(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 132 ☆ देश-परदेश – Neighbours Envy ☆ श्री राकेश कुमार ☆
“दोस्त बदल सकते है लेकिन पड़ोसी नहीं” जैसे भी हैं, निभाना ही पड़ेगा। पड़ोसी धर्म जैसे सुविचार अब इतिहास बन चुका है। नैतिकता जैसे शब्द तो अब डिक्शनरी से हटाए जाने की चर्चा चल रही है।
पड़ोसी से विवाद का पहला चरण होता है, स्वतन्त्र घरों के सीमांकन को लेकर। प्रत्येक व्यक्ति समझता है, कि उसके पड़ोसी ने उसकी कुछ जमीन पर अनधिकृत कब्जा कर रखा हैं। कॉमन दीवार झगड़े की जड़ का काम करती है। दोनों को कॉमन दीवार से ज़मीन तो बचती ही है, साथ ही साथ खर्च भी सांझा हो जाता है। झगड़ा करने का कोई तो कारण होना ही चाहिए।
जो व्यक्ति पहले से रह रहा होता है, वो नए पड़ोसी पर आरंभ से ही हावी होने की तैयारी करने लगता है। सरकारी पानी को लेकर बूस्टर का उपयोग करना दूसरा बड़ा कारण है, विवाद के लिए।
बिजली की तार का यदि सांझा खंभा है, तो फिर क्या कहने, एक दूसरे के बिल में तांका झांकी शुरू हो जाती है। दोनों एक दूसरे को बिजली का बिल अधिक आने के लिए दोषी मानते है। ये नहीं पता दोनो परिवार ए सी का उपयोग चौबीस घंटे करते रहते हैं।
सामने की तरफ का खुला एरिया जिसमें गार्डन या गमले रखे जाते हैं, हवा चलने पर पत्ते आदि उड़ने पर भी कोहराम मचता ही है।
सूर्य देवता का प्रकाश प्रतिदिन समय और थोड़ी सी दिशा में भी परिवर्तन के लिए पड़ोसी की दीवार, खिड़की आदि को बलि का बकरा बना दिया जाना एक आम बात हैं।
आप भी अपनी पुरानी रंजिशों/विवादों को याद करें, और मुस्कराए। हम तो आज अपने पड़ोसी के पुत्र के विवाह में जाने की तैयारी में हैं। कल फिर पड़ोस पर भी चर्चा करेंगे।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “राहगीर …“।)
अभी अभी # 685 ⇒राहगीर श्री प्रदीप शर्मा
जो रास्ते पर चले, उसे राही कहते हैं।
राही मनवा दुख की चिंता क्यूं सताती है, दुख तो अपना साथी है ;
राही तू मत रूक जाना, तूफां से मत घबराना। कभी तो मिलेगी, तेरी मंजिल, कहीं दूर गगन की छांव में ;
अक्सर राहगीर पैदल ही चलता है। उसकी यह यात्रा मुसाफिर भी बन जाती है, जब वह किसी वाहन का उपयोग यात्रा के लिए कर लेता है। साइकिल से लेकर हवाई जहाज तक का पैसेंजर बन बैठता है वह। पदयात्रा की गिनती तो आजकल तप और रोमांच का प्रतीक बन गई है। भक्त गण नवरात्रि में, वारकरी संप्रदाय के लोग विट्ठल के अभंग गाते हुए पद यात्रा करते हैं तो श्रावण मास में कावड़िए भी शिवजी के अभिषेक का जल लिए कावड़ यात्रा पर निकल पड़ते हैं। राजस्थान में यह भक्त समुदाय रामदेवरा और नाथद्वारा के श्रीनाथ जी की ओर उमड़ता हुआ देखा जा सकता है। लोकतंत्र में कभी पदयात्रा का उपयोग सत्याग्रह की तरह राजनीतिक हथियार की तरह भी प्रयुक्त होता था। अब जमांना ट्रैक्टर और ट्रॉली रैलियों का आ गया है। लोकतंत्र अब इतना पैदल भी नहीं रहा।
एक समय था, जब आज के इंदौर जैसा महानगर पूरी आसानी से पैदल नापा जा सकता था। लोग तीन चार किलोमीटर तक के लिए किसी वाहन का प्रयोग नहीं करते थे। जल्दी और दूरी के स्थान के लिए एकमात्र साइकिल ही विकल्प था। और वहां की खुद की नहीं, किसी किराए की साइकिल का ही उपयोग किया जाता था। काम हुआ और साइकिल सरेंडर। रात भर के कौन रुपया आठ आने एक्स्ट्रा दे। ।
शहर में इतनी होटलें, इतने बाजार और इतनी पान की दुकानें थीं, कि पैदल सड़क का रास्ता नापते ही नापते कब सुबह से शाम हो जाती थी, पता ही नहीं चलता था। ठंड के मौसम का इंदौर का रविवार तो खुली सड़क और खुले आसमान के हवाले ही कर दिया जाता था।
घर से निपट सुलझकर बिना नहाए ही पहले पास के किसी केश कर्तनालय के आइने में अपना चेहरा देख, कंघे से बाल ओंछकर तसल्ली कर लेते, मैं वही हूं। मास्टरजी, किती वेळ ?
मास्टरजी के मुंह में पहले से ही पान विराजमान। कितनी देर है मास्टर जी।
पान के छींटों के साथ जवाब आता, बस इनके बाद आपका ही समझो। आधा घंटा मान लो कम से कम। ।
घर केश कर्तनालय में एक अदद रेडियो होता था, और ग्राहकों के लिए एक सुषमा, सरिता मुक्ता युक्त, मनोरंजक पुस्तकालय के साथ ही मनोरंजन के किस्से भी होते थे। वे कभी कभी तो इतने रुचिकर होते थे, कि पु. ल.देशपांडे की याद दिला देते। केश कर्तनालय में कौन श्रोता और कौन वक्ता, कुछ पल्ले ही नहीं पड़ता। इतने से माहौल में देश की सरकार हिल जाती, लेकिन तभी अचानक एक कुर्सी खाली हो जाती। कपड़े झटकते हुए, बालों को जिम्मेदारियों का बोझ झाड़ते हुए, वे कुर्सी की सत्ता और किसी को सौंप जाते और देश का लोकतंत्र बहाल हो जाता।
यह तो पैदल यात्रा की शुरुआत होती थी। जेलरोड पर प्रशांत के पोहे और सिख मोहल्ले में दामू अण्णा की कचौरी बड़ी बेसब्री से इंतजार में गर्म होती रहती थी। दो लोग हों तो बड़ा चाय का प्याला अन्यथा छोटा कप। ।
वहां से काफी हाउस कहां दूर ? दस कदम ही तो चलना है। कभी बुद्धिजीवियों का स्वर्ग था कॉफी हाउस, बुद्धू बक्से ने सब कबाड़ा कर दिया। आजकल तो कॉफी हाउस में भी एक टेबल से दूसरे टेबल पर व्हाट्सएप मैसेज ही भेजे जा रहे हैं। आदमी या तो खा रहा है, या फिर मोबाइल देख रहा है।
काफ़ी हाउस में घड़ी तब ही देखी जाती थी, जब बारह बजने का अंदेशा होता था। अरे सब्जी भी तो लेना है। थैला तो टिका दिया, अब टांगो सब्जी की थैली कंधे पर और चलो सब्जी मार्केट। जब तक घर पहुंचेंगे, और नहा धोकर फ्रेश होंगे, पेट में चूहे कूद रहे होंगे। पूरा दिन कैसे कट गया, सरे राह चलते चलते। थोड़ी सी आंख लग जाए तो शाम को परिवार के साथ अलका टाकीज में फिल्म देखी जाए, यहीं पास में ही तो है और मैनेजर भी अपने वाला ही है। ।
साहब तो दिन भर भटक लिए, एक राहगीर की तरह, अब तो बीवी और बच्चों की फरमाइश की शाम। रीगल में ही फिल्म देखेंगे और बाद में वोल्गा में छोटे भटूरे खाएंगे। बहुमत से स्वीकृति। संतुष्टि और थकान में जब रात्रिकालीन सभा समाप्त होती थी, तो राहगीर सोमवार को पुनः तरो ताज़ा होकर अपनी राह पर निकल पड़ता था।
लेकिन आज सड़कें खाली नहीं, फुटपाथ पर अतिक्रमण। पैदल आजकल उतना ही मजबूरी में चलता है, जितना गाड़ी पार्क करके चलना पड़ता है। किसी भी फंक्शन अथवा विवाह समारोह में जाना हो, तो गाड़ी कई किलोमीटर आगे पीछे पार्क करनी पड़ती है। पहले परिवार को गार्डन में छोड़ो, फिर पार्किंग के लिए सुरक्षित जगह ढूंढो। इतने में एक सज्जन गाड़ी निकालने में जब इनसे मदद मांगते हैं, तो इन्हें भी थोड़ी सी जगह की उम्मीद बन जाती है। भगवान सबका भला करे।।
गोरखपुर, उत्तरप्रदेश से श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव जी एक प्रेरणादायक महिला हैं, जिन्होंने अपनी लेखनी से समाज में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उन्हें 2024 में अंतरराष्ट्रीय महिला सम्मान से नवाजा गया। उनके द्वारा संवाद टीवी पर फाग प्रसारण प्रस्तुत किया गया और विभिन्न राज्यों के प्रमुख अखबारों व पत्रिकाओं में उनकी कविता, कहानी और आलेख प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी लेखनी में समाज के प्रति संवेदनशीलता और सृजनात्मकता का सुंदर संगम देखने को मिलता है।
शादीशुदा बेटी को मायके से ससुराल जाने के समय मां या भाभी द्वारा एक पोटली में धान, चावल, जीरा, सिक्का, फूल, और हल्दी भरकर दी जाती है। इस सामग्री को ही खोइछा कहा जाता है। खोइछा को लेकर यह मान्यता है कि यह बेटी के जीवन में सुख समृद्धि लेकर आता है
जब बेटी मायके छोड़कर जाती है तब उसके साथ होता है वह खोइछा ससुराल के आंगन में प्रवेश करने के बाद वह खोइछा बेटी अपनी ननद को दे देती है अब उस खोइछा पे ननद का अधिकार होता है
माँ के आंगन से ससुराल के आंगन तक पहुँचने के बाद खोइछा का अधिकार बेटी के ससुराल वाले का हो जाता है शायद इस बात पे किसी ने ध्यान नही दिया है –
खैर मैं लिखतीं हूँ –
उन चावल के दानों में छुपा हुआ आता है पिता के संस्कार, उन हल्दी के गांठ में बंध के आता है माँ का वात्सल्य प्रेम, उन सिक्के पे दर्ज हुआ होता है भाई-बहन के नाज नखरे और उन दूभ में होता है एक संदेश कि बेटी तेरा आंगन बदल तो गया लेकिन दूभ की पवित्रता हमेशा बनाएं रखना और ससुराल के आंगन में सुख-समृद्धि के साथ फैल जाना बिलकुल अन्नपूर्णा के रूप में ।
अब आप ही बताईएगा –
जब माता -पिता ने इतने प्रेम से खोइछा दिया है बेटी को तो एक नव- बहू भी अपने ससुराल में प्रेम से प्रवेश क्यों न करें
आखिर यह वात्सल्य प्रेम ही तो है खोइछा जो पीढ़ी दर पीढ़ी स्त्री को समर्पित एवं समर्पण भाव की मौन शिक्षा पढ़ाती आ रही हैं बिलकुल माँ के वात्सल्य प्रेम के जैसा।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 289 ☆ प्याऊ…
अपने काम के सिलसिले में प्रेस के लिए रवाना हुआ हूँ। देखता हूँ कि रास्ते में एक प्याऊ का बड़ा फ्लेक्स लगा है। आजकल पानी ठंडा रखने के लिए उपयोग किए जाने वाले बीस लीटर वाले तीन कंटेनर चेन से बंधे हैं। ग्लास भी चेन से बंधे हुए रखे हैं। प्याऊ के लिए जितना स्थान घेरा गया है, मुश्किल से उसके बीस प्रतिशत भाग में यह तीनों कंटेनर हैं। शेष अस्सी प्रतिशत का वर्णन करूँ तो कंटेनरों के दोनों ओर एक राजनीतिक पार्टी के हाईकमान के कट आउट लगे हैं। कंटेनर के ऊपर की ओर फ्लेक्स से तोरण बनाया गया है। उस पर राजनीतिक पार्टी का नाम लिखा है और स्थानीय इकाई के सदस्यों के फोटो लगे हैं। यहाँ तक कि कंटेनर के पीछे वाले हिस्से में भी इस राजनीतिक पार्टी के एक दिवंगत नेता का बड़ा-सा फोटो लगा दिया गया है।
मन कुछ कसैला-सा हो गया। यह कैसी व्यवस्था है जहाँ तिल को ताड़ बनाकर और मुट्ठी भर काम को पहाड़ बनाकर प्रस्तुत किया जाता है। सोचते-सोचते प्रेस के निकट पहुँच चुका हूँ।
यहाँ सड़क के बीच बने एक छोटे से प्राचीन मंदिर से मुड़कर आगे जाना है। देखता हूँ कि यहाँ भी सामने की ओर बने देवी के मंदिर के सामने एक प्याऊ लगी है। तथापि दृश्य यहाँ कुछ अलग है। काले रंग के तीन बड़े-बड़े मटके। हरेक की क्षमता लगभग सौ लीटर है। ग्लास यहाँ भी हैं। ऊपर की ओर एक छोटा-सा फ्लेक्स भी है। इस फ्लेक्स पर जिनके स्मरणार्थ प्याऊ शुरू की गई है, उनका नाम लिखा है। फोटो के स्थान पर मंदिर में विराजित देवी का फोटो छपा है।
मुझे अपना ननिहाल याद आ गया। ग्रीष्मावकाश में हम राजस्थान में अपनी ननिहाल जाया करते थे। मैं देखता था कि गाँव में सार्वजनिक स्थानों पर, गाँव से आसपास के गाँवो या ढाणी (बस्ती) के लिए जानेवाले रास्तों पर, टीबों (रेत के टीले) के पास बड़े-बड़े मटकों से प्याऊ लगा कर प्राय: बुज़ुर्ग महिलाएँ बैठी होती थीं। समाज विज्ञान और मनोविज्ञान की दृष्टि से देखें तो वृद्धों का समय बीत सके, इसकी सार्थक सामाजिक व्यवस्था लोक ने कर रखी थी। प्याऊ के आसपास का वातावरण ठंडा और सुखद होता था। आते-जाते पथिक प्याऊ के पास ही बैठकर कुछ सुस्ता भी लेते। उन दिनों रामझरे से पानी पिलाया जाता था। ये रामझरे तांबे या पीतल से बने होते थे।
विज्ञान कहता है कि तांबे के पात्र में रखा पानी शरीर के लिए गुणकारी होता है। कॉपर के एंटीबैक्टीरियल तत्व शरीर को लाभ पहुँचाते हैं। तांबे के पात्र में रखा जल ग्रहण करने से शरीर की ऊर्जा में वृद्धि होती है। यह जल पाचनशक्ति को बेहतर करता है। कहते हैं कि इस जल से मानसिक शांति भी मिलती है। बचपन में मानसिक शांति-अशांति का तो पता नहीं था पर तपते रेगिस्तान में तांबे के रामझरे से झरने वाले जल के स्वाद एवं तृप्ति के आगे, समुद्र-मंथन के बाद देवताओं द्वारा किया गया अमृतपान भी फीका था।
हाँ, उन दिनों प्याऊ का कोई फ्लेक्स नहीं बनता था। प्यासे को पानी पिलाना न प्रचार था ना दिखावा। पानी पिलाना कर्म था, पानी पिलाना धर्म था।
सोचता हूँ कि कहाँ आ पहुँचे हैं हम? यह कैसी प्रदर्शनप्रियता है? जहाँ छाछ भी नहीं बेची जाती थी, वहां पानी पिलाना भी टीआरपी टूल हो चला है।
भारतीय दर्शन कहता है-
अमृतम् सर्व भूतानाम्, जलम् सर्वस्य जीवनम्।
यस्मान् न सानुप्राप्तम्, तस्मान् दानम् वरं परम्।
अर्थात सभी प्राणियों के लिए जल अमृत के समान है, जल सभी का जीवन है। जिसकी प्राप्ति नहीं होती (बनाया नहीं जा सकता), उसका दान परम श्रेष्ठ होता है।
तब और अब के जीवन दर्शन का अंतर कभी ‘प्याऊ’ शीर्षक की एक कविता में उतरा था-
खारा पानी था उनके पास,
मीठे पानी का सोता रहा
तुम्हारे पास,
तब भी,
उनके खड़े होते रहे महल-चौबारे,
और तुम, उसी कुटिया के सहारे,
सुनो..!
बोतलबंद पानी बेचना
उनकी प्रवृत्ति रही,
प्याऊ लगना मेरी प्रकृति रही,
जीवन के आयामों का
अनुसंधान, अपना-अपना…
जीवन के अर्थ पर
संधान, अपना-अपना…!
जीवन हमारा है। अपने जीवन के अर्थ का संधान हमें स्वयं ही करना होगा। तथापि मनुष्य होने के नाते वांछित है कि कुछ ऐसा किया जाए जिससे प्यास, आकंठ तृप्त हो सके। शेष निर्णय अपना-अपना।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
writersanjay@gmail.com
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
12 अप्रैल 2025 से 19 मई 2025 तक श्री महावीर साधना सम्पन्न होगी
प्रतिदिन हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमन्नाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें, आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख शक़, प्यार और विश्वास। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 276 ☆
☆ शक़, प्यार और विश्वास ☆
मन के दरवाज़े से जब शक़ प्रवेश करता है; प्यार व विश्वास निकल जाते हैं, यह अकाट्य सत्य है। शक़ दोस्ती का दुश्मन है और उसके जीवन में दस्तक देते ही तहलक़ा मच जाता है; शांति व सुक़ून नष्ट हो जाता है। पारस्परिक स्नेह व सौहार्द दूसरे दरवाज़े से रफूचक्कर हो जाते हैं और उनके स्थान पर काम, क्रोध व ईर्ष्या-द्वेष अपनी सल्तनत क़ायम कर लेते हैं। दूसरे शब्दों में विश्वास वहां से कोसों दूर चला जाता है। जीवन में जब विश्वास नहीं रह जाता, तो वहां पर शून्यता पसर जाती है; शत्रुता का भाव काबिज़ हो जाता है और मानव ग़लत राहों पर अग्रसर हो जाता है। आजकल रिश्तों में अविश्वास की भावना हावी है, जिसके कारण अजनबीपन का एहसास सुरसा के मुख की भांति पांव पसार रहा है और संबंधों को दीमक की भांति चाट रही है। संदेह, संशय व शक़ ऐसा ज़हर है, जो स्नेह व विश्वास को लील जाता है। वह दिलों में ऐसी दरारें उत्पन्न कर देता है, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है और जब तक मानव इस सत्य से अवगत होता है; बहुत देर हो चुकी होती है। वह प्रायश्चित करना चाहता है, परंतु ‘अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत’ अर्थात् उसे खाली हाथ लौटना पड़ता है।
रिश्तों की माला जब टूटती है, तो जोड़ने से छोटी हो जाती है, क्योंकि कुछ जज़्बात के मोती बिखर जाते हैं। ‘रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय/ टूटे ते पुनि न जुरे, जुरे ते गांठ परि जाय’ क्योंकि एक बार संशय रूपी गांठ मन में पड़ने से स्नेह, प्रेम व विश्वास दिलों से नदारद हो जाता है। इसलिए कहा जाता है कि रिश्तों का क्षेत्रफल कितना अजीब है/ लोग लंबाई-चौड़ाई तो नापते हैं/ गहराई कोई नहीं आंकता। आजकल के रिश्ते मात्र दिखावे के होते हैं, जो ज़रा की ठोकर लगते टूट जाते हैं, भुने हुए पापड़ की मानिंद और कांच के विभिन्न टुकड़ों में बिखर जाते हैं। वैसे भी आजकल रिश्तों की अहमियत रही ही नहीं; यहां तक कि खून के रिश्ते भी बेमानी भासते हैं। सो! इस स्थिति में मानव किस पर विश्वास करे?
छोटी सोच शंका को जन्म देती है और बड़ी सोच समाधान को। सुनना सीख लो, सहना आ जाएगा। सहना सीख लिया, तो रहना सीख जाओगे। इसलिए मानव का हृदय विशाल व सोच सकारात्मक होनी चाहिए, क्योंकि नकारात्मकता मानव को अवसाद के व्यूह में लाकर खड़ा कर देती है। मानव को दूसरों की अपेक्षा ख़ुद से उम्मीद रखनी चाहिए, क्योंकि दूसरों से उम्मीद रखना चोट पहुंचाता है और ख़ुद से उम्मीद रखना जीवन को प्रेरित करता है; निश्चित मुक़ाम पर पहुंचाता है। वैसे संसार में सबसे मुश्किल काम है आत्मावलोकन करना अर्थात् स्वयं को खोजना, क्योंकि आजकल मानव के पास समयाभाव है। सो! ख़ुद से मुलाकात कैसे संभव है? इससे भी बढ़कर कठिन है– अपनों में अपनों को तलाशना, क्योंकि चहुंओर अविश्वास का वातावरण व्याप्त है। हमारे अपने क़रीबी व राज़दार ही सबसे अधिक दुश्मनी निभाते हैं। इन असामान्य परिस्थितियों में मानव तनाव-ग्रस्त होकर सोचने लगता है ‘वक्त भी कैसी पहेली दे गया/ उलझनें हज़ार और ज़िंदगी अकेली दे गया।’ जीवन में इच्छाओं के मकड़जाल में फंसा इंसान लाख चाहने पर भी उनके शिकंजे से बाहर नहीं आ सकता। वक्त व ख़्वाहिशें हाथ में बंधी घड़ी की तरह होती हैं, जिसे हम विषम परिस्थितियों में उतार कर भी रख दें, तो भी चलती रहती है। इसलिए कहा जाता है कि ज़रूरतों को पूरा करना मुश्किल नहीं; परंतु आकांक्षाओं को पूरा करना असंभव है और नामुमक़िन है/ कुछ ख़्वाहिशों को ख़ामोशी से पालना अर्थात् हमें इनके पीछे नहीं भागना चाहिए, क्योंकि यह तो मायाजाल है, जिसमें मानव फंस कर रह जाता है।
जीवन एक यात्रा है/ रो-रोकर जीने से लम्बी लगेगी/ और हंसकर जीने से कब पूरी हो जाएगी/ पता भी न चलेगा। सो! मानव को सदैव प्रसन्न रहना चाहिए तथा किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए, क्योंकि अपेक्षा व उपेक्षा दोनों मानव के लिए हानिकारक हैं। वे मानव को उस कग़ार पर लाकर खड़ा कर देती हैं, जहां वह स्वयं को असहाय अनुभव करता है। किसी से उम्मीद रखना और उसकी पूर्ति न होना; उपेक्षा का कारण बनता है। यह दोनों स्थितियां भयावह हैं। ‘उम्र भर ग़ालिब यह भूल करता रहा/ धूल चेहरे पर थी/ और आईना साफ करता रहा।’ मानव जीवन में यही ग़लती करता है कि वह सत्य का सामना नहीं करता और माया के आवरण में उलझ कर रह जाता है। इसलिए कहा जाता है कि अंदाज़ में न नापिए/ किसी की हस्ती/ ठहरे हुए दरिया/ अक्सर गहरे हुआ करते हैं। परंतु मानव दूसरों को पहचानने की ग़लती करता है और चापलूस लोगों के घेरे से बाहर नहीं आ सकता। दूसरों को खुश करने के लिए मानव को तनाव, चिन्ता व अवसाद से गुज़रना पड़ता है। खुश होना है/ तो तारीफ़ सुनिए/ बेहतर होना है तो निंदा/ क्योंकि लोग आप से नहीं/ आपकी स्थिति से हाथ मिलाते हैं। यह जीवन का कड़वा सच है। पद-प्रतिष्ठा तो रिवाल्विंग चेयर की भांति हैं, जिसके घूमते ही लोग नज़रें फेर लेते हैं।
वास्तव में सम्मान व्यक्ति का नहीं, उसके पद, स्थिति व रुतबे का होता है। सो! सम्मान उन शब्दों में नहीं, जो आपके सामने कहे गए, बल्कि उन शब्दों का होति है, जो आपकी अनुपस्थिति में कहे जाते हैं। इसलिए कहा जाता है कि व्यक्ति की सोच व व्यवहार उसके जाने से पहले पहुंच जाते हैं। सत्य को हमेशा तीन चरणों से गुज़रना पड़ता है– उपहार, विरोध व अंतत: स्वीकृति। सत्य को सबसे पहले उपहास का पात्र बनना पड़ता है; फिर विरोध सहना पड़ता है और अंत में उसे मान्यता प्राप्त होती है। परंतु सत्य तो सात परदों के पीछे से भी प्रकट हो जाता है। इसलिए कहा जाता है कि सत्य ही शिव है; शिव ही सुंदर है। जीवन में सत्य की राह पर चलना ही श्रेयस्कर है, क्योंकि उसका परिणाम सदैव कल्याणकारी होता है और वह सबको अपनी ओर आकर्षित करता है। व्यवहार ज्ञान से बड़ा होता है और हम अपने विनम्र व्यवहार द्वारा परिस्थितियों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। ज्ञान से शब्द समझ में आते हैं और अनुभव से विचार। सो! विचार ऐसे रखो कि किसी को तुम्हारे विचारों पर भी विचार करना पड़े अर्थात् सार्थक विचार और सार्थक कार्य-व्यवहार को जीवन में धरोहर-सम संजोकर रखें। जीवन में हमेशा कर्मशील रहें; थककर निराशा का दामन मत थामें, क्योंकि सफल व्यक्ति कुर्सी पर भी विश्राम नहीं करते। उन्हें काम करने में आनंद आता है। वे सपनों के संग सोते हैं और प्रतिबद्धता के साथ जाग जाते हैं। वे लक्ष्य के प्रति समर्पित होते हैं और वही उनके जीने का अंदाज़ होता है। यही सोच थी कलाम जी की–आत्मविश्वास रखो। कबीरदास जी के मतानुसार ‘आंखिन देखी पर विश्वास करें; कानों सुनी पर नहीं’, क्योंकि लोग किसी को खुश नहीं देख सकते। उन्हें तो दूसरों के जीवन में आग लगाकर आनंदानुभूति होती है। इसलिए वे ऊल-ज़लूल बातें कर उनका विश्वास जीत लेते हैं। उस स्थिति में उनके परिवार की खुशियों को ग्रहण लग जाता है। स्नेह व प्रेम भाव उस आशियाने से मुख मोड़ लेते हैं और विश्वास भी सदा के लिए वहां से नदारद हो जाता है। उस घर में मरघट-सा सन्नाटा पसर जाता है। घर परिवार टूट जाते हैं। संदेह व संशय के जीवन में दस्तक देते ही खुशियां अलविदा कह बहुत दूर चली जाती हैं। सो! एक-दूसरे के प्रति विश्वास भाव होना आवश्यक है, ताकि जीवन में समन्वय व सामंजस्य बना रहे। वैसे भी मानव को सब कुछ लुट जाने के पश्चात् ही होश जाता है। जब उसे किसी वस्तु का अभाव खलता है, तो ज़िंदगी की अहमियत नज़र आती है। इसलिए शीघ्रता से कोई निर्णय न लें, क्योंकि जो दिखाई देता है, सदा सत्य नहीं होता। मुश्किलें कितनी भी बड़ी क्यों न हों, हौसलों से छोटी रहती हैं। इसलिए संकट की घड़ी में अपना आपा मत खोएं; सुक़ून बना रहेगा और जीवन सुचारु रुप से चलता रहेगा।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लड़की आँख मारे…“।)
अभी अभी # 682 ⇒ लड़की आँख मारे श्री प्रदीप शर्मा
मुझे मरने मारने की बातें पसंद नहीं ! इनसे मुझे हिंसा और अपराध की बू आती है। वैसे आँख मारना भले ही हिंसा की श्रेणी में न आता हो, लेकिन आँख मारना एक अशालीन हरकत है और यह एक छेड़छाड़ का मामला होकर दंडनीय अपराध है।
यह सच है कि आँख मारने से एक मक्खी भी नहीं मरती ! लेकिन हमारा सभ्य समाज इसे मक्खी मारने से भी अधिक घृणित कार्य मानता है। आँख मारना, यह मनचलों, आवारा, छिछोरे छोरों का जन्मसिद्ध अधिकार है। संसद तो इसे एक असंसदीय आचरण भी घोषित कर चुकी है।।
कल एक विवाह समारोह में आयोजित महिला संगीत में जब एक छोटी सी बालिका ने, वो लड़की आँख मारे वाले गाने पर डांस प्रस्तुत किया तो सबकी आँखें खुली की खुली रह गई। मैं ऐसे वक्त डीजे के शोर से कानों को बचाता हुआ, चोरी से झपकी भी ले लिया करता हूँ। लेकिन इस गीत ने मेरी भी आँखें खोल दीं। बार बार कानों में जब आँख, आँख, आँख, आँख जैसा कर्कश शब्द पड़ने लगे तो कान भी सब कुछ सुनने के साथ देखने को भी मज़बूर हो जाते हैं।
लड़की आँख मारे और सीटी बजाए ! अब बोलिये, कौन से अपराध की कौन सी धारा लगाएंगे भद्र जन ;
वे क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता। हम उफ़ भी करते हैं, तो हो जाते हैं बदनाम।
कहाँ गई वो कमसिन अदाएँ जिस पर हर शायर का कुर्बान होने को दिल करता था।।
मुक्त और उन्मुक्त में थोड़ा ही फ़र्क होता है। फिल्मी गाने जिस रफ़्तार से उन्मुक्त होते जा रहे हैं, हमारा सभ्य समाज भी अपने आपको उस शैली में ढाल रहा है। आज की पीढ़ी अपने कैरियर और पढ़ाई के तनाव को हल्के फुल्के मनोरंजन से ही दूर कर सकती है।
शादी विवाह एक ऐसा मौका होता है जहाँ अपनों के बीच इंसान अपने को अधिक तनावमुक्त महसूस करता है। महिला संगीत में फिल्मी गानों पर ही सही, डांस की हफ्तों प्रैक्टिस की जाती है। टीवी पर प्रसारित म्यूजिक और डांस के प्रोग्राम और फिल्में ही इनका आदर्श होती हैं।।
मन में मलिनता न हो, नज़र में खोट न हो, तो दुनिया में कहीं गंदगी नज़र न आए। शादियों में हँसी मज़ाक, गीत सङ्गीत जीवन में उत्साह और उमंग पैदा करता है। सभी अपने हैं, कैसी वर्जना, कैसी मर्यादा। कोई बुरा नहीं मानता, जब लड़की आँख मारे।।
☆ ~ लखनऊ के बड़ा मंगल हनुमान जी की आराधना का विशेष पर्व~ ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆
मुझे ऐसा उत्सव पूरे हिंदुस्तान में कहीं नहीं दिखाई नहीं देता। श्री हनुमान जी आम जनमानस के सबसे लोकप्रिय एवं अटूट विश्वास के देवता है। यह बात सनातन संस्कृति से संबंध रखने वाले लगभग प्रत्येक भारतीय को भलीभांति ज्ञात है।
हिन्दू ही नहीं बल्कि अन्य धर्म -संप्रदाय के लोगों के मुंह से भी मैंने श्री हनुमान जी के विषय में जानते – कहते सुना है। अक्सर लोगों के द्वारा मैंने कहते सुना है कि भारत के हिन्दू समाज को वेद -वेदांत अन्य धर्म ग्रंथ का बहुत कुछ याद रहे या न रहे, श्री हनुमान चालीसा तो हर किसी को याद रहता ही रहता है।
व्यक्ति पूरा हनुमान चालीसा न पढ पावे तो भी कुछ पंक्तियां उन्हें याद रहती ही रहती हैं।
संकट काल में हनुमान जी को याद करके बड़े से बड़े विघ्न को स्वत: समाप्त कर लेने की क्षमता भारतीय जनमानस में रची -बसी है। हनुमान जी के विषय में कहा जाता है कि वह अतुलित बल के धाम और विद्या और ज्ञान के सागर हैं। लेकिन उन्हें उनकी विद्या को याद दिलाने की आवश्यकता साथ सदैव रही है। जैसा कि जामवंत जी ने हनुमान जी को उनकी बुद्धि और उनके बल को जब याद दिलाया तो वे विशाल समुंदर लांघ गए।
कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है कि यह बात सिर्फ हनुमान जी पर लागू नहीं होती है। बल्कि हर हनुमान भक्त के ऊपर भी लागू होती है।
विदेशी मूल के बहुत सारे लोगों के विषय में मैंने सुना है कि वे नीम करोली बाबा के बड़े भक्त एवं अनुयायी है। हनुमान जी के भक्ति और चमत्कार के विषय में मैंने बहुत सारे लोगों के मुंह से कई कथाएं – घटनाक्रम सुनी है।
अब मैं लखनऊ और हनुमान जी की बात करता हूँ। श्रीहनुमान जी का और लखनऊ का बड़ा ही प्राचीन और आस्था विश्वास भरा नाता है। अवध के नवाब की हनुमत भक्ति, अलीगंज का हनुमान मंदिर, तथा लखनऊ के बड़े मंगल का महात्म्य इसका परिचायक है।
जैसा कि मैंने वर्ष 2013 लिखें अपने एक लेख “लखनऊ का बड़ा मंगल विशेष” जिसे मैं अपनी पुस्तक मानस में गुरु गंगा महिमा में स्थान दिया है को लिख चुका हूँ।
इसके अनुसार हमें लखनऊ में जगह-जगह पर श्रीहनुमान मंदिर दिख जाएंगे। श्री रामजानकी और लक्ष्मण जी के विग्रह से ज्यादा विग्रह एवं मंदिर श्रीहनुमान जी के मिलते हैं। श्रीहनुमान जी के मंदिरों में मूल विग्रह हनुमान जी का होता है, लेकिन वहां श्री राम दरबार की झांकी भी होती है।
आम भारतीय के जीवन में कुछ एक ऐसी समस्याएं हैं जो लगभग आती ही आती है। हनुमान जी के आराधना के महामंत्र हनुमान चालीसा में इन सारी समस्याओं का हल भरा पड़ा है।
इस संदर्भ में मैं हनुमान चालीसा की कुछ पंक्तियों को उद्धरित करता हूं –
जय जय जय हनुमान गोसाई। कृपा करहुँ गुरुदेव की नाई। ।
भूत-पिशाच निकट न आवे। महावीर जब नाम सुनावे।।
नासै रोग हरे सब पीरा। जपत निरंतर हनुमत बीरा। ।
दुर्गम काज जगत के जेते। सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते। ।
संकट ते हनुमान छुड़ावै। मन क्रम वचन ध्यान जो लावै। ।
और मनोरथ जो कोई लावै। सोई अमित जीवन फल पावै। ।
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता। अस बर दीन जानकी माता। ।
संकट कटै मिटे सब पीरा। जो सुमिरै हनुमत बलबीरा। ।
जो सत बार पाठ कर कोई। छूटहि बंदी महा सुख होई। ।
जो यह पढे हनुमान चलीसा। होहि सिद्ध साखी गौरीसा। ।
श्री हनुमान चालीसा की ये ऐसी चौपाइयां है जो हमारी आम समस्याओं का सरल समाधान है, ऐसा हनुमान भक्तों का मानना है।
अपनी दादी आलिया बेगम के बीमार होने और उसके बाद हनुमान जी की कृपा से स्वस्थ होने के बाद लखनऊ के नवाब का हनुमान प्रेम बढ़ जाता है। जेष्ठ माह का महीना वास्तव में बहुत गर्म महीना होता है और प्राचीन काल में पदयात्राओं का प्रचलन था। लोग एक स्थान से दूसरे स्थान पर पैदल, ऊंट गाड़ी घोड़ा गाड़ी, या बैलगाड़ी से जाते थे। व्यापार भी लगभग इसी तरह से होता था। कहते हैं कि लखनऊ से गुजरने वाले इन यात्रियों को जेष्ठ के महीने में पानी पिलाने की परंपरा इस शहर में थी। इस शहर का श्रीहनुमान प्रेम सर्वविदित है। इस कारण सैकड़ो बरसों से चली आ रही परंपरा के अनुसार भंडारे के रूप में जगह-जगह पर जेठ के सभी मंगल में पंडाल सजाए जाते रहे हैं। पंडाल में श्री हनुमान जी की तस्वीर या विग्रह रखकर लोग बड़े ही श्रद्धा भाव के साथ लोगों को हनुमान जी के प्रिय प्रसाद का भोग लगाकर भक्तों के बीच वितरण करते हैं। पूरे जेष्ठ भर सभी मंगलवार को (अब तो कई जगह पर पूरे महीने) लखनऊ में हनुमान जी का यह उत्सव होता है। मुझे लगता है कि लखनऊ को छोड़कर पूरे भारत में हनुमान जी से जुड़ा हुआ यह जेष्ठ के बड़े मंगल जैसा त्यौहार कहीं नहीं मनाया जाता है। हालांकि अब लखनऊ से जुड़े हुए शहरों में जैसे रायबरेली, बाराबंकी, उन्नाव आदि में भी बड़ा मंगल मनाने की परंपरा प्रारंभ हो गई है। बड़े मंगल के भंडारे की एक विशेषता यह भी है कि इस भंडारे का प्रसाद हर कोई ग्रहण करना चाहता है। चाहे वह कितने भी बड़े ओहदे पर क्यों न हो। लोग अपनी गाड़ी रोक कर लाइन में लगकर प्रसाद ग्रहण करतें है। पूरी कद्दू की सब्जी और बूंदी इस भंडारे का मुख्य प्रसाद है। हालांकि आधुनिकता के जमाने में लोग न जाने और क्या-क्या वितरण कर रहे हैं। मैंने एक भंडारे में बोरा भर के चिप्स मंगाया गया था और उसको बांटते हुए मैंने देखा था। इसे देखकर मुझे खुशी भी हुई, वहीं कुछ हास्यास्पद भी लगा।
खैर इस बड़े मंगल में श्री हनुमान जी के भंडारे में श्रद्धारूप में जल प्रसाद से चलकर छप्पन किस्म के व्यंजन को वितरित करने की परंपरा है।
13 मई को लखनऊ का प्रथम बड़ा मंगल है। आज इस अवसर पर मैं आप सभी को ह्रदय से बधाई देता हूं और हनुमान जी से प्रार्थना करता हूं कि हे मेरे आराध्य, बल – बुद्धि के देवता आप अपनी कृपा इसी तरह हमारे भारत पर बनाये रखिएगा।
हमारे भारत का मान सम्मान गौरव और प्रतिष्ठा यथावत बना रहे।
श्री हनुमान जी से जुड़े हुए कुश्ती के अखाड़े भी पूरे भारत में है। उदा अखाड़े में कुश्ती होती है। कुश्ती में जब दो प्रतिभागी भाग लेते हैं तो जिनके पीठ में धूल लग जाती है उसे हारा हुआ मान लिया जाता है। आपके भक्त के विषय में कहा जाता है कि जिसके ऊपर हनुमान जी की कृपा होती है उसके पीठ में कभी धूल नहीं लगती है। यानी उसे सर्वदा विजय प्राप्त होती है। हे अंजनेय श्री हनुमानजी, ऐसी ही कृपा हम सभी हनुमान भक्तों एवं हमारे राष्ट्र पर बनाए रखिएगा। जैसा कि मैंने कहा सद्भाव और भाईचारे के मिसाल का यह त्यौहार, सामान्य त्यौहार नहीं बल्कि एक बड़ा उत्सव है, जो समाज को जोड़ता है। हमारी एकता अखंडता शौर्य पराक्रम का प्रतीक है। ऐसे पावन पर्व पर श्री हनुमान जी का वंदन करते हुए, सभी के प्रति धन्यवाद एवं बधाई ज्ञापित करते हैं।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “जतन कीजिए…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 244 ☆ जतन कीजिए… ☆
मातु चरणों में हर पल नमन कीजिए ।
जिंदगी आप अपनी चमन कीजिए ।।
पूज्यनीय भी यही, वंदनीय भी यही ।
ये दुखी हो न ऐसा जतन कीजिए ।।
अक्सर हम अपने विचारों में बदलाव उनके लिए करते हैं, जो कुछ नहीं करते क्योंकि हर व्यक्ति आखिरी क्षण तक जीत के लिए प्रयास करता है उसे लगता है शायद ऐसा करने से कोई अंतर आए। सत्य तो यही है कि मूलभूत स्वभाव किसी का नहीं बदलता हाँ इतना अवश्य होता है कि परिस्थितियों के आगे घुटने टेकने पड़ जाते हैं।
ऐसे लोग जो निरन्तर अपने लक्ष्य के प्रति संकल्पबद्ध होकर परिश्रम करते हैं उनसे भले ही कुछ ग़लतियाँ जाने- अनजाने क्यों न हो जाएँ अंत में वे विजयमाल वरण करते ही हैं। ऐसी जीत जिससे कई लोगों को फायदा हो वो वास्तव में स्वागत योग्य होती ही है।
शांति और सुकून से बड़ा कुछ भी नहीं, इसे हर कीमत पर हासिल करना चाहिए। सत्यनिष्ठा के साथ कदम से कदम मिलाते हुए चलते रहें जीत आपकी राह निहार रही है।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – एक पाठ ऐसा भी
मनुष्य का जीवन घटनाओं का संग्रह है। निरंतर कुछ घट रहा होता है। इस अखंडित घट रहे को हरेक अपने दृष्टिकोण से ग्रहण करता है। मेरे जीवन में घटी इस सामान्य-सी घटना ने असामान्य सीख दी। यह सीख आज भी पग-पग पर मेरा मार्गदर्शन कर रही है।
वर्ष 1986 की बात है। बड़े भाई का विवाह निश्चित हो गया था। विवाह जयपुर से करना तय हुआ। जयपुर में हमारा मकान है जो सामान्यत: बंद रहता है। पुणे से वहाँ जाकर पहले छोटी-मोटी टूट-फूट ठीक करानी थी, रंग-रोगन कराना था। पिता जी ने यह मिशन मुझे सौंपा। मिशन पूरा हुआ।
4 दिसम्बर का विवाह था। कड़ाके की ठंड का समय था। हमारे मकान के साथ ही बगीची (मंगल कार्यालय) है। मेहमानों के लिए वहाँ बुकिंग थी पर कुटुम्ब और ननिहाल के सभी सभी परिजन स्वाभाविक रूप से घर पर ही रुके। मकान काफी बड़ा है, सो जगह की कमी नहीं थी पर इतने रजाई, गद्दे तो घर में हो नहीं सकते थे। अत: लगभग आधा किलोमीटर दूर स्थित सुभाष चौक से मैंने 20 गद्दे, 20 चादरें और 20 रजाइयाँ किराये पर लीं।
उन दिनों सायकलरिक्शा का चलन था। एक सायकलरिक्शा पर सब कुछ लादकर बांध दिया गया। दो फुट ऊँचा रिक्शा, उस पर लदे गद्दे-रजाई, लगभग बारह फीट का पहाड़ खड़ा हो गया। जीवन का अधिक समय पुणे में व्यतीत होने के कारण इतनी ऊँचाई तक सामान बांधना मेरे लिए कुछ असामान्य था।
…पर असली असामान्य तो अभी मेरी प्रतीक्षा कर रहा था। रिक्शेवाला सायकल पर सवार हुआ और मेरी ओर देखकर कहा, ‘भाईसाब बेठो!” मेरी मंथन चल रहा था कि इतना वज़न यह अकेली जान केसे हाँकेगा! वैसे भी रिक्शा में तो तिल रखने की भी जगह नहीं थी सो मैं रिक्शा के साथ-साथ पैदल चलूँगा। दोबारा आवाज़ आई, “भाईसाब बेठो।” इस अप्रत्याशित प्रस्ताव से मैं आश्चर्यचकित हो गया। ” कहाँ बैठूँ?” मैंने पूछा। “ऊपरली बैठ जाओ”, वह ठेठ मारवाड़ी में बोला। फिर उसने बताया कि वह इससे भी ऊँचे सामान पर ग्राहक को बैठाकर दस-दस किलोमीटर गया है। यह तो आधा किलोमीटर है। “भाईसाब डरपो मनि। कोन पड्स्यो। बेठो तो सही।” मैंने उसी वर्ष बी.एस्सी. की थी। उस आयु में कोई चुनौती दे, यह तो मान्य था ही नहीं। एक दृष्टि डाली और उस झूलते महामेरु पर विराजमान हो गया। ऊपर बैठते ही एक बात समझ में आ गई कि चढ़ने के लिए तो मार्ग मिल गया, उतरने के लिए कूदना ही एकमात्र विकल्प है।
रिक्शावाले ने पहला पैडल लगाया और मेरे ज्ञान में इस बात की वृद्धि हुई कि जिस रजाई को पकड़कर मैं बैठा था, उसका अपना आधार ही कच्चा है। अगले पैडल में उस कच्ची रस्सी को थामकर बैठा जिससे सारा जख़ीरा बंधा हुआ था। जल्दी ही आभास हो गया कि यह रस्सी जितनी दिख रही है, वास्तव में अंदर से है उससे अधिक कच्ची। उधर गड्ढों में सड़क इतने कलात्मक ढंग से धंसी थी कि एक गड्ढे से बचने का मूल्य दूसरे गड्ढे में प्रवेश था। फलत: हर दूसरे गड्ढे से उपजते झटके से समरस होता मैं अनन्य यात्रा का अद्भुत आनंद अनुभव कर रहा था।
यात्रा में बाधाएँ आती ही हैं। कुछ लोगों का तो जन्म ही बाधाएँ उत्पन्न करने के लिए हुआ होता है। ये वे विघ्नसंतोषी हैं जिनका दृढ़ विश्वास है कि ईश्वर ने मनुष्य को टांग दूसरों के काम में अड़ाने के लिए ही दी है। सायकलरिक्शा मुख्य सड़क से हमारे मकानवाली गली में मुड़ने ही वाला था कि गली से बिना ब्रेक की सायकल पर सवार एक विघ्नसंतोषी प्रकट हुआ। संभवत: पिछले जन्म में भागते घोड़े से गिरकर सिधारा था। इस जन्म में घोड़े का स्थान सायकल ने ले लिया था। हमें बायीं ओर मुड़ना था। वह गली से निकलकर दायीं ओर मुड़ा और सीधे हमारे सायकलरिक्शा के सामने। अनुभवी रिक्शाचालक के सामने उसे बचाने के लिए एकसाथ दोनों ब्रेक लगाने के सिवा कोई विकल्प नहीं था।
मैंने जड़त्व का नियम पढ़ा था, समझा भी था पर साक्षात अनुभव आज किया। नियम कहता है कि प्रत्येक पिण्ड तब तक अपनी विरामावस्था में एकसमान गति की अवस्था में रहता है जब तक कोई बाह्य बल उसे अन्यथा व्यवहार करने के लिए विवश नहीं करता। ब्रेक लगते ही मैंने शरीर की गति में परिवर्तन अनुभव किया। बैठी मुद्रा में ही शरीर विद्युत गति से ऊपर से नीचे आ रहा था। कुछ समझ पाता, उससे पहले चमत्कार घट चुका था। मैंने अपने आपको सायकलरिक्शा की सीट पर पाया। सीट पर विराजमान रिक्शाचालक, हैंडल पर औंधे मुँह गिरा था। उसकी देह बीच के डंडे पर झूल रही थी।
सायकलसवार आसन्न संकट की गंभीरता समझकर बिना ब्रेक की गति से ही निकल लिया। मैं उतरकर सड़क पर खड़ा हो गया। यह भी चमत्कार था कि मुझे खरोंच भी नहीं आई थी…पर आज तो चमत्कार जैसे सपरिवार ही आया था। औंधे मुँह गिरा चालक दमखम से खड़ा हुआ। सायकलरिक्शा और लदे सामान का जायज़ा लिया। रस्सियाँ फिर से कसीं। अपनी सीट पर बैठा। फिर ऐसे भाव से कि कुछ घटा ही न हो, उसी ऊँची जगह को इंगित करते हुए मुझसे बोला,” बेठो भाईसाब।”
भाईसाहब ने उसकी हिम्मत की मन ही मन दाद दी लेकिन स्पष्ट कर दिया कि आगे की यात्रा में सवारी पैदल ही चलेगी। कुछ समय बाद हम घर के दरवाज़े पर थे। सामान उतारकर किराया चुकाया। चालक विदा हुआ और भीतर विचार की शृंखला चलने लगी।
जिस रजाई पर बैठकर मैं ऊँचाई अनुभव कर रहा था, उसका अपना कोई ठोस आधार नहीं था। जीवन में एक पाठ पढ़ा कि क्षेत्र कोई भी हो, अपना आधार ठोस बनाओ। दिखावटी आधार औंधे मुँह पटकते हैं और जगहँसाई का कारण बनते हैं।
आज जब हर क्षेत्र विशेषकर साहित्य में बिना परिश्रम, बिना कर्म का आधार बनाए, जुगाड़ द्वारा रातोंरात प्रसिद्ध होने या पुरस्कार कूटने की इच्छा रखनेवालों से मिलता हूँ तो यह पाठ बलवत्तर होता जाता है।
अखंडित निष्ठा, संकल्प, साधना का आधार सुदृढ़ रहे तो मनुष्य सदा ऊँचाई पर बना रह सकता है। शव से शिव हो सकता है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
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☆ आपदां अपहर्तारं ☆
12 अप्रैल 2025 से 19 मई 2025 तक श्री महावीर साधना सम्पन्न होगी
प्रतिदिन हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमन्नाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें, आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख – “ऑपरेशन सिंदूर… सेना के प्रति कृतज्ञ राष्ट्र” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 350 ☆
आलेख – ऑपरेशन सिंदूर… सेना के प्रति कृतज्ञ राष्ट्र श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
भारतीय सैनिकों का इतिहास सदा से अदम्य साहस, समर्पण और देशभक्ति से भरा हुआ है। ऑपरेशन सिंदूर भी उसी गौरवशाली किताब का नया अध्याय है। हमारी सेना ने अद्वितीय वीरता दिखाते हुए दुश्मन को नए उपकरणों से, आक्रमण तथा सुरक्षा में तकनीकी कौशल से पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब दिया। यह ऑपरेशन केवल एक सैन्य कार्रवाई नहीं, बल्कि हर उस सैनिक के संघर्ष का प्रतीक है, जो सीमा पर देश की रक्षा के लिए अपना सब कुछ न्योछावर करने को हमेशा तैयार रहता है। भारत की वायु सेना के मिसाइल आक्रमण बेमिसाल थे। देश की गुप्तचर एजेंसी ने सफलता की अद्भुत कहानी लिखी है। सीमा पर थल सेना अग्निपरीक्षा से गुजर रही थी। जवानों का संघर्ष अद्वितीय है।
ऑपरेशन सिंदूर के दौरान सैनिकों ने न केवल शारीरिक चुनौतियों का सामना किया, बल्कि मानसिक रूप से भी खुद को मजबूत रखा। ऊँचे पहाड़ों, खतरनाक मौसम और दुर्गम इलाकों में घात लगाए दुश्मन से लोहा लेना, बिना सीमा पार किए पाकिस्तान पर देश ने अभूतपूर्व प्रहार किए। यह असाधारण बात थी। हर उड़ान, हर कदम पर जान का जोखिम, परिवार से दूरियाँ, और अनिश्चितता के बीच सैन्य दल का धैर्य असाधारण था।
अब जबकि सीमा पर अपेक्षाकृत शांति है, देशवासियों का कर्तव्य है कि हम सब अपनी अपनी तरह से हमारी सेना के प्रति संजीदगी से कृतज्ञता ज्ञापित करें। सैनिकों के परिवारों का सहारा बनें।
जब जवान सीमा पर डटे होते हैं, तो उनके परिवार की चिंता उनके मन में हमेशा बनी रहती है। ऐसे में समाज का दायित्व है कि हम सेना के साथ खड़े रहें।
हमारा आर्थिक सहयोग सैनिकों के परिवारों को शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजमर्रा की जरूरतों के लिए मदद बन सकता है। हमारे छोटे-छोटे दान, स्कॉलरशिप या रोजगार के अवसर उनके जीवन में बड़ा बदलाव ला सकते हैं।
हम सेना को मानसिक संबल दे सकते हैं। सैन्य अभियानों के बाद जवानों और उनके परिवारों को मनोवैज्ञानिक समर्थन की आवश्यकता होती है। काउंसलिंग सेवाएँ, समर्थन समूह और मनोरंजन के कार्यक्रम उन्हें तनाव से उबारने में मदद कर सकते हैं।
शहीदों के बच्चों की शिक्षा को प्राथमिकता देकर हम उनके भविष्य को सुरक्षित कर सकते हैं। इसी तरह, परिवार के सदस्यों को व्यावसायिक प्रशिक्षण देकर आत्मनिर्भर बनाना भी महत्वपूर्ण है। स्थानीय समुदाय इन परिवारों के साथ त्योहारों, समारोहों या रोजमर्रा के कार्यों में शामिल होकर उन्हें अकेलापन महसूस न होने दें।
अपना टैक्स समय पर देना हर नागरिक का कर्तव्य होता है।
सैनिकों का सम्मान केवल शब्दों तक सीमित नहीं होना चाहिए। छोटे-छोटे प्रयास, जैसे सैन्य कल्याण कोष में योगदान, रक्तदान शिविरों में भाग लेना, या सेना के अस्पतालों में स्वयंसेवा करना, हमारी कृतज्ञता को व्यक्त करने के तरीके हैं। सोशल मीडिया पर उनकी बहादुरी की कहानियाँ साझा करके भी हम समाज में जागरूकता फैला सकते हैं।
राष्ट्रीय स्तर पर सारे मतभेद भुलाकर एकजुटता ही सेना की ताकत होती है।
ऑपरेशन सिंदूर जैसे अभियान हमें याद दिलाते हैं कि देश की सुरक्षा का दायित्व सिर्फ सैनिकों पर नहीं, बल्कि हर नागरिक पर है। उनके परिवारों की मदद करना, उनके संघर्षों को समझना और उन्हें सम्मान देना ही सच्ची देशभक्ति है। जब देश का हर व्यक्ति अपनी भूमिका निभाएगा, तभी हमारी सेनाएं निडर होकर सीमा पर डटे रहेंगे और हम निश्चिन्त होकर शांति से सो सकेंगे।