हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – याचनाएँ ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  – याचनाएँ)

☆ लघुकथा – याचनाएँ ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

वह औरत जो उस प्रसिद्ध मंदिर के बाहर बैठकर भीख माँगती थी, उसकी दोनों टाँगें नाकारा थीं और वह हथेलियों के बल पर घिसटती हुई चलती थी। मंदिर के बाहर लोगों की क़तारें होतीं। वह सोचती – इन खाते-पीते, आराम से चल-फिर रहे साबुत लोगों के पास सब कुछ तो है। आख़िर ये भगवान से और क्या माँगते होंगे? काश, वह इनके मन की याचना को सुन पाती! वह हैरान रह गई जब उसने पाया कि वह इन सब लोगों की मन ही मन भगवान से की गई याचनाओं को सुन सकती है। वह कुछ देर तक सुनती रही। फिर उसका चेहरा तमतमा गया। उसे लगा, उसके कान फट जायेंगे, वह पागल हो जायेगी। इतना लोभ, इतना द्वेष, इतनी निष्ठुरता! किसी ने अकूत दौलत की याचना की थी, किसी ने पड़ोसी की दुकान में आग लग जाने की कामना की थी, किसी ने अपने पिता के लिए मौत माँगी थी। कोई अपने मिलावट के धंधे में बरक्कत की याचना कर रहा था, कोई दवाइयों के कारख़ाने का मालिक महामारी के लिए याचना कर रहा था। ऐसी और भी कितनी याचनाएँ…। उसने कानों में उँगलियाँ ठूँस लीं और चिल्लाई- मुझे दी हुई यह अयाचित शक्ति वापस लो भगवान, मैं आधी-अधूरी जैसी भी हूँ, अच्छी हूँ।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #165 – बाल कहानी – कलम की पूजा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक बाल कहानी – कलम की पूजा)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 165 ☆

बाल कहानी – कलम की पूजा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

 श्रेया ने जब घर कदम रखा तो अपनी मम्मी से पूछा, “मम्मीजी! एक बात बताइए ना?” कहते हुए वह मम्मी के गले से लिपट गई।

“क्या बात है?” श्रेया मम्मी ने उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरते हो पूछा, “आखिर तुम क्या पूछना चाहती हो?”

“यही कि गुरुजी अपनी कलम की पूजा बसंत पंचमी को क्यों करते हैं?” श्रेया ने पूछा तो उसकी मम्मी ने जवाब दिया, “यह भारतीय संस्कृति और परंपरा है जिस चीज का हमारे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान होता है हम उस को सम्मान देने के लिए उसकी पूजा करते हैं।

“इससे उस उपयोगी चीज के प्रति हमारे मन में अगाध प्रेम पैदा होता है तथा हम उसका बेहतर उपयोग कर पाते हैं।”

“मगर बसंत पंचमी को ही कलम की पूजा क्यों की जाती है?” श्रेया ने पूछा।

“इसका अपना कारण और अपनी कहानी है,” मम्मी ने कहा, “क्या तुम वह कहानी सुनना चाहोगी?”

“हां!” श्रेया बोली, “सुनाइए ना वह कहानी।”

“तो सुनो,” उसकी मम्मी ने कहना शुरू किया, “बहुत पहले की बात है। जब सृष्टि की संरचना का कार्य ब्रह्माजी ने शुरू किया था। उस समय ब्रह्माजी ने मनुष्य का निर्माण कर लिया था।”

“जी।” श्रेया ने कहां।

“उस वक्त सृष्टि में सन्नाटा पसरा हुआ था,” मम्मीजी ने कहना जारी रखा, “तब ब्रह्माजी को सृष्टि में कुछ-कुछ अधूरापन लगा। हर चीज मौन थीं। पानी में कल-कल की ध्वनि नहीं थी।

“हवा बिल्कुल शांति थीं। उसमें साए-साए की ध्वनि नहीं थी। मनुष्य बोलना नहीं जानता था। इसलिए ब्रह्माजी ने सोचा कि इस सन्नाटे को खत्म करना चाहिए।

“तब उन्होंने अपने कमंडल से जल निकालकर छिटका। तब एक देवी की उत्पत्ति हुई। यह देवी अपने एक हाथ में वीणा और दूसरे हाथ में पुस्तक व माला लेकर उत्पन्न हुई थी।

” इस देवी को ब्रह्माजी की मानस पुत्री कहा गया। इसका नाम था सरस्वती देवी। उन्होंने ब्रह्माजी की आज्ञा से वीणा वादन किया।”

“फिर क्या हुआ मम्मीजी,” श्रेया ने पूछा।

“होना क्या था?” मम्मीजी ने कहा, “वीणा वादन से धरती में कंपन हुआ। मनुष्य को स्वर यानी- वाणी मिली। जल को कल-कल का स्वर मिला। यानी पूरा वातावरण से सन्नाटा गायब हो गया।”

“अच्छा!”

“हां,” मम्मीजी ने कहा, “इसी वीणा वादन की वर्ण लहरी से बुद्धि की देवी का वास मानव तन में हुआ। जिससे बुद्धि की देवी सरस्वती पुस्तक के साथ-साथ मानव तन-मन में समाहित हो गई।”

“वाह! यह तो मजेदार कहानी है।”

“हां। इसी वजह से माघ पंचमी के दिन सरस्वती जयंती के रुप में हम बसंत पंचमी का त्यौहार मनाते हैं,” मम्मी ने कहा, “इस वक्त का मौसम सुहावना होता है। ना गर्मी,  ना ठंडी और ना बरसात का समय होता है। प्रकृति अपने पूरे निखार पर होती है।

“फसल पककर घर में आ चुकी होती है। हम धनधान्य से परिपूर्ण हो जाते हैं। इस कारण इस दिन बसंत पंचमी के दिन मां सरस्वती की पूजा करके इसे धूमधाम से मनाते हैं।

“चूंकि शिक्षक का काम शिक्षा देना होता है। वे सरस्वती के उपासक होते हैं। इस कारण कलम की पूजा करते हैं,” मम्मी ने कहा।

“तब तो हमें भी कलम की पूजा करना चाहिए।” श्रेया ने कहा, “हम भी विद्यार्थी हैं। हमें विद्या की देवी विद्या का उपहार दे सकती है।”

“बिल्कुल सही कहा श्रेया,” मम्मी ने कहा और श्रेया को ढेर सारा आशीर्वाद देकर बोली, “हमारी बेटी श्रेया आजकल बहुत होशियार हो गई है।”

“इस कारण वह इस बसंत पंचमी पर अपनी कलम की पूजा करेगी,” कहते हुए श्रेया ने मैच पर पड़ी वीणा के तार को छेड़ दिया। वीणा झंकृत हो चुकी थी।

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 © ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

14-12-2022

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 18 – मूकदर्शक ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – मूकदर्शक।)

☆ लघुकथा – मूकदर्शक ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

अपने ही चेहरे को दर्पण के सामने खड़ी होकर मैं देख रही हूं – पाषाणवत स्तब्ध   अपने से ही संवाद करती।

इतनी ठंडी में भी माथे से पसीना जो चुहचुहा रहा था। हृदय पर एक भारी बोझ का अनुभव हो रहा था ।

क्या हो गया मेरे साथ?

किसी तरह से इस जिंदगी में चैन नहीं मिल रहा है पुरानी यादों की किरचें चुभ रही धी।

नहीं, ना वह मुझे छोड़ कर जा सकता है, न ही मैं उसे छोड़ सकती?

हे विधाता यह तूने क्या किया?

ऐसे अगणित सवाल मन में गूंज रहे थे।

सीधे सच्चे पथ के हमराही को कोई डर नहीं होता किसी अनुबंध के टूटने का डर कुटिल और दुष्ट को होता है।

समाज में तो सभी लोग ढाढस बनाने की बजाय अनभिज्ञ होने का स्वांग रचाते हैं और बार-बार वही बातों को दोहराते हैं, छल पूर्वक एक दूसरे के साथ झूठी हंसी का स्वांग रचाते हैं।

हृदयाघात होने के कारण अचानक चल बसे।

समझ नहीं आ रहा था कि विधाता ने कैसा खेल रचा?

क्या कोई हल निकालेंगे।

मेरे पति राम की प्राइवेट नौकरी थी और मेरे पास अब जीवन जीने का कोई सहारा नहीं है पढ़ाई लिखाई भी नहीं की है ?

5 साल के बेटे को अच्छे से पढ़ा सकूं समाज की हमदर्दी से क्या मेरा घर चलेगा?

काश 12वीं के बाद पढ़ाई की होती।

लेकिन कोई बात नहीं, मुझे अच्छा खाना बनाना आता है, और सिलाई भी आती है।

बेटे के सहारे ही अपना जीवन काट दूंगी। समाज का क्या उसकी हमदर्दी भी 4 दिन की है। कोई किसी का नहीं होता, आज इस सच को जान लिया, सब मूर्ख बनाते हैं, सब मूक दर्शक हैं।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 187 – कन्या भोज – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा कन्या भोज ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 187 ☆

🌻 लघुकथा 🌻🌹 कन्या भोज 🌹

घर की साफ- सफाई करते-करते अचानक अलमारी के पुस्तकों के बीच एक कागज मिला कंचन सिहर उठी।

यही वह चिट्ठी थी, जिसने उसके मातृत्व सुख को तार – तार कर दिया था। चिट्ठी सास – ससुर के पास से लिखा गया था…. ‘सुनो पप्पू हमने यहाँ अनाथ बच्चियों के आश्रम जाकर कन्या भोज का इंतजाम करके आए हैं। पंडित जी का भी कहना है कि घर में बेटा पोता ही आएगा।

अब तुम भी कान खोल कर सुन लो हम सभी को बेटे की चाह है। वंश का नाम रोशन होगा।’

‘कल मंदिर के भी जागरण में हमने दान कर पोते के नाम की जयकारा लगवाई है।’ कंचन इसके आगे पढ़ती की पप्पू उसके पति देव की आवाज सुनाई पड़ी…. “क्या हुआ यह जानकर कि मैं सब जानता था तुम्हें गांव से इन सब बातों से दूर रखा। सारी बातें सुनता रहा समझता रहा। ताने सुन सुन आखिरी फैसला था… कि या तो गर्भ में हो रही बच्ची को गिरा दिया जाए या फिर बेटा ही होना चाहिए।”

“मुझे बेटा या बेटी से कोई फर्क नहीं पड़ता है। पड़ता है तो सिर्फ उसकी परवरिश, उसके संस्कार और उसके अच्छे सुनहरे भविष्य के लिए हम क्या कर सकते हैं।  माता-पिता की जिम्मेदारी।”

आज फिर मोहल्ले में कन्या भोज कराया जा रहा था। पप्पू के यहां बिटिया चहकती दौड़ते दौड़ते सभी पड़ोसियों के यहां कन्या भोजन करने जा रही थी।

अचानक शर्मा जी के यहाँ से आने के बाद वह अपनी मम्मी से पूछ बैठी ” मम्मी…. क्या कन्या भोज कराने से घर में वंश होता है?” “आज शर्मा आंटी ने कहा… बेटा तुम कन्या माता रानी का रूप हो वरदान देती जो कि मेरे घर में बेटा पैदा हो।”

“मम्मी.. क्या? आपने कभी कन्या भोज नहीं कराया था। क्योंकि सभी कह रहे थे कन्या भोज करने से बेटा होता है। बोलो ना आपने कराया होता तो मैं भी बेटा ही पैदा होती न।

फिर तो हम सभी एक साथ दादा-दादी के साथ रहते और आपको कड़वी बात नहीं सुननी पड़ती।

अब आप कन्या भोजन कर लेना। वंश आ जायेगा।” मम्मी- पापा अपनी बेटी का मुँह ताकते रहे।

बिटिया रानी अपनी बात कहते फिर चहकते हुए दूसरे घर जाने के लिए दरवाजे के बाहर निकल गई। पास में पड़ी हेयर पिन, चूड़ी, बिंदी, कंगन, डिब्बा, रिबन उपहार में मिले सामान उस मासूम के उपकार को बया कर रहे थे। मम्मी के नैनों से अश्रुं धार बह निकली उसे सहेजने और बटोरने लगी। पतिदेव ने कहा… “बेटियाँ होती ही प्यारी है।”

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 236 ☆ कहानी – खोया हुआ कस्बा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय एवं हृदयस्पर्शी कहानी – खोया हुआ कस्बा। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 236 ☆

☆ कहानी – खोया हुआ कस्बा

रामप्रकाश ऊँचे सरकारी ओहदे से रिटायर हो गये। यानी अर्श से गिर कर खुरदरे फर्श पर आ गये। दिन भर उठते सलाम, ख़ुशामद में चमकते दाँत, झूठी मिजाज़पुर्सी, सब ग़ायब हो गये। ड्राइवर द्वारा उनके लिए अदब से कार का दरवाज़ा खोलने का सुख भी ख़त्म हुआ। जो उन्हें देखकर कुर्सी से उठकर खड़े हो जाते थे अब उन्हें देखकर नज़रें घुमाने लगे। मुख़्तसर यह कि रिटायरमेंट के बाद बहुत से रिश्ते बदल गये। रामप्रकाश जी को अब समझ में आया कि उन्होंने रिश्तो की पूँजी की उपेक्षा करके गलती की। लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी। अब नये रिश्ते बनाना संभव नहीं था।

रिटायरमेंट के बाद सरकारी कार विदा हो जाने वाली थी और कार से उतर कर स्कूटर पर आने की त्रासद स्थिति को वे बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे, इसलिए उन्होंने रिटायरमेंट से तीन महीने पहले एक कार खरीद ली। हमारे देश में असंगठित क्षेत्र में श्रम बहुत सस्ता है इसलिए पाँच हज़ार रुपये में एक ड्राइवर भी रख लिया। इस तरह इज़्ज़त के कुछ हिस्से को महफूज़ कर लिया गया।

राम प्रकाश जी ने नौकरी के दौरान कहीं मकान नहीं बनाया क्योंकि कई बार हुए ट्रांसफर के कारण अंग्रेज़ी मुहावरे के अनुसार उनके पैरों के नीचे घास नहीं उग पायी। उनके कस्बे में उनका पुश्तैनी मकान था जो अब भी उन्हें शरण देने के लायक था। रिटायरमेंट से पहले उनके बच्चे अपनी पढ़ाई पूरी कर अपने ठिकाने बनाने के लिए उड़ गये थे और उन्होंने बच्चों के साथ ज़िन्दगी ‘शेयर’ करने के बजाय अपने कस्बे में फैल कर रहने का चुनाव किया था।

नौकरी में रहते हुए उनका अपने कस्बे में आना कम ही हो पाता था। जब तक उनके माता-पिता वहाँ रहे तब तक चार छः महीने में चक्कर लग जाता था। पिताजी की मृत्यु के बाद माँ उन्हीं के साथ रहने लगीं थीं, इसलिए साल में मुश्किल से एक चक्कर लग पाता था। घर की देखभाल के लिए एक सेवक रख छोड़ा था।

जब पिताजी जीवित थे तब रामप्रकाश कस्बे में आते ज़रूर थे, लेकिन उनका आना वैसा ही होता था जिसे ‘फ्लाइंग विज़िट’ कहते हैं। ज़्यादातर वक्त वे घर में ही महदूद रहते थे। घर से बाहर निकल कर कस्बे की सड़कों पर घूमने में उन्हें संकोच लगता था। उनके ओहदे की ऊँचाई कस्बे की गलियों में पैदल घूमने में आड़े आती थी। वे उम्मीद करते थे कि उनके परिचित उनसे मिलने के लिए उनके घर आयें। इसीलिए कस्बे से ताल्लुक बना रहने के बाद भी कस्बा उनके हाथ से फिसलता जा रहा था। अब कार से झाँकने पर दिखने वाले ज़्यादातर चेहरे अजनबी होते थे। कस्बे की सूरत इतनी बदल गयी थी कि उसमें पुराने निशान ढूँढ़ पाना खासा मुश्किल हो गया था।

अपने कस्बे में आने पर वे पुराने साथियों को फोन करके मिलने का आग्रह करते थे और उनके बचपन के तीन चार साथी उनसे मिलने आ जाया करते थे। ज़ाहिर है ये वही साथी होते थे जो किसी न किसी वजह से कस्बे की सीमाएँ नहीं लाँघ पाये थे और वहीं महदूद होकर रह गये थे। दरअसल ये ऐसे साथी थे जिनका पढ़ाई-लिखाई में लद्धड़पन उनके पाँव की बेड़ियाँ बन गया था। इनमें त्रिलोकी अपवाद था जिसके ज़हीन होने के बावजूद उसके पिता ने गर्दन पकड़कर उसे कपड़े की दूकान पर बैठा दिया था। परिवार की इस  ज़्यादती के बावजूद वह शिकायत नहीं करता था, लेकिन मायूसी और संजीदगी उसके चेहरे पर साफ पढ़ी जा सकती थी।

एक साथी गोपाल था जिसके परिवार की दवा की दूकान थी। रामप्रकाश गोपाल से घबराते थे क्योंकि उसकी ख़तरनाक आदत बात करते-करते सामने वाले के कंधे या जाँघ  पर धौल जमाने की थी। ऐसे मौके पर यदि आसपास उनका ड्राइवर या चपरासी होता तो रामप्रकाश असहज हो जाते। उनकी उपस्थिति से बेफिक्र गोपाल घरहिलाऊ ठहाके लगाता और रामप्रकाश बार-बार पहलू बदलते रहते। अन्य साथी प्रमोद और प्रभुनाथ थे। गोपाल को छोड़कर सभी रामप्रकाश के व्यक्तित्व के सामने दबे दबे रहते क्योंकि उनकी असाधारण सफलता के सामने सभी अपने को पिछड़ा हुआ महसूस करते थे। उन्हें इस बात का गर्व ज़रूर था कि वे इतने सफल और महत्वपूर्ण आदमी के दोस्त थे।

रिटायरमेंट के बाद से रामप्रकाश ने सोच लिया था कि अब कस्बे के पुराने संबंधों को पुख्ता बनाना है क्योंकि अब ये ही लोग उनकी बाकी ज़िन्दगी के हमसफर रहने वाले थे। लेकिन अब मुश्किल यह थी कि अपने घर से बाहर निकलने पर वे पाते थे कि कस्बा उनकी पकड़ से बाहर हो गया है और उससे पहचान बनाने का कोई सिलसिला उन्हें नज़र नहीं आता था। कस्बे की पुरानी खाली ज़मीनें  ग़ायब हो गयी थीं और सब तरफ बेतरतीब मकान और दूकानें उग आये थे। पुराने मकान ढूँढ़ पाना ख़ासा मुश्किल हो रहा था। जो पुराने लोग अब मिलते थे उनके चेहरे इतने बदल गये थे कि उनमें पुराना चेहरा ढूँढ़ निकालने के लिए ख़ासी मशक्कत करनी पड़ती थी। लोग पहले की तुलना में बहुत व्यस्त और कारोबारी दिखने लगे थे।

रामप्रकाश अपने घर के आँगन में लेटते तो आकाश का जगमगाता वितान देखकर उनकी आँखें चौंधया जातीं। यह इतना विशाल आकाश अब तक कहाँ था? शहरों में तो मुद्दत से इतना बड़ा आकाश नहीं देखा, या फिर उन्हें ही उस तरफ सर उठाकर देखने की फुरसत नहीं मिली। बड़े शहरों के लोगों को आकाश और ज़्यादा ज़मीन की ज़रूरत महसूस नहीं होती।

कस्बे में आकर रामप्रकाश ने फुरसत से सुबह घूमना भी शुरू कर दिया था। घने पेड़ों से घिरे, भीड़-भाड़ से मुक्त खुले रास्ते थे। चाहे जैसे चलो, कोई टोकने वाला नहीं। तकलीफ यही होती थी कि यहाँ रास्ते में सलाम करने वाला कोई नहीं मिलता था। रामप्रकाश ही पुराने परिचित लोगों को अपनी कैफियत बताकर संबंधों पर जमी धूल साफ करने की कोशिश करते थे। उन्हें साफ लग रहा था कि लोगों से आत्मीयता बनाने में समय लगेगा।

रामप्रकाश ने निश्चय कर लिया था कि अब घर में रोज़ पुराने दोस्तों की महफिल जमाएँगे। कस्बे में आते ही उन्होंने पुराने दोस्तों से संपर्क करना भी शुरू कर दिया था। दिक्कत यही थी कि टेलीफोन पर जवाब नहीं मिल रहा था। एक त्रिलोकी से ही बात हुई थी और वे बात होने के दूसरे दिन मिलने भी आ गये थे। रामप्रकाश को गोपाल की शिद्दत से याद आ रही थी। अब उसके धौल-धप्पे से बचने की ज़रूरत नहीं थी। त्रिलोकी से मिलते ही उन्होंने गोपाल के बारे में पूछा।

त्रिलोकी ने उनके मुँह की तरफ देख कर जवाब दिया, ‘उसे मरे तो साल भर हो गया। तगड़ा हार्ट अटैक आया था। आधे घंटे में सब खतम हो गया।’

रामप्रकाश ने सुना तो हतप्रभ रह गये। उनका सारा शीराज़ा बिखर गया। कस्बे में सुकून से ज़िन्दगी काटने के समीकरण गड़बड़ हो गये। हसरत जागी कि काश, पहले गोपाल का हाल-चाल लिया होता!

बुझे मन से प्रमोद और प्रभुनाथ के बारे में पूछा। त्रिलोकी ने बताया, ‘प्रमोद भोपाल चला गया। बड़े बेटे ने वहाँ बिज़नेस जमा लिया है। वह बाप का खयाल रखता है। छोटा बेटा यहाँ है।

‘प्रभुनाथ तीन चार महीने पहले स्कूटर से गिर गया था। सिर में चोट लगी थी। तब से दिमागी हालत ठीक नहीं है। बात करते करते बहक जाता है। इसीलिए घर से बाहर कम निकलता है। इलाज चल रहा है।’

रामप्रकाश का सारा प्लान चौपट हो रहा था। अब यहाँ नये सिरे से संबंध बनाना कैसे संभव होगा? स्थिति जटिल हो गयी थी। उनकी पुरानी दुनिया ने उनसे हाथ छुड़ा लिया था और यह नयी दुनिया इसलिए अपरिचित हो गयी थी कि उन्होंने कभी इसकी परवाह नहीं की थी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – हो गया ठीक? ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  – हो गया ठीक?)

☆ लघुकथा – हो गया ठीक? ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

चोट के कारण दादा की उँगली दर्द कर रही थी। उन्हें बेचैन देख ढाई साल के पोते ने पूछा, “दर्द हो रहा है?”

“हाँ।”

पोते ने धीरे से उस उँगली को प्यार से चूमा और पूछा, “हो गया ठीक?”

“हाँ।” दादा ने यह कहकर पोते को चूम लिया। दर्द पता नहीं कहाँ दुबक गया था?

©  हरभगवान चावला

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – बस छूट गई ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  बस छूट गई)

☆ लघुकथा – बस छूट गई ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

दादी पोती को अपना सपना सुना रही थी, “मैं शीशे के इस पार खड़ी थी। शीशे के उस पार यमलोक था। वहाँ तुम्हारे दादा थे, तुम्हारे पापा थे, गाँव के बहुत सारे लोग भी दिखाई दे रहे थे। तभी एक बस आई। शीशे के पार से तुम्हारे दादा बस की तरफ़ इशारा करते हुए चिल्लाए – ‘बस पर चढ़कर आ जाओ।’ मैं बस की तरफ़ दौड़ी कि बस चल पड़ी। मैं बस के पीछे भागी, पर…”

“बस छूट गई, है न!” पोती ने वाक्य पूरा किया।

“हाँ।”

“बहुत अच्छा हुआ।” पोती ताली बजाती हुई ज़ोर से हँसी और तुरंत ही संजीदा हो आई, “हम तीनों बहनों को तुम्हारी बहुत ज़रूरत है दादी! अब कभी बस आए तो छोड़ देना, चाहे दादा कितना ही बुलाएँ।”

दादी ने पोती को अपने सीने से लगाया और कहा, “पक्का छोड़ दूँगी।”

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – होड़ – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  होड़ – ।)

~ मॉरिशस से ~

☆  कथा कहानी ☆ – होड़ – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

सूर्य से उसकी बहुत बड़ी होड़ थी। वह सुबह पहले जागता था इसके बाद सूर्योदय होता था। अपनी इस होड़ में वह तिल भर विचलित होता नहीं था। उसकी वृद्धावस्था में बात दूसरी हुई। सूर्य से होड़ का उसका ताप मद्धम हुआ। उसके लिए अब जैसे लिखा हो गया, “सूर्य का वह मुझ पर तरस ही था वह मुझे अवसर देता था तुम पहले जाग कर आगे चलो, मैं बाद में जाग कर पीछे – पीछे आता हूँ।”
***

© श्री रामदेव धुरंधर

04 – 04 – 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #164 – हाइबन – कोबरा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक हाइबन – कोबरा)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 164 ☆

☆ हाइबन – कोबरा  ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

हाइबन- कोबरा

रमन की नींद खुली तो देखा सावित्री के पैर में सांप दबा हुआ था।  वह उठा। चौका। चिल्लाया,” सावित्री! सांप,” जिसे सुनकर सावित्री उठ कर बैठ गई। इसी उछल कूद में रमन के मुंह से निकला,” पैर में सांप ।”

सावित्री डरी। पलटी । तब तक सांप पैर में दब गया था। इस कारण चोट खाए सांप ने झट से फन उठाया। फुफकारा ।उसका फन सीधा सावित्री के पैर पर गिरा।

रमन के सामने मौत थी । उसने झट से हाथ बढ़ाया। उसका फन पकड़ लिया। दूसरे हाथ से झट दोनों जबड़े को दबाया। इससे सांप का फन की पकड़ ढीली पड़ गई।

” अरे ! यह तो नाग है,” कहते हुए सावित्री दूर खड़ी थी। यह देख कर रमन की जान में जान आई ।

सांप ने कंबल पर फन मारा था।

 

पैर में सांप~

बंद आंखें के खड़ा

नवयुवक।

 –0000–

 © ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

29-01-2023

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 97 – इंटरव्यू : 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  “इंटरव्यू  : 2

☆ कथा-कहानी # 97 –  इंटरव्यू : 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

डॉक्टर, साहब जी की बीमारी समझ गये और अवसाद याने depression का पहले सामान्य इलाज ही किया. पर नतीजा शून्य था क्योंकि अवसाद की जड़ें गहरी थीं. थकहारकर एक्सपेरीमेंट के नाम पर सलाह दी कि “सर आप अपने घर के एक शानदार कमरे को ऑफिस बना लीजिए और वो सब रखिये जो आपके आलीशान चैंबर में रहा होगा. AC, heavy curtains, revolving chair, teakwood large table, two or three phones, intercoms, etc. etc.जब ये सब करना पड़ा तो किया गया और फिर सब कुछ उसी तरह सज गया सिर्फ कॉलबेल या इंटरकॉम को अटैंड करने वाले को छोड़कर.

अंततः ऐसे मौके पर भूले हुए क्लासफेलो जो असहमत के पिताजी थे, याद आये. अतः उनको सादर आमंत्रित किया गया. मालुम था कि असहमत को इस काम के लिये दोस्ती के नाम पर यूज़ किया जा सकता है. असहमत के पिता जी भी इंकार नहीं कर पाये, क्योंकि इस कहावत पर उनका विश्वास था कि कुछ भी हो, निवृत्त हाथी भी सवा लाख का होता है तो इनकी सेवा करके शायद असहमत को कुछ मेवा मिल जाए. और आखिर घर में बैठकर भी वो समाजसुधार के अलावा तो कुछ कर नहीं रहा है. जब असहमत को पिता जी ने अपने पितृत्व की धौंस और उसकी बेरोजगारी की मज़बूरी को तौलकर रिटायर्ड साहब के पास जाने का आदेश दिया तो वो मना नहीं कर पाया.

आपदा को अवसर में बदलने की असहमत की सोच ने उसे अपने साथ हुये सारे दुर्व्यवहारों की ,जिनमें साहब के कुत्ते घुमाने का आदेश भी था, का हिसाब चुकता करने का सही अवसर प्राप्त होना मान लिया.

जारी रहेगा :::

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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