हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – क्रौंच (1) ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – क्रौंच (1) ? ?

क्रौंच के वध से

उपजे शब्द

कविता होंगे तुम्हारे लिए,

मेरे लिए तो

विषबुझे तीर से लहुलुहान

छटपटाते क्रौंच का आर्तनाद ही

शाश्वत कविता है,

सुन सको तो सुनो

और पढ़ सको तो पढ़ो

मेरा आर्तनाद..!

© संजय भारद्वाज 

(रात्रि 9:56 बजे, शुक्र. 4.12.2015)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ बस एक इल्म का साया है… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “बस एक इल्म का साया है“)

✍ बस एक इल्म का साया है… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

रहे -हयात में इस पर भी ध्यान है मेरा

न हम सफ़र न कोई हम ज़बान है मेरा

 *

तमाम अपने बड़े बदगुमान है मुझसे

ये बात सच है न समझो गुमान है मेरा

 *

लज़ीज़ खाने मुझे अपनी सम्त खींचते क्या

कि सादग़ी से भरा खान पान है मेरा

 *

बड़ों के सामने चुपचाप क्यों न रहता मैं

बड़ों के सामने कितना सा ज्ञान है मेरा

 *

करूँ मैं और कि तनक़ीद तो करूँ कैसे

कि दोस्त लिहजा गुलों  के समान है मेरा

 *

फ़रेबो -मक्र का साया भी पड़ न पाता है

हक़ीक़तों से भरा हर बयान है मेरा

 *

बस एक इल्म का साया है ज़ीस्त पर मेरी

बस इक शऊर ही अब मिहरबान है मेरा

 *

जो कर रहा है जमाने देखभाल अरुण

वही तुम्हारा वही पासवान है मेरा

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 40 – मिल गया, जिन्दगी का सहारा मुझे… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – मिल गया, जिन्दगी का सहारा मुझे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 40 – मिल गया, जिन्दगी का सहारा मुझे… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

मुस्कुराकर जो तुमने निहारा मुझे 

मिल गया आशिकी का इशारा मुझे

*

टूटकर मैं बिखरने लगा था, तभी 

जाने क्यों, आपने फिर सँवारा मुझे

*

करके बर्बाद तुमने, निरंतर दिया 

अपनी यादों का ‘भत्ता गुजारा’ मुझे

*

आज लोगों ने कितनी खुशी बक्श दी 

नाम के सँग तुम्हारे, पुकारा मुझे

*

एक दूजे का विश्वास, हम बन गये 

मिल गया, जिन्दगी का सहारा मुझे

*

प्यार का सिन्धु, आगोश में ले चुका 

चाहता हूँ मिले ना किनारा मुझे

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – विश्लेषण ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – विश्लेषण ? ?

अखंड रचते हैं..,

कहकर परिचय

कराया जाता है,

कुछ हाइकू भर

उतरे काग़ज़ पर,

भीतर घुमड़ते

अनंत सर्गों के

अखंड महाकाव्य

कब लिख पाया..,

सोचकर संकोच से

गड़ जाता है..!

© संजय भारद्वाज 

(सुबह 9:24 बजे, 20.11.19)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 116 – मनोज के दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 116 – मनोज के दोहे… ☆

1 रतजगा

सैनिक करता रतजगा, सीमा पर है आज।

दो तरफा दुश्मन खड़े, खतरे में है ताज।।

2 प्रहरी

उत्तर में प्रहरी बना, खड़ा हिमालय राज।

दक्षिण में चहुँ ओर से, सागर पर है नाज।।

3 मलीन

मुख-मलीन मत कर प्रिये,चल नव देख प्रभात।

जीवन में दुख-सुख सभी, घिर आते अनुपात।।

4 उमंग

पुणे शहर की यह धरा, मन में भरे उमंग।

किला सिंहगढ़ का यहाँ, विजयी-शिवा तरंग।।

5 चुपचाप

महानगर में आ गए, हम फिर से चुपचाप।

देख रहे बहुमंजिला, गगन चुंबकी नाप ।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 176 – गीत – सुबह सुबह देखा है सपना…. ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका एक अप्रतिम गीत – सुबह सुबह देखा है सपना।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 176 – गीत  – सुबह सुबह देखा है सपना…  ✍

सुबह सुबह देखा है सपना

तेरी गोदी में सिर अपना।

अवचेतन में जो कुछ होता

वही स्वप्न में ढल जाता है

अंधे को दिख जाती दुनिया

पगविहीन भी चल जाता है।

ऐसा ही कुछ किस्सा अपना

सुबह सुबह देखा है सपना।

 *

कहते सपने वे सच होते

जो भी देखे जायें सबेरे

कितनी आँखें सच्ची होंगी

कितने लोग तुम्हें हैं घेरे।

अपना तो जीवन ही सपना

सुबह सुबह देखा है सपना

 *

सुबह सुबह देखा है सपना

तेरी गोदी में सिर अपना।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 175 – “एक चित्र बादल का…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत  “एक चित्र बादल का...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 173 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “एक चित्र बादल का...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

सूरज की किरनों को

ऐसे मत टाँक री

फिसल रहा हाथों से

ईश का पिनाक री

 *

खुद की परछाईं जो

दुबिधा में छोटी है

उसको इतना छोटा

ऐसे मत आँक री

 *

ऐंठ रही धूप  तनिक

खड़ी कमर हाथ धरे

देखती दुपहरी को

ऊँची कर नाक  री

 *

एक चित्र बादल का

ऐसे दिखाई दे

ज्यों दबा दशानन हो

बाली की काँख री

 *

छाया छत से छूटी

टँगी दिखी छींके पर

लगा छींट छप्पर की

जा गिरी छमाक री

 *

घिर आई शाम धूप

फुनगी पर पहुँच गई

पीली उम्मीद बची

एक दो छटाँक री

 *

हौले हौले नभ में

उतर रहा चन्द्रमा

लगता है लटक रही

मैंदा की गाँकरी

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

06-02-2024 

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पिरामिड ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – पिरामिड  ? ?

जाने मुझमें

क्या नज़र आया;

मित्रों ने

पिरामिड बनाया,

मुझे फलदार

वृक्ष पर चढ़ाया;

मैं तोड़-तोड़कर

नीचे फेंकता रहा फल,

घनी पत्तियों से

देख भी नहीं

पा रहा था

किसे कितना मिला,

अब,

पेड़ पर

कोई फल नहीं बचा;

पत्तियों से

निकलकर देखा,

एक भी मित्र

नहीं था खड़ा,

पेड़ अब मेरी

दयनीयता पर हँस रहा था;

वृक्ष पर आकर भी

बिना फल चखे

लौटने पर

व्यंग्य कस रहा था,

कथित मित्र

चर्चा कर रहे थे;

आनेवाले अवसर

का नेता चुन रहे थे,

पेड़ अगले मौसम की

तैयारी कर रहा था;

मैं चुपचाप

पेड़ से उतर रहा था!

© संजय भारद्वाज 

(अपराह्न 12:28 बजे, 6 दिसंबर 2015)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 224 ☆ “आम आदमी की फिक्र” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता – “आम आदमी की फिक्र)

☆ कविता  आम आदमी की फिक्र☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

हम और तुम

तुम और हम

शून्य में

आंखें गड़ाए 

टुकर टुकर

क्या ताक रहे हैं?

* *

हम और तुम

तुम और हम 

क्रांति और बदलाव

के नाम पर अजीब

अजीब हरकतें

क्यों करते जा रहे हैं?

* *

हम और तुम

तुम और हम

सच को झूठ

झूठ को सच कहकर

तरह तरह के

क्यों कयास लगा रहे हैं?

**

हम और तुम

तुम और हम

इन अजीब

हरकतों के दौरान

आम आदमी की

तकलीफों की

क्यों फिक्र नहीं कर रहे हैं?

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ सीता की व्यथा… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता ‘सीता की व्यथा…’।)

☆ कविता – सीता की व्यथा… ☆

मै,

भू पुत्री,

भू पर,

अबोध,असहाय,

पड़ी अकेली,

किसका दोष,

परिस्थिति,भाग्य,

सहलाया था,

हवा ने,

भाग्य था,

 पा लिया,

जनक ने,

पाल लिया,

महलों में,

पुत्री बनी,

जनक की,

बड़ी हुई,

चिंता हुई,

विवाह की,

शर्त रखी,

धनुष भंग,

जो करे,

वो जीते,

सीता को,

पुष्प वाटिका,

राम मिले,

सीता ने,

मन को,

वार दिया,

धनुषभंग कर,

जीत लिया,

पाया नहीं,

राम ने,

कई सपने,

कई अरमान,

अवध में,

 फिर वनवास,

 छाया बनकर,

साथ चली,

 पर क्या,

राम की,

हो पाई,

नारी पीड़ा,

हुई अपह्रत,

अशोक वाटिका,

केवल राम,

रावण वध,

सोच रही,

लेने आओगे,

नहीं आए,

संदेश आया,

पैदल आओ,

अग्नि परीक्षा,

देनी होगी,

नारी ही,

देती आई,

अग्नि परीक्षा,

पुरुष तो,

अहंकार में,

लिप्त है,

सह गई,

लोकाचार में,

अयोध्या में,

फिर परीक्षा,

फिर वनवास,

पुत्र जन्म,

बिन परीक्षा,

नहीं स्वीकार,

थक गई राम,

तुम्हें पाते पाते,

तुम मर्यादा पुरुषोत्तम,

की परिधि से,

बाहर नहीं निकले,

मै थक गई,

देवी बनते बनते,

तुमने मुझे जीता,

पाया नहीं राम,

मै लेती हूं राम,

पृथ्वी में विश्राम… 

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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