हिंदी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – रावण दहन ☆ श्री सदानंद आंबेकर ☆

श्री सदानंद आंबेकर

(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। भारतीय स्टेट बैंक से स्व-सेवानिवृत्ति के पश्चात गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार   के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर योगदान के लिए आपका समर्पण स्तुत्य है। आज प्रस्तुत है श्री सदानंद जी  की पितृ दिवस की समाप्ति एवं नवरात्र के प्रारम्भ में समसामयिक विषय पर आधारित एक विशेष कथा “रावण दहन”। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन।

☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – रावण दहन ☆ श्री सदानंद आंबेकर ☆ 

दशहरे के दूसरे दिन सुबह,  चाय की चुस्कियों के साथ रामनाथ जी ने अखबार खोल कर पढना आरंभ किया। दूसरे ही पृष्ठ  पर एक महानगर  में कुछ व्यक्तियों के द्वारा एक अवयस्क लडकी के  सामूहिक शीलहरण का समाचार बडे़ से शीर्षक  के साथ दिखाई दिया। पूरा पढ़ने के बाद उनका मन जाने कैसा हो आया। दृष्टि  हटाकर आगे के पृष्ठ  पलटे तो एक  पृष्ठ पर समाचार छपा दिखा – नन्हीं नातिन के साथ नाना ने अपने धर्म की शिक्षा देने के बहाने शारीरिक हमला किया, गुस्से के मारे वह पृष्ठ बदला ही था कि चौथे पन्ने पर बाॅक्स में समाचार छपा था – एक बडे नेता को लडकियों की तस्करी के आरोप में पुलिस ने दबोचा। वाह रे भारतवर्ष !! कहते हुये वे अगले पृष्ठ को पढ रहे थे कि रंगीन फोटो सहित समाचार सामने पड़ गया – मुंबई पुलिस ने छापा मार कर फिल्म जगत की बडी हस्तियों को गहरे नशे  की हालत में अशालीन अवस्था में गिरफ्तार किया- हे राम, हे राम कहकर आगे नजर दौडाई कि स्थानीय जिले का समाचार दिखाई दिया, नगर में एक बूढे दंपति को पैसों के लिये नौकर ने मार दिया और नगदी लेकर भाग गया। यह पढकर वे कुछ देर डरे रहे फिर लंबी सांस भर कर अखबार में नजर गड़ा दी। सातवें पृष्ठ का समाचार पढ़ कर उन्हें अपने युवा पोते का स्मरण हो आया, लिखा था- राजधानी में चंद पैसों और मौज-मस्ती के लिये युवा छात्र चेन झपटने, और मोटरसायकिल चोरी के आरोप में पुलिस द्वारा पकड़े गये। इन युवाओं के आतंक की गतिविधियों में जुडे़ होने का संदेह भी व्यक्त किया गया था।

अंतिम पृष्ठ पर दशहरे पर अनेक स्थानों पर रावण दहन की बड़ी बड़ी तस्वीरें छपी थीं जिन्हें देखकर रामनाथ जी सोचने लगे कि- कल हमने किसे जलाया था ????

©  सदानंद आंबेकर

भोपाल, मध्यप्रदेश 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #121 – बाल कथा – “जबान की आत्मकथा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक ज्ञानवर्धक बाल कथा – “जबान की आत्मकथा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 121 ☆

☆ बाल कथा – जबान की आत्मकथा ☆ 

“आप मुझे जानते हो?” जबान ने कहा तो बेक्टो ने ‘नहीं’ में सिर हिला दिया. तब जबान ने कहा कि मैं एक मांसपेशी हूं.

बेक्टो चकित हुआ. बोला, ” तुम एक मांसपेशी हो. मैं तो तुम्हें जबान समझ बैठा था.” 

इस पर जबान ने कहा, ” यह नाम तो आप लोगों का दिया हुआ है. मैं तो आप के शरीर की 600 मांसपेशियों में से एक मांसपेशी हूं. यह बात और है कि मैं सब से मजबूत मांसपेशी हूं. जैसा आप जानते हो कि मैं एक सिरे पर जुड़ी होती हूं. बाकी सिरे स्वतंत्र रहते हैं.”

जबान में बताना जारी रखो- मैं कई काम करती हूं. बोलना मेरा मुख्य काम है. मेरे बिना आप बोल नहीं सकते हो. अच्छा बोलती हूं. सब को मीठा लगता है. बुरा बोलती हूं. सब को बुरा लगता है. इस वजह से लोग प्रसन्न होते हैं. कुछ लोग बुरा सुन कर नाराज हो जाते हैं.

मैं खाना खाने का मुख्य काम करती हूं. खाना दांत चबाते हैं. मगर उन्हें इधरउधर हिलानेडूलाने का काम मैं ही करती हूं. यदि मैं नहीं रहूं तो तुम ठीक से खाना चबा नहीं पाओ. मैं इधरउधर खाना हिला कर उसे पीसने में मदद करती हूं.

मेरी वजह से खाना स्वादिष्ट लगता है. मेरे अंदर कई स्वाद ग्रथियां होती है. ये खाने से स्वाद ग्रहण करती है. उन्हें मस्तिष्क तक पहुंचाती है. इस से ही आप को पता चलता है की खाने का स्वाद कैसा होता है?

जब शरीर में पानी की कमी होती है तो मेरे द्वारा आप को पता चलता है. आप को प्यास लग रही है. कई डॉक्टर मुझे देख कर कई बीमारियों का पता लगाते हैं. इसलिए जब आप बीमार होते हो तो डॉक्टर मुंह खोलने को कहते हैं. ताकि मुझे देख सकें.

मैं दांतों की साफसफाई भी करती हूं. दांत में कुछ खाना फंस जाता है तब मुझे सब से पहले मालूम पड़ता है. मैं अपने खुरदुरेपन से दांत को रगड़ती रहती हूं. इस से दांत की गंदगी साफ होती रहती है. मुंह में दांतों के बीच फंसा खाना मेरी वजह से बाहर आता है.

मेरे नीचे एक लार ग्रंथि होती है. इस से लार निकलती रहती है. यह लार खाने को लसलसा यानी पानीदार बनाने का काम करती है. इसी की वजह से दांत को खाना पीसने में मदद मिलती है. मुंह में पानी आना- यह मुहावरा इसी वजह से बना है. जब अच्छी चीज देखते हो मेरे मुंह में पानी आ जाता है.

कहते हैं जबान लपलपा रही है. या जबान चटोरी हो गई. जब अच्छी चीजें देखते हैं तो जबान होंठ पर फिरने लगती है. इसे ही जबान चटोरी होना कहते हैं. इसी से पता चलता है कि आप कुछ खाने की इच्छा रखते हैं.

यदि जबान न हो तो इनसान के स्वाभाव का पता नहीं चलता है. वह किस स्वभाव का है? इसलिए कहते हैं कि बोलने से ही इनसान की पहचान होती है. यदि वह मीठा बोलता है तो अच्छा व्यक्ति है. यदि कड़वा या बेकार बोलता है तो खराब व्यक्ति है. 

यह सब कार्य मस्तिष्क करवाता है. मगर, बदनाम मैं होती हूं. मन कुछ सोचता है. उसी के अनुसार मैं बोल देती हूं. इस कारण मैं बदनाम होती हूं. मेरा इस में कोई दोष नहीं होता है. 

जबान इतना बोल रही थी कि तभी बेक्टो जाग गया. जबान का बोलना बंद हो गया. 

‘ओह! यह सपना था.’ बेक्टो ने सोचा और आंख मल कर उठ बैठा. उसे पढ़ कर स्कूल जाना था. मगर उस ने आज बहुत अच्छा सपना देखा था. वह जबान से अपनी आत्मकथा सुन रहा था. इसलिए वह बहुत प्रसन्न था.

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

28/03/2019

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – ईडेन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ नवरात्र  साधना कल सम्पन्न हुई 🌻

 

देह में विराजता है परमात्मा का पावन अंश। देहधारी पर निर्भर करता है कि वह परमात्मा के इस अंश का सद्कर्मों से विस्तार करे या दुष्कृत्यों से मलीन करे।

परमात्मा से परमात्मा की यात्रा का प्रतीक हैं श्रीराम। परमात्मा से पापात्मा की यात्रा का प्रतीक है रावण।

आज के दिन श्रीराम ने रावण पर विजय पाई थी। माँ दुर्गा ने महिषासुर का मर्दन किया था।भीतर की दुष्प्रवृत्तियों के मर्दन और सद्प्रवृत्तियों के विजयी गर्जन के लिए मनाएँ विजयादशमी।

त्योहारों में पारंपरिकता, सादगी और पर्यावरणस्नेही भाव का आविर्भाव रहे। अगली पीढ़ी को त्योहार का महत्व बताएँ, त्योहार सपरिवार मनाएँ।

🙏 विजयादशमी की हृदय से बधाई🍁

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – ईडेन ??

….उस रास्ते मत जाना, आदम को निर्देश मिला। आदम उस रास्ते गया। एक नया रास्ता खुला।

….पानी में खुद को कभी मत निहारना। हव्वा ने निहारा खुद को। खुद के होने का अहसास जगा।

….खूंखार जानवरों का इलाका है। वहाँ कभी मत जाना।….आदम इलाके में घुसा, जानवरों से उलझा। उसे अपना बाहुबल समझ में आया।

….आग से हमेशा दूर रहना, हव्वा को बताया गया। हव्वा ने आग को छूकर देखा। तपिश का अहसास हाथ और मन पर उभर आया।

….उस पेड़ का फल मत खाना। आदम और हव्वा ने फल खाया। सृष्टि का जन्म हुआ, ईडेन धरती पर उतर आया।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 157 ☆ “गांधी का भूगोल” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी – “गांधी का भूगोल”)  

☆ कथा कहानी # 157 ☆ “गांधी का भूगोल” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हूबहू एकदम गांधी की शक्ल, गांधी जैसा माथा, गांधी जैसी चाल, चश्मा तो बिल्कुल गांधी जैसा ओरिजनल, गांधी जैसी नाक, चलता ऐसे जैसे साक्षात गांधी चल रहे हों,उसका उठने बैठने के तरीके में मुझे गांधी जी दिख जाते। वह अक्सर गांधी जैसी लाठी लिए मेरे आफिस के सामने से गुजरता, गांव भर के गाय बैल भैंस लेकर जंगल की ओर चराने रोज ले जाता। जब वह लाठी टेकते यहां से निकलता तो स्कूल जाते गांव के बच्चे उसे देखकर गांधी.. गांधी.. कहकर चिढ़ाते और वह भी खूब चिढ़ता, बच्चों को पत्थर मारने दौड़ता, गाली बकते हुए उन्हें डराने की कोशिश करता, गांव की नई उमर की बहू बेटियां लोटा लेकर खेतों तरफ जाते हुए उसकी इस हरकत से हंसती, मुझे भी यह सब दृश्य देखकर मजा आता। 

दूर दराज के गांव में गांधी जैसा हमशक्ल,या अमिताभ बच्चन जैसा हमशक्ल चलता फिरता दिख जाए तो बाहरी आदमी का  रोमांचित हो जाना स्वाभाविक है जिसने फिल्म में गांधी को देखा हो,या गांधी की जीवनी पढ़ी हो।

मेरे लिए यह गांव नया था,दो तीन महीने पहले शहर से इस गांव में ट्रांसफर हुआ था,रुरल असाइनमेंट करने के लिए। बियाबान जंगल के बीच मुख्य सड़क से दूर छोटा सा गांव था, और ऐसे गांव में गांधी जैसे हमशक्ल के दर्शन हो जाएं तो मेरे लिए अजूबा तो था। वह सुबह सुबह जानवरों को लाठी से हांकता रोज दिख जाता जब हम आफिस खोलकर बाहर बैठते।बच्चे गांधी.. गांधी.. चिल्लाने लगते, वह भरपूर चिढ़ता, मारने को पत्थर उठाता,गाली बकते हुए आगे बढ़ जाता। बच्चों के साथ मुझे भी मजा आता, असली गांधी याद आ जाते। वैसे मैंने भी ओरिजनल गांधी को जिन्दा या चलते फिरते नहीं देखा, कैसे देखता जब गांधी को गोली मारी गई थी उसके बीस साल बाद हम धरती पर आये थे।पर बचपन से दिल दिमाग में गांधी जी छाये रहते, जहां भी उनके बारे में कुछ पढ़ने मिलता बड़े चाव से पढ़ते और दूसरों को भी बताते।

एक दिन बड़ा अजीब हुआ,जब वह आफिस के सामने से गुजर रहा था बच्चे दौड़ दौड़ कर गांधी.. गांधी…चिल्लाने लगे,वह भरपूर चिढ़ रहा था,गाली बक रहा था, मैं बहुत ज्यादा रोमांचित हो उठा और मैं भी बच्चों के साथ गांधी.. गांधी.. चिल्लाने लगा।

अचानक वह आश्चर्य के साथ रुक गया, मुड़कर मेरी तरफ उसने ऊपर से नीचे तक कई बार देखा फिर हताशा और निराशा के साथ मेरे पास आकर बोला – बाबू आप तो पढ़े लिखे और समझदार इंसान हैं मैं अपढ़,गंवार,मूर्ख और गरीब हूं। पिछले कुछ सालों से गांव भर के बच्चे जबरन गांदी…गंधी… गंदी कह कहकर मुझे चिढ़ाते हैं,मेरा जीना हराम किए रहते हैं अपमान के घूंट पी पी कर मैं चुप रहता हूं,ऐसा मुझमें क्या गंदा है जो ये लोग गांदी..गंधी… गन्दी कहकर मुझे चिढ़ाते रहते हैं और आज आप भी बड़े मजे लेकर मुझे चिढ़ाने की शुरुआत कर रहे हैं।

मेरे अंदर करुणा की नदी फूट गई थी, मैं समझ गया कि ये आदमी गांधी से परिचित नहीं हैं, कैसे होता, पढ़ा लिखा कुछ था नहीं, बचपन से गांव के जानवरों को लेकर जंगल चला जाता रहा और रात को थका हारा झोपड़ी में सो जाता रहा होगा। मैंने उससे माफी मांगते हुए बताया कि बच्चे उसे जो गांधी गांधी कहकर चिल्लाते हैं उसका कारण जानते हो ?

वह लपककर बोला -बाबू जी ये गांधी क्या बला है? मैंने उसे बताया कि गांधी का मतलब होता है वह महान व्यक्तित्व जिसने देश को आजादी दिलाई थी, गांधी का मतलब होता है ईमानदारी, निष्ठा, लगन….

गांधी का मतलब होता है त्याग, बलिदान, देशभक्ति…..

अचानक मैंने देखा वह मूर्ति की तरह अकड़ गया था, उसे छूकर देखा वो बर्फ की तरह ठंडा पड़ गया था, और जब तक मैं उसे संभालता वह गिर कर मर चुका था…..। फिर थोड़ी देर मेरे अन्दर पछतावे का लावा बहता रहा, मुझे लगा कि उसे गांधी का असली मतलब नहीं बताना चाहिए था।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 109 – एक अच्छा मनुष्य बनाइएगा ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #109 🌻 एक अच्छा मनुष्य बनाइएगा 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

मैं बिस्तर पर से उठा,अचानक छाती में दर्द होने लगा मुझे… हार्ट की तकलीफ तो नहीं है. ..? ऐसे विचारों के साथ. ..मैं आगे वाले बैठक के कमरे में गया…मैंने नज़र की…कि मेरा परिवार मोबाइल में व्यस्त था…

मैंने … पत्नी को देखकर कहा…काव्या थोड़ा छाती में रोज से आज ज़्यादा दु:ख रहा है…डाक्टर को बताकर आता हूँ . ..

हां, मगर संभलकर जाना…काम हो तो फोन करना  मोबाइल में देखते देखते ही काव्या बोली…

मैं… एक्टिवा की चाबी लेकर पार्किंग में पहुँचा … पसीना,मुझे बहुत आ रहा था…एक्टिवा स्टार्ट नहीं हो रहा था…

ऐसे वक्त्त… हमारे घर का काम करने वाला ध्रुव सायकल लेकर आया… सायकल को ताला मारते ही उसे मैंने मेरे सामने खड़ा देखा…

क्यों साब? एक्टिवा चालू नहीं हो रहा है…मैंने कहा नहीं…

आपकी तबीयत ठीक नहीं लगती साब… इतना पसीना क्यों आया है ?

साब… स्कूटर को किक इस हालत में नहीं मारते….मैं किक मारके चालू कर देता हूँ …ध्रुव ने एक ही किक मारकर एक्टिवा चालू कर दिया, साथ ही पूछा..साब अकेले जा रहे हो

मैंने कहा… हां

ऐसी हालत में अकेले नहीं जाते…चलिए मेरे पीछे बैठ जाइए…मैंने कहा तुम्हें एक्टिवा चलाना आता है? साब… गाड़ी का भी लाइसेंस है, चिंता  छोड़कर बैठ जाओ…

पास ही एक अस्पताल में हम पहुँचे, ध्रुव दौड़कर अंदर गया, और व्हील चेयर लेकर बाहर आया…

साब… अब चलना नहीं, इस कुर्सी पर बैठ जाओ..

ध्रुव के मोबाइल पर लगातार घंटियां बजती रही…मैं समझ गया था… फ्लैट में से सबके फोन आते होंगे..कि अब तक क्यों नहीं आया? ध्रुव ने आखिर थक कर किसी को कह दिया कि… आज नहीँ आ सकता….

ध्रुव डाक्टर के जैसे ही व्यवहार कर रहा था…उसे बगैर पूछे मालूम हो गया था कि, साब को हार्ट की तकलीफ हो रही है… लिफ्ट में से व्हील चेयर ICU कि तरफ लेकर गया….

डाक्टरों की टीम तो तैयार ही थी… मेरी तकलीफ सुनकर… सब टेस्ट शीघ्र ही किये… डाक्टर ने कहा, आप समय पर पहुँच गए हो….इस में भी आपने व्हील चेयर का उपयोग किया…वह आपके लिए बहुत फायदेमंद रहा…

अब… कोई भी प्रकार की राह देखना… वह आपके लिए हानिकारक होगी…इसलिए बिना देर किए हमें हार्ट का ऑपरेशन करके आपके ब्लोकेज जल्द ही दूर करने होंगे…इस फार्म पर आप के स्वजन के हस्ताक्षर की ज़रूरत है…डाक्टर ने ध्रुव को सामने देखा…

मैंने कहा, बेटे, दस्तखत करने आते है? साब इतनी बड़ी जवाबदारी मुझ पर न रखो…

बेटे… तुम्हारी कोई जवाबदारी नहीं है… तुम्हारे साथ भले ही लहू का संबंध नहीं है… फिर भी बगैर कहे तुमने तुम्हारी जवाबदारी पूरी की, वह जवाबदारी हकीकत में मेरे परिवार की थी…एक और जवाबदारी पूरी कर दो बेटा, मैं नीचे लिखकर सही करके लिख दूंगा कि मुझे कुछ भी होगा तो जवाबदारी मेरी है, ध्रुव ने सिर्फ मेरे कहने पर ही हस्ताक्षर  किये हैं, बस अब. ..

और हां, घर फोन लगा कर खबर कर दो…

बस, उसी समय मेरे सामने, मेरी पत्नी काव्या का मोबाइल ध्रुव के मोबाइल पर आया. वह शांति से काव्या को सुनने लगा…

थोड़ी देर के बाद ध्रुव बोला, मैडम, आपको पगार काटने का हो तो काटना, निकालने का हो तो निकाल दो, मगर अभी अस्पताल ऑपरेशन शुरु होने के पहले पहुँच जाओ। हां मैडम, मैं साब को अस्पताल लेकर आया हूँ। डाक्टर ने ऑपरेशन की तैयारी कर ली है, और राह देखने की कोई जरूरत नहीं है…

मैंने कहा, बेटा घर से फोन था…?

हाँ साब.

मैंने मन में सोचा, काव्या तुम किसकी पगार काटने की बात कर रही है, और किस को निकालने की बात कर रही हो? आँखों में आंसू के साथ ध्रुव के कंधे पर हाथ रख कर, मैं बोला, बेटा चिंता नहीं करते।।

मैं एक संस्था में सेवाएं देता हूं, वे बुज़ुर्ग लोगों को सहारा देते हैं, वहां तुम जैसे ही व्यक्तियों की ज़रूरत है।

तुम्हारा काम बरतन कपड़े धोने का नहीं है, तुम्हारा काम तो समाज सेवा का है… बेटा… पगार मिलेगा, इसलिए चिंता ना करना।

ऑपरेशन बाद, मैं होश में आया… मेरे सामने मेरा पूरा परिवार नतमस्तक खड़ा था, मैं आँखों में आंसू के साथ बोला, ध्रुव कहाँ है?

काव्या बोली-: वो अभी ही छुट्टी लेकर गांव गया, कहता था, उसके पिताजी हार्ट अटैक में गुज़र गऐ है… 15 दिन के बाद फिर से आयेगा।

अब मुझे समझ में आया कि उसको मेरे में उसका बाप दिखता होगा…

हे प्रभु, मुझे बचाकर आपने उसके बाप को उठा लिया!

पूरा परिवार हाथ जोड़कर, मूक नतमस्तक माफी मांग रहा था…

एक मोबाइल की लत (व्यसन)…अपने व्यक्ति को अपने दिल से कितना दूर लेकर जाता है… वह परिवार देख रहा था….यही नहीं मोबाइल आज घर घर कलह का कारण भी बन गया है

डाक्टर ने आकर कहा, सब से पहले यह बताइए ध्रुव भाई आप के क्या लगते?

मैंने कहा डाक्टर साहब, कुछ संबंधों के नाम या गहराई तक न जाएं तो ही बेहतर होगा उससे संबंध की गरिमा बनी रहेगी।

बस मैं इतना ही कहूंगा कि, वो आपात स्थिति में मेरे लिए फरिश्ता बन कर आया था!

पिन्टू बोला :- हमको माफ करो पप्पा… जो फर्ज़ हमारा था, वह ध्रुव ने पूरा किया, वह हमारे लिए शर्मजनक है, अब से ऐसी भूल भविष्य में कभी भी नहीं होगी. ..

बेटा, जवाबदारी और नसीहत (सलाह) लोगों को देने के लिए ही होती है…

जब लेने की घड़ी आये, तब लोग ऊपर नीचे (या बग़ल झाकते है) हो जातें है।

अब रही मोबाइल की बात…

बेटे, एक निर्जीव खिलोने ने, जीवित खिलोने को गुलाम कर दिया है, समय आ गया है, कि उसका मर्यादित उपयोग करना है।

नहीं तो…. परिवार, समाज और राष्ट्र को उसके गंभीर परिणाम भुगतने पडेंगे और उसकी कीमत चुकाने को तैयार रहना पड़ेगा।

बेटे और बेटियों को बड़ा अधिकारी या व्यापारी बंनाने की जगह एक अच्छा मनुष्य बनाइएगा।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – कथा कहानी ☆ पितृपक्ष ☆ श्री सदानंद आंबेकर ☆

श्री सदानंद आंबेकर

(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। भारतीय स्टेट बैंक से स्व-सेवानिवृत्ति के पश्चात गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार  के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर योगदान के लिए आपका समर्पण स्तुत्य है। आज प्रस्तुत है श्री सदानंद जी  की पितृ दिवस की समाप्ति एवं नवरात्र के प्रारम्भ में समसामयिक विषय पर आधारित एक विशेष कथा “पितृपक्ष”। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन।

☆ कथा कहानी ☆पितृपक्ष ☆ श्री सदानंद आंबेकर ☆ 

इस धरा धाम पर पिछले ही सप्ताह, वर्ष में एक बार आने वाला पितृपक्ष नाम का कालखंड समाप्त हुआ है। इसके उपरांत अब नवरात्रि का पावन पर्व चल रहा है।

इसी पृथ्वी पर भारतवर्ष नामक एक देश के एक नगर के बाग में कुछ पशु एकत्र हुये थे। श्यामबरन कौए ने तेजू श्वान की ओर देखकर कहा पिछले पखवाड़े तो हमारी मौज रही। यूं वर्ष भर लोग हमें अशुभ समझ दुरदुराते रहते हैं पर उन दिनों खोज-खोज कर बुलाते और खूब खाना खिला रहे थे। श्वान ने आलस से उनींदी अपनी आंखें आधी खोलकर बात के समर्थन में हूं जैसा कुछ स्वर निकाला। पास ही शहर से चरने आई श्यामा गाय ने भी पेट को पूंछ से सहलाते हुये कहा- पूरे बरस भर तो कूडा करकट और सड़ा हुआ, बासी खाना मिलता है पर पिछले पंद्रह दिनों में तो पूडी खीर, हलुआ और न जाने क्या क्या खाकर अघा गये। पेट भरा होता तो भी मनुष्य पुचकार कर मुंह के आगे खाना रख देता था। नीचे जमीन पर चींटियों का झुंड जा रहा था, उनमें से कुछ ने पूरा जोर लगाकर अपनी आवाज को यथासंभव तेज बना कर खूब खाना मिलने की बात का समर्थन किया साथ ही यह बताना नहीं भूली कि आगे ठंड के मौसम तक के लिये खूब सामान बिलों में एकत्र कर रख लिया है।

”सबने एक स्वर में कहा पितृपक्ष बड़ा अच्छा होता है।”

नगर के राधाकृष्ण देवालय में आस-पास के सभी पंडित बैठकर बतिया रहे हैं। पंडित रामसहाय चौबे  जी ने अपनी चोटी को गांठ लगाते हुये कहा- कुछ भी कहें, इस पितृपक्ष में सबकी खूब कमाई भई। नगद रुपया, बरतन, छाता, चप्पलें, धोती, चादरें तो खूब आईं , भोजन परसाद भी पंदरह दिन खूब मिला। पंडताइन भी खूब आराम में रही। साल भर अब कुछ सामान खरीदने की आवश्यकता नहीं।

”सबने एक स्वर में कहा पितृपक्ष बड़ा अच्छा होता है।”

मंदिर के सामने के बाजार में नवरात्रि पर खूब भीड चल रही थी, उसमें कुछ दुकानदार पिछले दिनों हुई फूल, अगरबत्ती, परसाद, आदि की बिक्री से खुश होकर आपस में कह रहे थे कि पखवाडे़ भर के धंधे के बाद अब नवरात्रि में भी खूब गाहकी चल रही है।

”सबने एक स्वर में कहा पितृपक्ष बड़ा अच्छा होता है।”

इन सबसे अनंत अंतर पर दूर स्वर्ग में बैठे हुये भारत देश के दिवंगत पितर आराम से बैठ कर विगत पितृपक्ष को स्मरण कर खुश हो रहे थे। 

समय पर इलाज न मिलने से मृत हुये बाल मंदिर के शिक्षक होरीलाल जी ने कहा- वाह, इस बार मेरी तिथि पर मेरे डाॅक्टर बेटे ने मेरी स्मृति में निःशुल्क चिकित्सा जांच शिविर लगाया था।

जीवन भर अंधेरी टुटही सी कोठरी में रहे श्री दीनानाथ जी ने चहक कर बताया कि इस पितृ सप्तमी को उनके पुत्र ने अपनी नई सुविधायुक्त विलासगृह परियोजना का आरंभ किया और उस कालोनी का नाम अपनी माता के नाम पर रखा है। वाह मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है।

अपनी सेवानिवृत्ति के उपरांत अंतिम श्वास तक वृद्धाश्रम में रहे भूतपूर्व सरकारी अधिकारी रविराज जी ने बडे़ संतोष से सबको सूचना दी कि मैंने यहां से देखा कि इस बार मेरी श्राद्ध तिथि पर मेरे बेटे ने विदेश से आकर हमारे नगर के अनाथ आश्रम को ढेर सा धन दान में दिया है। भगवान उसे खूब खुश रखें।

इस सभा में सबसे अंत में विराजे दुबले पतले वृद्ध ने बड़े संतोष से अपनी बात चलाई कि मेरी द्वादशी की तिथि है और उस दिन मेरे दोनों पुत्रों ने बारह बामनों को बुला कर अनेक पकवान बना कर भोजन करा कर संतुष्ट किया। उनमें मैेने कई पकवान तो जीवन भर देखे तक नहीं थे। वाह वाह कितने उदार हैं मेरे बेटे।

”सबने एक स्वर में कहा पितृपक्ष बड़ा अच्छा होता है।”

ऊपर आकाश में बैठा ईश्वर यह सब देख सुनकर बस मुस्कुरा रहा था।

©  सदानंद आंबेकर

भोपाल, मध्यप्रदेश 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #120 – बाल कथा – “सूरज की कहानी” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक ज्ञानवर्धक बाल कथा – “सूरज की कहानी ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 120 ☆

☆ बाल कथा – सूरज की कहानी ☆ 

सूरज उस के पास आ रहा था. राहुल ने सपना देखा.

“मैं बहुत थक चुका हूं. क्या तुम्हारे पास बैठ कर बतिया सकता हूं?” उस ने पूछा.

“हां क्यों नहीं सूरजदादा,” कह कर राहुल ने पूछा, “मगर आप आए कितनी दूर से हैं ?”

सूरज ने राहुल के पास बैठते हुए बताया, “मैं इस धरती 9 करोड़ 30 लाख मील दूर से आया हूं,” यह कह कर उस ने पूछा, “क्या तुम्हें मेरा आना अच्छा नहीं लगा?” 

“नहीं नहीं, ऐसी बात नहीं है. सरदी में आप अच्छे लगते हो, मगर गरमी में बुरे. ऐसा क्यों?”

“क्योंकि मैं सरदी में कर्क रेखा से हो कर गुजरता हूं. इसलिए मैं कम समय तक चमकता हूं. तिरछा होने से मेरा प्रकाश धरती पर कम समय तक के लिए पड़ता है. इस कारण ठंड में तुम्हें मेरी गरमी चुभती नहीं है.”

“मतलब, आप गरमी में धरती के पास आ जाते हैं?” 

“नहीं, मैं सदा एक ही दूरी पर रहता हूं. मगर गरमी में मेरे मकर रेखा पर आने से मेरा प्रकाश सीधा पड़ता है. मैं ज्यादा समय तक धरती के जिस भाग पर चमकता हूं, वहां का मौसम बदल जाता है, यानी गरमी आ जाती है?” 

“यानी कि आप आकाश के अकेले ही राजा हैं?”

तब सूरज बोला, “नहीं राहुल, आकाश में मेरे जैसे अरबों खरबों सूरज हैं. इन के अतिरिक्त 1,000 करोड़ से अधिक सूरज लुकेछिपे भी हैं.” 

“लेकिन सूरजदादा, वे हमें दिखाई क्यों नहीं देते?”

“क्योंकि वे धरती से करोड़ों अरबों किलोमीटर दूर होते हैं, ” सूरज ने आकाश की ओर इशारा करते हुए बताया, “वे जो तारे देख रहे हो न, वे सब बड़ेबड़े सूरज ही हैं.” 

“अच्छा.”

“हां, मगर जानते हो, हम में प्रकाश कहां से आता है?” सूरज ने प्रश्न किया.

“नहीं तो?” राहुल ने गरदन हिला कर कहा तो सूरज बोला, “हम में 85 प्रतिशत हाइड्रोजन गैस होती है. यह गैस अत्यंत ज्वलनशील होती है. यह निरंतर जलती रहती है. इस कारण हम प्रकाशमान प्रतीत होते हैं.”

“मतलब यह है कि जब यह हाइड्रोजन गैस समाप्त हो जाएगी, तब आप खत्म हो जाएंगे?”

“हां” मगर यह गैस 50 करोड़ वर्ष तक जलती रहेगी, क्योंकि हमारी आयु 50 करोड़ वर्ष मानी गई है.”  

“अच्छा, पर यह बताइए कि आप कितनी हाइड्रोजन जलाते हो?” राहुल ने पूछा.

“मैं प्रति सेकंड 60 करोड़ टन हाइड्रोजन गैस जलाता हूं.” सूरज ने यह कहते हुए पूछा. “क्या तुम्हें मालूम है, मेरा आकार कितना बड़ा है.”

“नहीं, आप ही बताइए न.”

“मुझ में 10 लाख पृथ्वियां समा सकती हैं. मैं इतना बड़ा हूं.”

“मगर, आप काम क्या करते हैं?”

“अरे राहुल, तुम्हें इतना भी नहीं मालूम. मेरी उपस्थिति में ही पेड़पौधे भोजन बनाते हैं. जिस की क्रिया के फलस्वरूप आक्सीजन बनती है, जिस से आप लोग सांस के जरिए ग्रहण कर जिंदा रहते हैं. यदि मैं ठंडा हो जाऊं तो धरती बर्फ में बदल जाए. पेड़पौधे, जीवजंतु सब नष्ट हो जाएं. “यानी आप बहुत उपयोगी हो?”

“हां,” सूरज ने कहा. फिर उठ कर चलते हुए बोला, “अच्छा बेटा, मैं चलता हूं. सुबह के 6 बजने वाले हैं.”

तब तक राहुल की नींद खुल चुकी थी. वह बहुत खुश था, क्योंकि उस ने सपने में बहुत अच्छी जानकारी प्राप्त की थी.

उस ने अपने सपने के बारे में अपने मातापिता को बताया तो वे बोले, “चलो, तुम्हें कुछ नई जानकारी तो मिली.”

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ लघुकथा – नदी के तट – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत है। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम लघुकथा “नदी के तट”।)

~ मॉरिशस से ~

☆  कथा कहानी ☆ लघुकथा – नदी के तट – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

लड़का नदी के इस पार और लड़की उस पार रहती थी। लड़का यहीं पल कर बड़ा हुआ था। लड़की अभी हाल में यहाँ आयी थी। नदी सदाबहार थी। उस में पानी कभी कम न होता था। पानी की महिमा ऐसी कि वह पारदर्शी और शांत स्वभाव का परिचायक था। धारा न ज्यादा चंचल न ज्यादा गंभीर। लड़के को इस नदी से बहुत प्यार था। लड़की जब से आयी लड़के में एक अजीब सी स्फूर्ति आने लगी थी। उसे लगता था लड़की तो उसी के लिए यहाँ रहने आयी है। लड़की बस अपने पाँव धोने नदी आती थी। लड़के ने भी अपने पाँव धोने की आदत बना ली। लड़की इसके बाद स्कूल चली जाती थी। लड़के को भी स्कूल जाना होता था तो वह चला जाता था।

हवा में विचरने वाले कवि की नजर उन पर पड़ी तो उसने अपना निर्णय अटल मान लिया उसे दोनों पर प्रेम कविता तो लिखनी ही है। कवि वहीं ठहर गया। वह मौके की तलाश में था। कभी तो दोनों प्रकृति प्रदत्त नदी के तट पर प्रेम करते।

अजीब ही था बरसों एक इस पार से और एक उस पार से नदी में पाँव धोने आते रहे, लेकिन उनके बीच कभी बातें होती नहीं थीं। नदी ज्यादा चौड़ी भी तो नहीं थी कि बात करें तो एक दूसरे को सुनाई न दे।

बाद में लड़की की कहीं और शादी हो गयी। लड़के ने शादी नहीं की। प्रेम की दुनिया में इस तरह विछोह आ जाने से कवि को प्रेम कविता के लिए आधार तो मिला ही नहीं। अब कवि को इसकी उम्मीद रहती भी नहीं। हवा का अंग होने से हवा में सवार हो कर कवि कहीं और के लिए चल दिया।

© श्री रामदेव धुरंधर

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – या क्रियावान ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना (नवरात्र साधना)

इस साधना के लिए मंत्र इस प्रकार होगा-

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

देवीमंत्र की कम से कम एक माला हर साधक करे।

अपेक्षित है कि नवरात्रि साधना में साधक हर प्रकार के व्यसन से दूर रहे, शाकाहार एवं ब्रह्मचर्य का पालन करे।

मंगल भव। 💥

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – या क्रियावान ??

बंजर भूमि में उत्पादकता विकसित करने पर सेमिनार हुए, चर्चायें हुईं। जिस भूमि पर खेती की जानी थी, तंबू लगाकर वहाँ कैम्प फायर और ‘अ नाइट इन द टैंट’ का लुत्फ लिया गया। बड़ी राशि खर्च कर विशेषज्ञों से रिपोर्ट बनवायी गई। उसकी समीक्षा और नये साधन जुटाने के लिए समिति बनी। फिर उपसमितियों का दौर चलता रहा।

उधर केंचुओं का समूह, उसी भूमि के गर्भ में उतरकर एक हिस्से को उपजाऊ करने के प्रयासों में दिन-रात जुटा रहा। उस हिस्से पर आज लहलहाती फसल खड़ी है।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 50 – Representing People – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  कथा श्रंखला  “Representing People …“ की अगली कड़ी ।)   

☆ कथा कहानी  # 50 – Representing People – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

सिर्फ शीर्षक इंग्लिश में है पर श्रंखला हिन्दी में ही रहेगी.

समूहों का प्रतिनिधित्व करना याने पहले उनका विश्वास अर्जित करना ही होता है. उनकी भावनाओं और समस्याओं को समझना भी पड़ता है. समस्या का समाधान भले ही देर से हो या न हो पर भावनाओं के प्रति संवेदनशील होना वांछित होता है. प्रजातांत्रिक प्रणाली में प्रतिनिधि चुने तो जाते हैं पर चुने जाने के बाद निश्चिंतता, परत दर परत विश्वास को क्षीण भी करती जाती है. अलगाव, संवादहीनता, संपर्कहीनता,और असंवेदनशीलता वे शब्द और प्रवृत्तियां हैं जो विश्वास को अविश्वास में परिणित करते हैं.

गांधीजी और जयप्रकाश नारायण अपने स्वराज्य प्राप्ति और इमरजेंसी हटने और जनता की सरकार के लक्ष्य की प्राप्ति के बाद पटल से दूर हुये तो आंदोलनों से सृजित जनजन का उत्साह, समर्पण और त्याग की भावनाओं का जो ज्वार था, वो धीरे धीरे शांत होता गया. ये हर जनप्रतिनिधि की सबसे बड़ी क्षति होती है.

इस देश से भ्रष्टाचार हटे, चाहते सभी थे पर हट जायेगा ये उम्मीद शायद किसी को नहीं थी. भ्रष्टाचारी दंडित हों ताकि इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगे,इसके लिये लोकपाल की अवधारणा लेकर अन्ना हज़ारे अपने साथियों के साथ आगे आये पर आमरण अनशन करना और फिर उसे तोड़ने के लिये मनाने में ही पूरा खेला चलता रहा. जनआकांक्षाओं को आकार देता आंदोलन, जनआंदोलन तो बना पर हासिल कुछ कर नहीं पाया. भ्रष्टाचार पर अंकुश न लगना था न लगा और ये उस जनप्रतिनिधित्व की असफलता थी जिसने भावनाओं को उभारा और फिर साथियों सहित पटल से गायब हो गये.

जनआकांक्षाओं को लेकर किये गये आंदोलनों से जब जनप्रतिनिधि या नेतृत्व ओझल हो जाते हैं तो एक शून्य सा बन जाता है. इन जागृत भावनाओं को encash करने के लिये जो दोयम दर्जे के, डुप्लीकेट और स्वार्थी नेता, गद्दी पर विराजते हैं, इनकी पहचान लच्छेदार भाषा, चापलूसों का घेरा, विलासितापूर्ण जीवनशैली, घमंड और असभ्रांत भाषा शैली होती है. ये लोगों के दिलों में उम्मीद जगाते हैं और फिर बाद में डर प्रत्यारोपित करते हैं. अपनी जनप्रतिनिधित्व की अयोग्यताओं को दौंदने की कला से छुपाने की योग्यता से छुपाने में सिद्ध हस्त होते हैं. फरियादी की न केवल फरियाद गलत बल्कि वो भी गलत है, नेताजी का अपमान करने के लिये आया है, ये उनके आसपास इकट्ठे चापलूस बड़ी दबंगई से समझा देते हैं. अयोग्यता का एहसास, स्थायी रुप से आंतरिक भय में परिणित हो जाता है और वन टू वन संवाद की जगह दरबार और दरबारी प्रणाली का आश्रय लिया जाता है. लोकतंत्र और प्रजातंत्र की जगह दरबार तंत्र विकसित होता है. धीरे धीरे इस दरबार तंत्र के मायाजाल में ,समूह के ये नकली नुमाइंदे भ्रमित होकर उलझ जाते हैं और जब इनका दौर निकल जाता है तो इनके हिस्से में उपेक्षा, अपमान, उलाहने और धृष्टता ही आती है.जो इन्होंने बोया है, वही काटते हैं. भय तो पहले से ही होता है, इसके अतिरिक्त शंका, कुशंका, जनसमूह से संवादहीनता, तथाकथित धर्मगुरुओं की शरण स्थायी प्रतिफल है जो इनके साथी बनते हैं.

ये शायद अंत नहीं है.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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