हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 360 ⇒ एक और एक ग्यारह… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “एक और एक ग्यारह।)

?अभी अभी # 360 ⇒ एक और एक ग्यारह? श्री प्रदीप शर्मा  ?

One & one eleven

जहां अक्षर है, वहां स्वर है, व्यंजन है, शब्द है, व्याकरण है, और जहां अंक है, वहां गिनती है, पहाड़ा है, पूरा अंक गणित है। गिनती को अंग्रेजी में नंबर और पहाड़े को टेबल कहते हैं। हमारी पहली दूसरी की पढ़ाई टाट पट्टी पर बैठकर, पट्टी पेम से लिखकर होती थी, और सामूहिक स्वर में पट्टी पहाड़े को याद किया जाता था। इंग्लिश मीडियम की पढ़ाई टेबल कुर्सी और ब्लैक बोर्ड पर होती है अतः उनके लिए, गिनती नंबर और पहाड़े, टेबल कहलाते हैं। हमारा अंकगणित उनका एरिथमेटिक्स (arithmetics) है।

वैसे तो अंकों का सार एक से दस संख्या में ही निहित है, लेकिन हम एक से बीस तक की हिंदी और अंग्रेजी की गिनती तक ही अपने आपको सीमित करेंगे। सम विषम संख्या के पचड़े में भी हम नहीं पड़ना चाहते।।

हमारा हिंदी का एक अंक अंग्रेजी का वन (one) है। इसे आपको one ही लिखना पड़ेगा, आप ven अथवा won नहीं लिख सकते। हां उच्चारण में चाहें तो वन को ओन कर सकते हैं। हमारा दूसरा अंक दो, अंग्रेजी का टू (two) है, जो हमारे दो के अपभ्रंश दुई अथवा दू के बहुत करीब है (गौर कीजिए, दो दूनी चार)।

यही हाल तीन का है, हमारा तीन का अंक उनका थ्री(three) है। उच्चारण में थ्री वैसे भी, तीन का करीबी ही लगता है।

हमारा चार का अंक उनका फोर (four) है, यहां सिर्फ आखरी के सिर्फ `र ` में ही समानता है। हमारा पांच का अंक अंग्रेजी का फाइव (five) है, जिसमें हमें कोई खास करीबी नजर नहीं आती। छः को सिक्स (six), सात सेवन(seven) का भी यही हाल है लेकिन इनका ऐट (eight) हमें हमारे आठ का करीबी लगता है।

वैसे eight को क्या आप अठ नहीं कह सकते। हमारा नौ इनका नाइन (nine) हो जाता है और हमारे दस पर इनकी टेन(ten) बज जाती है।।

आगे ग्यारह से उन्नीस तक का यह अंकों का खेल भी बड़ा रोचक है। हमारा ग्यारह इनका इलेवन(eleven)हो जाता है। जहां एक वन(one) था, वहीं इलेवन में वन की मात्रा eleven हो गई। ग्यारह से आगे के हमारे सभी अंकों में रह रहकर, रह और ह का प्रयोग हुआ है, गौर कीजिए, ग्यारह, बारह, तेरह, चौदह, पंद्रह, सोलह, सत्रह और अठारह। बस उन्नीस और बीस अलग नजर आते हैं। स्मरण रहे, इसमें सोलह बरस भी शामिल है।

और उधर अंग्रेजी के अंकों में इलेवन(eleven) और ट्वेल्व (twelve) के पश्चात् ही टीनेज शुरू हो जाती है, यानी थर्टीन, फोर्टीन, फिफ्टीन, स्वीट सिक्स्टीन, सेवेंटीन, एटीन और नाइनटीन। बस टीनेज खत्म और हमारा बीस उनका ट्वेंटी।।

यह तो बात हुई सिर्फ गिनती की, हमारे पहाड़ों और उनकी टेबल में जमीन आसमान का अंतर है। जो मज़ा दो एकम दो, आठी उठी चौंसठ और नम्मा नम्मा इक्यासी में है, वह टू वंजा टू और फाइव टेंजा फिफ्टी में नहीं। अपनी भाषा में रस है, विदेशी जुबान में गला सूखता है।

फिर भी मजबूरी का नाम महात्मा गांधी। आज के बच्चे छाछठ, छियोत्तर और छियासी में फर्क नहीं समझते। कहते हैं, पापा हिंदी में बोलो।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 239 – मायोपिआ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 239 ☆ मायोपिआ ?

दिन के गमन और संध्या के आगमन का समय है। पदभ्रमण करते हुए बहुत दूर निकल चुका हूँ।  अब लौट रहा हूँ। आजकल कोई मार्ग ऐसा नहीं बचा जिस पर ट्रैफिक न हो। ऐसी ही एक सड़क के पदपथ पर हूँ। कुछ दूरी पर सेना द्वारा संचालित एक स्थानीय विद्यालय है। इसके ठीक सामने एक सैनिक संस्थान है। धुँधलके का समय है, स्वाभाविक है कि इमारतें और पेड़ भी धुँधले दिख रहे हैं। इससे विपरीत स्थिति वह है, जिसमें धुँधलाती तो आँखें हैं और लगता है जैसे इमारतें और पेड़ धुँधला गए हों। प्रत्यक्ष और आभास में यही अंतर है।

विद्यालय से लगे पदपथ पर चल रहा हूँ। देखता हूँ कि कुछ दूरी पर पथ से सटकर एक बाइक खड़ी है। पुरुष बाइक के सहारे खड़ा है। यह भी आभासी है। सत्य तो यह है कि बाइक उसके सहारे खड़ी है। उसके साथ की स्त्री नीचे पदपथ पर चेहरा झुकाए बैठी है। एक तरह की आशंका भीतर घुमड़ने लगी। यद्यपि किसी के निजी जीवन में प्रवेश करने का अधिकार किसी दूसरे को नहीं होता तथापि संबंधित स्त्री यदि किसी प्रकार की कठिनाई में है तो उसकी सहायता की जानी चाहिए। इस भाव ने कदम उसी दिशा में बढ़ाए। थोड़ा और चलने पर यह जोड़ा साफ-साफ दिखाई देने लगा । दूर से ऐसा कुछ लग नहीं रहा था कि दोनों में किसी प्रकार के विवाद की स्थिति हो । मेरे और उनके बीच की दूरी अब मुश्किल 20 फीट रह गई थी। देखता हूँ कि अपने आँचल से ढक कर वह शिशु को स्तनपान करा रही है। स्वाभाविक है था कि मैंने अपने दिशा में परिवर्तन कर लिया।

दिशा में परिवर्तन के साथ विचार भी बदले,  मंथन आरंभ हुआ। कैसी और किन-किन परिस्थितियों में संतान का पोषण करती है माँ, उसे अमृत-पान कराती है! माँ के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता है शिशु।

मंथन कुछ और आगे बढ़ा और विचार उठा कि प्रकृति भी तो माँ है। मनुष्य द्वारा मचाये जाते सारे विध्वंस के बीच आशा की एक किरण बनकर खड़ी रहती है प्रकृति। आश्चर्य देखिये कि माँ की कोख में विष उँड़ेलता मनुष्य अपने कृत्य पर लज्जित नहीं होता, प्रकृति का अनवरत शोषण करता हुआ लजाता नहीं अपितु पंचतत्वों के संहार में निरंतर जुटा होता है। विरोधाभास यह कि पंचतत्वों का संहारक, पंचतत्वों से बनी काया के छूटने पर दुख मनाता है। मनुष्य लघु तो देख लेता है पर प्रभु उसे दिखता नहीं,  निकट का देख लेता है, पर दूर का ओझल रहता है। नेत्रविज्ञान इसे मायोपिआ कहता है। आदमी के इस शाश्वत मायोपिआ का एक चित्र कविता के माध्यम से देखिए-

वे रोते नहीं

धरती की कोख में उतरती

रसायनों की खेप पर,

ना ही आसमान की प्रहरी

ओज़ोन की पतली होती परत पर,

दूषित जल, प्रदूषित वायु,

बढ़ती वैश्विक अग्नि भी,

उनके दुख का कारण नहीं,

अब…,

विदारक विलाप कर रहे हैं,

इन्हीं तत्वों से उपजी

एक देह के मौन हो जाने पर…,

मनुष्य की आँख के

इस शाश्वत मायोपिआ का

इलाज ढूँढ़ना अभी बाकी है..!

हर हाल में मानव और मानवता को पोषित करने वाली प्रकृति के प्रति मनुष्य का यह मायोपिआ समाप्त होना चाहिए। इससे अनेक प्रश्न भी हल हो सकते हैं।

काँक्रीटीकरण, ग्लोबल वॉर्मिंग, कार्बन उत्सर्जन, पिघलते ग्लेशियर सब रुक सकते हैं। बहुत देर होने से पहले आवश्यक है, अपने-अपने मायोपिआ से मुक्त होना..। इति

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 श्री हनुमान साधना – अवधि- मंगलवार दि. 23 अप्रैल से गुरुवार 23 मई तक 💥

🕉️ श्री हनुमान साधना में हनुमान चालीसा के पाठ होंगे। संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही। मंगल भव 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 359 ⇒ जल संकट… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जल संकट।)

?अभी अभी # 359 ⇒ जल संकट? श्री प्रदीप शर्मा  ?

पानी इतना दीजिए

जा मे कुटुंब नहाय।

मैं भी प्यासा ना रहूं

पंछी न प्यासा जाय ।।

जब तक किसी वस्तु का अभाव अथवा असुविधा महसूस नहीं होती, हमारा उस पर ध्यान नहीं जाता। जलसंकट का अनुभव भी उसे ही होता है, जिसे पानी नहीं मिलता। गर्मी में पानी बिजली हमारी मूलभूत समस्या है। जहां नियमित जल प्रदाय होता रहता है, वहां इस संकट को महसूस नहीं किया जा सकता।

बढ़ते शहर की प्यास भी तो बढ़ेगी। गर्मी के शुरू होते ही, अधिकांश ट्यूब वेल सूख जाते हैं और सड़कों पर टैंकर दौड़ने लगते हैं। जब तक आप पैसा फेंकते रहेंगे, आपको पानी मिलता रहेगा। कुंए बावड़ी तो अब झांकने को भी नहीं मिलते।।

प्यास लगते ही कुंआ नहीं खोदा जाता, और खोदने के पश्चात् भी पानी की संभावना क्षीण ही रहती है। कुंआ खोदने से बेहतर है, वृक्षारोपण किया जाए, बारिश के पानी को रोका जाए, रीसाइकल किया जाए। जो पेड़ शहर के विकास में बाधा पहुंचाएंगे, उनको तो फिर भी काटा ही जाएगा।

हर आदमी पैसा फेंककर तमाशा नहीं देख सकता।

इधर आदमी को प्यास बढ़ती जा रही है और उधर पानी कम होता चला जा रहा है। याद आते हैं वे दिन, जब जगह जगह सड़कों पर प्याऊ नजर आ जाती थी। क्या एक्वागार्ड और आरो का पानी पीने वाला व्यक्ति इस पानी से अपनी प्यास बुझाएगा। वह तो अपने साथ हमेशा बिसलेरी की बॉटल लेकर चलता है। उसे अपनी सेहत का खयाल भी तो रखना है।।

आसमान की ओर देखो, तो सूरज आग उगल रहा है, और इधर पंखे भी गर्म हवा फेंक रहे हैं। कूलर पैसा और पानी दोनों मांगता है, अब सरकार मुफ्त राशन की तरह मुफ्त एसी तो सबको प्रदान नहीं कर सकती।

गर्मी में ठंड कैसे रखी जाए, इंसान ने पैसा कमाना तो सीख लिया, काश वह पानी बचाना भी सीख पाता, तो उसे गर्मी में पैसा पानी की तरह नहीं बहाना पड़ता।।

क्या समय आ गया है, हमें हवा और पानी दोनों खरीदने पड़ रहे हैं। पंखे, कूलर और ए.सी.की हवा क्या खरीदी हुई नहीं है। पानी पर तो वैसे भी डायरेक्ट जल कर के रूप में टैक्स है ही, हवा पर भी इनडायरेक्ट तौर पर टैक्स लगा हुआ है।

अंग्रेज गर्मियों में हिल स्टेशन चले जाते थे, और साथ साथ राजधानी भी वहीं ले जाते थे। वे भले ही चले गए हों, हमारे लिए गर्मियों की छुट्टियां छोड़ गए थे। इधर परीक्षा खत्म हुई और उधर गर्मी की छुट्टियां शुरू, और सभी साहबजादे चले ननिहाल।

गांव की हरियाली और प्राकृतिक हवा पानी में कैसी गर्मी और कैसी प्यास। छुट्टियां गुजर जाती, मगर प्यास नहीं बुझती थी।।

झूठ क्यूं बोलें, हमें ईश्वर ने हवा भी छप्पर उड़ाकर दी है, और पानी भी छप्पर फाड़कर। याद आते हैं वे दिन, जब नालीदार पतरों की छत से बारिश का पानी टप टप, टपकता था, कहीं बूंद बूंद, तो कहीं धाराप्रवाह। घर के सभी बर्तन, घड़ा, बाल्टी, तपेली, परात, और तो और ग्लास लोटे तक कार सेवा में सहयोग प्रदान करते थे। इतनी बारिश के बाद आंगन में लगे दो नीम और एक गूगल का पेड़, साल भर मस्ती में झूमते रहते थे। उनकी छांव में कहां कभी गर्मी महसूस हुई। माता पिता के साये के साथ इन दरख्तों की छांव भी हमसे छिन गई।

गर्मी पर फिलहाल चुनावी सरगर्मी हावी है। लोकतंत्र का उत्सव वैसे भी पांच वर्ष में एक बार ही तो आता है, जीवन के सुख दुख, और धूप छांव का हंसी खुशी से सामना करते हुए एक सुरक्षा और सुकून की आस में, अगर थोड़ा तप लेंगे तो क्या बुरा है।

अब कोई हवा पानी की भी मुफ्त की गारंटी देने से तो रहा। अगर गर्मी और जलसंकट से बचना चाहते हैं तो आप भी लेह लद्दाख घूम आइए, वर्ना बत्ती गुल होने पर, हाथ से पंखा झलिये और पसीने में नहाइए।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 358 ⇒ गमले में गिलहरी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गमले में गिलहरी…।)

?अभी अभी # 358 ⇒ गमले में गिलहरी? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कुछ शीर्षक बड़े विचित्र लेकिन असाधारण होते हैं। धर्मवीर भारती ने एक बर्फ वाले को ठेले पर बर्फ की सिल्लियां ले जाते देखा, और अनायास ही उन्हें अपनी कहानी का शीर्षक सूझ गया, ठेले पर हिमालय। मैने जब एक गिलहरी को भरी दुपहरी में, एक गमले के पौधे में आराम फरमाते देखा तो आश्चर्यचकित रह गया, गमले में गिलहरी !

इंसान के अलावा कुछ ऐसे मूक पशु पक्षी भी होते हैं, जिनसे हमें अनायास ही लगाव हो जाता है। बिना संवाद के भी भावनाओं का आदान प्रदान संभव है, अगर एक दूसरे के लिए आकर्षण है। गाय, भैंस के अलावा पालतू कुत्ते बिल्ली और कुछ पक्षी भी इसी श्रेणी में आते हैं। लेकिन आसमान में स्वच्छंद उड़ने वाला पक्षी और पेड़ पौधों पर निवास करने वाले कुछ प्राणी इतनी आसानी से हमारे करीब नहीं आते।

शायद उनमें यह अज्ञात भय व्याप्त हो, यह इंसान हमें मार डालेगा, पिंजरे में बंद कर देगा, अथवा खा जाएगा।।

कुछ लोग पक्षियों को नियमित दाना डालते हैं तो कुछ गर्मी में उनके लिए पीने के लिए पानी का इंतजाम करते हैं। अगर इस दुनिया में नेकी ना हो, तो क्या कोई पक्षी इतना निर्भीक हो, आसमान से उड़कर आपके आंगन में उतर पाएगा। एक दूरी बनाते हुए, वह मूक पक्षी आपको करीबी का अहसास देता है।

मैने ना तो कभी चिड़ियों को दाना डाला और ना ही किसी उड़ती चिड़िया को मैने पिंजरे में बंद करने की कोशिश ही की। मुझे देखते ही चिड़िया फुर्र से उड़ जाती है, मानो मैं उसे खा जाऊंगा, मुझे बहुत बुरा लगता है।।

घर के बाहर की ओपन गैलरी मैने कुछ गमलों में पौधे लगा रखे थे, नीचे आंगन और हरा भरा बगीचा था। कुछ पेड़ों पर गिलहरियों का नियमित निवास था। वे दिन में चोरी से मेरी गैलरी में आती, और बारह रखी खाने लायक चीजों पर हाथ साफ करती, लेकिन मुझे देख, जल्दी से छुप जाती।

धीरे धीरे उसे स्वादिष्ट पदार्थों का स्वाद लग गया, और लालच स्वरूप वह घर में भी प्रवेश करने लगी। लेकिन सब कुछ चोरी छुपे। मेरी निगाह पड़ते ही, यह जा, वह जा। गुस्सा भी आता और प्यार भी। लेकिन इतनी लाजवंती, कि आप उसे कभी छू भी ना पाओ।

इंसानों जैसे बैठकर, जब आगे के दोनों पंजों से मूंगफली छीलकर खाती है, तो बड़ा अचरज होता है।

मैने गिलहरी को अक्सर पेड़ पर चढ़ते उतरते और डाली डाली डोलते देखा है। पक्षियों के बीच रहने से, इसकी आवाज भी कुछ कुछ चिड़ियों जैसी ही हो गई है। जहां थोड़ा भी खतरा नजर आया, यह फुर्ती से पेड़ पर चढ़ जाती है।।

एक बार भरी दोपहर में मुझे बाहर गैलरी में रखे गमले में कोई जानवर बैठा नजर आया, पहले लगा, शायद कोई बिल्ली का बच्चा हो। पास जाकर देखा, तो गिलहरी महारानी गमले की ठंडी मिट्टी में आंखें मूंदे, निश्चिंत हो, आराम फरमा रही हैं, मैंने उसकी नींद में खलल डालना उचित नहीं समझा और चुपचाप अंदर चला आया। मेरी इस छूट का उसने भरपूर फायदा उठाया, और भविष्य में, जब मन करता, गर्मी से राहत पाने के लिए, निश्चिंत हो, गमले में आराम फरमाती।

आप इसे क्या कहेंगे, चोरी चोरी माल खाना, और बाद में निश्चिंत हो, गमले की ठंडी मिट्टी में घोड़े बेचकर सो जाना, लेकिन मुझे रत्ती भर घास नहीं डालना, क्या यह चोरी और सीना जोरी नहीं। कोई दिनदहाड़े हमें लूट रहा है, फिर भी हम उस पर फिदा हैं, और उस ज़ालिम को कुछ पता ही नहीं। क्या जीवन का यह सात्विक सुख, आध्यात्मिक सुख नहीं, क्या ईश्वर भी हमारे साथ कुछ ऐसी ही लीला नहीं कर रहा, हो सकता है, यह गिलहरी ही हरि हो ;

तेरे मेरे बीच में

कैसा है ये बंधन अनजाना

मैने नहीं जाना

तूने नहीं जाना।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 357 ⇒ प्रेम की किताब… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “प्रेम की किताब।)

?अभी अभी # 357 ⇒ प्रेम की किताब? श्री प्रदीप शर्मा  ?

प्रेम भले ही ढाई अक्षर का हो,कोई किताब ढाई अक्षर की नहीं होती। स्कूल में सबक सिखाया जाता है,प्रेम नहीं। अगर सबक याद ना हो,तो सबक बड़े प्रेम से सिखाया जाता है। छड़ी पड़े छमछम और विद्या आए धमधम। हमारे लिए पढ़ना मजबूरी थी। हमारी शैतानियों से परेशान होकर हमें स्कूल भेजा जाता था,बच्चा कुछ पढ़ लिख लेगा,अच्छा इंसान बन जाएगा।

सुना है आजकल बच्चों को स्कूल में बड़े प्यार से पढ़ाया जाता है। अब अमर घर नहीं जाता,जैक एंड जिल किसी हिल पर जाता है। हमने पढ़ा,माता पिता की सेवा करना हमारा धर्म है,चोरी करना पाप है। और हमारे बच्चों ने पढ़ा ;

Johny Johny yes papa.

Eating sugar no papa.

Telling lies no papa.

Open your mouth.

Ha!

Ha!

कहां एक ओर छड़ी हाथ में,और गुस्से से,चलो अपना हाथ आगे करो और कहां इधर प्यार से,बेटा,जरा अपना मुंह तो खोलो।।

किताबों से प्रेम हमें यूं ही नहीं हुआ। बहुत पढ़े और बहुत मार खाई। आखिर गिरते पड़ते कॉलेज पहुंच ही गए। वहां किताबों में प्रेम पत्र भी रखे जाते थे,और किताबों और नोट्स का आदान प्रदान भी होता था। होते थे कुछ प्रतिभाशाली छात्र जो लड़कियों की दिल की किताब भी पढ़ लेते थे।

हमने कभी प्रेम का सबक ठीक से याद नहीं किया,इसलिए हमेशा किताबों में ही सिर गड़ाए रखा।

जीवन में किताबी ज्ञान कभी काम नहीं आता। कॉलेज के कई चेहरे आज भी याद हैं,जो वास्तव में ढाई अक्षर प्रेम का पढ़ पाए,और उन्होंने बिना मंगनी के ही,झट पंडित के सामने सात फेरे ले लिए और जो हमारे जैसा किताबों में ही उलझा

रहा,उसने जो जीवन में मिल गया,उसी को मुकद्दर समझ लिया। नसीब अपना अपना।।

कुछ ऐसे पढ़ाकू लड़के भी थे,जो कभी लड़कियों की तरफ आंख भी उठाकर नहीं देखते थे,लेकिन किसी प्रेम दीवानी को उनकी यह अदा ही भा गई,और वह हमेशा के लिए उनकी हो गई। शायर टाइप लड़के और लड़कियों के कॉलेज में जाकर वाद विवाद प्रतियोगिता में भाषण देने वाले कई वक्ता साथी भी आखिर बलि के बकरे बन ही गए। तब शायद फिल्म जूली का यह गीत,उनके लिए ही लिखा गया था ;

दिल क्या करे,

जब किसी से,

प्यार हो जाए

दोपहर के मैटिनी शोज़ इनके लिए प्रेम की प्रयोगशाला साबित होते थे। मैं तुझसे मिलने आई,कॉलेज जाने के बहाने। कब पानी सर से ऊपर निकल जाता, कुछ पता ही नहीं चलता था।

जो आज भी प्रेम की किताब खुली रखना जानते हैं, वे कोचिंग सेंटर,व्यावसायिक प्रतिष्ठान और आईटी कंपनीज़ में भी अवसर को हाथ से नहीं गंवाते और अगर दिल के दरवाजे पर आपने नो एंट्री की तख्ती ही लगा रखी है, तो फिर तो आपका भगवान ही मालिक है। ऐसे किताबी कीड़ों के लिए प्रेम पंडित यही राय दे सकते हैं ;

घूंघट के पट खोल रे

तोहे पिया मिलेंगे।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 194 ☆ तुम्हारी भक्ति हमारे प्राण… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “तुम्हारी भक्ति हमारे प्राण…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 194 ☆ तुम्हारी भक्ति हमारे प्राण

भक्ति और भावना को समेटे अक्षयलाल जी अपनी दिनचर्या से समय बचाकर नेक कार्यों में बिताने का संकल्प लिए हुए हैं। सच्ची बात तो ये है कि जहाँ संकल्प होता है वहाँ विकल्प शान से पहले ही विराजमान होकर सभा की शोभा बढ़ाने लगता है। बहानेबाजी करने में जिनको महारत हासिल हो वो तरह- तरह के कारण- निवारण बताने लगते हैं। एक झूठ सौ तरकीबें बनाने में माहिर होता है।यहाँ हम लोग अपने में भी व्यस्त होने का दिखावा कर रहे हैं और वहाँ संभावनाओं में भावना की तलाश जारी है। कहा भी गया है- जिन खोजे तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ …। सो एकता के साथ कामकाजी होने का बहाना साधे अवसर न मिलने का रोना रोते हुए चाय पानी में लगे हुए हैं। जन जाग्रति हेतु जनमानस के बीच जाना और अपना मनोरंजन करके वापस आ जाना, बस यही कार्यप्रणाली बरसों से चली आ रही है। न तो टू डू लिस्ट का पालन न कार्यकर्ताओं के विचारों पर अमल, बस अपनी डफली अपना राग इसी लक्ष्य को साधते हुए आगे बढ़े जा रहे हैं। कहते हैं जो निरन्तर चलता रहेगा वो कुछ न कुछ तो अवश्य पायेगा। यही उनकी जिंदगी का मूलमंत्र है। रास्ते में कितने लोग हाथ छोड़कर चले गए इससे उनको कोई फर्क नहीं पड़ता बस अपनी धुन में मगन अपना राग अलापते हुए चलते जाना है।

मजे की बात ऐसे लोगों के सलाहकार भी जमीन से जुड़े न होकर सात समंदर पार बैठे हुए लोग होते हैं जो उल्टी ही चाल चलते हैं ताकि कोई न कोई बखेड़ा हो और न्यूज़ के फ्रंट फुट पर बिना कुछ किये ही बने रहा जा सके। कुछ लोग समय के इशारे को समझ कर अपनी राहें बदल लेते हैं किंतु कुछ अड़िग होकर बस भ्रमण को ही लक्ष्य समझते हैं। टाइमपास करते हुए टाइम मशीन के युग तक जाना, तकनीकी मुद्दों से दूरी बनाना बस विकास कब ,कैसे और क्यों होगा? इसी को समय- समय पर उठाते रहना। रोजगार और रेजगारी सबके बस की बात नहीं है, इन्हें संभालने के लिए बल बुद्धि दोनों चाहिए, जो मेहनती हैं उन्हें सब मिल रहा है , जो खाली हो हल्ला कर रहे हैं वे इस उम्मीद के सहारे बैठे हैं कि आज नहीं तो कल घूरे के दिन भी फिरेंगे। वक्त क्या रंग दिखायेगा ये तो तय है फिर भी औपचारिकता जरूरी होती है। सो गर्मजोशी के साथ सत्कर्मों का स्वागत करिए। अच्छे और सच्चे के साथी बन नेकनीयती का परिचय दीजिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 356 ⇒ गाँठ… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गाँठ।)

?अभी अभी # 356 ⇒ गाँठ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

दो रस्सियों को जोड़ने के लिए गाँठ बाँधी जाती है। स्काउट के प्रशिक्षण में खूंटा गाँठ,लघुकर गाँठ, जुलाहा गाँठ, और डॉक्टर गाँठ प्रमुख होती हैं। नदी नालों को पार करना,पहाड़ों पर चढ़ना और दुर्गम स्थलों पर रस्सी के सहारे रास्ता तय करने में,इन गाँठों का उपयोग होता है। जो आसानी से खुल जाए, वह गाँठ नहीं कहलाती।

जब रिश्तों की डोर कमज़ोर होने लगती है,तो टूटने से बचाने के लिए गाँठ बाँधना ज़रूरी हो जाता है। रिश्तों में एक बार गाँठ पड़ने पर विश्वास खत्म हो जाता है। स्काउट गाँठ पर भरोसा करना सिखलाता है, रिश्तों को जोड़ना स्काउटिंग का पहला कर्तव्य है। ।

हल्दी,अदरक और कुछ नहीं,केवल गाँठ ही है। इन दोनों गाँठों में औषधीय गुण हैं। कच्ची हल्दी अगर देखने में अदरक जैसी लगती है,तो अदरक सूख कर सौंठ हो जाती है। जिस गोभी को हम चाव से खाते हैं,उसकी भी एक किस्म गाँठ गोभी कहलाती है। अरबी जिसे यूपी में घुइयां कहते हैं,को छीलना इतना आसान नहीं होता। शलजम जो तेज़ी से होमोग्लोबिन बढ़ाता है, एक तरह की गांठ ही तो है।

हमारे मन में भी गाँठें होती हैं !अवसाद,पूर्वाग्रह और दुराग्रह,ईर्ष्या, जलन,डाह के अलावा अपने विचारों को खुलकर न व्यक्त करने की दशा में कुछ ऐसी ग्रंथियों का विकास होने लगता है जो न केवल मन,अपितु शरीर को भी नुकसान पहुंचाने लगता है। शरीर के किसी भी भाग में गाँठ का होना,किसी गंभीर समस्या को जन्म दे सकता है। इसे इलाज द्वारा निकालना ज़रूरी हो जाता है। ।

मन का निर्मल होना,कई पुरानी उलझी गाँठों को सुलझा देता है। किसी को माफ करना आसान होता है,किसी से माफ़ी माँगना बड़ा मुश्किल। किसी को ज़िन्दगी भर माफ़ नहीं करने की कसम,मन में कितनी बड़ी गाँठ पैदा कर सकती है। हमारे व्यवहार से शायद हमने भी किसी के मन में ऐसी गाँठें पैदा कर दी हों।

गाँठें बुरी हैं, बहुत बुरी ! मन और शरीर की गाँठों का निदान,ज़रूरी है। एक प्रेम का धागा ही काफी है किसी को अटूट बंधन में बाँधने के लिए। कच्चे धागे अच्छे हैं,गाँठ बहुत बुरी। ।

अटलजी की एक कविता है :

आओ, मन की गाँठें खोलें

यमुना तट, टीले रेतीले,

घास फूस का घर डंडे पर

गोबर से लीपे आँगन में,

तुलसी का बिरवा, घंटी स्वर

माँ के मुँह से दोहे चौपाई

रस घोलें

आओ मन की गाँठें खोलें …

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ तो आणि मी…! – भाग ६ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ तो आणि मी…! – भाग ६ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

(पूर्वसूत्र – भोवतालच्या मीट्ट काळोखातही मनातला श्रद्धेचा धागा बाबांनी घट्ट धरून ठेवला होता. कांहीही करून हरवलेल्या त्या पादुका घरी परत याव्यात एवढीच त्यांची इच्छा होती. पण ती फलद्रूप होण्यासाठी कांहीतरी चमत्कार घडणं आवश्यक होतं आणि एक दिवस अचानक,..?)

पुढे एक दोन दिवसांनी बाबा पोस्टातून घरी आले ते आठ दिवसांची रजा मंजूर करून घेतल्याचे सांगतच.

” मी गाणगापूरला जाऊन येईन म्हणतो”

” असं मधेच?”

” हो.तिथे जाऊन पादुकांचे दर्शन घेतो. नाक घासून क्षमा मागतो. तरच माझ्या मनाला स्वस्थता वाटेल.”

ते बोलले ते खरंच होतं गाणगापूरला जाण्यासाठी त्यांनी घर सोडलं त्याच दिवशी घरातलं फरशा बसवण्याचं काम पूर्ण करून गवंडी माणसं शेजारच्या घरी त्याच कामासाठी गेलेली होती. बाबा परत आले ते अतिशय उल्हसित मनानंच! त्यांच्या चेहऱ्यावर एवढ्या दूरवरचा प्रवास करून आल्याचा किंवा जागरणाच्या थकावटीचा लवलेशही नव्हता.आत येताच पाय धुवून त्यांनी स्वतःच देवापुढे निरांजन लावलं.मग कोटाच्या खिशातून एक पुरचुंडी काढली. ती अलगद उघडून देवापुढे ठेवली. त्यावर कोयरीतलं हळद-कुंकू वाहून नमस्कार केला.

“काय आहे हो हे?काय करताय?”आईने विचारलं.

” हा दत्तमहाराजांनी दिलेला प्रसाद.” ते प्रसन्नचित्ताने हसत म्हणाले.

“म्हणजे हो..?”

“मी संगमावर स्नान करून  वर आलो आणि वाळूतून चालताना सहज समोर लक्ष जाताच एकदम थबकलो. समोर सूर्यप्रकाशात काहीतरी चमकत होतं. मी जवळ जाऊन खाली वाकून ते उचलून घेतलं. पाहिलं तर तो वाळूत पडलेला हुबेहूब पादुकेसारखा दिसणारा गारेचा एक तुकडा होता.पण ही अशी एकच पादुका घरी कशी आणायची असं मनात आलं.काय करावं सुचेचना. मग सरळ मागचा पुढचा विचार न करता तिच्यासोबत हा दुसरा तेवढ्याच आकाराचा लांबट गारेचा खडा उचलून आणला…”ते उत्साहाने सांगत होते.हे वाचताना त्यांनी दुधाची तहान ताकावर  भागवून घेतली असं वाटेलही कदाचित,पण ते तेवढंच नव्हतं हे कांही काळानंतर आश्चर्यकारक रितीने प्रत्ययाला आलं.तोवर तत्काळ  झालेला एक बदल म्हणजे त्यानंतर घरातलं वातावरण हळूहळू पूर्वीसारखं झालं. यामधेही चमत्कारापेक्षा मानसिक समाधानाचा भाग होताच पण हे सगळं पुढे चमत्कार घडायला निमित्त ठरलं एवढं मात्र खरं!

आमच्या घरात फरशा बसवून झाल्यानंतरचा अंगणात रचून ठेवलेला फुटक्या शहाबादी फरश्यांच्या तुकड्यांचा ढीग अद्याप मजूरांनी हलवलेला नव्हता. त्यातल्याच एका आयताकृती फरशीच्या तुकड्यावर त्या गारेच्या दोन पादुका शेजारच्या घरी काम करत असलेल्या गवंडी मजुरांकडून बाबांनी सिमेंटमधे घट्ट बसवून घेतल्या. आश्चर्य हे की तेच मजुर त्या संध्याकाळी कामावरून घरी जाण्यापूर्वी आपणहून आमच्या घरी आले. बाबांना विचारुन त्यांनी त्या ढीगातले त्यातल्या त्यात  मोठे चौकोनी तुकडे शोधून त्या पादुका ठेवायला एक कट्टा आणि त्या भोवती तिन्ही बाजूंनी आणि वर बंदिस्त आडोसा असं जणू छोटं देऊळच स्वखुशीने बांधून दिलं! त्या कष्टकऱ्यांना ही प्रेरणा कुणी दिली हा प्रश्न त्या बालवयात मला पडला नव्हताच आणि आईबाबांपुरता तरी हा न पडलेला प्रश्न निरुत्तर नक्कीच नव्हता! आमच्या घरासमोरच्या अंगणातलं ते पादुकांचं मंदिर आजही मला लख्ख आठवतंय!

दुसऱ्या दिवशी पहाटे लवकर उठून आंघोळ आवरून बाबांनी मनःपूर्वक प्रार्थना करून त्या पादुकांची तिथे स्वतःच प्रतिष्ठापना केली आणि त्यांची ते स्वत: नित्यपूजाही करु लागले.हे  सुरुवातीला निर्विघ्नपणे सुरु राहिलं खरं पण एक दिवस बाबांना अचानक पहाटेच फोनच्या ड्युटीवर जाण्याचा अनपेक्षित निरोप आला. परत येऊन अंघोळ पूजा करायची असं ठरवून बाबा तातडीने पोस्टात गेले पण दुपारचे साडेअकरा वाजत आले तरी ते परत आलेच नाहीत.आज पादुकांची पूजा अंतरणार या विचाराने आई अस्वस्थ झाली. आम्ही भावंडांनी आपापली दप्तरं भरून ठेवली.आईनं हाक मारली की  जेवायला जायचं न् मग  शाळेत.आईची हाक येताच आम्ही आत आलो.आई आमची पानंच घेत होती पण नेहमीसारखी हसतमुख दिसत नव्हती.

“आई, काय झालं गं?तुला बरं वाटतं नाहीये का?” मी विचारलं.आई म्लानसं हसली.तिच्या मनातली व्यथा तिने बोलून दाखवली.यात एवढं नाराज होण्यासारखं काय आहे मला समजेचना.

“आई, त्यात काय?आमच्या मुंजी झाल्यात ना आता?मग आम्ही पूजा केली म्हणून काय बिघडणाराय?खरंच..,आई, मी करू का पादुकांची पूजा?” मी विचारलं.आई माझ्याकडे आश्चर्याने बघतच राहिली.

” नीट करशील?जमेल तुला?”

” होs.न जमायला काय झालं? करु?”

“शाळेला उशीर नाही का होणार?”

“नाही होणार.बघच तू”

“बरं कर”आई म्हणाली.

त्यादिवशी पुन्हा आंघोळ करून आणि पादुकांची पूजा करून घाईघाईने दोन घास कसेबसे खाऊन मी पळत जाऊन वेळेत शाळेत पोचलो. दत्तसेवेच्या मार्गावरचं माझ्याही नकळत आपसूक पुढे पडलेलं माझं ते पहिलं पाऊल होतं! पुढे मग बाबांना खूप गडबड असेल, वेळ नसेल, तेव्हा पादुकांची पूजा मी करायची हे ठरुनच गेलं.

काही महिने असेच उलटले.सगळं विनासायास आनंदाने सुरु होतं.आणि एक दिवस मी पूजा करत असताना अचानक माझ्या लक्षात आलं, की त्यातल्या पादुकेच्या शेजारच्या गारेच्या दुसऱ्या लांबट तुकड्यालाही हळूहळू पादुकेसारखा आकार यायला लागलाय.

त्याच दरम्यान त्या छोट्याशा देवळावर सावली धरण्यासाठीच जणूकांही उगवलंय असं वाटावं असं देवळालगत बरोबर मागच्या बाजूला औदुंबराचं एक रोप तरारून वर येऊ लागलं होतं!!

ते रोप हळूहळू मोठं होईपर्यंत कांही दिवसातच त्या गारेच्या लांबट दगडाला त्याच्यासोबतच्या पादुकेसारखाच हुबेहूब आकार आलेला होता!!

आईबाबांच्या दृष्टीने हे शुभसंकेतच होते. हळूहळू ही गोष्ट षटकर्णी झाली तसे अनेकजण हे आश्चर्य पहायला येऊ लागल्याचं मला आजही आठवतंय.

कुरुंदवाड सोडण्यापूर्वीच बाबांना वाचासिद्धीची चाहूल लागलेली होती तरीही आम्हा मुलांच्या कानापर्यंत त्यातलं काहीही तोवर आलेलं नव्हतं.पण खूपजण काही बाही प्रश्न घेऊन बाबाकडे येतात ,मनातल्या शंका बाबांना विचारतात, बाबा त्यांचं शंकानिरसन करायचा प्रयत्न करतात आणि ते सांगतात ते खरं होतं हे येणाऱ्यांच्या बोलण्यातून अर्धवट का होईना  आमच्यापर्यंत पोचलो होतंच.

संकटनिवारण झाल्याच्या समाधानात ती माणसं पेढे घेऊन आमच्या घरी यायची. बाबांचे पाय धरू लागायची पण बाबा त्यांना थोपवायचे. ‘नको’ म्हणायचे. नमस्कार करू द्यायचे नाहीत.पेढेही घ्यायचे नाहीत.

“अहो, मी तुमच्या सारखाच एक सामान्य माणूस आहे. मला खरंच नमस्कार नका करु. तुमच्या देव मी नाहीय.मी हाडामासाचा साधा माणूस.तुमचा देव तो.., तिथं बाहेर आहे. त्याला नमस्कार करा. यातला एक पेढा तिथं,त्याच्यासमोर ठेवा आणि बाकीचे त्याचा प्रसाद म्हणून घरी घेऊन जा” ते अतिशय शांतपणे पण अधिकारवाणीने सांगायचे.

तो बाहेर देवापुढे ठेवलेला पेढाही आम्ही कुणीच घरी खायचा नाही अशी बाबांची सक्त ताकीद असे. त्या दिवशी कोणत्याही निमित्ताने जो कुणी आपल्या घरी येईल,त्याला तो पेढा प्रसाद म्हणून द्यायचा असं बाबांनी सांगूनच ठेवलं होतं. मग कधी तो प्रसाद दुधोंडीहून डोईवरच्या पाटीत दुधाच्या कासंड्या घेऊन घरी दुधाचा रतीब घालायला येणाऱ्या दूधवाल्या आजींना मिळायचा, तर कधी आम्हा भावंडांबरोबर खेळायला, अभ्यासाला आलेल्या आमच्या एखाद्या मित्राला किंवा पत्र टाकायला घरी येणाऱ्या पोस्टमनलाही त्यातला वाटा मिळायचा!

माझे आई बाबा तेव्हाच नव्हे तर अखेरपर्यंत निष्कांचनच होते. त्यांच्या संसारात आर्थिक विवंचना,ओढग्रस्तता तर कायमचीच असे. पण तरीही बाबांनी लोकांच्या मनातल्या त्यांच्याबद्दलच्या विश्वासाचा कधीच बाजार मांडला नाही. ते समाधानीवृत्तीचे होतेच आणि सुखी व्हायचे कोणतेच सोपे जवळचे मार्ग त्यांनी जवळ केले नव्हते. देवावरची आम्हा मुलांच्या मनातली श्रद्धासुद्धा तशीच निखळ रहाणं आणि आमच्या मनात अंधश्रद्धेचे तण कधीच न रुजू देणं ही माझ्या आई-बाबांनी आम्हा भावंडांना दिलेली अतिशय मोलाची देनच म्हणावी लागेल!

क्रमशः …दर गुरुवारी

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ महाराष्ट्र दिवस विशेष – ‘जय जय महाराष्ट्र मेरा’- १ मई २०२४ – ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

☆ आलेख ☆ महाराष्ट्र दिवस विशेष – ‘जय जय महाराष्ट्र मेरा’- १ मई २०२४ ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव

नमस्कार पाठकगण, 

आप सबको महाराष्ट्र दिन के अवसर पर बहुत सारी शुभकामनाएँ !

एक मई, २०२४, महाराष्ट्र दिवस, मेरे लाडले महाराष्ट्र का “दिल से” बखान करने का दिन! जिस पवित्र भूमि पर मैंने जन्म लिया, उस भूमि का गुणगान, कीर्तन, पूजन, अर्चन इत्यादि कैसे करूँ? उसके बजाय इस मंगलमय दिन शब्दपुष्पों की सुन्दर माला ही उसके कंठ में डालती हूँ!

महाराष्ट्र के पुण्य भूमि में जन्म लिया, यह निश्चित ही मेरे पूर्व जन्मों के पुण्य का ही फल होगा! इस महान महाराष्ट्र देश के गौरवशाली वैभव तथा प्रचुरता मैं एक मुख से कैसे वर्णन करूँ? उसके लिए प्रतिभाशाली शब्दप्रभू गोविंदाग्रज रचित “मंगल देश” महाराष्ट्र का मनमोहक महिमा-गीत ही सुनना होगा!

प्रिय मित्रों, महाराष्ट्र यानि छत्रपती शिवाजी महाराज, परन्तु छत्रपती शिवाजी महाराज यानि महाराष्ट्र, यह संकुचित विचार मन में लाना यानि, साक्षात् शिवाजी महाराजा का अपमान हुआ, उनकी संघटन शक्ति का उदाहरण दूँ तो उनकी दूरदृष्टि हमें अचंभित किये बगैर रहती नहीं| महाराज की फ़ौज में उनके सहवास में आकर पावन हुए तथा पहले से ही पवित्र रहे १८ प्रकार की जातियों के और प्रत्येक धर्म के मावळे स्वराज्य कंकण को अभिमान से प्रदर्शित करते हुए उनके प्रत्येक स्वराज्य-अभियान में अत्यंत आत्मविश्वासपूर्वक, लगनसे और जी जान से शामिल होते थे| उनका शौर्य, पराक्रम, बुद्धिमत्ता, रणकौशल्य इत्यादि इत्यादि के बारे में मेरे जैसी क्षुद्र व्यक्ति क्या लिखे, केवल नतमस्तक हो कर कहती हूँ “शिवराय का स्मरण करें रूप, शिवराय का स्मरण करें प्रताप”! उन्होंने मुघल बादशहा औरंगजेब और सारे नए-पुराने अस्त्र-शस्त्र के साथ सज्जित उसकी फौज का आक्रमण रोका, इतना ही नहीं, उनका पारिपत्य भी किया| यह करते हुए अपनी मुठ्ठी भर फौज की सहायता से “गनिमी नीति” अमल में लाते हुए इस “दक्खन के चूहे” ने औरंगजेब के नाक में दम कर दिया| उसका वर्चस्व नकारते हुए “स्वराज्य की पताका” लहराने वाले हमारे वास्तविक हृदयसम्राट गो-ब्राम्हण प्रतिपालक ऐसे शिवाजी महाराज!

हमारी भक्ति से जुडे है हमारे प्रिय विठ्ठ्ल (जो हमारी माऊली (माता) के रूप में पंढरपूर में स्थित हैं), दुर्गा के साढे तीन शक्तिपीठ और गणेशजी के आठ रूप (अष्टविनायक), शेगाव के गजानन महाराज तथा शिर्डी के साईबाबा इत्यादी इत्यादी! मेरा महाराष्ट्र देश संतों के वास्तव्य से पुनीत हुआ है| “चलें पंढरी की राह पर” इस बुलावे पर संत ज्ञानेश्वर, संत एकनाथ, संत तुकाराम, संत नामदेव, इत्यादि संतों के पीछे हजारों की संख्या में “दिंडी” में सम्मिलित हो कर “राम कृष्ण हरी” का ताल और मृदुंग सहित जयघोष करनेवाले “वारकरी” आज भी उसी भक्ति से “वारी” करते हुए इस अनमोल भक्ति का उपहार विठठ्ल के चरणों में अर्पण कर रहे हैं| भक्तिमार्ग की सर्वसमावेशक प्रतीक यह “पंढरी की वारी” महाराष्ट्र की बहुमोल सांस्कृतिक विरासत है!

महाराष्ट्र के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, राजकीय और समाज प्रबोधन की धनी विरासत का क्या वर्णन करें? बस नाम का उच्चारण ही पर्याप्त होगा, अपने आप ही हाथ जुड़ जायेगे आदर सहित प्रणाम करने के लिए! हम जिस स्वतंत्रता का मनमौजी हो कर उपभोग कर रहे हैं, वह प्राप्त करने हेतु यहाँ के अनेक क्रांतिकारकोंने अपना सर्वस्व अर्पण किया| कितने ही नाम लें! आइये, आज हम उनके स्म्रुति-चरणों में नतमस्तक होते हैं!

अभिजात भाषा और कितनी समृद्ध हो सकती है? सरकार के दरबार में “मराठी”, मेरी मातृभाषा को यह दर्जा कब प्राप्त होगा? इस महाराष्ट्र में निर्मित साहित्य यानि साक्षात अमृतकलश! कई वर्षों पूर्व (१२९०) उसकी महिमा का गान गाते हुए “ज्ञानेश्वर माऊली ने रचे ये शब्द “माझ्या मराठीचे बोल कवतुके। परी अमृतातेंही पैजा जिंके। ऐसी अक्षरे रसिकें। मेळवीन॥“(रसिक जनों, मेरी मराठी के मधुर और सुन्दर बोलों का क्या बखान करूँ, अमृत से भी शर्त जीत ले, ऐसे अक्षरों का मैं निर्माण करूँगा)! जिस महाराष्ट्र में सुसम्पन्न सुविचारों तथा अभिजात संस्कारों के स्वर्णकमल प्रफुल्लित हैं, जहाँ भक्तिरस से ओतप्रोत अभंग और शृंगाररस से सरोबार लावण्यखणी लावणी जैसे बहुमोल रत्न एक ही इतिहास की पेटिका में आनंद से विराजते हैं, वहीँ रसिकता की संपन्नता के नित्य नूतन अध्याय लिखे जाते हैं|

इस अभिजात साहित्य के रचयिता हरी नारायण आपटे, आचार्य अत्रे, राम गणेश गडकरी, कुसुमाग्रज, पु. ल. देशपांडे, कितने ही नाम लूँ, कम ही होंगे! इस साहित्य का स्वर्ण जितना ही लुटाऊँ, उतना ही  वृद्धिंगत होगा! महाराष्ट्र की संगीत परंपरा बहुत ही पुरातन और समृध्द है| संगीत नाटकों की परंपरा यानि हमारे महाराष्ट्र की खासियत तथा उसका एकाधिकार ही समझ लीजिए! स्त्री सौंदर्य के नवोन्मेषयुक्त मानदंड निर्माण करने वाले बालगंधर्व! उनका हम रसिकोंको बहुत विस्मयकारक कौतुक है! जिनके स्त्रीसुलभ विभ्रम साक्षात् यहाँ की स्त्रियों को इतना मोहित करें कि, वें उनका अनुकरण करने लगें, ऐसा रसिकों को अक्षरशः पागल कर देने वाला यह अनोखा कलाकार!

मुंबापुरी और कोल्हापूर यानि सिनेमा उद्योग की खान ही समझें! सिल्वर स्क्रीन के “प्रथम पटल” का निर्माण करने वाले दादासाहेब फाळके ही थे! दूसरे प्रांतों से मुंबई की मायानगरीत में आकर बसे हुए और कर्म से मराठी का अभिमानपूर्वक बखान करने वाले संगीतकारों, गायकों, गीतकारों तथा कलाकारों की सूची खत्म ही नहीं होती| ऐसे महाराष्ट्र को १ मई १९६० के दिन स्वतंत्र राज्य का दर्जा दिया गया| इस स्वतंत्र महाराष्ट्र के पहले मुखमंत्री थे, यशवंतराव चव्हाण!

अब हम महाराष्ट्र दिवस का इतिहास जानने का प्रयास करते हैं| इस इतिहास में मनोरंजन का तनिक भी अंश नहीं है, अपितु है एक काला चौखटा जिसमें बंदिस्त हैं स्मृतियाँ हुतात्माओं के रक्तलांछित बलिदानों की! २१ नवम्बर १९५६ के दिन मुंबई में स्थित फ्लोरा फाउंटन के आसपास तनाव महसूस हो रहा था| इसका कारण था, राज्य पुनर्रचना आयोगने महाराष्ट्र में मुंबई को विलीन करने का प्रस्ताव नकार दिया था| इस अन्यायकारक निर्णय के फलस्वरूप मराठी लोगोंका क्रोध चरम सीमा पर पहुँच गया था| जगह-जगह होने वाली छोटी-बड़ी सभाओं में इस निर्णय का सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन हो रहा था। इसका परिणाम वहीँ हुआ जिसकी अपेक्षा थी, मराठी अस्मिता जाग उठी और सारे संघटन इकट्ठा हुए| सरकार का विरोध करने हेतु फ्लोरा फाउंटेन के सामने चौक पर श्रमिकों के एक विशाल मोर्चे की योजना बनाई गई| उसके पश्चात् एक बड़ा जनसमुदाय एक तरफ से चर्चगेट स्थानक की ओर से तथा दूसरे तरफ से बोरीबंदर की ओर से अत्यंत विद्वेष सहित घोषणा देते हुए फ्लोरा फाउंटन के स्थान पर इकट्ठा हुआ| पुलिस ने उसे तितर-बितर करने के लिए लाठी चार्ज किया| लेकिन मोर्चे में शामिल श्रमिक टस  से मस  नहीं हुए| उसके बाद मुंबई राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई ने पुलिस को फायरिंग करने का आदेश दिया| इसके कारण संयुक्त महाराष्ट्र के संघर्ष में १०६ आंदोलक हुतात्मे हुए| इन हुतात्माओं के बलिदान के फलस्वरूप और मराठी प्रजा के आंदोलन की वजह से सरकार को झुकना पड़ा और अंत में १ मई, १९६० के दिन मुंबई का समावेश हो कर संयुक्त महाराष्ट्र की स्थापना हुई| इन १०६ हुतात्माओंने जहाँ बलिदान किया उस फ्लोरा फाउंटन के चौक में १९६५ को हुतात्मा स्मारक खड़ा किया गया| अब यह चौक हुतात्मा चौक के नाम से ही परिचित है| प्रिय मित्रों, जब-जब हम इस मुंबई नगरी को “आमची मुंबई” के नाम से स्मरण करते हैं, तब-तब हमें इन हुतात्माओं के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए|

1 मई अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। ४ मई १८८६ के दिन अमरीका के श्रमिकोंने आठ घंटे काम करने को नकार दिया और अपने न्यायहक़ के लिए आंदोलन किया, शिकागो के हेमार्केट में बम विस्फोट होने के कारण श्रमिकों में हड़बड़ मच गई| उसके बाद परिस्थिति को नियंत्रण में लाने के लिए पुलिस ने आंदोलन करने वाले श्रमिकों पर गोलियां चलाई, उसमें कई श्रमिक मारे गए।  फिर १८८९ में इन श्रमिकों की स्मृति में १ मई को अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस के रूप में मनाये जाने की घोषणा समाजवादी संमेलन में की गई| उसके पश्चात् हर साल 1 मई को दुनिया भर में अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाता है।

मैंने इस पवित्र भूमि में जन्म लिया और यहीं पली बढ़ी हूँ| जहाँ बहुत अधिक स्वर्णालंकार और रत्न नहीं थे, परन्तु प्रचुर मात्रा में थी सुवर्णकांचन जैसे दमकती असली संस्कारों की गरिमा! पुस्तकों को पढ़ते-पढ़ते, नाटकों को देखते-देखते और उम्र के बढ़ते-बढ़ते परिचय हुआ यहाँ के साहित्यिक वैभव का! मन में हिलोरें उठती और वह पूछता आचार्य अत्रे रचित “कऱ्हेचे पाणी” का स्वाद चखूँ, या गडकरी द्वारा निर्मित सुधाकर और सिंधू के परिवार की दुर्दशा करनेवाले “एकच प्याला” के रंगों के रंगमंच पर दर्शन करूँ, या फिर पु. ल. देशपांडे निर्मित चुलबुली फुलराणी का प्रसिद्ध “तुला शिकवीन चांगलाच धडा!” यह स्वगत आत्मसात करूँ, या मृत्युंजय के उत्तुंग तथा बहुरंगी व्यक्तिमत्व से स्तिमित हो जाऊं! इन दो हाथों में कितना बटोर सकूंगी, ऐसी अवस्था हो उठती थी मेरी! मेडिकल की शिक्षा प्राप्त की, वह भी नागपुर के प्रसिद्ध वैद्यकीय महाविद्यालय में, नौकरी भी की वहीँ, मैं धन्य हुई और जीवन सार्थक हुआ| इस मिटटी का ऋण चुकाने का विचार तक मन में नहीं ला सकती, कैसे आए? इतना विशाल है वह!  ईश्वर के चरणों में “दिल से” प्रार्थना करती हूँ कि, मैं इसी मिटटी में बारम्बार जन्म लूँ और उसीकी पवित्र गोद में अंतिम विश्राम करूँ| इससे अधिक सौभाग्य और क्या हो सकता है?

किसी ने कहा है कि ठेस लगने पर “आई ग!” कर जो दुःख से आह भरे, वहीँ है “असली मराठी माणूस”, परन्तु अब अंग्रेजियत से लैस, ओरिजिनल मराठी बॉय और गर्ल कहेंगे “ओह मम्मा!” वे भी तो मराठी ही हुए ना! दूसरे प्रांतों आये, इस मिटटी से नाता जोड़कर अब “महाराष्ट्रीयन” हुए लोगोंका क्या? (इसका उत्तर मैं नहीं दूंगी, बल्कि आप अवधूत गुप्ते का गाना अवश्य सुनिए और देखिए, लेख के अंत में लिंक दी है!) वे भी “दिल से” गा रहे हैं “जय जय महाराष्ट्र मेरा!” आखिरकार अगर दिल मिल गए तो मिटटी से नाता तो जुड़ना ही है भैया! बंबैय्या मराठी की बस आदत लग जाए तो हर एक चीज एकदम आसानी से फिट हो जाए!

इस दिन का उपभोग केवल सार्वजनिक छुट्टी के रूप में न करते हुए मराठी अस्मिता जगाने का और उसे जतन करने का है| यह हमें निर्धारित करना है कि अत्यंत उत्त्साहित होकर विविध कार्यक्रमों का आयोजन करते हुए धोतर, फेटा, नऊवार साडी, नथ इत्यादि पारम्परिक वेशभूषाओं और “मराठी पाट्या (board)” तक मराठी अस्मिता को सीमित रखें या इससे भी बढ़कर जो इस भूमि का गौरवशाली तथा जाज्वल्य इतिहास है उसे अपने मन में जतन करें!!!

जय हिंद! जय महाराष्ट्र!

इसी जयघोष के साथ अब आपसे विदा लेती हूँ,

धन्यवाद!

टिप्पणी – दो गानों की लिंक जोड़ रही हूँ, लिंक न खुलने पर यू ट्यूब पर शब्द डालें

https://youtu.be/PWVSzfMdiwI

‘बहु असोत सुंदर संपन्न की महा’ – श्रीपाद कृष्ण कोल्हटकर (समूहगान)

https://youtu.be/JgdfVaOYJMM

‘जय जय महाराष्ट्र माझा’ – अवधूत गुप्ते (गायक-अवधूत गुप्ते)

© डॉक्टर मीना श्रीवास्तव

ठाणे

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 279 ☆ आलेख – देश में बिजली आने की कहानी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक ज्ञानवर्धकआलेख  – देश में बिजली आने की कहानी। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 279 ☆

? आलेख – देश में बिजली आने की कहानी ?

1899 में कोलकाता के कुछ हिस्से में अंग्रेजो ने शाम के समय बिजली के प्रकाश की व्यवस्थाये कर दिखाईं थी. 20वीं शताब्दी की शुरुआत में १९०५ में दिल्ली में भी बिजली से प्रकाश व्यवस्था का प्रारंभ हुआ. शुरुआती दौर में डीजल से बिजली बनाई जाती थी. 1911 के तीसरे दिल्ली दरबार के समय जब अंग्रेज राजा ने बुराड़ी के कोरोनेशन पार्क में आयोजित एक समारोह में ब्रिटिश भारत की राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने की घोषणा की, उसी साल यहां पर भाप से बिजली उत्पादन स्टेशन बनाया गया. अंग्रेजों ने 20वीं सदी के पहले दशक में भारतीय परंपरा की नकल करते हुए दिल्ली में दो दरबार सन 1903 एवं 1911 में किए, जिनमें बिजली से साज-सजावट की गई. लियो कोल्मैन ने अपनी पुस्तक ‘ए मॉरल टेक्नॉलजी, इलेक्ट्रिफिकेशन एज पॉलिटिकल रिचुअल इन न्यू डेल्ही’ में भारत की राजधानी के बिजलीकरण के बहाने सांस्कृतिक राजनीति, राजनीतिक सोच को आकार देने में प्रौद्योगिकी की भूमिका को रेखांकित किया है. ‘दिल्ली, पास्ट एंड प्रेजेन्ट’ के लेखक एच सी फांशवा ने पूर्व (यानी भारत) में बिजली की रोशनी की शुरुआत पर चर्चा करते हुए इसे एक फिजूल खर्च के रूप में खारिज कर दिया था. उसने तर्क देते हुए कहा कि दिल्ली में कलकत्ता के विपरीत कारोबार शाम के समय खत्म हो जाता है. ऐसे में मिट्टी के तेल से होने वाली रोशनी ही काफी है. ‘मैसर्स जॉन फ्लेमिंग’ नामक एक अंग्रेज कंपनी ने दिल्ली में 1905 में पहला डीजल पावर स्टेशन बनाया था. इस कंपनी के पास बिजली बनाने और डिस्ट्रीब्यूशन दोनों की जिम्मेदारी थी.

जॉन फ्लेमिंग कंपनी’ ने पुरानी दिल्ली में लाहौरी गेट पर दो मेगावाट का एक छोटा डीजल स्टेशन बनाया. बाद में इसका नाम ‘दिल्ली इलेक्ट्रिसिटी सप्लाई एंड ट्रैक्शन कंपनी’ हो गया. 1911 में, बिजली उत्पादन के लिए स्टीम जनरेशन स्टेशन यानी भाप से बिजली बनाने वाले स्टेशन की शुरुआत हुई. ‘दिल्ली गजट, 1912’ के अनुसार, बिजली से रोशनी के मामले में दिल्ली किसी भी तरह से दुनियां से पिछड़ी नहीं थी. 1939 में दिल्ली सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी पॉवर अथॉरिटी बनाई गई थी.

समय के साथ युग परिवर्तन हुआ, विकास और विस्तार होता रहा. आज बिजली उत्पादन थर्मल, हाइडल, एटामिक, विंड से होते हुए सोलर पॉवर तक आ पहुंचा है.

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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