मिणीच्या अंगणात

भोळ्या राधेला काय बरं देऊ

हा विचार अविरत चाले भगवंताच्या मनात —

तितक्यात आलीस तु सामोरी

गंधाने दरवळली अवघी नगरी

शुभ्र नाजुक तुझी फुले पाहुन

भगवंत म्हणती हीच राधेला भेट खरी —

अलगद तुला घेता हाती

स्पर्शाने तु मोहरलीस

भरभरून सुगंध देऊन हरीला

सावळ्या रंगात मात्र भिजून गेलीस — 

ऐकुन हे बोल प्राजक्ताचे

बकुळी देहभान विसरुन गेली 

अलौकिक आनंदाने होऊन तृप्त

राधाकृष्णाच्या प्रेमरंगात रंगली —— 

कवी : अज्ञात

प्रस्तुति : सौ. गौरी गाडेकर

संपर्क – 1/602, कैरव, जी. ई. लिंक्स, राम मंदिर रोड, गोरेगाव (पश्चिम), मुंबई 400104.

फोन नं. 9820206306

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #180 – बाल गीत – कष्ट हरो मजदूर के… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है  बाल गीत “कष्ट हरो मजदूर के…”)

☆  तन्मय साहित्य  #180 ☆

बाल गीत – कष्ट हरो मजदूर के… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

(बाल गीत संग्रह “बचपन रसगुल्लों का दोना” से एक बालगीत)

चंदा मामा दूर के

कष्ट हरो मजदूर के

दया करो इन पर भी

रोटी दे दो इनको चूर के।।

 

तेरी चाँदनी के साथी

नींद खुले में आ जाती

सुबह विदाई में तेरे

मिलकर गाते परभाती,

ये मजूर न माँगे तुझसे

लड्डू मोतीचूर के

चंदा मामा दूर के

कष्ट हरो मजदूर के।।

 

पंद्रह दिन तुम काम करो

तो पंद्रह दिन आराम करो

मामा जी इन श्रमिकों पर भी

थोड़ा कुछ तो ध्यान धरो,

भूखे पेट  न लगते अच्छे

सपने कोहिनूर के

चंदा मामा दूर के

कष्टहरो मजदूर के।।

 

सुना आपके अड्डे हैं

जगह जगह पर गड्ढे हैं

फिर भी शुभ्र चाँदनी जैसे

नरम मुलायम गद्दे हैं,

इतनी सुविधाओं में तुम

औ’ फूटे भाग मजूर के

चंदा मामा दूर के

दुख हरो मजदूर के

दया करो इन पर भी

रोटी दे दो इनको चूर के।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 05 ☆ सूरज सगा कहाँ है… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “सूरज सगा कहाँ है।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 05 ☆ सूरज सगा कहाँ है… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

घेर हमें अँधियारे बैठे

जाने कब होगा भुन्सारा

सूरज अपना सगा कहाँ है?

 

जले अधबुझे दिए लिए

अब भी चलती पगडंडी

सड़कें लील गईं खेतों को

फसल बिकी सब मंडी

 

गाँव गली आँगन चौबारा

निठुर दलिद्दर भगा कहाँ है?

 

रिश्ते गँधियाते हैं

संबंधों में धार नहीं है

मँझधारों में नैया

हाथों में पतवार नहीं है

 

डूब चुका है पुच्छल तारा

चाँद-चाँदनी पगा कहाँ है?

 

नहीं जागती हैं चौपालें

जगता है सन्नाटा

अपनेपन से ज़्यादा महँगा

हुआ दाल व आटा

 

कैसे होगा राम गुजारा

भाग अभी तक जगा कहाँ है?

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 65 – किस्साये तालघाट… भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “किस्साये तालघाट…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)   

☆ आलेख # 65 – किस्साये तालघाट – भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

तालघाट शाखा में जब अपडाउनर्स की प्रभुता बढ़ी तो स्वाभाविक था कि नियंत्रण कमजोर पड़ा. ये जमाना मेनुअल बैंकिंग का था जब शाखाएँ बिना कम्प्यूटर के चला करती थीं और ऐसा माना जाता था कि कुशल मनुष्य ही मशीन से बेहतर परफॉर्मेंस देता है. पर अपडाउनर्स की प्रभुता ने शाखा का संतुलन, अस्थिर करने की शुरुआत कर दी. संतुलन निष्ठा और व्यक्तिगत सुविधा के बीच ही रहता है और यह संतुलन बना रहे तो शाखाएँ भी परफार्म करती हैं और काम करने वालों के परिवार भी संतुष्ट रहते हैं. पर जब व्यक्तिगत सुविधा, कार्यालयीन निष्ठा को दरकिनार कर दे तो बहुत कुछ बाकी रह जाता है और असंतुलन की स्थिति बन जाती है. इसे बैंकिंग की भाषा में बेलेंसिंग का एरियर्स बढ़ना और साप्ताहिक/मासिक निष्पादन की जानकारी पहुंचने में बर्दाश्त के बाहर विलंब होना कहा जाता है.

तालघाट के शाखा प्रबंधक सज्जनता और धार्मिकता के गुणों से लबालब भरे थे पर उनके व्यक्तित्व से दुनियादारी, कठोरता, चतुराई, निगोशिएशन नामक दुर्गुणों या एसाइनमेंट के अनुसार जरूरी गुणों का जरूरत से ज्यादा अभाव था. सारे ऐसे व्यसन, जैसे चाय, पान, तंबाकू, मदिरा जिनसे सरकारें भी टेक्स कमाती हैं, उनसे कोसों दूर थे. हनुमानजी के परम भक्त, हर मंगलवार और शनिवार को हनुमान चालीसा और सुंदरकांड के नियमित वाचक या पाठक अपने परिवार के संग शाखा के ऊपर बने शाखाप्रबंधक निवास में रहते थे. उनकी पूजा की घंटियों और धूप की सुगंध से शाखा भी महक जाती थी और इस प्रातःकाल पूजा का प्रसाद, शाखा में ड्यूटी पर रहे सिक्युरिटी गार्ड भी पाते थे. कभी कभी या अक्सर उनके लिये चाय का भी आगमन हो जाता था क्योंकि शाखाप्रबंधक से ज्यादा गृहसंचालन और परिवार के संचालन में उनकी भार्या कुशल थीं. अतः शाखाप्रबंधक महोदय ने परिवार संचालन का भार पत्नी पर और शाखा संचालन का भार हनुमानजी की कृपा पर छोडकर अपना मन भक्ति भाव में लगा लिया था। पर हनुमानजी तो स्वयं कर्मठ और समर्पित भक्त थे तो धर्म से ज्यादा कर्म और राम के प्रति निष्ठा पर विश्वास करते थे. तो शाखा प्रबंधक महोदय को परिवार से तो नहीं पर नियंत्रक कार्यालय में पदस्थ वरिष्ठ उप प्रबंधक जो उनके मित्र भी थे, का फोन आया. शाखा की समस्याओं पर चर्चा के दौरान जब शाखाप्रबंधक महोदय ने नियंत्रक कार्यालय से रेडीमेड समाधान मांगा तो वरिष्ठ उपप्रबंधक महोदय ने अपनी मित्रता और नियंत्रक कार्यालय के रुआब के मुताबिक उनको समझा दिया कि हम यहां नियंत्रण के लिये बैठे हैं, आपको रेडीमेड समाधान (जो कि होता नहीं) देने के लिये नहीं. परम सत्य आप समझ लो कि शाखाप्रबंधक आप हो और शाखा आपको ही चलानी है. स्टाफ जैसा है, जितना है उससे ही काम करवाना है. बैंक इन सबको और आपको भी इस काम के लिए ही वेतन देती है. आपकी शाखा की इमेज हर मामले में इतनी बिगड़ चुकी है कि हमारे साहब को भी आपके कारण बहुत कुछ सुनना पड़ता है. कोशिश करिये कि वो आपको नज़र अंदाज ही करते रहें या फिर खुद भी सुधरिये और शाखा को भी सुधारने की कोशिश कीजिये. यारी दोस्ती के कारण पहले से आपको बता रहे हैं. शाखाप्रबंधक महोदय इन सब बातों को एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल रहे थे क्योंकि उनके ध्यान में तो सिर्फ बजरंगबाण का पाठ चल रहा था. यही पूरा करके वो नीचे शाखाप्रबंधक के कक्ष में विराजमान हो गये और अंशकालिक संदेशवाहक को नारियल और प्रसाद हेतु लड्डू लाने का अ-कार्यालयीन आदेश दिया. आदेश का तत्काल द्रुत गति से पालन हुआ और शाखा में हनुमानजी को प्रसाद अर्पित करने और उसे जो भी शाखा पधार गये थे, उन्हें प्रसाद वितरण कर शाखा के केलेंडर के अनुसार मंगलवार नामक कार्यदिवस का आरंभ हुआ.

नोट : किस्साये तालघाट जारी रहेगा. हममें से अधिकांश इसमें अपनी यादों का आनंद लेंगे, हो सकता है कुछ ऐसे भी हों जिनका इन सब से वास्ता ही न पड़ा हो और वे अपने यथार्थ रूपी अतीत को जो उनकी भी बुनियाद रही है, भूलकर मायाजाल की सोशलमीडियाई कल्पनाओं में ही गर्वित रहें. तो उनके लिए तो इस किस्से का कोई मतलब नहीं भी हो सकता है पर ये किस्सा तो जारी रहेगा मित्रों क्योंकि संतुष्टि का सबसे बड़ा हिस्सा तो लेखक के हिस्से में ही आता है.

अपडाउनर्स की यात्रा जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 180 ☆ पुण्याई… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 180 ?

💥 पुण्याई… 💥 सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

किती पैलू असतात ना,

बाईच्या जगण्याला,

कसे असतो आपण,

मुलगी म्हणून ?

बहिण म्हणून ?

बायको म्हणून?

आई म्हणून ?

 

एका लेखिकेने लिहिल्या होत्या,

आदर्श मातांच्या,

विलक्षण कथा!

मी दिली होती भरभरून दाद,

त्या लेखनाला!

तिने मला मागितला ,

माझ्या आईपणाचा आलेख,

“मला लिहायचंय तुमच्यावर,

“आदर्श माता” म्हणून!”

 

माझा सविनय नकार,

“किती महान आहेत

त्या सा-याजणीच तुम्ही

ज्यांच्यावर लिहिलंय!”

 

मी असं काहीच नाही केलेलं,

माझ्या मुलासाठी!

अंतर्मुख होऊन,

घेतली होती स्वतःची,

उलटतपासणी !

 

आता परत आलंय आवतंन,

आदर्श माता पुरस्कार

 स्वीकारण्याचे !

हसले स्वतःशीच,

आठवल्या माझ्याचं

कवितेच्या ओळी,

“भोग देणं आणि घेणं

सोपं असेलही

किती कठीण असतं

आई होणं !”

 दूरदेशीच्या मुलाशी बोलले,

मिश्किलपणे,

या पुरस्काराबद्दल–

हसत हसत..आणि…

त्याचं बोलणं ऐकून वाटलं,

आई होणं  हेच

 एक पुण्य,

नव्हे जन्मजन्मांतरीची

पुण्याई —

निसर्गाने बहाल केलेला,

केवढा मोठा पुरस्कार!!

 

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – पुस्तकावर बोलू काही ☆ सांगावा… श्री सचिन वसंत पाटील ☆ परिचय – सुश्री सुनिता गद्रे ☆

सुश्री सुनिता गद्रे

? पुस्तकावर बोलू काही ?

 ☆ सांगावा… श्री सचिन वसंत पाटील ☆ परिचय – सुश्री सुनिता गद्रे ☆ 

पुस्तकाचे नाव- सांगावा

लेखक -श्री सचिन वसंत पाटील

पृष्ठ संख्या -135

 मूल्य- दोनशे रुपये.

अलीकडेच सांगावा हा खूप चांगला कथासंग्रह वाचनात आला.कर्नाळ या सांगली जवळच्या एका छोट्या गावात राहणारे लेखक सचिन पाटील यांचा!… त्यांना नुकताच भेटण्याचा योग आला. अक्षरशः विकलांग अवस्थेत जगणारा, सगळ्या विपरीत परिस्थितीशी लढणारा हा योध्दा!…त्याच्याबरोबरच्या नुसत्या बोलण्याने सुद्धा आपल्यात सकारात्मक ऊर्जेचा संचार होतो.’ सांगावा ‘या कथासंग्रहाची मी वाचली ती चौथी आवृत्ती ! दहा वर्षात चौथी आवृत्ती निघणे ही कुठल्याही नवोदित लेखकाला अभिमान वाटावा अशीच गोष्ट आहे.

श्री सचिन वसंत पाटील

संग्रहातील सर्व कथा ग्रामीण जीवनाचा चेहरा मोहरा दाखवितात. यात एकूण बारा कथांचा समावेश आहे .कथा बीजाची दोन रूपे येथे आढळतात. पहिले रूप म्हणजे आजच्या खेड्यातील मूल्य संस्कृतीचा होऊ घातलेला -हास  आणि दुसरे म्हणजे बदलत्या परिवर्तन प्रक्रियेत माणूस, माणुसकी,नाती, निती,आणि माती पण टिकली पाहिजे हा लेखकाचा दृष्टिकोन. या दोन कथा बीजांभोवती ‘सांगावा’ कथासंग्रहातील कथांचे वर्तुळ तयार झाले आहे.

संग्रहातील भूल ही पहिली कथा! स्वतःच्या हाताने जीवनाची शोकांतिका करणाऱ्या शेतकऱ्याची अंधश्रद्धा, अडाणी समजूत यातून ती साकारली गेलेली आहे. हणमा शेतकरी ऐकीव गोष्टीला बळी पडून ,आपल्या संसाराला रान भूल लागू नये म्हणून भ्रमिष्टासारखा जेव्हा आपल्या शेतातील वांग्याचे बहारातील पीक उध्वस्त करून टाकतो, तेव्हा वाचकाला खूप हळहळ वाटत राहते.

दुसरी कथा ‘काळीज’! ग्रामीण परिसरात ‘सेझ’चे आगमन आणि कृषी जीवनाची फरपट लेखकाने येथे चित्रित केली आहे. शामू अण्णा ,काळी आईचे जिवापाड सेवा करणारा शेतकरी! पण त्याचाच मुलगा जेव्हा त्यांना न विचारता जमीन विक्रीची परवानगी देतो, तेव्हा तो खचून जातो  आणि वेडा बागडा  बिन काळजाच्या, निर्जीव बुजगावण्यागत जगत राहतो.  कथा वाचकाच्या काळजाला एकदम भिडते.

‘पावना ‘कथेत खेडेगावातल्या जीवन मूल्यांचा -हास चित्रित होतो. कितीही कष्ट, त्रास झाला तरी आलेल्या पाहुण्यांचे आदरातिथ्य करणे, त्याला आधार देणे ,विचारपूस करणे हा ग्रामीण माणसाच्या मनाचा मोठेपणा कालौघात ग्रामीण माणसाकडून हिरावला गेलेलाआपल्याला या कथेत दिसतो.

‘मांडवझळ ‘ही एका लाली नावाच्या पाळीव कुत्रीची कथा! ती कुत्रीच येथे सगळं विषद करतेय. भरल्या घरात, लग्न समारंभा दिवशी त्या बिचारीला किती अग्नी दिव्यातून जावे लागले, किती यातना सोसाव्या लागल्या हे वाचून मन विषण्ण  होते.त्या पाळलेल्या बिचारीला खायला द्यायची पण कोणाला सवड आणि आठवण नाहीय. तिचे झालेले हाल आणि अगतिकता बघून मुक्या प्राण्यांना भूक असते, भावना असतात त्यांचे मन समजून घ्या असा मोलाचा संदेश ही कथा देते.

‘वाट ‘कथेत मोठ्या बाहुबली शेतकऱ्याने जाण्या-येण्याच्या वाटेसाठी  एका गरीब शेतकऱ्याची लावलेली  वाट….आजही शेतकऱ्यांच्या नशिबीचा वनवास कसा असतो हे दाखवते.

‘धग’ ही संभा या कष्टाळू प्रामाणिक इस्त्री वाल्याची कथा आहे. त्याच्या जीवन प्रवास बघता, साध्या सरळ स्वभावाच्या माणसांची ही शोकांतिकाच असते काय?.. की त्याला उन्हाळ्याची धग, पोटातील भुकेची धग, न मिळालेल्या मायेची धग यात पिळपटून टाकलं जातं… असा प्रश्न मनात उभा राहतो.

मरणकळा ही नव्या जुन्या पिढीतील खाईची कथा. कथा नायकाला कितीही वाटलं तरी पत्नी विरुद्ध जाऊ न शकल्याने वडिलांचे होणारे हाल.. आणि त्यामुळे वडिलांच्या बरोबरच हळव्या मनाचा तो मरण कळा सोसतोय हे वास्तवाचं विदारक चित्रण येथे आहे.

‘सय’ एक स्वप्न कथा आहे. आपल्या आजोळी गेलेल्या सहा, सात वर्षाच्या मुलाची सय कथा नायकाला किती विचित्र स्वप्न पाडते हे लेखकाने छान रंगवले आहे.

‘चकवा’ ही खेड्यातील प्रेमाचा चकवा देणारी कथा! बाजारातून घरी जाणाऱ्या बज्याला लग्नाचा चकवा, स्त्री भेटल्याचा चकवा, अंधाराचा चकवा इत्यादी प्रतिमांमधून समाजातील अंधश्रद्धा, भूत, पिशाच्यावर विश्वास यावर प्रकाश टाकला आहे.

‘ओझ’एक सुंदर कथा आहे. गावातून शहरात जाऊन खूप मोठा आणि धनाढ्य झालेला मुलगा .गावात पंचवीस वर्षानंतर येऊन गावाचं… बारा बलुतेदारांचं आपल्यावर असलेलं ओझं उतरवतो खूप खुमासदार पद्धतीनं गावाचं चित्र रंगवलं गेलंय.

सांगावा ही संग्रहातील शीर्षककथा! मातृ हृदयानं आपल्या प्रिय पुत्रासाठी, किंबहुना हा एका पिढीने दुसऱ्या पिढीला दिलेला सांगावा आहे. आपल्या निर्वसनी मुलाला नाईलाजानं आईनं शहरात पाठवलंय. चार पैसे कमावले तर कर्ज फिटेल, गावात शेती करून मानानं राहता येईल हा त्यातला विचार. पण शहरातील छंदी-फंदीपणा,व्यसनं या सगळ्यामुळे पैसा हातात आला की नको ते करणं, संगतीचा परिणाम,  सखू म्हातारीच्या मनात असंख्य चित्रे तयार होतात. नको तो पैसा नको ते शहरात रहाणं !पोराला बहकू द्यायचं नसतं. शेवटी मुलाला सांगावा देते”जसा असचील तसा घराकडे निघून ये.”ही कथाही काळजाला जाऊन  भिडते.

आशय, अभिव्यक्ती भाषा मूल्य याने सांगावा कथा संग्रह वाचकांचे लक्ष खिळवून ठेवतो. लेखक सचिन पाटील यांनी ग्रामीण संस्कृती, लोकसंकेत, व्यक्ति, प्रवृतीचं दर्शन मोठ्या सूचकतेने केलं आहे. बोलीभाषा, निवेदनातील सजगता ,सहजता, घडलेला प्रसंग साक्षात् डोळ्यासमोर उभा करण्याची धाटणी खूपच वाखाणण्याजोगी आहे .एक उत्कृष्ट कथासंग्रह वाचल्याचा आनंद ‘सांगावा’ निश्चितच देतो.

** समाप्त**

परिचय – सुश्री सुनीता गद्रे

माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 01 – पपड़ाये हैं अधर नदी के… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – पपड़ाये हैं अधर नदी के…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 01 – पपड़ाये हैं अधर नदी के… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

पपड़ाये हैं अधर नदी के

है व्याकुल प्यासी

 

जर्जर जीर्ण-शीर्ण दिखते हैं

झील, सरोवर, ताल

मेघ, रूठकर गये

कछारों पर छाया दुष्काल

प्रकृति कराह रही निर्वसना

बेबस अबला सी

 

नींद नहीं खुल रही

नशेड़ी पहरेदारों की

इज्जत लूट रहे आतंकी

हरित कछारों की

वृक्षावलियाँ आज हुई हैं

महलों की दासी

 

नदियों की सेवा करते थे

जो निर्झर नाले

वृक्ष हुए उद्गम से गायब

रस देने वाले

लोक घुनें हैं मूक

नहीं मुखड़े पर उल्लासी 

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 76 – मनोज के दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे..”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 76 – मनोज के दोहे…

1 आभार

सबके प्रति आभार है, दिखलाई जो राह।

कविता तट तक जा सका,नाप सका कुछ थाह।।

2 ज्वार

ज्वार बाजरा खाइए, मिटें उदर के रोग।

न्यूट्रीशन तन को मिले, होता उत्तम भोग।।

3 सुकुमार

बाल्यकाल सुकुमार है, रखें सदा ही ख्याल।

संस्कारों की उम्र यह, होता उन्नत भाल।।

4 पुलकन

मन की पुलकन बढ़ गई, मिली खबर चितचोर।

बेटी का घर आगमन, बाजी ढोलक भोर ।।

5 चितवन

चितवन झाँकी राम की, सीता सँग घनश्याम।

आभा मुख की निरखते, हृदय बसें श्री राम।।

 ©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares