डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 2 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आज से आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

पहली उड़ान :

टिकट कटवाते समय दामाद ने स्थानान्तरण (सीट चेंज) शुल्क अदा करके खिड़की की बगल में सास ससुर की सीट बुक करवा दी थी। इतना तो पता था कि सीट बेल्ट बाँधना पड़ता है। मगर अभैये या बाद में ? चलो भाई, वेटिंग फॉर गोडोट (सैमुएल बेकेट का नाटक)! इतने में घर घर घर घर। बिलार के गुर्राने की तरह प्लेन की मशीन चलने लगी। पहले डच भाषा में, फिर अंग्रेजी में स्वागत अभिभाषण । फ्लाइट के बाल कांड एवं उत्तरकांड में यानी आदि एवं अंत में हिन्दी में भी। कुर्सी के सामने की सीट के पीछे सीट बेल्ट लगाने की विधि एवं अन्य सावधानियाँ लिखी हुई हैं।

उन्हें पढ़ते ही मेरी अन्तरात्मा चीख उठी – अरे कोई है? मुझे किसने हवाई जहाज पर चढ़ाया ? मुझे गगनविहारी नहीं बनना। अरे भार्या के भ्राता, मुझे उतारो। इतने में सामने लगी टीवी स्क्रीन पर इमर्जेन्सी एक्सिट समझा रहा था – कि मुड़कर देख लो तुम्हारी सीट के नजदीक कौन सा इमर्जेन्सी गेट है। प्लेन में आग लगे या विमान दुर्घटनाग्रस्त हो तो गले में ट्यूब लटकाकर उस गेट से खिसक जाना। नीचे कूद जाना। अरे बापरे! मजाक समझ रक्खा है क्या ? तोर गिरा में लगे आग। तिस पर तुर्रा यह कि विमान के अंदर ट्यूब को मत फुलाना। नीचे गिरते हुए या गिर जाने के बाद उसे फुलायें ? अईयो अम्मां ! गिर जाने के बाद उसे फुलाने की जरूरत रह जायेगी ?

इधर उधर देखा। क्या करता ? किसी ने कहा था – खूब सिनेमा देखना। सामने की सीट के पीछे लगी टीवी स्क्रीन को जीवंत करने के लिए कुर्सी की बगल से रीमोट उठा कर खटखुट करता रहा। मगर सारी प्रचेष्टा व्यर्थ। आखिर सामने की सीट पर बैठे सज्जन के पास पहुँचा,‘जनाब, जरा बतलाने की कृपा करें कि टीवी को कैसे चलायें ?’

उन्होंने अपने रीमोट पर सारे भेद बता दिये। मगर क्या देखें ? हाँ, दूसरे की स्क्रीन पर देखा कि शाहरूख का ‘चक दे इंडिया’ चल रहा है। फिर लिस्ट में पढ़ा कि ऋशि कपूर – श्रीदेवी की फिल्म ‘चाँदनी’ भी इनमें शामिल है। बालीवुड जिन्दाबाद ! हिन्दी फिल्म रहे आबाद ! मैं कार्टून ही देखता रहा। रवीन्द्रनाथ ने ‘शिशु भोलानाथ’ में कुछ ऐसा लिखा है :- छोटा बच्चा बनने की हिम्मत किसको है ? केवल चीज बटोरने की फिकर सबको है !       

निशावसान हो चला था। करीब चार बजे तक यानी ब्राह्ममुहूर्त में एक नील परी का आगमन हुआ। ट्रे से निकाल कर वह गर्मा गरम टिश्यूपेपर नैपकिन थमा गयी। गरमा गरम कचौड़ी नहीं। हाथ पोंछ लेने के पश्चात प्रतीक्षा और इंतजार। अंग्रेजी के ‘वेट’(प्रतीक्षा) शब्द की वर्तनी को जरा बदल दो तो वह ज्यादा वजनदार हो जाता है कि नहीं?

मैं ठहरा बनारसी, बंगाली, विप्र (एवं वैद्य भी)। एक बनारसी पंडित की कहानी याद आ गई।

किसी ने अपने बाप की तेरही में उस पंडित को निमंत्रण दिया था। तो उस दिन सुबह सुबह नहा धो लेने के पश्चात किसी तरह ओम नमो विवश्वते कहकर वह दौड़ा उस जजमान के घर,‘श्राद्धादि का कार्य सकुशल सम्पन्न हो गया है न ?’

‘जी पंडितजी, अभी तो हवन का कार्य चल रहा है। अभी भोग लगने में देरी है।’

‘अच्छा, जरा अपनी घड़िया चेक कर लो बाबू। कहीं उसकी बैटरीये न डाउन हो।’

‘मेरी घड़ी तो टाइमे से चल रही है। आप समय से आइयेगा।’जजमान ने अपने हाथ जोड़ लिये।

‘ठीक है। ठीक है। तथास्तु।’

खैर, दोपहर का खाना निपट गया। पंडितजी ने खाया, एवं खूब डकारा भी। सीधा बांधा। फिर मेजबान की स्तुति करने एवं उसे थैंक्यू कहने पहुँच गये,‘क्या सोंधी सोंधी कचौड़ी थी, गुरु। देशी घी की खुशबू से तबीअत प्रसन्न हो गया। बैकुंठ में बैठे तुम्हारे पिताश्री भी प्रसन्न हो रहे होंगे। और बेसन के लड्डू की तो बाते न पूछो। हाँ तो भैया, फिर कब ऐसा दिव्य भोजन करवा रहे हो ?’

‘मतलब !?’ वह जजमान जरा अचंभे में पड़ गया। पंडितजी कहना क्या चाहते हैं ?

‘यानी तुम्हारी अम्मां का स्वर्गवास कब होने वाला है ?’

क्या इसके आगे कहानी को जारी रखना जरूरी है? यह तो गनीमत थी कि स्वर्गीय पिता की त्रयोदशा होने के कारण उसदिन मेजबान नंगे पैर थे। वरना…..      

हमारे पेट में चूहे कूद नहीं रहे थे, वे ओलम्पिक की तैयारी कर रहे थे।

सामने के बिजनेस क्लास और इधर के इकोनॉमी क्लास के बीच जो वर्ग विभाजन का पर्दा लहरा रहा था, उसे हटाकर एक ट्राली का आविर्भाव हुआ। ड्रिंकस् का दौर शुरू हो गया। हमने एक ऐपेल जूस और एक ऑरेंज जूस लिया। धत्, तेरी की। सेब के जूस का स्वाद तो बिलकुल दवा जैसा है !

फिर डिनर। मुर्गे बांग देने के वक्त डिनर ? पारिभाषिक शब्दावली में यह सही है न? ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी कहती है :- मध्यदिन या शाम के वक्त का मुख्य भोजन है डिनर। चेम्बर्स का कहना है :- प्राचीन फ्रेंच शब्द डिसनर का अर्थ है ब्रेकफास्ट यानी नाश्ता। लैटीन का डिस यानी ‘नकारना’ (जैसे डिसकरेज, डिसमिस) और ‘जेजुनस’ यानी उपवास से डिसनर बना है। तो उपवास तोड़ने का मतलब तो ब्रेकफास्ट ही न हुआ? फ्रान्स और इंगलैंड के बीच भले ही कितने झगड़े हों, कनाडा पहुँचने पर तो उनके युद्ध और संघर्ष वगैरह के बारे में और भी बहुत कुछ पता चला, फिर भी यह सच है कि अंग्रेजों का भोजन या डिनर शब्द तो फ्रेंच लोगों की ही देन है। हाँ एक बात और – डिनर डान्स तो शाम को ही न होता है? डिनर जैकेट तो शाम की ही पोशाक है न ? खैर, वेज नॉनवेज किसी ने पूछा भी नहीं। एक प्लास्टिक के ट्रे में ये सामग्रियाँ आयीं – ब्रेड – एक लंबा और एक गोल। गोलवाला गरम था। कच्ची पातगोभी, गाजर – यह सब्जी है क्या? फिर दही जैसा कुछ। लंबेवाले ब्रेड में अदरक के साथ कुछ मसाले। बर्गर ? साथ में एक लम्बे लिफाफे में प्लास्टिक के डिसपोजेबल कांटा, चम्मच, टिश्यू पेपर आदि। कुल मिला के मजा नाहीं आयल, गुरु।

जामाता ने खिड़की की बगलवाली सीट तो बुक करवा दी थी। मगर इस अँधेरे में नजारा क्या लेते ? कहाँ मेघ और मेघदूत ? कहाँ उमड़ते घुमड़ते बादल? कहाँ नीलाकाश के नैन का निमंत्रण ? हम दोनों तो कुछ निराश ही हो गये। यहाँ तो – इस रात की हर ख्वाब काली। दिल की बात कहो घरवाली। खैर, बीच बीच में उठते रहे। ताकि घुटने के कब्जे या जोड़ में जंग यानी मोरचे न लग जाए। हाँ, उड़ते समय विमान का पंख फरफराना, फिर सीधी उड़ान भरना – इनमें न आया चक्कर, न बजे कान। जबकि श्रीमती ने पहले से ही रुई का गोला हाथ में थमा दिया था। मैं ने देखा एक वृद्धा बाला भी दिव्य बैठी हुई हैं। बेहिचक। दिल ने कहा,‘धत, इसकी क्या जरूरत है ?’

नींद आयी या सिर्फ भरमायी ? पता नहीं। मैं तो संयम बरतता रहा। घड़ी नहीं देखी। जब मर्जी पहुँचो, प्यारे। हम धरती से काफी ऊँचाई पर अंबर में उड़ रहे थे। साथ में बहता समय का महासागर। तो फिर उतावली किस बात की ? केबिन की बत्तियाँ बुझा दी गई थीं। पूरा माहौल एक धुँधलकी रोशनी में सराबोर। न प्रकाश, न अंधकार। एक छायाभ, बस। जाने कब फिर चारों ओर बत्तियां जल उठीं। इतने में घोषणा – ऐम्सटर्डम आनेवाला है। नेदरलैंडस यानी हॉलैंड की राजधानी। यह देश यूरोप के पश्चिमोत्तर छोर पर स्थित है। इसके बाद तो नर्थ सी। फिर अटलांटिक महासागर को पार करना है।     

इतने में नाश्ते की ट्रे हाजिर। यह कुछ ठीक है। बन, ब्रेड, आलू और स्ट्राबेरी दिया हुआ दही – यह अच्छा था। इसी तरह और कुछ।

अरे हाँ, हर बार भोजन के साथ ‘ड्रिंक्स’ की संगति भी। यह जग है बोतल जैसा, उस बिन जीना भी कैसा ? साथ साथ फलरस। अमृत कलश छलकता जाए …..

फिर से यह बाँधो, वह बाँधो। आ गया है एक किनारा। पंछी को नभ का था सहारा।

उधर देख लो परदेश का नजारा। जिन्दगी में पहली बार। ऐम्सटर्डम दिख रहा है। क्षितिज तक फैले हुए खेत। बीच से बहती नदी। एक विहंगम दृश्य। सब कुछ कितना हरा भरा है !

‘सँभाल कर अपना बैग ऊपर से उतारें। किसी के सर के ऊपर वह लैंड न कर जाए। ऐम्सटर्डम का समय यह है ……वगैरह वगैरह। ’आकाश में वाणी प्रसारित होने लगी।

फिर से एअर क्रू का मुस्कुराना,‘बाई! फिर मिलेंगे।’

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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