हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रेयस साहित्य # ८ – लघुकथा – सन्नाटा ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆

श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्रेयस साहित्य # ८ ☆

☆ लघुकथा ☆ ~ सन्नाटा ~ ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆ 

मुकुंद साहब की गाड़ी के पोर्च में पहुंचते ही चारों तरफ सन्नाटा छा गया। इधर-उधर, आने -जाने और हर वक्त तफरी की मूड में रहने वाले कर्मचारी बाएं दाए हो लिये। गाड़ी के पास सिर्फ एक-दो गार्ड और चपरासी मिलन मोढ़ा के सिवाय कोई नहीं था।

गाड़ी के रुकने के साथ ही गार्ड ने आगे बढ़कर दरवाजा खोला। मुकुंद साहब अपनी गाड़ी से उतर कर चेम्बर की ओर बढ़ गए। ऑफिस प्यून मिलन मोढ़ा ने बड़े साहब का ब्रीफकेस उठाया और उनके पीछे हो लिया।

इधर मुकुंद साहब, अपने चेम्बर में दाखिल हुए तो मिलन मोढ़ा पुनः वापस आकर बारामदे में बैठ गया।

मुकुंद साहब के ऑफिस में अभी कुछ देर पहले जहाँ शोर-गुल, चहल पहल थी, अचानक सन्नाटा सा छा गया।

मुकुंद साहब का एकाकी जीवन, उनसे न जाने कितने सवाल पूछ रहा था। वहीं आफिस से जुड़े अनेकों सवाल मुकुंद साहब का जीना हराम कर दिए थे।

मुकुंद साहब के ऑफिस की ढेर सारी जिम्मेदारियाँ तो अलग थीं हीं थीं, मुकुंद साहब के घर में ही नाग की तरह फन फैलाये हुए कई उलझें मामले उन्हें बेचैन करने के लिये काफी थे।

मुकुंद साहब के इकलौते बेटे की आदत, बड़े लोंगो की संगत, ऐशोआराम और हास्टल में रहने के कारण काफी खराब हो गई थी। इस बात की चिंता साहब को बार-बार बेचैन किये जा रही थी।

लेकिन साहब होने की सजा यह थी कि उनके पास इस बात को शेयर करने के लिए एक अदद आदमी नहीं था। वे अपने जूनियर अधिकारियों के सामने अपने घर का राज नही खोलना चाहते थे, वहीं अपने बॉस से ऐसी घरेलू बातें करना प्रोटोकॉल तोड़ना था।

आज मुकुंद साहब का मन बुरी तरह से घबरा रहा था। एक तरफ जहाँ ऑफिस की फाइलें उनका सिर नोच रहीं थी तो दूसरी तरफ घरेलू मानसिक तनाव से वे इस कदर परेशान थे कि अपने कमरे में अकेले बैठे हुए अपने सिर के बालों को अपने दोनों हाथों से नोच रहे थे।

मिलन मोढ़ा खिड़की की दरार से यह सबकुछ देख रहा था। उसका मन उससे बार-बार कह रहा था कि वह साहब से जाकर पूछ ले कि आखिर उन्हें परेशानी क्या है। लेकिन साहब के आगे कुछ कहने की क्या, मुंह खोलने की हिम्मत उसके पास नहीं थी। आखिरकार वे उसके विभाग के सबसे बड़े साहब थे।

अपने तनाव से मुकुंद साहब इतने परेशान हो गए कि अंततोगत्वा वे थक कर केबिन के पीछे बने रेस्ट रूम में पड़े बेड पर जाकर लेट गए।

एक बार तो उनके मन में आया कि वे अपनी इस बात को अपने आफिस चपरासी मिलन मोढ़ा को बुलाकर कह दे ताकि उनका तनाव कुछ हल्का हो जाए, लेकिन इतना कहने की भी हिम्मत वे जुटा नही पाए। जबकि उनके साथ सबसे अधिक समय बिताने वाला इकलौता मिलन मोढ़ा ही था। बाकी उन्हें तो अपने चेंबर में अकेले रहना ही रहना होता था।

कार के पास से उनकी ब्रीफकेस को आफिस तक ले जाने से लेकर पूरे टाइम, उनके नाश्ते – पानी का सारा इंतजाम मिलन मोढ़ा ही करता था। लेकिन वह उनके कमरे में देर तक रुकता ही कहां था। साहब का आदेश पूरा होता और वह बाहर आकर एक छोटी सी चेयर पर बैठ जाता था।

आफिस का हर कोई डरते डरते उनके कमरे में प्रवेश करता था और अपनी फाइल हो जाने के बाद, जी साहब नमस्ते! कहते हुए वहां से खिसक लेना चाहता था।

इधर साहब की हनक और आफिस के प्रोटोकॉल के कारण स्थिति ऐसी थी कि वे यह कैसे कह दे कि…नौटियाल साहब दो मिनट रुक जाइए, मुझे आपसे कुछ बातें करनी हैं।

जबकि नौटियाल साहब उनके आफिस में ए0ओ0 थे और बड़े ही मिलनसार एवं सज्जन प्रवृत्ति के व्यक्ति थे।

बड़े बाबू और साहब के बीच का रिश्ता फाइल, नोटशीट और प्रस्ताव से अधिक कुछ भी नहीं था।

मुकुंद साहब जिस आवासीय कॉलोनी में रहते थे उस कॉलोनी में उनके स्तर के दो तीन ही अधिकारी ही रहते थे, बाकी सभी मीडियम क्लास के लोग रहते थे।

उन्हें अपने आवासीय कैंपस के पार्क में भी अकेले ही टहलना पड़ता था। इसके लिए भी उन्हें अलग से समय निकालना पड़ता था ताकि कॉलोनी के अन्य सामान्य लोग उनसे टकरा न जाएं।

वैसे भी कॉलोनी के अन्य सारे रेजिडेंट उनको देखकर यह कहते हुए रास्ता बदल देते थे कि इनसे बातचीत करने से फायदा ही क्या है। ये तो बड़े लोग हैं, हम मध्यमवर्गीय लोगों से क्या बात करेंगे।

वहीं दूसरी तरफ पार्क के झूलों पर और वहां पड़े तखत पर बैठे, मध्य स्तर के लोंगो को आपस में मस्ती करते हुए देखकर मुकुंद साहब का मन दुखी हो जाता था लेकिन न जाने कौन सी ऐसी बात थी, जो उन्हें इन सामान्य लोगों से मिलने से रोक देती थी।

आखिरकार एक दिन मुकुंद साहब के अंदर का तनाव इस कदर बढ़ गया कि वे आफिस से घर जाने के लिए जल्दी निकल लिए। मेट्रो स्टेशन के पास पहुंच कर ड्राइवर को कार रोकने के लिए बोलते हुए कहा –

महेश ! तुम मुझे यहीं उतार दो और वापस लौट जाओ। मुझे कहीं और जाना है। महेश को कुछ भी समझ में नहीं आया कि आखिरकार साहब ने उससे ऐसा क्यों कहा। ऐसा तो उन्होंने आज तक कभी भी नहीं किया था। कहीं जाना भी होता था तो कार से ही जाते थे।

मुकुंद साहब ने ऐसा क्यों किया, यहां से वे कहां जाएंगे यह सब सोचते हुए, कार का ड्राइवर कार को लेकर वापस लौट गया।

आज बहुत दिनों बाद मिलन मोढ़ा समय से पहले घर वापस जा रहा था। कारण यह था कि साहब आज समय से पहले ही निकल गए थे, वरना तो हर रोज मिलन को घर पहुंचने में देर रात हो जाया करती थी। मिलन मोढा आज बहुत खुश था। बहुत दिनों के बाद मिलन को शाम के समय अपने परिवार- बच्चों के पास बैठने और उनसे बातचीत करने का मौका मिलने वाला था।

मिलन अपने घर के नजदीक के मेट्रो स्टेशन पर पहुंचकर स्टेशन से बाहर को निकला। मेट्रो स्टेशन के निकास द्वार के सबसे निचली सीढ़ी के एक किनारे एक व्यक्ति को अपने हाथ में ब्रीफकेस लिए हुए, सिर को दोनों घुटनों के बीच में झुकाए हुए बैठा देखकर मिलन मोढ़ा कुछ देर के लिए ठिठका लेकिन फिर वह आगे बढ़ लिया। उसे सीढ़ी बैठा हुआ व्यक्ति कुछ जाना पहचाना सा लगा।

कुछ दूर आगे बढ़कर उसने दुबारा पीछे मुड़कर देखा तो वह हक्का-बक्का रह गया। लेकिन वह खुद से इतनी भी हिम्मत नहीं जुटा पाया कि सीढ़ियों के पास लौटकर आकर पूछ ले कि साहब आप यहाँ ऐसे क्यों बैठे हैं।

♥♥♥♥

© श्री राजेश कुमार सिंह “श्रेयस”

लखनऊ, उप्र, (भारत )

दिनांक 22-02-2025

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 227 – तन्हा बार ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा तन्हा बार ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 227 ☆

🌻लघु कथा🌻 🍻तन्हा बार 🍻

सिटी/बड़े शहर की जीवन शैली। सब कुछ आधुनिक और दिखावे से परिपूर्ण। भव्यता शानो-शौकत बेशुमार, परन्तु आत्मीयता अपनापन कहीं किसी में भी नहीं।

जगह- जगह शादी, डीजे, रौशनी और कुछ खास थीम जो आजकल का चलन बना हुआ है। परन्तु सबमें एक खास बात मोबाइल का अटेंशन। सब के हाथों में मोबाइल।

धूमधाम से एक बारात निकली जा रही थी। भीड़ रास्ता जाम, अपनी गाड़ी से उतरते महिमा ने धीरे से जहाँ गाड़ी पार्क की, वहाँ पर बड़े – बड़े अक्षरों पर लिखा था – – – तन्हा बार।

थोड़ी देर को उसे लगा कि वह गलत जगह पर खड़ी हो गई। पर यह क्या? जिनको देख कर  वहाँ उसके रौगटे खड़े हो गए, वे उस घर परिवार के मुखिया थे, जहाँ शादी की बारात निकल रही थी। परिचित थे, पारिवारिक आना जाना था। कभी जिन्होंने पान न चबाया, आज उस दुकान से मुँह पोछते निकल रहे।

भाई साहब आज आप यहाँ — हाथ जोड़ उन्होंने कहा – – जो साथ वाले है सभी अपने में मस्त है। मैं सबके साथ कहाँ???  पर मैं अकेले कहाँ भाभी जी, यह केवल नाम का तन्हा लिखा है। यहाँ आने पर पता चला मेरा अपना कौन है? गमगीन आवाज में वे बोले – – असल में बरसो बाद आज पता चला- -असल में साथ देने और दुख दर्द बाँटने वाले यही मिलते हैं।

महिमा आवाक खड़ी रह गई। हाय री दुनिया – – किसी को तन्हा में भी अपनों की महफिल मिली।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – गद्य क्षणिका – मृत्यु – दंश… – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे।

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय गद्य क्षणिका “– मृत्यु – दंश …” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी  ☆ — मृत्यु – दंश — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

मृत्यु उस से टकरायी। मृत्यु न ऊष्मा थी और न वह शीतलता थी। न शाम थी, न वह सुबह थी। न रोग, न चिंता थी। बिना किसी रंग के, बिना किसी चांद के, बिना किसी सूरज के, बिना किसी धरती के, बिना किसी आकाश के, बिना किसी भूख – प्यास के। तब मृत्यु क्या थी, उसे पता चल ही न पाता। वह तो हवा के बिना एक तूफान था, जिससे टकराने पर उसने जाना था यही तो मृत्यु है।

 © श्री रामदेव धुरंधर

07 – 05 – 2025

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : rdhoorundhur@gmail.com

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – “मोमबत्तियां” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ लघुकथा – “मोमबत्तियां” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

-मां ये मोमबत्तियां जलाकर क्यों चल रहे हैं अंकल लोग?

-बेटा, ये कुछ अक्ल के अंधों को रोशनी दिखाने निकले हैं !

-मम्मी, मोमबत्तियां पिघलने लगेंगीं तो गर्म मोम उंगलियों‌ पर गिरेगा, ये तो किसी का क्या बिगड़ा? अपना ही हाथ जलेगा !

-बात तो ठीक है तेरी। फिर तेरी नज़र में क्या करना चाहिए?

– मैं तो कहती हूँ कि ये मोमबत्तियां लेकर उस पापी को जलाओ, जिसने यह गंदा काम किया है !

मां अपनी नन्ही सी बेटी का मुंह देखती रह गयी !!

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रेयस साहित्य # ७ – लघुकथा – आँखों की ज्योति ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆

श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्रेयस साहित्य # ७ ☆

☆ लघुकथा ☆ ~ आँखों की ज्योंति ~ ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆ 

आंखों की दृष्टि जाने पर भी वह नित्य प्रति उठता, शौचादि से निवृत हो, योगेश्वर श्रीकृष्ण के पावन विग्रह के पास ध्यान लगाकर बैठ जाता। अपनी मनःस्थिति पर नियंत्रण प्राप्त करने के लिये, उसका ईश्वर का आश्रय पाना आवश्यक है, ऐसा उसका मानना था।

कुशा से निर्मित आसन पर बैठकर वह, श्रीमद्भगवतगीता के ध्यान योग के विषय में अन्तर्मन से विमर्श करता। भगवान पतंजलि के अष्टांग योग के निर्देशों के अनुरूप योग क्रियाओं का संपादन करता। उसका यह कार्य नित्य प्रति ब्रह्म मुहूर्त में होता।

योग अभ्यास पूर्ण करने के बाद वह योगीराज कृष्ण की आंखों में अपनी आंखें डालकर कहता कि हे योगी श्रेष्ठ! मै आपको भी योग करते हुए प्रतिदिन देखता हूँ। उस नेत्रहीन व्यक्ति के अंत नेत्र प्रतिदिन उसे भगवान कृष्ण के दिव्य स्वरुप में दर्शन कराते।

प्रतिदिन की भांति वह एक दिन योग क्रिया के उपरांत योग मुद्रा से उठा, और अपने चीर बंद नेत्रों को श्री कृष्ण चंद्र की नेत्रों में डालकर प्रणाम की मुद्रा में खड़ा हुआ। अचानक एक दिव्य ज्योंति उसकी नेत्रों में समाई, और अब उसके सामने योगीराज कृष्ण के पावन विग्रह के साथ -साथ, उसके अतीत का सारा दृश्य आलोकित हो रहा था।

इसे उसने योगीराज श्रीकृष्ण की कृपा का परिणाम माना, लेकिन श्री कृष्णचंद की प्रेरणा, उससे यह कह रही थी कि हे भक्त! इन योग क्रियायों के शुभ प्रतिफल को तुम स्वयं अपनी नजरों से देख रहे हो।

बरसों पूर्व एक दुर्घटना में, उसके नेत्रों की ज्योति चली गई थी, मष्तिष्क से नेत्रों तक जाने वाली संवेदनशील तांत्रिकाएं क्षतिग्रस्त हो गई थी, लेकिन ये तांत्रिकायें आज पुनर्जीवित हो गई थीं। अब उसका मस्तक भगवान के श्रीचरणों में था, और योगेंद्र कृष्ण यह कहते हुए, उसके माथे पर अपना पावन हाथ फेर रहे थे कि हे भक्तराज! तुम स्वयं देखो योग की महिमा कितनी बड़ी है।

♥♥♥♥

© श्री राजेश कुमार सिंह “श्रेयस”

लखनऊ, उप्र, (भारत )

दिनांक 22-02-2025

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 19 ☆ लघुकथा – पता नहीं… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख  – “पता नहीं“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 19 ☆

✍ लघुकथा – पता नहीं… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

बेटे के घर न आने के कारण मदन लाल को नींद नहीं आ रही थी। बार बार दरवाजे की ओर देखते। कभी तो दरवाजा खोल कर गली में देखने लगते कि उनका बेटा आ रहा है या नहीं। अंदर से पत्नी की आवाज आती कि सो जाओ, बेटा आ जाएगा,  देर रात जागने से शुगर बढ जाएगी और बीपी भी। जागते रहने और कमरे में टहलते रहने से क्या वह आ जाएगा।

मदन लाल का इकलौता बेटा था नितिन।  अभी उसका विवाह भी नहीं हुआ था। ग्रेजुएशन करने के बाद भी नौकरी के लिए भटक रहा था। नौकरी की एक तो कहीं जगह नहीं निकलतीं और जब कभी निकलती तो वह फार्म भरता, परीक्षा देता पर सफल नहीं हो पाता। रोजगार दफ्तर में नाम रजिस्टर करया हुआ था पर कोई कॉल लैटर नहीं आता।  मदनलाल ने अपने दोस्तों से भी बेटे को नौकरी दिलाने में मदद करने के लिए कहा पर कोई मदद नहीं कर सका। आखिर नितिन ने एक छोटी सी दुकान खोल ली। दुकान क्या, सड़क के किनारे एक टपरी सी। उसमें बीड़ी सिगरेट तंबाकू चॉकलेट और बच्चों के लिए कॉपी पेंसिल रबर शॉर्पनर जैसी रोजमर्रा की चीजें थीं। यह टपरी भी उसे बहुत मुश्किल से मिली थी।

दुकान पर बिक्री ज्यादा तंबाकू चूना की होती। कभी कभी सिगरेट और बीड़ी भी। दुकान का किराया निकल जाता था और अपने खर्चे भी पूरे हो जाते। घर में सब्जी वगैरह भी ले आता। बाकी पिता जी की पेंशन पर। नितिन रात नौ बजे के आसपास दुकान बंद करके घर आ जाता था परंतु पिछले पांच छह महीने से नितिन दुकान बंद करके  घर  देर से पहुंचने लगा। उसके कुछ नये दोस्त बन गए जो दुकान बंद करने के समय उसके पास आ जाते और पास में ही एक बीयर की दुकान में ले जाते जहां शराब भी मिल जाती और पीने के लिए गिलास भी।  जो खर्च आता आपसे में बांट लेते। होटल या परमिट रूम में जाने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं थे। शुरू शुरू में तो नितिन अचकचाया, संकोच करने लगा। दोस्तों के कारण कुछ बिक्री अधिक हो जाती और वह बार में खर्च हो जाती। घर एकाध घंटे देर से पहुंचता। मदनलाल पूछते कि आजकल देर क्यों हो रही है घर आने में तो टाल जाता। मदनलाल उसकी चाल और मुंह से आई दुर्गंध से समझ तो गए और उसे समझाया भी पर कोई असर नहीं हुआ।

आज देर ज्यादा हो गई इसलिए चिंता कर रहे हैं। नितिन की ऐसी हालत रही तो उसका विवाह कैसे होगा, जीवन में प्रगति कैसे करेगा? और क्या जिंदगी भर इस टपरी पर ही बैठा रहेगा? आगे क्या करेगा, कैसे करेगा इसी चिंता में डूबे हुए थे कि दरवाजे पर आहट हुई और उन्होंने झट से दरवाजा खोला। दरवाजे पर नितिन था। वह अंदर आया तो लडखडा रहा था। मदनलाल ने पूछा कि नितिन तुम पीते क्यों हो? नितिन क्षण भर ठिठका और बोला, पता नहीं पिताजी और अंदर अपने कमरे में चला गया।  मदनलाल कुर्सी पर बैठे रह गए। सोचने लगे, इसे पता ही नहीं माथे पर हाथ रख लिया।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 121 – स्वर्ण पदक – भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय संस्मरणात्मक कथा  स्वर्ण पदक

☆ कथा-कहानी # 121 – 🥇 स्वर्ण पदक – भाग – 2🥇 श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

रजतकांत छोटा भाई था, पढ़ाई से ज्यादा, खेल उसे आकर्षित किया करते थे और स्कूल के बाकी शिक्षकों की डांट फटकार उसे स्पोर्ट्स टीचर की ओर आकर्षित करती थी, जो उसकी खेल प्रतिभा के कारण उससे स्नेह करते थे. जब देश में क्रिकेट का जुनून सर चढ़कर बच्चों के मन को आकर्षित कर रहा था, दीवाना बना रहा था, उस वक्त रजतकांत हाकी में जन्मजात निपुणता लेकर अवतरित हुआ था. मेजर ध्यानचंद की उसने सिर्फ कहानियां सुनी थीं पर वे अक्सर उसके सपनों में आकर ड्रिबलिंग करते हुये गोलपोस्ट की तरफ धनुष से छूटे हुये तीर के समान भागते दिखाई देते थे और जब रजत को मुस्कुराते हुये देखकर गोल मारते थे तो गोलपोस्ट पर खटाक से टकराती हुई बॉल और गोल ….के शोरगुल की ध्वनि से रजतकांत की आंख खुल जाती थी. सपनों की शुरुआत रात में ही होती है नींद में, पर जागते हुये सपने देखने और उन्हें पूरा करने का ज़ुनून कब लग जाता है, पता ही नहीं चलता. स्वर्णकांत और रजतकांत की आयु में सिर्फ तीन साल का अंतर था पर पहले स्कूल और फिर कॉलेज में उम्र के अंतर के अनुपात से क्लास का अंतर बढ़ता गया. जब स्वर्णकांत विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त कर बैंक की परीक्षा की तैयारी कर रहे थे, रजतकांत कला संकाय में स्नातक की डिग्री प्राप्त करने की लड़ाई लड़ रहे थे. डिग्रियां उनका लक्ष्य कभी थी ही नहीं पर हां कॉलेज की हाकी टीम के वो कप्तान थे, सपनों में ध्यानचंद से सीखी गई ड्रिबलिंग, चुस्ती, तेज दौड़ने का स्टेमिना, विरोधी खिलाड़ी को छकाते हुये बाल छीन कर गोलपोस्ट की तरफ बढ़ने की कला जो हॉकी के मैदान में दिखाई देती थी, वो दर्शकों को दीवाना बना देती थी और पूरा स्टेडियम रजत रजत के शोर से गूंजने लगता था जब उनके पास या इर्दगिर्द बॉल आती थी.पर दर्शकों को, सत्तर मिनट के इस खेल में, जो दिखाई नहीं देती थी, वह थी “उनका टीम को एक सूत्र में बांधकर लक्ष्य को हासिल करने की कला”. इस कारण ही उनकी टीम हर साल विश्वविद्यालय की हॉकी चैम्पियन कहलाती थी और स्वर्ण पदक पर सिर्फ रजत के कॉलेज का दावा, स्वीकार कर लिया गया था. इस कारण ही जब उनके परीक्षा पास नहीं करने के कारण उनके पिताजी नलिनीकांत नाराज़ होकर रौद्र रूप धारण करते थे, उनके कॉलेज के प्रिसिंपल और स्पोर्ट्स टीचर खुश हुआ करते थे और उन्हें कॉलेज में बने रहने का अभयदान दिया करते थे.

कथा जारी रहेगी…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 70 – छूमंतर… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – छूमंतर।)

☆ लघुकथा # 70 – छूमंतर श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

रेस्तरां का संगीत बदला तो चंदा का ध्यान गाने से हटकर काउंटर की ओर गया।

सामने एक पुरुष बिल अदा कर रहा था ।

रोमा तो मुझे पहचान कर मेरी तरफ आयी, “अरे दीदी आप! आप कैसी हैं ?”

“मैं ठीक हूं, बेटा कैसा है?”

“एकदम ठीक है दीदी, “उसके चेहरे का तनाव बेटे के जिक्र से गायब हो गया था वह बोली हमने उससे नैनीताल में बोर्डिंग स्कूल में डाल दिया है।”

“हां दीदी”, अचानक जैसे कुछ याद आ गया, “आप मेरे हस्बैंड से मिलना चाहती थी ना आइए “मैं आज मिलवाती हूं।”

कहकर वह पीछे पलटी तब तक उसका साथी बिल अदा कर उसके पास खड़ा हुआ।

मुस्कुरा कर बोली, “ये मेरे पति मिस्टर वर्मा है।”

मैं एकदम जड़ हो गई, सामने सोमेश जी खड़े थे ।

वह भी मुझे पहचान गए थे। उनका चेहरा सफेद पड़ गया था। वह मुझे नमस्ते करते हुए तेजी से बाहर की ओर बढ़ गए। नीता मेरा हाथ बड़े प्यार से पकड़ कर बोली, “दीदी कभी आइए ना हमारे घर, आपके पास मेरा नंबर है,”

फिर बाय करती हुई वह कैफे से बाहर चली गयी।

मैं कांपते हुए पैरों से कुर्सी पर धम्म से बैठ गयी।

पानी पीकर अपने आप को संभाला तभी सोमेश मेरे पास आकर बैठ गया।

“आप!” मेरे मुंह से निकला। आज मुझे इस आदमी से बेहद नफरत हो रही थी।

“जी मैं वही सोमेश हूं।”

“आप ऐसा क्यों कर रहे हो मेरी सखी के साथ। आप शादीशुदा हैं और ऐसा नाजायज संबंध रखना आपको अच्छा लगता है क्या? यदि आप मेरी पड़ोस में नहीं रहते और नीता के पति ना होते तो मैं आप को जेल भिजवा देती।“

अब मेरे समझ में नहीं आ रहा है कि मैं पड़ोसी धर्म निभाऊँ या अपने सहेली की बहन का?

“तुम पहले से शादीशुदा हो अब यहां से चुपचाप चले जाओ ?”

“दो जिंदगी के साथ तुम खिलवाड़ कर रहे हो। कैसे आदमी हो मैं जानती हूं। क्या आप की दोनों पत्नी यह जानती हैं??

“मैं समझ ही नहीं पा रही हूं कि क्या करूं ? आप किस तरह के इंसान हैं? प्रश्नात्मक निगाहों से मैंने उसकी ओर देखा ।

न जाने क्या था उन निगाहों में कि वह थरथरा उठा और अपने आप में ही बड़बड़ाते हुए उठ कर भाग खड़ा हुआ।

मुझे तो मानो सांप सूंघ गया हो… और वह पल भर में छूमंतर हो गया।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – लघुकथा – चिराग की रोशनी… – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे।

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “– चिराग की रोशनी…” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी  ☆ लघुकथा — चिराग की रोशनी — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

किस्से कहानियों में वर्णित भीमकाय अलादीन एक आदमी के सामने आ खड़ा हुआ। अब अलादीन हो तो उसके हाथ में चिराग कैसे न हो। आदमी अपने सामने खड़े विराट अलादीन से कुछ डरा हुआ तो था, लेकिन उसके चिराग से आदमी का मन तो खूब पुलकित हो रहा था। बात यह थी उसने अलादीन के बारे में जो पढ़ा था उसी का वह प्रत्यक्ष दर्शन कर रहा था। आदमी ने तो यहाँ तक अपने मन में गुनगुना लिया यह अलादीन है और इसके हाथ में जो चिराग है इससे तो वह देने का एक खास इतिहास रचता रहा है। तब तो अलादीन देने की भावना से ही मेरे सामने आया हो।

आदमी का गणित सही निकला। अलादीन ने उससे बड़े प्यार से कहा –– अब मैं हूँ तो तुमने समझ ही लिया हो मैं अलादीन हूँ और मेरे हाथ में देने का चिराग है। तो हे बालक, मेरे इस चिराग से कुछ मांग लो। मांगो तो तुम्हें निराशा नहीं होगी।

आदमी को चिराग से कुछ मांगने के लिए कहा गया और वह था कि अलादीन से उसका चिराग ही मांग लिया। अलादीन यह समझ न पाया, लेकिन आदमी ने समझ कर ही तो अलादीन से उसका चिराग मांगा। अलादीन चिराग दे कर मुँह लटकाये वहाँ से चला गया।

आदमी ने अनंत खुशी से विभोर हो कर चिराग को वंदन किया और उससे अपने लिए विशाल संसार मांगा। पल भर में आदमी को गाँव, शहर, हाट, अनुपम प्रकृति और जन समुदाय से युक्त एक संसार मिल गया। आदमी इतने बड़े संसार में इस हद तक खोया कि वह समझ न पाया वह है तो कहाँ है? उसे अपनी बूढ़ी माँ, पत्नी और बच्चों की बड़ी चिन्ता होने लगी थी। सब कहाँ खो गए? आदमी अलादीन के चिराग से अर्जित अपने ही संसार में अपनों से दूर अपने को तन्हा पाने लगा था।

शुक्र था कि वह आदमी का सपना था। सपना टूटते ही आदमी हड़बड़ा कर पलंग से उतरा। अलादीन का चिराग अब उसके घर में नहीं था, लेकिन उसके अपने घर का चिराग तो था। वह अपने घर के चिराग की रोशनी में अपने परिवार को अपने सामने पा कर अपार आनन्द की अनुभूति कर रहा था।

© श्री रामदेव धुरंधर

03 – 05 – 2025

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : rdhoorundhur@gmail.com

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – “बलि…” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ लघुकथा – “बलि…” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

पता नहीं क्यों सब गड्ढमड्ढ सा हुआ जा रहा है। ‌वह एक राजनीतिक समारोह की कवरेज करने आया हुआ है। रोज़ का काम जो ठहरा पत्रकार का ! रोज़ कुआं खोदो, रोज़ पानी पियो ! रोज़‌‌ नयी खबर की तलाश।

फिर भी आज सब गड्ढमड्ढ क्यों हुआ जा रहा है? क्या पहली बार किसी को दलबदल करते देख रहा है? यह तो अब आम बात हो चुकी ! इसमें क्या और किस बात की हैरानी? फिर भी दिल है कि मानता नहीं। मंच पर जिस नेता को दलबदल करवा शामिल किया जा रहा है, उसके तिलक लगाया जा रहा है और मैं हूं कि बचपन में देखे एक दृश्य को याद कर रहा हूँ। ‌किसी बहुत बड़े मंदिर में‌ पुराने जमाने के चलन के अनुसार एक बकरे को बांधकर लाया गया है और उसके माथे पर तिलक लगाया जा रहा है और‌ वह डर से थरथर कांप रहा है और यहां भी दलबदल करने वाले के चेहरे पर कोई खुशी दिखाई नहीं दे रही। बस, एक औपचारिकता पूरी की जा रही है और‌ गले में पार्टी का पटका लटका दिया गया है। चारों ओर तालियों की गूंज‌ है और मंदिर में‌ बकरा बहुत डरा सहमा हुआ है। दोनों एक साथ क्यों याद‌ आ रहे हैं? यह मुझे क्या हुआ है? किसने धकेला पार्टी बदलने के लिए? सवाल मन ही मन उठता रह जाता है लेकिन बकरे की बेबसी सब बयान कर रही है…

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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