हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – फीनिक्स ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा – फीनिक्स  ??

भीषण अग्निकांड में सब कुछ जलकर खाक हो गया। अच्छी बात यह रही कि जान की हानि नहीं हुई पर इमारत में रहने वाला हरेक फूट-फूटकर बिलख रहा था। किसी ने राख हाथ में लेकर कहा, ‘सब कुछ खत्म हो गया!’ किसी ने राख उछालकर कहा, ‘उद्ध्वस्त, उद्ध्वस्त!’ किसी को राख के गुबार के आगे कुछ नहीं सूझ रहा था। कोई शून्य में घूर रहा था। कोई अर्द्धमूर्च्छा में था तो कोई पूरी तरह बेहोश था।

एक लड़के ने ठंडी पड़ चुकी राख के ढेर पर अपनी अंगुली से उड़ते फीनिक्स का चित्र बनाया। समय साक्षी है कि आगे चलकर उस लड़के ने इसी जगह पर एक आलीशान इमारत बनवाई।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना 🕉️

अवधि – 6 अप्रैल 2023 से 19 मई 2023 तक।

💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #192 ☆ कथा-कहानी – बाकी सफर ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर कहानी  बाकी सफर। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 192 ☆

☆ कथा-कहानी ☆  बाकी सफर

रोज़ सुबह उठ कर उमाशंकर देखते हैं, सामने पटेल की चाय की भठ्ठी चालू हो गयी है। दूकान में काम करने वाले लड़के ऊँघते ऊँघते भट्ठी के आसपास मंडराते दिखते हैं और पटेल चिल्ला चिल्ला कर उनकी नींद भगाता नज़र आता है। तड़के से ही दो चार ग्राहक चाय की तलब में दूकान के सामने पड़ी बेंचों पर डट जाते हैं।

सड़क के इस पार उमाशंकर का मकान है और उस पार पटेल की दूकान है। उमाशंकर ऊपर रहते हैं इसलिए बालकनी से दूकान का दृश्य स्पष्ट दिखता है। उमाशंकर की पत्नी दिवंगत हुईं, बहू नौकरी पर जाती है, इसलिए कभी कोई मिलने वाला आ जाए तो बालकनी में खड़े होकर पटेल को आवाज़ देकर उँगलियाँ दिखा देते हैं और थोड़ी देर में दूकान से कोई लड़का उँगलियों के हिसाब से चाय लेकर आ जाता है।

करीब चालीस साल की सरकारी नौकरी के बाद उमाशंकर रिटायरमेंट को प्राप्त हो फुरसत की ज़िन्दगी बिता रहे हैं। मँझला बेटा रेवाशंकर साथ रहता है। दो बेटे शहर से बाहर हैं।

उमाशंकर भावुक और भले आदमी हैं। देश में गरीब असहाय बच्चों की दुर्दशा देखकर उन्हें बहुत तकलीफ होती है। समाचार-पत्रों में पत्र लिखकर वे अपनी भावनाएँ व्यक्त करते रहते हैं।
सड़क के किनारे कचरे के ढेरों पर झुके, नंगे पाँव, बीमारियों और विपत्तियों को आमंत्रित करते बच्चों को देखकर वे बहुत व्यथित होते हैं। सारे निज़ाम पर वह खूब दाँत पीसते हैं।

एक बार एक दस बारह साल का लड़का उन्हें भर दोपहर, चलती सड़क के किनारे, कचरे का थैला सिर के नीचे रखे, शायद थकान के मारे सोता हुआ दिखा। उस वक्त उन्हें लगा धरती फट जाए और उन जैसे सफेदपोशों का पूरा कुनबा उसमें समा जाए। खयाल आया कि कहाँ है वह संविधान का निर्देश जो चौदह साल तक की उम्र के बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की ताकीद करता है?

कोई बच्चों की भलाई या मदद के लिए काम करता है तो जानकर उमाशंकर का मन उस व्यक्ति के प्रति कृतज्ञता से भर जाता है। सवेरे पूजा के लिए बैठते हैं तो भगवान की मूर्ति से अक्सर कहते हैं— ‘तुमने मेरे मन में लौ तो जगायी, लेकिन मद्धी मद्धी। जुनून दिया होता तो मैं भी कुछ कर गुज़रता। जिससे भी कराना हो, कराओ। काम होना चाहिए।’

तीन-चार दिन से उन्हें पटेल की दुकान में एक नया लड़का दिखता है। इस धंधे में वह रँगरूट ही लगता है। सवेरे उठता है तो बड़ी देर तक उकड़ूँ बैठा दूसरों को काम करते देखता रहता है। लगता है सेठ भी उसके ज़्यादा पीछे नहीं पड़ता। माथे पर बाल बिखेरे वह बड़ी देर तक उनींदा बैठा रहता है। काम भी धीरे-धीरे करता दिखता है। पटेल लड़कों का मनोविज्ञान जानता है। उन्हें दूकान के वातावरण में रसने-बसने के लिए चार छः दिन का टाइम देता है।

दो दिन बाद उमाशंकर ने ऊपर से चाय के लिए इशारा किया तो संयोग से वही नया लड़का लेकर आया। धीरे-धीरे लटपट चलता सीढ़ियाँ चढ़कर वह ऊपर पहुँच गया। उमाशंकर ने देखा, लड़के की उम्र दस बारह साल के करीब होगी। चेहरा सलोना और भोला था। अभी शहर की व्यवहारिकता की झाँईं उस पर नहीं उतरी थी। घुँघराले से बालों के बीच उसका चेहरा मोहित करता था। हाथ-पाँव पर भी अभी भट्ठी की तपिश से पैदा हुई सख़्ती और कालिख नहीं दिखती थी।

उमाशंकर ने उसे चार बिस्कुट दिये, कहा, ‘ले, खा लेना।’ उसने ले लिये, फिर पूछने पर अपना नाम बताया, ‘नन्दू’। बिस्कुट जेब में रखकर वह सीढ़ी उतरने लगा। उमाशंकर ने उसकी लटपट चाल देखकर पीछे से आवाज़ दी— ‘सँभलकर उतरना। लुढ़क मत जाना।’ प्यार की आँच लड़के तक पहुँची। वह पीछे देख कर हँसा, फिर धीरे-धीरे उतर गया।

फिर अक्सर नन्दू चाय लेकर आने लगा। लगता था जैसे वह जानबूझकर अपनी ड्यूटी वहाँ चाय लाने के लिए लगवाता हो।

दूसरी बार आया तो उमाशंकर ने उसे थोड़ी देर बैठा लिया, पूछा, ‘कहाँ के हो?’

नन्दू बोला, ‘सिंहपुर के। इलाहाबाद के पास है।’

उमाशंकर ने पूछा, ‘यहाँ कैसे पहुँच गया?’

नन्दू आँखें झुका कर बोला, ‘पापा अम्माँ को बहुत मारता था। मुझे और मेरी छोटी बहन गुड़िया को भी मारता था। जब वह दारू पी कर आता था तब हम लोगों को बहुत डर लगता था। उस दिन उसने अम्माँ को मारा तो मुझे बहुत गुस्सा आ गया। मैंने उसे हाथ में जोर से काट लिया। फिर डर के मारे जो भागा तो सीधा स्टेसन पहुँचा। वहाँ जो गाड़ी खड़ी थी उसी में छिप कर बैठ गया। यहाँ उतर गया।’

उमाशंकर ने पूछा, ‘इस तरह यहाँ कब तक रहेगा? घर वापस नहीं जाएगा?’

नन्दू बोला, ‘अभी तो सोच कर बहुत डर लगता है। पापा बहुत मारेगा। बाद में सोचेंगे।’

उमाशंकर ने पूछा, ‘घर की याद नहीं आती?’

नन्दू का मुँह लटक गया, आँखों में पानी की रेख खिंच गयी, बोला, ‘अम्माँ और गुड़िया की बहुत याद आती है।’

फिर उसने गिलास उठाये, बोला, ‘देर हो गयी तो सेठ ऊटपटाँग बोलेगा। फिर आऊँगा।’

फिर जब उसकी मर्जी होती आ जाता। हफ्ते में एक दिन की उसे छुट्टी मिलती थी, उस दिन आकर उमाशंकर के साथ खूब बतयाता था। एक दिन उमाशंकर ने पूछा, ‘पढ़ा लिखा नहीं?’

नन्दू बोला, ‘तीसरी तक पढ़ा था, फिर मन नहीं लगा। मास्टर जी साँटी से बहुत मारते थे। थोड़ा सा हल्ला किया नहीं कि सटासट पड़ती थी।’

फिर उसे कुछ याद आ गया। हँसते हुए बोला, ‘एक बार हमारी क्लास के पवन को जोर से साँटी मारी तो वह ऐसे पड़ गया जैसे बेहोस हो गया हो। बड़ा नाटकबाज था। मुँह से फसूकर छोड़ दिया। मास्टर जी की हालत तो डर के मारे खराब हो गयी। जल्दी-जल्दी उसके मुँह पर पानी छोड़ा तब उसने आँखेंं खोलीं। फिर हलवाई की दुकान से एक पाव जलेबी मँगा कर उसे खिलायी। बाद में पवन खूब हँसा।’

उमाशंकर को भी खूब मज़ा आया। नन्दू अब मौका मिलते ही उनके पास बैठक जमा लेता था। उसकी छठी इन्द्रिय ने जान लिया था कि अटक-बूझ में यह भला आदमी उसे अपनी छाया दे सकता है।

लेकिन नन्दू की यह बार-बार की उपस्थिति उमाशंकर के परिचितों के कान खड़े कर रही थी। जब वह आता-जाता तो आसपास के लोग उसे घूर कर देखते। यह चायवाला आवारा लड़का उमाशंकर से क्यों चिपका रहता है?

एक दिन रेवाशंकर ने उनसे कह ही दिया, ‘पापाजी, यह चायवाला लड़का क्यों हमेशा आपके पास घुसा रहता है?’

उमाशंकर हँसकर बोले, ‘कौन? नन्दू? वह बहुत अच्छा लड़का है। मुझे उसकी बातें सुनकर बड़ा आनन्द आता है।’

रेवाशंकर बोला, ‘लेकिन ऐसे लड़कों को मुँह लगाना ठीक नहीं। ये अच्छे लड़के नहीं होते।’

उमाशंकर ने जवाब दिया, ‘अच्छा बुरा कोई जन्म से नहीं होता। परिस्थितियाँ उसे अच्छा बुरा बनाती हैं। मुझे तो यह अपराध-बोध रहता है कि हमारे देश की भावी पीढ़ी इस तरह नष्ट हो रही है और हम पढ़े लिखे लोग आँख मूँद कर अपने स्वार्थ-साधन में लगे हैं। कभी न कभी हमें इन कर्मों का फल भोगना पड़ेगा। तब यही लड़के पत्थर मार मार कर हमारा जीना हराम कर देंगे। लेकिन शायद तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।’ 

रेवाशंकर बोला, ‘प्रारब्ध की बात है। सब अपना प्रारब्ध भोगते हैं।’

उमाशंकर उत्तेजित होकर बोले, ‘यह पलायनवाद है। जिनका भाग्य जन्म से पहले ही निश्चित हो जाता हो उनका प्रारब्ध क्या होगा? जिस घर में गरीबी है, पढ़ाई-लिखाई का वातावरण नहीं है, कलह है, वहाँ बच्चे का प्रारब्ध तो पूर्वज्ञात है। कोई विरला अपवाद निकल सकता है।’

रेवाशंकर अप्रसन्न होकर बोला, ‘मैं आप से बहस करने लायक नहीं हूं, लेकिन इतना ही कह सकता हूँ कि ऐसे लड़कों की संगत आपको शोभा नहीं देती।’

उमाशंकर हँसकर बोले, ‘भैया, मैंने तुम सभी भाइयों को पढ़ा लिखा कर अपने पैरों पर खड़े होने लायक बना दिया। अब मेरा कार्यक्रम सिर्फ खाने, पीने और सोने का है या इधर-उधर गपबाज़ी करने का, जो एक तरह से निरर्थक है। मैं सोचता हूँ ऐसा कुछ करूँ जिससे जीवन में कुछ दूर तक ऐसा लगे कि मेरा जीवन उपयोगी है। मैं अपनी पेंशन से एक दो लड़कों की ज़िन्दगी सुधारने की कोशिश कर सकता हूँ। परिणाम ऊपर वाले के हाथ में है।’

रेवाशंकर कुछ नाराज़ी के स्वर में  ‘जैसा आप ठीक समझें। मैं क्या कह सकता हूँ?’ कहकर चला गया।’

नन्दू आसपास वालों का रुख भाँप कर उमाशंकर के पास आने में झिझकने लगा था। एक दिन उमाशंकर से बोला, ‘बाबूजी, यहाँ के लोगों को मेरा आपके पास आना अच्छा नहीं लगता। गुस्से से मेरी तरफ देखते हैं। मैं आपके पास नहीं आया करूँगा।’ फिर करुण चेहरा बनाकर बोला, ‘आपके पास आकर बहुत अच्छा लगता है, इसलिए आता हूँ।’

उमाशंकर उसकी पीठ पर हाथ रख कर बोले, ‘तुम इन बातों की फिक्र मत करो। जो जैसे देखता है, देखने दो। यह महीना सेठ के यहाँ पूरा करो, फिर तुम्हें स्कूल में भर्ती कराना है। घर में डंडा लेकर मैं तुम्हें पढ़ाऊँगा। तुम्हें आदमी बनाना है।’

सुनकर नन्दू हँसते-हँसते लोटपोट हो गया। बोला, ‘तो क्या मैं अभी जानवर हूँ? मेरे पूँछ कहाँ है?’

उमाशंकर भी हँसे,बोले, ‘हाँ, तू बिना पूँछ का जानवर है। तुझे पूरा इंसान बनाऊँगा। पढ़ाई से आदमी पूरा इंसान बनता है।’

उस दिन नन्दू सोया तो बड़ी मीठी नींद आयी। सपने में दिखी उसकी तरफ बाँहें फैलाती अम्माँ और हाथ बढ़ा कर पुकारती उसकी नन्हीं बहन गुड़िया, लेकिन आज उन्हें देखकर उसका मन भारी नहीं हुआ।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 117 ☆ लघुकथा – मोहपाश ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘मोहपाश । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 117 ☆

☆ लघुकथा – मोहपाश ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

मम्मी ! ‘जी पे’ का नंबर बताओ!

क्यों? किसलिए? 

पैसे चाहिए और क्या? 

सब चीजें तो हैं घर में, अब तुम्हें क्या खरीदना है? 

तुम्हें पता है ना कि अब मेरी पेंशन से ही काम चलाना है। तेरी नौकरी अभी तक नहीं लगी है और मुझे मानसी की शादी के लिए भी पैसे बचाने हैं।

वह तुम्हारी जिम्मेदारी है, तुम जानो। ‘पिन’ बता रही हो कि नहीं – बेटा तेजी से लगभग डाँटते हुए बोला।

उसकी तेज आवाज ने उसे कँपा दिया, कुछ वैसे ही जैसे पति का शव सफेद कपड़े में लिपटा देख वह काँपी थी। उसने दोनों बच्चों को बाँहों के घेरे में कसकर जकड़ लिया था। रेशमी धागों की यह जकड़न बच्चों के बड़े होने के साथ-साथ बढ़ती ही गई। जीवन के हर मोड़ पर रेशमी धागों की एक और गाँठ जुड़ जाती। वह समझती रही कि उसकी बाँहों के ये घेरे बच्चों को हर तरह से संभाले हैं पर ———- मंदिरों में बँधे मनौतियों के धागे भी ना जाने कितनों की मन्नतों को अपने में समेटे समय के साथ बेरंग हो जाते हैं।

‘पिन’ बताती क्यों नहीं मम्मी!

हैं — हूँ – उसने चौंककर बेटे की ओर देखा, वह समझ ही ना सकी रेशम की डोर कब जानलेवा रस्सियों में बदल गई।

©डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ ताकि सनद रहे ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।)

आदरणीय डॉ कुँवर प्रेमिल जी के विवाह की 50 वीं वर्षगांठ पर ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से हार्दिक शुभकामनाएं 💐 ईश्वर आप दोनों को सदैव स्वस्थ एवं प्रसन्नचित्त रखें यही हमारी मंगलकामनाएं 💐 इस शुभ अवसर पर उपहार स्वरूप आपकी ही एक लघुकथा – ‘ताकि सनद रहे’

☆ लघुकथा – ताकि सनद रहे ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

पतिदेव आज सुबह-सुबह ही उठ गए। उन्होंने चाय बनाकर अपनी धर्मपत्नी को जगाकर कहा-‘भाग्यवान, अब उठो भी—मेरे हाथ की गरमा-गरम चाय पी कर तो देखो।’

पत्नी हड़बड़ा कर उठी’-यह क्या गजब कर डाला। पूरी जिंदगी मैंने तुम्हें चाय पिलाई और आज आपने उल्टी गंगा बहाई।’

‘मैडम कोई गंगा उल्टी नहीं बही—वह तो अपना मार्ग प्रशस्त करती बहती है। आप भी मेरे घर की गंगा हो। करवट बदल कर उठो और गरमा गरम चाय का लुत्फ़ उठाओ।’

‘सारी जिंदगी मैंने आपको कोई काम नहीं करने दिया। आज नाश पीटी नींद ने कैसा बदला लिया जो–‘

‘अरे, पूरी जिंदगी तुम गंगा बनकर इस परिवार को तृप्त करती रहीं। जिस दिन से ब्याह कर आई उस दिन के बाद शहर में मायका होते हुए भी एक दिन के लिए मायके नहीं गई।’

पत्नी मुस्कुराकर बोली-‘अब बातें ही बनाओगे या चाय भी पिलाओगे’।

‘चाय की चुस्कियां लो और उसके बाद नाश्ता–मैंने गरमागरम आलू के पराठे सेंक लिए हैं। तुम्हें आलू के पराठे पसंद जो हैं -क्यों?’

‘चलो, आप बड़े वो हो, मेरी नींद का फायदा उठाकर आज गृहस्थी की ड्यूटी में मेरी गैर हाजिरी लगवा दी। आपकी चाय ने तो मेरे शरीर में मस्ती सी घोल दी है।’

पति ने शरारती अंदाज में कहा-‘देखो जी, आज हमारी शादी की पचासवीं वर्षगांठ है। आज मैं दिन भर तुम्हें झूला झुलाऊंगा और फूलों के बिस्तर पर शयन कराऊंगा। ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आए। कम से कम एक दिन के लिए पति को भी पत्नी बन कर देखना चाहिए।’

तब तक पत्नी जी सो चुकी थीं और खर्राटे भरने लगी थीं। उनके चेहरे पर आत्म संतोष छलका पड़ रहा था।

पतिदेव भी पूरे उत्साह के साथ चाय के बर्तन धोने चले गए थे।

🔥 🔥 🔥

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – हरि की माँ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा – हरि की माँ ??

हरि को गोद में आए केवल दस महीने हुए थे जब हरि का बाप उसे हमेशा के लिए छोड़कर चला गया। हरि की माँ ने हिम्मत नहीं हारी। हरि की माँ हरि के लिए डटकर खड़ी रही। हरि की माँ को कई बार मरने के हालात से गुज़रना पड़ा पर हरि की माँ नहीं मरी।

हरि की माँ बीते बाईस बरस मर-मरकर ज़िंदा रही। हरि की माँ मर सकती ही नहीं थी, उसे हरि को बड़ा जो करना था।

हरि बड़ा हो गया। हरि ने शादी कर ली। हरि की घरवाली पैसेवाली थी। हरि उसके साथ, अपने ससुराल में रहने लगा। हरि की माँ फिर अकेली हो गई।

हरि की माँ की साँसें उस रोज़ अकस्मात ऊपर-नीचे होने लगीं। हरि की माँ की पड़ोसन अपनी बेटी की मदद से किसी तरह उसे सरकारी अस्पताल ले आई। हरि की माँ को जाँचकर डॉक्टर ने बताया, ज़िंदा है, साँस चल रही है।

हरि की माँ नीमबेहोशी में बुदबुदाई, ‘साँस चलना याने ज़िंदा रहना होता है क्या?’

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना 🕉️

अवधि – 6 अप्रैल 2023 से 19 मई 2023 तक।

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 157 – परछाई ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा परछाई”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 15 ☆

☆ लघुकथा 🌹 परछाई 🌹

कमला रोज सिर पर लकड़ी का बोझ लिए चलती जाती। कड़क तेज धूप पसीना पोंछती अक्सर अपनी परछाई को देखती।

उसे लगता क्या?? सारी जिंदगी सिर्फ बोझ ही उठाती रहूंगी। थकी हारी शाम को अपने घर भोजन बनाकर सभी परिवार का रुखा सुखा इंतजाम करती और थकान से चूर बिस्तर पर सोते ही नींद लग जाती।

कभी उसने रात में चांदनी की सुंदरता नहीं देखी थी।

आज पूनम की रात अचानक नींद खुली। बाहर आंगन में निकलकर वह बैठी थी। साड़ी का पल्लू सिर पर डाल रही थी कि पीछे से आज उसकी परछाई किसी खूबसूरत रानी की तरह बनी। ऐसा लगा मानो सिर पर ताज लगा रखी हो।

अपनी परछाई को घंटों निहारते वह बैठी रही। उसने सोचा सही कहा करती थी अम्मा.. पूनम की रात सभी के सपने पूरे होते हैं। खुशी से आंखों से आंसू बहने लगे। दूर से दूधिया रोशनी से नहाती आज वह अत्यधिक प्रसन्न हो रही थी।

परछाई ही सही, मेरी अपनी परछाई ही तो है। तभी पति देव ने आवाज लगाई… आ जा कमला सो जा पूनम का चांद सिर्फ हम सुनते हैं और देखते हैं, हमारे लिए नहीं है हमारे लिए तो सिर्फ तपती दोपहरी की परछाई ही हकीकत है। जो हमें सुख से रात को चैन की नींद सुलाती है।

पति देव की बात को शायद समझ नहीं सकी। परन्तु सोकर जल्दी उठ काम पर जाना है सोच वह सोने चली गई।  

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #136 – लघुकथा – “रहस्य” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक लघुकथा “रहस्य”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 136 ☆

 ☆ लघुकथा- “रहस्य” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’   

अ ने चकित होते हुए कहा, “यह तो चमत्कार हो गया!”

इस पर ब ने कहा, “यह तो होना ही था।”

“मगर कैसे?” अ ने पूछा, “ये हायर सेकेंडरी स्कूल में पढ़ाते हैं। सोचते हैं कि प्राथमिक शाला के शिक्षक कुछ नहीं जानते हैं। इस कारण नमस्कार तक नहीं करते हैं।”

ब ने कुछ नहीं कहा।

“आपने ऐसा क्या किया जो ये हमारा नमस्कार करके आदर करने लगे हैं।”

“कुछ नहीं। इनका स्वार्थ है इसलिए,” ब ने कहा तो अ ने  पूछा, “क्या स्वार्थ है जिसकी वजह से ये नमस्कार करने लगे हैं।”

“12वीं बोर्ड की परीक्षा में पर्यवेक्षक के रुप में मेरी ड्यूटी लगी हुई है इस कारण,” कहते हुए ब ने अपने मुंह को झटका दिया। मानो नमस्कार रुपी चांटे के दर्द को दूर करना चाह रहा हो, इसलिए अपने मुंह को एक ओर झटके से उचका दिया।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

28-04-2023

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – प्रेम ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – प्रेम ??

“कब तक प्रेम करोगे मुझे..?”

मैं हँस पड़ा।

वह रो पड़ी।

कुछ नादान हँसी और आँसू की गणना करने लगे।

काल प्रतीक्षारत है कि समय के जीवनकाल में नादानों की गणना पूरी हो सके।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना 🕉️

अवधि – 6 अप्रैल 2023 से 19 मई 2023 तक।

💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ “रद्दीवाला” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है आपकी एक लघुकथा – “रद्दीवाला”.)

☆ लघुकथा ☆ “रद्दीवाला” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल

 (सौ. उज्ज्वला केळकर द्वारा मराठी भावानुवाद 👉 “रद्दीवाला”)

यह उसका नाम भी था और काम भी। काॅलोनी- दर -काॅलोनी, अपनी चार चक्कों की गाड़ी, जिस पर एक तराजू व एक थैला लिए – वह कबाड़ी “रद्दी.., पुराना सामान.. रद्दी..” की आवाज लगाता घूमता रहता। अक्सर महिलाएं या कुछ महिला जैसे पुरुष इन्हे बुलाकर घर के पुराने अखबार या कभी-कभी कोई टूटा-फूटा भंगार मोल-भाव कर बेच देते। इनकी शक्ल, हालात व इनकी करतूतों की वजह से इन्हें हर कोई चोर-उचक्का, उठाईगिरा समझ हेय दृष्टि से देखता हैं। छ: किलो की रद्दी चार किलो में तोलना इनका बायें हाथ का काम है। अगर गृहणी खुद भी तोल कर दे तो भी एकाध किलो मार लेना इनका दायें हाथ का काम होता है। कभी-कभार एकाध छोटा-मोटा सामान उठा लेना, बस पेट के लिए इतनी भर बेईमानी करते हैं। रद्दी के पैसे मिल जाने के बाद भी, जब तक वह गेट से बाहर नहीं जाता, उसे श॔कित नजरों से देखा जाता है। कुल मिलाकर वह इस बात का प्रमाण है कि उपेक्षित होने पर सिर्फ अखबार ही नहीं आदमी भी रद्दी हो जाता है।

उस दिन पत्नी रद्दीवाले को रद्दी दे रही थी, जैसे ही मै पहुँचा, उसने कहा- “मै बाहर जा रही हूँ, इससे तीस रूपये ले लेना।” कह वह चली गई।

मैंने पहली बार उसे गौर से देखा। रद्दीवाला मुझ जैसा ही आदमी दिखाई पड़ा। पसीने से लथपथ वह जेब से पैसे निकाल रहा था, मैंने कहा- “कोई जल्दी नहीं, आराम से देना, थोड़ा सुस्ता लो।” वह कमीज से पसीना पोंछने लगा। “पानी पीओगे ?” मेरे पूछने पर उसने गर्दन से हाँ कहा।

मेरे पानी देने पर, पानी पीकर उसने बिना आँसू के रोती हुई आँखों से गिलास वापिस करते हुए कहा – “शुक्रिया”

“अरे, पानी के लिए कैसा शुक्रिया ?”

“पानी के लिए नहीं साब! आज तक माँगने पर पानी मिला है, पहिली बार कोई पूछकर पिला रहा है।”

मुझे उसका ऐसा बोलना अच्छा लगा। पुराने ही सही, बरसों अखबार व किताबों को छू-छूकर शायद वह कुछ पढ़ा-लिखा हो गया था। फिर उर्दू जुबान ही ऐसी है कि बेपढ़ा भी बोले तो उसके बोलने में एक शऊर आ जाता है। मैं उससे बतियाने लगा। उसकी जिन्दगी उसकी जुबान तक आ गई।

“इन दिनो हालत बड़े खस्ता है साब। कम्पीटशन बढ़ गई है। जबसे टीवी आया लोग अखबार जरूरत से नहीं, सिर्फ आदतन खरीदते हैं। रिसाले महँगे हो गए। रद्दी कम हो गई तो मोल-भाव ज्यादा हो गया। रद्दी खरीदते हम जान जाते हैं,कि ये अमीर है या गरीब। कंजूस है या दिलदार। शक्की है, झिकझिक वाला है, या सीधा-साधा। हम सबको जानते है पर लोग हमें हिकारत देखते हैं। पहले जैसा मजा नहीं रहा धन्धे में। “दो पल अपनी विवशता को अनदेखा कर, आंँखों में एक चमक भरते बोला- ” फिर भी जैसे-तैसै गुजारा हो ही जाता है। और फिर कभी-कभी जब आप और उस दो माले जैसे दिलदार, शानदार, शायर नुमा, साहब, आदमी मिल जाते हैं, तो लगता है ज़िन्दगी सुहानी हो गई। इसमेँ जीया जा सकता है।”

“दो माले जैसे…?” मेरे पूछने पर उसने बताया, तब मैं समझा। हुआ यूँ कि…

रद्दीवाला जब “रद्दी…रद्दी…” की आवाज लगा रहा था, तो उस दो माले के शख्स ने उसे ऊपर बुलाया। वह अपना तराजू और थैला लेकर ऊपर गया। कमरे में कुछ अखबार और रिसाले इधर-उधर बिखरे पड़े थे। “ये सब उठा लो” सुनते ही उसने रद्दी जमा की। तौलने के लिए तराजू निकालने लगा की… “तौलने की जरुरत नहीं, ऐसे ही ले जा।’

सुनकर वह तेजी से रद्दी थैले में भरने लगा। आज कुछ ज्यादा कमाने की खुशी में वह पैसे देने के लिए जेब में हाथ डाल ही रहा था कि… “रहने दे। पैसे मत दे। ऐसे ही ले जा।”

बिना तौले तो इसके पहले भी उसने रद्दी खरीदी थी, पर आज तो मुफ्त में…, आश्चर्य और प्रसन्नता है उसने उसकी और देखा। वह मुस्कराते हुए बुदबुदा रहा था;- ” मैंने कौन-सा स्साला
पैसे देकर खरीदी है ? शायर बनने में और कुछ मिले न मिले, पर मुफ्त के कुछ रिसाले जरूर घर आ जाते हैं।” रद्दीवाला आँखों से शुक्रिया कहते और हाथों से सलाम करता हुआ सीढियाँ उतरने लगा। उतरने क्या, सीढियाँ दौड़ने लगा। बीस-पच्चीस की मुफ्त की कमाई जो हो चुकी थी । उसने गाड़ी पर थैला रखा, एक पल फिर से दो माले की ओर देखा, जहाँ उसका दिलदार, शानदार, शायरनुमा, साहब आदमी रहता है। दो माले को सलाम करते हाथों से गाड़ी ढकेलने लगा।
अब जब भी वह दो माले से गुजरता उसकी ” रद्दी- रद्दी ” की आवाज तेज हो जाती। दो-एक महीने में जब भी दो माले से आवाज आती, वह लपककर, उछलता-सा सीढ़ियाँ चढ़ता, बिना तोले, बिना पैसे दिए, मुफ्त की रद्दी लेकर शुक्रिया व सलाम करते सीढ़ियाँ उतरता, गाड़ी पर थैला रखता, दो माले को देखता और सलाम करता गाड़ी ढकेलने लगता।
आज भी सब कुछ वैसा ही हुआ। लेकिन जैसे ही वह सलाम करते सीढ़ियाँ उतर ही रहा था कि उसे एक तल्ख व तेज आवाज सुनाई पड़ी ,:- -ऐ…, जाता कहाँ..,?,… पैसे…,? ”
वह चौंककर, हतप्रभ, हक्का बक्का -सा उस बेबस आँखों और फैली हुई हथेली को देखता भर रहा । उसमेँ इतनी भी हिम्मत नहीं रही कि वो अपनी सफाई में इतना भी कह सके कि ” साब आपने इसके पहले कभी पैसे नहीं लिए इसलिए….- । ” उसने चुपचाप जेब में हाथ डाले और बीस का एक नोट उसकी फैली हुई हथेली पर रख दिया। सलाम करता वह सीढ़ियों से ऐसे उतर रहा था मानो पहाड़ चढ़ रहा हो। दो किलो का बोझ चालीस किलो का लगने लगा। वह भरे मन और भरे क़दमों से एक-एक पग बढ़ाता हुआ अपनी गाड़ी तक आया। थैला रखा।आदतन, उसने दो माले की ओर देखा। सलाम किया। गाड़ी सरकाया। फिर रुक गया। उसे वो तल्ख व तेज आवाज़ ” ऐ…, जाता कहाँ…?… पैसे…?” अब भी सुनाई दे रही थी। बेबस आँखें और फैली हुई हथेली अब भी दिखाई दे रही थी। उसने बिना आँसू के रोती हुई आँखों से पुनः दो माले को देखा।और सलाम करता हुआ बेमन से गाड़ी ढकेलने लगा।
इसलिए नहीं, कि आज उसे मुफ्त की रद्दी नहीं मिली। उसे बीस रुपए देने पड़े। यह तो उसका रोज का धन्धा है। बल्कि इसलिए कि आज उसका दिलदार, शानदार, शायरनुमा, साहब आदमी गरीब हो गया था।

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ “सफारी” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है आपकी एक लघुकथा – “सफारी”.)

☆ लघुकथा ☆ “सफारी” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल

जंगल में सफारी का मजा कुछ और ही होता है। एक खौफ लिए कंपकपाते, डरते हुए रोमांचित होने का मजा।

गेस्टहाऊस से सुबह ही 15-20 जिप्सियां पर्यटककों को लिए वहीं के गाइड व ड्राइवरों के साथ जहां शेर दिखने की अधिकतम संंभावना हो, उन रास्तों पर निकल पड़ते हैं। शेर की झलक भर पाने घंटों जंगलों में भटकते रहते हैं। उन्हें न तो हजारों पेड़ों का मौन निमंत्रण दिखाई देता है, न ही परिंदों का चहचहाहट भरा बोलता हुआ निमंत्रण सुनाई पड़ता है। उन्हें तो बस शेर या उस जैसा कोई भयानक जंगली जानवर देखना होता है। जिसे याद करते ही वह कांपने लगे। शाम को डरे-डरे , रोमांचित हो लौटना ही सफारी की सफलता है।

शाम को सब जिप्सियां गेस्टहाऊस वापिस लौट आई। सब अपना अनुभव सुना रहे थे। ” मैंने दो शेरों को एक साथ देखा, लगा कभी इधर आ गये तो… ” वह अब तक डरा हुआ कांप रहा था। ” “हमारी जिप्सी के थोड़े ही आगे बीस जंगली भैंसों का झुण्ड हमारी ओर लाल-लाल आँखों से घूर रहा था। हम तो डर गए। और जब गाइड ने बताया कि एक भैंसें में इतनी ताकत होती है कि वह एक झटके में पूरी जिप्सी उलट सकता है, तब हम और ज्यादा डर गए। ”

‘असली कोबरा का एक जोड़ा बिल्कुल हमारी गाड़ी के एक फुट दूरी से गुजर गया। और था भी बीस फुट इतना लम्बा।” अपना तीन फुट का हाथ लम्बा्ते हुए बोला।, वह अब तक सिहर रहा था।

सबने देखा एक जिप्सी का एक आदमी सबसे ज्यादा मारे डर के अब तक कांप रहा था। उससे पूछा ” तुमने कितने शेर देखे ? ”

” एक भी नहीं। “

” तो फिर भालू, सियार, भैंसें, या इसके जैसे कोई साँपों का जोड़ा देखा?

” नहीं मैंने ऐसा कुछ नहीं देखा। “

” तो फिर डर के मारे अब तक इतना क्यूँ काँप रहे हो ? “

” मैने जंगल में दो आदिवासियों को हँसते हुए बात करते देखा है। “

” मगर इसमें डरने जैसा क्या ? आदिवासी तो बड़े सीधे होते हैं, वे हमेशा हँसकर ही बात करते हैं। “

” हाँ, मगर उनकी हँसी झूठी थी। और वे बातें भी दिल्ली की कर रहे थे। ”

अब सभी एक साथ और ज्यादा डरने लगे।

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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