हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 225 – खेल तमाशा ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित अत्यंत हृदयस्पर्शी लघुकथा “खेल तमाशा ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 225 ☆

🔥लघुकथा🔥🌹खेल तमाशा 🌹

शहर के मध्य बहुत बड़ा सर्व सुविधायुक्त आजकल के माॅल का फैशन। सामान खरीदने या फिर मौज मस्ती की जगह। थियेटर, गेम जोन से लेकर गाड़ी चलाना, गाना बजाना, खाना पीना सभी प्रकार के मनोरंजन के साधन।

एक मदारी रोज ही अपने छोटे से बंदर को लेकर, वहाँ पास में तमाशा दिखाता था।कभी-कभी दया या दान का काम करते उसे भी सभी आने- जाने वालों से अपनी रोजी- रोटी मिल जाती थी।

तेज भीषण गर्मी, लू की तपन,बंदर भी खूब रंगबिरंगी कपड़ों से सजा, लंबी पूँछ, सर पर टोपी, पूरे साजों श्रृंगार करके तमाशा दिखा रहा था।

आज शाम बहुत भीड़ लगी थी, तमाशा देखने वालों की। कतारों में खड़े लोग तालियाँ बजा रहे थे। अचानक इतनी भीड़ देख कर हैरानी हो रही थी। झाँक कर देखने पर पता चला–गर्मी की तपन से मदारी का बंदर मर चुका था। वह अपने छोटे से बच्चे को बंदर बना कर नचा रहा था।

बाकी सभी अपने-अपने बच्चों को दिखा रहे थे – – कितना सुंदर बंदर बना है बच्चा। चिप्स और केले दिये जा रहे थे।

मदारी हँसते – रोते खुल्ले सिक्के, नोट बटोर रहा था। आज उसे सभी दिनों से खेल तमाशे का मेहताना ज्यादा मिला। जीवन तमाशा बनते देखता रहा।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – गद्य क्षणिका – पराये भी अपने… – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे।

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय गद्य क्षणिका “– पराये भी अपने…” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी  ☆ — पराये भी अपने — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

दिवाली से चार दिन पहले हमारे पड़ोसी नंदलाल के घर में मृत्यु हुई थी। शोकातुर घर के लिए हमारे घर से खाना जाता था। वहाँ दिवाली के चिराग नहीं जले। मेरे पिता ने दिन के वक्त ही हमसे कहा था हम दो ही चिराग जलायेंगे। हमने ऐसा ही किया। शोकग्रस्त नंदलाल के घर के उधर के पड़ोसी ने भी दो ही दीये जलाये। मेरे पिता ने इस बार कहा था, “पड़ोसी ऐसा ही होना चाहिए।”

 © श्री रामदेव धुरंधर

19 — 04 — 2025

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – “विश्वास…” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ लघुकथा – “विश्वास…” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

वे हमारे पडोसी थे। महानगर के जीवन में सुबह दफ्तर के लिए जाते समय व लौटते समय जैसी दुआ सलाम होती, वैसी हम लोगों के बीच थी। कभी कभी हम सिर्फ स्कूटरों के साथ हाॅर्न बजाकर, सिर झुका रस्म निभा लेते।

एक दिन दुआ सलाम और रस्म अदायगी से बढ कर मुस्कुराते हुए वे मेरे पास आए और महानगर की औपचारिकता वश मिलने का समय मांगा। मैं उन्हें ड्राइंगरूम तक ले आया। उन्होंने बिना किसी भूमिका के एक विज्ञापन मेरे सामने रख दिया। मजेदार बात कि हमारे इतने बडे कार्यालय में कोई पोस्ट निकली थी। और उनकी बेटी ने एप्लाई किया था। इसी कारण दुआ सलाम की लक्ष्मण रेखा पार कर मेरे सामने मुस्कुराते बैठे थे। वे मेरी प्रशंसा करते हुए कह रहे थे – हमें आप पर पूरा विश्वास है। आप हमारी बेटी के लिए कोशिश कीजिए। मैंने उन्हें विश्वास दिलाया कि मैं इसके लिए पूरी कोशिश करूंगा। नाम और योग्यताएं नोट कर लीं।

दूसरे दिन शाम को वे फिर हाजिर हुए। मैंने उन्हें प्रगति बता दी। संबंधित विभाग से मेरिट के आधार पर इंटरव्यू का न्यौता आ जाएगा। बेटी से कहिए कि तैयारी करे।

– तैयारी? किस बात की तैयारी?

– इंटरव्यू की और किसकी?

– देखिए मैं आपसे सीधी बात करने आया हूं कि संबंधित विभाग के अधिकारी को हम प्लीज करने को तैयार हैं। किसी भी कीमत पर। हमारी तैयारी पूरी है। आप मालूम कर लीजिएगा।

मैं हैरान था कि कल तक उनका विश्वास मुझमें था और आज उनका विश्वास…?

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ पुरस्कृत लघुकथा – पाप… ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – पाप)

☆ पुरस्कृत लघुकथा – पाप… ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

(कथादेश अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता-2024 में प्रथम पुरस्कार प्राप्त लघुकथा)

कन्या पैदा हुई। घर के सब लोग एकदम ख़ामोश थे। कन्या के गले में तम्बाकू रख दिया गया, कन्या हिचकी भी नहीं ले पाई। दो मर्दों ने, जिनमें से एक कन्या का पिता था, गड्ढा खोदा और निरासक्त भाव से उसे धरती के अँधेरे में पहुँचा दिया। दफ़न के वक्त कन्या के पिता ने कन्या से कहा, “जा, जहाँ से आई थी, आगे अब भैया को भेजना।”

कन्या का पिता कन्या को दफ़न करने और पुजारी जी को सीधा पहुँचाने के बाद कन्या की माँ के पास आ बैठा। वह रो रही थी। कन्या के पिता ने कहा, “रोती क्यों हो? वंश तो बेटे से ही चलेगा न!”

“हमारा अंश थी वह! दुनिया मे आई और आँख खोलने से पहले चली भी गई। भारी पाप लगेगा हमें।”

“पाप क्यों लगेगा, हमने कौन सी गऊ हत्या की है?

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 346 ☆ लघु कथा – “पत्तों की जादूगरनी…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 346 ☆

?  लघु कथा – पत्तों की जादूगरनी…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

 किले से शहर जाने वाली सड़क, दिन भर पर्यटकों की आमादरफ्त होती रहती थी।

अपनी आजीविका के लिए मालिन हरिया सड़क किनारे कभी फूलों से तो कभी पेड़ पौधों की टहनियों से अनोखी कलाकृति बनाया करती थी। पर्यटक बरबस रुकते, जो तेज रफ्तार आगे निकल जाते वे भी लौटने पर मजबूर हो जाते। लोग उसके आर्ट की प्रशंसा करते, सेल्फी लेते, फोटो खींचते। इनाम में हरिया को इतना तो मिल ही जाता कि उसकी गुजर बसर हो जाती, यह हरिया मालिन की कला का जादू ही था।

हर दिन एक नई योजना हरिया के हुनर में होती थी। कभी छींद के पत्तों से वह पंखा बना लेती तो कभी नारियल के खोल की गुड़िया बनाकर बेचा करती थी। कभी टेसू के फूलों से सजावट करती, तो कभी गेंदें के फूलों की बड़ी सी रंगोली डालती।

एक संस्था ने हरिया के ईको आर्ट की प्रदर्शनी भी शहर में लगवाई थी, जिसकी खूब चर्चा अखबारों में हुई थी।

हरिया को भी लोगों के प्रोत्साहन से नया उत्साह मिलता, वह कुछ और नया नया करती।

आज हरिया ने हरी पत्तियों से कला का ऐसा जादू किया था कि तोतों की ढेर सारी आकृतियां बिल्कुल सजीव बन पड़ी थीं। “पत्तों की जादूगरनी” सड़क किनारे अपनी कला का जादू बिखेर रही थी, मन ही मन संतुष्ट और प्रसन्न थी।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 67 – आत्मनिर्भरता… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – आत्मनिर्भरता।)

☆ लघुकथा # 67 – आत्मनिर्भरता श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

पंद्रह दिन हो गये दुबे  जी का निधन हुए. सारे रिश्तेदार अपने घर लौट गए. बेटा बहू परसों ही बैंगलोर जाने वाले हैं।

वे माँ से बोले – आप भी चलो। आप अकेले यहां रहकर क्या करोगी?पड़ोस के वर्मा अंकल और भी कई लोग मकान हमारा खरीदना चाहते हैं, अच्छे पैसे भी दे रहे हैं। यह मकान बेच देंगे।

– मकान बेचने के विचार से पहले कम से कम एक बार मुझसे चर्चा तो करना था । इस मकान की मालकिन तुम्हारे पापा ने मुझे बनाया है। उन्होंने यह मेरे नाम से ही खरीदा था। हम दोनों ने इसे बड़े प्यार से सजाया है।

कमल जी गुमसुम छत पर बैठकर आगे के जीवन की उधेडबुन मे लगी थी।

कैसै कटेगा यह शेष जीवन? दुबे जी मुझे कभी कुछ करने नहीं दिया। हर काम में हमेशा मेरा साथ दिया। अब अकेले क्यों छोड़ कर चले गए?

पडोसन सखी रागिनी आई और बोली- क्या हुआ बहन जी आप यहां छत पर अकेले क्यों बैठी हो? कुछ खाना खाया या नहीं। चलो साथ में थोड़ा पार्क में घूमते हैं।

कुछ सोचते हुए कमल ने पडोसन से कहा – रागिनी तुम कह रही थी कि पास में इंजीनियरिंग कॉलेज के बच्चे घर मकान ढूंढ रहे हैं। वह पेइंग गेस्ट की तरह रहना चाहते हैं।  क्या उन्हें तुम मेरे घर बुला लाओगी। मैं उन्हें अपने घर में रखूंगी। ध्यान देना लड़कियां होनी चाहिए। देखो रागिनी  तुम मेरी मदद करना।

चलो मैं अभी उनसे मिला देती हूं वह तीन लड़कियां पास में बंटी की मम्मी के यहां रहती हैं वह उन्हें बड़ा परेशान करती है।

– बेटी निशा तुम लोग घर ढूंढ रही हो ना यह आंटी का घर पार्क के पास है देखा है ना। क्या  वहां पर तुम लोग रहोगे? जितना पैसा यहां देते हो उतना ही वहां पर देना पड़ेगा और तुम्हें आराम रहेगा।

– ठीक है आंटी हम थोड़ी देर बाद अपना सामान लेकर आप बोलो तो घर आ जाते हैं क्योंकि यह आंटी तो हमसे घर खाली करा रही हैं।

– चलो बेटा साथ में घर देख लो।

घर देख कर वे बोलीं – आपका घर तो बहुत अच्छा है हम तीनों लड़कियां 5000 आपको देगी।

तभी बेटे अविनाश ने कहा – माँ, यह क्या नाटक लगा के रखा है?

– देखो अविनाश मैं तुम्हारे घर जाकर नहीं रहूंगी। तुम लोगों का जितना दिन मन करता है इस घर में रहो बाकी मैं अपना खर्चा चला लूंगी। तुम लोगों से एक पैसा नहीं मांगूंगी। तुम्हारे दरवाजे पर नहीं जाऊंगी और अपना घर भी नहीं बेचूंगी ।

जिंदगी भर कभी काम नहीं किया पर मैं अब आत्मनिर्भर बनूंगी।

 © श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 224 – स्नेह का साहित्य ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक अप्रतिम एवं विचारणीय लघुकथा स्नेह का साहित्य”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 224 ☆

🌻लघु कथा🌻  ? स्नेह का साहित्य  ?

आजकल पूरी जिंदगी पढ़ते-पढ़ाते, सीखते-सीखाते निकलती है। जिसे देखो पाने की चाहत, सम्मान की भूख, और मीडिया में बने रहने की ख्वाहिश।

पारिवारिक गाँव परिवेश से पढ़ाई करके अपने आप को कुछ बन कर दिखाने की चाहत लिए, गाँव से शहर की ओर वेदिका और नंदिनी दो पक्की सहेली चल पड़ी अपनी मंजिल की ओर।

हॉस्टल की जिंदगी जहाँ सभी प्रकार की छात्राओं से मुलाकात हुई। परन्तु दोनों बाहरी वातावरण, चकाचौंध से दूर, सादा रहन-सहन, पहनावे में भी सादगी, बेवजह खर्चो से अपने आप को बचाती दोनों अपने में मस्त।

साहित्यकार बनने की इच्छा। इस कड़ी में जगह-जगह से साहित्यकारों का साक्षात्कार एकत्रित करती फिरती थी। चिलचिलाती धूप, न टोपी, न काला चश्मा और न ही छाता।

आटो में बैठते वेदिका बोल उठी — “नंदिनी हम जहाँ जा रहे हैं। बहुत दूर है। रास्ता भी ठीक से नहीं मालूम। सुना है साहित्यकार समय के बड़े पाबंद होते हैं। शब्दों में ही सुना देते हैं। पानी भी नहीं मिलता। क्या हम लोगों को संतुष्टी मिल पायेगी?”

आटो वाले ने अनजान लोगों का फायदा उठा अचानक एक जगह पर उतार कहने लगा — “बस यहाँ से आप पैदल निकल जाए वो रहा उनका घर।”

सभी से पूछने पर पता चला– ये तो वो जगह है ही नहीं। दोनों को समझ में आ गया हम रास्ता भटक चुके हैं।

समय से विलंब होता देख साहित्यकार का मोबाइल पर कॉल आया — “कहाँ हैं आप लोग?” घबराहट से बस इतना ही बोल पाई वेदिका – -“हमें नहीं मालूम मेडम हम कहाँ हैं। सभी – अलग-अलग बता रहे हैं।”

“जहाँ खड़े हो वही खड़े रहिए। किसी होटल या चौक का नाम बताओ। मै आ रही हूँ।” दोनों मन में न जाने क्या- क्या सोच रही थी।

अचानक टूव्हीलर रुकी – – “आप  दोनों ही हो। चलो गाड़ी में बैठो। घर में बात होगी।”

चुपचाप गाड़ी में बैठी – – ममता, अपनापन, दुलार और नेह की बरसात होते देख दोनों का ह्रदय साहित्य के प्रति और गहरा होता चला गया। शब्दों से साहित्य को सजते सँवरते देखा था।

आज तो वेदिका, नंदिनी की आँखे भर उठी, नेह, ममत्व, ममता से भरा साहित्य निसंदेह समाज को सुरक्षित और सम्मानित करता है।

कड़कती धूप भी आज उन्हें माँ के आँचल की तरह सुखद एहसास करा रही थी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – लघुकथा – शापित मातृत्व… – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे।

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “– शापित मातृत्व…” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी  ☆ — शापित मातृत्व…  — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

माँ अपनी बेटी को दामाद के हाथों मार से बचाने के लिए रोते कलपते वहाँ पैसे पहुँचाती थी। अपना बेटा भी तो दुष्ट ही था। अपनी दुखी बहू के कहने पर उसकी माँ रोते कलपते उसके घर पैसा लाती थी। बाद में दोनों माएँ भीख मांगते रास्ते पर मिलीं। इस शापित मातृत्व पर कहानी लिखना लेखक को बहुत जरूरी लगा। उसने दोनों माँओं को सौ सौ का एक एक नोट दे कर उन से यह कहानी खरीदी।

 © श्री रामदेव धुरंधर

07 / 10 / 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – “खोया हुआ कुछ…” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ लघुकथा – “खोया हुआ कुछ…” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

-सुनो।

-कौन?

-मैं।

-मैं कौन?

– अच्छा। अब मेरी आवाज भी नहीं पहचानते?

– तुम ही तो थे जो काॅलेज तक एक सिक्युरिटी गार्ड की तरह चुपचाप मुझे छोड़ जाते थे। बहाने से मेरे काॅलेज के आसपास मंडराया करते थे। सहेलियां मुझे छेड़ती थीं। मैं कहती कि नहीं जानती।

– मैं? ऐसा करता था?

– और कौन? बहाने से मेरे छोटे भाई से दोस्ती भी गांठ ली थी और घर तक भी पहुंच गये। मेरी एक झलक पाने के लिए बड़ी देर बातचीत करते रहते थे। फिर चाय की चुस्कियों के बीच मेरी हंसी तुम्हारे कानों में गूंजती थी।

– अरे ऐसे?

– हां। बिल्कुल। याद नहीं कुछ तुम्हें?

– फिर तुम्हारे लिए लड़की की तलाश शुरू हुई और तुम गुमसुम रहने लगे पर उससे पहले मेरी ही शादी हो गयी।

-एक कहानी कहीं चुपचाप खो गयी।

– कितने वर्ष बीत गये। कहां से बोल रही हो?

– तुम्हारी आत्मा से। जब जब तुम बहुत उदास और अकेले महसूस करते हो तब तब मैं तुम्हारे पास होती हूं। बाॅय। खुश रहा करो। जो बीत गयी सो गयी।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – हँसो कि… ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा हँसो कि…)

☆ लघुकथा – हँसो कि… ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

सिर के बल चलता हुआ वह ऐसे लग रहा था कि जैसे कोई हाँडी लुढ़कती आ रही हो। उसके आगे-पीछे भीड़ थी। भीड़ में से कुछ लोग उस पर पत्थर फेंक रहे थे। जब भी पत्थर पड़ता, वह बिलबिलाकर पत्थर मारने वाले के पीछे भागता और फिर वापस रास्ते पर लौट आता। वह वीभत्स दिखता था और हास्यास्पद भी। उसकी टाँगें बाँहो की जगह पर चिपकी थीं और बाँहें टाँगों की जगह। उसकी आँखें पीठ पर थीं, इसी कारण वह बार-बार ठोकर खा रहा था। कान बाँहों पर चिपके थे, नाक हथेली पर रखी थी, सिर के बाल पेट पर लटक रहे थे। दोनों टाँगें विपरीत दिशाओं में घिसटती हुई ज़मीन को कुरेदे जा रही थीं, हाथ हवा में टहनियों की तरह झूल रहे थे। यह तो मैं जानता था कि पिछले काफ़ी समय से विशेषज्ञों की देखरेख में इसके सौंदर्यीकरण का काम चल रहा था, पर इसका यह सौन्दर्यीकृत रूप देखकर मुझे बरबस हँसी आ गई।

“हँसो, हँसो, ख़ूब ज़ोर से हँसो, तुम्हारी आने वाली पीढ़ियों को तो रोना ही है।” इतिहास की आवाज़ में चीत्कार था, धिक्कार था, हँसी थी, जो रुदन के कंठ में फँसी थी।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

 

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