हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ तलवार की धार: सैद्धान्तिक नेतृत्व की साहसिक दास्तान ☆ – श्री सुरेश पटवा 

☆ तलवार की धार: सैद्धान्तिक नेतृत्व की साहसिक दास्तान – श्री सुरेश पटवा ☆

Talwar Ki Dhar (तलवार की धार): सैद्धान्तिक नेतृत्व की साहसिक दास्तान (Hindi Edition) by [Suresh Patwa]

अमेज़न लिंक >>>> तलवार की धार: सैद्धान्तिक नेतृत्व की साहसिक दास्तान

संविधान सभा में विचार किया गया था कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में व्यापक लोकहित सुनिश्चित करने हेतु संस्थाओं की स्वायत्तता सबसे महत्वपूर्ण कारक होगी ताकि संस्थाएँ सम्भावित तानाशाही पूर्ण राजनीतिक दबाव और मनमानेपन से बचकर जनहित कारी नीतियाँ बनाकर पेशेवराना तरीक़ों से लागू कर सकें। इसीलिए भारतीय स्टेट बैंक का निर्माण करते समय सम्बंधित अधिनियम में संस्था को स्वायत्त बनाए रखने की व्यवस्था की गई थी।

तलवार साहब की अध्यक्षता में स्टेट बैंक ने स्वायत्तता पूर्वक संचालन से लाभ में दस से बीस प्रतिशत प्रतिवर्ष की वृद्धि दर्ज की थी। उनके कार्यकाल के दौरान शाखाओं की संख्या जो 1921 में इंपीरियल बैंक बनाते समय से 1969 तक 48 वर्षों में मात्र 1800 थी, जो सिर्फ़ 07 सालों (1969-1976) में बढ़कर 4000 हो गई। यह उपलब्धि किसी एक भौगोलिक क्षेत्र में नहीं बल्कि पूरे देश में हासिल की गई थी। उन्होंने 21 अगस्त 1976 को नागालैंड के मोन में स्टेट बैंक की 4000 वीं शाखा का उद्घाटन किया था। 13 फ़रवरी 1979 को बिहार के सतबारा में 5000 वीं शाखा खुलने के साथ ही स्टेट बैंक शाखाओं के साथ-साथ कार्मिकों की संख्या के मामले में भी दुनिया का सबसे बड़ा बैंकिंग नेटवर्क बन चुका था।

तलवार साहब ने भारतीय दर्शन के रहस्यवादी आध्यात्म की परम्परा को अपने जीवन में उतारकर सिद्धांत आधारित प्रबन्धन तरीक़ों से प्रशासकों की एक ऐसी समर्पित टीम बनाई जिसने स्टेट बैंक को कई मानकों पर विश्व स्तरीय संस्था बनाने में सबसे उत्तम योगदान दिया।

नेतृत्व के सैद्धांतिक तरीक़ों पर अमल करते हुए तलवार साहब का राजनीतिक नेतृत्व से टकराव हुआ। आपातकाल के दौरान उन्होंने ग़ैर-संवैधानिक शक्ति के प्रतीक बने सर्व शक्तिशाली संजय गांधी से मिलने तक से मना करके स्टेट बैंक के स्वायत्त स्वरुप की रक्षा करने में अध्यक्ष पद दाँव पर लगा दिया था।

आज भारत को हरमधारी साधु-संतो की ज़रूरत नहीं है अपितु आध्यात्मिक चेतना से आप्लावित तलवार साहब जैसे निष्काम कर्मयोगी नेतृत्व की आवश्यकता है जो भारतीय संस्थाओं को विश्व स्तरीय प्रतिस्पर्धा में खरी उतरने योग्य बनाने में सक्षम हों।

ऐसे निष्काम कर्मयोगी के कार्य जीवन की कहानी आपके हाथों में है। जो आपको यह बताएगी कि मूल्यों से समझौता किए बग़ैर सफल, सुखद और शांत जीवन यात्रा कैसे तय की जा सकती है।   – श्री सुरेश पटवा 

श्री सुरेश पटवा 

(मनुष्य के जीवन में कभी कुछ ऐसा घटित होता है जो भविष्य की नींव रखता है। संभवतः जब अदरणीय श्री सुरेश पटवा जी वर्षों पूर्व अद्भुत व्यक्तित्व के धनी स्व राज कुमार तलवार जी से पॉण्डिचेरी स्थित स्वामी अरविंद आश्रम में अनायास ही मिले तब उन्होने यह नहीं सोचा होगा कि भविष्य में वे स्व तलवार जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर आधारित पुस्तक “तलवार की धार” की रचना करेंगे।

वे नहीं जानते थे कि वे इस श्रेणी की पुस्तकों में एक इतिहास रच रहे हैं। वे एक ऐसी पुस्तक की रचना कर रहे हैं जो न सिर्फ स्टेट बैंक के वर्तमान और सेवानिवृत्त बैंक कर्मी अपितु, समस्त बैंकिंग समुदाय, राजनीति, अर्थशास्त्र, इतिहास के छात्र एवं प्रबुद्ध पाठक पढ़ना चाहेंगे।

इस अद्वितीय पुस्तक के आगमन पर मुझे श्री सुरेश पटवा जी द्वारा लिखित एक संस्मरण याद आ रहा है जो संभवतः इस पुस्तक की नींव रही होगी। इस अवसर पर आप सबसे साझा करना चाहूँगा।)

ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से श्री सुरेश पटवा जी को उनकी पुस्तक की अद्वितीय सफलता के लिए अशेष हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं      

गुरु चरण समर्पण

सुरेश को नौकरी लगते समय पता चला कि स्टेट बैंक की नौकरी में हर दो या चार साल में एक बार भारत में तय दूरी तक कहीं भी घोषित स्थान पर घूमने के लिए जाने-आने का रेल किराया मिलता है। सुरेश को किताब पढ़ने और पर्यटन का शौक़ बचपन से था। उसने जब होश सम्भाला तो बुजुर्गों को रामायण, गीता, महाभारत पढ़ते देखकर सोचता था कि यदि इन्होंने बचपन या जवानी में इन शास्त्रों को पढ़ा होता तो सीख जीवन में काम आती। उसने राममंदिर के पंडित जी से रामायण, गीता, महाभारत लेकर पढ़ी तो उसे हिंदू धर्म की आस्तिक अवधारणा और भक्ति साधना के ज्ञान से अधिक उनकी कहानियों की रोचकता और दार्शनिकता से पैदा होती आध्यात्मिकता पसंद आई।

उसने तय किया कि यात्रा अवकाश सुविधा का उपयोग भक्ति-ज्ञान, योग-साधना और ध्यान की जानकारी वर्तमान सिद्ध संस्थाओं से सीधे प्राप्त करने में करेगा। उसने पहले योग विद्यालय मुंगेर जाकर पंद्रह द्विवसीय पतंजलि योग शिविर में योग सीखा उसके बाद सात दिवसीय शिविर हेतु पांडीचेरी स्थित स्वामी अरविंद के दार्शनिक आश्रम गया।  अंत में ध्यान के दस दिवसीय शिविर हेतु विश्व विपाशयना केंद्र इगतपुरी गया।

अरविंद आश्रम पांडीचेरी में उसे एक विलक्षण व्यक्ति के दर्शन हुए। वे सुबह पाँच बजे उठकर दो कमरों की सफ़ाई करते, व्यायाम करते, ध्यान करते और किताबों का अध्ययन करके छः बजे समुन्दर किनारे घूमने निकल जाते। उनके चेहरे की चमक और विद्वता से प्रभावित होकर सुरेश उनके पीछे हो लिया। उन्होंने एक बार मुड़कर देखा कि कोई पीछा कर रहा है। वे थोड़े आगे चलकर रुक गए। सुरेश से पूछा क्या चाहते हो। सुरेश उस समय आश्रम द्वारा अहंकार विषय पर एक छोटी पुस्तक पढ़ रहा था।

उसने कहा “अहंकार के विषय में जानना चाहता हूँ।”

उन्होंने पूछा “तुम अहंकार के बारे में क्या जानते हो।”

सुरेश ने कहा “अहंकार दूसरों से श्रेष्ठ होने का दृढ़ भाव है।”

उन्होंने कहा “स्थूल उत्तर है, परन्तु ठीक है, यहीं से आगे बढ़ते हैं। जब बच्चे को बताया जाता है कि वह दूसरों से अधिक ज्ञानी है, सुंदर है, बलवान है, गोरा है, ऊँचा है, ताकतवर है, धनी है, विद्वान है, इसलिए दूसरों से श्रेष्ठ है। यहीं अहंकार का बीज व्यक्तित्व के धरातल पर अंकुरित होता है। आदमी के मस्तिष्क में रोपित श्रेष्ठताओं का अहम प्रत्येक सफलता से पुष्ट होता जाता है। अहंकार श्रेष्ठता के ऐसे कई अहमों का समुच्चय है। अहंकार स्थायी भाव एवं अकड़ संचारी भाव है। जब अकारण श्रेष्ठता के कीड़े दिमाग़ में घनघनाते हैं तब जो बाहर प्रकट होता है, वह घमंड होता है, क्रोध उसका प्रकटीकरण है।”

उन्होंने कहा “अहंकार व्यक्ति के निर्माण के लिए आवश्यक होता है। अहंकार को शासक का आभूषण कहा गया है। उम्र के चौथे दौर में निर्माण से निर्वाण की यात्रा में अहंकार भाव का तिरोहित होना अनिवार्य है।”

तब तक आसमान का सूर्य दमक कर सर पर चढ़ने लगा था। वे आश्रम लौट आए।

सुरेश उस दिन शाम को भी समुंदर किनारे पहुँचा कि शायद वे सज्जन मिल जाएँ तो कुछ और ज्ञान मिले, लेकिन वे नहीं दिखे। वह पश्चिम में डूबते सूर्य के मंद पड़ते प्रतिबिम्ब को सागर की लहरों पर झिलमिलाता देखता हुआ सोच रहा था।

अहंकार आभूषण कब है? राम का विवेक सम्मत परिमित अहंकार जब वे इसी समुंदर को सुखा डालने की चेतावनी देते हैं:-

“विनय न मानत जलधि जड़, गए तीन दिन बीत,

बोले राम सकोप तब, भय बिनु होय न प्रीत।”

दूसरी तरफ़ रावण का अविवेकी अपरिमित अहंकार है, जो दूसरे की पत्नी को बलात उठा लाकर भोग हेतु प्रपंच रचता है। वहाँ अहंकार और वासना मिल गए हैं, जो मनुष्य को अविवेकी क्रोधाग्नि में बदलकर मूढ़ता की स्थिति में पहुँचा उसका यश, धन, यौवन, जीवन सबकुछ हर लेता हैं।

सोचते-सोचते सुरेश को पता ही न चला, तब तक समुंदर की लहरों पर साँझ अपना साया फैला चुकी थी। साँझ की लहरों का मधुर स्वर रात के डरावने कोलाहल में बदलने लगा था। वह आश्रम लौट आया।

अगले दिन सुरेश फिर उनके पीछे हो लिया। उन्होंने सुरेश से परिचय पूछा। सुरेश ने गर्व से कहा की वह स्टेट बैंक में क्लर्क है। उन्होंने उसे ध्यान से देखा। सुरेश ने उनसे उनका नाम पूछा तो वे ख़ामोश रहे। फिर अहंकार के तिरोहित करने पर उन्होंने कहा:- “आपका व्यक्तित्व मकान की तरह सफलता की एक-एक ईंट से खड़ा होता है। एक बार मकान बन गया फिर ईंटों की ज़रूरत नहीं रहती। क्या बने हुए भव्य भवन पर ईंटों का ढ़ेर लगाना विवेक़सम्मत है। यदि आपको अहंकार भाव से मुक्त होना है तो विद्वता, अमीरी, जाति, धर्म, रंग, पद, प्रतिष्ठा की ईंटों को सजगता पूर्वक ध्यान क्रिया से निकालना होगा। यही निर्माण से निर्वाण की यात्रा है।” सुरेश ने उनसे परिचय जानना चाहा, परंतु वे फिर मौन रहे।

शिविर के दौरान जब भी वे दिखते सुरेश को लगता कोई चुम्बकीय शक्ति उसे उनकी तरफ़ खींच रही है। वह उन्हें दूर से निहारते रहता। सात दिन का शिविर पूरा होने पर आठवें दिन सुरेश को ग्रांड ट्रंक एक्सप्रेस पकड़ने हेतु पांडीचेरी से बस द्वारा चेन्नई पहुँचना था।

वह आश्रम के गेट पर बैग लेकर खड़ा था तभी वे सज्जन वहाँ आए, सुरेश से कहा “मैं आर.के.तलवार हूँ।”

सुरेश भौंचक होकर उन्हें नम आँखों से अवाक देखता रहा। काँपते हाथों से उनके चरण छूकर प्रणाम किया, तब तक आटो आ गया, सुरेश उस चेहरे को जहाँ तक दिखा, देखता रहा। अंत में वह चेहरा धुंधला होकर क्षितिज में विलीन हो गया।

उसे पता चला था कि तलवार साहब संजय गांधी की नाराज़गी के चलते स्टेट बैंक से ज़बरिया अवकाश पर भेज दिए गए थे। वे दो कमरों का फ़्लेट किराए पर लेकर पत्नी शक्ति तलवार सहित पांडीचेरी में बस गए थे। उसे क्या पता था कि उस महामानव से ऐसी मुलाक़ात होगी। वह लम्बी रेलयात्रा में समय काटने के लिहाज़ से “कबीर-समग्र” किताब साथ रखे था। कबीर की साखियाँ पढ़ते-पढ़ते एक साखी से आगे नहीं बढ़ सका:-

कबीरा जब पैदा हुए,जग हँसा तुम रोए,

ऐसी करनी करा चल, तू हँसे जग रोए।

पढ़ते-पढ़ते उसकी नींद लग गई, उठकर बाहर देखा एक पट्टी पर पीले रंग से लिखा था “वर्धा” गांधी आश्रम के लिए यहाँ उतरिए। गाँधी-तलवार-गांधी-तलवार, उसके दिमाग़ में गड्डमड्ड हो गए। दोनों सच्चाई, ईमानदारी और सादगी के मूल्यों को संजोए भारतीय आध्यात्मिक जीवन दर्शन के सजग प्रहरी थे।

कहा जाता है कि आदमी के सज्जन से दिखते चेहरे के पीछे सात चेहरे छिपे होते हैं, सबसे ऊपर ईमानदार चेहरा बाक़ी अन्य चेहरों को छिपाए रखता है, बाक़ी चेहरे आजुबाजु से झांकते रहते हैं। बेइमानी, कुटिलता, निर्दयता, धोखेबाज़ी, लालच, खुशामदी और कामुकता के चेहरे पर ईमानदारी का मुखौटा वर्तमान जीवन जीने का तरीक़ा सा बन गया है क्योंकि सिर्फ़ ईमानदारी का चेहरा लेकर आज की दुनिया में जीना न सिर्फ़ दूभर हो चला है बल्कि तलवार की धार पर चलने जैसा है। यदि व्यक्ति का पद स्टेट बैंक के चेयरमेन जैसा बड़ा हो तो ईमानदार आदमी का तलवार की पैनी धार पर नंगे पैर चलने जैसा है। आधुनिक समय में ऐसे एक व्यक्ति हुए हैं, जिनका नाम राज कुमार तलवार था, वे जीवन को दिव्य-सत्ता से संचालित मानकर बाहर और भीतर ईमानदारी, सच्चाई और कर्तव्य परायणता के दिव्य-सत्य के साथ तलवार की धार पर नंगे पाँव चलते रहे, न झुके न टूटे, अपना जीवन जीकर दिव्य-चेतना में विलीन हो गए।

सामान्य आदमी का चेहरा भावों के अनुसार सात रंग बदलता है, ख़ुशी, उदासी, डर, क्रोध, घृणा, आश्चर्य और निन्दा की स्थिति में आँख, मुँह, नाक, कान, माँसपेशियाँ मिलकर अलग-अलग आकृतियाँ बनाते हैं। जो आदमी प्रत्येक घटना को दिव्य-सत्ता का प्रसाद मानकर प्रभाव ग्रहण करता है वह इन भावों से परे हो जाता है उसका चेहरा स्निग्ध होता है, रंग नहीं बदलाता। राज कुमार नाम का वह चेहरा ऐसा ही सौम्य चेहरा था। निर्दयी राजनीतिक सत्ता की प्रताड़नाओं से भी कुरूप नहीं हुआ।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ गांव की यादें ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण ☆ गांव की यादें

गांव की यादें मेरे आसपास मंडराती रहती हैं ।

बचपन में पिता नहीं रहे थे । सिर्फ तेरह साल का था और ज़मीन इकतीस एकड़ । नन्हे पांव और सारे खेतों की देखभाल मेरे जिम्मे । खेती की कोई जानकारी नहीं । छोटे तीन भाई बहन । गेहूं की कटाई के दिनों में रातें भी खेत में ही गुजारनी पड़तीं । हवेली का नौकर भगत राम लालटेन जलवा कर पास रखवा देता । ऐसे में मैं साहित्यिक उपन्यास पढ़ता रहता । मक्खी की रोटी, मक्खन और लस्सी बना कर लाता । गेहूं की कटाई के बाद बैलों की मदद से गेहूं निकाला जाता और फिर इसको बांटने की शुरूआत होती । खेतों में कोई तोलने वाली मशीन न होती । टीन के कनस्तर को मापने के लिए देसी माणक माना जाता । शुरूआत में जो मजदूर लगे होते उनके निर्धारित पीपे दिए जाते । फिर भगत राम के लिए गेहूं छोड़ी जाती । उसके बाद हम दोनों का आधा आधा होता । फिर अनाज मंडी और वहां बहीखातों मे हिसाब किताब । काफी साइन उस बही-खाते पर किए होंगे । छह माह का राशन बैलगाड़ी पर लाद कर घर लाते । ताकि अगली फसल आने तक चल सके ।

फिर गन्ने का सीजन आता और बेलना खेत में लगाया जाता । सर्दियों की हल्की हल्की धूप में फिर बेलने के पास मेरी चारपाई लगा दी जाती । गर्म गर्म गुड़ और फिर आसपास के खेतों में काम करने वाले आ जाते अपनी अपनी रोटियां लेकर कि इनके ऊपर थोड़ा गुड़ डाल दो । रस भी पीते और खूब मूंछें संवारते । वे मज़े ले लेकर खाते तो भगत राम हंसता -लाला जी का बेलना क्या पंजाबी ढाबा हो गया ? चले आए जब दिल चाहा । मैं रोक देता ऐसा कहने से । उबलती हुई रस के  कड़ाहे में मेरे लिए आलू उखाड़ कर डाले जाते और बाहर निकाल कर ठंडे कर खाते । ऐसा लगता जैसे आलू शकरकंदी बन गये । बहुत स्वाद से खाते सब ।

अब गांवों के किसी खेत में शायद ही बेलना चलता दिखाई  देता हो । हां , सड़क किनारे यूपी से आकर लोग गन्ने का ठेका लेकर बेलना लगाते हैं और नवांशहर से जालंधर व चंडीगढ़ के बीच सड़क पर ऐसे कितने बेलने मिल जाते हैं । कभी कभी गाड़ी रोकर गुड़ शक्कर खरीदता हूं तो आंखें भीग जाती हैं अपने गांव के खेतों में चलते बेलने को याद करके । हर साल बादाम, किशमिश और खरबूजे के बीज डाल कर गुड़ बनवाया जाता जो घर आए मेहमान को खाने के बाद स्वीट डिश की तरह परोसा जाता । आह । वे दिन और कैसे बाजार बनता जा रहा गांव । मक्की के भुट्टे सारे मुहल्ले में दादी बंटवाती थी और लोहड़ी के दिन बड़ी बल्टोही रस से भरी मंगवाती गांव से और सारे घरों में देतीं । अब रस की रेहड़ियां आतीं हैं घरों के आसपास आवाज़ लगती है रस ले लो । सब बाजार में । भुट्टे गर्मा गर्म बाजार में । कुछ दिल नहीं करता । गांव जाता हूं तो बच्चों के लिए खूब सारे भुट्टे लाता हूं । उन्हें वे भूनना भी नहीं जानते । रसोई गैस पर भूनते हैं और जला देते हैं । हमारी हवेली के सामने दाने भूनने वाली बैठती थी और भगत राम मेरे लिए मक्की के दाने भिगो कर बनवाता जिसे खाते । या चने जिनको बाद में पीस कर शक्कर मिला कर कूटते और उन जैसा स्वाद किसी स्वीट डिश में आज तक नहीं मिला । बड़े बड़े होटल्स में भी नहीं ।

यों ही गांव मेरे पास आया और अपनी कहानी सुना गया । सुबह सैर के बीच कितनी बार गांव मेरे पास आया । आखिर वह अपनी व्यथा कथा लिखवाते में सफल रहा ।

© श्री कमलेश भारतीय

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ ☆  सन्दर्भ: एकता शक्ति ☆  महात्मा गाँधी जी का जबलपुर दौरा ☆ डॉ. शिव कुमार सिंह ठाकुर

डॉ. शिव कुमार सिंह ठाकुर

हम ई-अभिव्यक्ति पर एक अभियान की तरह प्रतिदिन “संदर्भ: एकता शक्ति” के अंतर्गत एक रचना पाठकों से साझा कर रहे हैं। हमारा आग्रह  है कि इस विषय पर अपनी सकारात्मक एवं सार्थक रचनाएँ प्रेषित करें। हम सहयोगी  “साहित्यम समूह” में “एकता शक्ति आयोजन” में प्राप्त चुनिंदा रचनाओं से इस अभियान को प्रारम्भ कर रहे हैं।  आज प्रस्तुत है  डॉ. शिव कुमार सिंह ठाकुर जी की प्रस्तुति  “ भारतवासी  ”

☆  सन्दर्भ: एकता शक्ति ☆  महात्मा गाँधी जी का जबलपुर दौरा ☆

एकता और शक्ति के संधान हेतु महात्मा गांधी जी ने जबलपुर का तीन बार दौरा किया था।

बात उन दिनों की है जब मध्य प्रदेश की राजधानी नागपुर हुआ करती थी, कांग्रेस के 35 वें अधिवेशन के बाद देश में नई चेतना का सूत्रपात हुआ। महात्मा गांधी ने सत्य, अहिंसा,  सत्याग्रह, असहयोग आंदोलन के माध्यम से छुआछूत ऊंच-नीच आदि को बदलने हेतु यात्रा प्रारंभ की। उन दिनों जबलपुर राजनीतिक मायने में अत्यंत महत्वपूर्ण शहर था।

गांधी जी को 2 दिसंबर 1933 को रेल से आना था। जबलपुर के कार्यकर्ताओं ने विचार किया कि गांधीजी कटनी तक तो रेल से आएंगे क्योंकि वहां उनका कार्यक्रम है, वहां से उन्हें जबलपुर मोटर कार द्वारा लाना सही रहेगा। उन्हीं दिनों डॉक्टर जॉर्ज डिसिल्वा जो बापू के पुराने मित्र थे, ने नई मोटर कार शेवरलेट खरीदी थी । उसे लेकर नेशनल वॉइस स्काउट के साथ, जिनका नेतृत्व गुलाब चंद गुप्ता कर रहे थे ,कटनी पहुंचे ।किसी तरह कटनी रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म तक कार ले जाई गई और वहां से उन्हें राष्ट्रीय तिलक विद्यालय ले जाया गया। कटनी में 1 दिन रुकने के बाद 3 दिसंबर 1933 को जॉर्ज डिसिल्वा स्वयं कार चलाते हुए गांधी जी को लेकर संध्या के समय जबलपुर पहुंचे। यहां पहुंचने पर व्यौहार राजेंद्र सिंह के साठिया कुआं स्थित निवास पर उन्हें ठहराया गया। गांधी जी की यह दूसरी बार जबलपुर यात्रा थी ।पूर्व में वह 20 मार्च 1921 को जवाहर गंज स्थित श्यामसुंदर भार्गव के निवास खजांची भवन में ठहरे हुए थे ।उस समय गांधी जी द्वारा किया गया दौरा कांग्रेस के प्रति आम जनता का विश्वास जागृत करने का था ।उनके साथ उनकी अंग्रेजी शिष्य। मीराबेन तथा ठक्करबापा भी थे।

गांधीजी 4 दिनों तक जबलपुर में रुके और हरिजन कोष के लिए निवेदन किया । म्युनिसिपल कमेटी की ओर से द्वारका प्रसाद मिश्रा तथा डिस्टिक काउंसिल की ओर से व्यवहार रघुवीर सिंह द्वारा मानपत्र अर्पित किया गया। सामाजिक संगठन विशेषकर गुजराती समाज की ओर से भी गांधी जी का सम्मान किया गया ।इसी तरह नेशनल वॉइज स्काउट की ओर से शुभम चंद जी जैन ,सवाई मल जी जैन तथा साहित्यकार भवानी प्रसाद जी तिवारी द्वारा महात्मा गांधी को अभिनंदन पत्र अर्पित किया गया।
छावनी निवासियों ने भी गांधी जी का स्वागत किया। सदर स्थित काली मंदिर तथा अग्रवाल मंदिर आदि को हरि जनों हेतु खुलवाया गया। उस समय गांधी जी नगर में थे तब अखिल भारतीय कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक भी आयोजित की गई ।जिसमें जवाहरलाल नेहरू, खान अब्दुल गफ्फार, सरदार वल्लभभाई पटेल, सेठ जमनालाल बजाज, मौलाना अबुल कलाम आजाद, सैयद महमूद एवं केएफ नरीमन आदि नेतागण शामिल थे। इन्हें गोपाल बाग में ठहराया गया था क्योंकि उन दिनों बाबू गोविंद दास जेल में थे, अतः सभी नेता गणों के ठहराने की व्यवस्था पंडित द्वारका प्रसाद मिश्र ने स्वयं की थी।

महात्मा गांधी जी ने हरिजनों की दशा सुधारने और अछूतों उद्धार करने के लिए आत्म शुद्धि हेतु 21 दिन का ऐतिहासिक उपवास भी किया था। इलाहाबाद में कमला नेहरू अस्पताल का शिलान्यास महात्मा गांधी द्वारा किया जाना था, उसी यात्रा के दौरान गांधी जी ने इलाहाबाद जाते समय अल्प क्षणों के लिए जबलपुर के भेड़ाघाट स्टेशन पर उतर कर प्राकृतिक सौंदर्य देखने का कार्यक्रम बनाया। जब गांधी जी के मीरगंज स्टेशन पर उतरने की सूचना मिली तो नर्मदा प्रसाद जी सराफ, हुकुमचंद जी नारद,लक्ष्मी शंकर जी भट्ट, सेठ लक्ष्मी दास आदि भेड़ाघाट पहुंचे और गांधीजी को नर्मदा में नौका विहार, धुआंधार,बंदर कूदनी आदि का अवलोकन कराया। तत्पश्चात कार्यकर्ताओं के आग्रह पर महादेव भाई देसाई, कनु गांधी तथा महाराज कुमार विजयनगरम के साथ जबलपुर आए तथा सेठ हीर जी गोविंद जी के चेरीताल स्थित रत्न हीर निवास पर ठहरे।
गांधी जी 27 अप्रैल 1942 को बनारस विश्वविद्यालय जाते समय प्रातः कालीन जबलपुर आए, क्योंकि गांधी जी को दोपहर की गाड़ी से जाना था अतः अल्प समय के लिए मदन महल स्टेशन के समीप पंडित द्वारका प्रसाद मिश्र के निवास पर रुके। विदित हो कि उनकी आगमन की पूर्व सूचना प्रसारित नहीं की गई थी, फिर भी बहुत सारे लोग उनके दर्शन को मदन महल स्टेशन पहुंच गए थे।

महात्मा गांधी जबलपुर वासियों का आदर सम्मान और प्रेम देखकर पूरे दिन जबलपुर में रुके और उस समय बाबू गोविंद दास का ऑपरेशन विक्टोरिया अस्पताल में हुआ था, उन्हें देखने के लिए गांधीजी और पंडित द्वारका प्रसाद मिश्र विक्टोरिया अस्पताल गए और उनके स्वास्थ्य लाभ की कामना की।

महात्मा गांधी ने यह महसूस किया की जबलपुर की जनता का स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेना अनिवार्य है अतः जबलपुर से विचार क्रांति की शुरुआत महात्मा जी ने की थी।

सादर

डॉ.शिव कुमार सिंह ठाकुर
जबलपुर

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ मुंशी प्रेमचंद की पुण्यतिथि पर – कलम की मजदूरी ☆ प्रस्तुति – श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

Premchand - Wikipedia

☆ संस्मरण ☆ मुंशी प्रेमचंद की पुण्यतिथि पर – कलम की मजदूरी

(आज मुंशी प्रेमचंद को याद करने का दिन। उनकी पुण्यतिथि है आज। सादर विनम्र श्रद्धांजलि । )

 

एक सज्जन मुंशी प्रेमचंद को मिलने पहुंचे । ड्योढ़ी में ही एक लेखक कुछ लिख रहा था । सज्जन समझे यह कोई छोटा मोटा लेखक होगा ।

पूछा – “मुंशी प्रेमचंद से मिलना है।”

“खड़े खड़े क्या मुलाकात करोगे ?”

सज्जन हैरान । वे तो स्वयं मुंशी प्रेमचंद थे । इतनी सादगी, इतनी सरलता ।

यह कलम का सिपाही : मुंशी प्रेमचंद की शुरूआत है । अमृत राय ने लिखी । नमन् ।

जब। कुछ ज्यादा समय हुआ तो मुंशी प्रेमचंद ने पूछा – “एक मजदूर मजदूरी नहीं करेगा तो खाएगा क्या?”

“भूखा मरेगा” सज्जन बोले ।

प्रेमचंद ने फिर विनम्रता से बताया – “यह मेरे कलम की मजदूरी का समय है।”

 

-प्रस्तुति: श्री कमलेश भारतीय

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य ☆ संस्मरण ☆ हिंदी आंदोलन परिवार (हिंआप यात्रा -3) ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 ☆ संस्मरण ☆ हिंदी आंदोलन परिवार (हिंआप यात्रा -3) 

(हिंदी आंदोलन परिवार के आंदोलन को अभियान  का अर्थ देने की सफल प्रक्रिया के लिए ई- अभिव्यक्ति परिवार की हार्दिक शुभकामनायें )

30 सितम्बर 2020,  हिंदी आंदोलन परिवार का 26वाँ स्थापना दिवस। सच कहूँ तो हिंआप केवल शब्द या संस्था भर नहीं है। हमारी संतान है हिंआप।

विवाह के लगभग ढाई वर्ष बाद हिंआप का जन्म हुआ। बच्चे के जीवन में गिरने-पड़ने-संभलने, उठने-चलने-दौड़ने के जो चरण और प्रक्रियाएँ होती हैं, वे सभी हिंआप के जीवन में हुईं। हमारी संतान अब नयनाभिराम युवा हो चुकी।

स्मृतिचक्र घूम रहा है और कलम चल रही है। ईश्वर की अनुकंपा, माता-पिता के आशीष और आत्मीय जनो की शुभकामनाओं के चलते सार्वजनिक जीवन में नगण्य-ही सही पर स्थापना मिली। इसके चलते प्रायः विभिन्न आयोजनों में जाना होता है। स्वागत/ सम्मानस्वरूप मिला पुष्पगुच्छ घर लाकर रख देता हूँ। ऊपर से बेहद सुंदर दिखते पुष्प तीन से चार दिन में पूरी तरह सूख जाते हैं। जड़ों से कटने पर यही स्थिति होती है।

हिंआप ने अपनी स्थापना के समय से ही काटने या तोड़ने के मुकाबले खिलने और जोड़ने की प्रक्रिया को अपनाया। हमने बुके के स्थान पर पौधे देने की परंपरा का अनुसरण किया,  विनम्रता से कहूँ तो कुछ अर्थों में सूत्रपात भी किया। पौधे मिट्टी से जुड़े होते हैं। इनमें वृक्ष बनने की संभावना अंतर्निहित होती है।

इसी संभावना को हिंआप में संगठन के स्तर पर लागू करने का प्रयास भी किया। सभी साथियों की प्रतिभा को यथासंभव समझकर मांजने- तराशने के समुचित अवसर देते गये। इसमें वाचन,लेखन, प्रस्तुति से लेकर  व्यवस्थापन कुशलता, समूह में काम करने की वृत्ति, नेतृत्व, सहयोग, समयबद्धता जैसे अनेक आयाम समाविष्ट हैं। मिट्टी से जुड़े रहने का लाभ यह हुआ कि कुछ वृक्ष बन चुके, कुछ पौधे हैं, कुछ अंकुर फूट रहे हैं, कुछ बीज बोये जा चुके। अत्यंत नम्रता से कहना चाहता हूँ कि इस प्रक्रिया के  चलते आज हिंआप के पास टीम ‘बी’ और टीम ‘सी’ भी तैयार हैं।

संस्था के सामूहिक प्रयासों ने ‘आंदोलन’ शब्द जिस अर्थ में ढल चुका था, उससे बाहर निकाल कर उसे ‘अभियान’ का अर्थ देने में सफलता पाई।

धारा के विरुद्ध काम करते समय प्राय: उपजने वाली निराशा और थकान का हिंआप सौभाग्य से अपवाद रहा। हर बीज से नया वृक्ष खड़ा करने की जिजीविषा इस उपवन को निरंतर विस्तृत करती रही।

हिंआप आशंका में संभावना बोने का मिशन है। नित विस्तृत होती परिधि में बीज से वृक्ष होने की संभावना को व्यक्त करती हिंआप के जन्म के आसपास के समय की अपनी एक रचना स्मरण हो आई।

जलती सूखी जमीन

ठूँठ-से खड़े पेड़

अंतिम संस्कार की

प्रतीक्षा करती पीली घास,

लू के गर्म शरारे

दरकती माटी की दरारें

इन दरारों के बीच पड़ा

वो बीज…,

मैं निराश नहीं हूँ

ये बीज मेरी आशा का केन्द्र है।

ये,

जो अपने भीतर समाये है

असीम संभावनाएँ-

वृक्ष होने की

छाया देने की

बरसात देने की

फल देने की

और हाँ;

फिर एक नया बीज देने की,

मैं निराश नहीं हूँ

ये बीज

मेरी आशा का केन्द्र है।

आशा बनी रही, भाषा टिकी रहे, संस्था चलती रहे उस दिन तक, जिस दिन भारतीय भाषाएँ शासन- प्रशासन, शिक्षा-दीक्षा, न्याय-अनुसंधान, हर क्षेत्र में  वांछित जगह पूरी तरह बना लें।

 

संजय भारद्वाज 

संस्थापक- अध्यक्ष

हिंदी आंदोलन परिवार

 सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 45 – बापू के संस्मरण-19- इसी का नाम है अंधा प्रेम …. ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “इसी का नाम है अंधा प्रेम ….”)

☆ गांधी चर्चा # 42 – बापू के संस्मरण – 19 – इसी का नाम है अंधा प्रेम ….☆ 

उन दिनों गांधीजी बिहार में काम कर रहे थे । अचानक वायसराय ने उन्हें बुला भेजा । अनुरोध किया कि वे हवाई जहाज से आयें । गांधीजी ने कहा, “जिस सवारी में करोड़ों गरीब लोग सफर नहीं कर सकते, उसमें मैं कैसे बैठूं?” उन्होंने रेल के तीसरे दर्जे से ही जाना तय किया । मनु बहन को बुलाकर बोले,” मेरे साथ सिर्फ तुझको चलना है । सामान भी कम-से-कम लेना और तीसरे दर्जे का एक छोटे-से-छोटा डिब्बा देख लेना ।” सामान तो मनु बहन ने कम-से-कम लिया, लेकिन जो डिब्बा चुना, वह दो भागों वाला था.

एक में सामान रखा और दूसरा गांधीजी के सोने-बैठने के लिए रहा । ऐसा करते समय मनु के मन में उनके आराम का विचार था । हर स्टेशन पर भीड़ होगी , फिर हरिजनों के लिए पैसा इकट्ठा करना होता है, रसोई का काम भी उसी में होगा तो वह घड़ी भर आराम नहीं कर सकेंगे । यही बातें उसने सोची पटना से गाड़ी सुबह साढ़े-नौ बजे रवाना हुई ।

गर्मी के दिन थे, उन दिनों गांधीजी दस बजे भोजन करते थे । भोजन की तैयारी करने के बाद मनु उनके पास आई, वे लिख रहे थे । उसे देखकर पूछा,”कहां थी?” मनु बोली,”उधर खाना तैयार कर रही थी ।

“गांधीजी ने कहा, जरा” खिड़की के बाहर तो देख ।” मनु ने बाहर झांका, कई लोग दरवाजा पकड़े लटक रहे हैं, वह सबकुछ समझ गई ।

गांधीजी ने उसे एक मीठी-सी झिड़की दी और पूछा,”इस दूसरे कमरे के लिए तूने कहा था?” मनु बोली,” जी हां, मेरा विचार था कि यदि इसी कमरे में सब काम करूंगी तो आपको कष्ट होगा ।

” गांधीजी ने कहा,”कितनी कमजोर दलील है । इसी का नाम है अंधा-प्रेम । यह तो तूने सिर्फ दूसरा कमरा मांगा, लेकिन अगर सैलून भी मांगती तो वह भी मिल जाता । मगर क्या वह तुझको शोभा देता? यह दूसरा कमरा मांगना भी सैलून मांगने के बराबर है ।” गांधीजी बोल रहे थे और मनु की आंखों से पानी बह रहा था ।

उन्होंने कहा, “अगर तू मेरी बात समझती है तो आंखों में यह पानी नहीं आना चाहिए । जा, सब सामान इस कमरे में ले आ । गाड़ी जब रुके तब स्टेशन मास्टर को बुलाना ।” मनु ने तुरंत वैसा ही किया. उसके मन में धुकड़-धुकड़ मच रही थी । न जाने अब गांधीजी क्या करेंगे! कहीं वे मेरी भूल के लिए उपवास न कर बैठे! यह सोचते-सोचते स्टेशन आ गया, स्टेशनमास्टर भी आये ।

गांधीजी ने उनसे कहा, “यह लड़की मेरी पोती है, शायद अभी मुझे समझी नहीं, इसीलिए दो कमरे छांट लिए । यह दोष इसका नहीं है, मेरा है । मेरी सीख में कुछ कमी है । अब हमने दूसरा कमरा खाली कर दिया है । जो लोग बाहर लटक रहे हैं, उनको उसमें बैठाइये, तभी मेरा दुख कम होगा ।” स्टेशन मास्टर ने बहुत समझाया, मिन्नतें की, पर वे टस-से-मस न हुए । अन्त में स्टेशन मास्टर बोले, मैं उनके लिए दूसरा डिब्बा लगवाये देता हूं ।

” गांधीजी ने कहा, हां, दूसरा डिब्बा तो लगवा ही दीजिये, मगर इसका भी उपयोग कीजिये । जिस चीज की जरूरत न हो उसका उपयोग करना हिंसा है । आप सुविधाओं का दुरुपयोग करवाना चाहते हैं । लड़की को बिगाड़ना चाहते हैं । बेचारा स्टेशनमास्टर! शर्म से उसकी गर्दन गड़ गई । उसे गांधीजी का कहना मानना पड़ा ।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य ☆ संस्मरण ☆ हिंदी आंदोलन परिवार के पच्चीस वर्ष ☆ श्री संजय भारद्वाज, हिंदी आंदोलन परिवार

श्री संजय भारद्वाज 

 ☆ संस्मरण ☆ हिंदी आंदोलन परिवार के पच्चीस वर्ष ☆ श्री संजय भारद्वाज, हिंदी आंदोलन परिवार ☆

(हिंदी आंदोलन परिवार के स्थापना दिवस पर ई- अभिव्यक्ति परिवार की ओर से हार्दिक शुभकामनाएं)

आज 30 सितंबर 2020….आज ही के दिन 30 सितंबर 1995 को हिंदी आंदोलन परिवार की पहली गोष्ठी हुई थी। मुझे याद है मैं और सुधा जी नियत समय से लगभग डेढ़ घंटे पहले महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के सभागार में पहुँचे थे।

सरस्वती जी का चित्र, हार-फूल, दीप प्रज्ज्वलन का सारा सामान साथ था। जलपान के लिए इडली-चटनी, नमकीन, गुलाब जामुन, पेपर प्लेट, नेपकिन आदि भी साथ थे। सभागार के प्रवेशद्वार के सामने की जगह हमें गोष्ठी के लिए उपयुक्त लगी किंतु वहाँ धूल बहुत अधिक थी। सुधा जी ने झाड़ू थामी और जुट गईं स्वच्छता अभियान में।

सभागार में दरी नहीं थी। बाजीराव रोड पर ‘घर-संसार’ नामक दुकान थी। वे मंडप का सामान, शादी-ब्याह में लगनेवाली वस्तुएँ किराये पर देते थे। मैं वहाँ पहुँचा। दोपहर के भोजन के लिए दुकान बंद थी। बड़ी व्यग्रता से बीता दुकान खुलने तक का समय। बड़े आकार की एक मोटी दरी किराये पर ली। निर्देश यह कि दुकान फलां बजे बंद हो जायेगी, कल सुबह दरी लौटाई तो किराया दोगुना हो जायेगा। दरी में वज़न भी अच्छा-खासा था पर गोष्ठी के आयोजन का जुनून ऐसा कि दरी को कंधे पर लादकर तेजी से सभागार पहुँच गया।

(श्रीमती सुधा संजय भारद्वाज) 

हमारे विवाह को सवा तीन वर्ष बीत चुके थे। सुधा जी इस जुनून से परिचित होने लगी थीं। मेरे सभागार पहुँचने तक वे निर्धारित स्थान को स्वच्छ कर दीप प्रज्ज्वलन की तैयारी कर रही थीं। हमने दरी के दो छोर थामे और मिलकर दरी बिछाई। चार बजने को था। रचनाकार मित्रों को गोष्ठी के लिए चार बजे का समय दिया था। हमने हाथ से पत्र लिखकर लोगों को आमंत्रित किया था। प्रेस विज्ञप्ति बनाई थी जिसे एकाध समाचार पत्र ने संक्षिप्त सूचना के अंतर्गत प्रकाशित किया था।

राष्ट्रभाषा सभा के लक्ष्मी रोड स्थित पुस्तक बिक्री केंद्र और समिति के कार्यालय में बड़े कागज पर हाथ से पोस्टर बनाकर चिपकाया था। उन दिनों मोबाइल तो थे नहीं, टेलीफोन भी हर घर में नहीं होता था। अतः कितने लोग आएँगे, आएँगे भी या नहीं, इसकी कोई जानकारी नहीं थी।

जानकारी भले ही नहीं थी पर “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्‌’ पर विश्वास था। विश्वास फलीभूत भी हुआ। समय पर मित्र आने लगे। आज के मुकाबले तब लोग समय के अधिक पाबंद थे। लगभग पचहत्तर वर्षीय श्रीकृष्ण केसरी नामक एक सज्जन अपनी धर्मपत्नी के साथ उरली कांचन जैसे दूर के इलाके से आए थे। सर्वश्री/ सुश्री मधु हातेकर, डॉ. निशा ढवले, डॉ. कांति लोधी, राजेंद्र श्रीवास्तव, महेंद्र पंवार, कृष्णकुमार गुप्ता जैसे कुछ उपस्थितों के नाम याद हैं। संभवतः थोड़े समय के लिए समिति के तत्कालीन संचालक डॉ. सच्चिदानंद परलीकर जी भी रुके थे। कुल जमा पंद्रह लोग थे। मज़े की बात ये थी कि यह आंदोलन की पहली और अब तक के इतिहास में अंतिम गोष्ठी थी जिसमें रु. 15/- सहभागिता शुल्क लिया गया था।

इस काव्य गोष्ठी के लिए उस समय तक विशुद्ध नाटककार रहे मेरे जैसे निपट गद्य लिखनेवाले ने ‘पांचाली’ नामक अपने जीवन की दूसरी ( उससे पूर्व ग्यारहवीं में ‘गरीबी’ शीर्षक से एक कविता लिख चुका था।) कविता प्रस्तुत की थी। सुधा जी की “गुमशुदा की तलाश’ कविता याद है। हम दोनों की स्मृति में रह गई डॉ. निशा ढवले की कविता “दरवाज़े।’

संचालन को बहुत सराहना मिली। विनम्रता और ईमानदारी की बात है कि संचालन की कोई विशेष पूर्व तैयारी न तब की थी, न आज करता हूँ। आयोजन सफल रहा।

आज पीछे मुड़कर देखता हूँ कि गत 25 वर्षों में आंदोलन परिवार की 250 से अधिक गोष्ठियाँ और लगभग 50 ई-गोष्ठियाँ हो चुकी हैं। इसके अतिरिक्त लगभग 100 अन्य आयोजन-संगोष्ठी, समाजसेवी उपक्रम और महाविद्यालयीन विद्यार्थियों के लिए प्रकल्प आदि के रूप में हो चुके हैं।

समय के साथ व्यक्ति परिपक्व होता है, चिंतन और कृति में थोड़ी स्थिरता आती है। अन्य मामलों में तो ये लागू हुई पर जाने क्या है कि आंदोलन के लिए जो जुनून तब था, उससे अधिक आज है। “कबिरा खड़ा बाजार में लिये लुकाठी हाथ, जो घर फूँके आपणा चले हमारे साथ।’ इतनी बार घर फूँका कि आग भी थक गई पर हर बार ब्रह्मा ही चिंतित हुए और इस निर्धन दंपति के लिए फिर घर खड़ा कर दिया। अब तो आंदोलन के समर्पित साथियों की इतनी भुजाएँ हो चुकी हैं कि हम सबके सामूहिक जुनून और सामुदायिक कृति से इस परिवार की चर्चा अखिल भारतीय स्तर पर होने लगी है।

अखिल भारतीय से एक बात और याद आई। आयु और पुणे का प्रभाव ऐसा कि पहली गोष्ठी के निमंत्रण पर संस्था का नाम ‘अखिल भारतीय हिंदी आंदोलन’ लिखा था। समय ने सिखाया कि हिंदी में राष्ट्रीय परिवेश अंतर्निहित है। अतः हिंदी आंदोलन पर्याप्त है । अब देश के अनेक भागों से “आप हिंदी आंदोलन वाले संजय भारद्वाज बोल रहे हैं..’ पूछनेवाले फोन आते हैं तो लगता है कि संस्था का काम ही उसका कार्यक्षेत्र तय करता है।

मित्रो! आज 30 सितंबर 2020 को हम 26 वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। हमसे अब और अधिक सकारात्मक क्रियाशीलता की आशा की जाएगी। आइए, बनाए और टिकाए रखें हमारे जुनून को। निरंतर स्मरण रखें हमारे घोषवाक्य “हम हैं इसलिए मैं हूँ’ याने “उबूंटू’ को।

उबूंटू!

©  संजय भारद्वाज 

☆ संस्थापक- अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ डॉ. महाराज कृष्ण जैन – मेरे गुरु  मेरे पथप्रदर्शक ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका)

श्री विजय कुमार 

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी का संस्मरण  “डॉ. महाराज कृष्ण जैन – मेरे गुरु  मेरे पथप्रदर्शक”)

☆ संस्मरण – डॉ. महाराज कृष्ण जैन – मेरे गुरु  मेरे पथप्रदर्शक ☆

गुरु शिष्य का नाता बहुत ही गहरा होता है। गुरु को माता-पिता, ईश्वर से भी पहले स्थान दिया गया है। तभी तो कहा गया है–

गुरु गोविन्द  दोउ खड़े,

काके   लागूं  पाय।

बलिहारी गुरु आपने,

जिन गोविन्द दियो मिलाय।।

मेरे जीवन में भी गुरु जी का एक विशेष स्थान रहा है। ये गुरु स्कूल के न होकर पत्राचार पाठ्यक्रम चलाने वाले डॉ. महाराज कृष्ण जैन हैं। 31 मई 1938 को हरियाणा के एक छोटे से शहर अम्बाला छावनी में जन्म लेकर सारे देश और विदेश में लोकप्रिय हुए साहित्यकार, कहानीकार के रूप में। पांच वर्ष की आयु से ही पोलियोग्रस्त डॉ. जैन ने सन् 1964 में लेखन सिखाने के लिए ‘कहानी लेखन महाविद्यालय’ संस्थान की स्थापना की और पत्राचार द्वारा रचनात्मक लेखन सिखाने का कार्य आरम्भ किया। देश के लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकारों में डॉ. महाराज कृष्ण जैन ने कहानी को न केवल लिखा व लिखना सिखाया बल्कि बहुत करीब से जिया भी। डॉ. जैन मासिक पत्रिका ‘शुभ तारिका’ के संस्थापक/संपादक भी थे।

उनकी शारीरिक अक्षमता उनके जीवन में कहीं भी आड़े नहीं आयी। बौद्धिक व मानसिक रूप से वे अत्यन्त स्वस्थ और सजग थे। उनका मनोबल देखते ही बनता था।

‘कहानी लेखन महाविद्यालय, में व्यवस्थापक के पद पर रहते हुए मुझे उनसे बहुत कुछ सीखने का अवसर प्राप्त हुआ। किताबों का ज्ञान तो सभी गुरु अपने शिष्यों को देते हैं, किन्तु जो किताबी ज्ञान के अलावा दुनियादारी का व्यावहारिक ज्ञान भी दे, उस ज्ञान का महत्त्व बढ़ जाता है।

  • मैंने अपने गुरु से व्यावहारिक ज्ञान सीखा। उन्होंने मुझे बताया कि कैसे सदा दूसरों की मदद के लिये तैयार रहना चाहिए, किस प्रकार किसी ऑफिस (बैंक, पोस्टऑफिस या अन्य) में जाकर अपना काम करवाना चाहिए।
  • उन्होंने मुझे बताया कि कभी भी ऋणात्मक सोच न रखो। वे हमेशा ही सकारात्मक सोच रखते थे और दूसरों को भी ऐसी ही सलाह दिया करते थे।
  • वे अनुशासन प्रिय थे। वे हर काम को साफ-सुथरा और सलीके से करने और करवाने में विश्वास रखते थे।
  • उन्होंने मुझे बताया कि कैसे खास मौकों पर करने वाले कामों की लिस्ट बना ली जाए और कौन-सा काम पहले करना है और कौन सा बाद में करना है। इससे एक तो कोई काम छूटता नहीं और दूसरे काम करने में कोई दिक्कत नहीं आती।

उनके जीवन की याद आज मेरे जीवन का मार्गदर्शक बन गई है। उन्हें याद कर मैं किसी भी कार्य को करने में हार नहीं मानता। धन्य हैं ऐसे गुरु। मेरा शत-शत नमन।

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – 103-सी, अशोक नगर, अम्बाला छावनी-133001, मो.: 9813130512

ई मेल- [email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ वे कहते थे… – स्व वासुदेव प्रसाद खरे ☆ श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव

श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव

(श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव जी का उनके पिताश्री स्वर्गीय वासुदेव प्रसाद खरे  की स्मृति में विशेष आलेख।)

☆ संस्मरण – वे कहते थे… – स्व वासुदेव प्रसाद खरे ☆

वे कहते थे… लोग तुमसे मदद मांगते हैं क्योकि तुम उस  काबिल हो।

“भगवान ने तुमको  टेबिल के उस पार बैठाया है, तो तुम्हें भगवान का काम करना चाहिये, क्योकि भगवान खुद अपने हाथों से कुछ नहीं करता वह तुम्हें सामने वाले की मदद के लिये माध्यम के रुप में चुनता है.”  मेरे पिता स्व वासुदेव प्रसाद खरे आजाद भारत शासन के समय के डिप्टी कलेक्टर थे. वे कमिश्नर होकर रिटायर हुये. पर जीवन भर वे आम आदमी के मददगार जन सेवक बने रहे.

वे सागर जिले के पंजीकृत स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे हैं. उन्हें ताम्र पत्र देकर सम्मानित किया गया था ।

हम सातो भाई बहनो को संस्कारित परवरिश दी और आज मेरे बड़े भाई अनेक राष्ट्रपति पुरस्कारो से सम्मानित सागर के आई जी श्री के पी खरे तथा हम सभी भाई बहन अपने अपने जीवन साथियो के साथ सात स्तंभों के रूप में सभी उच्च प्रथम श्रेणी पदों पर सेवारत हैं और मम्मी पापा की इस सीख के ध्वज संवाहक हैं. शायद स्वर्गीय पापा मम्मी की इसी सीख को उनके आशीष स्वरूप स्वीकारने के कारण ही हमारी अगली पीढ़ी के सभी बच्चे भी एक से बढ़कर एक वैश्विक प्रतिभा के रूप में संवर रहे हैं और उनमें परस्पर आत्मिक प्रेम ही नही सामने वाले की हर संभव मदद करने का जन्मजात जज्बा देखने मिल रहा है. हम बच्चो में इस स्वउद्भूत संस्कार को  अपने बुजुर्गो का आशीर्वाद मानते हैं.  “महाकाव्य देवयानी” व अन्य अनेक किताबें उनकी स्मृतियां अक्षुण्य बनाये हुये हैं.

©  श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 40 – बापू के संस्मरण-14- बिना मजदूरी किये खाना पाप है. ………  ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण – बिना मजदूरी किये खाना पाप है. ……… ”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 40 – बापू के संस्मरण – 14 – बिना मजदूरी किये खाना पाप है. ………

 एक समय अवधेश नाम का एक युवक वर्धा में गांधीजी के आश्रम में आया । बोला, “मैं दो-तीन रोज ठहरकर यहां सब कुछ देखना चाहता हूँ । बापूजी से मिलने की भी इच्छा है । मेरे पास खाने-पीने के लिए कुछ भी नहीं है । मैं यहीं भोजन करूँगा।”

गांधीजी ने उसे अपने पास बुलाया ।  पूछा, ” कहाँ के रहने वाले हो और कहाँ से आये हो?” अवधेश ने उत्तर दिया, “मैं बलिया जिले का रहने वाला हूँ । कराची कांग्रेस देखने गया था । मेरे पास पैसा नहीं है। इसलिए कभी मैंने गाड़ी में बिना टिकट सफर किया, कभी पैदल मांगता-खाता चल पड़ा । इसी प्रकार यात्रा करता हुआ आ रहा हूँ।”

यह सुनकर गांधीजी गम्भीरता से बोले,”तुम्हारे जैसे नवयुवक को ऐसा करना शोभा नहीं देता। अगर पैसा पास नहीं था तो कांग्रेस देखने की क्या जरुरत थी? उससे लाभ भी हुआ? बिना मजदूरी किये खाना और बिना टिकट गाड़ी में सफर करना, सब चोरी है और चोरी पाप है । यहाँ  भी तुमको बिना मजदूरी किये खाना नहीं मिल सकेगा।”

अवधेश देखने में उत्साही और तेजस्वी मालूम देता था । कांग्रेस का कार्यकर्ता भी था । उसने कहा “ठीक है । आप मुझे काम दीजिये । मैं करने के लिए तैयार हूँ ।” गांधीजी ने सोचा, इस युवक को काम मिलना ही चाहिए और काम के बदले में खाना भी मिलना चाहिए । समाज और राज्य दोनों का यह दायित्व है । राज्य जो आज है वह पराया है, लेकिन समाज तो अपना है । वह भी इस ओर ध्यान देता, परन्तु मेरे पास आकर जो आदमी काम मांगता है उसे मैं ना नहीं कर सकता । उन्होंने उस युवक से कहा,”अच्छा, अवधेश, तुम  यहाँ पर काम करो. मैं तुमको खाना दूँगा। जब तुम्हारे पास किराये के लायक पैसे हो जायें तब अपने घर जाना ।” अवधेश ने गांधीजी की बात स्वीकार कर ली और वह वहाँ रहकर काम करने लगा ।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares
image_print