(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कल और आजकल …“।)
अभी अभी # 691 ⇒ कल और आजकल श्री प्रदीप शर्मा
आज कल में ढल जरूर जाता है लेकिन फिर वह आज नहीं रह जाता। आज गुजर जाता है, कल वह फ्रेश होकर आता है और आज बन जाता है। कल को आज बनने के लिए कल तक का इंतजार करना पड़ता है। आज को जाने की जल्दी नहीं, लेकिन कल को तो आने की जल्दी है।
आजकल कल और आज एक जैसे ही चल रहे हैं, इसलिए किसी को कल का इंतजार नहीं। बस आज किसी तरह गुजर जाए।
वैसे देखा जाए तो कल भी कल ही था और कल भी कल ही होगा। बस यह हमारा जो आज है न, यह ही कलकल करके बहता रहता है और हम इसे आज का नाम दे देते हैं। समय का प्रवाह भी एक झरना ही तो है। जिस दिन यह समय का झरना सूख जाएगा, आज कल में ढलना बंद हो जाएगा। ईश्वर की टकसाल भी बंद हो जाएगी।।
हम समय से हैं, समय हम से नहीं ! समय का झरना, सूर्य का उदित होना अस्त होना है वृक्ष पर पत्तियों का उगना, पल्लवित होना, फलना फूलना और समय के साथ झरना भी है, लेकिन तब तक, आज की कोमल पत्तियां कल पुनः वृक्ष को हरा भरा कर देगी। प्रकृति के विनाश में ही नीड़ के निर्माण के बीज भी हैं। हर कली में एक फूल है, हर अंडे में एक चूजा, समय का झरना कभी नहीं सूखता। इसके कलकल की आवाज ही इसका कल था, इसका आज है और इसका कल भी रहेगा।
हमने कभी अतीत की, यानी गुजरे कल की चिंता नहीं की, केवल चिंतन किया। अच्छा बुरा जैसा भी था, व्यतीत हो गया। लेकिन हमें आज की चिंता है और कल आने वाले कल की भी। जब हमारा आज अच्छा होता है, तो हम कल की तरफ से निश्चिंत रहते हैं। लेकिन जब आज ही गड़बड़ होता है, तो कल में भी गड़बड़ी नजर आती है। पूत के पांव पालने में।।
लेकिन यह अच्छी बात नहीं है सबै दिन न होता एक समाना ! रहने दीजिए अटल जी। एक साल से देख रहे हैं, हर दिन एक जैसा गुजर रहा है। याद कीजिए आपने भी आपातकाल में जेल से एक कविता लिखी थी, जिसे बाद में जगजीत सिंह ने गाया था, एक बरस बीत गया ;
झुलसाता जेठ मास
शरद चांदनी उदास
सिसकी भरते सावन का
अंतर्मन रीत गया
एक बरस बीत गया …
हमें भी एक बरस बीत गया। आपकी तो अभिव्यक्ति की आजादी छिनी थी, हमारे तो मुंह पर ही पट्टी बांध दी गई है। हमने भी प्यासा सावन देखा है और झुलसाता जेठ मास देखा है। हमारे अंतर्मन में भी कोई लड्डू नहीं फूट रहे। किसको दोष दें, सरकार को, या उस अलबेली सरकार को। हम भी बरबस, यह कह उठते हैं ;
आज कल में ढल गया
दिन हुआ तमाम
तू भी सो जा, सो गई
रंग भरी शाम ….
अतीत गवाह है, अगर रामायण के प्रसंग में से प्रभु श्रीराम के चौदह बरस निकाल दिए जाएं, तो रामायण में कुछ बचे ही नहीं न अंगद, न बाली, न सुग्रीव और ना ही रामदूत बजरंग बली। न रावण का वध होता और न हम दशहरा और दीपावली जैसा उत्सव मनाते ;
तेरे फूलों से भी प्यार,
तेरे कांटों से भी प्यार।
तू जो भी देना चाहे,
दे दे करतार,
दुनिया के पालनहार।।
झरने की तरह कलकल करते कल भी गुजरा, आज भी गुजर जाएगा, उम्मीद की कली फिर खिलेगी, आशाओं का एक नया सूरज निकलेगा, बहारें फिर भी आती हैं, बहारें फिर भी आएंगी। कल आने वाला कल, आज से बेहतर होगा। आजकल समय भी उम्मीद से है।।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 290 ☆ उड़ जाएगा हंस अकेला…
आनंदलोक में विचरण कर रहा हूँ। पंडित कुमार गंधर्व का सारस्वत कंठ हो और दार्शनिक संत कबीर का शारदीय दर्शन तो इहलोक, आनंदलोक में परिवर्तित हो जाता है। बाबा कबीर के शब्द चैतन्य बनकर पंडित जी के स्वर में प्रवाहित हो रहे हैं,
उड़ जाएगा हंस अकेला
जग दर्शन का मेला…!
आनंद, चिंतन को पुकारता है। चिंतन की अंगुली पकड़कर विचार हौले-हौले चलने लगता है। यह यात्रा कहती है कि ‘मेल’ शब्द से बना है ‘मेला।’ मिलाप का साकार रूप है मेला। दर्शन जगत को मेला कहता है क्योंकि मेले में व्यक्ति थोड़े समय के लिए साथ आता है, मिलाप का आनंद ग्रहण करता है, फिर लौट जाता है अपने निवास। लौटना ही पड़ता है क्योंकि मेला किसीका निवास नहीं हो सकता। गंतव्य के अलावा कोई विकल्प नहीं।
विचार अब चलना सीख चुका। उसका यौवनकाल है। उसकी गति अमाप है। पलक झपकते जिज्ञासा के द्वार पर आ पहुँचा है। जिज्ञासा पूछती है कि महात्मा कबीर ने ‘हंस’ शब्द का ही उपयोग क्यों किया? वे किसी भी पखेरू के नाम का उपयोग कर सकते थे फिर हंस ही क्यों? चिंतन, मनन समयबद्ध प्रक्रिया नहीं हैं। मनीषी अविरत चिंतन में डूबे होते हैं। समष्टि के हित का भाव ऐसा, सात्विकता ऐसी कि वे मुमुक्षा से भी ऊपर उठ जाते हैं। फलत: जो कुछ वे कहते हैं, वही विचार बन जाता है। अपने शब्दों की बुनावट से उपरोक्त रचना में द्रष्टा कबीर एक अद्वितीय विचार दे जाते हैं।
विचार कीजिएगा कि हंस सामान्य पक्षियों में नहीं है। हंस श्वेत है, शांत वृत्ति का है। वह सुंदर काया का स्वामी है। आत्मा भी ऐसी ही है, सुंदर, श्वेत, शांत, निर्विकार। हंस गहरे पानी में तैरता है तो हज़ारों फीट ऊँची उड़ान भी भरता है। आकाश मार्ग की यात्रा हो अथवा वैतरणी पार करनी हो, उड़ना और तैरना दोनों में कुशलता वांछनीय है।
हंस पवित्रता का प्रतीक है। शास्त्रों में हंस की हत्या, पिता, गुरु या देवता की हत्या के तुल्य मानी गई है।
हंस विवेकी है। लोकमान्यता है कि दूध में जल मिलाकर हंस के सामने रखा जाए तो वह दूध और जल का पृथक्करण कर लेता है। संभवत: ‘दूध का दूध और पानी का पानी’ मुहावरा इसी संदर्भ में अस्तित्व में आया। हंस के नीर-क्षीर विवेक का भावार्थ है कि स्वार्थ, सुविधा या लाभ की दृष्टि से नहीं अपितु अपनी बुद्धि, मेधा, विचारशक्ति के माध्यम से उचित, अनुचित को समझना। मनुष्य जब भी कुछ अनुचित करना चाहता है तो उसे चेताने के लिए उसके भीतर से ही एक स्वर उठता है। यह स्वर नीर-क्षीर विवेक का है, यह स्वर हंस का है। हंस को माँ सरस्वती के वाहन के रूप में मिली मान्यता अकारण नहीं है।
कारण-मीमांसा से उपजे अर्थ का कुछ और विस्तार करते हैं। दिखने में हंस और बगुला दोनों श्वेत हैं। मनुष्य योनि हंस होने की संभावना है। विडंबना है कि इस संभावना को हमने गौण कर दिया है। हम में से अधिकांश बगुला भगत बने जीवन बिता रहे हैं। जीवन के हर क्षेत्र में बगुला भगतों की भरमार है। हंस होने की संभावना रखते हुए भी भी बगुले जैसा जीना, जीवन की शोकांतिका है।
मनुष्य को बुद्धि का वरदान मिला है। इस वरदान के चलते ही वह नीर-क्षीर विवेक का स्वामी है। विवेक होते हुए भी अपनी सुविधा के चलते ढुलमुल मत रहो। स्पष्ट रहो। सत्य-असत्य के पृथक्करण का साहस रखो। यह साहस तुम्हें अपने भीतर पनपते बगुले से मुक्ति दिलाएगा, तुम्हारा हंसत्व निखरता जाएगा। जगद्गुरु स्वामी रामभद्राचार्य जी कहते हैं कि महर्षि वेदव्यास जब महाभारत का वर्णन करते हैं तो पांडवों का उदात्त चरित्र उभरता है। इसका अर्थ यह नहीं कि वे पांडवों के प्रवक्ता हैं। सनद रहे कि महर्षि वेदव्यास सत्य के प्रवक्ता हैं।
अपनी एक कविता स्मृति में कौंध रही है,
मेरे भीतर फुफकारता है
काला एक नाग,
चोरी छिपे जिसे रोज़ दूध पिलाता हूँ,
ओढ़कर चोला राजहंस का
फिर मैं सार्वजनिक हो जाता हूँ…!
दिखावटी चोले के लिए नहीं अपितु उजला जीवन जिओ अपने भीतर के हंस के लिए। स्मरण रहे, वह समय भी आएगा जब हंस को उड़ना होगा सदा-सर्वदा के लिए। इस जन्म की अंतिम उड़ान से पहले अपने हंस होने को सिद्ध कर सको तो जन्म सफल है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
writersanjay@gmail.com
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
श्री महावीर साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र दी जवेगी। आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सपनों के सौदागर …“।)
अभी अभी # 690 ⇒ सपनों के सौदागर श्री प्रदीप शर्मा
हम नींद में सपने देखते हैं, जब हमारा मन सो जाता है और अवचेतन मन जाग उठता है। उसका काम ही सपने देखना है, जिसका हमारे चेतन संसार से कोई लेना देना नहीं होता। सपने सभी देखते हैं, कुछ भूल जाते हैं, तो कुछ याद रह जाते हैं। हमारे सपनों पर केवल हमारे अवचेतन मन का अधिकार होता है।
कोई दूसरा व्यक्ति आपके सपनों को नहीं देख सकता। सभी सपनों का कॉपीराइट आपके ही पास होता है। सपनों को कोई ना तो चुरा सकता है और ना ही उन पर डाका डाल सकता है, क्योंकि नींद खुलते ही सभी सपने अदृश्य हो जाते हैं।
अक्सर लोग हमारी नींद चुरा लेते हैं, यानी एक तरह से सपने देखने में बाधा पहुंचा सकते हैं, लेकिन हमारे सपनों तक उनकी कभी पहुंच नहीं हो सकती। फिर भी होते हैं कुछ लोग, जो सपनों के सौदागर कहलाते हैं और हमें सच्चे झूठे सपने बेचा करते हैं।
जो काम स्वप्न में भी संभव नहीं हो सकता, उसके वे खुली आँखों से सपने दिखाते हैं।।
हम जानते हैं, सपने कभी सच नहीं होते, फिर भी इन सपनों के सौदागरों के हाथ अपना वर्तमान और भविष्य सौंप देते हैं। सपने देखना अपराध नहीं, लेकिन किसी के द्वारा दिखाए मीठे मीठे सपनों पर भरोसा कर लेना केवल मूर्खता ही नहीं, ईश्वर की नियति के साथ खिलवाड़ करने का गंभीर अपराध भी है।
बहुत देख लिए हमने इन सपनों के सौदागरों द्वारा दिखाए गरीबी हटाने, भ्रष्टाचार मिटाने और रामराज्य वापस लाने के सपने। अब तो हमारी आँखें खुल जानी चाहिए। यह जानते हुए भी कि कभी सपने सच नहीं होते, खुली आंखों से दिखाए सपनों से हमें सावधान रहना होगा।।
केवल हमारा संयुक्त प्रयास ही हमारी सभी समस्याएं दूर कर सकता है, कोई सौदागर जादू की छड़ी घुमाकर अथवा झूठे सपने दिखाकर अब हमें बहला फुसला और बहका नहीं सकता है। सपनों और सपनों के सौदागरों से कोसों दूर रहें और केवल अपनी बुद्धि, विवेक, पुरुषार्थ एवं सुधार के लिए केवल सामूहिक प्रयासों पर ही यकीन करें।
उम्मीद है यह कोई सपना नहीं होगा, हमारे बीच में कोई सपनों का सौदागर नहीं होगा, क्योंकि हम पूरी तरह से नींद से जाग चुके हैं, पूरी तरह से होश में आ चुके हैं, अलविदा हमारे सपने और सपनों के सौदागर।।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मस्त नज़र की कटार…“।)
अभी अभी # 689 ⇒ मस्त नज़र की कटार श्री प्रदीप शर्मा
आपने शायद तलत का यह गीत सुना हो ;
आँखों में मस्ती शराब की काली ज़ुल्फ़ों में आँहें शबाब की।
जाने आई कहाँ से टूट के मेरे दामन में पंखुड़ी गुलाब की। ।
यानी संक्षेप में, मस्त नज़र की बात हो रही है। अरे भाई, ईश्वर ने सबको दो आँखें दी हैं, आंखों का काम देखने का है, लेकिन यहां तो कोई नजरों से शिकार कर रहा है तो कोई नज़रों से ही शराब पिला रहा है। देखिए हमारे बोंगाली मोशाय हेमंत कुमार को;
ज़रा नज़रों से कह दो जी
निशाना चूक ना जाए।
मज़ा जब है,
तुम्हारी हर अदा
कातिल ही कहलाए …
क्या आपने कभी किसी की मस्त नजर देखी है। क्या आपको यकीन होता है कि अगर आपने दिन में काजल लगाया हो, तो रात हो जाएगी। देखिए कैसे कैसे लोग पड़े हैं ;
काजल वाले नैन मिला के कर डाला बेचैन
किसी मतवाली ने। ।
अरे रे रे लूट लिया रे
झाँझर वाली ने। ।
भगवान नज़र सबको देता है, लेकिन मस्त नज़र कहां सबको नसीब होती है। इधर एक हम हैं, हमारी तो बचपन से ही कमजोर नजर है। हमारी नज़रों पर कोई शायर गीत नहीं लिखेगा। नजर तो उस शायर की भी कमज़ोर है। वह भी चश्मा लगाकर ही ऐसे गीत लिखता होगा ;
तुम्हारी मस्त नज़र,
अगर इधर नहीं होती।
नशे में चूर फ़िज़ा
इस क़दर नहीं होती। ।
हमें तो यह मस्त नजर का नशा नहीं लगता। बस थोड़ी चढ़ गई तो शायर साहब को फ़िज़ा भी नशे में चूर नजर आने लगी। ।
क्या आपके पास इन साहबान का कोई इलाज है ;
मैं हूं साक़ी तू है शराबी-शराबी -२
तूने आँखों से पिलाई वो नशा है के दुहाई
हर तरफ़ दिल के चमन में फूल खिले हैं गुलाबी-गुलाबी
मैं हूँ साक़ी …
हमारे धरम पाजी की तो बस पूछिए ही मत। उनकी मस्ती को किसी की नज़र ना लगे, शराब की भी नहीं ;
छलकाएं जाम
आइये आपकी आँखों के नाम
होंठों के नाम।
फूल जैसे तन के जलवे,
ये रँग-ओ-बू के
आज जाम-ए-मय उठे,
इन होंठों को छूके
लचकाइये शाख-ए-बदन, लहराइये ज़ुल्फों की शाम
छलकाएं जाम …
लेकिन कोई चंद्रमुखी अगर आपकी आंखों की नींद और चैन भी चुराकर ले जाए, तब तो यह एक गंभीर मामला बनता है ;
नैन का चैन चुराकर ले गई
कर गई नींद हराम। चन्द्रमा सा मुख था उसका चन्द्रमुखी था नाम। ।
यानी यहां तो नाम और हुलिया भी बयान किया गया है। लेकिन जब मस्त नज़रों से घायल और लुटा हुआ आशिक ही कोई शिकायत नहीं कर रहा हो तो समझिए गई भैंस पानी में। यकीन ना हो तो देखिए ;
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मृत्यु से साक्षात्कार…“।)
अभी अभी # 688 ⇒ मृत्यु से साक्षात्कार श्री प्रदीप शर्मा
मौत को किसने देखा है ! बिना मरे स्वर्ग तो बहुत दूर की बात है, मृत्यु से तो साक्षात्कार के लिए भी मरना पड़ता है। ऐसी किसकी गरज है कि सिर्फ साक्षात्कार के लिए मरना पड़े। मरने दो, नहीं करना हमें मृत्यु से साक्षात्कार।
अच्छा, ईश्वर से साक्षात्कार करना चाहोगे ? वाह, क्यों नहीं ! ये हुई न बात। कब करवा रहे हो। लेकिन ईश्वर कहीं मौजूद हो तो उससे साक्षात्कार करवा दें, उसका भी कोई पता नहीं। ईश्वर से साक्षात्कार के लिए कोई गुरु के पास जा रहा है, कोई जंगल, पहाड़, वन वन, बाबा बन, भटक रहा है, सब ईश्वर को ढूंढ रहे हैं। सबको ईश्वर का साक्षात्कार चाहिए। जिंदगी भर ईश्वर को ढूंढते रहे, जब ईश्वर कहीं नहीं मिला, तो ईश्वर को प्यारे हो गए। पहले मृत्यु से साक्षात्कार हुआ, ईश्वर अभी कतार में हैं।।
हमने न तो मृत्यु को देखा और न ही ईश्वर को ! लेकिन कभी ईश्वर को याद करते हैं तो कभी मृत्यु से डरते हैं। ईश्वर को पाने के लिए तो हमें प्रयत्न करना पड़ता है।
बिना मनुष्य जन्म लिए, ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती लेकिन मृत्यु कितनी सहज है, बिना मांगे ही मिल जाती है। हम जो चाहते हैं, वह हमें कब मिला है। हम मौत को गले नहीं लगाना चाहते। हम चाहते हैं, ईश्वर हमें गले लगाए। हम ईश्वर के ही तो बालक हैं। फिर भी इतनी दूरी, और मौत, कितनी करीब ! मानो कह रही हो, आ गले लग जा।
कौन लगाता है, मौत को हंसते हंसते गले। खुद ही हमारे गले पड़ती है। मानो कोई स्वयंवर चल रहा हो। जिसके गले में उसने वरमाला डाली, उसे मौत ने वर लिया। लो हो गया मौत से साक्षात्कार। कितना पवित्र संस्कार ! उसने आपको चुना है, आपको वरा है। लेकिन आप सुखी नहीं। मुझे अभी मृत्यु से साक्षात्कार नहीं करना। पहले एक बार ईश्वर से साक्षात्कार हो जाए, तो मैं मृत्यु पर भी विजय प्राप्त कर लूंगा। और उधर उपनिषद कह रहा है, जिसने मृत्यु पर विजय प्राप्त कर ली, उसे ईश्वर का साक्षात्कार हो गया।।
जो सत्य है, उससे हम भाग रहे हैं। जहांआस्था है, वहां विश्वास है और जहां भय है वहां मृत्यु। आस्था हमें जीवित रख रही है, भय हमें मार रहा है। कोरोना के भय से हम रोज बाहर से जब घर आ रहे हैं, तो कपड़े बदल रहे हैं, नहा रहे हैं। अपने आपको सुरक्षित रख रहे हैं। लेकिन यहां गीता का ज्ञान हमारे काम नहीं आता ;
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।। २३।।
इस आत्माको शस्त्र काट नहीं सकते, आग जला नहीं सकती, जल गला नहीं सकता और वायु सुखा नहीं सकती।
जब भी हम शरीर की बात करते हैं, हमें आत्मा परमात्मा की बातों में भटकाया जाता है, उलझाया जाता है। आत्मा वस्त्र बदलती है, जैसे आप बदलते हो। फिलहाल हमें न तो मृत्यु से और न ही ईश्वर से साक्षात्कार करना। हमें मौत से नहीं, कोरोना से डर है। एक बार इससे निपट लें, फिर मृत्यु और ईश्वर दोनों से साक्षात्कार कर लेंगे। क्योंकि हम जानते हैं, मनुष्य जन्म दुबारा नहीं मिलता। देवता भी कतार में हैं।।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “महान वैज्ञानिक पद्मविभूषण डॉ. जयंत विष्णु नारळीकर: जन सामान्य तक विज्ञान के संवाहक… ” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 351 ☆
आलेख – महान वैज्ञानिक पद्मविभूषण डॉ. जयंत विष्णु नारळीकर: जन सामान्य तक विज्ञान के संवाहक… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
20 मई 2025 को 87 वर्ष की आयु में पुणे में महान वैज्ञानिक पद्मविभूषण डॉ. जयंत विष्णु नारळीकर का निधन हो गया। साहित्य जगत, उनकी विज्ञान कथाओं के लिए उन्हें सदा याद करेगा। उन्होंने हिंदी, मराठी और अंग्रेजी में 40 से अधिक पुस्तकें लिखीं, जिनमें विज्ञान कथाएँ, आत्मकथा और शोधग्रंथ शामिल हैं। उनकी किताबों “वामन की वापसी” और “धूमकेतु” जैसी कृतियों ने युवाओं को विज्ञान के प्रति आकर्षित किया। दूरदर्शन पर प्रसारित “ब्रह्मांड” श्रृंखला के माध्यम से उन्होंने आम लोगों को खगोल विज्ञान के रहस्यों से परिचित कराया। 2014 में उनकी मराठी आत्मकथा “चार नगरातले माझे विश्व” को साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला।
डॉ. जयंत विष्णु नारळीकर का जन्म 19 जुलाई 1938 को महाराष्ट्र के कोल्हापुर में हुआ था। उनके पिता, विष्णु वासुदेव नारळीकर, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) में गणित के प्रोफेसर थे, जबकि माता सुमति नारळीकर संस्कृत की विदुषी थीं। इस शैक्षिक पारिवारिक वातावरण ने बचपन से ही जयंत में वैज्ञानिक चेतना का बीजारोपण किया। उनकी प्रारंभिक शिक्षा वाराणसी के सेंट्रल हिंदू बॉयज स्कूल में हुई। उन्होंने BHU से स्नातक किया। 1959 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से गणित में डिग्री प्राप्त की और 1963 में खगोल भौतिकी में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की।
डॉ. नारळीकर ने ब्रह्मांड की उत्पत्ति के “स्थिर अवस्था सिद्धांत” (Steady State Theory) को विकसित करने में अग्रणी भूमिका निभाई, जो बिग बैंग सिद्धांत के विकल्प के रूप में प्रस्तुत हुआ। उन्होंने ब्रिटिश खगोलशास्त्री फ्रेड हॉयल के साथ मिलकर “हॉयल-नारळीकर सिद्धांत” प्रतिपादित किया, जो आइंस्टीन के सापेक्षता सिद्धांत और माक सिद्धांत का समन्वय था। यह सिद्धांत ब्रह्मांड के निरंतर विस्तार और नई पदार्थ निर्माण की प्रक्रिया पर आधारित था। अपने इस कार्य के लिए उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली, हालाँकि बाद में बिग बैंग सिद्धांत प्रमुखता पा गया, लेकिन नारळीकर ने वैज्ञानिक बहस को नई दिशा दी।
भारत में अनुसंधान और संस्थान का निर्माण उनके ही निर्देशन में हुआ।
1972 में अमेरिका से भारत लौटकर उन्होंने टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (TIFR) में सैद्धांतिक खगोल भौतिकी समूह का नेतृत्व किया। 1988 में उन्होंने पुणे में इंटर-यूनिवर्सिटी सेंटर फॉर एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिजिक्स (IUCAA) की स्थापना की, जो आज विश्वस्तरीय शोध केंद्र के रूप में प्रतिष्ठित है। 2003 में सेवानिवृत्त होने के बाद भी वे IUCAA से एमेरिटस प्रोफेसर के रूप में जुड़े रहे।
डॉ. नारळीकर को विज्ञान के क्षेत्र में कई पुरस्कार और सम्मान मिले।
उनके योगदान को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित किया गया। 1965 में उन्हें पद्म भूषण सम्मान दिया गया। महज 26 वर्ष की आयु में यह सम्मान प्राप्त करने वाले सबसे युवा वैज्ञानिकों में से वे एक हैं। कलिंग पुरस्कार (1996) यूनेस्को द्वारा विज्ञान संचार के लिए उन्हें प्रदान किया गया। वर्ष 2004 में भारत का दूसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से उन्हें सम्मानित किया गया।
महाराष्ट्र भूषण जो महाराष्ट्र का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार है उनको वर्ष 2011 में दिया गया था।
डॉ. नारळीकर न केवल एक खगोलशास्त्री थे, बल्कि विज्ञान के संवाहक, शिक्षक और लेखक भी थे। उन्होंने भारत को वैश्विक विज्ञान मानचित्र पर स्थापित किया और आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बने।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कश्मीर टी हाउस…“।)
अभी अभी # 687 ⇒ ☕कश्मीर टी हाउस 🍵 श्री प्रदीप शर्मा
हम तो नहा धो भी लिए, और अचानक पता चला, आज तो चाय दिवस है। वह भी कोई छोटा मोटा चाय दिवस नहीं, अंतरराष्ट्रीय चाय दिवस। तो इस अवसर पर तो आज G 7 में भी Tea सेवन ही हो रहा होगा और उसकी अध्यक्षता और कोई नहीं हमारे बहुचर्चित चाय पुरुष नरेंद्र भाई मोदी ही कर रहे होंगे। वाघ बकरी चाय के लिए भी आज का यह दिन कितना शुभ होगा। एक चाय वाला, चाय दिवस पर चाय की टेबल पर अपने हाथों से चाय पिलाकर वाघ और बकरी के बीच शांति वार्ता के जरिए सुलह करवाकर ही मानेगा।
चाय दिवस पर यह कश्मीर टी हाउस का शीर्षक मैने यूं ही नहीं दे दिया।
मेरे शहर में कभी जहां प्रकाश टाकीज था, वहीं उसके पास एक होटल भी थी, जिसका नाम कश्मीर टी हाउस था। वह कप और प्याली में चाय नहीं देता था, छोटे कांच के ग्लास में चाय भरकर देता था। पहले ग्लास में थोड़ा दूध डालकर रखता था और उसके बाद उस ग्लास में केतली से खौलती चाय भरता था। कश्मीर की चाय तो खैर हमने कभी पी नहीं, लेकिन लोगों को कश्मीर टी हाउस की चाय बहुत पसंद थी।।
इंदौर वैसे तो आज भी चाय का गढ़ है, एक समय वह भी था, जब इस शहर में २४ घंटे गर्म चाय पोहे होटलों में उपलब्ध होते थे। वह समय तब का था, जब शहर के सभी दो दर्जन सिनेमाघर अपने शबाब पर रहते थे। सुबह से ही सिने और पोस्टर प्रेमी सिनेमाघरों के आसपास मधु मक्खी जैसे मंडराया करते थे तो कुछ एडवांस बुकिंग की लाइन में खड़े होकर हाउस फुल फिल्म के टिकट पहले से ही खरीदकर ब्लैक में टिकट बेच अपना पेट पालते थे। कुछ लोग केवल पोस्टर देखकर ही तसल्ली कर लिया करते थे।
फिल्मों के अलावा होटल और चाय पोहे की सबसे अधिक खपत मिल मजदूरों की होती थी। कितनी टेक्सटाइल मिल्स थी इंदौर में। अगर उंगलियों पर गिनें तो, हुकुमचंद, राजकुमार, भंडारी, मालवा, स्वदेशी और कल्याण। मजदूरों का शहर था इंदौर और यहां सभी कॉटन किंग रहते थे। महाराजा तुकोजीराव के नाम से एम टी क्लॉथ मार्केट आज भी कपड़ा व्यवसाय की जान है।।
वहीं आसपास कांच महल और शीश महल, बड़ा और छोटा सराफा, बोहरा बाजार, मारोठिया बाजार, सांटा बाजार, बर्तन बाजार, खजूरी बाजार और नया और जूना राजवाड़ा। जी हां, जूना तो अभी भी पूरे मध्यप्रदेश का गौरव है, लेकिन नए को भूल जाइए।
अब आप सोच लीजिए, तब रात दिन कितनी रौनक रहती होती होगी, खाने पीने की और चाय नाश्ते की। रेलवे स्टेशन हो, सरवटे बस स्टैंड हो, अथवा सियागंज क्रॉसिंग, सब जगह होटलें ही होटलें, चाय, चाय और चाय।।
राजवाड़े के सामने शिमला और राज होटल थी, जिनमें शटर ही नहीं थे। पास में ही एक और कोहिनूर होटल थी। सुबह मिल के सायरन बजते ही सड़कों पर साइकिल सवार नज़र आ जाते थे। जो थोड़ा जल्दी निकलते थे, रास्ते
में ही चाय के एक कप की ताजगी लेकर मिल में प्रवेश करते थे। रात की मिल की आखरी पाली और सिनेमा का आखरी शो खत्म होने के बाद ही, केवल कुछ घंटों के लिए ही इंदौर शहर सो पाता था।
वह यह चाय की ही शक्ति थी, जो इंदौर को 24 घंटे तरो ताजा रखती थी।
चाय के अपने अपने अड्डे थे, अपना अपना स्वाद था। जनता चाय, समाजवादी चाय, क्रांतिवादी चाय और नमकीन चाय। चार आने की कट चाय अलका टाकीज के सामने। सब आज सपना नजर आता है। जहां कभी जेल रोड पर प्रशांत होटल थी, आज वह पूरा एरिया नॉवेल्टी मार्केट बन चुका है।।
चाय के शौकीन आज भी हैं। एक इंदौरी को किसी भी समय उठाकर चाय की दावत दी जा सकती है। आज ना सही, लेकिन कभी भी किसी भी समय, आप हमारे घर चाय के लिए सादर आमंत्रित हैं। जो नटे, उसका पुण्य घटे।।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – अनिर्णय
यहाँ से रास्ता दायें, बायें और सामने, तीन दिशाओं में बँटता था। राह से अनभिज्ञ दोनों पथिकों के लिए कठिन था कि कौनसी डगर चुनें। कुछ समय किंकर्तव्यविमूढ़-से ठिठके रहे दोनों।
फिर एक मुड़ गया बायें और चल पड़ा। बहुत दूर तक चलने के बाद उसे समझ में आया कि यह भूलभुलैया है। रास्ता कहीं नहीं जाता। घूम फिरकर एक ही बिंदु पर लौट आता है। बायें आने का, गलत दिशा चुनने का दुख हुआ उसे। वह फिर चल पड़ा तिराहे की ओर, जहाँ से यात्रा आरंभ की थी।
इस बार तिराहे से उसने दाहिने हाथ जानेवाला रास्ता चुना। आगे उसका क्या हुआ, यह तो पता नहीं पर दूसरा पथिक अब तक तिराहे पर खड़ा है वैसा ही किंकर्तव्यविमूढ़, राह कौनसी जाऊँ का संभ्रम लिए।
लेखक ने लिखा, ‘गलत निर्णय, मनुष्य की ऊर्जा और समय का बड़े पैमाने पर नाश करता है। तब भी गलत निर्णय को सुधारा जा सकता है पर अनिर्णय मनुष्य के जीवन का ही नाश कर डालता है। मन का संभ्रम, तन को जकड़ लेता है। तन-मन का साझा पक्षाघात असाध्य होता है।’
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
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श्री महावीर साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र दी जवेगी।आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
(सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार एवं लेखक श्री यशवंत गोरे जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। 37 वर्ष तक भारतीय स्टेट बैंक में सेवा देने के बाद अधिकारी पद से सेवानिवृत्त होकर स्वतंत्र लेखन शैक्षणिक समय से लेखन में रूचि सबसे पहला लेख योजना आयोग की पत्रिका ‘योजना’ हिंदी में 1979 में प्रकाशित हुआ था। उसके बाद विभिन्न समाचार पत्रों में नईदुनिया, दैनिक भास्कर, जनसत्ता , फ्री प्रेस जर्नल, नवीन सोच अदि समाचार पत्रों में समसामयिक विषयों एवं समस्याओं पर टिप्पणियां प्रकाशित हुई है। सेवानिवृति पश्चात् व्यंग्य लेखन। देश के विभिन्न समाचार पत्र-पत्रिकाओं यथा सुबह-सवेरे , नईदुनिया , जनसंदेश टाइम्स , जनसत्ता , जनवाणी , अमृत-दर्शन , इंदौर समाचार एवं न्यूयार्क से प्रकाशित साप्ताहिक ” हम हिंदुस्तानी। आज प्रस्तुत है स्व शरद जोशी जी के जन्मदिवस पर आपका विशेष आलेख “व्यंग्य लेखन में अपनी अलग पहचान बनाने वाले व्यंग्यकार थे शरद जोशी “।)
जन्मदिवस विशेष – व्यंग्य लेखन में अपनी अलग पहचान बनाने वाले व्यंग्यकार थे शरद जोशी श्री यशवंत गोरे
(21 मई को जन्मदिन पर विशेष )
हिन्दी साहित्य जगत में अपने व्यंग्य लेखों के कारण प्रसिद्ध साहित्यकार, कवि ‘ शरद जोशी का आज – दिनांक 21 मई को जन्मदिन है , आपका जन्म मध्य प्रदेश के ही उज्जैन जिले में सन 1931 में हुआ था जोशी जी का परिवार एक कर्मठ एवं कर्मकांडी ब्राह्मण परिवार था। बचपन में शरद जी को ‘ बच्चू ‘ नाम से पुकारा जाता था। शरद जोशी जी का परिवार मूल रूप से गुजरात का रहने वाला था जो मालवा क्षेत्र के उज्जैन में में आकर बस गया था। आपके पिताजी श्रीनिवास जोशी, माताजी शांति जोशी जो बहुत ही धार्मिक संस्कारों वाली महिला थी। शरद जी के पिता मध्य प्रदेश राज्य परिवहन निगम में एक छोटी सी नौकरी डिपो मैनेजर के पद पर कार्यरत थे। निगम की तबादला नीति के कारण उनका तबादला प्रदेश के विभिन्न शहरों में होता रहता था। इस कारण शरद जी का बचपन – महु, उज्जैन, नीमच, देवास, गुना जैसे शहरों में बीता। शरद जी का अपनी मां से बहुत लगाव था उनका तपेदिक से अल्पायु में ही निधन हो गया, तपेदिक उस समय एक असाध्य रोग था। माताजी के निधन से शरद जी बहुत निराश और उदास रहने लगे। इस संकट की घड़ी में उनके कुछ मित्रों ने उन्हें संभाला।
शरद जी की प्रारंभिक शिक्षा उज्जैन में हुई बाद में आपने इंदौर के होलकर महाविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। शरद जी को स्कूली जीवन से ही लिखने का शौक लग गया था। उनके लेख पत्र -पत्रिकाओं में छपना शुरू हो गए थे ,इससे उन्हें कुछ आमदनी भी होने लगी थी। अपनी उच्च शिक्षा का खर्च उन्होंने अपने लेखों से प्राप्त पैसों से ही पूरा किया।
वर्ष 1955 में दौरान शरद जी ने आकाशवाणी इंदौर में पांडुलिपि लेखक के रूप में काम शुरू किया। इसके बाद मध्य प्रदेश सरकार के सूचना विभाग में ‘ जनसम्पर्क अधिकारी के पद पर कार्यरत रहे , लेकिन एक ही स्थान पर – एक ही जैसा काम करना उनके स्वभाव में नहीं था सो उन्होंने ये नौकरी छोड़ दी , और स्वतंत्र पत्रकारिता के क्षेत्र में काम करने लगे।
सामान्य शारीरिक कद काठी वाले शरद जी को उनकी विशिष्ट दार्शनिकता, बौद्धिकता, व्यंगात्मक सोच , उन्हें एक अलग विलक्षण , अद्भुत व्यक्तित्व प्रदान करती है , जो एक साधारण होते हुए भी असाधारण व्यक्तित्व थे, वे अपने मित्रों के मित्र, साहित्यकारों में साहित्यकार बन जाते थे।
एक कट्टर ब्राह्मण- धार्मिक परिवार के होने के बावजूद उन्होंने एक मुस्लिम लड़की ‘ इरफाना ‘ से प्रेम विवाह किया था, ये विवाह उनके प्रगतिशील विचारवान व्यक्तित्व की एक बड़ी पहचान है, उनकी पत्नी ने भी उनका हमेशा साथ दिया, अपने वैवाहिक जीवन में वो संतुष्ट और खुश रही। इस दम्पति की दो बेटियां है । नेहा शरद एक भारतीय टेलीविजन अभिनेत्री और कवयित्री हैं। उन्होंने टीवी शो में काम किया है, जिनमें तारा, वक्त की रफ्तार, ममता गुमराह, ये दुनिया गजब की और फरमान शामिल हैं।
सन 1951 से अगले कई दशकों तक शरद जी की रचनाएं देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही, इंदौर के सुप्रसिद्ध समाचार पत्र ‘ नई दुनिया ‘ में सन 1951 से ‘ परिक्रमा ‘ नाम के स्तंभ में नियमित रूप से लिखना शुरू किया जबकि उस समय उनकी आयु थी 20 वर्ष थी। धीरे-धीरे उनकी पहचान पुरे देश में एक व्यंग्य लेखक के रूप में कायम हो गयी।
आपकी कुछ व्यंग्य रचनाओं के प्रमुख संग्रह है – “परिक्रमा”, “जीप पर सवार इल्लियाँ”, “मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ”, “यथा संभव”, “हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे”, “जादू की सरकार”, “राग भोपाली”। आपने ‘एक था गधा उर्फ अलादाद’ तथा ‘अंधो का हाथी’ व्यंग्य नाटक भी लिखे है। आपने फिल्मों के लिये भी लेखन कार्य किया है ये फिल्में है क्षितिज, छोटी सी बात, सांच को आंच नहीं, गोधूलि, दिल है के मानता नहीं, उत्सव आदि।
टेलीविजन धारावाहिक- ये जो है जिन्दगी, विक्रम और बेताल, सिंहासन बत्तीसी, वाह जनाब, देवी जी, प्याले में तूफान, ये दुनिया गजब की, ये सब उनकी लेखनी का ही कमाल है।
उनके स्वर्गवास के बाद उनकी लिखी रचनाओं पर आधारित टेलीविजन धारावाहिक ‘ लापतागंज ‘ बहुत लोकप्रिय रहा है।
शरद जोशी जी ने भोपाल के समाचार पत्र ” दैनिक मध्य देश ‘ , मासिक पत्रिका ‘ नवल लेखन ‘ तथा मुम्बई के दैनिक ‘ हिन्दी एक्सप्रेस ‘ के संपादक का काम भी संभाला। अन्तिम कॉलम ‘प्रतिदिन’ नवभारत टाइम्स में लगातार 7 वर्षों तक छपा।आपको भारत सरकार द्वारा सन 1990 में ‘ पद्मश्री ‘ से अलंकृत किया गया है। वे सरकारी पुरस्कारों से बचते रहे। शरद जी पीएचडी. के घोर विरोधी रहे पर आज शरद के साहित्य पर कई पीएच.डी. हो गए है। निराला सृजन पीठ की निदेशक डा. साधना बलवटे जी ने शरद जी पर ही पीएचडी की है। शरद जोशी जी लगभग 25 वर्षों तक देश के बड़े कवि सम्मेलनों के स्टार कवि रहे है। जब उन्हें स्टेज पर बुलाया जाता था तब तक रात के दो बज चुके होते थे फिर भी उनको सुनने के लिए हजारों की संख्या में उपस्थित रहते थे।
5 सितम्बर 1991 को शरद जोशी जी उनकी साँस और कलम दोनों थम गई।
आदरणीय शरद जी को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा ने अपनी विनम्र श्रद्धांजलि देते हुए कहा था कि वे “अपने समय के कबीर थे। शरद जोशी को मैं एक अत्यन्त संवेदनशील रचनाकार मानता हूँ, अपने समय की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विसंगतियों को उन्होंने अत्यन्त पैनी निगाह से देखा और उसे अत्यंत सटीक शब्दों में व्यक्त किया। उनकी रचनाओं को मैं अपने समय की विसंगतियों पर की गई निर्भीक टिप्पणियाँ मानता हूँ, वे अत्यन्त साहसी तथा द्वन्द -रहित रचनाकार थे, उनके सामने जीवन के उद्देश्य बिलकुल स्पष्ट थे। अपने इस गुण के कारण वे सबके प्रिय लेखक बन गए थे। उनकी व्यंग्य रचनाएँ टूटते हुए जीवन मूल्यों के प्रति उनकी चिन्ता तथा छीना-झपटी और आडम्बर युक्त संस्कृति के प्रति उनके आक्रोश को अभिव्यक्ति करती है। जब तक रचनाकार अपने जीवन में ईमानदार नहीं होना, तब तक उसकी व्यंग्य रचनाओं में वह तीखापन नहीं आ सकता, जैसा की शरद जोशी की रचनाओं में था। छोटे-छोटे विषयों को भी अपनी स्याही का स्पर्श देकर बड़ा कर देने की गजब की चमत्कारिक शक्ति उनके पास थी। मैं समझता हूँ जोशी जी में जो वह लेखकीय संवेदना थी, सामाजिक प्रतिबद्धता थी तथा व्यवहार और विचारों का जो सामंजस्य था, वह हमारे देश के रचनाकारों के लिए एक अनुकरणीय बात है।”
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गाय और कुत्ता…“।)
अभी अभी # 686 ⇒ गाय और कुत्ता श्री प्रदीप शर्मा
पहली रोटी गाय की और दूसरी कुत्ते की ! यह हमारी संस्कृति है कि घर पर आया कोई प्राणी कभी भूखा न जाए। पक्षियों को दाना पानी तो ठीक, चींटियों के भी भोजन की व्यवस्था ईश्वर हमारे द्वारा करवाता है। कर्ता तो वह बनता है, कर्म हमसे करवाता है।
अपने आपको पढ़ा लिखा समझदार समझने वाला आदमी कब से गाँव से शहर की ओर कूच कर चुका है। उसकी आगामी पीढ़ी उससे दो कदम आगे महानगर और विदेशों की ओर कदम बढ़ा चुकी है। गऊ माता को पीछे छोड़ वह कुत्ते को अपने ड्रॉइंग रूम तक लाने में सफल हो गया है। इंसान किसी भी नस्ल का हो, लेकिन उसका कुत्ता अच्छी नस्ल का होना चाहिए। ।
गाय को हमने माँ का दर्ज़ा तो दे दिया, पर गाय हमें नहीं पाल सकती, हमें ही गाय को पालना पड़ता है। माँ के दूध के पश्चात गाय का दूध ही अधिक पौष्टिक होता है, अतः गाय को भी माँ मानने में औचित्य नज़र आता है।
गाय की पूँछ पकड़ संसार रूपी वैतरणी पार की जा सकती है, गोलोक अथवा वैकुण्ठ में प्रवेश किया जा सकता है। जहाँ गाय है, वहाँ गोकुल है, गोप गोपियाँ, गोपाल है। दुःख है, आज गऊ माता या तो गौशाला में है, या फिर शहर बदर है। गाय की रोटी पर कुत्ते का वारिसाना हक़ है। ।
एक गाय आपको वैकुण्ठ में प्रवेश करवा सकती है, लेकिन एक कुत्ता आपका नमक खाकर केवल स्वामिभक्त ही बना रह सकता है। पूरे महाभारत में जिस कुत्ते का कहीं कोई पता नहीं, वह धर्मराज युधिष्ठिर के साथ सशरीर स्वर्ग सिधार गया। यह धर्मराज की महिमा है, उस कुत्ते की नहीं। ।
धार्मिक कथा-कहानियों में हमें विश्वास तो है, लेकिन हम इतने समझदार हो गए हैं कि सार सार को प्रसाद की तरह ग्रहण कर लेते हैं और थोथे को अफवाह की तरह उड़ा देते हैं। गाय को माँ मानने में हमें कोई आपत्ति नहीं, लेकिन गाय को पालने की अपेक्षा हम गौशाला में चंदा देना अधिक उपयुक्त समझते हैं।
पालने की दृष्टि से हमें गाय की अपेक्षा कुत्ता अधिक रुचिकर लगता है। हम इतने लालची भी नहीं कि दूध और गोबर के लालच में माँ समान गाय को पालें। हम तो इतने निःस्वार्थी हैं कि उस कुत्ते को भी पाल लेते हैं जो दूध तो छोड़िए, गोबर तक नहीं देता। फिर भी कुत्ते को हम अपनी जान से भी ज़्यादा चाहते हैं। क्या भरोसा कभी ऐसा सुयोग भी आ जाए, कि धर्मराज की तरह कोई खुशनसीब कुत्ता हमारे साथ साथ स्वर्ग का भागी बन जाए।।