हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 103 – “खामोशी की चीखें” – डा संजीव कुमार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  डा संजीव कुमार जी के काव्य संग्रह  “खामोशी की चीखें” की समीक्षा।

 पुस्तक चर्चा

पुस्तक : खामोशी की चीखें (काव्य संग्रह)

कवि – डा संजीव कुमार

प्रकाशक : इंडिया नेट बुक्स, नोएडा

मूल्य २२५ रु, अमेजन पर सुलभ

प्रकाशन वर्ष २०२१

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 103 – “खामोशी की चीखें” – डा संजीव कुमार ☆  

खामोशी की चीख शीर्षक से ही  मेरी एक कविता की कुछ पंक्तियां हैं…

“खामोशी की चीख के

सन्नाटे से,

डर लगता है मुझे

मेरे हिस्से के अंधेरों,

अब और नहीं गुम रहूंगा मैं

छत के सूराख से

रोशनी की सुनहरी किरण

चली आ रही है मुझसे बात करने. “

कवि मन अपने परिवेश व समसामयिक संदर्भो पर स्वयं को अभिव्यक्त करता है यह नितांत स्वाभाविक प्रक्रिया है. हिमालय पर्वत श्रंखलायें सदा से मेरे आकर्षण का केंद्र रही हैं. मुझे सपरिवार दो बार जम्मू काश्मीर के पर्यटन के सुअवसर मिले. बारूद और संगिनो के साये में भी नयनाभिराम काश्मीर का करिश्माई जादू अपने सम्मोहन से किसी को रोक नही सकता.वरिष्ठ कवि पिताजी प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ने वहां से लौटकर लिखा था.. “

लगता यों जगत नियंता खुद है यहाँ प्रकृति में प्राणवान

मिलता नयनो को अनुपम सुख देखो धरती या आसमान 

जग की सब उलझन भूल जहाँ मन को मिलता पावन विराम 

हे धरती पर अविरत स्वर्ग काश्मीर तुम्हें शत शत प्रणाम “

आतंकी विडम्बना से वहां की जो सामाजिक राजनैतिक दुरूह स्थितियां विगत दशकों में बनी उनसे हम सभी का मन उद्वेलित होता रहा है. किन्तु ऐसा नही है कि काश्मीर की घाटियां पहली बार सेना की आहट सुन रही है, इतिहास बताता है कि सदियों से आक्रांता इन वादियों को खून से रंगते रहे हैं. लिखित स्पष्ट क्रमबद्ध इतिहास के मामले में काश्मीर धनी है, नीलमत पुराण में उल्लेख है कि आज जहां काश्मीर की प्राकृतिक छटा बिखर रही है, कभी वहाँ विशाल झील थी, कालांतर में झील का पानी एक छेद से बह गया और इससुरम्य घाटी का उद्भव हुआ. इस पौराणिक आख्यान से प्रारंभ कर,  १२०० वर्ष ईसा पूर्व राजा गोनंद से राजा विजय सिन्हा सन ११२९ ईस्वी तक का चरणबद्ध इतिहास कवि कल्हण ने “राजतरंगिणी ” में लिपिबद्ध किया है. १५८८ में काश्मीर पर अकबर का आधिपत्य रहा, १८१४ में राजा रणजीत सिंह ने काश्मीर जीता, यह सारा संक्षिपत इतिहास भी डा संजीव कुमार ने  “खामोशी की चीखें” के आमुख में लिखा है, जो पठनीय है. श्री यशपाल निर्मल, डा लालित्य ललित, व डा राजेशकुमार तीनो ही स्वनामधन्य सुस्थापित रचनाकार हैं जिन्होने पुस्तक की भूमिकायें लिखीं है.

पुस्तक में वैचारिक रूप से सशक्त ५२ झकझोर देने वाली अकवितायें काश्मीर के पिछले दो तीन दशको के सामाजिक सरोकारो, जन भावनाओ पर केंद्रित हैं. यद्यपि कविता आदिवासी व कोरोना दो ऐसी कवितायें हैं जिनकी प्रासंगिकता पुस्तक की विषय पृष्ठभूमि से मेल नहीं खाती, उन्हें क्यो रखा गया है यह डा संजीव कुमार ही बता सकेंगे.

डा संजीव कुमार स्त्री स्वर के सशक्त व मुखर हस्ताक्षर हैं. वे काश्मीरी महिलाओ पर हुये आतंकी अत्याचारो के खिलाफ संवेदना से सराबोर एक नही अनेक रचनाये करते दिखते हैं.

उदाहरण स्वरूप..

लुता चुकी हूं,

अपना सब कुछ,

अपना सुहाग,

अपना बेटा, अपनी बेटी,

अपना घर,

पर पता नही कि मौत क्यों नही आई ?

ये वेदना जाति धर्म की साम्प्रदायिक सीमाओ से परे काश्मीरी स्त्री की है. ऐसी ही ढ़ेरो कविताओ को आत्मसात करना हो तो “खामोशी की चीखें” पढ़ियेगा, किताब अमेजन पर भी सुलभ है.  

 

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’, भोपाल

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ महाकोशल – गोंडवाना का भूला बिसरा इतिहास – श्री सुरेश पटवा ☆ डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

☆ पुस्तक चर्चा – महाकोशल – गोंडवाना का भूला बिसरा इतिहास – श्री सुरेश पटवा ☆ डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ 

पुस्तक – महाकोशल – गोंडवाना का भूला बिसरा इतिहास ( पौराणिक काल से आधुनिक युग तक)

लेखक – श्री सुरेश पटवा

प्रकाशक – वंश पब्लिकेशन, भोपाल 

मूल्य – रु.500/- हार्ड कवर 

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

☆ “महाकौशल-गोंडवाना का भूला-बिसरा इतिहास : रोचक शोधपरक कृति” – डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ 

हाथों में है, श्री सुरेश पटवा की कृति “महाकौशल -गोंडवाना का भूला-बिसरा इतिहास” की पांडुलिपि। आँखों में तैर रहा है अतीत। हाँ, लगभग तीस बरस पहले भेंट हुई थी श्री पटवा जी से, और उन्हें बुद्धिमान, कर्मठ, संवेदनशील बैंक अधिकारी के रूप में जाना। श्री पटवा के व्यवहार से उनकी साहित्यिक, सांस्कृतिक रूचि भी प्रकट हुई। किंतु वे लेखक हैं या हो सकते हैं इस तरह की कोई आशंका या सम्भावना दूर-दूर तक लापता थी। विचित्र किंतु सत्य की भाँति पिछले तीन बरस में सात पुस्तकों के प्रकाशन और पाठकों द्वारा पसंदगी ने उनके लेखक रूप की मुनादी कर दी। और -अब “महाकौशल-गोंडवाना का भूला-बिसरा इतिहास”।

बहुधा लोग हिमालय की चोटियों, घाटियों, नदियों, तराई के जंगलों के प्रति आकर्षित होते हैं, पर्यटन की योजना बनाते हैं। किंतु सतपुड़ा और विंध्याचल वृष्टिछाया में रह जाते हैं। जिज्ञासु प्रकृति, शोधप्रिय, पर्यटन प्रेमी और अध्ययनशील पटवा जी बाल्यकाल से उन संस्कारों से प्रेरित होते रहे, जो उन्हें देनवा के तट पर जन्मने तथा देनवा और पलकमती की रेत पर खेलते, नहाते, चटनी रोटी खाते और किताबों को पढ़ते हुए एक स्वप्नलोक रचता था- पहाड़ों का पहाड़ा पढ़ने का स्वप्न।

राजा मदन सिंह के संदर्भ में इतिहासकारों में मतभेद है किंतु गोंडवंश के प्रतापी राजा संग्राम सिंह का अस्तित्व सभी ने स्वीकार किया है और यह भी कि उनके पुत्र दलपत शाह का विवाह दुर्गावती से हुआ। दुर्गावती के पिता कौन थे- महोबा के राजा शालिवाहन या कालिंजर के कीर्तिसिंह, इस प्रश्न पर भी विद्वान एकमत नहीं है। इस सम्बंध में पटवा जी ने शोधपूर्ण लेखन को प्रधानता दी है।

श्री सुरेश पटवा 

संग्राम सिंह के बारे में किंवदंतियों के बजाय उन्होंने शोधपूर्ण लेखन को प्राथमिकता दी है। इससे पुस्तक की प्रामाणिकता पुष्ट हुई है। दुर्गावती का विवाह सिंगौरगढ़ में हुआ था, वहीं संग्राम शाह और दलपत शाह की मृत्यु हुई और वीरनारायण सिंह का जन्म हुआ था। भारत सरकार के संस्कृति विभाग ने सिंगौरगढ़ और परिवेश के सज्जा के लिए अभी-अभी 26 करोड़ रुपए देना मंज़ूर किए हैं। इससे सिंगौरगढ़ की महत्ता को समझा जा सकता है। मदनमहल के बारे में भ्रांतियाँ हैं। यह एक ऐसी छोटी इमारत है जो चट्टान पर बनी है। इसका उपयोग सुरक्षा चौकी या ग्रीष्म काल में विश्राम स्थल के रूप में किया जाता रहा होगा। यह न तो महल है और न महल जैसा आयतन और न सुविधा।

अभी तक इस क्षेत्र का सिलसिलेबार सम्पूर्ण इतिहास रोचक ढंग से नहीं लिखा गया है। आधे-अधूरे फुटकर वर्णन पढ़ने को मिलते हैं। वे भी बिना किसी प्रामाणिकता के। महाकोशल और गोंडवाना का प्रामाणिक इतिहास जिस तरह से एक ओजपूर्ण रोचक शैली में श्री पटवा ने संयोजित किया है। वह आने वाली पीढ़ियों के लिए अपने क्षेत्र के इतिहास को जानने समझने का एक उत्तम साधन रहेगा।

श्री सुरेश पटवा जी ने अपनी प्रकृति के अनुकूल बौद्धिक चातुर्य से सतपुड़ा, गोंडवाना, महाकौशल और पूरे क्षेत्र का किताबों और घुमंतू तरीक़ों से अनुसंधान करके एक उत्कृष्ट कृति “महाकौशल -गोंडवाना का भूला-बिसरा इतिहास” रची है।

चौरागढ़ भी गोंड राज्य की राजधानी रही है। मेरे पूर्वज जब उत्तर प्रदेश से मध्य प्रदेश आए तब उन्हें चौरागढ़ क़िले में ही आश्रय और राजगुरु का मान मिला था। इस क़िले को देखकर यह नहीं लगता कि उसका निर्माण संग्राम शाह ने कराया होगा। पटवा जी ने सभी दृष्टियों से महाकौशल के इतिहास के संदर्भ भी वर्णित किए हैं। आलेख खोजपूर्ण है।

डॉ.राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’
112 सराफ़ा, सेठ चुन्नीलाल का बाड़ा, सिटी कोतवाली के पास, जबलपुर (म.प्र.)
मो 9981814539

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ आत्मकथ्य-‘नयी प्रेम कहानी’ और मैं ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ आत्मकथ्य – ‘नयी प्रेम कहानी’ और मैं ☆ श्री कमलेश भारतीय

दादी माँ  से कहानियां सुनते सुनते कब मैं खुद कहानियां लिखने लगा कुछ पता नहीं चला। दादी की कहानियां तो परी, राजकुमार और राक्षसों की कहानियां हुआ करती थीं जिनको मैंने कभी नहीं देखा लेकिन मेरी कहानियां इसी समाज की और इसी समाज के लोगों की कहानियां हैं। गांव का आदमी था और मन से आज भी गांव से जुड़ा हुआ हूं। फिर गांव से महानगर आया और कहानियां और इनकी रचना भूमि बदलती गयी।

संग्रह की शीर्ष कथा ‘नयी प्रेम कहानी’ छह किश्तों में पंजाब के लोकप्रिय समाचारपत्र हिंदी मिलाप में आई थी लेकिन वर्षों बाद इसे नये सिरे से लिखा और श्रीपत राय के संपादन में निकलने वाली कहानी पत्रिका के नववर्ष विशेषांक के लिए भेजी। मेरी खुशी का ठिकाना न रहा जब इसे पुरस्कार मिला और नववर्ष विशेषांक में प्रकाशित हुईं। यह प्रेम कथा है लेकिन असफल या एकतरफा प्रेम कथा और संदेश कि आप ज़िंदगी की किसी एक असफलता से जीने का उत्साह न छोड़ दो। इसके बावजूद कहानी भी कहानी में आई। श्रीपत राय जी कहते थे कि तुम एक साल में बारह कहानियां भेजोगे तो हर अंक में प्रकाशित करूंगा। इस प्रेम और विश्वास से कहानियां लिखता चला गया। वैसे कमलेश्वर, धर्मवीर भारती और अज्ञेय जी ने भी धर्मयुग, सारिका और नया प्रतीक में प्रकाशित कीं मेरी कहानियां। आज जो लोग मुझे सिर्फ लघुकथा के खाते में रखते हैं वे हैरान  हो सकते हैं मेरे कथा लेखन से। इससे पहले डाॅ प्रेम जनमेजय के प्रेम से कथा संग्रह आया –यह आम रास्ता नहीं है।

कहानी कब्रिस्तान पर मकान देश के हालात पर है और मेरे दिल के करीब है। इसी प्रकार कब गये थे पिकनिक पर और बस, थोड़ा सा झूठ कहानियां छोटी होते हुए भी मेरे दिल से निकली हैं। ये लघुकथा के रूप में लिखने वाला था लेकिन अपने आप कथाएं बन गयीं। अनेक बार आईं पत्र पत्रिकाओं में। इसी प्रकार महक से ऊपर मेरे प्रथम कथा संग्रह से ली गयी है जो इसी शीर्षक से आया और जिसे पंजाब के भाषा विभाग की ओर से सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार मिला। पुरानी बातें और यादें जो खुशी और सुकून देती हैं।

सबसे ताज़ा और अप्रकाशित कहानियां हैं -पड़ोस और जय माता पार्क कहानियां। आजकल पत्नी की ओर से चुनौती पर लिखी जा रही हैं।  नीलम का कहना है कि मैंने पत्रकार बन कर कहानी लिखने की कला खो दी। पर मैं सोचता हूँ कि पत्रकार बन कर मेरे विषय बदल गये। विविध विषयों पर कहानियां लिख पाया और लिख पा रहा हूं। धुंध में गायब होता चेहरा जैसी कहानी पत्रकारिता में ही मिल सकती है। महिलाओं को राजनीति में कैसे उपभोग की वस्तु मान लिया जाता है। इस पर आधारित। खैर सब कुछ बता दूंगा तो आपको मज़ा क्या आयेगा ? हां कभी रमेश बतरा भी कहता था कि मेरे पास चंडीगढ़ आओ तो नयी कहानी के साथ। नहीं तो मुंह मत दिखाना। अब वह भी नहीं रहा और डाॅ नरेंद्र मोहन भी चले गये।

हां, यह कथा संग्रह डाॅ नरेंद्र मोहन के नाम। वही मेरे और प्रकाशक हरेंद्र तिवारी के बीच पुल बने और मेरा लघुकथा संग्रह मैं नहीं जानता आया।  मैं अपनी पुस्तक पाठक तक खुद लेकर जाने में विश्वास करता हूं और हरेंद्र को यह बात बहुत पसंद आई और उसने आग्रह किया कि एक संग्रह जल्द दीजिए।  बस। मैं और बेटी जुट गये। रश्मि ने प्रूफ पढ़ डाले एक ही दिन में। फिर हरेंद्र की कोशिश रंग लाई। लीजिए-नयी प्रेम कहानी। आपके और मेरे बीच प्यार का पुल। आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत्।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “इन सर्दियों में” : कुछ उदास करतीं प्रेम कविताएं … रमेश पठानिया ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “इन सर्दियों में” : कुछ उदास करतीं प्रेम कविताएं …रमेश पठानिया ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

रमेश पठानिया से मेरा परिचय नया ही है, ज्यादा पुराना नहीं पर हर रचनाकार एक दूसरे को जानता है, यह भी सच है । इसी विश्वास पर रमेश पठानिया ने अपना काव्यसंग्रह भेजा- “इन सर्दियों में” । मिल तो सितबर या उससे कुछ पहले गया था लेकिन लगभग डेढ़ महीने की बीमारी ने इसे दूर लाकर सर्दियों में पढ़ने का अवसर दिया यानी ‘इन सर्दियों में’ को सर्दियों में ही पढ़ा । सुबह सवेरे पिछले एक सप्ताह से लगा था इसे बांचने जैसे चाय की चुस्कियां लेने जैसा । मैंने रमेश को फोन पर कहा भी कि सर्दियों में इन कविताओं को पढ़ने का अहसास और मज़ा ही कुछ और है । खैर।

इन कविताओं की पंक्तियों से गुजरते हुए ऐसे लगा जैसे ये कविताएं उदास प्रेम की कविताएं हैं जो पहाड़ों में पनपीं, फूली फलीं , फैलीं और पहाड़ों में ही सिमट कर कवि को उदास कर गयीं । वैसे सभी पहाड़ पर जाना पसंद करते हैं , मैं भी , लेकिन कहते हैं कि पहाड़ रहने के लिए नहीं, घूमने के लिए अच्छे लगते हैं । जो बर्फबारी सैलानियों के लिए एक खुशी का अहसास है , वही वहां के निवासियों के लिए शामत जैसा । इसीलिए रमेश लिखते हैं शीर्षक कविता में :

इस महानगर में

सोच रहा हूं

वही महिला उतने ही बोझ तले

घास उठाकर कमान सी झुकी हुई

जा रही होगी ?

कुछ किताबों में कविता में कवि ढूंढ रहा है :

अब भी बाकी हों उस बुकमार्क पर

या फिर कुछ किताबों में

अंडरलाइन हों कुछ लाइनें

,,,,,

किताबों की कभी सुन लिया करो

पास से गुजरो कभी तो ठहर जाओ

दो घड़ी देख लो उन्हें

जो राह तकती हैं तुम्हारी,,,

पास से गुजरो कभी तो

ठहर जाना कुछ पल वहीं

तुम्हारी राह तकती हैं

किताबें कई ,,,,

अरसे से किताबें नहीं खरीदीं अब

न उनमें बुकमार्क होंगे

न होंठों की लाली

न सूखे गुलाबों की महक

फिर ऐसी किताबों का क्या करूंगा?

तन्हा सी इस ज़िंदगी में ।

कवि चाहता है कि जिंदगी के संदूक में

रखी तुम्हारी यादों को मैं

उलट पुलट कर देखता हूं

महसूस करता हूं

और चुप हो जाता हूं

लम्बे अंतराल के लिए

सर्दियों में अपने पुराने प्रेम को याद करता कवि लिखता है :

मखमली सुबह के दिन आ गये

नरम नरम दोपहर के दिन आ गये

सुनहरी शामों के दिन

गर्म लिहाफों के दिन आ गये

जो पीछे रह गये

वो बिसार दे

जो आज है उसे गुजार ले ,,,

बहुत सारी स्मृतियों को अपनी कविताओं में समेटने के बाद रमेश कहते हैं :

लगता है अब

वो किसी और सदी की बात थी

फिर गिरी शिमला में बर्फ

सब पारदर्शी

यादों की बुक्कल तो

इस शहर में अब भी ओढ़े हूं ,,,

कवि खुद से सवाल भी करता है :

यादों को करीने से

तह कर रख पाना

कहां संभव है ,, ?

हिरण शावकों की तरह

कुलांचें भरती रहती हैं ,,,

अंतिम कविता तक प्रेम की स्मृतियों में ठहराव आता है और वे लिखते हैं :

अब जाकर नदी के पानी में ठहराव है

क्षितिज शून्य नहीं लगता अब

नीला आसमान मुस्कुराने लगा है

इस मौसम की तासीर

मेरे हक में बदलेंगी।

इस कविता संग्रह में कवि ने ‘प्राकृतिक आपदा’ और ‘सूखा’ कवितांओं के माध्यम से ज़िंदगी की सच्चाई को भी छुआ है और दिखाने की कोशिश की ।

वैसे वे कहते हैं :

ऊन के गोले सी नरम

तुम्हारी यादों को

अंगीठी के किनारे बैठकर

मैं महसूस करता हूं ,,,

तो यह रहा सफर रमेश पठानिया के काव्य संग्रह ‘इन सर्दियों में’ का । आशा करता हूं कि रमेश की काव्य यात्रा जारी होगी और फिर कभी या जल्द ही नयी सर्दियों के नये अहसास हमें पढ़ने को मिलेंगे । शुभकामनाएं ।

इसीलिए पहाड़ के मुकाबले महानगर के अनुभव पर कहते हैं :

ऐसा लगता है महानगर सबका है

लेकिन महानगर का अपना कोई नहीं है ,,,,..

 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “चालीस पार की औरत” (काव्य संग्रह) – कलावंती सिंह ☆ समीक्षक – डॉ. नूपुर अशोक

डॉ. नूपुर अशोक

पुस्तक चर्चा ☆  “चालीस पार की औरत” (काव्य संग्रह) – कलावंती सिंह ☆ समीक्षक – डॉ. नूपुर अशोक ☆  

पुस्तक चर्चा 

कविता संग्रह – चालीस पार की औरत

लेखक – कलावंती सिंह

प्रकाशक – बोधि प्रकाशन , जयपुर 

मूल्य – 120 रुपए

समीक्षक – डॉ. नूपुर अशोक

? यह उस पीढ़ी की स्त्री का संग्रह है जो शिक्षित है, जागरूक है ✍️ डॉ. नूपुर अशोक ?

“एक लड़की मेरे सपनों में, अँधेरों से उजालों की तरफ आती-जाती है”- ये कलावंती की लिखी हुई पंक्तियाँ हैं और वह मुझे हमेशा उजालों की तरफ आती हुई लड़की की तरह ही याद आती रही है।

उसके साथ ही मुझे याद आता है वह समय जब हमें ऐसा लगता था कि हम पूरी दुनिया का प्रतिकार कर सकते हैं, अपनी बात दुनिया से कह सकते हैं और उन्हें दे सकते हैं अपना परिचय।

‘परिचय’ नाम था हमारी उस संस्था का जिसमें शामिल थे रांची में रहने वाले हम लगभग समवयसी रचनाकार। एक-दूसरे की रचनाएँ पढ़ते-सुनते और साहित्यिक चर्चाएँ करते थे। वहीं मेरा परिचय कलावंती से हुआ था। ‘परिचय’ के गमले में उगने वाले हम सब पौधे समय के साथ अपनी ज़मीन तलाशते धीरे-धीरे अपनी दुनिया बनाते चले गए और सबने अपनी-अपनी पहचान बनाई । 

कई वसंत और कई पतझड़ों से गुज़रने के बाद पेड़ भी शायद अपने उन दिनों को याद करते होंगे जब वे किसी गमले में, किसी क्यारी में, किसी ग्रो-बैग में दूसरे पौधों के साथ अंकुरित हो रहे थे। तब वे भी शायद अपनी डाल पर आकर बैठने वाले हर पंछी से पूछते होंगे कि उन पौधों को कहीं देखा है? कहाँ हैं वे हमारे साथी? इसी तरह की अकुलाहट ने एक दूसरे की खोज करते हुए हमें फिर से जोड़ दिया। पुनर्मिलन की यह पुलक दुगुनी हो गई जब कलावंती का नया कविता संग्रह देखा।

यह कविता संग्रह कई मायनों में खास है। इसका शीर्षक ही यह स्पष्ट कर देता है कि यह उस पीढ़ी की स्त्री का संग्रह है जो शिक्षित है, जागरूक है। नौकरी का दायित्व, गृहस्थी की रोज़मर्रा ज़िंदगी और पारिवारिक-सामाजिक जीवन के बाद अपनी अस्मिता की खोज करती उसकी अभिव्यक्ति की छटपटाहट कहीं से कुछ बचे-खुचे पल चुरा कर ही लेखन कर पाती है।

लगभग सभी लब्धप्रतिष्ठ पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के बाद भी इन कविताओं को संग्रह का रूप लेने में कई वर्ष बीत जाते हैं। पर कविताओं का कालजयी सत्य आज भी उतना ही जीवंत है –

“लड़की घर से निकलती है

घर की तलाश में….

….. बाबूजी की चिताओं सी ताड़ हुई

अम्मा की खीझ में पहाड़ हुई ….”

कई सालों से स्त्री विमर्श और स्त्री चेतना पर चर्चाएँ होने के बावजूद ये पंक्तियाँ आज भी उतनी ही सार्थक हैं –

“तुम उर्वशी हो, अहिल्या हो

कैकेयी हो, कौशल्या हो,

किन्तु तुम सब की नियति

किसी न किसी राम या गौतम से जुड़ी है”

स्त्री के संघर्ष के अलावा इनमें उसकी उपलब्धियों के स्वर भी हैं –

“काश पिता देख पाते कि

मैंने ठीक उनके सपनों से

कुछ नीचे ही सही

पर बना तो ली है

अपनी एक दुनिया”

चालीस पार कर चुकी यह स्त्री अब किसी भय से आक्रांत नहीं है –

“कभी-कभी बड़ी खतरनाक होती है

ये चालीस पार की औरत

वह तुम्हें ठीक-ठीक पहचानती है”

मोनालिसा पर सात अलग-अलग कविताओं में कलावंती ने उससे एक संवाद किया है –

“क्या यह दुख किसी सुंदर सृजन से

पहले का दुख है

जो सुख से भी ज़्यादा सुंदर होता है”

इसी तरह बेटियों पर चार कविताएं है –

“इस नास्तिक समय में

रामधुन सी बेटियाँ

इस कलयुग में

सत्संग सी बेटियाँ”

तुलसी, कृष्ण, मोनालिसा, होरी, गौरैया सभी से कलावंती प्रश्न करती है। और अपनी ही कुछ पंक्तियों में कहती है –

“जानती हूँ पूछ रही हूँ जो तुमसे

वह अनुत्तरित है युगों से ही

फिर भी पूछना मेरे विवशता है

और

उत्तरहीनता तुम्हारी”

चालीस पार की इस स्त्री का प्रेम भी परिपक्वता लिए हुए है –

“वह प्रेम जो मेरे लिए रहा

पूजा, प्रार्थना और अजान की तरह

उसे स्वीकारूंगी अब

अपनी पहचान की तरह”

अपने जीवन के कई दशकों की तपस्या को कवयित्री ने इस संग्रह के माध्यम से सामने रखा है।  इस संग्रह का आवरण अनुप्रिया ने बनाया है जो इसकी कविताओं के मुख्य स्वर को प्रतिध्वनित करता है। इसकी भूमिका लिखी है सुविख्यात कवयित्री अनामिका ने जो अब साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हो चुकी हैं। उन्हीं के शब्दों में –“कलावंती की स्त्री केन्द्रित कविताएं एक सबल प्रतिपक्ष रचती हैं।“

समीक्षक – डॉ. नूपुर अशोक

 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 102 – “अपना अपना सच” – श्री संतोष परिहार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  श्री संतोष परिहार जी के कहानी  संग्रह  “अपना अपना सच ” की समीक्षा।

 पुस्तक चर्चा

APNA-APNA SACH

पुस्तक : अपना अपना सच (कहानी संग्रह)

कहानीकार- श्री संतोष परिहार

प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर

मूल्य : १५० रु

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 102 – “अपना अपना सच ” – श्री संतोष परिहार ☆  

कहानियों के जरिये चरित्र के जीवन के सच का मूल्यांकन कथाओ में किया गया है । संग्रह में फुल 17 कहानियां  हैं । संग्रह की पहली कहानी जीवन एक आशा है जिसमें वृद्ध ठाकुर काका के आशावान जीवन को वर्णित किया गया है।देश का वोटर नेताओं के किए गए वादों को सच मान लेता है और उनके संबोधन में सपने बुन लेता है घर आजा मोहन कहानी में यही भाव अभिव्यक्त किए गए हैं। तेरे जाने के बाद में एक पिता के व्याकुल मन का सच है ।  “दे दाता के नाम” कहानी में दहेज  प्रथा पर कहानीकार का प्रहार है । संग्रह की सभी कहानियां हृदयस्पर्शी है जिन में जीवन का कटु सत्य है और समाज की विसंगतियों  पर लेखक ने  अपनी कलम से  सुधार करने का यत्न किया है । “बड़प्पन” कहानी में बताने का यत्न किया गया है की आदमी अपनी जाति से नहीं  कर्म से बड़ा होता है ।कहानियों की  घटनाएं हम सबके आसपास ही घटित हो रही है जिन्हें लेखक ने इस तरह लिपी बद्ध किया है कि पाठक को लगता है कि वह समस्या उसके  अपने ऊपर ही बीत रही है ।

समाज का शोषित वर्ग जैसे  बेटियां,स्त्रियां,बुजुर्ग,बच्चों और जानवर सभी के विषय में  कथाओं का संग्रह है।

पुस्तक बार बार पठनीय है।  संतोष परिहार जी हिंदी कहानी जगत के पुरस्कृत बहुपठित कहानीकार हैं उनसे हिंदी कथा को और बहुत सी आशाये हैं। 

समीक्षक – विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ आत्मकथ्य – बचपन रसगुल्लों का दोना (बालगीत संग्रह) ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

☆ पुस्तक चर्चा ☆ आत्मकथ्य – बचपन रसगुल्लों का दोना (बालगीत संग्रह) ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

पुस्तक – बचपन रसगुल्लों का दोना (बालगीत संग्रह)   

कवि – श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ 

प्रकाशक –  AISECT Publications (1 January 2021)

पृष्ठसंख्या –   187

मूल्य – रु 250/-

अमेजन का लिंक >>>> “बचपन रसगुल्लों का दोना”

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

सातवीं साहित्यिक कृति के रूप में मेरे सद्य प्रकाशित बाल गीत संग्रह ” बचपन रसगुल्लों का दोना” पर व्यक्त आत्मकथ्य – “सुरेश कुशवाहा तन्मय”

जब मन होता है कि, कोई कविता नई लिखूँ

तब मैं बच्चों से, खुलकर बातें कर लेता हूँ,

लौट लौट अपने बचपन की, यादें लेकर के

नए समय की नाव, बालपन की मैं खेता हूँ।

पहले हम बच्चे ही थे, फिर समय के साथ बड़े हुए, गृहस्थी बसी, घर में दो बेटियाँ और एक बेटे का आगमन हुआ। बच्चों के बढ़ते कद के साथ ही ज्यों ज्यों हमारी उम्र ढलती गई, हम वापस बच्चे होते गए। अब 73 वर्ष की यह आयु तो एक तरह से वापसी की ही अवस्था है। तो मानता हूँ मैं कि, अब हममें पूर्ण रूप से बचपन लौट आया है। फर्क इतना है कि, प्रारंभ वाला बचपना नितांत अबोध था और अभी वाले बचपने में जीवन भर के खट्टे मीठे अनुभव हैं। मन में विचार उठने लगे क्यों न इस बचपने को एक बार फिर कागज पर उतारा जाए। इसी सोच के दरमियान कोरोना के आपदा काल के चलते बाहरी गतिविधियों से भी छुट्टी मिल गई,और इस प्रकार बाल कविताओं के इस दूसरे संग्रह के सृजन का शुभारंभ हुआ। इसमें भरपूर सहयोग परिवार का और लेखन में निरंतरता की प्रेरणा मेरे 10 वर्षीय पोतेराम दिव्यांश की रही। प्रतिदिन वह पूछता था कि दादूजी आज कौन सी नई कविता लिखी ? इस प्रकार उसकी उत्सुकता मुझे सतत लिखने को प्रेरित करती रही।

यह सर्वमान्य तथ्य है कि बाल साहित्य की विभिन्न विधाओं में बाल कविताएँ/बाल गीत बच्चों को सबसे ज्यादा प्रिय होते हैं। कविताएँ बच्चों के कोमल ह्रदय को बहुत सहज, सरल व सरस तरीके से प्रभावित कर उनके मन को आसानी से छूती है। इसमें कविता की भाषा, शैली, शिल्प और कथ्य के साथ लय अथवा गीतात्मकता इसके आकर्षण को और बढ़ा देती है। बाल कविता/बाल गीतों का लक्ष्य भी यही रहता है कि बच्चे खेलते-कूदते, हँसते-गाते हुए एक जिम्मेदार नागरिक बनने की दिशा में आगे बढ़ते रहें।

कहा गया है कि, बाल्यावस्था जिज्ञासु तथा कल्पनाजीवी होती है, वहीं किशोर अवस्था में वह स्वप्नदर्शी होता है, इस वय में किशोरों के मन में अनेक रंग-बिरंगे स्वप्न आते जाते रहते हैं। इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखकर अपने सभी रचनाधर्मी साथियों के सत्संग का लाभ लेते हुए निश्छल ह्रदय बच्चों से जो कुछ सीखा है उसे पूरी ईमानदारी से अपनी इन कविताओं में उतारने का मेरा प्रयास रहा है।

क्या है इन कविताओं/गीतों में, यह ये स्वयं बताएंगी, जब आप निर्मल मन से इन्हें पढ़ेंगे। एक-एक कविता लिखने के बाद मैंने असीम सुख पाया है इनसे। चाहता हूँ इस सुख के कुछ सुकून भरे शीतल छींटे आप तक भी पहुँचे और प्रतिक्रिया में आप सुधि पाठकों से उम्मीद करता हूँ कि,आप भी अपने विचारों से मुझे अवगत कराएँगे। इन रचनाओं में कुछ त्रुटियाँ या भूल हुई हो तो नि:संकोच वह भी बताएँ ताकि मैं अपने एवं अपनी रचनाओं में सुधार कर सकूँ।

आभार प्रदर्शन के लिए मेरे पास शुभचिंतक मित्रों की एक लंबी सूची है। उन सबका नामोल्लेख करना यहाँ संभव नहीं है, कुछ नाम लिखकर मैं बाकी साथियों से दूर नहीं होना चाहता। इसलिए भोपाल, जबलपुर, खरगोन, खंडवा सहित देश भर सेजुड़े सभी भाई-बहनों के प्रति ह्रदय से कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ।

इस संग्रह के लिए मैंने जबलपुर से छंद एवं व्याकरण शास्त्र के मर्मज्ञ आचार्य श्री संजीव वर्मा सलिल जी तथा भोपाल से बाल कल्याण एवं बाल साहित्य शोध केंद्र के सचिव/निदेशक सुविज्ञ साहित्यविद श्री महेश सक्सेना जी से इन बाल कविताओं पर अपने विचार व्यक्त करने के लिए अनुरोध किया। अर्जी स्वीकार की गई, इसके लिये आप दोनों साहित्य मनीषियों के प्रति ह्रदय से आभार व्यक्त करता हूँ। इसी के साथ जिनका उल्लेख अति महत्वपूर्ण है, जिनके चित्रांकन मेरी कविताओं को संजीवनी प्रदान करते रहे हैं, मेरे अनुजवत प्रिय साथी श्री बृजेश बड़ोले जी के प्रति विशेष रूप से कृतज्ञ हूँ। इससे पूर्व भी मेरे दो कविता संग्रह में उन्होने आवरण पृष्ठ सहित अनेक चित्र उकेरे हैं।

आभार मेरे परिजनों का भी जिनके बिना सन 1970 से चल रही मेरी ये साहित्यिक यात्रा संभव ही नहीं है। इस अवसर पर सबसे पहले अपनी सहधर्मिणी स्वर्गीय मीना की स्मृति के साथ आगे बढ़ता हूँ। बहू सुप्रिया व पुत्र कुन्तल का यह कहना कि पापाजी आप लिखते रहें, इन्हें छपवाने की जिम्मेदारी हमारी है। वहीं दोनों बेटियाँ दीप्ति व श्रुति से मिला प्रोत्साहन कभी कलम की स्याही सूखने नहीं देता है। इस संग्रह की सभी कविताओं का टंकण एवं व्याकरणगत त्रुटियाँ ठीक करने में बेटी श्रुति का सहयोग विशेष रूप से उल्लेखनीय है। वैसे भी वह मेरी रचनाओं की प्रथम श्रोता/पाठक है। पत्रकार होने के साथ ही श्रुति स्वयं एक संभावनाशील साहित्यकार है, इस नाते उसकी सलाह मेरे लिए सदैव महत्वपूर्ण रही है।

अंत में यही अनुरोध है कि, जैसे आप ने मेरी पूर्व कृतियों पर अपनी प्रतिक्रिया से मेरा उत्साह वर्धन किया वैसे ही इस बालकाव्य संग्रह

 “बच्चे रसगुल्लों का दोना” को भी आपका प्यार-दुलार मिलेगा।

सुख से जीने का हुनर, बच्चे हमें सिखाएँ

सखा मित्र बन संग में, आगे कदम बढ़ाएँ।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

बी – 101, विराशा हाइट्स, दानिश कुँज ब्रिज, कोलार रोड, भोपाल – 462042 (म.प्र)

मोबाइल- 9893266014

ईमेल – [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “क्रौंच” – श्री संजय भारद्वाज ☆ प्रोफेसर नंदलाल पाठक

प्रोफेसर नंदलाल पाठक

(क्षितिज प्रकाशन एवं इंफोटेन्मेन्ट द्वारा आयोजित श्री संजय भारद्वाज जी के कवितासंग्रह ‘क्रौंच’ का ऑनलाइन लोकार्पण कल रविवार 31 अक्टूबर 2021, रात्रि 8:30 बजे होगा।  प्रोफेसर नन्दलाल पाठक जी ने क्रौंच पुस्तक की भूमिका लिखी है, जिसे हम अपने प्रबुद्ध पाठकों से साझा कर रहे हैं।)

? क्रौंच कविताएँ अब पाठकों की संपत्ति बन गई हैं, कवि की यही सफलता है✍️ प्रोफेसर नंदलाल पाठक ?

 

मेरे लिए काव्यानंद का अवसर है क्योंकि मेरे सामने संजय भारद्वाज की क्रौंच कविताएँ हैं। संजय जी की ‘संजय दृष्टि’ यहाँ भी दर्शनीय है।

कविता के जन्म से जुड़ा क्रौंच शब्द कितना आकर्षक और महत्वपूर्ण है। प्राचीनता और नवीनता का संगम भारतीय चिंतन में मिलता रहता है।

क्रौंच की कथा करुण रस से जुड़ी है। संजय जी लिखते हैं,

यह संग्रह समर्पित है उन पीड़ाओं को जिन्होंने डसना नहीं छोड़ा, मैंने रचना नहीं छोड़ा।

यह हुई मानव मन की बात।

‘उलटबाँसी’ कविता की अंतिम पंक्तियाँ हैं-

लिखने की प्रक्रिया में पैदा होते गए/ लेखक के आलोचक और प्रशंसक।

बड़ी सहजता से संजय जी ने यह विराट सत्य सामने रख दिया है-

जीवन आशंकाओं के पहरे में / संभावनाओं का सम्मेलन है।

पन्ने पलटते जाइए और आपको ऐसे रत्न मिलते रहेंगे।

मेरे सामने जीवन और जगत है उसे मैं देख रहा हूँ लेकिन ‘संजय दृष्टि’ से देखता हूँ तो लगता है सब कुछ कितना संक्षिप्त है, सब कुछ कितना विराट है।

संजय जी की रचनाओं में सबसे मुखर उनका मौन है।

इन रचनाओं को पढ़ते समय मेरा ध्यान इस बात पर भी गया कि कवि ने छंद, लय, ताल, संगीत आदि का कोई सहारा नहीं लिया। यह इस बात की ओर स्पष्ट संकेत है कि कविता यदि कविता है तो वह बिना बैसाखी के भी अपने पैरों पर खड़ी हो सकती है। संजय भारद्वाज कवितावादी हैं।

भारत जैसे महान जनतंत्र की हम में से प्रत्येक व्यक्ति इकाई है। जनतंत्र की महानता की भी सीमा है। राजनीतिक प्रदूषण से बचना असंभव है, तभी तो-

कछुए की सक्रियता के विरुद्ध / खरगोश धरने पर बैठे हैं।

क्रौंच कविताएँ अब पाठकों की संपत्ति बन गई हैं, कवि की यही सफलता है।

आवश्यक है कि क्रौंच का का एक अंश आप सब के सामने भी हो-

तीर की नोंक और

क्रौंच की नाभि में

नहीं होती कविता,

चीत्कार और

हाहाकार में भी

नहीं होती कविता,

…………………..

अंतःस्रावी अभिव्यक्ति

होती है कविता..!

मेरी शुभकामनाएँ हैं कि संजय जी ऐसे ही लिखते रहें।

 

प्रोफेसर नंदलाल पाठक

पूर्व कार्याध्यक्ष, महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी

 

? ई- अभिव्यक्ति परिवार की ओर से श्री संजय भारद्वाज जी को उनके नवीन काव्य संग्रह क्रौंच के लिए हार्दिक शुभकामनाएं ?

 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 101 – “जीवन वीणा” – सुश्री अनीता श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  सुश्री अनीता श्रीवास्तव जी के काव्य संग्रह  “जीवन वीणा” – की समीक्षा।

 पुस्तक चर्चा

पुस्तक : जीवन वीणा ( काव्य संग्रह)

कवियत्री : सुश्री अनीता श्रीवास्तव

प्रकाशक : अंजुमन प्रकाशन, प्रयागराज

मूल्य : १५० रु

पृष्ठ : १५०

आई एस बी एन ९७८.९३.८८५५६.१२.५

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 101 – “जीवन वीणा” – सुश्री अनीता श्रीवास्तव ☆   

जीवन सचमुच वीणा ही तो है. यह हम पर है कि हम उसे किस तरह जियें. वीणा के तार समुचित कसे हुये हों,  वादक में तारों को छेड़ने की योग्यता हो तो कर्णप्रिय मधुर संगीत परिवेश को सम्मोहित करता है. वहीं अच्छी से अच्छी वीणा भी यदि अयोग्य वादक के हाथ लग जावे तो न केवल कर्कश ध्वनि होती है,  तार भी टूट जाते हैं. अनीता श्रीवास्तव कलम और शब्दों से रोचक,  प्रेरक और मनहर जीवन वीणा बजाने में नई ऊर्जा से भरपूर सक्षम कवियत्री हैं.

उनकी सोच में नवीनता है… वे लिखती हैं

” घड़ी दिखाई देती है,  समय तू भी तो दिख “.

वे आत्मार्पण करते हुये लिखती हैं…

” लो मेरे गुण और अवगुण सब समर्पण,  ये तुम्हारी सृष्टि है मैं मात्र दर्पण, …. मैं उसी शबरी के आश्रम की हूं बेरी,  कि जिसके जूठे बेर भी तुमको ग्रहण “.

उनकी उपमाओ में नवोन्मेषी प्रयोग हैं. ” जीवन एक नदी है,  बीचों बीच बहती मैं…. जब भी किनारे की ओर हाथ बढ़ाया है,  उसने मुझे ऐसा धकियाया है,  जैसे वह स्त्री सुहागन और पर पुरुष मैं “.

गीत,  बाल कवितायें,  क्षणिकायें,  नई कवितायें अपनी पूरी डायरी ही उन्होने इस संग्रह में उड़ेल दी है. आकाशवाणी,  दूरदर्शन में उद्घोषणा और शिक्षण का उनका स्वयं का अनुभव उन्हें नये नये बिम्ब देता लगता है,  जो इन कविताओ में मुखरित है. वे स्वीकारती हैं कि वे कवि नहीं हैं,  किन्तु बड़ी कुशलता से लिखती हैं कि “कविता मेरी बेचैनी है,  मुझे तो अपनी बात कहनी है “.

कहन का उनका तरीका उन्मुक्त है,  शिष्ट है,  नवीनता लिये हुये है. उन्हें अपनी जीवन वीणा से सरगम,  राग और संगीत में निबद्ध नई धुन बना पाने में सफलता मिली है. यह उनकी कविताओ की पहली किताब है. ये कवितायें शायद उनका समय समय पर उपजा आत्म चिंतन हैं.

उनसे अभी साहित्य जगत को बहुत सी और भी परिपक्व,  समर्थ व अधिक व्यापक रचनाओ की अपेक्षा करनी चाहिये,  क्योंकि इस पहले संग्रह की कविताओ से सुश्री अनीता श्रीवास्तव जी की क्षमतायें स्पष्ट दिखाई देती हैं. जब वे उस आडिटोरियम के लिये अपनी कविता लिखेंगी,  अपनी जीवन वीणा को छेड़कर धुन बनायेंगी जिसकी छत आसमान है,  जिसका विस्तार सारी धरा ही नहीं सारी सृष्टि है,  जहां उनके सह संगीतकार के रूप में सागर की लहरों का कलरव और जंगल में हवाओ के झोंकें हैं,  तो वे कुछ बड़ा,  शाश्वत लिख दिखायेंगी तय है. मेरी यही कामना है.  

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 100 – “सकारात्मक सपने” – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी की पुस्तक  “सकारात्मक सपने” – की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 100 – “सकारात्मक सपने” – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव ☆ 

 पुस्तक चर्चा

Amazon Link for eBook :  सकारात्मक सपने

 

Kobo Link for eBook        : सकारात्मक सपने

 

कृति …सकारात्मक सपने

लेखिका …अनुभा श्रीवास्तव

प्रकाशक … डायमण्ड पाकेट बुक्स दिल्ली

मूल्य …११० रु

पृष्ठ .. १२४

साहित्य अकादमी म प्र. संस्कृति परिषद के सहयोग से प्रकाशित एवं लेखिका को इस कृति पर  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त। 

युवा लेखिका ने समय समय पर यत्र तत्र विभिन्न विषयो पर युवा सरोकारो के स्फुट आलेख लिखे , जिनमें से शाश्वत मूल्यो के आलेखो को प्रस्तुत पुस्तक में संग्रहित कर प्रकाशित किया गया है .

आत्मकथ्य  – युवा सरोकार के लघु आलेख 

जीवन में विचारो का सर्वाधिक महत्व है. विचार ही हमारे जीवन को दिशा देते हैं, विचारो के आधार पर ही हम निर्णय लेते हैं . विचार व्यक्तिगत अनुभव , पठन पाठन और परिवेश के आधार पर बनते हैं . इस दृष्टि से सुविचारो का महत्व निर्विवाद है . अक्षर अपनी इकाई में अभिव्यक्ति का वह सामर्थ्य नही रखते , जो सार्थकता वे  शब्द बनकर और फिर वाक्य के रूप में अभिव्यक्त कर पाते हैं . विषय की संप्रेषणीयता  लेख बनकर व्यापक हो पाती है.   इसी क्रम में स्फुट आलेख उतने दीर्घजीवी नही होते जितने वे पुस्तक के रूप में  प्रभावी और उपयोगी बन जाते हैं . समय समय पर मैने विभिन्न समसामयिक, युवा मन को प्रभावित करते विभिन्न विषयो पर अपने विचारो को आलेखो के रूप में अभिव्यक्त किया है जिन्हें ब्लाग के रूप में या पत्र पत्रिकाओ में  स्थान मिला है. लेखन के रूप में वैचारिक अभिव्यक्ति का यह क्रम  और कुछ नही तो कम से कम डायरी के स्वरूप में निरंतर जारी है.

अपने इन्ही आलेखो में से चुनिंदा जिन रचनाओ का शाश्वत मूल्य है तथा  कुछ वे रचनाये जो भले ही आज ज्वलंत  न हो किन्तु उनका महत्व तत्कालीन परिदृश्य में युवा सोच  को समझने की दृष्टि से प्रासंगिक है व जो विचारो को सकारात्मक दिशा देते हैं ऐसे आलेखों को प्रस्तुत कृति में संग्रहित करने का प्रयास किया  है . संग्रह में सम्मिलित प्रायः सभी आलेख स्वतंत्र विषयो पर लिखे गये हैं ,इस तरह पुस्तक में विषय विविधता है. कृति में कुछ लघु लेख हैं, तो कुछ लम्बे, बिना किसी नाप तौल के विषय की प्रस्तुति पर ध्यान देते हुये लेखन किया गया है.

आशा है कि पुस्तकाकार ये आलेख साहित्य की दृष्टि से  संदर्भ, व वैचारिक चिंतन मनन हेतु किंचित उपयोगी होंगे.

–  अनुभा श्रीवास्तव

खूशी की तलाश , आपदा प्रबंधन , कन्या भ्रूण हत्या , स्थाई चरित्र निर्माण हेतु नैतिकता की आवश्यकता , कम्प्यूटर से जीवन जीने की कला सीखने की प्रेरणा , देश बनाने की जबाबदारी युवा कंधों पर , कचरे के खतरे , धार्मिक पर्यटन की विरासत , आरक्षण धर्म और संस्कृति , आम सहमति से समस्याओ का स्थाई निदान, कागज जलाना मतलब पेड जलाना , भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई , तोड़ फोड़ राष्ट्रीय अपव्यय , शब्द मरते नहीं , कैसे हो गांवो का विकास , मुखिया मुख सो चाहिये , गर्व है सेना और संविधान पर , कार्पोरेट जगत और हिन्दी , संचार क्रांति , भ्रष्टाचार के विरुद्ध लडाई , महिलायें समाज की धुरी , जीवन और मूल्य जैसे समसामयिक विषयो पर आज के युवा मन के विचारो को प्रतिबिंबित करते छोटे छोटे सारगर्भित तथ्यपूर्ण आलेखो में अभिव्यक्त किया गया है .

लेख विषय की सहज अभिव्यक्ति करते हैं व मानसिक भूख शांत करते हैं . पुस्तक पढ़ने योग्य है , वैचारिक स्तर पर  संदर्भ हेतु संग्रहणीय भी है . युवाओ हेतु विषेश रूप से बहुउपयोगी है .

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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