हिन्दी साहित्य – कविता ☆ माँ ☆ डॉ निशा अग्रवाल

डॉ निशा अग्रवाल

☆  कविता – माँ ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆  

अगर शब्द दुनियां में “माँ ” का ना होता।

सफर जिंदगी का शुरू कैसे होता।।

एक  माँ ही तो है जिसमें, कायनात समायी है।

कोख से जिसकी शुरू होता जीवन,  

होती उसी की गोद में अंतिम विदाई है।।

शुरू होती दुनियां माँ के ही दर्द से।

माँ ने ही हमारी हमसे पहचान कराई है।।

अंगुली पकड़कर सिखाया है चलना।

माँ की परछाई में दुनियां समायी है।।

ना भूख से कड़के माँ, ना प्यास से तरसे।

संतान के लिए ही वो हर पल तडफे।।

ममता के आंचल में दर्द भर लेती।

दुनियां से सामना करना सिखाई है।।

प्यार में सच्चाई की होती है मूरत।

दुनियां में माँ से बड़ी नही कोई मूरत।।

माँ की दुआओं का ही है असर हम पर।

जो मुसीबतों को भी सह लेते हम हँस कर।

माँ की नज़र से ही दुनियां है देखी।

माँ की दुआओं ने दुनियां है बदली।।

लबों पै जिसके कभी बद्दुआ ना होती।

बस एक माँ है जो कभी खफ़ा ना होती।।

मां की गोदी में जन्नत हमारी।

सारे जहां में माँ लगती है प्यारी।।

ईश्वर से भी बड़ा दर्ज़ा होता है माँ का।

जिसने जगत में हमको पहचान दिलाई।।

हर रिश्ते में मिलावट देखी है हमने।

कच्चे रंगों की सजावट देखी है हमने।।

लेकिन माँ के चेहरे की थकावट ना देखी।

 ममता में उसकी कभी मिलावट ना देखी।।

कभी भूलकर ना “माँ “का अपमान करना।

हमेशा अपनी माँ का सम्मान ही करना।।

हो जाये अगर लाचार कभी अपनी माँ तो।

कभी रूह से उसको जुदा तुम ना करना।।

एक माँ ही होती है,

जो बच्चे के गुनाहों को धो देती है।।

होती गर  गुस्से में माँ जब हमारी।

तो बस भावुकता से वो रो देती है।।

ऐ बन्दे दुआ मांग ले अपने रब से।

कि फिर से वही गोद मिल जाये।।

फिर से उसी माँ के कदमों में मुझको।

अपना सारा जहाँ मिल जाये।।

 

©  डॉ निशा अग्रवाल

जयपुर, राजस्थान

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 7 (46-50)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #7 (46-50) ॥ ☆

 

गजयुद्ध में छुरा सी धारवाले, चक्रों से कटने के उपरांत भी सिर

महावतों के, बाजों के पंजों मे केशो फँसे शीघ्र गिरते न थे फिर ॥ 46॥

 

प्रहार अक्षम रिंपु अश्व पर जो टिकाये सिर दुबके बेसहारा

की कामना उनके स्वस्थ होने की, किसी प्रहर्ता ने उनको न मारा ॥ 47॥

 

निडर कवचधारी सैनिको के म्यानों से निकली हुई असि की मारें

उठाती गज दन्तो से वहियाँ थी बुझाती सूँड़ो से जल की धारें ॥ 48॥

 

शरछिन्न मस्तक – फल से पटी भूमि शिरत्राण रूपी मदपान प्याले

रूधिर की मदिरा बहाती रण में, थी मृत्यु मधुशाला सी सम्हाले ॥ 49॥

 

कटी भुजा छीन के पक्षियों से चबाती सियारिन निकट विजन में

केयूर की नोक से छिन्न तालू हो, त्याग आहार गई भाग वन में ॥ 50॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 64 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 64 –  दोहे 

राम सिया की रुदन का, ज्ञात नहीं इतिहास।

संभव आँसू स्वयं ही, चले गए वनवास।।

 

आँसू जिनकी आँख में ,पाते नहीं पनाह।

व्यर्थ जिंदगी हो गई, अगर ना निकली आह।।

 

आँसू शिशु की आँख के, गंगा सदृश पवित्र।

निर्मल मन से देख लो, अपने मन का चित्र।।

 

आँसू निकले रूप के, गात हुआ कश्मीर ।

हार चुका में खोज कर, मिली ना एक नजीर।।

 

पीड़ा के संतान का, आँसू रक्खा नाम।

जो भी इसको दे बदल ,कह पाए इनाम।।

 

आँसू ने अपनी तरह, अपना किया निबाह।

सब थे अपनी तरह के, गए बदल कर राह।

 

आँसू शबनम एक से ,अलग अलग है वंश।

एक चाह की चाशनी, दूजा देता दंश।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 64 – बादल की क्या रही बिसात …..…..☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “बादल की क्या रही बिसात ….. । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 64 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || बादल की क्या रही बिसात ….. || ☆

बादल की क्या रही बिसात

मौसम जब कोतवाल था

शायद यह बंदिश-सीमाओं का

बचा -खुचा भूतकाल था

 

दीनहीन थी नहीं कभी

लेकिन थी विवेक शील भी

जिसे झुका न पायी कोई कई

प्रयत्नों के भी बाद कभी

 

लँगड़ी कुबड़ी परिस्थितियाँ

खोजने जुटी थीं अस्तित्व

प्रकृतिके सूचना वाहक

बताने जुटे थे व्यक्तित्व

 

ऐसीभी निकष योजनाओं की

जिसका चंचल सा परिहास

विद्युतके कोणों पर आ ठहरा

अहोरात्र देखभाल था

 

जीवन की संसद में चुना हुआ

दैहिक अनुताप का समीकरण

अनुत्तरित प्रश्नों सा दिखा हमें

प्रस्तावो का यह प्रथम चरण

 

जिसका अभिप्राय टिप्पणियों

सजग प्रतीत हुआ ऐसे

प्रश्नावलियों में सभासद

दिखे श्वेत वस्त्र में जैसे

 

पश्चिम की क्षीणकाय

तिथियाँ स्मरण कराती हैं

कभी हमारा दिखा सबको

उन्नत जो विजय भाल था

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

31-10-2021

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 110 ☆ हम है बिजूका …. ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता  ‘हम है बिजूका ….’ )  

☆ संस्मरण # 110 ☆ हम है बिजूका….  ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

सोचने को बहुत कुछ है, 

कि हम पानी से पैदा हुए, 

और धूल धूसरित बड़े हुए, 

हवा ने कहा हम है साथ-साथ, 

जब देखो प्रकाश ही प्रकाश, 

पांच तत्वों का घरेलू उत्पाद, 

लो दौड़ने लगा बाजार बाजार  

सोचने को तो बहुत है यार, 

करो तो कभी जीवन से प्यार, 

सुगंध- सुमन को करो याद, 

आओ मिल जाऐं बार बार।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #54 ☆ # बसेरा # ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# बसेरा #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 54 ☆

☆ # बसेरा # ☆ 

जीवन की भाग दौड़ में

जीवन-पथ के हर मोड़ में

तुम मुस्कुराओगी

तो सवेरा होगा

कभी कभी छोटी छोटी बातों में

दूर विरह की रातों में

रूठ जाओगी अगर

तो जीवन में अंधेरा होगा

 

तुम्हारी प्यारी प्यारी बातों में

यूं ही रोज मुलाकातों में

मैं तो सब कुछ हार गया

ना जाने ये दिल

कब मेरा होगा

 

तुम्हारा झीना झीना आंचल

आंखों का भीगा भीगा काजल

दीवाना कर रहा है मुझे

ना जाने कब

हाथ में हाथ तेरा होगा

 

तेरे अंग अंग की दहक

केवड़े की फूल सी महक

बेधुंद  नागिन सी तेरी काया

होश में कैसे

यह सपेरा होगा

 

मैं हूँ रात्रि का आखिरी प्रहर

तू है रात की नई सहर

मिल जाये गर हम दोनों

कितना अद्भुत

यह बसेरा होगा

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 7 (41-45)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #7 (41-45) ॥ ☆

 

रणांगण में उड़ते सघन धूलकण बीच, रथ चक्रध्वनि से ही थे जाने जाते

नृपनाम से सैन्य अपनी परायी, व घंटो से हाथी थे पहचान पाते ॥ 41॥

 

रण में बढ़े दृष्टिरोधी अँधेरे में, जो धूलिकण की सघनता से छाया

शस्त्रों से मारे गये अश्व द्विप, वीरों का रूधिर ज्यों बालरवि दृष्टि आया ॥ 42॥

 

आघात के रूधिर से रक्तरंजित, धराधूलि अंगार सी दी दिखाई

और वायुसंग उमड़ती धूल नभ में ज्वलनपूर्व उठते धुंयें सी थी छाई ॥ 43॥

 

रथारूढ़ आघात – मूर्छित पुनः जग झिड़क सारथियों को – था जिनने बचाया

उन्ही को, ध्वजा देख जिनसे थे हारे, फिर क्रोधित कर लक्ष्य लड़ने बनाया। 44।

 

अरिबाण से छिन्न हो बीच में भी योद्धाओं के बाण की फाल बढ़कर

अपने प्रबल वेग से लक्ष्य को भेद, रख देते थे छिन्नकर या मिटाकर ॥ 45॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 66 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 66 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 66) ☆

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 66☆

उन दरख़्तों से भी

नाता जोड़िए

जिन दरख़्तों का

कोई साया नहीं…

 

Connect with

those trees too

The trees that

have no shadow…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

रात  भर,  रात  को,

एक रात जगाया जाए,

रात को मालूम तो हो,

कि हम पे गुजरती क्या है…

 

One night, keep the night

awake all night, at night

Just let the night know

what  we  go  through…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

वो ज़ुबाँ से अल्फाजों

को ढूँढ़ते  रह गए…

और हम आँखों से

पूरी गज़ल कह गए…

 

She kept searching for the

words from my mouth…

and here I recited the

entire ghazal with the eyes!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

तभी तक पूछे जाओगे

जब तक काम आओगे…

बस चिरागों के जलते ही

तीलियां बुझा दी जाती हैं…

 

People will appreciate you

only till you’re useful to them

Matchsticks are extinguished

as soon as the lamps are lit….!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 66 ☆ नवगीतः सुग्गा बोलो … ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित  नवगीतः सुग्गा बोलो …। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 66 ☆ 

☆ ‘नवगीतः सुग्गा बोलो… ☆ 

*

सुग्गा बोलो

जय सिया राम…

*

काने कौए कुर्सी को

पकड़ सयाने बन बैठे

भूल गये रुकना-झुकना

देख आईना हँस एँठे

खिसकी पाँव तले धरती

नाम हुआ बेहद बदनाम…

*

मोहन ने फिर व्यूह रचा

किया पार्थ ने शर-सन्धान

कौरव हुए धराशायी

जनगण सिद्‍ध हुआ मतिमान

खुश मत हो, सच याद रखो

जन-हित बिन होगे गुमनाम…

*

हर चूल्हे में आग जले

गौ-भिक्षुक रोटी पाये

सांझ-सकारे गली-गली

दाता की जय-जय गाये

मौका पाये काबलियत

मेहनत पाये अपना दाम…

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य #96 ☆ गाँव ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 96 ☆ # गाँव # ☆

 

हम गांव हई‌ अपने भितरा‌, हम सुंदर साज सजाईला

चनरू मंगरू चिथरू‌ के साथे, खुशियां रोज मनाई ला।

 

खेते‌ खरिहाने गांव घरे, खुशहाली चारिउ‌‌ ओर रहल।

दुख‌ में ‌सुख‌ में ‌सब‌ साथ रहल, घर गांव के‌ खेढ़ा* बनल‌ रहल।

 

दद्दा दादी‌‌ चाची माई से, कुनबा (परिवार)पूरा भरल रहल।

सुख में दुख ‌मे सब‌ साथ रहै, सबकर रिस्ता जुड़ल रहल।

 

ना जाने  कइसन‌ आंधी आइल, सब तिनका-तिनका बिखर‌ गयल ।

सब अपने स्वार्थ भुलाई गयले, नाता‌ रिस्ता सब‌‌ दरक गयल ।

 

माई‌‌ बाबू अब‌ भार‌ लगै, ससुराल के रिस्ता नया जुडल।

साली सरहज अब नीक लगै, बहिनी से रिस्ता टूटि गयल

 

भाई के‌ प्रेम‌ के बदले में, नफ़रत क उपहार मिलल।

घर गांव पराया लगै लगल, अपनापन‌ सबसे खतम‌ भयल।

 

घर गांव ‌लगै‌ पिछड़ा पिछड़ा, जे जन्म से ‌तोहरे‌ साथ रहल।

संगी साथी सब बेगाना, अपनापन शहर से तोहे मिलल।

 

छोड़ला आपन गांव‌ देश, शहरी पन पे‌ लुभा‌ गइला।

गांव का‌ कुसूर रहल, काहे गांव भुला गइला?

अपने कुल में दाग लगाइके, घर गांव क रीत भुला गइला।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares