हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #12 – नैतिकता से स्थाई चरित्र निर्माण ☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज   बरहवीं कड़ी में प्रस्तुत है “नैतिकता से स्थाई चरित्र निर्माण”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 12 ☆

 

☆ नैतिकता से स्थाई चरित्र निर्माण ☆

 

सदा से कोई भी गलत काम करने से समाज को कौन रोकता रहा है ? या तो राज सत्ता का डर या फिर मरने के बाद ऊपर वाले को मुंह दिखाने की धार्मिकता, या आत्म नियंत्रण अर्थात स्वयं अपना डर ! सही गलत की पहचान ! अर्थात नैतिकता.

वर्तमान में भले ही कानून बहुत बन गये हों किन्तु वर्दी वालों को खरीद सकने की हकीकत तथा विभिन्न श्रेणी की अदालतों की अति लम्बी प्रक्रियाओं के चलते कड़े से कड़े कानून नाकारा साबित हो रहे हैं. राजनैतिक या आर्थिक रूप से सुसंपन्न लोग कानून को जेब में रखते हैं. फिर बलात्कार जैसे अपराध जो स्त्री पुरुष के द्विपक्षीय संबंध हैं, उनके लिये गवाह जुटाना कठिन होता है और अपराधी बच निकलते हैं. इससे अन्य अपराधी वृत्ति के लोग प्रेरित भी होते हैं.

धर्म निरपेक्षता के नाम पर हमने विभिन्न धर्मों की जो अवमानना की है, उसका दुष्परिणाम भी समाज पर पड़ा है. अब लोग भगवान से नहीं डरते. धर्म को हमने व्यक्तिगत उत्थान के साधन की जगह सामूहिक शक्ति प्रदर्शन का साधन बनाकर छोड़ दिया है. धर्म वोट बैंक बनकर रह गया है. अतः आम लोगों में बुरे काम करने से रोकने का धार्मिक डर नहीं रहा. एक बड़ी आबादी जो तमाम अनैतिक प्रलोभनों के बाद भी अपने काम आत्म नियंत्रण से करती थी अब मर्यादाहीन हो चली है.

पाश्चात्य संस्कृति के खुलेपन की सीमाओं व उसके लाभ को समझे बिना नारी मुक्ति आंदोलनो की आड़ में स्त्रियां स्वयं ही स्वेच्छा से फिल्मो व इंटरनेट पर बंधन की सारी सीमायें लांघ रही हैं. पैसे कमाने की चाह में इसे व्यवसाय बनाकर नारी देह को वस्तु बना दिया गया है.

ऐसे विषम समय में नारी शोषण की जो घटनाएँ रिपोर्ट हो रही हैं, उसके लिये मीडिया मात्र धन्यवाद का पात्र है. अभी भी ऐसे ढ़ेरों प्रकरण दबा दिये जाते हैं.

आज समाज नारी सम्मान हेतु जागृत हुआ है. जरूरी है कि आम लोगों का स्थाई चरित्र निर्माण हो. इसके लिये समवेत प्रयास किये जावें. धार्मिक भावना का विकास किया जाए. चरित्र निर्माण में तो एक पीढ़ी के विकास का समय लगेगा तब तक आवश्यक है कि कानूनी प्रक्रिया में असाधारण सुधार किया जाये. त्वरित न्याय हो. तुलसीदास जी ने लिखा है “भय बिन होय न प्रीत”..ऐसी सजा जरूरी लगती है जिससे दुराचार की भावना पर सजा का डर बलवती हो.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #9 – क्या चल रहा है? ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की  नौवीं कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 9 ☆

 

☆ क्या चल रहा है? ☆

 

इन दिनों एक विज्ञापन जोरों पर है-‘क्या चल रहा है?’ उत्तर मिलता है-‘फलां-फलां बॉडी स्प्रे चल रहा है।’ इसी तर्ज़ पर एक मित्र से पूछा,‘क्या चल रहा है?’ उत्तर मिला,‘यही सोच रहा हूँ कि इतना जीवन बीत गया, क्या किया और क्या कर रहा हूँ? जीवन में क्या चल रहा है?’ उत्तर चिंतन को दिशा दे गया।

वस्तुतः यह प्रश्न हरेक ने अपने आपसे अवश्य करना चाहिए-‘क्या चल रहा है?’ दिन में जितनी बार आईना देखते हो, उतनी बार पूछो खुद से-‘क्या चल रहा है?’ बकौल डॉ. हरिवंशराय बच्चन-‘जीवन सब बीत गया, जीने की तैयारी में।’ चौबीस घंटे भौतिकता के संचय में डूबा मनुष्य जीवन में भौतिकता का भी उपभोग नहीं कर पाता। संचित धन को निहारने, हसरतें पालने और सब कुछ धरा पर धरा छोड़कर चले जानेवाले से बड़ा बावरा भिखारी और कौन होगा? पीछे दुनिया हँसती है-‘संपदा तो थी पर ज़िंदगी भर ‘मंगता’ ही रहा।’…बड़ा प्रश्न है कि क्या साँसें भी विधाता द्वारा प्रदत्त संपदा नहीं हैं? प्राणवायु अवशोषित करना-कार्बन डाय ऑक्साइड उत्सर्जित करना, इतना भर नहीं होता साँस लेना। मरीज़ ‘कोमा’ में हो तो रिश्तेदार कहते हैं-‘ कुछ बचा नहीं है, बस किसी तरह साँसें भर रहा है।’ हम में से अधिकांश लोग एक मानसिक ‘कोमा’ में हैं। साँसें भर रहे हैं, समय स्वतः जीवन में कालावधि जोड़ रहा है। काल के आने से पूर्व मिलनेवाली अवधि-कालावधि। हम अपनी सुविधा से ‘काल’ का लोप कर ‘अवधि’ के मोह में पड़े बस साँसें भर रहे हैं। फिर एक दिन एकाएक प्रकट होगा काल और पूछेगा-‘क्या चल रहा है?’ जीवन भर सटीक उत्तर देनेवाला भी काल के आगे हकलाने लगता है, बौरा जाता है, सूझता कुछ भी नहीं।

एक साधु से शिष्य ने पूछा कि क्या कोई ऐसी व्यवस्था की जा सकती है जिसमें मनुष्य की मृत्यु का समय उसे पहले से पता चला जाए। ऐसा हो सके तो हर मनुष्य अपने जीवन में किए जा सकनेवाले कार्यों की सूची बनाकर निश्चित समय में उन्हें पूरा कर सकेगा, मृत्यु के समय किसी तरह का पश्चाताप नहीं रहेगा। साधु ने कहा, ‘जगत का तो मुझे पता नहीं पर तेरी मृत्यु आठ दिन बाद हो जाएगी। सारे काम उससे पहले कर लेना।’ कहकर साधु आठ दिन की यात्रा पर चले गए।  इधर गुरु का वाक्य सुनना भर था कि शिष्य का चेहरा पीला पड़ गया। वह थरथर काँपने लगा। खड़े-खड़े उसे चक्कर आने लगा। कुछ ही मिनटों में उसने खटिया पकड़ ली। खाना-पीना छूट गया, हर क्षण उसे काल सिर पर खड़ा दिखने लगा। आठ दिन में तो वह सूख कर काँटा हो चला। यात्रा से लौटकर गुरु जी ने पूछा, ‘क्यों पुत्र, सब काम पूरे कर लिए न?’ शिष्य सुबकने लगा। आँखों में बहने के लिए जल भी नहीं बचा था। कहा, ‘गुरु जी, कैसे काम और कैसी पूर्ति? मृत्यु के भय से मैं तो अपनी सुध-बुध भी भूल गया हूँ। कुछ ही क्षण बचे हैं, काल बस अब प्राण हरण कर ही लेगा।’ गुरु जी मुस्कराए और बोले, ‘ यदि मृत्यु की पूर्व जानकारी देने की व्यवस्था हो जाए तो जगत की वही स्थिति होगी जो तुम्हारी हुई है।…और हाँ सुनो, तुमसे असत्य बोलने का प्रायश्चित करने मैं आठ दिन की साधना पर गया था। तुम्हें आज कुछ नहीं होगा। तुम्हारी और मेरी भी मृत्यु कब होगी, मैं नहीं जानता।’

काल आया भी नहीं था, उसकी काल्पनिक छवि से यह हाल हुआ। वह जब साक्षात सम्मुख होगा तब क्या स्थिति होगी? जीवन ऐसा जीओ कि काल के आगे भी स्मित रूप से जा सको, उसके आगमन का भी आनंद मना सको। जैसा पहले कहा गया-साँस लेना भर नहीं होता जीवन। शब्द है-‘श्वासोच्छवास।’ प्रकृति में कोई भी प्रक्रिया एकांगी नहीं है। लेने के साथ देना भी जुड़ा है। जीवन भर लेने में, बटोरने में लगे रहे, भिखारी बने रहे। संचय होते हुए भी देने का मन बना ही नहीं, दाता कभी बन ही नहीं सके।

जीवन सरकती बालू वाले टाइमर की तरह है। रेत गति से सरक रही है, अवधि रीत रही है। काल निकट और निकट, सन्निकट है। कोई पूछे, न पूछे, बार-बार पूछो अपने आप से- ‘क्या चल रहा है?’ अपने उत्तर आप जानो पर हरेक पर अनिवार्य रूप से लागू होनेवाला मास्टर उत्तर स्मरण रहे-काल चल रहा है।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 4 – इंद्रजीत ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “इंद्रजीत।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 4 ☆

 

☆  इंद्रजीत 

 

अब तक रावण ज्ञान की कई शाखाओं का मालिक हो गया था । वह आयुर्वेदिक चिकित्सक और औषधि विज्ञान को बहुत अच्छी तरह समझ गया था। अर्क (किसी का सार या रस) निकालने की कला, और असव, आयुर्वेद के ये दो रूप रावण ने ही विकसित किये थे । अर्क का सत्त निकलने के उद्देश्य से, रावण ने अमर वरुनी (अमर का अर्थ जिसकी कभी मृत्यु ना हो या जो कभी बूढ़ा ना हो, और वरुनी का अर्थ है तरल, इसलिए अमर वरुनी एक ऐसा तरल पदार्थ बनाने की प्रक्रिया है जिसके सेवन से मानव सदैव जवान बना रह सकता है) नामक एक यंत्र (मशीन) तैयार की थी ।

असव आयुर्वेद में असव बहुत महत्वपूर्ण खुराक है। इसमें स्वाभाविक रूप से उत्पन्न शराब शामिल है। यह शराब जड़ी बूटियों के सक्रिय अवयवों के लिए एक माध्यम के रूप में कार्य करता है। सभी असवो में 5-10% तक मद्य (अल्कोहल) होता है। हालांकि असव में मद्य होता है, किन्तु इसका सही मात्रा में उपभोग करना शरीर के लिए फायदेमंद होता है ।

रावण एक महान आर्युवेदिक चिकित्सक और वैद्य शिरोमणि (डॉक्टरों के बीच सर्वश्रेष्ठ) बन गया था। उसने बहुमूल्य पुस्तकें नाड़ी परीक्षा (पल्स-परीक्षा), कुमार तंत्र (स्त्री रोग और बाल चिकित्सा से सम्बंधित), उडिसा चिकित्सा और वतीना प्रकारणाय का विवरण भी लिखा। रावण सिंधुरम दवा का संस्थापक भी था। ये दवा घावों को तुरंत ठीक कर देती थी । रावण ने रावण संहिता नामक ज्योतिष की शाखा का आविष्कार भी किया।

रावण ने राशि चक्र के सभी ग्रहों के देवताओं को भी बंधी बना लिया था और उन्हें सूर्य के चारों ओर करने वाली अपनी वास्तविक गति को बदलने के लिए मजबूर कर दिया क्योंकि वह चाहता था कि उसका पहला बच्चा अमर (अर्थात जो कभी मरे ना) के रूप में पैदा होना चाहिए, क्योंकि अगर बच्चे के जन्म के समय राशि चक्र और उसके प्रभाव से बनायीं हुई कुंडली में सभी ग्रह 11 वें घर में हो तो बच्चा अमर रहता है ।इसलिए रावण ने सभी ग्रहों को महान गणना के बाद अपनी गति में हेरफेर करने का आदेश दिया, ताकि जब उसका पहला बच्चा पैदा हो, तो सभी ग्रह आकाश में एक ही स्थिति पर स्थिर रहे ।

परन्तु रावण के पहले बच्चे के जन्म के समय शनि ग्रह के देवता ने अन्य देवताओं की सहायता से,सूर्य के चारों और चक्कर काटने की अपनी गति बढ़ा दी। तो जब रावण के पहले बच्चे मेघनाथ का जन्म हुआ तो सभी ग्रह उसकी जन्म कुंडली में 11 वें घर में थे, शनि को छोड़कर जो 12 वें घर की ओर बढ़ गया था। इस कारण मेघनाथ जन्म से अमर तो नहीं पैदा हुआ, पर फिर भी सभी राक्षसों में सबसे शक्तिशाली था ।

मेघनाथ ‘मेघ’ का अर्थ है बादल और ‘नाथ’ का अर्थ भगवान है, इसलिए मेघनाथ का अर्थ हुआ बादलों का स्वामी । रावण ने अपने पहले बच्चे को ये नाम इस आशा से दिया था कि एक दिन वह स्वर्ग या बारिश के राजा इंद्र को पराजित करेगा और मेघनाथ या बारिश का भगवान बुलाया जायेगा। बाद में मेघनाथ ने ऐसा किया भी और इंद्र को पराजित करने के बाद इंद्रजीत का नाम भी हासिल किया। कुछ लोग रावण के बड़े बेटे का नाम मेघनाद कहते हैं। फिर से ‘मेघ’ का अर्थ है बादल और ‘नाद’ का अर्थ ध्वनि है, इसलिए मेघनाद वह है जिसकी वाणी में आसमान में गरजते बादलों की तरह ध्वनि है ।

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 11 ☆ अपने अपने खेमें ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है  डॉ मुक्ता जी की प्रस्तुति “अपने अपने खेमे ” ।उनकी यह बेबाक रचना आपको साहित्य जगत के कई पक्षों से रूबरू कराती है। साथ ही आपके समक्ष साहित्य जगत के सकारात्मक पक्ष को भी उजागर करती है जो किसी भी पीढ़ी के साहित्यकार को सकारात्मक रूप से साहित्य सेवा करते रहने के लिए प्रेरित करती है। ऐसे निष्पक्ष आलेख के लिए डॉ मुक्ता जी का अभिनंदन एवं आभार।) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 11 ☆

 

☆ अपने अपने खेमे ☆

 

चार-पाँच वर्ष पहले एक आलेख पढ़ा था, अपने- अपने खेमों के बारे में… जिसे पढ़कर मैं अचंभित- अवाक् रह गई कि साहित्य भी अब राजनीति से अछूता नहीं रहा। यह रोग सुरसा के मुख की भांति दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है… थमने का नाम ही नहीं लेता। लगता है यह सुनामी की भांति सब कुछ निगल जाएगा। हाँ! दीमक की भांति इसने साहित्य की जड़े तो खोखली कर दी हैं, रही-सही कसर व्हाट्स ऐप व फेसबुक आदि ने पूरी कर दी है। हाँ! मीडिया का भी इसमें कम योगदान नहीं है। वह तो चौथा स्तंभ है न, अलौकिक शक्ति से भरपूर, जो पल भर में किसी को अर्श से फर्श पर लाकर पटक सकता है और फर्श से आकाश पर पहुँचा सकता है.. जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण आप सबके समक्ष है।

हाँ! चलो, हम बात करते हैं — देश की एक प्रसिद्ध पत्रिका की, जिसमें साहित्य के विभिन्न खेमों का परिचय दिया गया था…विशेष रूप से चार खेमों के ख्याति-प्राप्त, दबंग संचालकों के आचार व्यवहार, दबदबे व कारस्तानियों को भी उजागर किया गया था, जिसका सार था ‘आपको किसी न किसी खेमे के तथाकथित गुरू की शरणागति अवश्य स्वीकारनी होगी, अन्यथा आपका लेखन कितना भी अच्छा, सुंदर, सटीक, सार्थक, मनोरंजक व समाजोपयोगी हो, आपको मान्यता कदापि नहीं प्राप्त हो सकेगी। इतना ही नहीं, उसका यथोचित मूल्यांकन भी सर्वथा असम्भव है।

इसके लिये आवश्यकता है… साष्टांग दण्डवत् प्रणाम व नतमस्तक होने की, सम्पूर्ण समर्पण की..तन-मन-धन से उनकी सेवा करने की तत्परता दिखलाने की, यह इसमें प्रमुख भूमिका का निर्वहन करती है। दूसरे शब्दों में यह है, सामाजिक मान्यता प्राप्त करने की, सफलता पाने की एकमात्र कुंजी..आप सब इस तथ्य से तो अवगत हैं कि ‘जैसा बोओगे,वैसा काटोगे’ अर्थात् उनकी करुणा, कृपा व निकटता पाने के लिए आपको संबंधों की गरिमा को त्याग, मर्यादा को दरक़िनार कर, आत्म-सम्मान को दाँव पर लगाना होगा, तभी आप उनके कृपा-पात्र बनने में सक्षम हो पायेंगे। इस उपलब्धि के पश्चात् एक पुस्तक के प्रकाशित होने पर भी आप विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित हो सकते हैं क्योंकि इस संदर्भ में पुस्तक-प्रकाशन की अहम् भूमिका नहीं होती। आपको प्रिंट मीडिया में अच्छी कवरेज मिलेगी तथा विभिन्न काव्य गोष्ठियों व विचार गोष्ठियों में आपको सुना व सराहा जाएगा। आपकी चर्चा समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में ही नहीं होगी, टी•वी•और दूरदर्शन भी आप की राह में पलक-पांवड़े बिछाए प्रतीक्षारत रहेंगे। देश-प्रदेश में आपका गुणगान होगा।

इतना ही नहीं, आप पर एम•फिल• व पीएच•डी• करने वालों की लाइन लगी रहेगी। देश के सर्वोच्च सम्मान आपकी झोली में स्वत: आन पड़ेंगे। हाँ! आपको पी•एच•डी• ही नहीं, डी•लिट• तक की मानद उपाधि प्रदान कर विश्वविद्यालय स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करेंगे। आपकी कृति पर टेलीफिल्म आदि बनना तो सामान्य-सी बात है, बड़े-बड़े संस्थानों के संयोजक व सरकारी नुमाइंदे आप पर संगोष्ठियां करवा कर, स्वयं को धन्य समझेंगे। आश्चर्य की बात यह है कि वे लोग अपने आला साहित्यकारों को प्रसन्न करने का एक भी अवसर हाथ से नहीं जाने देते।

इन विषम परिस्थितियों में आप भी मंचासीन होकर विद्वत्तजनों को धूल चटा कर, सातवें आसमान पर होते हैं और फूले नहीं समाते। आप सिद्ध कर देते हैं कि प्रतिभा साम, दाम,  दंड, भेद के सामने पानी भरती है, उनकी दासी है। बस! दरक़ार है…आत्मसम्मान को खूँटी पर टाँग, दूसरों के बारे में कसीदे गढ़ने की, अपने अहं को मार, ज़िंदा दफ़न करने की, उनकी अंगुलियों पर कठपुतली की भांति नाचने की, उनके संकेत-मात्र पर उनकी इच्छानुसार कुछ भी कर गुज़रने की, उनके कदमों में बिछ जाने की, उनके हर आदेश को शिरोधार्य करने की….यदि आप इनमें से चंद योग्यताएं भी रखते हैं, तो आप रातों-रात महान् बन जाते हैं और आप की तूती दसों दिशाओं में मूर्धन्य स्वर में गूँजने लगती है।

अपने-अपने खेमों के संयोजक, संचालक व सूत्रधार आप से वफ़ादारी की अपेक्षा रखते हैं और उनके शिष्य एक-दूसरे पर नज़र भी रखते हैं कि अमुक प्राणी कहीं, किसी दूसरे खेमें के बाशिंदों से मिलता तो नहीं? वह कहाँ जाता है, क्या करता है, उनके प्रति वफ़ादार है या नहीं?

यह समाज का कटु यथार्थ है कि हर बेईमान व्यक्ति वफ़ादार सेवक चाहता है, जो दिन-रात उसके आस-पास मंडराता रहे, उसकी चरण-वंदना करे, उसकी कीर्ति व यश को दसों दिशाओं में प्रसारित करे। जैसे मलय वायु का झोंका समस्त दूषित वातावरण को आंदोलित कर सुवासित कर देता है।

विभिन्न कार्यक्रमों में भीड़ जुटाना, वाहवाही करना, वन्स मोर के नारे लगाना….यह तो उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन जाता है। इतना ही नहीं उसके घर का पूरा दारोमदार, तथाकथित शिष्य-अनुयायी के कंधों पर रहता है। पत्नी से लेकर बच्चों की हर इच्छा को तरज़ीह देना, पत्नी से लेकर बच्चों को पिकनिक पर ले जाना, उस घर का पूरा साज़ो-सामान जुटाना, उन्हें सिनेमा दिखलाना आदि उनका नैतिक दायित्व समझा जाता है। यदि वह बाशिंदा बिना परिश्रम के, पूर्ण निष्ठा से वह सब पा लेता है, तो उसे आकाश की बुलंदियां छूने से कोई नहीं रोक सकता।

चलिए! इन ख़ेमों की कारगुज़ारियों से तो आप अवगत हो ही गए हैं, अब पुरस्कारों के बारे में विवेचन-विश्लेषण कर लेते हैं। बहुत से बड़े-बड़े प्रतिष्ठान व सरकारी संस्थानों में तो फिफ्टी-फिफ्टी की परंपरा लंबे समय से चली आ रही है। यदि आप इस समझौते के लिए तैयार हैं, तो सम्मान आपके आँचल में आश्रय पाने को बेक़रार मिलेगा।

वैसे भी इसका एक और उम्दा विकल्प है…आप नई संस्था बनाइए, हज़ारों साहित्यकार मधुमक्खियों की भांति आसपास मंडराने लगेंगे। रजिस्ट्रेशन के नाम पर संस्थापक बंधु आजकल सम्मान-राशि व आयोजन के खर्च से भी कहीं अधिक बटोर लेते हैं। आजकल उनका यह गोरख-धंधा पूरे यौवन पर है…फल-फूल रहा है। संस्थापक होने के नाते वे हर कार्यक्रम में केवल आमंत्रित ही नहीं किये जाते, मंचासीन भी रहते हैं। बड़े-बड़े साहित्यकार अनुनय-विनय कर प्रार्थना करते देखे जाते हैं कि वे अपनी संस्था के बैनर तले, उनकी पुस्तक का विमोचन करवा दें या उन्हें किसी संगोष्ठी में भावाभिव्यक्ति का अवसर प्रदान करें। चलिए यह भी आधुनिक ढंग है… साहित्य-सेवा का।

मुझे इस तथ्य को उजागर करने में तनिक भी संकोच नहीं है कि आज भी राष्ट्रीय सम्मान इससे अछूते हैं, जिनमें राष्ट्रपति सम्मान शीर्ष स्थान पर हैं। वास्तव में यह आपकी साहित्य-साधना, कर्मशीलता व विद्वत्ता का वास्तविक मूल्यांकन है। यह अँधेरी रात में घने काले बादलों में, बिजली की कौंध की मानिंद है। जब आपको सहसा यह सूचना मिलती है, तो आप चौंक जाते हैं… विश्वास नहीं कर पाते और कह उठते हैं, ऐसा कैसे संभव है? और इसे क़ुदरत का करिश्मा बतलाते हैं।

आजकल अक्सर सम्मानों के लिए आवेदन करना होता है। हाँ! राज्य-स्तरीय व राष्ट्रीय पुरस्कारों के अंतर्गत कई बार किसी संस्था का अध्यक्ष या शीर्ष कोटि का साहित्यकार आपके नाम की संस्तुति कर देता है, जिससे आप बेखबर होते हैं…वास्तव में यह पुरस्कार आपके जीवन की सच्ची धरोहर के रूप में सुक़ून देते हैं।

हां! इसके एक पक्ष पर प्रकाश डालना अभी भी शेष है कि इन सम्मानों की चयन-प्रक्रिया में अफसरशाही या राजनीति या कोई योगदान है या नहीं?

मैं अपने अनुभव से नि:संकोच कह सकती हूं कि यदि आप निष्काम भाव से, तल्लीनता-पूर्वक, पूर्ण समर्पण भाव से अपने दायित्व का वहन करते हैं तो आप स्वतंत्र होते हैं, हर निर्णय स्वेच्छा से ले सकते हैं और निरंकुश होकर अपना कार्य कर सकते हैं। हां! इसके लिये अपेक्षा रहती है… प्रबल इच्छाशक्ति की, सकारात्मक सोच की, पूर्ण समर्पण की, कर्तव्यनिष्ठता की। यदि आप निस्वार्थ व निष्काम कर्म करने का माद्दा रखते हैं, तो आप हर विषम परिस्थिति का सामना करने में सक्षम हैं। आपको कोई भी कर्तव्य-पथ से विचलित नहीं कर सकता, यदि आप स्वार्थ का त्याग कर, संघर्षशील बने रहते हैं तो आपको उसका अप्रत्याशित फल अवश्य प्राप्त होगा क्योंकि परिश्रम कभी व्यर्थ नहीं जाता। हाँ आवश्यकता है…यदि हमारे कदम धरती पर और नज़रें आकाश की ओर स्थिर रहती हैं और हम अपनों से, अपनी जड़ों से सदैव जुड़े  रहते हैं, तो हम हर प्रकार की आबोहवा में पनप सकेंगे…हमें अपने लक्ष्य से कोई डिगा नहीं सकता। विपरीत हवाएं व आंधी-तूफ़ान भी हमारा रास्ता नहीं रोक पाएंगे और न ही खेमों के मालिक हमें नतमस्तक होने को विवश कर पाएंगे।

समय के साथ परिवर्तित होती है सत्ता, बदलते हैं अहसास व जज़्बात और कायम रहता है विश्वास,तो आप निरंतर उन्नति के पथ पर अग्रसर होते रहते हैं क्योंकि आत्मविश्वास संतोष व संतुष्टि का संवाहक होता है और इसकी रीढ़ व धुरी होता है। इसके साथ ही मैं अपनी लेखनी को विराम देती हूँ …इसी आशा के साथ कि हमारे साहस, उत्साह, धैर्य व आत्म- विश्वास के सम्मुख विसंगतियां व विषम परिस्थितियां स्वतः ध्वस्त हो जाएंगी, अस्तित्वहीन हो जायेंगी और सब को विकास के समान अवसर प्राप्त होंगे।

इसी आशा और विश्वास के साथ…उज्ज्वल भविष्य का स्वप्न संजोए…

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – अभिनेता ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ संजय दृष्टि  – अभिनेता

सुबह जल्दी घर से निकला था वह। ऑफिस के एक दक्षिण भारतीय सहकर्मी की शादी थी। दक्षिण भारत में ब्रह्म मुहूर्त में विवाह की परंपरा है। इतनी सुबह तो पहुँचना संभव नहीं था। दस बजे के लगभग पहुँचा। ऑफिस के सारे दोस्त मौज़ूद थे। जमकर थिरका वह।

समारोह में भोजन के बाद मल्टीस्पेशलिटी अस्पताल पहुँचा। पड़ोस के सिन्हा जी की पत्नी आई सी यू में हैं। किसी असाध्य रोग से जूझ रही हैं। वह अपनी चिंता जताता रहा जबकि उसे बीमारी का नाम भी समझ में नहीं आया था। आधा किलो सेब ले गया था। सेब का थैला पकड़ाकर इधर उधर की बातें की। दवा नियमित लेने और ध्यान रखने की रटी-रटाई बिनमांगी सलाह देकर वहाँ से निकला।

घर लौटने की इच्छा थी पर सुबह अख़बार में अपने दूर के रिश्तेदार के तीये की बैठक की ख़बर पढ़ चुका था। आधा घंटा बाकी था। सीधे बैठक के लिए निकला। ग़मगीन, लटकाया चेहरा बनाये आधा घंटा बैठा वहाँ।

मुख्य सड़क से घर की ओर मुड़ा ही था कि हरीश मिल गया। पिछली कंपनी में दोनों ने चार साल साथ काम किया था। ख़ूब हँसी-मज़ाक हुआ। खाना साथ में खाया।

रात ग्यारह बजे घर आकर सोफा पर पसर गया। टेबल पर क्षेत्रीय सांस्कृतिक विभाग का पत्र पड़ा था। खोलकर देखा तो लिखा था, ‘बधाई। गत माह क्षेत्रीय सांस्कृतिक विभाग द्वारा आयोजित एकल अभिनय प्रतियोगिता के आप विजेता रहे। आपको सर्वश्रेष्ठ अभिनेता घोषित किया जाता है।’

वह मुस्करा दिया।

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे

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हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि  –  कल्पनालोक – धरती का स्वर्ग ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ संजय दृष्टि  –  कल्पनालोक – धरती का स्वर्ग

……हिंदी की बात छोड़ दीजिए। कल्पनालोक से बाहर आइए। हिंदी कभी पढ़ाई-लिखाई, एडमिनिस्ट्रेशन, डिप्लोमेसी की भाषा नहीं हो सकती। हिंदी एंड इंग्लिश का अभी जो स्टेटस है, वही परमानेंट है…।

 

उसकी बात सुनकर मेरी आँखों में चमक आ गई। यह वही शख्स है जिसने कहा था,…जम्मू एंड कश्मीर की बात छोड़ दीजिए। जे एंड के का अभी जो स्टेटस है, वही परमानेंट है…।

 

देश उम्मीद से है।

आपका दिन उम्मीद से भरा हो। शुभ प्रभात।

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©  संजय भारद्वाज , हिन्दी आंदोलन, पुणे

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( 5 अगस्त 2019 को सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन विधेयक प्रस्तुत किये जाने से एक दिन पहले, 4 अगस्त को प्रातः 5:20 पर जन्मी रचना।)

 

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हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – जीवन की सवारी ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ संजय दृष्टि  – जीवन की सवारी 

भयमिश्रित एक चुटकुला सुनाता हूँ। अँधेरा हो चुका था। राह भटके किसी पथिक ने श्मशान की दीवार पर बैठे व्यक्ति से पूछा,’ फलां गाँव के लिए रास्ता किस ओर से जाता है?’ उस व्यक्ति ने कहा, ‘मुझे क्या पता? मुझे तो गुजरे 200 साल बीत चुके।’

पथिक पर क्या बीती होगी, यह तो वही जाने। अलबत्ता यह घटनाक्रम किसी को डरा सकता है, चुटकुला है सो हँसा भी सकता है पर महत्वपूर्ण है कि डरने और हँसने से आगे चिंतन की भूमि भी खड़ी कर सकता है। चिंतन इस बात पर कि जो जीवन तुम बिता रहे हो, वह जीना है या गुजरना है?

अधिकांश लोग अपनी जीवनशैली, अपनी दैनिकता से खुश नहीं होते। वे परिवर्तन जानते हैं पर परिवर्तित नहीं होते। पशु जानता नहीं सो करता नहीं। मनुष्य जानता है पर करता नहीं।

”आपकी रुचि कौनसे क्षेत्र में हैं?”…”मैं नृत्य करती थी। नृत्य मेरा जीवन था पर ससुराल में इसे हेय दृष्टि से देखा जाता था, तो….”,  “शादी से पहले मैं पत्र-पत्रिकाओं में लिखती थी। पति को यह पसंद नहीं था सो….”, “मैं तो स्पोर्ट्स के लिए बना था पर….”, “घुमक्कड़ी बहुत पसंद है। अब व्यापार में हूँ। बंध गया हूँ….।”

टू व्हीलर पर जब सवारी करते हैं तो अलग ही आनंद आता है। कई बार लगता है मानो हवा में उड़ रहे हैं। यही टू व्हीलर रास्ते में  पंक्चर जाये और ढोकर लाना पड़े तो बोझ लगता है।

जीवन ऐसा ही है। जीवन की सवारी कर हवा में उड़ोगे तो आसमान भी पथ पर  उतर आया अनुभव होगा। जीवन को ढोने की आदत डाल लोगे तो ढोना और रोना, दोनों समानार्थी लगने लगेंगे।

मनोविज्ञान एक प्रयोग है। हाथी के पैर में चार रोज नियमित रूप से रात को बेड़ी डालो, सुबह खोल दो। पाँचवें दिन बेड़ी डालने का ढोंग भर करो। हाथी रोज की तरह खुद को बेड़ी में बंधा हुआ अनुभव करेगा। आदमी बेड़ी के इसी ढोंग का शिकार है।

आमूल परिवर्तन का अवसर हरेक को नहीं मिलता। जहाँ है वहाँ उन स्थितियों को अपने अनुकूल करने का अवसर सबको मिलता है। उस अवसर का बोध और सदुपयोग तुम्हारे हाथ में है।

सुख यदि धन से मिलता तो मूसलाधार बरसात में भागते-दौड़ते, उछलते-कूदते, नहाते, झोपड़ियों में रहने वाले नंगधड़ंग बच्चों के चेहरे पर आनंद नहीं नाचता और कार में बंद शीशों में बैठा बच्चा उदास नहीं दिखता।

शीशा नीचे कर बारिश का आनंद लेने का बटन तुम्हारे ही हाथ में है। विचार करो, जी रहे हो या गुजार रहे हो? बचे समय में कुछ कर गुजरोगे या यूँ ही गुजर जाओगे?

 

समय रहते कुछ कर गुजरो। वह समय आज ही है। शुभ आज।

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©  संजय भारद्वाज , पुणे

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हिन्दी साहित्य- आलेख – ☆ मित्र और मित्रता ☆ – श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

मैत्री दिवस विशेष 

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी का e-abhivyakti में हार्दिक स्वागत है । आप  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है।आज प्रस्तुत है मैत्री दिवस पर आपका विशेष आलेख “मित्र और मित्रता”। 

हम भले ही  मित्रता दिवस वर्ष में एक ही दिन मनाते और मित्रों का स्मरण करते हैं।  किन्तु, मित्रता सारे वर्ष निभाते हैं। अतः  मित्रता दिवस पर प्राप्त आलेखों एवं कविताओं का प्रकाशन सतत जारी है। कृपया पढ़ें, अपनी प्रतिक्रियाएँ दें तथा उन्हें आत्मसात करें।) 

संक्षिप्त परिचय 

शिक्षा : हिंदी साहित्य में एम ए प्रथम, (मेरिट) बी एड और पीएचडी

सम्मान एवं सेवाएँ :

  • महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशन सम्मान से सम्मानित
  • महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्व विद्यालय में त्रिदिवसीय संगोष्ठी में आमंत्रित और शोध पत्र वाचन
  • ”हीर कणी” पुरस्कार से सम्मानित
  • इंडियन एयर फोर्स में एजुकेशन इंस्ट्रक्टर के तौर पर सेवाएँ प्रदत्त
  • गृह पत्रिका” किरण ” की 25 वर्ष संपादक रहीं। इस दौरान पत्रिका को और संस्थापक संपादक के रूप में स्वयं को रक्षा मंत्रालय और गृह मंत्रालय के अनेक पुरस्कार से सम्मानित।
  • अति उत्कृष्टता एवं निष्ठा हेतु एयर ऑफिसर कमांडिंग इन चीफ के एओसी-इन-सी कमान- कमेंडेशन से सम्मानित।
  • विदर्भ हिंदी साहित्य सम्मेलन की तीन दशकों से माननीय प्रतिनिधि  एवं सामाजिक साहित्यिक संस्थाओं की सम्मानित पदाधिकारी
  • शिक्षा संस्थानों तथा प्रतिष्ठित सरकारी गैर सरकारी संगठनों में अतिथि वक्ता, अध्यक्ष निर्णायक के रूप में सतत आमंत्रित।
  • पांच दिवसीय बहुभाषी विदर्भ नाट्य समारोह में सम्मानित निर्णायक
  • मेडिकल विषयों से संबंधित तीन डाक्टरों की पुस्तकों का अनुवाद,
  • नागपुर के प्रतिष्ठित डाक्टरों की एन जी ओ एडोल्सेंट चैप्टर की सम्मानित कार्यकर्ता और पुरस्कारों से सम्मानित।
  • इंडियाज हूज हू हेतु नामित रह चुकी।
  • आरंभ से सेवानिवृत्त तक लगभग 30 वर्षों तक महिला आयोग की अध्यक्ष रही।
  • एयरफोर्स वाईव्ज वेलफेयर एसोसिएशन के कार्यक्रमों में २५ वर्ष तक अनवरत सहयोगी
  • अखिल भारतीय अग्नि शिखा मंच की नागपुर ईकाई की अध्यक्ष
  • ”रचना ” की उपाध्यक्ष

☆ मित्र और मित्रता ☆

 

मित्र और मित्रता देखने दिखाने की नहीं, महसूस करने की चीज है।जब तक ब्रम्हांड में हर शै एक दूसरे की मित्र हैं तभी तक यह पृथ्वी और इसके निवासी सुरक्षित हैं। क्षिति जल पावक गगन समीरा – – – इनका संतुलन ही पर्यावरणीय मित्रता  की द्योतक है। “जियो और जीने दो “इस मित्रता की प्रथम शर्त है तो दूसरी ओर survival of the fittest भी अत्यावश्यक है। यह विरोधाभास ही ब्रम्हांड का क्षितिजीय सत्य है। तो चलिए मित्रता-दिवस के व्यापक अर्थों में घुसपैठ करें और ब्रम्हांड की समस्त विधाओं में पर्यावरणीय मित्रता की हिमायत करते हुए इस मित्रता दिवस को वैश्विक मित्रता से जोड़ें।

आसपास का वातावरण शुभ होगा तो दिलों में शुभता अपने आप उद्भासित होगी और मानवीय मित्रता में भी शुभता का आविर्भाव होगा। अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति न होने से ही जंगल राज का प्रादुर्भाव होता है। मित्रता अनाम शै बन जाती है।

ना कृष्ण सुदामा की मैत्री आदर्श है ना दुर्योधन कर्ण की–मैत्री के मानदंड परिवर्तनशील होते हैं और होने भी चाहिए। घोड़ा घास से यारी करेगा तो खाएगा क्या? ब्रम्ह सत्य है– मगर यहां मित्रता अपेक्षित ही कब है! मित्रता की परिभाषा में आपका किसी के प्रति अतिरिक्त स्नेह भाव शामिल है जो दिल से होता है। सामान्य मानवीय प्रवृत्ति है कि कभी-कभी कोई व्यक्ति अनायास आपके दिल के द्वार पर दस्तक देता है एकाएक आपको अच्छा लगने लगता है और कोई बरसों तक निकटता के बावज़ूद भी दिल के करीब नहीं हो पाता—- इसका अर्थ यह नहीं कि वह आपका शुभेच्छु नहीं है शायद वह आपका सबसे बड़ा शुभचिंतक होगा लेकिन दिल बड़ा निर्णायक होता है मित्रता के चयन के मामले में।

मैया को अपना काला कलूटा बदसूरत बेटा भी कनुआ कन्हैया लगता है – – कुछ ऐसा ही अदृश्य अपनापन अनिवार्य होता है  सच्ची मित्रता के संगोपन के लिए। कहावतें पुरानी हुई  – – “The friend in need is a friend indeed”। आजकल ” in need और indeed” की परिभाषाएं बदल गई हैं। आपके अर्थतंत्र के हिसाब से अर्थों के अर्थ निर्धारित किए जाते हैं। कहा जाता था धीरज धर्म मित्र अरु नारी आपतकाल परखिए चारी ” लेकिन ये मानदंड भी बदल गये हैं। छलछंदी आपतकाल भी वे ही मित्र ले आते हैं जो आपके साथ खडे़ होने का दावा करते हैं।

खैर जिंदगी चल रही थी चल रही है चलती रहेगी हमेशा। बात से बात चल कर बात बनती ही रहेगी फिर हम क्यों  कुछ सोचने पर मजबूर करें अपने आप पर कि काजीजी दुबले क्यों, तो शहर के अंदेशे से चलिए निकल लेते हैं एक हाईकु की पतली गली से – – अर्ज किया है

 

मित्र दिवस

स्वप्न जीवी सच

धूप पावस।।

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” ✍

नागपुर, महाराष्ट्र

4 अगस्त 2019

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हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – ईडन ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – ईडन

 

…..उस रास्ते मत जाना, आदम को निर्देश मिला। आदम उस रास्ते गया। एक नया रास्ता खुला।

 

….पानी में खुद को कभी मत निहारना। हव्वा ने निहारा। खुद के होने का अहसास जगा।

 

….खूँख़ार जानवरों का इलाका है। वहाँ कभी मत घुसना।….आदम इलाके में घुसा, जानवरों से उलझा। उसे अपना बाहुबल समझ में आया।

 

…..आग से हमेशा दूर रहना, हव्वा को बताया गया। हव्वा ने आग को छूकर देखा। तपिश का अहसास हाथ और मन पर उभर आया।

 

….उस पेड़ का फल मत खाना। आदम और हव्वा ने फल खाया। ईडन धरती पर उतर आया।

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे

9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #11 – वैश्विक पहुंच का साधन ब्लाग ☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज  ग्यारहवीं कड़ी में प्रस्तुत है “वैश्विक पहुंच का साधन ब्लाग”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 11 ☆

 

☆ वैश्विक पहुंच का साधन ब्लाग ☆

किसी भी सामाजिक बदलाव के लिये सर्वाधिक महत्व विचारों का ही होता है, और आज ब्लाग वैश्विक पहुंच के साथ वैचारिक अभिव्यक्ति का सहज, सस्ते, सर्वसुलभ साधन बन चुके हैं. विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका के तीन संवैधानिक स्तंभो के बाद पत्रकारिता को लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में मान्यता दी गई है. आम आदमी की ब्लाग तक पहुंच और उसकी त्वरित स्व-संपादित प्रसारण क्षमता के चलते ब्लाग जगत को लोकतंत्र के पांचवे स्तंभ के रूप में देखा जा रहा है.

हाल ही अन्ना हजारे के द्वारा भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक सफल जन आंदोलन बिना बंद, तोड़फोड़ या आगजनी के चलाया गया, और उसे मिले जन समर्थन के कारण सरकार को विवश होकर उनके सम्मुख झुकना पड़ा. उल्लेखनीय है कि इस आंदोलन में विशेष रुप से नई पीढ़ी ने इंटरनेट, मोबाइल एस एम एस, यहां तक कि मिस्डकाल के द्वारा भी तथा ब्लाग लेखन के द्वारा ही अपना महत्वपूर्ण समर्थन दिया.

युवाओ में बढ़ी कम्प्यूटर साक्षरता से उनके द्वारा देखे जा रहे ब्लाग के विषय युवा केंद्रित अधिक हैं.विज्ञापन, क्रय विक्रय, शैक्षिक विषयो के ब्लाग के साथ साथ  स्वाभाविक रूप से जो मुक्ताकाश ब्लाग ने सुलभ करवाया है, उससे सैक्स की वर्जना, सीमा मुक्त हो चली है. पिछले दिनो वैलेंटाइन डे के पक्ष विपक्ष में लिखे गये ब्लाग अखबारो की चर्चा में रहे.प्रिंट मीडिया में चर्चित ब्लाग के विजिटर तेजी से बढ़ते हैं, और अखबार के पन्नो में ब्लाग तभी चर्चा में आता है जब उसमें कुछ विवादास्पद, कुछ चटपटी, बातें होती हैं, इस कारण अनेक ब्लाग हिट्स बटोरने के लिये गंभीर चिंतन से परे दिशाहीन होते भी दिखते हैं. भारतीय समाज में स्थाई परिवर्तन में हिंदी भाषा के ब्लाग बड़ी भूमिका निभाने की स्थिति में हैं,क्योकि ज्यादातर हिंदी ब्लाग कवियों, लेखको, विचारको के सामूहिक या व्यक्तिगत ब्लाग हैं जो धारावाहिक किताब की तरह नित नयी वैचारिक सामग्री पाठको तक पहुंचा रहे हैं. पाडकास्टिंग तकनीक के जरिये आवाज एवं वीडियो के ब्लाग, मोबाइल के जरिये ब्लाग पर चित्र व वीडियो क्लिप अपलोड करने की नवीनतम तकनीको के प्रयोग तथा मोबाइल पर ही इंटरनेट के माध्यम से ब्लाग तक पहुंच पाने की क्षमता उपलब्ध हो जाने से ब्लाग और भी लोकप्रिय हो रहे हैं.

ब्लाग के महत्व को समझते हुये ही बी बी सी, वेबदुनिया, स्क्रेचमाईसोल, रेडियो जर्मनी, या देश के विभिन्न अखबारो तथा न्यूज चैनल्स ने भी अपनी वेबसाइट्स पर पाठको के ब्लाग के पन्ने बना रखे हैं. ब्लागर्स पार्क दुनिया की पहली ब्लागजीन के रूप में नियमित रूप से प्रकाशित हो रही है जो ब्लाग पर प्रकाशित सामग्री को पत्रिका के रूप में संजोकर प्रस्तुत करने का अनोखा कार्य कर रही है.यह सही है कि अभी ब्लाग आंदोलन नया है, पर जैसे जैसे नई कम्प्यूटर साक्षर पीढ़ी बड़ी होगी, इंटरनेट और सस्ता होगा तथा आम लोगो तक इसकी पहुंच बढ़ेगी ब्लाग मीडिया और भी ज्यादा सशक्त होता जायेगा, एवं ब्लाग भविष्य में सामाजिक क्रांति का सूत्रधार बनेगा.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

 

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