हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा- फीनिक्स ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लघुकथा- फीनिक्स  ??

भीषण अग्निकांड में सब कुछ जलकर खाक हो गया। अच्छी बात यह रही कि जान की हानि नहीं हुई पर इमारत में रहने वाला हरेक फूट-फूटकर बिलख रहा था। किसी ने राख हाथ में लेकर कहा, ‘सब कुछ खत्म हो गया!’ किसी ने राख उछालकर कहा, ‘उद्ध्वस्त, उद्ध्वस्त!’ किसी को राख के गुबार के आगे कुछ नहीं सूझ रहा था। कोई शून्य में घूर रहा था। कोई अर्द्धमूर्च्छा में था तो कोई पूरी तरह बेहोश था।

एक लड़के ने ठंडी पड़ चुकी राख के ढेर पर अपनी अंगुली से उड़ते फीनिक्स का चित्र बनाया। समय साक्षी है कि आगे चलकर उस लड़के ने इसी जगह पर एक आलीशान इमारत बनवाई।

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! – भाग – 7 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 7 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आज से आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

नायाग्रा 

मंगलवार का दिन था। नायाग्रा शहर के एक आलीशान होटल में जामाता ने पहले से ही तीन दिन के लिए बुक करवा लिया था। अंग्रेजी में लिखते समय तो नियागारा लिखते हैं। शहर का नाम भी नायाग्रा, और उस अनोखे जलप्रपात का नाम भी नायाग्रा। 

नाश्ता करके हम चारों सुबह ही निकल पड़े। रुपाई वहाँ तक जाने आने के लिए कल शाम को ही एक चमाचम फक् सफेद गाड़ी किराये पर ले आया था। क्या नाम है? चार्जर डज् !

हम टोरॉन्टो की ओर चल पड़े। चौड़ी सड़क और उसकी बगल की हरियाली की प्रशंसा कितनी करें? वैसे तो कॉमनवेल्थ नेशन होने के बावजूद कनाडा में दायें से चलने का ही ट्राफिक रूल है। तो जाहिर है ड्राइवर सीट बांयी तरफ होती है। हमारे देश में उल्टा – राइट हैंड ड्राइविंग। यानी कीप लेफ्ट। खैर एक चीज मैं ने देखी – यहाँ हाईवे पर कोई चौराहा नहीं है। बस सीधी सड़क नाक बराबर। अगर कहीं बायें की किसी जगह वापस जाना है, तो पहले दाहिने के मोड़ से आगे जाओ, फिर ब्रिज पार करके इधर आओ।

एक जगह सड़क किनारे ऑनरूट पर गाड़ी थमते ही ……..

‘वो रहीं तीन बुढ़िया। मोटर साईकिल से उतर कर क्या खूब आ रही हैं।’ हम दंग रह गये। वे कॉफी और स्नैक्स वगैरह लेकर और अपनी अपनी बाइक पर सवार हो गयीं। मन में हमारे देश के उम्रदराज मर्द और औरतों के चेहरे उभर आये। बार बार यही सवाल सामने आ खड़ा हो जाता है – हमारे यहाँ हर मायने में यह दुर्दशा क्यों? यहाँ तो जिन्दगी खिलखिलाती है, जबकि वहाँ तो बाल सफेद होने के पहले ही सब कहते हैं,‘अरे अब क्या रक्खा है जिंदगी में ? बस प्रभु जल्द से जल्द उठा लें, तो बड़ी कृपा होगी।’

जबकि हमारे देश का दर्शन तो आनन्द का ही अन्वेषण है। सन्यासियों के सन्यास जीवन के नाम में भी आनन्द शब्द लगे होते हैं – जैसे विवेकानन्द को ही ले लीजिए। फिर गाजीपुर में जन्मे ब्रिटिश जमाने में किसान आंदोलन से जुड़े स्वामी सहजानन्द सरस्वती आदि। वे ऑल इंडिया किसान सभा के प्रथम अध्यक्ष थे (लखनऊ,11अप्रैल,1936)। भारत सेवाश्रम संघ के प्रतिष्ठाता स्वामी प्रणवानन्दजी के नाम में भी तो आनन्द है।

रोज लाखों नही तो हज्जारों अधिकारी एवं नेता जनता के पैसों से इन देशों में आते होंगे। राम जाने उनमें से कितने तयशुदा कार्यक्रमों में भाग लेते हैं, और कितने कुछ सीखने का प्रयास करते हैं ? मादरे हिन्दुस्तान का चेहरा बदलता क्यों नहीं ? किसी वजीरे आ’ला ने कहा था अपनी रियासत की सड़क को किसी नाजनीं सितारे के गालों जैसा बना देंगे। वो सड़क क्या उनकी बेटर हाफ यानी अर्द्धांगिनी के पीहर में बनी है ? तभी उनका श्यालक अपने जीजा को आये दिन ठेंगा दिखाता रहता है?

हमरे बनारस में एक डी एम आये हैं। हाथ में मोबाइल थामे उनकी फोटू प्रायः अखबार में छपती है। जनता के पैसे से दो इंच सड़क पर सवा इंच का डिवाइडर बना दिये। यानी फिलपांव वाले पैरों में चाँदी की पायल! आदमी चले तो कैसे ? कई मुहल्लों में एक तरफ का रास्ता ही गायब है। है तो राहे-खंडहर। फिर हीरो/नेताओं की दादागिरी। आप बायें से चल रहे हैं, अचानक आपके सामने से दनदनाती हुई बाइक आ गयी। यानी उनका आगमन राइट साइड से – मगर राइट एंट्री नहीं, गलत एंट्री। अब आप ? -‘जान प्यारी हो तो हट जा, वरना -!’

वहाँ आये दिन प्रादेशिक सड़क मंत्री अखबार के पन्नों पर अपनी दाढ़ी को बसंत के सूखे पत्तों की तरह बिखेड़ते हुए आविर्भूत होते रहते हैं। वे एकसाथ दो दो दर्जन शिलान्यास के पत्थरों को उद्घाटित कर देते हैं। मगर सड़क? दृष्टि से परे – अदृश्य! वाह रे सिक्सटी फोर्टी का खेल! कितने दुख से अहमद फराज (पाकिस्तान) ने लिखा होगा -‘यही कहा था मेरी आँख देख सकती है/ तो मुझ पर टूट पड़ा सारा शहर नबीना।’

नव उपनिवेशवाद, बाजारवाद, साम्राज्यवाद, समाजवाद, विकासशील देश या तीसरी दुनिया – आप जैसी मर्जी व्याख्या प्रस्तुत कर लें। कनाडा की राजसत्ता भी कोई दूध से धोये तुलसी के पत्तों के हाथों नहीं है। तो फिर क्यों यहाँ हो सकता है, और हमारे यहाँ नहीं ? ज़िन्दगी में सवाल तो ढेर सारे होते हैं मगर उनके जवाबों को कौन ढूँढ़ेगा? और कैसे?

टोरॅन्टो को बांये रखते हुए हम आगे बढ़ रहे थे। दूर से दिख रहे थे टोरॅन्टो का डाउन टाउन। अचानक सामने से आते एक वैन के पीछे देखा तो दंग रह गया। क्या बात है भाई! एक छोटा सा समूचा कॉटेज गाड़ी के पीछे लदा है। वे इसे कहीं प्रतिस्थापित करेंगे और रहेंगे। अच्छा तो बिजली या सीवर कनेक्शन का क्या होता होगा? यहाँ ऐसी ही घरनुमा गाड़ी भी किराये पर मिलती है। आर वी यानी रिक्रियेशन वेहिक्ल। आनंद यान। स्वदेश फिल्म में शाहरूख जिस पर दिल्ली से रवाना हुआ था। एक जगह ब्रिज पर एक माल गाड़ी पर एक दो-कमरेवाला कॉटेज को भी ले जाते देखा। चलायमान संसार।

करीब दो बजे तक हम नायाग्रा पहुँचे। दाहिने फोर्ट ईरी की सड़क। मन में गुदगुदी हुई यह देखकर कि यूएसए पहुँचने के मार्ग का नम्बर है 420 एक्जिट। दूर से दीख रहा है नायाग्रा अॅबजर्वेशन टावर। शहर में घुसने के पहले एक द्वारनुमा बना है, जिस पर एक कट आउट लगा है। उस पर एक युद्ध की तस्वीर। 25 जुलाई, 1814, लुन्डिस लेन बैटल फील्ड की। 

बेस्ट वेस्टन ग्रुप के कॉयर्न क्रॅफ्ट् होटल में हम ठहरनेवाले हैं। तीन बजे तक हमें रूम मिलेगा। सामने श्वेत डज को पार्क कर दिया गया। रूपाई जाकर काउंटर में बात कर आया, ‘चलिए, तब तक सामने के रेस्तोरॉ से लंच कर लें।’

‘ओ.के.। भूख तो लगी ही है।’ हमने लॉबी में सामान रख दिया।

सामने चालीस पचास फीट चौड़ी सड़क। दोनों किनारे फुटपाथ पर जगह जगह गुलजार। हरी हरी घास चारों तरफ से उनकी आरती उतार रही हैं। होटल के सामने एक खंभे पर फूल का गमला लटक रहा है। ताज्जुब की बात है कि पौधों के नीचे खालिस मिट्टी दिखाई नहीं दे रही है। लकड़ी की खुरचनों से उनके नीचे की जमीन ढकी हुई है। पता नहीं मिट्टी बह ना जाये इसलिए या और कोई वजह है? चारों तरफ एक ही नजारा। इनकी देखभाल करता कौन है ? हाँ, किंग्सटन में राह चलते मैं ने एक महिला को अपने मकान के सामने फूलों की क्यारियों पर पानी छिड़कते देखा था। कहीं कोई ग्रास कटर से ही घास काट रहा है। न कहीं पान की पीक की ललामी, न और कुछ। क्या इनकी सड़कों पर गाय, सांड़ या सारमेय आदि नहीं घूमते ? आप कल्पना कर सकते हैं कि काशी में घर के बाहर या सड़क पर ऐसे फूल खिले हों और कितने मांई के लाल हैं जो अपने हाथों का इस्तेमाल न करके आगे बढ़ जाएँ ?

हाँ, हमारे देश में भी अरुणाचल, गोवा या दार्जिलिंग में मैंने घर के बाहर ऐसे ही फूलों को निर्भय होकर खिलते देखा। कोई रावण उन सीताओं को हाथ तक नहीं लगाता है। बस -‘राह किनारे हैं खिले, सेंक लो यार आँख। घर ले जा क्या करोगे ? शुक्रिया लाख लाख!’ दोहा कैसा रहा ?

बिलकुल सामने सड़क पार वेन्डिज रेस्तोरॉ में जाने के लिए हमें पहले बायें काफी दूर तक चलना पड़ा। फिर जेब्रा लाइन से ही पारापार करना। अब लंच की तालिका – मैदे की रोटी में एक टुकड़ा चिकन मोड़ कर चिकन रैप और लंबे लंबे आलू की फ्रेंच फ्राई यानी पौटीन। पता नहीं वर्तनी या उच्चारण ठीक है कि नहीं। शीशे की दीवार के पास ही रुपाई ने हमारा आसन लगा दिया था। बाहर देखा तो कॉयर्न क्रॅफ्ट् वाले फुटपाथ पर ही आगे मैकडोनाल्ड का आउटलेट है। और उसकी बगल में ‘डॉलोरॉमा’ यानी हर माल बीस आना – एक कनाडियन डलार।

नायग्रा में सभी घूमने आते हैं। कार के पीछे साइकिल स्टैंड पर दो तीन साइकिल लाद कर लोग आ रहे हैं। यहाँ रहकर नायाग्रा तक और आसपास वे उसी पर घूमेंगे। बिन मडगार्ड की साइकिल किंग्सटन में भी मैं ने खूब देखी है। लोग हर समय या तो दौड़ रहे हैं, या साइकिल चला रहे हैं। और साइकिल चलाते समय भी अधिकतर लोग हेडगियर या हेलमेट लगाया करते हैं। और एक बात, चाहे दौड़ रहे हों, चाहे साइकिल चला रहे हों, हाथ में या साइकिल के हैंडिल में कॉफी का मग जरूर रहता है।

आते समय सामने से एक चमचमाती नीली बस चली गई। उसके सामने भी साइकिल रखने के स्टैंड बने हैं। इसका नाम है वी गो। यहाँ आये टूरिस्ट भी इनका इस्तेमाल करते हैं।

कॉयर्न क्रॉफ्ट् वापस आकर होटल के बाथरूम में हाथ मुँह धोने पहुँचा। घुसते ही दायें बेसिन, बायें बाथ टब और सामने तख्ते ताऊस यानी कोमोड। वहीं दीवार पर लिखा है :- प्रिय अतिथि, हर रोज हजारों गैलन पानी टॉवेल धोने में बर्बाद होता है। हैंगर पर टॉवेल रहने का मतलब है आप उसे फिर से इस्तेमाल करेंगे। फर्श पर पड़े रहने का मतलब है, उसे साफ करना है। अब आप ही को तय करना है कि धरती की प्राकृतिक संपदाओं को हम कैसे बचायें। धन्यवाद! 

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 101 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ # 12 – घर में कबहुँ ना मिलैं… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।

☆ कथा-कहानी # 101 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 12 – घर में कबहुँ ना मिलैं… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

अथ श्री पाण्डे कथा (2)

घर में कबहुँ ना मिलैं, नाम मान नौं निद्धि ।

जब ही जाय बिदेस नर, पाय मान अरु सिद्धि ॥

शाब्दिक अर्थ :- प्राय: अपने घर- गाँव में रहकर आदमी को मान-सम्मान और समृद्धि प्राप्त नहीं होती है। जब आदमी अपना घर छोड़कर परदेश चला जाता है, तब उसे वहाँ पर्याप्त मान-सम्मान और सफलता प्राप्त हो जाती है

ऐसा नहीं है कि सजीवन पांडे शुरू से ही विपन्न थे। उनके पिता रामायण पांडे निवासी थे महोबा के और जब सजीवन पांडे 2-3 वर्ष के रहे होंगे तब खेजरा आ बसे। हुआ यों कि रामायण पांडे अपनी पत्नी और बेटे को लेकर तीर्थ यात्रा करने जगन्नाथ पुरी गए। अंग्रेजों के जमाने में दमोह के जंगल बहुत थे व  बड़े घने थे। इमारती लकड़ी के लिए सागौन, साज, सलईया आदि बहुतायत में थे तो हर्र, बहेरा, आँवला, लाख और खैर  जैसी वनोपज़ भी दमोह के जंगलों से निकलती। खेती किसानी के लिए सुनार नदी की घाटी का उपजाऊ काली मिट्टी वाला हवेली क्षेत्र तो दो फ़सली खेती के लिए ब्यारमा घाटी प्रसिद्ध थी। इसी वनोपज़ और खेती से रुपया कमाने की लालच में बहुत से अंग्रेज भी दमोह आ बसे। रामायण पांडे ने दमोह की ख्याति अपने सहयात्रियों से सुनी और  लौटते में अकारण ही दमोह उतर गए सोचा देखते हैं कोई काम धंधा नौकरी  मिल जाये। रात उन तीनों ने स्टेशन के प्लेटफार्म पर गुजारी और सुबह सबेरे स्नान ध्यान कर  धवल धोती व अंग वस्त्र धारण कर अपने उन्नत ललाट  को सुंदर  त्रिपुंड सुसज्जित कर रामायाण दमोह का चक्कर लगाने निकल पड़े। स्टेशन से बाहर निकल उन्होने सीधी सड़क पकड़ी और बस स्टैंड होते हुये बेला ताल के आगे निकल जटाशंकर स्थित शंकरजी के मंदिर  पहुँच गए। जटाशंकर की पहाड़ी व हरियाली ने रामायण का मन मोह लिया और भोले शंकर के मंदिर के सामने बैठ वे सस्वर में लिंगाष्टक स्त्रोतम का पाठ करने लगे। उनके  मधुर सुर व संस्कृत के  उच्चारण से प्रभावित अनेक भक्तगण रामायण पांडे को घेर कर बैठ गए व ईशभक्ति सुन  भाव विभोर हो उठे। भजन पूजन कर रामायण जटाशंकर की पहाड़ी से बाहर निकले ही थे की बेलाताल के पास निर्जन स्थान पर कुछ लठैतों ने उन्हे घेर लिया और अता पता पूंछ डाला।

रामायण बोले कि  भैया हम तो महोबे के रहने वाले हैं और काम धंधा की तलाश में दमोह आए हैं।

लठैतों में से एक ने पूंछा तो इतने सजधज कर जटाशंकर काय आए और ज़ोर ज़ोर से भजन काय गा  रय हते।

घाट घाट का पानी पिये रामायण समझ गए कि दाल में कुछ काला है और उन्होने मधुरता से जबाब दिया भैया हम तो कौनौ काम धन्धा मिल जाय जा प्रार्थना ले के भोले के दरबार में आए हते।

रामायण की बात पर लठैत को भरोसा न हुआ उसने पूंछा कि मंदिरन में पुजारी बनबे की इच्छा तो नई आए।

रामायण ने उन्हे भलीभांति संतुष्ट कर सीधे स्टेशन की ओर रुख किया और दमोह के किसी अन्य मंदिर में पुजारी बनने का सपना छोड़ दिया।

शाम को रामायण ने गल्ला मंडी के ओर रुख किया। रास्ते में वे हनुमान गढ़ी के मंदिर जाना न भूले पर भगवान से मन ही मन प्रार्थना की और उच्च स्वर में हनुमान चालीसा पढ़ने की हिम्मत न जुटा पाये।  गल्ला मंडी में रोजगार के दो ही साधन थे पल्लेदारी जो रामायण के बस की न थी और दूसरी मुनीमी जिसके लिए आढ़तिया अंग्रेजी भाषा का जानकार चाहते थे और अंग्रेजी में तो  रामायण ‘करिया अच्छर भैंस बिरोबर थे। हताश और निराश रामायण अंधेरा होने के पहले ही स्टेशन लौट आए।

दूसरे दिन दोपहर में रामायण ने  स्टेशन के पास स्थित कुछ लकड़ी के टालों की ओर रुख किया। इमारती लकड़ी और वनोपज़ के ठेकेदार जात से खत्री थे और दमोह में  रेल्वे लाइन आने के बाद लखनऊ से आ बसे थे। खत्री ठेकेदार ने रामायण को बड़े अदब से कुर्सी पर बैठा कर पूंछा-

‘प्रोहितजी क्या चाहिये, कहाँ से आना हुआ।‘

‘सेठजी हम महोबे के रहने वाले हैं रोजगार की तलाश में दमोह आए हैं।‘ रामायण ने उत्तर दिया।

‘क्या काम कर सकते हो।‘ ठेकेदार ने पूंछा

‘सेठजी हिन्दी, संस्कृत और गणित का ज्ञान है मुनीमी की नौकरी मिल जाये तो कृपा होगी।‘

‘प्रोहितजी हमारा धंधा तो अंग्रेजों से चलता है, उनसे अंग्रेजी में लिखापढ़ी करने वाला मुनीम चाहिये।‘

‘सेठजी मुझे अंग्रेजी तो बिल्कुल नहीं आती। बच्चों तो पढ़ाने का काम ही दे दो।‘ रामायण बोले

‘प्रोहितजी बच्चे भी अब अंग्रेजी स्कूल में पढ़ते हैं उन्हे हिन्दी और संस्कृत पढ़ाने से क्या लाभ।‘

‘सेठजी कोई काम आप ही बताओ जो मैं कर सकता हूँ।‘ कातर स्वर में रामायण बोले

‘प्रोहितजी जंगल से हमारा माल आता है वहाँ हिसाब किताब रखने के काम में अंग्रेजी की जरूरत नहीं है। आप वो काम करने लगो। दस रुपया महीना पगार दूंगा पर रहना जंगल में पड़ेगा।‘ ठेकेदार ने कहा। 

 ‘सेठजी मेरा बच्चा छोटा है और पंडिताइन को दमोह में किसके भरोसे छोडुंगा।  मैं तो अब निराश हो गया हूँ। कल वापस महोबा चला जाऊँगा।‘ ऐसा कह कर रामायण बड़े दुखी मन से स्टेशन वापस आ गए।

रामायण स्टेशन पहुँचे ही थे की पंडिताइन का रोना धोना चालू हो गया। बड़ी मुश्किल से उन्होने बताया  ‘तुमाए निकरबे के बाद टेशन मास्टर के दो आदमी आए रहे और धमका के गए हैं की जा जागा खाली कर देओ।‘

रामायण ने पूंछा ‘गाली गलोज तो नई करी।‘

पंडिताइन के सिर हिलाने  पर वे तुरंत ही स्टेशन मास्टर के कक्ष की ओर चल पड़े।

स्टेशन मास्टर के कक्ष की ओर जाते जाते रामायण को बार बार पंडिताइन का रोना याद आ रहा था। हालांकि गाली गलोज की बात पर पंडिताइन ने कुछ स्पष्ट नहीं कहा था फिर भी उन्होने अंदाज़ तो लगा ही लिया कि सरकारी नौकर बिना ऊल जलूल बोले सरकारी फरमान नहीं सुनाते। एक बार तो उनकी इच्छा हुयी कि स्टेशन मास्टर को खरी खोटी सुनाये और उसके दोनों आदमियों की भालिभांति ठुकाई कर दें पर अपनी विपन्नता और परदेश का ध्यान कर उन्होने चित्त को शांत किया, आँखे पोंछी और आगे चल दिये।

स्टेशन मास्टर का नाम गया प्रसाद चौबे है और वे मथुरा के रहने वाले हैं इतना जान रामायण की थोड़ी आशा बंधी और वे दरवाजा खटखटा कर स्टेशन मास्टर के कक्ष में घुसे और सबसे पहले स्वस्ति वाचन कर गया प्रसाद चौबे का अभिवादन किया।

चौबे जी उनके संस्कृत उच्चारण से प्रसन्न हुये और आने का कारण पूंछा। रामायण ने अपनी पूरी व्यथा उन्हे बताई , पर पंडिताइन के साथ हुयी घटना को बड़ी खूबी से छुपा लिया,  और कोई नौकरी देने का आग्रह किया।

‘महराज अभी तो स्टेशन में कोई जगह खाली है नहीं, हाँ एक काम पर आपको रखा जा सकता हैं।‘

‘बताइए साहब बताइए’ थोड़े से आशान्वित रामायण बोले

‘अभी आप स्टेशन में कुछ साहबों के घर पीने का पानी भरने लगो।‘ चौबेजी बोले

‘महराज हम तो पंडिताई करने वाले हैं हमे आप पानी पांडे न बनाओ।‘ रामायण थोड़े अनमने होकर बोले

‘पंडितजी पानी भरने के साथ साथ स्टेशन के बाहर बनी शंकरजी की मड़ैया में पूजा भी करना।‘ 

‘इतने में नई जगह कहाँ गुजर बसर हो पाएगी  साहब।‘ रामायण ने प्रत्युत्तर में कहा

‘अरे भाई महीने के पाँच रुपये हम स्टेशन से दे देंगे और कुछ साहब लोग दे देंगे फिर शंकरजी की मड़ैया में पूजा से कुछ दान दक्षिणा भी मिलती रहेगी।‘ चौबेजी ने आश्वस्त करने की कोशिश करी।

‘हुज़ूर पक्की नौकरी का बंदोबस्त हो जाता तो अच्छा रहता।‘ रामायण ने लगभग चिरौरी करते हुये कहा।

‘पंडितजी अभी पानी भरने का काम करो फिर कभी कोई बड़ा गोरा साहब स्टेशन पर आयेगा तो उनसे पक्की नौकरी की भी बात करेंगे। अंग्रेज साहब भी अच्छी संस्कृत सुन कर खुश हो जाते हैं।‘ चौबेजी बोले

इस बात से रामायण को भविष्य की आशा बंधी और उन्होने हाँ कर दी। अब महोबा के पंडित रामायण पांडे दमोह रेल्वे स्टेशन पर पानी पांडे कहलाने लगे। भजन गाते गाते स्टेशन और दो तीन साहबों के घर पीने का पानी भरते और रेल गाड़ी का समय होने पर शंकरजी की मड़ैया पर बैठ आने जाने वाले यात्रियों आशीर्वाद देते बदले में दान दक्षिणा पाते।

समय बीतता गया और छह माह बाद महा शिवरात्रि आयी। रामायण पांडे ने  दमोह रेल्वे स्टेशन पर पानी पांडे का अपना दायित्व झटपट सुबह सबेरे ही पूरा किया और  शंकरजी की मड़ैया को, पंडिताइन की मदद से,  गाय के गोबर से लीपा, छुई मिट्टी से पोता, फूल पत्ती से सजाया और फिर स्नान कर त्रिपुंड लगा कर शंकरजी की पूजा करने बैठ गये। उनके भजन और मंत्रोच्चारण ने लोगों को आकर्षित किया और देखते ही देखते  भक्तों की अच्छी खासी भीड़  शंकरजी की मड़ैया  पर एकत्रित हो गई और दोपहर होते होते भंडारे की व्यवस्था भी जन सहयोग से हो गई।

दूसरे दिन सुबह सुबह दो तीन ग्रामीण रामायण पांडे से मिलने स्टेशन आ पहुँचे और हिरदेपुर के ठाकुर साहब का बुलौआ का समाचार उन्हे दिया। रामायण पांडे अपना काम निपटा कर जब हिरदेपुर पहुँचे

‘आइये पंडितजी महाराज पायँ लागी’ कहकर ठाकुर साहब ने  रामायण पांडे का स्वागत किया।

रामायण ने भी ‘खुसी  रहा का’ आशीर्वाद दिया, स्वस्ति वाचन किया और बुलाने का कारण पूंछा।

‘पंडितजी महराज ऐसों है की काल हमने आपके दर्शन टेशन पर शंकर जी की मड़ैया पर करे हते। हमाएं इते भी पुरखन को बनवाओं एक मंदर है और उसे लगी मंदर के नाव 10 एकड़ खेती की जमीन। हम चाहत हैं की हमाए पुरखन के मंदर की पूजा पाठ आप संभालो।‘ ठाकुर साहब बड़ी अदब से बोले।

रामायण मन ही मन प्रसन्न होकर बोले ‘जा बताओं आप कौन क्षत्री  हो, पेले हमे मंदर भी दिखा देओ।‘

ठाकुर साहब बोले ‘हम ओरें बुंदेला हैं और महाराजा छत्रसाल ने जब बाँसा पे आक्रमण कर उते के जागीरदार केशव राव दाँगी को हराओ तब जा गाँव हम ओरन के पुरखन की बीरता के कारन बक्शीश में  दओ रहो।‘

रामायण पांडे ने मंदिर का मुआयना किया हामी भरी और लौट कर स्टेशन मास्टर गया प्रसाद चौबे को सारा हाल सुनाया और हिरदेपुर के मंदिर में  पुजारी का काम करने के कारण स्टेशन पर पानी पाण्डे के दायित्व से मुक्ति माँगी। चौबे जी भी खुश हुये। अब रामायण पांडे दो मंदिरों की पूजा करने लगे। 10 एकड़ जमीन से जो आमदनी होती उससे मंदिर का और घर ग्रहस्ती का खर्चा चल जाता। धीरे धीरे रामायण पांडे की ख्याति आसपास के गांवों में भी फैल गई, अच्छी दान दक्षिणा मिलने लगी, पंडिताइन के गले, हांथ  और पैरों में चांदी के आभूषण शोभित होने लगे और उनकी पंडिताई चल निकली। इसलिए भाइयो यह कहावत बहुत प्रचलित है  ‘गाँव को जोगी जोगड़ा आन गाँव कौ सिद्ध।‘

 

 ©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 24 – असहमत और पुलिस अंकल : 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ  में असहमत के किस्से आत्मसात कर सकेंगे।)   

☆ कथा – कहानी # 24 – असहमत और पुलिस अंकल : 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

पुलिस अंकल जॉनी जनार्दन का ट्रांसफर तो हुआ पर प्रमोशन पर. जाना तो था ही और गये भी पर पहचान वालों को ये भरोसा देकर गये कि चंद महीनों की बात है. बापू ने चाहा तो जुगाड़ लग ही जायेगा भले ही “बापू” बेहिसाब लग जायें. यह बात असहमत द्वारा इस कदर प्रचारित की गई कि टीवी चैनल वालों की ब्रेकिंग न्यूज़ भी शर्म से पानी पानी हो जाय और कम से कम उन तक तो जरूर पहुंचे जो असहमत की तैयार लिस्ट में चमक रहे थे. समय धीरे धीरे हर घाव भर देता है. वो जलवे जो टेंपरेरी रहते हैं और व्यक्ति को गुब्बारे के समान फुला देते हैं, धीरे धीरे अपनी सामान्य अवस्था में येन केन प्रकारेण ला ही देते हैं. असहमत की लिस्ट के चयनित लोग भी सब कुछ हर होली के साथ भूलते गये और उनके और असहमत के संबंध सामान्य होते गये पर फिर भी असहमत के दिल में पुराने जल्वों की कसक बनी रही. पुलिस अंकल का इंतजार होता रहा पर वो आये नहीं और जब आये भी तो जनार्दन अंकल के नये रंग में जो असहमत के मोहभंग के लिए पर्याप्त था. दरअसल ये नया रूप सेवानिवृत्ति के बाद का था जब व्यक्ति माया, मोह, लिप्सा, घमंड जैसी भौतिक सुविधाओं को छोड़कर आध्यात्मिक होने के बजाय छद्म कर्मकांड के पाखंड में उलझता है और धार्मिक होने का भाव और भ्रम पाल लेता है. आध्यात्मिकता की यात्रा, अध्ययन, विश्लेषण, विश्वास, प्रेम, सहभागिता, सरलता और विनम्रता के पड़ाव पार करती है. ये प्रकृत्ति और स्वभाव का बोध है जो जीवन में पल दर पल विकसित होता है, ये ऐसी अवस्था नहीं है जो रिटायरमेंट के बाद प्राप्त होती है. दूसरी स्थिति छद्मवेशी धर्म से जुड़े कर्मकांड की होती है. व्यक्ति अपने सेवाकाल में सरकारी खर्चों और उचित/अनुचित सुविधाओं का उपभोग कर विभिन्न तीर्थों की यात्राओं का आनंद लेता है और रिटायरमेंट के बाद, मोक्षप्राप्ति के शार्टकट “बाबाओं” की शरण लेता है.

आस्तिकता का आचरण अलग होता है, मोक्ष या पापों के प्रायश्चित की प्रक्रिया में शार्टकट नहीं होता. ये जिज्ञासु के धैर्य, समर्पण और आत्मशुद्धि की सतत जारी परीक्षा है, नफरत, अहंकार और असुरक्षा इसमें अवरोधक और पथभ्रष्टता का काम करते हैं. नफरत है मतलब प्रतिहिंसात्मक प्रवृत्तियों का पोषण हो रहा है.

घर बनाने की वह प्रक्रिया जब गृहनिर्माण के कीमत निर्धारण सहित सारे फैसले बिल्डर करता है और बदले में आपको पैसे के अलावा किसी बात की चिंता नहीं करने की लफ्फाजी करता है, ये घर पाने का शार्टकट है. इसी तरह का काम बहुत सारे धर्म गुरु भी करते हैं जो आपको, पाप मुक्ति, आत्मशुद्धि और मोक्षप्राप्ति के छलावे में उलझाते हैं और स्वयं, बिल्डर के समान संपन्नता और विलासिता का उपभोग करते हैं. जनसेवा का साइनबोर्ड दोनों जगह पाया जाता है और भयभीत कर शोषण का फार्मूला भी.

जनार्दन अंकल जब लौटे तो रंग नया था, रूप नया था. भौंहों के खिंचाव की जगह माथे के तिलक ने ले ली थी. शान का प्रतीक मूंछें वापस तरकश में जा चुकी थीं. जब इस बार सपने और योजनाओं के टूटने से दुखित असहमत ने बहुत धीरे से “नमस्ते अंकल” कहा तो प्रत्युत्तर में धुप्पल की जगह, “खुश रहो बच्चा” का खुशनुमा एहसास पाया. चाल ढाल बातचीत का लहज़ा, वेशभूषा सब बदल गया था. बातों के टॉपिक विभाग की खबरों और शहर के असामाजिक तत्वों की जगह, बाबाजी के गुणगान पर केंद्रित हो गये थे.

असहमत की जिज्ञासा और बोलने की निर्भीकता ने फिर जिस वार्तालाप को जन्म दिया वो प्रस्तुत है.

“जनार्दन अंकल, पहले जब आप से मिलता था तो आपकी शान से मुझमें भी साहस और निर्भयता का संचार होता था. पर अब तो आपका ये नया रूप मुझे भी यह अनुभव कराने लगा है कि मैं भी पापी हूँ.”

अंकल की भंवे, भृकुटि बनते बनते बचीं पर अट्टाहास की प्रवीणता का पूरा उपयोग करते हुये कहा “जब जागो तभी सबेरा. बाबाजी ने मुझे सारी चिंताओं से मुक्त कर दिया है. उनकी शरण में जाने से मैं निश्चिंत हूँ कि उनके पुण्य प्रताप से मुझे पापों से मुक्ति मिलेगी, मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होगा. उनके प्रवचनों से मुझे शांति मिलती है वह बिल्कुल वैसी है जो किसी दुर्दांत अपराधी को पकड़ने से मिलती थी. पहले मैं भी इन असामाजिक तत्वों से निपटते निपटते कठोर बन गया था. तर्क कुतर्क को डंडे से डील करता था पर कभी कभी मेरे वरिष्ठों या नेताओं के आदेश मुझे विचलित कर देते थे पर ली गई शपथ और अनुशासन के नाम पर बंध जाता था. अब तो मैं मुक्त हूँ, बाबाजी की शरण ही मेरी अंतरात्मा को शुद्ध करेगी और सन्मार्ग याने मोक्ष की प्राप्ति की ओर। ले जायेगी.”

असहमत ने फ्राड करने वाले बिल्डरों का उदाहरण देते हुये, डरते डरते फिर एक सवाल दाग ही दिया “अंकल, अगर ये बाबाजी भी फ्राड निकले तो क्या होगा?”

जनार्दन अंकल “साले की ऐसी तैसी कर दूंगा, पुलिस की नौकरी से रिटायर्ड हूँ पर अगर मुझे धोखा दिया तो वो ठुकाई होगी कि उसकी सात पुश्तें बाबागिरी का नाम नहीं लेंगी.”

असहमत का आखिरी सवाल, हमेशा की तरह बहुत खतरनाक था जिसका जवाब नहीं था.

“अंकल, बाबाजी तो वो प्रोडक्ट बेच रहे हैं जो उनके पास है ही नहीं.”

शायद इस सवाल के बाद, कुछ और लिखने की जरूरत नहीं है. समझने वाले समझ जायेंगे और नासमझ इस सवाल को ही या भी नज़रअंदाज़ करके आगे बढ़ जायेंगे..

 

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! – भाग – 6 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 6 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आज से आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

किंग्सटन

अगले दिन सुबह से ही शुरू हो गया मेरा रूट मार्च। रुपाई निकल गया यूनिवर्सिटी। तो मैं ने झूम से पूछा,‘अम्मां, इस लेक के किनारे किनारे चले जाएँ न? पासपोर्ट वगैरह तो साथ रखने की जरूरत नहीं?’

‘अरे नहीं, बाबा। आप भी न -। यह हरीवाली चाबी रखिए अपने पास। उसीसे मेन गेट खुल जायेगा।’

‘ओ के योर हाईनेस।’ एपार्टमेंट से निकल कर मैं रूटमार्च करता हुआ आगे बढ़ गया। इनका एपार्टमेंट है किंग स्ट्रीट ईस्ट में। मुख्य सड़क से सीधे समकोण बनाते हुए सिमको स्ट्रीट निकली है, उसी पर। मैं पश्चिम की ओर चला। अॅन्टारिओ झील के किनारे किनारे। यहाँ की सुंदर सड़कें इसी तरह एक दूसरे को बाई करते हुए करीब समकोण पर ही निकलती हैं। दोनों ओर प्राचीन गोथिक शैली में बनी हुई अठारहवीं या उन्नीसवीं सदी की इमारतें। ऊपर त्रिकोण छत। लंबी लंबी खिड़कियाँ। उन पर शीशे जड़े हैं। पुरानी बिल्डिंगें स्थानीय चूने पत्थर से ही बने हैं। इसीलिए किंग्सटन का और एक नाम है लाइमस्टोन सिटी। चूने पत्थर की नगरी। काशी को काशी कह लो या बनारस, या शिव की नगरी, या फिर सिटी ऑफ टेम्पलस।

कल शाम हम कुछ पूरब की ओर चलकर पहुँचे थे सिटी या कनफेडरेशन हॉल। आज की यात्रा विपरीत दिशा में। पूर्वी अॅन्टारियो स्टेट में स्थित यह शहर कैटारॅकी नदी के मुहाने पर बसा है। पूरब में मॉन्ट्रीयल और पच्छिम में टोरन्टो के बीचोंबीच। किंग्सटन को कनाडा प्रांत की पहली राजधानी होने का गौरव प्राप्त है।15 फरवरी 1841 में यहाँ के गवर्नर लार्ड सिन्डेनहैम ने यह घोषणा की थी। सेंट लारेन्स और कैटारॅकी नदी के संगम पर स्थित होने के कारण सत्रहवीं सदी में व्यापार करने आये यूरोपियनों के जहाज यहाँ खूब लँगर डालने लगे। वे यहाँ के आदिवासियों या जनजातियों के नजदीक डेरा डालकर उनसे व्यापार करना चाहते थे। यानी वस्तुओं के लेन देन का बार्टर सिस्टम। तुम मुझसे नमक ले लो, और बदले में तुम्हारे अयस्क और तुम्हारे जंगली जंतुओं की खाल दे दो! और इसी व्यापारिक प्रतिस्पर्धा के चलते फ्रांसीसियों ने 1673 ई. में यहाँ फोर्ट फ्रंटिनैक का निर्माण किया। आज यहाँ 1.24.000 लोग रहते हैं।

राह में कई जगह देखा – मार्ग के संगम पर लिखा है – स्टप – कर्टसी क्रासिंग। यानी, हे राहगीर, वाहन चालक से नैन मिलाकर ही सड़क पार करना ! बाकी सड़कों की तरह उस जगह जेब्रा क्रासिंग नहीं बना है। हर ड्राइवर वहाँ अपने आप कार को स्लो कर दे रहा है। वाह रे तहजीबे अख्लाक! नागरिक उत्तरदायित्व की नफासत।

बायीं ओर सागर जैसा छल छल पानी देखकर तो छोरा गंगा किनारेवाला का मन तैरने के लिए मचलने लगा। यहाँ के टिकट कटवाते समय बिटिया से व्हाट्स ऐप पर लिखित बातचीत हो रही थी। मैं ने पूछा था, ‘तुम्हारे घर के सामने उतनी बड़ी झील है। तो, उसमें जरूर तैरूँगा। मजा आयेगा।’

‘बाबा, उसके लिए तो फिर स्विमिंग कस्ट्यूम चाहिए।’

‘अरे मैं यहीं चेतगंज से एक फूलवाले प्रिन्ट का लंगोट ले लूँगा। वही है हमारा राष्ट्रीय स्विमिंग कस्ट्यूम।’

‘बाबा – । ऐसा मत कीजिए।’

रुपाई जरा ज्यादा ही डिसिप्लीन पसंद है। हर वख्त कानून सर आँखों पर। बेचारे को इस उजड्ड ससुर को लेकर कई बार कई तरह से झेलना पड़ा। मैं भी क्या करता? उतर गया था एकदिन उस पानी में एक जगह। मजा आ गया था। मगर रूपाई झूम को मत बताइयेगा। उन्हें अभी तक पता नहीं है। वरना रूपाई मुझे त्याज्य ससुर कर देगा।

तीन चार जगह लंबी लकड़ी के खंभे पर लगे हैं सूचना पट्ट। वाटर फ्रन्ट रेगुलेशन। यहाँ आप अपने रिस्क पर ही तैर सकते हैं। यहाँ कोई बचाव कर्मी तैनात नहीं है। पानी में कूदना मना है। स्केटिंग करना मुनासिब न होगा। जहाँ लोग नहाते हैं वहाँ कुत्तों को लेकर प्रवेश वर्जित है। इमर्जेन्सी में मदद के लिए इस नंबर पर फोन करें 911। सूचना के नीचे एक जोगिया रंग का ट्यूब लटक रहा है। लिखा भी है जीवन बचाने वाली चीजों का गलत इस्तेमाल करना दंडनीय अपराध है। हमारे दशाश्वमेध की पुलिस चौकी में जो बैठे रहते हैं, उनमें शायद ही किसीको तैरना आता है। ठीक उन्हीं की नाक के नीचे तो आतंकवादियों ने बम धमाका किया था। हमारे देश में तो हर साल जाने कितनी नावें डूबती रहती हैं। उनमें ठसाठस आदमी जो भरे होते हैं। कौन है देखने सुननेवाला ?

चलते चलते एक बात और – हमारे यहाँ सड़क पर खड़े बिजली और टेलिफोन खंभे जैसे लोहे के बने होते हैं, यहाँ वे सब लकड़ी से बने खंभे हैं।

हरे हरे गलीचे के बीच कई जगह गुलचमन। हरी घासों पर कनाडियन गीस (बत्तख) बीन बीन कर कुछ खा रहे हैं। घासां की जड़ से कुछ या कीड़े मकोड़े। वहीं एक किनारे एक पत्थर पर अंकित – देखिए इतिहास की एक झलक –

25 अगस्त सन 1758 को अंग्रेज कलोनेल ब्रैडस्ट्रीट अपने 3100 फौजिओं के साथ नदी किनारे उतरे थे। आज उस जगह का नाम है कॉलिंगवुड स्ट्रीट। मर्नी पॉयेन्ट से नदी के किनारे किनारे मिस्सिसौगा पॉयेन्ट होते हुए वह दस्ता जा पहुंचा फोर्ट फ्रॉन्टिनैक। उनलोगों ने फ्रांसिसी किले की घेराबंदी कर दी।

उन्ही दिनों हिन्दुस्तान की तस्वीर क्या रही होगी? उन दिनों मुर्शिदाबाद सूबे बंगाल की राजधानी थी। 23 जून 1757 को मुर्शिदाबाद से 53 कि.मी. दक्षिण मे स्थित प्लासी के आमबागान में रबार्ट क्लाइव के नेतृत्व में ईस्ट इंडिया कंपनी की फौज ने नवाब सिराजद्दौल्ला की सेना को परास्त कर इंग्लैंड का झंडा भारत में गाड़ दिया था। क्लाइव की चालबाजी, उनकी दी हुई रिश्वत और मीरजाफर की दगाबाजी से हिन्दुस्तान की सरजमीं पर 1858 ई. में प्रतिष्ठित  हुआ मलिकाए इंग्लैंड विक्टोरिया का शासन। सिराज के टुकड़ों पर पलनेवाला महम्मदी बेग ने ही क्लाइव के बहकावे में आकर सिराजद्दौल्ला की छाती पर भोंक दिया था छुरा।

दो दिन तक घेरेबंदी में फँसे रहने के बाद फोर्ट फ्रॉन्टिनैक के किलेदार ड्य न्यॉन समझ गये कि जंग को जारी रखना मौत को बेवजह न्योता देना होगा। सो संधिवार्ता हो गई। जितने पादरी थे, किले में रहने वाले जो दूसरे लोग थे – सबको सुरक्षित जगह जाने की छूट दे दी गई। फिलहाल लड़ाई खतम हुई।

फिर 1760। अंग्रेज मेजर रॉबर्ट रॅजर अपनी टुकड़ी लेकर पहुँचे और फोर्ट फ्रॉन्टिनैक को तहस नहस कर दिया। अब समझ रहे हैं न कि फ्रांसिसी और अंग्रेजों के टकराव और संघर्षों की दास्तान की जड़ कितनी गहरी है ? उधर और भी नाटक होते रहे। मेजर वुल्फ (जिनके नाम पर वुल्फ द्वीप है) को 13 सितम्बर 1759 में अब्राहाम की घाटी में विजय मिली। 1760 में मॉन्ट्रीयल भी अंग्रेजों का होकर रह गया। इसी तरह कनाडा के न्यू फ्रांस की तकदीर ही बदल कर रह गई। और 1763 में पेरिस संधिपत्र पर हस्ताक्षर हो गये। कनाडा में अंग्रेजों का वर्चस्व कायम हो गया।

झूम के एपार्टमेंट से निकलते ही सिटी पार्क में एक आदमकद मूर्ति दिखाई देती है। नीचे लिखा है मैं ब्रिटिश प्रजा की हैसियत से पैदा हुआ हूँ। और उसी हैसियत से मरना पसंद करूँगा। वह मूर्ति है कनाडा कनफेडरेशन के जनक एवं यहाँ के प्रथम प्रधानमंत्री सर जॉन आलेक्जांडर मैकडोनाल्ड की। वह खुद को किंग्सटन का नागरिक ही कहलाना पसन्द करते थे। जबकि वे पैदा तो हुए थे स्कॉटलैंड के ग्लासगो शहर में और यहीं कनाडा के ओटावा (अंटारिओ) में उनका देहान्त हुआ। जनाब, जरा हमारे तथाकथित नेताओं को बतलाने का कष्ट करें कि इनकी बहुमत की सरकार छह बार चुनी गई थी। वे कन्जर्वेटिव पार्टी का प्रतिनिधित्व करते थे, मगर थे भविष्यदृष्टा पुरुष। उन्होंने कनाडा के पूरब को पश्चिम से जोड़ने के लिए रेलवे लाइन की शुरुआत की। कई जगह उन्होंने वन्य प्राणी संरक्षण के लिए अभय अरण्य भी बनवाये। हमारे यहाँ जो राष्ट्रीय उद्यान बने भी हैं, उनकी दुर्दशा किसे अवगत नहीं है ? अविगत गति कछु कहत न आवे। खैर, 2015 में, यानी इसी साल उनकी द्विशत जन्म शताब्दी मनायी जा रही है। लोग उन्हें प्यार से सर जॉन ए. के नाम से पुकारते हैं। ईस्ट किंग्स स्ट्रीट में स्थित उनके मकान को अब उनके नाम से पब्लिक हाउस बनाया गया है। यानी हमारे बिटिया जामाता के पड़ोसी।                 

एक सर्पिल रास्ता झील के किनारे किनारे आगे तक चला गया है। मैं उसी पर चला जा रहा था। उधर मुख्य सड़क यानी किंग्स स्ट्रीट (पश्चिम) पर स्थित है किंग्सटन जेनरल हास्पिटल। यहाँ अचानक किसी की तबियत खराब हो जाए, तो जरा मुसीबत होती है। हर चीज के लिए प्रायर अपायनमेंट चाहिए। हाँ, बड़े बूढ़ों के लिए एम्बुलेंस सेवा सुलभ है। सड़क पर कई दंत चिकित्सकों के बोर्ड तो दिखाई पड़े, मगर जेनरल फिजिशियन या ऐसे डाक्टर एक भी नहीं। तो किसी की सांस फूलने लगे या तेज बुखार हो तो वह बेचारा कहाँ जायेगा ?

1832 में किंग्सटन जेनरल हॉस्पिटल की पहली इमारत बनकर तैयार हो गई थी। मगर 1838 में ही पहली दफा यहाँ मरीजों की भर्ती हो सकी थी। और वे थे बीस अमरीकी विद्रोही। जिन्हें बैटल ऑफ विन्डमिल में गिरफ्तार कर लिया गया था (1837 ई.)। खैर, 1841 से ’44 तक यहाँ कनाडा संसद के सर्वप्रथम अधिवेशन होते रहे। यह अस्पताल क्वीन्स यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ मेडिसिन से सम्बद्ध है।

दोनों ओर की हरी घास के गलीचों के बीच एक पतला सा रास्ता निकल गया है। उसके बायें झील तो दायें मैदान के पार मुख्य सड़क – किंग स्ट्रीट पश्चिम। बीच के हरे मैदान पर जगह जगह बेंच लगे हैं। बैठ कर बात करो, पानी का नजारा देखो। न कहीं पान की पीक की छींटें, न कहीं गोबर इत्यादि के अनचाहा प्रसाद। एक जगह तो शतरंज की बिसात बनी है। आप आराम से बैठकर दोस्त के साथ बुद्धि युद्ध करें। हमारे गंगाघाट के किनारे ऐसा नहीं हो सकता क्या ? अपने बल पर शतरंज की बाजी तो वहाँ घाट किनारे या गलियों के चौतरे पर लगती ही हैं, मगर बाकी ये सब……?

झूम ने एक प्लास्टिक में भर कर जेब में चेरी फल दे दिया था। बड़े ही स्वादिष्ट। अब तक तो सब खतम हो चुके थे। टेम भी काफी हो गैल रहल। तो चलो वापस।

चारों ओर के लाल पीले बैगनी नीले नारंगी आदि रंगीन गुलजारों को देखकर मुनव्वर राना याद आ रहे थे :- ‘मुझे बस इसलिए अच्छी बहार लगती है/ कि ये भी मां की तरह खुशगवार लगती है।’

मगर एपार्टमेंट पहुँच कर एक अलग मुसीबत। उसके मेन एन्ट्रेंस पर दो शीशे के दरवाजे हैं। कोई गार्ड वगैरह नहीं। पहलावाला ऑटोमेटिक दरवाजा बिन चाभी के भी खुल सकता है। मगर मुझे क्या मालूम? मैं दरवाजे पर बने होल में चाबी से प्रयास करता रहा। परंतु असफलता ही हाथ लगी। अब ? वही हाल है भीतर के मेन दरवाजे का। तो उस समय मैं घूम कर एपार्टमेंट के पीछे बेसमेंट की तरफ चला गया। सौभाग्य से उस समय किसी ने दरवाजा खोला था। मैं भी उसका हम सफर बन गया। फिर लिफ्टेण ऊर्ध्वगमणः।

खैर, घर जाकर पता चला कि हर दरवाजे की बगल में दीवार पर की-होल बना हुआ है। उसमें चाबी डालनी है। न कि दरवाजे के बीचोबीच। कृष्णसखा पार्थ याद आने लगे। गुरु द्रोणाचार्य ने जब उनकी परीक्षा लेनी चाही, तो शरसंधान करते समय उन्होंने केवल चिड़िया की एक आँख पर ही अपने लक्ष्य को स्थिर रक्खा था। मैं ने स्वयम् को हड़काया – सदैव एक ही बिन्दु पर लक्ष्य स्थिर रखने से हर समय सफलता हाथ नहीं लगती, मियां। तनि इधर उधर भी ताक झाँक कर लिया करो। अजी, इस उमर में -?

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! – भाग – 5 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 5 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आज से आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

परदेश                 

काँच की दीवार के पार कितने हाथ हिल रहे हैं। सब अपने अपनों से मिलने को उतावले। आयो कहाँ से घनश्याम ! सब अपने आत्मीयजनों के इंतजार में झुक झुक कर देख रहे हैं। और उन्हीं लोगों में मेरी बेटी ! मैं उसे बुलाता हूँ,‘अम्मां – मांगो -!’

वह हँस रही है। बचपन में जब मैं उसे छुट्टी के बाद स्कूल से लेने जाता था, तो इसी तरह उसकी निगाहें उतावली होकर मुझे ढूँढ़ा करती थीं। एक ही रंग के स्कूल ड्रेस पहने बच्चों की भीड़ में मेरी निगाह भी आतुर होकर ढूँढ़ा करती थी – कहाँ है मेरी बच्ची? मेरी झूम? हज्जारों मीलों के सफर के बाद यह फासला भी इतना लंबा क्यों लग रहा है ? आ मेरी गुड़िया , मेरी छाती में आ जा –

उधर से रेलिंग के पार खड़ा रुपाई हँस रहा है। हाथ हिला रहा है। उसके हाथ में कैमरा है।

झूम अपनी मां के साथ लिपट गई। मुझे देख कर हँसते हुए बेटी ने कहा,‘देखिए हमारे साथ साथ आप दोनों को और कौन वेलकम करने आया है।’उसने अपने हैंड बैग से कपड़े में लिपटी एक बालगोपाल की मूर्ति निकाली। माखनचोर। मेरी बिटिया जहाँ जाती है, हमेशा उनको साथ लेकर चलती है। इन्सानों ने अपने अरमानों से ख़ुदा को रच लिया / कहा जहाँ पर वो आते हैं और अवतार नाम दिया!

हम यूल से निकल चले। सड़क पार करके कार पार्किंग तक जाते जाते बारिश की पाजेब बजने लगी। स्वयम् मेघदूत हमारा स्वागत कर रहा है।

यह रात मॉन्ट्रीयल में ठहर कर कल सुबह हमलोग किंग्सटन के लिए रवाना देंगे। भव्य होटल। बेसमेंट में रुपाई ने कार रख दी। उसकी भी दक्षिणा अलग से। होटल की शीशे जड़े खिड़की से सामने बिल्डिगों के ऊपर तीन शिखरोंवाला माउन्ट रॉयल (फ्रेंच में मॅन्ट रियाल) पहाड़ दिख रहा है। उसी के नाम पर शहर का यह नाम पड़ा है। रात के वक्त उस ऊँचाई से शहर का नजारा ही अद्भुत होता है। हर रात दिपावली का दीप पर्व।

सुबह हमारी कार ऑन्टारिओ स्टेट की ओर चल पड़ी। झूम ने बताया,‘वो वो रहा मैक्गिल यूनिवर्सिटी। वहीं रुपाई पढ़ाता था।’ और वहीं से मेरी बेटी ने भी बायोटेक में एमएस की है। यहाँ की 57 प्रतिशत जनता फ्रेंच में बात करती है। फ्रेंच ही यहाँ की ऑफिसियल लैंग्वेज है। अंग्रेज और फ्रांसीसिओं के बीच वर्चस्व का झगड़ा आज भी ताजा है। अब तो यहाँ सड़को पर या सार्वजनिक स्थलों पर भी सिर्फ और सिर्फ फ्रेंच में ही सूचना लिखी होती है। वरना चाय के पैकेट में अगर अंग्रेजी में लिखा है ग्रीन टी लिव्स् तो फ्रेंच तरजुमा भी साथ साथ है – फेविलेस डे द्य वर्ट। चीज स्टिक को कहते हैं बैतोननेट। फिर हर पैकेट पर उस खाद्य सामग्री में कितनी कैलोरी है, कितना प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट वगैरह है यह सब लिखा होता है। यानी न्यूट्रिशन फैक्टस, फ्रेंच में वैल्यूर न्यूट्रीटिव। तो आगे चलते हैं …..

हम मॉन्ट्रीयल से किंग्सटन की ओर चल रहे हैं। कार की क्या स्पीड है। काबिले तारीफ। पवन पुत्र भी पीछे रह जाए। मैं ने कनखिओं से डेश बोर्ड की ओर देखा। स्पीडो मीटर का कांटे ने सचिन की तरह शतक पूरी कर ली है। मगर वाह, क्या सड़क है, क्या कार है! तन के नीचे गति का कोई अहसास ही नहीं, जो बनारस की सड़कों पर चलने से हर वक्त होता है। उसके ऊपर वहाँ गुत्थम गुत्था, भीड़ भाड़, होड़ – अबे रुक, हमई जाब आगे, तू जा भाँड़ में। ठकुरई का परचम बुलंद करना! जल्दी इतनी कि लोग अपने भाई की छाती पर से ही बाइक चला दें।

सामने देखा – पश्चिम क्षितिज में घनघोर घटायें छा गयीं हैं। देखते देखते विन्ड स्क्रीन पर बारिश की पाजेब बजने लगी। कभी विलंबित, कभी द्रुत लय में। क्या बात है ! फिर जरा रवीन्द्रनाथ के वर्षा गीत याद आ रहे हैं :-

मन मेरा मितवा बदरा के

क्षितिज के छोर उड़कर जाके

पहुँचा अपार व्योम किनारे

अपना सरगम, बूँद सुना रे

रिमझिम रिमझिम पायल बाजे

सावन संगीत वहाँ बिराजे।  (मन मोर मेघेर संगी/उड़े चले दिग् दिगन्तेर पाने …..)

रवीन्द्रनाथ की सृष्टि का भी कोई ओर छोर नहीं। अथाह सागर लहराता जाए। रंवीन्द्र संगीत को विषयानुसार कई विभागों में वर्गीकृत किया गया है। पूजा, प्रेम, प्रकृति, स्वदेश, आनुष्ठानिक आदि …….। प्रकृति में ऋतु के अनुसार ग्रीष्म, वर्षा आदि……. ‘बसंत’ तक।

तभी मैं ने ख्याल किया कि हमारी बायीं ओर के लेन से जो कार या ट्रक इधर मॉन्ट्रीयल की ओर आ रहे हैं, उनके पहियों के पीछे से धूल उड़ रही है। क्या बात है ? इतनी साफ सड़क, फिर इतने पानी में धूल ! अजी नहीं, वो बात नहीं है। यह तो पहिये इतनी तेज घूम रहे हैं कि उनकी गति से पानी के कतरों से धुँध बनती जा रही है। वाह रे प्रकृति का अनुपम करतब! फिजिक्स का इनर्शिया ऑफ मोशन !

सड़क के दोनों ओर गजब की हरियाली! जैसे कुदरत ने हरा गलीचा बिछा कर रक्खा हो। उसीके किनारे पहरेदारों की तरह लाइन लगा कर खड़े हैं लंबे लंबे पेड़। ‘होशियार, इसके आगे आना मत! बस हमारे पीछे जंगल है।’कहीं कोई हिरण अचानक सड़क पार करने न आ पहुँचे, इसलिए कई जगह सड़क किनारे सूचना पट्ट पर उनकी तस्वीर बनी है। इन जंगलों में सियार, हिरण से लेकर छोटे भालू और छोटे शेर जैसे दिखने वाले माउन्टेन लायन या कूगर (प्यूमा कॉनकोलर) आदि जंतु पाये जाते हैं। ये कूगर तो उत्तर से लेकर दक्षिण अमेरिका तक फैले हुए हैं। बच के भैया, दूर से ही कर लो, ‘जय श्री श्याम!’

बेटी दामाद में बात हो रही है……‘नेक्सट् ऑन रूट कितनी दूर है ?’ अंग्रेजी का एनरूट शब्द और ऑन्टारिओ स्टेट का नाम मिलाकर यह नाम बना है। यह बस एक फाइव स्टार ढाबा है। रुपाई नाश्ते के लिए वहाँ रुका। तन के नीचे सम्मुख में प्रेशर भी काफी बन चुका था। उसे भी तो मुक्ति चाहिए।

वहाँ की साफ सफाई के बारे में अब क्या बतायें? खैर, वहाँ मैं ने दीवाल पर आइनस्टाइन सुवाच देखा :- जिन्दगी साईकिल की तरह है। बैलेन्स बनाये रखने के लिए चलते रहना जरूरी है। हाय! आइनस्टाइन ने जो कहा था, मेरे घुटने भी हर पल वही कहते हैं। जय सियाराम!

बगल की दीवार पर डेकार्ते का सुवचन सुधा :-जब कोई भी मुझे आघात पहुँचाने की कोशिश करता है, तो मैं अपनी रूह को पंछी की तरह और ऊपर उठा लेता हूँ, ताकि उसका वार खाली जाए !

सामने बड़े से हॉल में जाने कितने लोग परिवार के साथ बैठे कुछ खा पी रहे हैं। हॉल दो तरफ से खुला है। सड़क की ओर काँच की दीवार। वहाँ बैठे बैठे आप बाहर के दृश्य का अवलोकन भी कर सकते हैं। बीच में यहाँ से वहाँ तक लंबा काउंटर। पैसा दो, सामान लो। और आगे गिफ्ट शॉप। इधर छोटे दरवाजे से घुसते ही दायें एक कनाडा टूरिस्ट इन्फार्मेशन सेन्टर। हर जगह की पुस्तिका वहाँ रक्खी हुई हैं। वहाँ कौन कौन से देखनेलायक स्थल हैं। हमने भी दो एक उठा ली। सब फ्री।            

एक चीज यहाँ विचित्र है। दर्शनीय स्थलों की सूची में म्यूजियम, जंगल और छोटे जहाज से हजार द्वीपों की जल यात्रा के साथ साथ ऑन्टारिओ, किंग्सटन और कई शहरों के ‘हॉन्टेड प्लेसेस’ यानी भूतहा स्थलों का भ्रमण भी शामिल है। यानी वहाँ जाकर आप भूत भूतनी से कह सकते हैं,‘सर, मैडम, जरा एक कप कॉफी पिलाइयेगा ?’ क्या बात है! इहलोक परलोक का सेतु। जहाँ मिले इहलोक परलोक, वहाँ क्या खुशी और क्या शोक?

नाश्ते में हमलोगों ने लिया इंग्लिश मॅफिन्स और कॉफी। आगे आने वाले दिनों में कॉफी से ज्यादा हम दोनों ने चाय ही पी। काफी या चाय के मग की साइज भी माशे अल्लाह। आप पी सकते हैं, साथ साथ उसमें डुबकी भी लगा सकते हैं। यहाँ के लोग उसी मग को हाथ में लिये घूमते टहलते है, और दौड़ने भी जाते हैं। मॉल वगैरह में भी सबके हाथों में वही बड़े बड़े मग।

मैं बार बार रुपाई को परेशान कर रहा था,‘इतनी जबर्दस्त बारिश हो रही है, जरा शीशा उतार दूँ ?’

‘अरे नहीं पापा, रास्ते से छिटक कर कंकड़ या छोटे पत्थर आ सकते हैं। सारे वेहिक्ल इतनी तेज जो चलते हैं।’

दोपहर बाद हम पहुँचे गैनानॉक। पाँच छह हजार की जनसंख्या वाला एक गांव या कस्बा, कुछ भी कह लीजिए। वहाँ के मार्केट यानी मॉल बाजार के सामने कार को पार्क किया गया। झूम कहने लगी, ‘चलिए, जरा सब्जी वगैरह खरीद लें।’

अंदर जाकर तो हक्का बक्का रह गया। एक तरफ सिर्फ तरह तरह की पावरोटी। कोई मसालेदार, तो किसी में फुलग्रेन। उधर बड़े बड़े सेल्फ पर सब्जियाँ। कितनी तरह की शिमला मिर्च। लाल, पीली, नारंगी और हरी की तो बात ही छोड़िए। यहाँ टमाटर गुच्छे में बिकते हैं। एक गुच्छे में पाँच छह। एक तरफ चिकन वगैरह। उधर चावल, तो दूसरी ओर अचार और जैम। ट्राली लाओ, उसमें सामान भर लो। फिर जाओ काउंटर में पेमेंट करके लेते जाओ।  

यहाँ से अट्ठाईस किमी दूर है किंग्सटन। वहाँ पहुँचते पहुँचते हमने सेंट लॉरेन्स नदी पर देखा एक अद्भुत नजारा। अचानक कार रोक दी गयी। देखते देखते सामने ब्रिज का एक हिस्सा ऊपर उठने लगा। रुपाई का चेहरा खिल उठा,‘अरे पापा, देखो देखो – नीचे से जहाज और लॉच को पास देने के लिए नदी के ऊपर जगह बनायी जा रही है। यह दृश्य तो हम भी पहली बार ही देख रहे हैं।’

सारे वाहन शांत होकर खड़े हैं। पूरे रास्ते भर में हमने एकबार भी हार्न की आवाज नहीं सुनी। और बनारस में – ? जहाज चले गये। धीरे धीरे सेतु बंधन हो गया। फिर जस का तस। चले चलो।

झूम का घर किंग्स स्ट्रीट में एक बड़े से एपार्टमेंट में है। सामने ही अंटारिओ लेक। इमारत के बाहर लकीर खींच कर कार पार्किंग बनाया गया है। तिरपन नंबर इनका है। असमर्थ या अशक्त लोगों के लिए मेन बिल्डिंग के पास ही पार्किंग है। और कोई वहाँ कार नहीं रख सकता। ठीक सामने कई मेपल के पेड़। बगल में झील का पानी घुसता जा रहा है। वही कई बत्तख तैर रहे हैं। आस पास सफेद भूरे सी गल पक्षी दाना ढूँढ़ रहे हैं, या उड़ रहे हैं। उनकी आवाज बड़ी तेज है – क्यों क्यों ! जाने क्या पूछ रहे हो भाई ?

सातवें मंजिल पर पहुँचा। बिटिया के घर पहली बार आना हुआ। झूम की मां फट से खिचड़ी और आलूभाजा बनाने लगी।

‘बाबा, आप दोनों इस कमरे में रहिए।’ झूम सामने के कमरे की तरफ इशारा कर रही है। और कमरे में दाखिल होते ही –       

‘अरे यह क्या!’ बिस्तर पर मेरे लिए दो नयी कमीज। रुपाई का उपहार। यह नहीं कह सकते कि अरे इसकी क्या जरूरत थी। बस खुशी जाहिर करो। वरना उसे बेचारे का दिल दुखने लगेगा।

बैठके की बगल में एक बड़ा सा शीशे का स्लाइडिंग डोर। उसके पार पहुँचे तो दंग रह गये। सामने ऑन्टारीयो लेक के ऊपर तैरती याक्ट नावें। दांये बिल्डिंग के ठीक नीचे केवाईसी (हमारे बैंकवाला नहीं) – किंग्सटन याक्ट क्लब। पक्के तट पर सैंकड़ो सफेद नाव रखी हुई हैं। सारे सदस्य यहाँ आकर अपना याक्ट लेकर सेलिंग करने निकल जाते हैं। यहाँ तो लोग कार के पीछे याक्ट लाद कर चलते हैं।

शाम की चाय पर बात हो रही थी।

‘फर्स्ट जुलाई को यहाँ कनाडा डे मनाया जाता है। देखने जाइयेगा?’ रुपाई पूछता है।

‘क्यों नहीं ?और तुम ?’

‘मुझे तो यूनिवर्सिटी में जरा काम है। दस बजे तक फायरवर्क्स होंगे। देखनेलायक चीज है।’

तो वही हुआ। वह चला गया क्वीनस यूनिवर्सिटी के स्ट्रैटेजी एंड ऑरगानाइजेशन डिपार्टमेंट में। अपना रिसर्च पेपर तैयार करने। हम तीनों पैदल कॉनफेडरेशन हॉल की ओर रुख किये। चौड़ी साफ सड़क। यहाँ राह किनारे बैठे आप आराम से खाना भी खा सकते हैं। दोनों ओर फूलों की बहार। हर बिल्डिंग के सामने करीने से सजे हुए फूल। छोटी छोटी घास की क्यारियाँ। रास्ते में कोई हार्न नहीं। झुंड के झुंड लोग चले जा रहे हैं। कोई हँस रहा है। कोई गा रहा है। युवक- युवती, वृद्ध-वृद्धायें सभी एक दूसरे के हाथ में हाथ डाल कर चले जा रहे हैं। और कितनों के साथ कितने खूबसूरत कुत्तें। जनाब, यहाँ तो कुत्ते भी फालतू के नहीं भौंकते। वाह रे शराफत !

सीटी हॉल यानी कि कॉनफेडरेशन हॉल के ठीक सामने भयंकर भीड़। सामने कॉनफेडरेशन पार्क में रोशनी के फव्वारे। उधर किसी बैंड का संगीत का कार्यक्रम चल रहा है। साथ साथ लोग भी गा रहे हैं। गुनगुना रहे हैं। एक खुशनुमा माहौल। बच्चे और नौजवान – यहाँ तक कि कई बूढ़े भी नाच रहे हैं। महिलायें भी थिरक रही हैं। स्थूलकाय आदमी एवं स्थूलांगी रमणियाँ भी जरा भी नहीं हिचकते। बचपन में वो कौन सा गाना सुना था – जोहर महमूद इन गोवा में? – जरा धीरे रे चलो मोरी बांकी हिरनिया, कमर न लचके हाय सजनियां! यहाँ आनन्द मनाने में कोई रोक टोक नहीं। एक मेला। कल क्या होगा किसको पता? अभी जिन्दगी का ले लो मजा! इनमें कूट कूट कर जिजीविषा भरी हुई है। जिन्दगी की प्याली से जिन्दादिली छलक रही है।

बेटी बोली,‘पापा, लग नहीं रहा है कि आगे कहीं एक चाट गोलगप्पेवाले का ठेला भी होगा ?’

बिलकुल सही फरमाया मेरी बेटी ने। ‘और नानखटाई भी ?’

मेला मेला मेला, यहाँ कोई नहीं अकेला! उधर घास पर बैठी लड़कियां जोर शोर से बात कर रही हैं। एक सफेद सा कुत्ता दौड़ते हुए उनके पास पहुँचता है। कुत्ता घास पर लोट पोट कर कह रहा है,‘ मुझे भी तो दुलार करो।’  

इतने में हॉल की घड़ी में टन टन …..रात के दस बज रहे हैं। संगीत का कार्यक्रम खत्म। दन दन दन्न्। शुरू हो गई आतिशबाजी। जगमगा उठा रात के आकाश का तमस। सितारे भी अंचभित। अरे ओ माई, यह जमीं पर कहाँ से तारे खिल गये! झिलमिलाती रोशनी,रंगारंग कार्यक्रम। सर् र् र् आसमां में जा उड़ा कोई पटाखा। रंगबिरंगी रोशनिओं की पिचकारी। फिर धम्म्…..। कभी कभी गगन में कोई चेहरा भी खिल उठ रहा है। काशी के घाटों के किनारे इधर कई सालों से कार्तिक पूर्णिमा की शाम से होता रहता है ऐसी ही आतिशबाजी का कार्यक्रम। देव दिपावली। कई लाख की भीड़ इकठ्ठी हो जाती है घाट किनारे। वहाँ सड़कों पर कोई वाहन चल नहीं सकता, सिवाय ‘रसूखदारों’ के। सारी जनता पैदल।

अब तो रामकटोरा पोखरा और ईश्वरगंगी पोखरे आदि के किनारे भी देवदिपावली मनायी जाने लगी है। यानी कई मोहल्लों में …। पानी की लहरों पर नाचती रहती हैं दीप शिखा के प्रतिबिंब। सरोवर के घाटों के किनारे सजे दीयों को देखकर लगता है मानो जलकन्या कह रही है,‘देखो देखो मेरे हाथों के कंगन और चूड़िओं को तो देखो ….’

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! – भाग – 4 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 4 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आज से आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

हम हैं ऊपर, आसमाँ नीचे                 

रवाना होते समय इंद्रप्रस्थ में थी यामिनी। यहाँ तो भास्कर भास्वर है। यहाँ भी पंख फड़फड़ाना और मशीन की गर्जन के अलावा उड़ान भरते समय और कुछ खास पता नहीं चला। खिड़की से देखा विमान के पंख तिरछे और सीधे हो रहे थे। देखते देखते हम नभचर हो गये। फिर खातिरदारी की वही श्रृंखला। अबकी लंच में मैं ने लिया चिकन चावल। धर्मपत्नी ने लिया पास्ता। मैं बंगाली, तू इतालियन।

सामने की सीट के पीछे लगी छोटी स्क्रीन में प्राण संचार करने में अब कोई दिक्कत नहीं हुई। रिमोट पर टक टक करते हुए मेनू देखता रहा। दो हिन्दी फिल्म यहाँ भी सूचीबद्ध। एक स्वदेश और दूसरी – ? नभ में बालीवुड की शान! यह है आपुन हिन्दुस्तान ! पर देखूँ तो क्या देखूँ ? आँखें खुली रखना ही मुश्किल। मगर नींद के बलमा आयौ नाहीं। सखी पलक बिछावन काँहे बिछाही ?

सामने के पार्टिशन पर लगे स्क्रीन पर देखने से पता चला – अरे हम तो अटलांटिक महासागर पार कर चुके हैं। नीचे मेघमालाएँ तरंगहीन लहरों की तरह स्थिर थीं। रवीन्द्रनाथ की एक चार पंक्ति की कविता (आकाशे सोनार मेघ/कतो छबि आँके …..) हो जाए :- मेघ सुनहले चित्र बनाये/नभ आँगन में घिर घिर आये/अपना नाम लिख नहीं जाता/ केवल सर्जन में सुख पाता। हे पाठक – पाठिका, इस अज्ञानी से जितना हो सका मैं ने रवीन्द्र कविता का अनुवाद कर दिया। अगर त्रुटि हो तो अवश्य मार्जना करें। अति अपार जे सरित बर जौं नृप सेतु कराहिं। चढ़ि पिपीलिकउ परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहिं। हे दरबारे इल्म के काजी, मैं ने तुलसी बाबा को ही अपने पक्ष में खड़ा कर दिया। बालकांड में तो उन्होंने ही ऐसा लिखा है – बड़ी बड़ी प्रसिद्ध नदिओं पर राजा जब पुल बना देते हैं, तो मामूली चींटी भी उन पर चढ़ कर बिना श्रम के ही नदी को पार कर जाती है।

बादलों का जत्था न आगे बढ़ रहा था, न इधर उधर ही जाता। ग्रीक दार्शनिक जेनो ने भी क्या खूब फरमाया है :- दुनिया में कुछ भी गतिशील नहीं है। जिसे हम गति कहते हैं, उसमें हर एक बिंदु पर वह वस्तु या तो है, या नहीं है। यानी कहीं स्थानांतरण हो ही नहीं रहा है। इस निखिल ब्रह्मांड के अन्तस्थल में सारी गतिशीलता सारी स्थिरता एकाकार हो जाती है। क्या ठहरना, क्या चलना? चतुर्दिक एक उज्ज्वल दिव्य प्रकाश से सराबोर।

बंगाली तो स्वभाव से ही अड्डेबाज होते हैं। तो चलिए, इन जेनो महाशय के बारे में थोड़ी गुफ्तगू हो जाए। इनके बाद ग्रीस के साइटियम शहर में एक दूसरे जेनो (335 से 264 ईसा पूर्व) नामके दार्शनिक भी हुए थे। उनमें और इनमें मत कन्फ्युजिया जाइयेगा। तो हमारे जेनो ग्रीस के एलिया शहर में रहते थे। उनका जीवनकाल शायद 490 से 430 ईसा पूर्व तक का था। यानी सुक्रात जब बीस साल के थे, तो ये करीब चालीस के। ग्रीक दर्शन की दुनिया में इन्होंने ही शायद सर्वप्रथम डाइलेक्टिस यानी द्वन्द्वात्मकता के सिद्धांत का प्रयोग किया था। जरा सोचिए, इसी द्वन्द्वात्मकता की विधि हेगेल से होता हुआ कार्ल मार्क्स तक पहुँची। ज्ञान की धारा भी हमारी गंगा से कम नहीं है। कहाँ से कहाँ पहुँच जाती है। जैसे हमारी जातक कथायें ग्रीस होते हुए पहुँची थी यूरोप में। उन्हीं का अनुसरण करते हुए ग्रीस में ही ईशप फेबल्स की रचना हुई। ईशप महोदय भी वहाँ के दास ही थे (620-560. ईसा पूर्व)। सोचिए जरा उनकी रचनाओं के कारण वहाँ के पुरोहितों ने उनकी हत्या तक कर दी। यही है कलम की ताकत।

हमारे जेनो ने गति एवं स्थिरता को लेकर कई आत्म विरोधी सूत्र दिये। यानी पहेलियाँ। एक तीर अपने लक्ष्य तक कैसे पहुँच सकता है ? वह या तो तरकश में है, या नहीं है। उसी तरह उसने या तो लक्ष्यभेद कर लिया है या नहीं किया है। बस। भले ही कूट तर्क हो, पर भाई साहब, हँसिये मत। सोचिए, उस जमाने में इस तरह सोचने में समर्थ होना, कम बड़ी बात नहीं थी। नेट में उन पर बनी एक पेंटिंग है कि वे अपनी शिष्य मंडली को लेकर दो दरवाजे के सामने खड़े हैं। एक सत्य का द्वार है, दूसरा असत्य का।

और एक बात है। उसी जमाने में ग्रीस के किसी राज्य में नियारकस नाम का एक तानाशाह शासन करता था। जेनो ने उनके खिलाफ लोगों को लामबंद किया। शायद उसे जान से मारने की कोशिश तक नौबत आ पहुँची थी। मगर जैसा कि हर ऐसे आंदोलन के साथ होता है। वे असफल हुए एवं उन्हें कारावास का दंड मिला। जेल में वह नियारकस बार बार उनसे कहता कि, ‘बाकी षडयंत्रकारियों के नाम बतला दो, तो तुम्हें मैं मुक्त कर दूँगा।’

पहले तो वे बारंबार इन्कार करते रहे। आखिर एकदिन जेनो ने कहा,‘ठीक है, तुम अपना कान मेरे मुँह के पास लाओ। मैं जोर शोर से अपने साथिओं के साथ तो दगाबाजी नहीं कर सकता। बस मैं तुम्हारे कान में उनके नाम बतला दूँगा।’

अपने खिलाफ विद्रोह करने वालों का नाम जानने को उत्सुक नियारकस जरा झुक कर जेनो के मुँह के पास अपना कान ले गया। और बस ….। जेनो ने अपने दाँतों से उसका कान काट कर अलग कर दिया। जेनो को तो अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। मगर वह तानाशाह भी कनकट्टू होकर जिन्दा रहा।

इधर उड़ते उड़ते ……….

हे स्वच्छता के भगीरथ, बाबू विंध्येश्वरी पाठक, क्षमं देहि। अब बनारसी कुबुद्धि का क्या किया जाए ? डिनर के दो तीन घंटे बाद लगा कि संध्याकालीन निवृत्ति भी हो जाए। जरा अंतरिक्ष में ‘वो’ करने का लुत्फ उठायें। मैदान में तो सारा हिन्दुस्तान मैदान करने जाता है। सारी दुनिया में ‘बाहर शौच’ करने के मामले में तो हम अव्वल हैं। 28.9.14. के हिन्दुस्तान में शशिशेखर लिखते हैं 60करोड़ लोग प्रतिदिन खुले में शौच करते हैं, जबकि 70 करोड़ के पास मोबाइल है। क्या कहने ! मुझे लगा मेघ के ऊपर मेघ मल्हार राग छेड़ने का आनन्द उठाया जाए। आप सोच रहे होंगे – तजौ रे मन हरि बिमुखन के संग। जाको संग कुबुधि उपजत है, पड़त भजन में भंग। चुप बे, लंठाधिराज बनारसी ! कहीं ‘घर घर शौचालय’ का ब्रान्ड अम्बेसडर विद्या बालन ने सुन लिया तो ….?

वापस आ गये। थोड़ी देर के उपरान्त ……..

घोषणा हो रही है – हम इतनी देर में मॉन्ट्रीयल पहुँचनेवाले हैं। बेल्ट वगैरह बाँध लीजिएगा।

इधर विदाय वेला उपस्थित। आखिरी नाश्ता कहें ? अरे बापरे! आखिरी ? नहीं भाई, किंग्सटन में जाकर बेटी के हाथ का बना नाश्ता भी तो खाना है। खैर इधर डिक्लारेशन फार्म दे गया। ‘यहाँ बैठे बैठे इसे भर लीजिए।’ वही सारे सवाल एवं और भी कुछ। क्यों भाई आप चावल दाल फूल वगैरह कोई ऑर्गेनिक वस्तु तो कनाडा में नहीं न ला रहे हैं ? किसी से कहियेगा मत। आते समय बिटिया के लिए थोड़ी काजू की बर्फी ले आये थे। उसकी बुआ दे गई थी। या खुदा, जामाता को भनक न लगे। वह कानून का अक्षरशः पालन करने वाला शख्स है।

अभी तो मॉन्ट्रीयल शहर की झलक भी खिड़की से दिखाई नहीं पड़ रही है। दांपत्य वार्तालाप ‘अरे बादलों को देखो! याद है ? ऐसा ही हमने देखा था ऊटी से झुकझुक रेल से चलकर कुन्नूर में। नीलगिरि पहाड़श्रृंखला में डोडाबेटा पहाड़ के ऊपर। चारों ओर पंछियों की कुहुक। बगल से बहते झरने का कलकल। 1858 मीटर ऊँचाई से सफेद कुहासे के घूँघट ओढ़े नील कुन्नूर का दीदार। हम थे ऊपर – मेघ माला नीचे। फिर ऐसा ही नजारा था अरुणाचल में। तावांग से बमडिला लौटते समय सेला पास के बौद्ध मोनॉस्ट्री के सामने। उतनी ठंड में बेटे को लेकर हम दोनों वहाँ चाय पीने ठहरे थे। साथ में आलू के पराठे थे। मगर उसे फाड़ कर खाये कौन माई का लाल ? हाथ में तो मानो कँपकँपी छूट रही थी। इतनी ठंड। और सामने ? अद्भुत, अनुपम! गगन की नदी में पल पल रूप बदलते बादलों की लहरें।’

और आज ? वही दृश्य। सार्थक हुई उड़ान !

             और अगर कालिदास मेघदूत लिखने के पहले इन बादलों को देखे होते, तो ?

वो – वो रहा पेड़ों की हरी हरी छाजन। ऊँची ऊँची इमारतें। बीच से जाती सर्पिल सड़क। प्लेन बाज की तरह नीचे उतर रहा है। वो एअरपोर्ट। मॉन्ट्रीयल एअरपोर्ट को यूल कहते हैं। जैसे काशी एअरपोर्ट का नाम लाल बहादुर शास्त्री एअरपोर्ट है। वहीं कहीं खड़ी होगी मेरी बिटिया – बाबू अम्मां कब पहुँचेंगे ? पास में खड़ा होगा जमाईराजा। हाँ, मेरी भवानी, हम पहुँच गये। शादी के इतने सालों बाद हम तेरे पास पहुँच रहे हैं। बस अब चंद मिनटों का सवाल है। अरे चंद मिनटों का नहीं जनाब ……

प्लेन से बहिर्गमन। साथ में प्लेन क्रू की मुस्कुराहट का तोहफा। केएलएम और उसके बिजनेस पार्टनर एअर फ्रान्स की ओर से ढेर सारी शुभकामनायें! आपकी यात्रा मंगलमय हो! हम आशा करते हैं कि आप जब भी गगनचारी बनियेगा तो इस गरूड़ को सदा याद कीजिएगा! धन्यवाद!

फिर सर्पिल रास्तों से होते हुए इमिग्रेशन काउंटर। घंटों सफर के बाद अब लाइन में खड़े रहो। डेस्क तक पहुँचा तो यह सवाल, वह सवाल। कहाँ जायेंगे ? किंग्सटन ? किसके पास जाइयेगा ? बेटी दामाद के पास? कैसे जायेंगे? वे दोनों लेने आ रहे हैं? अपने देश से तम्बाकू सिग्रेट वगैरह लाये हैं ? अरे छि छि राम कहो। अरे जनाब इस बनारसी बंगाली के मुँह में पान की लाली तक नदारद है। सालों पहले एक नाटक में विलेन का रोल अदा करने के लिए सिगरेट जरूर फूँकना पड़ा था। सिगरेट फूँका क्या था, बस सुलगा कर हाथ में थामे रहा। कई लोगों का कमेंट था, ‘क्या भाई विलेन, सिगरेट के धुआँ से तो तुम्ही भाग रहे थे!’ सामने दर्शकों के बीच पिताश्री भी मौजूद थे। हे तात, ऊपर बैठे मुझे क्षमा करना !

अरे अपना चेक इन लगेज कहाँ से लें? इधर से जाइये। सीढ़ी से उतर कर लगेज बेल्ट से अपना दोनों सूटकेस लेने पहुँचा। चक्रवत परिवन्तते सुखानि च दुखानि। बेल्ट घूमता जा रहा है ! सामने से दूसरों के सूटकेस चले जा रहे हैं, घर घर….. घर घर ……. मगर हमारे सूटकेस कहाँ गये ? उसमें तो दामाद का नाम पता भी चस्पां रहा। पहचानने के लिए जोगिया रंग का एक रिबन भी लगा था। तो -? 

‘अरे मिस्टर, ऐम्सटर्डम के सामान तो आठ नम्बर बेल्ट पर आ रहे हैं।’ यहाँ भी आठ ? यह आठ नंबर नहीं, मानो अष्टश्रवा ब्रह्मा का वरदान है। चले चलो। जिन खोजां, तिन पाइयाँ !

वो वो रहा वो काला सूटकेस! पकड़ो, पकड़ो, उठाओ! अरे तो मैरून वाला कहाँ गया ? आ रहा होगा, यार!

पहिये पर उभय सूटकेस को खींचते हुये हम यूल के आँगन से बाहर निकले।

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! – भाग – 3 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 3 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आज से आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

मझधार 

ऐम्सटर्डम उतर कर पीठ पर बैग यानी केबिन लगेज लेकर चलते रहो। हमारा चेक इन लगेज हमें मॉन्ट्रीयल में ही मिलेंगे। मैं ने श्रीमती से पूछा, ‘भारत में चेक इन लगेज की कोई रसीद मिली थी?’ पता चला वह तो बोर्डिंग पास में ही लगी हुई है।

कदम कदम बढ़ाये जा, खुशी के गीत गाये जा! तो हम चलता बने। दाहिने बांये। बांये दाहिने। कहाँ से कहाँ। कहीं कहीं वृद्ध वृद्धायें उनके लिए बनी जगह में इंतजार में हैं कि कब उनके लिए एअरपोर्ट की सवारी गाड़ी आये। वहाँ हम लोगों के बैठने की मनाही है। अरे साहब, हम भी ठहरे सीनियर सिटीजन। उम्र के साठ नंबर घाट पर जीवन नैया लग चुकी है। फिर भी सफाई एवं इन्तजाम के मामले में जरूर कहेंगे – हमारी दिल्ली सवा सेर। और कहीं भी इस दूरी को तय करने के लिए एअरपोर्ट टैक्सी सुलभ नहीं है। एक जगह रुक कर एक डच ऑफिसर से पूछा,‘हमें अगली केएलएम फ्लाइट से मॉन्ट्रीयल जाना है। तो -’

‘हाँ आगे जाकर बांये लाइन में लग जाइये। वहीं सिक्यूरिटी चेक होगा।’ उन्होंने निर्देश दिया।

फिर सर्पिल लाइन आगे खिसकती गई। सामने बेल्ट पर खिसकती ट्रे की कतारें। हाथ में मेटल डिटेक्टर लिये ऑफिसर लोग खड़े हैं। इनमें कई अफ्रीकी भी हैं। याद रखिए इन्हें निग्रो कहना शिष्टाचार के विरुद्ध है। पर साहित्य में तो निग्रो कविता की एक अलग धारा है। आप कलर्ड कह सकते हैं। वाह भई, सीधे रंगभेद पर उतर आये ? हाँ तो क्या कह रहा था ? ऑफिसर ने कहा, ‘मोबाइल पर्स सब ट्रे पर रक्खें। बेल्ट भी। ‘बाई डेफिनेशन’ यही सिक्यूरिटी चेक है।’ आदेश का पालन करते रहे। इधर मैं, उधर वो। अरे भाई विदेश भ्रमण के चक्कर में मेरी ‘वो’ खो न जाए। इकलौती हैं। बुढ़ौती की दहलीज पर खड़े मैं फिर क्या करूँगा ?

 मेरी खूबी देखकर नहीं, बल्कि पिताश्री की प्रतिष्ठा के कारण ही मुझे वो मिल सकी थीं। उन दिनों मेरी जेब का वजन ही क्या हुआ करता था ? असीम शून्य को गँठिया के चलता था। ससुरजी ने सोचा होगा कि ‘चलो डक्टरोआ की कमाई जितनी भी हो। बेटी के सर पर एक छत तो मिलबे करेगी।’

हाँ, तो हमारे किसी महामहिम को अतलांतिक पार जाने पर जाने क्या क्या खोलना पड़ा था ! वाह रे साम्राज्यवाद! तुमको देना है दाद! क्या क्या  दिखलाओगे, और क्या क्या देखोगे ? एक सवाल – कदंब की डाल पर बैठे नटखट कान्हा यमुना में नहा रहीं गोपिओं का सिक्योरिटी क्लिअरेंस ले रहे थे क्या ? क्या इसी एपिसोड का नाम है वस्त्रहरण ? राधे! राधे! 

ऐम्सटर्डम के समयानुसार दो बजे की फ्लाइट है। यानी छह घंटे का पापड़ बेलन कार्यक्रम। मैं ने अपनी घड़ी को लोकल ‘टाइमानुसार’ मिला लिया था। चलो विदेशी ‘दरबारे परिन्द’ यानी एअरपोर्ट का चक्कर लगाया जाए। मैं ने श्रीमती से कहा, ‘प्लेन में उदर बैंक एकाउन्ट में क्रेडिट तो हो गया था। अब जरा उस एकाउन्ट से डेबिट भी कर लें।’ यानी ‘लू’, यानी ‘नम्बर टू’। (विद्वज्जनों, ऑक्सफोर्ड एडवान्सड् लर्नर’स डिक्शनरी ऑफ करेन्ट इंग्लिश में नंबर वन और नंबर टू उन्हीं अर्थो में दिया गया है। सो कृपया मेरे ऊपर अश्लीलता का, भदेसिया होने का दोषारोपण न करें।) मानस के अयोध्याकांड में है :- बिद्यमान आपुनि मिथिलेसू। मोर कहब सब भाँति भदेसू।। राम को मनाने जंगल में आये लोगों से वे कहते हैं, ‘आप (वशिष्ठजी) एवं जनकजी के रहते मेरा कुछ कहना सब प्रकार से भद्दा या अनुचित है।’    

तो दिशा निर्देश पढ़ते हुए आगे बढ़ता गया एवं आखिर – वो वो रहा प्रातःकालीन आरधना का वह मंदिर। बस एनक्वैरी काउंटर के सामने यानी बांये। अर्द्धांगिनी को बाहर बिठाकर मैं अंदर हुआ दाखिल। वही सफाई। चमाचम। मगर दो तीन सज्जन पहले से खड़े थे और सामने के दरवाजे अवरूद्ध। तो यह है प्रभात वेला की पंक्ति। कभी वे दायें पैर पर बैलेंस सँभाल रहे हैं, तो कभी बायें पैर पर। यानी जोर का लगल हौ, गुरु! किंचित विलम्ब के पश्चात एक कपाट खुला। मैं ने खुद को रोका। क्योंकि अंदर किनारे में एक श्यामसुंदरी सफाई कर रही है।

अच्छा, यह तो बताइये कि श्यामा के अर्थों में सुंदरी स्त्री के साथ साथ विशेषकर षोडशी का भी उल्लेख क्यों मिलता है ? राजपाल में नहीं है। पर जरा संक्षिप्त हिन्दी शब्द सागर कोश तो खोल कर देखिए। श्रवण कीजिए सूर की विशेषणावली :- श्यामा कामा चतुरा नवला प्रमुदा सुमदा नारि। ‘मेघदूत’ में आये श्यामा शब्द के अर्थ में मल्लिनाथ ने युवती कहा है। भट्टिकाव्य के लिए भरतमल्लिक ने लिखा है :- तप्तकांचनवर्णाभा सास्त्री श्यामेति कथ्यतेः! याद है अमिताभ बच्चन, शत्रुघ्न सिन्हा, प्रेम चोपड़ा और शशि कपूर अभिनीत वो फिल्म ‘काला सोना’? मानस के बालकांड में लिखा है कि श्रेष्ठ देवांगनाएँ सुन्दरिओं के भेस में राम विवाह देखने मिथिला पहुँची हैं। सभी स्वभाव से ही सुन्दरी और श्यामा यानी सोलह बरस की लग रही हैं। वाह! नारि बेश जे सुर बर बामा। सकल सुभायँ सुंदरी स्यामा।। जरा गौर फरमाइये – हमारे महाकाव्यों के दोनों महानायक पात्र – राम एवं श्रीकृष्ण भी श्याम वर्ण के हैं। कहा जाता है बॉलीवुड में गोरे चिट्टे नवीन निश्चल के पत्ते गोल कर दिये थे एक नये नये आये ऐंगरी इयंग मैन ने। जिनकी ऊँचाई तो काफी थी, साथ साथ वो कुछ साँवले ही थे। टॉल, डार्क एवम् हैन्डसम!

चलिए भाई, समय हो गया। मैं भी हो गया निर्भय। मगर कार्य के पश्चात यह क्या? जलक्रीड़ा करने का तो कौनो साधन नाहीं ! फिर भी काशी में गंगा पार दिशा फिरना एक बात है और यहाँ तो यूरोप के किनारे विदेश की पृष्ठभूमि में उस कार्य का सम्पादन करना – अपने आप में एक चरमोत्कर्ष है। उत्तरी सागर के समीप हॉलैंड की राजधानी में वह लुत्फ उठाना, वाह! मानो अपनी काली काली आँखों से किसी नील नैनवाली से नैना लड़ाना !

मगर होनी को कौन टाल सकता है? नियति को न बाध्यते ? सखा पार्थ को दिव्यरूप दिखानेवाले, गीता का महोपदेश सुनानेवाले घनश्याम अपनी बहन सुभद्रा के लाडले को, यानी अपने भाँजे तक को तो बचा न सके। काम तो सकुशल संपन्न हो गया। मगर सरवा दरवज्जा नहीं खुल रहा है। दाहिने, बांये। हैंडिल घुमाता रहा। परंतु सारी चेष्टा व्यर्थ। खुल जा सिमसिम! चालीस डाकुओं के गुफा में बंद अलीबाबा के भ्राताश्री कासिम की तरह मैं परेशान। आखिर जितनी एबीसीडी की अंग्रेजी आती है, उसी के बल पर मैं चिल्लाया,‘हेल्प! एनि बॉडी देअर ? प्लीज हेल्प!’

थोड़ी देर में वही वामाकंठ – अफ्रीकी सुर में,‘व्हाट हैपेन्ड? एनि बॉडी इनसाइड?’

तो और कहाँ हूँ महारानी ? अब दूर करो मेरी परेशानी !

‘वेट। आयाम यूशिंग माई की -। जस्ट बी पेशेंट।’

अरे बहनजी, यहाँ तो मैं सचमुच का पेशेंट बन गया हूँ। चलो विहंग हुआ मुक्त। बाहर निकलते ही बीवी की बहन मुस्कुराकर कहती क्या हैं,‘पैंट की जीप तो लगा लो।’ 

मन्ना दे याद आ गये। ‘कैसे समझाऊँ ? बड़ी नासमझ हो।’ पहले साबुन से हाथ तो धो लें। सकल सौच करि जाइ नहाए। नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए।। (बालकांड। शौचक्रिया करके राम लक्ष्मण जाकर नहाये। फिर नित्यकर्म समाप्त करके विश्वामित्र को मस्तक नवाया।)

फिर प्रस्थान। चक्करम् यत्र तत्र। एक उपहार केन्द्र में पहुँचा। लकड़ी के बने खूबसूरत रंगबिरंगी ट्यूलिप के फूल बिक रहे हैं। विभिन्न आकार के। लाल हरे नीले काले पीले वगैरह ….। मगर मूल्य ? बंगला में एक शब्द है – अग्निमूल्य ! जैसे इस समय प्याज का भाव है। अरे हिन्दी के पाणिनी, यहाँ वह शब्द प्रचलित क्यों नहीं है ?बड़े छोटे कई साइज के। कुछ तो गुच्छों में भी बिक रहे थे। आखिर हमने डरते डरते फ्रिज के दरवाजे पर लगाने वाले तीन बनी और टेडी लिए। उपहार में देने के लिए। कीमत? दस यूरो के तीन। यानी सात सौ रुपये। सभी ने कहा था,‘रुपये में हिसाब मत लगाया करना। वरना एक बोतल पानी खरीदना भी दुश्वार हो जायेगा।’

नेदरलैंड होने के कारण इन दुकानों में और एक चीज खूब बिकती है। तरह तरह की वस्तुओं से बनी गाय। सफेद पर काले या भूरे धब्बे। वाह! अच्छा, अगर नंदबाबा अपने कान्हा और बलराम को लेकर यहाँ आते तो क्या होता? बेचारी यशोदा अपने नन्हे को सँभालने की कोशिश करती रहतीं और कन्हैया माँ का हाथ छुड़ा छुड़ा कर भागते,‘बाबू, हम्में वो वाली गाय दिला दो न।’

जो सारी दुनिया को सारा खजाना दे, वही तो ऐसे अकिंचन की भूमिका बखूबी से निभा सकता है।

उसके आगे जाते जाते एक बीयर की दुकान के सामने हम खड़े हो गये,‘अरे यहाँ तो कॉफी भी बिक रही है। चलो।’ मूल्य एवं मात्रा दोनों अच्छी तरह समझ बूझ कर मैं ने एक छोटी कप ली। उसीसे हम दोनों का काम निपट जायेगा। दुकानदार ने बताया तीन साइज की कप में कॉफी मिलती है। लार्ज, मिडियम और स्मॉल। दुकानदार एक नौजवान था। क्या हाइट! उससे बातचीत होती रही। कहाँ से आये हैं? कहाँ जा रहे हैं ? मॉन्ट्रीयल में किसके पास जा रहे हैं ? वहाँ नहीं, किंग्सटन में आपकी बेटी रहती है? वहाँ काम करती है ? अच्छा, आपका दामाद क्वीनस् यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं ? तो फिर आपको इतने दूर कैसे रिश्ता मिल गया ? अच्छा, तो आपके यहाँ अभी भी बाप माँ ही शादी ब्याह का निर्णय लेते हैं ? वाह!

कॉफी पीते हुए अगल बगल बैठे सज्जनों से भी हाय हैलो होता रहा। मैं ने तो पहले से ही पैसा दे रक्खा था। भई, बाद में कोई बखेड़ा खड़ा न हो कि मैं ने तो इतना बताया था आपही समझ न सके, वगैरह। एक लिफाफे में विदेशी मुद्रा लेकर हम चल रहे थे। उसमें कनाडियन डॉलर भी थे। उन्हें देखकर उसने पूछा, ‘अरे ये नोट कहाँ के हैं ?’

‘कनाडा के।’

बस बात शुरू हो गई कि आप कहाँ के हैं? कनाडा में कहाँ जा रहे हैं?

बैठे बैठे आते जाते लोगों को भी देख रहा था। मैं ने श्रीमती से कहा, ‘डच बालायें सुन्दरी हों न हों, मगर उनकी हाइट तो बस माशा अल्लाह! यहाँ की जसोदा तो जमीन पर खड़े खड़ेे अपने कृष्ण के लिए चंदामामा को उतार ला सकती हैं।’

दुकान से निकला। फिर घुमक्कड़ी। नहाने की प्रबल इच्छा हो रही थी। गाड़ी पर बैठे एक सफाई करनेवाले सज्जन से पूछा तो उसने इशारे से दिखा दिया – सीढ़ी से ऊपर चले जाओ।

अरे उधर तो एक दिशा निर्देश भी लगा है। सीढ़ी से उठकर बोर्ड देखा तो धड़ाम। नहाने की फीस पंद्रह यूरो। यानी ……..। अमां, छोड़ो यह हिसाब लगाना। यहाँ तो ऐसे ही पसीने छूट रहे हैं।

बेटी ने कह रक्खा था यहाँ के मैक्डोनल्ड का चिकन बर्गर का स्वाद जरूर लीजिएगा। उसी दूसरी मंजिल पर ही वे दुकानें थीं। पहली दुकान तो सिर्फ वेज की थी। चिकन बर्गर के साथ हमने आम अनन्नास का जूस भी लिया। दोनों उत्तम। ऊपर बैठे बैठे नीचे का नजारा ले रहा था। अरे वो देखो – वो हिन्दुस्तान के लग रहे हैं न? हाँ हाँ, औरत के हाथ में शांखा टाइप की चूड़ी है। सिन्दूर है कि नहीं ख्याल किया ?ऊपर से कैसे देखते भाई ?   

तभी सामने ग्राउंड फ्लोर पर एक उपहार केन्द्र की ओर देखा तो देखते ही रह गया। अरे वाह! एक बड़ी सी गाय की स्टैचू खड़ी है दुकान के सामने। याद आ गया गोदौलिया गिर्जाघर के बीच का चिकन कार्नर की दुकान। जहाँ एक जीता जागता सांड़ हर समय दुकान के अंदर बैठा रहता था। आजकल उसकी मूर्ति है वहाँ। और एक सांड़ की काली मूर्ति है मेनका मंदिर के सन्निकट।

पता चला यहाँ भी हमारी फ्लाइट गेट नम्बर आठ से ही छूटेगी। फिर प्रतीक्षा। हम जब वहाँ पहुँचे तो वहाँ बिलकुल सुनसान था। अरे भाई, हम कहीं गलत जगह पर तो नहीं न आ गये? इधर उधर पूछा। सभी ने कहा – आगे आगे देखिए होता है क्या।

बैठे बैठे चित्रांकन आदि। देखा एक नल से फव्वारे की तरह पानी निकल रहा है। चलो उसे पीकर आयें। एक अफ्रीकी दीदी अपनी छोटी बहन को सँभाल रही थी। बच्ची कितनी निश्चिन्त थी। अँगूठा चूसते हुए मुझे घूर रही थी। ज्यों मेरी नजर उसकी आँखां से मिलती वह मुँह फेर लेती। नन्ही की नजाकत।

एक सज्जन आगे खाली पोर्टिको में बैठे योगा करने लगे। मैं भी वहाँ जाकर जरा अपनी कमर एवं घुटने की सेवा करने लगा। फिर धीरे धीरे उधर ही जमावड़ा इकठ्ठा होने लगा। हम जहाँ बैठे थे, उसकी दाहिनी ओर एक शीशे  की दीवार थी। थोड़ी देर में देखा कि वहाँ पता नहीं कौन सा जापानी मार्शल आर्ट सिखाया जा रहा है। नृत्य के छंद में सशक्तिकरण। लयबद्ध क्रम में सबके हाथ हिल रहे हैं। कभी ऊपर, कभी सामने तो फिर नीचे। चारों ओर तमाशबीन। उन्हें कुछ फर्क नहीं पड़ता। वाह! अपने में मस्त।

इतने में नील परिओं का आगमन एवं मेरा मुग्धावलोकन। यानी दीदारे हुस्न। साथ साथ दीदारे हाइट। प्रयोग सही है न? फिर डुगडुगी बजी – चलो, लगो लाइन में। उधर पता नहीं बीच बीच में साइरेन जैसी कैसी आवाज हो रही थी, तो ऑपरेटिंग डेस्क पर बैठा खिचड़ी दाढ़ीवाले ऑफिसर बार बार उधर दौड़ा जाता। यहाँ बस के टिकट की तरह बोर्डिंग पास को फाड़ा नहीं गया। हम अंदर दाखिल हुए।

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#83 – आखिरी प्रयास ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #83 – आखिरी प्रयास ☆ श्री आशीष कुमार

किसी दूर गाँव में एक पुजारी रहते थे जो हमेशा धर्म कर्म के कामों में लगे रहते थे। एक दिन किसी काम से गांव के बाहर जा रहे थे तो अचानक उनकी नज़र एक बड़े से पत्थर पर पड़ी। तभी उनके मन में विचार आया कितना विशाल पत्थर है क्यूँ ना इस पत्थर से भगवान की एक मूर्ति बनाई जाये। यही सोचकर पुजारी ने वो पत्थर उठवा लिया।

गाँव लौटते हुए पुजारी ने वो पत्थर के टुकड़ा एक मूर्तिकार को दे दिया जो बहुत ही प्रसिद्ध मूर्तिकार था। अब मूर्तिकार जल्दी ही अपने औजार लेकर पत्थर को काटने में जुट गया। जैसे ही मूर्तिकार ने पहला वार किया उसे एहसास हुआ की पत्थर बहुत ही कठोर है। मूर्तिकार ने एक बार फिर से पूरे जोश के साथ प्रहार किया लेकिन पत्थर टस से मस भी नहीं हुआ। अब तो मूर्तिकार का पसीना छूट गया वो लगातार हथौड़े से प्रहार करता रहा लेकिन पत्थर नहीं टूटा। उसने लगातार 99 प्रयास किये लेकिन पत्थर तोड़ने में नाकाम रहा।

अगले दिन जब पुजारी आये तो मूर्तिकार ने भगवान की मूर्ति बनाने से मना कर दिया और सारी बात बताई। पुजारी जी दुखी मन से पत्थर वापस उठाया और गाँव के ही एक छोटे मूर्तिकार को वो पत्थर मूर्ति बनाने के लिए दे दिया। अब मूर्तिकार ने अपने औजार उठाये और पत्थर काटने में जुट गया, जैसे ही उसने पहला हथोड़ा मारा पत्थर टूट गया क्यूंकि पहले मूर्तिकार की चोटों से पत्थर काफी कमजोर हो गया था। पुजारी यह देखकर बहुत खुश हुआ और देखते ही देखते मूर्तिकार ने भगवान शिव की बहुत सुन्दर मूर्ति बना डाली।

पुजारी जी मन ही मन पहले मूर्तिकार की दशा सोचकर मुस्कुराये कि उस मूर्तिकार ने 99 प्रहार किये और थक गया, काश उसने एक आखिरी प्रहार भी किया होता तो वो सफल हो गया होता।

मित्रो, यही बात हर इंसान के दैनिक जीवन पर भी लागू होती है, बहुत सारे लोग जो ये शिकायत रखते हैं कि वो कठिन प्रयासों के बावजूद सफल नहीं हो पाते लेकिन सच यही है कि वो आखिरी प्रयास से पहले ही थक जाते हैं। लगातार कोशिशें करते रहिये क्या पता आपका अगला प्रयास ही वो आखिरी प्रयास हो जो आपका जीवन बदल दे।

 

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 2 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 2 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आज से आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

पहली उड़ान :

टिकट कटवाते समय दामाद ने स्थानान्तरण (सीट चेंज) शुल्क अदा करके खिड़की की बगल में सास ससुर की सीट बुक करवा दी थी। इतना तो पता था कि सीट बेल्ट बाँधना पड़ता है। मगर अभैये या बाद में ? चलो भाई, वेटिंग फॉर गोडोट (सैमुएल बेकेट का नाटक)! इतने में घर घर घर घर। बिलार के गुर्राने की तरह प्लेन की मशीन चलने लगी। पहले डच भाषा में, फिर अंग्रेजी में स्वागत अभिभाषण । फ्लाइट के बाल कांड एवं उत्तरकांड में यानी आदि एवं अंत में हिन्दी में भी। कुर्सी के सामने की सीट के पीछे सीट बेल्ट लगाने की विधि एवं अन्य सावधानियाँ लिखी हुई हैं।

उन्हें पढ़ते ही मेरी अन्तरात्मा चीख उठी – अरे कोई है? मुझे किसने हवाई जहाज पर चढ़ाया ? मुझे गगनविहारी नहीं बनना। अरे भार्या के भ्राता, मुझे उतारो। इतने में सामने लगी टीवी स्क्रीन पर इमर्जेन्सी एक्सिट समझा रहा था – कि मुड़कर देख लो तुम्हारी सीट के नजदीक कौन सा इमर्जेन्सी गेट है। प्लेन में आग लगे या विमान दुर्घटनाग्रस्त हो तो गले में ट्यूब लटकाकर उस गेट से खिसक जाना। नीचे कूद जाना। अरे बापरे! मजाक समझ रक्खा है क्या ? तोर गिरा में लगे आग। तिस पर तुर्रा यह कि विमान के अंदर ट्यूब को मत फुलाना। नीचे गिरते हुए या गिर जाने के बाद उसे फुलायें ? अईयो अम्मां ! गिर जाने के बाद उसे फुलाने की जरूरत रह जायेगी ?

इधर उधर देखा। क्या करता ? किसी ने कहा था – खूब सिनेमा देखना। सामने की सीट के पीछे लगी टीवी स्क्रीन को जीवंत करने के लिए कुर्सी की बगल से रीमोट उठा कर खटखुट करता रहा। मगर सारी प्रचेष्टा व्यर्थ। आखिर सामने की सीट पर बैठे सज्जन के पास पहुँचा,‘जनाब, जरा बतलाने की कृपा करें कि टीवी को कैसे चलायें ?’

उन्होंने अपने रीमोट पर सारे भेद बता दिये। मगर क्या देखें ? हाँ, दूसरे की स्क्रीन पर देखा कि शाहरूख का ‘चक दे इंडिया’ चल रहा है। फिर लिस्ट में पढ़ा कि ऋशि कपूर – श्रीदेवी की फिल्म ‘चाँदनी’ भी इनमें शामिल है। बालीवुड जिन्दाबाद ! हिन्दी फिल्म रहे आबाद ! मैं कार्टून ही देखता रहा। रवीन्द्रनाथ ने ‘शिशु भोलानाथ’ में कुछ ऐसा लिखा है :- छोटा बच्चा बनने की हिम्मत किसको है ? केवल चीज बटोरने की फिकर सबको है !       

निशावसान हो चला था। करीब चार बजे तक यानी ब्राह्ममुहूर्त में एक नील परी का आगमन हुआ। ट्रे से निकाल कर वह गर्मा गरम टिश्यूपेपर नैपकिन थमा गयी। गरमा गरम कचौड़ी नहीं। हाथ पोंछ लेने के पश्चात प्रतीक्षा और इंतजार। अंग्रेजी के ‘वेट’(प्रतीक्षा) शब्द की वर्तनी को जरा बदल दो तो वह ज्यादा वजनदार हो जाता है कि नहीं?

मैं ठहरा बनारसी, बंगाली, विप्र (एवं वैद्य भी)। एक बनारसी पंडित की कहानी याद आ गई।

किसी ने अपने बाप की तेरही में उस पंडित को निमंत्रण दिया था। तो उस दिन सुबह सुबह नहा धो लेने के पश्चात किसी तरह ओम नमो विवश्वते कहकर वह दौड़ा उस जजमान के घर,‘श्राद्धादि का कार्य सकुशल सम्पन्न हो गया है न ?’

‘जी पंडितजी, अभी तो हवन का कार्य चल रहा है। अभी भोग लगने में देरी है।’

‘अच्छा, जरा अपनी घड़िया चेक कर लो बाबू। कहीं उसकी बैटरीये न डाउन हो।’

‘मेरी घड़ी तो टाइमे से चल रही है। आप समय से आइयेगा।’जजमान ने अपने हाथ जोड़ लिये।

‘ठीक है। ठीक है। तथास्तु।’

खैर, दोपहर का खाना निपट गया। पंडितजी ने खाया, एवं खूब डकारा भी। सीधा बांधा। फिर मेजबान की स्तुति करने एवं उसे थैंक्यू कहने पहुँच गये,‘क्या सोंधी सोंधी कचौड़ी थी, गुरु। देशी घी की खुशबू से तबीअत प्रसन्न हो गया। बैकुंठ में बैठे तुम्हारे पिताश्री भी प्रसन्न हो रहे होंगे। और बेसन के लड्डू की तो बाते न पूछो। हाँ तो भैया, फिर कब ऐसा दिव्य भोजन करवा रहे हो ?’

‘मतलब !?’ वह जजमान जरा अचंभे में पड़ गया। पंडितजी कहना क्या चाहते हैं ?

‘यानी तुम्हारी अम्मां का स्वर्गवास कब होने वाला है ?’

क्या इसके आगे कहानी को जारी रखना जरूरी है? यह तो गनीमत थी कि स्वर्गीय पिता की त्रयोदशा होने के कारण उसदिन मेजबान नंगे पैर थे। वरना…..      

हमारे पेट में चूहे कूद नहीं रहे थे, वे ओलम्पिक की तैयारी कर रहे थे।

सामने के बिजनेस क्लास और इधर के इकोनॉमी क्लास के बीच जो वर्ग विभाजन का पर्दा लहरा रहा था, उसे हटाकर एक ट्राली का आविर्भाव हुआ। ड्रिंकस् का दौर शुरू हो गया। हमने एक ऐपेल जूस और एक ऑरेंज जूस लिया। धत्, तेरी की। सेब के जूस का स्वाद तो बिलकुल दवा जैसा है !

फिर डिनर। मुर्गे बांग देने के वक्त डिनर ? पारिभाषिक शब्दावली में यह सही है न? ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी कहती है :- मध्यदिन या शाम के वक्त का मुख्य भोजन है डिनर। चेम्बर्स का कहना है :- प्राचीन फ्रेंच शब्द डिसनर का अर्थ है ब्रेकफास्ट यानी नाश्ता। लैटीन का डिस यानी ‘नकारना’ (जैसे डिसकरेज, डिसमिस) और ‘जेजुनस’ यानी उपवास से डिसनर बना है। तो उपवास तोड़ने का मतलब तो ब्रेकफास्ट ही न हुआ? फ्रान्स और इंगलैंड के बीच भले ही कितने झगड़े हों, कनाडा पहुँचने पर तो उनके युद्ध और संघर्ष वगैरह के बारे में और भी बहुत कुछ पता चला, फिर भी यह सच है कि अंग्रेजों का भोजन या डिनर शब्द तो फ्रेंच लोगों की ही देन है। हाँ एक बात और – डिनर डान्स तो शाम को ही न होता है? डिनर जैकेट तो शाम की ही पोशाक है न ? खैर, वेज नॉनवेज किसी ने पूछा भी नहीं। एक प्लास्टिक के ट्रे में ये सामग्रियाँ आयीं – ब्रेड – एक लंबा और एक गोल। गोलवाला गरम था। कच्ची पातगोभी, गाजर – यह सब्जी है क्या? फिर दही जैसा कुछ। लंबेवाले ब्रेड में अदरक के साथ कुछ मसाले। बर्गर ? साथ में एक लम्बे लिफाफे में प्लास्टिक के डिसपोजेबल कांटा, चम्मच, टिश्यू पेपर आदि। कुल मिला के मजा नाहीं आयल, गुरु।

जामाता ने खिड़की की बगलवाली सीट तो बुक करवा दी थी। मगर इस अँधेरे में नजारा क्या लेते ? कहाँ मेघ और मेघदूत ? कहाँ उमड़ते घुमड़ते बादल? कहाँ नीलाकाश के नैन का निमंत्रण ? हम दोनों तो कुछ निराश ही हो गये। यहाँ तो – इस रात की हर ख्वाब काली। दिल की बात कहो घरवाली। खैर, बीच बीच में उठते रहे। ताकि घुटने के कब्जे या जोड़ में जंग यानी मोरचे न लग जाए। हाँ, उड़ते समय विमान का पंख फरफराना, फिर सीधी उड़ान भरना – इनमें न आया चक्कर, न बजे कान। जबकि श्रीमती ने पहले से ही रुई का गोला हाथ में थमा दिया था। मैं ने देखा एक वृद्धा बाला भी दिव्य बैठी हुई हैं। बेहिचक। दिल ने कहा,‘धत, इसकी क्या जरूरत है ?’

नींद आयी या सिर्फ भरमायी ? पता नहीं। मैं तो संयम बरतता रहा। घड़ी नहीं देखी। जब मर्जी पहुँचो, प्यारे। हम धरती से काफी ऊँचाई पर अंबर में उड़ रहे थे। साथ में बहता समय का महासागर। तो फिर उतावली किस बात की ? केबिन की बत्तियाँ बुझा दी गई थीं। पूरा माहौल एक धुँधलकी रोशनी में सराबोर। न प्रकाश, न अंधकार। एक छायाभ, बस। जाने कब फिर चारों ओर बत्तियां जल उठीं। इतने में घोषणा – ऐम्सटर्डम आनेवाला है। नेदरलैंडस यानी हॉलैंड की राजधानी। यह देश यूरोप के पश्चिमोत्तर छोर पर स्थित है। इसके बाद तो नर्थ सी। फिर अटलांटिक महासागर को पार करना है।     

इतने में नाश्ते की ट्रे हाजिर। यह कुछ ठीक है। बन, ब्रेड, आलू और स्ट्राबेरी दिया हुआ दही – यह अच्छा था। इसी तरह और कुछ।

अरे हाँ, हर बार भोजन के साथ ‘ड्रिंक्स’ की संगति भी। यह जग है बोतल जैसा, उस बिन जीना भी कैसा ? साथ साथ फलरस। अमृत कलश छलकता जाए …..

फिर से यह बाँधो, वह बाँधो। आ गया है एक किनारा। पंछी को नभ का था सहारा।

उधर देख लो परदेश का नजारा। जिन्दगी में पहली बार। ऐम्सटर्डम दिख रहा है। क्षितिज तक फैले हुए खेत। बीच से बहती नदी। एक विहंगम दृश्य। सब कुछ कितना हरा भरा है !

‘सँभाल कर अपना बैग ऊपर से उतारें। किसी के सर के ऊपर वह लैंड न कर जाए। ऐम्सटर्डम का समय यह है ……वगैरह वगैरह। ’आकाश में वाणी प्रसारित होने लगी।

फिर से एअर क्रू का मुस्कुराना,‘बाई! फिर मिलेंगे।’

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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