हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – ज़हर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – ज़हर

“बिच्छू ज़हरीला प्राणी है। ज़हर की थैली उसके पेट के निचले हिस्से या टेलसन में होती है। बिच्छू का ज़हर आदमी को नचा देता है। आदमी मरता तो नहीं पर जितनी देर ज़हर का असर रहता है, जीना भूल जाता है।…हम सब जानते हैं कि साँप भी ज़हरीला प्राणी है। लेकिन हर साँप में ज़हर नहीं होता। साँप अगर ज़हरीला है तो उसका ज़हर कितनी देर में असर करेगा, यह उसकी प्रजाति पर निर्भर करता है। कई साँप ऐसे हैं जिनके विष से थोड़ी देर में ही मौत हो सकती है। दुनिया के सबसे विषैले प्राणियों में कुछ साँप भी शामिल हैं। साँप की विषग्रंथि उसके दाँतों के बीच होती है”, ग्रामीणों के लिए चल रहे प्रौढ़ शिक्षावर्ग में विज्ञान के अध्यापक ज़हरीले प्राणियों के बारे में पढ़ा रहे थे।

“नहीं माटसाब, सबसे ज़हरीला होता है आदमी। बिच्छू के पेट में होता है, साँप के दाँत में होता है, पर आदमी की ज़ुबान पर होता है ज़हर। ज़ुबान से निकले शब्दों का ज़हर ज़िंदगीभर टीसता है। ..जो ज़िंदगीभर टीसे, वो ज़हर ही तो सबसे ज़्यादा तकलीफदेह होता है माटसाब।”

जीवन के लगभग सात दशक देख चुके विद्यार्थी की बात सुनकर युवा अध्यापक अवाक था।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 77 – लघुकथा – लाइक्स वाली दादी…. ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत एकअतिसुन्दर विनोदपूर्ण लघुकथा  “लाईक वाली दादी….। आज सोशल मीडिया हमारे जीवन में हावी हो गया है।  हम सब  सोशल मीडिया की दुनिया में सीमित होते जा रहे हैं और आपसी मेलजोल की जगह लाइक्स और कमैंट्स लेते जा रहे हैं। इस लघुकथा के माध्यम से  सोशल मीडिया से उपजे विनोद का अत्यंत सुन्दर वर्णन किया है। एक ऐसी ही अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘लाईक वाली दादी’ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 77 ☆

? लघुकथा – लाईक वाली दादी …. ?

सकारात्मक सोच जीवन में नई ऊर्जा भर देती है। ऐसे ही कोरोना काल में पड़ोस में रहने वाली दीप्ति को बिटिया हुई। देखभाल के लिए उसके मम्मी पापा लखनऊ ले गए।

लगभग आठ महीने के बाद बच्ची को लेकर दीप्ति बहू घर आई। क्योंकि, उसकी सासु माँ का अचानक अपेंडिक्स का ऑपरेशन हुआ। तब तक आवागमन के साधन नहीं शुरू हुए थे। घर में आना-जाना शुरु हो गया। सासु माँ की सहेलियां, पड़ोस की सभी मिलने आने लगी। बच्ची सभी को देखते ही ज़ोर-ज़ोर से रोने लगती। यहां तक कि उसकी और सगी दादी को भी वह देखकर रोती थी।

मोहल्ले में चर्चा का विषय बन गया। ‘हाय बाई! कैसे देखन जाएं उसकी मोड़ी तो जाते ही रोने लगती है।’ सासू माँ की एक सहेली जिसका आना जाना तो कम होता था परंतु समय के अनुसार वह मोबाइल और फेसबुक के कारण सभी समाचार प्राप्त कर लेती थी।

वे थोड़ी आधुनिक विचार की थी। दीप्ति की शादी से लेकर डिलीवरी तक का हालचाल वह व्हाट्सएप और फेसबुक पर ही शेयर और लाइक करती। दीप्ति भी बच्ची की तस्वीर लगातार दो चार दिनों में डालती रहती। सभी में लाइक और गुड कमेंट लिखा करती थी सहेली आंटी।

वह देखने घर पहुंच गई। दीप्ति बच्ची को उस समय खाना खिला रही थी। सासु माँ बोली – “अभी ये रोना शुरु कर देगी। बात भी नहीं करने देगी।” परंतु यह क्या बच्ची तो सहेली आंटी को देखते ही खिल – खिलाकर हंसने लगी।

सभी आश्चर्य से देखने लगे। लिटाए हुए बेबी को सहेली ने गोद में उठा कर लेना चाहा। सभी ने मना किया। परंतु वह गोद में ले कर हंसते हुए स्वयं खिलखिलाती बच्ची को गोद में उठाकर कहने लगी- “इसको मालूम है मैं फेसबुक में सबसे ज्यादा लाइक करने वाली दादी हूँ। इसको भी पता है लाइक नहीं करुंगी तो???”

सभी का मुँह खुला का खुला ही रह गया। भाई साहब जो अब तक चुप थे कहने लगे- “मैं भी आज फ्रेंड रिक्वेस्ट जल्द ही भेज रहा हूँ। एक बार फिर हंसी फूट पड़ी। ??

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – वादा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – वादा 

अपनी समस्याएँ लिए प्रतीक्षा करता रहा वह। उससे समाधान का वादा किया गया था। व्यवस्था में वादा अधिकांशतः वादा ही रह जाता है। अबकी बार उसने पहले के बजाय दूसरे के वादे पर भरोसा किया। प्रतीक्षा बनी रही। तीसरे, चौथे, पाँचवें, किसीका भी वादा अपवाद नहीं बना। वह प्रतीक्षा करता रहा, समस्या का कद बढ़ता गया।

आज उसने अपने आपसे वादा किया और  खड़ा हो गया समस्या के सामने सीना तानकर।…समस्या हक्की-बक्की रह गई।..चित्र पलट गया। उसका कद निरंतर बढ़ता गया, समस्या लगातार बौनी होती गई।

 

©  संजय भारद्वाज

(संध्या 4:56 बजे, 26.6.19 )

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 81 ☆ लघुकथा – आपदा  में  अवसर ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है एक लघुकथा  “आपदा  में  अवसर“। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 81

☆ लघुकथा – आपदा  में  अवसर ☆

राधा बाई को हाथ पैर में सूजन की शिकायत होने पर पति रामप्रसाद ने अस्पताल में भर्ती करवा दिया। कोविड के मरीजों से अस्पताल हाऊसफुल था। बेड खाली नहीं थे। एक रात जमीन पर लिटाया गया, सुबह कोरोना मरीज की मृत्यु से एक बेड खाली हुआ तो उस बिस्तर में राधा बाई को लिटा दिया गया। राधा बाई को कोरोना नहीं था पर बेड मिलने से अस्पताल के सब लोग उससे भी कोविड मरीज की तरह व्यवहार करने लगे, रात भर राधा कराहती रही और दूसरी रात राधा की मृत्यु हो गई। प्रोटोकॉल के तहत रामप्रसाद को लाश नहीं दी गई। राधा बाई की मौत किन परिस्थितियों में कब और क्यों हुई, किसी को नहीं मालूम।

बेरहम व्यवस्था ने रामप्रसाद को पत्नी की मुखाग्नि देने के अधिकार से वंचित कर दिया। एक महीने भटकने के बाद मुक्ति धाम से मिले डेथ सर्टिफिकेट में मौत की तारीख़ 25 अगस्त लिखी थी, और अस्पताल से मिले डेथ सर्टिफिकेट में मौत की तारीख़ 28 अगस्त लिखी देख रामप्रसाद को राधा पर दया आ गई, बेचारी अभागी राधा दो बार मरी, पर दोनों बार नेगेटिव रिपोर्ट के साथ मरी। प्रोटोकॉल के तहत लाश ठिकाने लगाने वाले ठेकेदार को राधा फायदा करा गई, उसे राधा के नाम पर दो बार पेमेंट हुआ।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ औरत ☆ सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा

सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा

सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सुश्री नरेन्द्र कौर छाबड़ा जी पिछले 40 वर्षों से लेखन में सक्रिय। 5 कहानी संग्रह, 1 लेख संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 पंजाबी कथा संग्रह तथा 1 तमिल में अनुवादित कथा संग्रह। कुल 9 पुस्तकें प्रकाशित।  पहली पुस्तक मेरी प्रतिनिधि कहानियाँ को केंद्रीय निदेशालय का हिंदीतर भाषी पुरस्कार। एक और गांधारी तथा प्रतिबिंब कहानी संग्रह को महाराष्ट्र हिन्दी साहित्य अकादमी का मुंशी प्रेमचंद पुरस्कार 2008 तथा २०१७। प्रासंगिक प्रसंग पुस्तक को महाराष्ट्र अकादमी का काका कलेलकर पुरुसकर 2013 लेखन में अनेकानेक पुरस्कार। आकाशवाणी से पिछले 35 वर्षों से रचनाओं का प्रसारण। लेखन के साथ चित्रकारी, समाजसेवा में भी सक्रिय । महाराष्ट्र बोर्ड की 10वीं कक्षा की हिन्दी लोकभरती पुस्तक में 2 लघुकथाएं शामिल 2018 )

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा औरत

इस लघुकथा का सुश्री माया महाजन द्वारा मराठी भावानुवाद आप इस लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं >>>>☆ जीवनरंग : लघुकथा– बाई  (भावानुवाद) सुश्री माया महाजन ☆

☆  लघुकथा – औरत

शहर की तमाम महिला समितियों ने मिलकर महिला दिवस पर महिला अत्याचार विरोधी संगोष्ठी का आयोजन किया ।बहुत बड़ी संख्या में महिलाएं एकत्रित हुईं। कलेक्टर, कमिश्नर, मेयर के अलावा कुछ नेता भी पत्नियों सहित आमंत्रित थे। महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों पर खुलकर चर्चा की गई जिसमें दहेज उत्पीड़न,परिवार द्वारा शोषण, कामकाजी महिलाओं का सहकर्मी पुरुषों द्वारा यौन उत्पीड़न, कन्या भ्रूण हत्या जैसे मुद्दों पर खुली बहस हुई। इन मुद्दों को लेकर प्रस्ताव पारित किए गए ।

दिनभर की व्यस्तता के पश्चात थकी हारी माधुरी घर पहुंची तो रात हो चली थी। खाने से निबटने के बाद वह निढाल सी पलंग पर पड़ी तो पति ने अपनी ओर खींचा। माधुरी ने कहा – “आज मैं बहुत थक गई हूं…..”

पति आवेश से दहाड़ उठा – “सारा दिन भाषण, नारेबाजी, स्टेज पर डोलने से थकान नहीं हुई और मुझे देखते ही थकान होने लगी? समझती क्या है अपने आप को?”

पति द्वारा पिटने और उसकी हवस पूरी करने के पश्चात मौन सिसकियों के बीच वह सोच रही थी, आज उसने यही मुद्दा तो उठाया था – पति द्वारा शोषण, उपेक्षा, प्रताड़ना का आखिर पत्नी कैसे सामना करे? कब तक यह सब सहन करे?  इसका हल क्या है? उसके उठाए मुद्दे पर प्रस्ताव पारित किया गया था। उस लोगों ने बधाई दी थी। अब उसे महसूस हो रहा था मानो बधाई देने वाले लोग उस पर फब्तियां कस रहे हैं, उसका उपहास उड़ा रहे हैं  – “देखा, चली थी क्रांतिकारी बनने ….मत भूलो, तुम औरत हो औरत ……..”

 

© नरेन्द्र कौर छाबड़ा

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ अप्रत्यक्ष इलाज ☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

(आज  प्रस्तुत है  डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव जी  की एक सार्थक लघुकथा अप्रत्यक्ष इलाज  

☆ लघुकथा – अप्रत्यक्ष इलाज ☆

“माँ अमित से कहो मेरा सामान न छुआ करें मुझे पसंद नहीं है” सुमित बड़बड़ाया।

माँ बोली ..”तुम्हारा छोटा भाई ही तो है और तुम कितने चिड़चिड़े हो।”

अगले दिन सुमित ऑफिस के लिए तैयार हुआ रुमाल रखने के लिए जेब में हाथ डाला तो एक कागज था निकाल कर पढ़ा “हैव ए नाइस डे फ्रॉम खुशबू।” उसे बड़ा अच्छा लगा। अब वह जितनी बार कपड़े निकालता जेब में से पुर्जे में कुछ ना कुछ अच्छा लिखा होता। तुम्हारा स्वभाव बहुत अच्छा है, तुम बहुत अच्छे हो। ऐसी ही छोटी-छोटी पंक्तियों से थोड़े ही दिनों में उसका स्वभाव पूरी तरह बदल गया। गुस्सा हवा हो गया।

एक दिन उसने भाई को अलमारी से कपड़े निकालते देखा तो प्यार से कहा तुम मेरा सारा सामान मुझसे बिना पूछे ले सकते हो बस कपड़े मैं तुम्हें निकाल कर दूँगा।

फिर माँ से पूछ कर लॉन्ड्री के कपड़ों के बहाने खुशबू को ढूंढने गया।

काउंटर पर सरदार अंकल और एक अपाहिज लड़की बैठी थी उसने पूछा ..”मेरे कपड़े कौन धोता प्रेस करता है?”

अंकल जी बोले ..”बेटा यह तो मेन शॉप है यहां से कितने सारे धोबी के यहां  कपड़े जाते हैं बता नहीं पाऊँगा।” उसके जाते ही सरदार जी ने बाजू में बैठी लड़की से कहा ..”बेटा तुम्हें ढूंढते हुए यहां तक आ गया पर तुम्हें पहचान नहीं पाया।”

खुशबू बोली ..”अंकल दरअसल हमारी कल्पना हकीकत से बहुत ज्यादा खूबसूरत और परफेक्ट होती है। वो तो  एक दिन इसकी मम्मी को यहां फोन पर बात करते सुना कि मेरा बेटा बहुत चिड़चिड़ा है। मैं बहुत दुखी हूँ तब मैंने सोचा कि मैं चल तो नहीं सकती पर अपने शब्दों से ही किसी के जीवन को बदल दूं और कई बार अप्रत्यक्ष रूप से किया गया इलाज बहुत कारगर होता है लेकिन अब से उस पुर्जे की जरूरत नहीं पड़ेगी।”

© डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

मो 9479774486

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 79 ☆ लघुकथा – बहुमूल्य☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  एक भावुक एवं विचारणीय लघुकथा  “बहुमूल्य। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 79 – साहित्य निकुंज ☆

लघुकथा – बहुमूल्य

मैं रोज घर से निकलते समय गाय की रोटी ले जाती और गेट के कोने में रख देती। कभी -कभी रात का बचा खाना भी रख देते।  सोचते चलो गाय के पेट में चला जायेगा। एक दिन  मैं अपना चश्मा घर पर ही भूल गई। आगे जाकर याद आया। वापस लौटी तो क्या देखती हूँ ?  5 – 6 साल के दो बच्चे मेरा रखा खाना उठा रहे थे। जैसे ही मुझे देखा तो छुपाने लगे । मैंने कहा..” क्या बात है बच्चों? आप लोग ये क्या कर रहे हैं ?”

तब लड़की बोली…” आंटी आप जो खाना रोज रख जाती है, हम लोग उठाकर ले जाते हैं। हमारे पिता को दिखता नहीं है। पिता की तबीयत भी ठीक नहीं रहती। हम रोज आपके आने का इंतजार करते हैं। जिस दिन आप नहीं आती हम लोग भूखे रह जाते है।

उनकी बातें सुनकर आंख से आंसू निकल पड़े। हम सोच में पड़ गए। बचा हुआ खाना कितना बहुमूल्य है?

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – यात्रा और यात्रा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – यात्रा और यात्रा ☆

जीवन में लोगों से आहत होते-होते थक गया था वह। लोग बाहर से कहते कुछ, भीतर से सोचते कुछ। वह विचार करता कि ऐसा क्यों घटता है? लोग दोहरा जीवन क्यों जीते हैं? फिर इस तरह तो जीवन में कोई अपना होगा ही नहीं! कैसे चलेगी जीवनयात्रा?

बार-बार सोचता कि क्या साधन किया जाय जिससे लोगों का मन पढ़ा जा सके? उसकी सोच रंग लायी। अंततः मिल गई उसे मन के उद्गार पढ़ने वाली मशीन।

विधाता भी अजब संजोग रचता है। वह मशीन लेकर प्रसन्न मन से लौट रहा था कि रास्ते में एक शवयात्रा मिली। कुछ हड़बड़ा-सा गया। पढ़ने चला था जीवन और पहला सामना मृत्यु से हो गया। हड़बड़ाहट में गलती से मशीन का बटन दब गया।

मशीन पर उभरने लगा शव के साथ चल रहे हरेक का मन। दिवंगत को कोई पुण्यात्मा मान रहा था तो कोई स्वार्थसाधु। कुछ के मन में उसकी प्रसिद्धि को लेकर द्वेष था तो कुछ को उसकी संपत्ति से मोह विशेष था। एक वर्ग के मन में उसके प्रति आदर अपार था तो एक वर्ग निर्विकार था। हरेक का अपना विचार था, हरेक का अपना उद्गार था। अलबत्ता दिवंगत पर इन सारे उद्गारों या टीका-टिप्पणी  का कोई प्रभाव नहीं था।

आज लंबे समय आहत मन को राहत अनुभव हुई। लोग क्या कहते हैं, क्या सोचते हैं, किस तरह की टिप्पणी करते हैं, उनके भीतर किस तरह के उद्गार उठते हैं, यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है अपनी यात्रा को उसी तरह बनाए रखना जिस तरह सारे टीका, सारी टिप्पणियों, सारी आलोचनाओं, सारी प्रशंसाओं के बीच  चल रही होती है अंतिमयात्रा।

अंतिमयात्रा से उसने पढ़ा जीवनयात्रा का पाठ।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – मिलन ☆ श्री हरभगवान चावला

श्री हरभगवान चावला

( ई-अभिव्यक्ति में सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी का हार्दिक स्वागत है। आज प्रस्तुत है आपकी एक समसामयिक विषय पर आधारित लघुकथा ‘मिलन’। हम भविष्य में भी ई- अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आपकी विशिष्ट रचनाओं को साझा करने का प्रयास करेंगे।)

संक्षिप्त परिचय

प्रकाशन –

  • पाँच कविता संग्रह ‘कोई अच्छी ख़बर लिखना’, ‘कुंभ में छूटी औरतें’, ‘इसी आकाश में’, ‘जहाँ कोई सरहद न हो’, ‘इन्तज़ार की उम्र’ ; एक कहानी संग्रह ‘हमकूं मिल्या जियावनहारा ।
  • सारिका, जनसत्ता, हंस, कथादेश, वागर्थ, रेतपथ, अक्सर, जतन, कथासमय, दैनिक भास्कर, दैनिक ट्रिब्यून, हरिगंधा आदि में रचनाएँ प्रकाशित ।
  • कुछ संग्रहों में रचनाएँ शामिल ।

पुरस्कार/सम्मान –

  • एक बार कहानी तथा एक बार लघुकथा के लिए कथादेश द्वारा पुरस्कृत ।
  • कविता संग्रह ‘कुंभ में छूटी औरतें ‘ को वर्ष 2011-12 के लिए तथा कविता संग्रह ‘इसी आकाश में’ को 2016-17 के लिए हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान

सम्प्रति  :  राजकीय महिला महाविद्यालय, रतिया से बतौर प्राचार्य सेवानिवृत्ति के बाद स्वतंत्र लेखन ।

☆ लघुकथा – मिलन ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

अस्सी वर्षीय किसान पतराम दो महीने से राजधानी के बॉर्डर पर दिए जा रहे किसानों के धरने में शामिल था। आज उसकी अठहत्तर वर्ष की पत्नी भतेरी उससे मिलने पहुंँची थी। दोनों ने जैसे ही एक-दूसरे को देखा, उनकी चेहरे की झुर्रियों में पानी यूंँ बह आया, जैसे चट्टानों के बीच झरने बह आए हों। एक नम चट्टान ने पूछा, “कैसे हो सतपाल के बापू?”

“मैं मज़े में हूंँ, तू बता, पोता-पोती ठीक हैं?” दूसरी नम चट्टान ने जवाब दिया।

“वहांँ तो सब ठीक हैं, तुम ठीक नहीं लग रहे हो।”

“मुझे क्या हुआ है? हट्टा-कट्टा तो हूंँ।”

“दाढ़ी देखी है अपनी? फ़क़ीर जैसे दिख रहे हो।”

“देखो, गाली मत दो। दाढ़ी का क्या है, मुझे कौन सा ब्याह करना है?”

“करके तो देखो, फिर बताती हूंँ तुम्हें।” भतेरी की आंँखों में उतरी तरल लालिमा देख पतराम को अपने ब्याह का दिन बरबस याद आ गया। उसने महसूस किया कि भतेरी के कंधे पर रखा उसका हाथ कांँप रहा है।

“अच्छा, अब घर कब लौटोगे?”

“जंग जीतने के बाद ही लौटना होगा अब तो, या फिर शहीद हो जायेगा तुम्हारा बूढ़ा।” भतेरी ने पतराम के मुंँह पर हाथ रख दिया।

“अच्छा एक बात बताओ, अगर मैं शहीद हो गया तो तुम क्या करोगी?”

“करना क्या है, तुम्हारा बुत लगवा दूंँगी गांँव में और शान से रहूंँगी जैसे एक शहीद की विधवा रहती है।” कहते ही भतेरी बहुत ज़ोर से हंँसी। हंँसी के इस हरे पत्थर के पीछे पानी का एक सोता था जो पत्थर के हटते ही आह की तरह फूट पड़ा। भतेरी पानी में तरबतर एक छोटी सी चिड़िया ‌होकर पतराम के सीने में दुबकी थरथरा रही थी। पतराम उसकी पीठ को थपथपाते उसे सांत्वना दे रहा था। अचानक उसने भतेरी को अपने से अलग किया, “अब हट जाओ, देखो लोग हंँस रहे हैं।” झटके से अलग होकर दोनों ने देखा- कोई नहीं हंँस रहा था, सबके चेहरों पर गर्व और आंँखों में आँसू दिपदिपा रहे थे।

(इस लघुकथा का आधार एक सच्ची घटना है। इसमें प्रयुक्त कल्पना को मेरी असीम श्रद्धा ही मानें। पूरी विनम्रता के साथ इस लघुकथा को मैं उस महान योद्धा दम्पत्ति को सादर नमन करते हुए समर्पित करता हूंँ। )

© हरभगवान चावला

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≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 76 – लघुकथा – लाल पालक…. ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत एकअतिसुन्दर सार्थक लघुकथा  “लाल पालक….। अपार्टमेंट्स  के परिवार प्रत्येक पर्व घर के पर्व जैसे मिल जुलकर मनाते हैं।  इस लघुकथा के माध्यम से रोजमर्रा की जिंदगी  के बीच उत्सव के माहौल का अत्यंत सुन्दर वर्णन किया है। एक ऐसी ही अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 76 ☆

? लघुकथा – लाल पालक …. ?

गणतंत्र दिवस के लिए अपार्टमेंट सज रहा हैं ।

अपार्टमेंट का बड़ा सुंदर नजारा रहता है और वह भी जहां लगभग चालिस  परिवार एक ही छत के नीचे फ्लैटों में रहते हैं।

एक पूरा परिवार बन चुका होता है। सुबह हुआ कि अलग-अलग पेपर वाले, दूध वाले, हार्न बजाते कोई मोबाइल में गाना बजाते और कामवाली बाईयों का आना-जाना।

बस इन सभी के बीच लगातार रद्दी वालों की आवाज वह भी नहीं चूका आने के लिए!! कोई आ रहा कोई जा रहा।

बच्चों की टोली धूप में क्रिकेट खेल रही कुछ बच्चे मोबाइल कान में लगाए छत पर धूप सेंकते नजर आते। कुछ पढ़ाई करते भी दिख जाते हैं।

साथ साथ बड़े बूढ़ों की हिदायत भी चलती रहती है। कहीं पेपर पढ़ रहे हैं। कहीं सब्जी भाजी लिया जा रहा है। कुल मिलाकर बहुत सुंदर माहौल रहता है।

जया कामवाली बाई। बहुत बात करती है। माता – पिता की गरीबी की वजह से किश्चन से शादी कर ईसाई धर्म अपना ली हैं। और बातें भी “आता है” “जाता है” करती है। अपार्टमेंट में एक रिटायर्ड अफसर के यहाँ काम करती है।

सब्जी वाला अपार्टमेंट के अंदर जैसे ही आया उसने आवाज लगाईं।  झाड़ू हाथ में लेकर जया बाहर निकली। बालकनी से सीधा झाड़ू लिए ही बोली “हरी पालक है क्या?”

सब्जी वाला कुछ परेशान था। (पता चला रात में कोई बीमार चल रहा था उसके घर) उसने जोर से बोला… “नहीं पीली पालक हैं चाहिए क्या??”

इतना सुनना था, आजू-बाजू की बालकनी से सभी के खिलखिलाने की आवाज जोर हो गई। “उडा़ लो हंसी” गुस्से से जया लाल पीली हो गई और भुनभुनाते जाने लगी।

गणतंत्र दिवस के लिए मानू बिटिया के साथ कुछ बच्चे अपार्टमेंट्स सजा रहे थे।

बिटिया ने हंसकर कहा.. “जया आंटी गुस्सा मत करो हरी पालक, पीली पालक और जब वह बनेगा तो उसका रंग लाल होगा। यही तो पालक का गुण है।”

जया भी हाँ में हाँ मिलाने लगी। सच ही तो है। आखिर पालक खून भी तो बढाता है।

एक बार फिर जया के चेहरे पर मुस्कान खिल उठी। जय जय जया की लाल पालक!!!!!

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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