(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना पत्थर की बात।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 11 – पत्थर की बात☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
वह बेल्ट, लात-घूंसों से पीटा गया था। रोता-चिल्लाता धड़ाम से फर्श पर ऐसा गिरा कि उसकी चोटों से शर्मिंदा होकर हाइड्रोजन अणु ऑक्सीजन के परमाणु से मिलकर अश्रुजल बनने से मना कर रहा था। आदमी जब कुछ नहीं कर सकता, रो तो सकता है। अब वह रो भी नहीं सकता। पता चला है कि रोने का पेटेंद किसी ने अपने नाम से सुरक्षित करवा लिया है। आजकल वह इसका इस्तेमाल केवल जनता को भावनात्मक ढंग से बेवकूफ बनाकर वोट बटोरने के लिए कर रहा है।
‘सर जी हमने इसको पीटने को तो पीट दिया लेकिन इसकी पहचान करना भूल गए!’ अट्ठावन इंच की तोंदवाला कांस्टेबल बोला।
इसे पहचानने की क्या जरूरत। पत्थरबाजों की भीड़ में यह भी था। पत्थरबाजों का एक ही मजबह होता है और वह है….
लेकिन इसके हाथ में पत्थर तो नहीं था…फिर
इंस्पेक्टर ने कांस्टेबल की बात को बीच में ही काटते हुए – नहीं था का क्या मतलब। उसने मारा होगा…हम खुशकिस्मत वाले थे कि हमें नहीं लगा। समझे। फिर भी एक बार इसकी अच्छे से तलाशी लो। हो सकता है कि इसका कोई कनेक्शन आतंकवादी संगठन से निकल आए। न भी निकले तो अपने किसी छोटे-मोटे केस में इसी को मुख्य अपराधी बताकर केस सॉल्व कर लो। जब हमने इसको इतना पीटा है तो पूरा लाभ उठाने में ही समझदारी है।
उसके पर्स से आधार मिला!!
माँ की दवाइयों की पर्ची!! गोद में उठाए बिटिया की तस्वीर!!
कई परतों में फोल्ड एक ऐसा पत्र जिसमें उसे नौकरी से हटा देने की सूचना और बाकी का हिसाब-किताब था!!
‘सर आधार में इसका नाम रामलाल है और पता वहीं का है जहाँ पत्थरबाजी हुई थी!’ कांस्टेबल ने घबराते हुए कहा।
‘रामलाल! यह कैसे हो सकता है? वह तो पत्थरबाजों के साथ था।’
‘लेकिन सर उसका मकान भी तो वही था! अब क्या करें सर यह तो बड़ी मिस्टेक हो गई।’ कांस्टेबल ने माथे पर हाथ फेरते हुए कहा।
‘लगता है तुम सठिया गए हो। इतना घबराने की जरूरत नहीं। इस पेशे में रहने वाला सही को गलत और गलत को सही बनाने में एक्सपर्ट होना चाहिए। और तुम हो कि बेवकूफों जैसी बात करते हो। बाहर पत्थरबाजी के सबूत पड़े हुए हैं। वहीं उसे सुला देते हैं। तब किसी को संदेह नहीं होगा। जल्दी-जल्दी करो हमें और भी कई काम हैं..आज हमारी बिटिया को शॉपिंग पर ले जाने का वादा किया है। देर हुई तो वह रूठ जाएगी। फिर पहाड़ सिर पर उठा लेगी। समझे।‘’ पैर पर पैर धरे इंस्पेक्टर ने सिगरेट का कश खींचते हुए कहा।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक कविता – बेटी बचाती हैं देश।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “निन्यानवे का फेर…“।)
अभी अभी # 402 ⇒ निन्यानवे का फेर … श्री प्रदीप शर्मा
जिस तरह एक और एक ग्यारह होते हैं, दो नौ मिलकर निन्यानवे होते हैं। इकाई की सबसे बड़ी संख्या अगर ९ है, तो दहाई की ९९ . किशोर उम्र को अंग्रेजी में teen age कहा जाता है, जो तेरह से उन्नीस बरस की होती है। क्रिकेट के बल्लेबाज की भी एक स्थिति होती है, जिसे नर्वस नाइंटीज कहते है। चौके छक्के लगाकर नब्बे तक तो शान से पहुंच गए, इक्यानवे से शुरू होकर यह निन्यानवे पर ही खत्म होती है। कई अच्छे अच्छे बल्लेबाज इस संख्या के बीच अपनी विकेट गंवा बैठते हैं, कुछ तो निन्यानवे के फेर में केवल एक रन से शतक चूक जाते हैं। वीर और शतकवीर के बीच केवल एक रन की ही तो दूरी रहती है।
यह निन्यानवे का फेर भी अजीब है। हम तो खैर अपने समय में इतने प्रतिभाशाली छात्र थे, कि आय नेवर स्टुड सेकंड। हमने हमेशा गांधी डिविजन से ही काम चलाया। लेकिन एक आज की पीढ़ी है, डिविजन से नहीं परसेंटेज से चलती है और वह भी ९०-९५ प्रतिशत से इनका काम नहीं चलता। प्रतिस्पर्धा की दौड़ ही ९९ प्रतिशत से शुरू होती है। ९९.१ से ९९.९ तक प्रतिस्पर्धा ही प्रतिस्पर्धा।
यहां निन्यानवे के फेर में कोई नहीं, शत प्रतिशत में उनका विश्वास होता है। वाकई यह नालंदा की पीढ़ी है, इसमें कोई शक नहीं। ।
बड़ा अजीब है यह अंक ९९, जब अथ श्री महाभारत कथा में योगेश्वर श्री कृष्ण शिशुपाल को निन्यानवे गालियों तक अभयदान का आश्वासन देते हैं, लेकिन जब शिशुपाल यह ९९ की लक्ष्मण रेखा भी पार कर जाता है, तो शिशुपाल का खेल खत्म हो जाता है।
राजनीति में भी एक मुक्त और विलुप्त होने के कगार पर खड़ी पार्टी जब इस बार के लोकसभा चुनाव में ९९ सीट ले आती है, तो हमारे जैसा आम व्यक्ति अनायास ही ध्यानस्थ हो जाता है। क्या ध्यान से सांसारिक अथवा राजनीतिक लाभ उठाया जा सकता है। उधर एक ईश्वर का अवतार चुनाव के बीचोबीच ४५ घंटे का ध्यान करता है, और इधर उसकी घोर विरोधी पार्टी की सीट ५५ से ९९ हो जाती है। अजीब चमत्कार है ध्यान का। ध्यान कोई करे और लाभ किसी और को ही मिले। ।
आजकल सभी निन्यानवे के फेर में लगे हैं। योग से रोग भगाया जा रहा है और पैसा कमाया जा रहा है। ईश्वर से जोड़ने वाले योग को भी टुकड़ों टुकड़ों में बांट दिया है। यम नियम को ठंडे बस्ते में डाल दिया है और काक चेष्टा बको ध्यानं, के मंत्र को व्यवहार में लाते हुए, मोटिवेशनल स्पीच और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के सहारे सफलता के सोपान तय किए जा रहे हैं।
मैं भी आजकल निन्यानवे के फेर में हूं। संगीत सुनने और धारणा ध्यान में व्यर्थ समय ना गंवाते हुए संगीत और योग से बीमारियां कैसे दूर हों, इस पर पर अपना ध्यान केंद्रित कर रहा हूं। अपने ज्ञान ध्यान का अगर दुनिया को लाभ ना हो, और दो पैसे अगर हम भी नहीं कमाएं, तो समझिए ;
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक बाल कथा –“लिपि की कहानी”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 176 ☆
☆ बाल कथा – लिपि की कहानी☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
मुनिया की सुबह तबीयत खराब हो गई। उसने एक प्रार्थनापत्र लिखा। अपनी सहेली के साथ स्कूल भेज दिया। प्रार्थनापत्र में उसने जो लिखा था, उसकी अध्यापिका ने उस प्रार्थनापत्र को उसी रूप में समझ लिया। और मुनिया को स्कूल से छुट्टी मिल गई।
क्या आप बता सकते है कि मुनिया ने प्रार्थनापत्र किस लिपि में लिख कर पहुंचाया था। नहीं जानते हो ? उसने प्रार्थनापत्र देवनागरी लिपि में लिख कर भेजा था।
देवनागरी लिपि उसे कहते हैं, जिसे आप इस वक्त यहाँ पढ़ रहे है। इसी तरह अंग्रेजी अक्षरों के संकेतों के समूहों से मिल कर बने शब्दों को रोमन लिपि कहते हैं।
इस पर राजू ने जानना चाहा, “क्या शुरु से ही इस तरह की लिपियां प्रचलित थीं?”
तब उस की मम्मी ने बताया कि शुरु शुरु में ज्ञान की बातें एक दूसरे को सुना कर बताई जाती थीं। गुरुकुल में गुरु शिष्य को ज्ञान की बातें कंठस्थ करा दिया करते थे। इस तरह अनुभव और ज्ञान की बातें पीढ़ी-दर-पीढ़ी जाती थीं।
मनुष्य निरंतर, विकास करता गया। इसी के साथ उस का अनुभव बढ़ता गया। तब ढेरों ज्ञान की बातें और अनुभव को सुरक्षित रखने की आवश्यकता महसूस हुई।
इसी आवश्यकता ने मनुष्य को प्रत्येक वस्तु के संकेत बनाने के लिए प्रेरित किया। तब प्रत्येक वस्तु को इंगित करने के लिए उस के संकेताक्षर या चिन्ह बनाए गए। इस तरह चित्रसंकेतों की लिपि का आविष्कार हुआ। इस लिपि को चित्रलिपि कहा गया।
आज भी विश्व में इस लिपि पर आधारित अनेक भाषाएं प्रचलित हैं। जापान और चीन की लिपि इसका प्रमुख उदाहरण है। शब्दाचित्रों पर आधारित ये लिपियों इसका श्रेष्ठ नमूना भी है।
चित्रलिपि का आशय यह है कि अपने विचारों को चित्र बना कर अभिव्यक्त किया जाए। मगर यह लिपि अपना कार्य सरल ढंग में नहीं कर पायी। क्यों कि एक तो यह लिपि सीखना कठिन था। दूसरा, इसे लिखने में बहुत मेहनत करनी पड़ती थी। तीसरा, लिखने वाला जो बात कहना चाहता था, वह चित्रलिपि द्वारा वैसी की वैसी व्यक्त नहीं हो पाती थी। चौथा, प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह आकर्षण का केंद्र नहीं थी। और यह दुरुह थी।
तब कुछ समय बाद प्रत्येक ध्वनियों के लिए एक एक शब्द संकेत बनाए गए। जिन्हें हम वर्णमाला में पढ़ते हैं। मसलन- क, ख, ग आदि। इन्हीं अक्षरों और मात्राओं के मेल से संकेत-चिन्ह बनने लगे। जो आज तक परिष्कृत हो रहे हैं।
हरेक वस्तु के लिए एक संकेत चिन्ह बनाए गए। विशेष संकेत चिन्ह विशेष चीजों के नाम बताते हैं। इस तरह प्रत्येक वस्तु के लिए एक शब्द संकेत तय किया गया। तब लिपि का आविष्कार हुआ।
इस तरह सब से पहले जो लिपि बनी, उसे ब्राह्मी लिपि के नाम से जाना जाता है। बाद में अन्य लिपियां इसी लिपि से विकसित होती गई।
ऐसे ही धीरे धीरे विकसित होते हुए आधुनिक लिपि बनी। जिसमें अनेक विशेषताएं हैं। प्रमुख विशेषता यह है कि इसे जैसा बोला जाता है, वैसा ही लिखा भी जाता है। अर्थात् यह हमारे विचारों को वैसा ही व्यक्त करती है।
इनमें से बहुत सी लिपियों से हम परिचित हैं । ब्रिटेन में अंग्रेजी भाषा बोली जाती है। इस भाषा को रोमन लिपि में लिखते हैं। पंजाबी भाषा, गुरुमुखी लिपि में लिखी जाती है। इसी तरह तमिल, तेलगु, कन्नड़ तथा मलयालम आदि ब्राह्मी लिपि में लिखी जाती हैं।
इसके अलावा भी विश्व में अनेक लिपियां प्रचलित है।
अब यह भी जान लें कि विश्व की सबसे प्राचीन लिपियां निम्न हैं- ब्राह्मी, शारदा आदि।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।
(पूर्वसूत्र- प्रवासाला जाण्यापूर्वी दादरच्या घराला कुलूप लावलं होतं त्याच दिवशी हे पत्र इथं येऊन पडलं होतं. म्हणजे साधारण आठवडा उलटून गेला होता.पण ते आमच्या हातात पडायला मात्र बराच उशीर झाला होता.कारण रिटन-टेस्टची तारीख आदल्या दिवशीची म्हणजेच शनिवारची होती आणि वेळ दुपारी ११ची. अर्थातच रिटन-टेस्टची तारीख उलटून गेली होती.हातातोंडाशी आलेला घास पुन्हा एकदा हिरावला गेला होता!
मग कोंदट अंधाराने भरून गेलेलं असतानाच पुढचे तीन साडेतीन तास असे झंझावातासारखे आले की अपेक्षितपणे आकारलेल्या सकारात्मक घटनांनी त्या अंधारल्या मनात पुन्हा आशेची ज्योत पल्लवित केली..!)
युनियन बँकेकडून आलेलं ते रिटन टेस्टचं काॅल-लेटर टेस्टची तारीख उलटून गेल्यामुळे आता मुदत उलटून गेलेल्या चेकसारखं माझ्यासाठी कांहीही उपयोग नसलेला कागदाचा एक तुकडाच होतं फक्त.तेच काॅल लेटर वाचून विचारात पडलेले मेहुणे एखाद्या गूढ विचारात गढल्यासारखे स्वतःतच हरवलेले होते. दुसऱ्याच क्षणी काहीतरी गवसल्याच्या उत्साहात ते झपकन् पुढे आले. ते कॉल लेटर माझ्या हातात देऊन घाईघाईने त्यांनी चप्पल पायात सरकवल्या आणि तडक बाहेर पडले. मी कांहीशा गोंधळल्या अवस्थेत दाराकडे धाव घेतली.
“क..काय झालं? कुठे निघालात?” न रहावून मी विचारलं.
“येतो लगेच.आलोच.
तू थांब..” मागे वळूनही न बघता ते दिसेनासे झाले.
ते परत येईपर्यंतची पंधरा मिनिटं मला तिथंच गोठून गेल्यासारखी वाटत राहिली. सरता न सरणारी!
मला अपराध्यासारखं वाटू लागलं. खरंतर आम्ही घरी येताना वाटेतच ठरवल्यानुसार घरी सामान ठेवून,फ्रेश होऊन लगेच जेवायला बाहेर पडणार होतो. एक तर ते एवढ्या लांबच्या प्रवासातून दमून आलेले होते. त्यांना कडकडून भूकही लागलेली होती. असं असताना हे असं अचानक सगळं विचित्रच घडू लागलंय.कुठे गेलेयत हे?
पंधरा एक मिनिटांनी ते घाईघाईने परत आले.
“हे बघ आता जेवण राहू दे. जेवत बसलो तर फार उशीर होईल. मी प्रवासातच थोडी केळी घेतलेली आहेत.तुझ्या आईनं थोडे लाडूही दिलेत. दोघंही तेच घासभर खाऊन घेऊ न् लगेच बाहेर पडू. आपल्याला आत्ताच्या आत्ता ठाण्याला जायचंय?”
हे सगळं त्या क्षणी माझ्यासाठी अनपेक्षित आणि अनाकलनीयच होतं.
“आत्ता..?इतक्या रात्री..?”
“हो..”
“कशासाठी..?”
“जे करायचं ते फार वेळ न दवडता आजच्या आजच करायला हवं म्हणून.हे बघ,मी वरच्या मजल्यावरच्या गोगटे आजोबांच्या घरुन माझ्या ठाण्याच्या मावसबहिणीला फोन करायला गेलो होतो.मी बोललोय तिच्याशी. तिचा इंजिनीयर झालेला धाकटा दीर नुकताच टेक्निकल ऑफिसर म्हणून युनियन बँकेत लागल्याचं मी ऐकून होतो. ते सर्वजण एकत्रच रहातायत.मी ‘त्यांना मला तातडीनं भेटायचंय.महत्त्वाचं काम आहे.लगेच येऊ का?’असं फोनवर बहिणीला विचारलंय. ती ‘ये’ म्हणालीय. आपण आत्ता त्यांना भेटायला जातोय. त्यांच्या ओळखीनं काहीतरी मार्ग निघेल.”
त्यांचा आशावाद जबरदस्त होता. सगळं माझ्यासाठीच तर सुरू होतं. मी ‘नाही-नको’ म्हणायचा प्रश्नच नव्हता.पण तरीही….?
“तुम्ही प्रवासातून दमून आला आहात ना? उद्या सकाळी लवकर गेलो तर नाही का चालणार?”
“कदाचित उशीर होईल. ती ‘ये’ म्हणालीय तर आत्ताच जाऊ. चल. आवर लौकर..”
ठाण्याला जाऊन आम्ही त्यांच्या बहिणीच्या घराची बेल वाजवली तेव्हा रात्रीचे अकरा वाजून गेले होते.मन आशा निराशेच्या हिंदोळ्यावर हेलकावे घेत होतं. अनिश्चिततेच्या भावनेनं ते कातर झालेलं होतं.
“बराच उशीर झालाय पण अगदी नाईलाज म्हणून तुला त्रास द्यावा लागतोय बघ.”
मेहुणे त्यांच्या मावस बहिणीला.. म्हणजेच मिसेस साठेना म्हणाले.
“त्रास कसलाअरे? मी निरंजन भाऊजींना कल्पना देऊन ठेवलीय.त्यांना बोलावते. तू सांग त्यांना सगळं. तुमच्या गप्पा होईपर्यंत मी गरम काॅफी करते पटकन्.आलेच.”
इथे येताना माझ्या मनात असणारा संकोच या मनमोकळ्या स्वागतानं विरून गेला.
“नमस्कार..”
हसतमुखाने नमस्कार करीत निरंजन साठे आमच्यासमोर उभे होते. त्यांना पाहिलं आणि मन निश्चिंतच झालं एकदम. तो त्यांच्या प्रसन्न,देखण्या,रुबाबदार आणि मुख्य म्हणजे निगर्वी व्यक्तिमत्त्वाचा प्रभाव होता की माझ्या मनाला मिळालेला अकल्पित संकेत होता कुणास ठाऊक पण मन निश्चिंत झालं होतं एवढं खरं.
मेहुण्यांनी नेमकी अडचण थोडक्यात सांगितली. मी सोबत आणलेलं कॉल-लेटर संदर्भासाठी त्यांच्या पुढे केलं. त्यांनी ते वाचलं. त्याची अलगद घडी घालून ते मला परत दिलं.
“एक काम करूया. उद्या सकाळी बरोबर दहा वाजता तू चर्नीरोडवरील युनियन बँकेच्या ‘मेहता-महाल’ मधल्या ऑफिसमधे ये. हे माझं कार्ड. लिफ्टने आठव्या मजल्यावर येऊन माझ्या केबिनमधे यायचं.आपण शेजारच्या ‘मेहता चेंबर्स’ बिल्डिंगमधे ग्राउंड फ्लोअरलाच बॅंकेचं रिक्रुटमेंट सेल आहे तिथे जाऊ.तिथेच ही सगळी रिक्रूटमेंट प्रोसेस सुरू आहे. डाॅ.विष्णू कर्डक तिथले सुपरिंटेंडंट आहेत. दोन महिन्यांपूर्वीच माझा इंटरव्यूही त्यांनीच घेतला होता. त्यामुळे ते बहुधा मला ओळखतील. आपण त्यांना भेटून सांगू सगळं.बघू काय होतं ते.एन.आय.बी.एम.च्या सहकार्याने बँकेतर्फे आठएक दिवसांचे रेक्रूटमेंट प्रोसेस सुरू आहे हे मी ऐकून होतो. तुझी रिटन टेस्ट हा त्याचाच एक भाग असणार आहे. टेस्ट-प्रोग्रॅम शनिवारी संपला असेल तर मात्र प्रॉब्लेम येईल.एरवी काहीतरी मार्ग निघू शकेल”
निरंजन साठे यांनी सर्व परिस्थिती नेमक्या शब्दात समजून सांगितली.आशेचा एक अंधूक किरण दिसू लागला. आम्हाला इथे यायची बुद्धी झाली, प्रयत्नांची दिशा का होईना पण नेमकी सापडली हा दिलासा असला तरी अनिश्चितताही होतीच.
कॉफी घेऊन त्यांचे आभार मानून आम्ही बाहेर पडलो तेव्हा मध्यरात्र उलटून गेलेली होती!
☆ बोलायचे राहून गेले – भाग-३ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर ☆
(वंदना घरी आली तरी सरांच्या बोलण्याचा विचार करत राहिली. मिताला कुठे बिझी ठेवावे? तिला कसली आवड नाही पण अश्विनपासून तिला लांब ठेवावेच लागेल.) इथून पुढे —
पुन्हा सर तिच्या मदतीला धावून आले. चार दिवसानंतर ते तिला म्हणाले “वंदना, तुझी बहीण B. Sc आहे ना?”
“हो सर “.
“मग माझ्या डिपार्टमेंटमधील गोगटे मॅडम प्रेग्नन्सी लीव्हवर जात आहेत एक तारीखपासून.त्या जागेवर डेमॉन्स्ट्रेटर म्हणून मिता जर काम करायला तयार असेल तर प्रोफेसर शास्त्रींना मी सांगतो,”.
“पण सर मिताला अनुभव नाही हो, तिला जमेल प्रॅक्टिकल घयायला ? “
“का नाही जमणार? आणि मी असतो ना तेथे. सुरवातीला तिला थोडं अवघड वाटेल, पण पंधरा दिवसात ती तयार होईल “
“ बरं सर.. मी विचारते.. आणि कळविते “ असं म्हणत वंदना क्लासवर गेली.
वंदनाने रात्री आईसमोर मिताला कॉलेजमधील जॉबबद्दल विचारले. हल्ली मिता ताईबरोबर बोलत नव्हती, त्यामुळे तिने तिला उडवून लावले पण जेव्हा तिला कळले की जोगळेकरसरांच्या हाताखाली काम करायचे आहे, तेव्हा ती तयार झाली.
मग वंदनाने मिताच्या नावाचा अर्ज तयार केला आणि प्रोफेसर शास्त्रींकडे नेऊन दिला. शास्त्रीसरांनी एक तारखेपासून प्रोफेसर जोगळेकरना मदत करायला सांगितले आणि अशा रीतीने मिताला तात्पुरता का असेना पहिला जॉब मिळाला.
एक तारखेला वंदना आपल्या गाडीवरून मिताला घेऊन गेली आणि तिची जोगळेकर सरांशी गाठ घालून दिली. सर समोर येताच तिने “थँक्स “ म्हंटले. सरांनी पण हसून मिताचे स्वागत केले.
“आता मिताला थोडे दिवस दाखवावे लागेल पण थोडया दिवसांनी ती स्वतः मुलांचे प्रॅक्टिकल घेईल “
“हो ना सर, तुम्ही असताना तिची काळजी नाही, तुम्ही तिला तयार कराल “.
मिताला नवीन वर्गावर सोडून सर आणि ती कॅन्टीन मध्ये गेली. वंदनाला वाटत होतं, सरांशी काही तरी बोलाव, पण सर समोर असले की तिची बोलती बंद होई.
“त्याची काळजी करू नकोस वंदना, एकदा काम सुरु झालं की सर्व विसरेल, हें वय वेड असतं. ‘”
वंदनाच्या मनात आले, ‘ किती समजूतदार आहेत सर, आता आपल्यापुढे आहेत तर सांगावे का मनातले? किती दिवस मनातच राहिल्या आहेत भावना.’
सरांना मिटिंग होती त्यामुळे ते चहा पिऊन गेले. वंदनाला परत कविता आठवली
“रोज तुला मी येथे भेटते, बोलायाचे राहून जाते…. “
मिता पहिल्या दिवसापासून खूष होती. आता रोज ती आईला कॉलेजमधील मुलांच्या गमती आणि जोगळेकरसरांचे कौतुक सांगत राहिली. वंदनाचे बारीक लक्ष होतं, मिता आता व्यवस्थित प्रॅक्टिकल घेत होती, एकंदरीत ती कॉलेजमध्ये रमली होती. हेच तर वंदनाला हवं होतं. वडील गेल्यानंतर मिताची जबाबदारी तिने घेतली होती, पण मिता अवखळ होती, म्हणून तिची नाव व्यवस्थित पैलतीराला लावायला हवी होती .
तिने कॉलेज मध्ये पाहिलं, जोगळेकर सर आणि मिता कॅन्टीनमध्ये थट्टामस्करी करत असत. तिला स्वतः ला सरांची थट्टा कधीच जमली नव्हती.
एकदा ती उशिरा घरी आली तर तिची आई म्हणाली “आज तुमचे जोगळेकरसर येऊन गेले.”
वंदनाला आश्यर्य वाटलं, “सर कसे काय घरी?” तिने आईला विचारले. तर ती म्हणाली “अग मिता दोन दिवस कॉलेजमध्ये गेली नव्हती ना, म्हणून पहायला आले.” तिला कमाल वाटली सरांची. तसे सर कॉलेज मध्ये माझ्याकडे चौकशी करू शकले असते ना?
वर्ष संपत आले, कॉलेजमध्ये परीक्षा सुरु होत्या. आता एप्रिलअखेर मिताचा जॉब संपणार होता. मिता पण नर्व्हस झाली होती, आता दुसरीकडे कुठे जॉब असेल तर.. वंदनाने तिच्या नोकरीसाठी कुठे कुठे सांगून ठेवलं होतं. एका गोष्टीचं वंदनाला समाधान होतं, मिताने अश्विनचा नाद पूर्ण सोडला होता,कारण अश्विन नवीन मुलीबरोबर दिसत होता.
एप्रिल अखेर एक दिवस सरांचा फोन आला “वंदना, महत्वाचे बोलायचं होतं, उद्या सायंकाळी त्या हॉटेलमध्ये भेटशील का?”
वंदनाच्या शरीरावर मोरपीस फिरवल्यासारखे झालं. तिने ओळखले सर काय बोलणार आहेत ते? खरं तर तिलाच सरांना विचारायचं होतं पण,”बोलायचे राहून जाते ‘असे तिचे होत होते. ‘काही हरकत नाही, आपल्या संस्कृतीत पुरुषच पुढाकार घेतो,’ तिच्या मनात येत होतं, आपलं लग्न होण्याआधी मिताला जॉब मिळायला हवा, मग ती आणि आई राहतील, मग मिताचे लग्न.. मग आई एक महिना माझ्याकडे एक महिना मिताकडे .’ ..
पुरी रात्र वंदनाला झोप आली नाही, या कुशीवरून त्या कुशीवर ती तळमळत राहिली. सर काय बोलतील.. मग आपण लाजायचं.. मग हळूच हो म्हणायचं.. तिचं स्वप्नरंजन रात्रभर सुरु होतं.
तिला शोभणारे कपडे नेसून, हलकासा मेकअप करून हसरा चेहेरा ठेऊन ती सायंकाळी हॉटेलमध्ये गेली. सर वेळेवर आलेच. त्यानी दोन कप कॉफीची ऑर्डर दिलीं आणि ते बोलू लागले…..
“वंदना, माझे आईवडील आले आहेत. या वर्षी कोणत्याही परिस्थितीत माझे दोनाचे चार हात होताना त्यांना पहायचे आहे ‘
वंदनाच्या मनात आले केवढी ही सरांची प्रस्तावना, त्याची काही गरज आहे का? सरळ सांगायचे, तू मला आवडतेस म्हणून.
सर बोलत होते,” माझे वय एकतीस वर्षे आहे, त्यामुळे आता लग्न करणे आवश्यकच आहे. तू मागे म्हणाली होतीस, सर माझ्यामागे घट्ट उभे राहा, मी तुला जमेल तसे सल्ले दिले, तुला ते पटले असतील.
मिताला तिच्या प्रेमातून आपण बाहेर काढण्याचा प्रयत्न केला आणि त्यात आपण यशस्वी झालो. पण मी तिच्या आठ महिन्याच्या सहवासाने तिच्यात अडकलो. वंदना, मला आणि मिताला लग्न करायचे आहे, पण तुझी आणि आईची परवानगी हवी.” … वंदनाला वाटले, जग आपल्याभोवती फिरत आहे. तिच्या कानात सरांचे उदगार घुमत राहिले “मला आणि मिताला लग्न करायचे आहे.. मला आणि मिताला लग्न करायचे आहे… मला आणि मिताला लग्न करायचे आहे….. “
वंदना सटपटली. तिच्या घशाला कोरड पडली. आपल्या डोक्यात कुणी लोखंडाचे घण मारीत आहे, असे तिला वाटले. तिचा विचित्र चेहेरा पाहून सर म्हणाले “काही होतंय का वंदना.. तुला मितासाठी मी पसंत नसेल तर तसे सांग..”
वंदना सावरली,”तसे नाही सर, तुम्हाला पसंत न करणारे म्हणजे…. “
तिला पुढे बोलवेना, डोळयांतून अश्रूचा पूर धडका मारत होता, तिने स्वतः ला सावरले आणि ती म्हणाली
“माझी पसंती आहेच सर पण आईला विचारते “ असं म्हणून ती बाहेर पडली.
वंदना कशी घरी आली, गाडी कशी चालवली.. तिच्या काही लक्षात नव्हते. तिने घरात प्रवेश केला मात्र, आई हसतहसत बाहेर आली “अग, तुला मिताची काळजी वाटायची ना, बघ तिने व्यवस्थित स्थळ पटकवले, अग जोगळेकरसरांनी तिला मागणी घातली, आहेस कुठे?”
वंदनाने पण काही माहित नसल्यासारखे सोंग केले “आई, तुला कुणी सांगितलं?”
“ अग मिता सांगते आहे, शनिवारी त्याचे आईबाबा भेटायला यायचे आहेत.”
शाळेत एखादी मुलगी गणवेश न घालता रंगीत कपडे ( तो नवीनच असेल असे नाही ) घालून आली की तिचा वाढदिवस आहे, हे कळायचं..शाळेत स्टेजवरून तिचं नाव पुकारलं जायचं.तिला शुभेच्छा दिल्या जायच्या नि आम्ही पोरी ” एक दोन तीन…एक दोन तीन..एक — दोन — तीन ” अशा शिस्तबद्ध टाळ्या वाजवायचो…
” आपणही टाळ्या वाजवाव्यात की तसच उभं रहावं ” या संभ्रमात ती वाढदिवसाळु उत्सवमूर्ती तोंडावर कसनुसे भाव घेऊन कानकोंड्या अवस्थेत उभी राहिलेली असायची!!
घरची जरा बरी परिस्थिती असली तर शाळेत लिमलेटच्या गोळ्या नाहीतर रावळगाव चॉकलेट वाटलंं जाई…. अन् त्यादिवशी “ती वाटणारी मुलगी” राणीच्या थाटात वावरत असे आणि तिला मदत करणारी तिची मैत्रीण तिच्या दासीच्या..कारण तिला एक गोळी जास्तीची मिळायची!!
ती गोळी किंवा चॉकलेट खिशातून जपून घरी नेलं जाई नि आम्ही तीन भावंडे त्याचे चिमणीच्या दाताने तुकडे करून पुढचा तासभर ते चघळून चघळून खात असू..
आयुष्यातील आनंद नि त्याचा कालावधी वाढवण्याची सोपी युक्ती आम्हाला त्या गोळीनं
आम्हाला शिकवली..!!
एके दिवशी एका मैत्रिणीने साधारण बटाटेवड्याच्या आकाराचा बसाप्पाचा शिक्का असलेला पेढा वर्गातल्या प्रत्येकाला वाढदिवसानिमित्त दिला…आम्हाला आश्चर्याने चक्कर यायचीच राहिली होती..!!
जेमतेम एखादी गोळी वाटणं सुद्धा परवडणं -नं- परवडण्याच्या उंबरठ्यावर असणाऱ्या आम्हा पोरींना प्रत्येकी एक एवढा मोठा पेढा हा फार मोठा सांस्कृतिक धक्काच होता..
” तिचे वडील मोठे डॉक्टर आहेत..तिला न परवडायला काय झालं ?” या घरातल्या शेरेबाजीनं…
” आपण एकतर डॉक्टर व्हायचं आणि अगदीच नाही जमलं तर किमानपक्षी डॉक्टरशी लग्न तरी करायचं ..आणि होणा-या पोरांच्या वाढदिवसाला शाळेत पेढे वाटायचे ” हा निश्चय मात्रं त्या नकळत्या वयात मनानं केला!
वाढदिवस जवळ आला की दोन विषय मनात पिंगा घालू लागायचे….. नवीन कपडा मिळणं नि मैत्रिणींना वाढदिवसासाठी घरी बोलावणं…
तीन मुलांची जबाबदारी असलेल्या आमच्या माऊलीनं घरखर्चातून थोडे थोडे पैसे बाजूला काढून ठेवलेले असायचे..त्यातून पुढची किमान तीन वर्षे अंगाला येईल एवढा घळघळीत कपडा शिवला जायचा..नि वर्षभरातील सा-या सणवारांना, लग्नकार्यांना तो पुरवून पुरवून वापरला जायचा..!!
एखादे वर्षी घरात कुणाचं तरी आजारपण निघायचं नि साठवलेले सारे पैसे घरच्या डब्यातून डॉक्टरच्या गल्ल्यात जमा व्हायचे… त्यावर्षी आईची त्यातल्या त्यात नवी साडी फ्रॉक नाहीतर मॅक्सीचं रूप घेऊन वाढदिवसाला आम्हाला सजवायची…!!
” आई, वाढदिवसाला मैत्रिणींना बोलवूया नं गं ” ही आईच्या मागची भुणभुण काही मैत्रिणींच्या प्रेमापोटी नसायची.. तर असायची मैत्रिणींकडून भेटवस्तू मिळाव्यात म्हणून…!!
बरं त्यावेळच्या भेटवस्तू तरी काय असायच्या..
एखादी एक रुपयाची वही, पंचवीस पैशाची पेन्सिल, दहा पैशाचं खोडरबर, पंचवीस पैशाचं ” सोनेरी केसांची राजकन्या ” वगैरे पातळ कागदाचं गोष्टीचं पुस्तक, पन्नास पैशांचं कानातलं..देणा-याची आर्थिक परिस्थिती बरी असेल तर दीड-दोन रुपयांचं फाऊंटन पेन…
यातल्या ब-याच वस्तू स्वस्त पडतात म्हणून वर्षाच्या सुरुवातीलाच घाऊक आणून ठेवलेल्या..
कानातलं असंच कुणीतरी दिलेलं पण न आवडलेलं…
गोष्टीचं पुस्तक घरातल्या सगळ्या मुलांनी वाचलेलं…त्याचा आता नाहीतरी काय उपयोग म्हणून त्याचं रुपांतर भेटवस्तुत झालेलं…
बरं ..या वस्तू देताना त्याला गिफ्ट पॅकिंग वगैरे प्रकार नाही… त्यांच्या नैसर्गिक स्वरुपातच अवतरलेल्या… पण तरीही त्यांचं खूप आकर्षण असायचं… तेवढंही न मिळण्याचा तो काळ होता…
म्हणून तर पावडरचा डबा, टी-कोस्टर्स, कंपासपेटी असल्या महागड्या गिफ्ट्स देणाऱ्या एका मैत्रिणीला वर्गातल्या प्रत्येकाच्या वाढदिवसाला बोलावलं जायचं…!!
भडंग, पातळ पोह्याचा चिवडा, कांदेपोहे , उप्पीट, एखादा लाडू नाहीतर डालड्यातला शिरा…यातल्या दोन पदार्थांवर वाढदिवस साजरा व्हायचा..!
मैत्रिणींकडून मिळालेली वह्या, पुस्तकं, पेन्सिली, कानातली वगैरे अख्ख्या दुनियेतल्या खजिन्याचा आनंद देऊन जायची…. हा खजिना कुशीत घेऊन निद्रादेवीच्या सोबत घडणारी स्वप्नांची सैर अद्भुत आनंद बहाल करायची…!!
…. ते दिवस कसे भुर्रकन् उडून गेले ते कळलच नाही…फुलपाखरीच होते ते..!!
आई -वडिलांचेही दिवस पालटले होते..केल्या कष्टांचं चीज झालं होतं..चार पैसे गाठीशी जमले होते..
भाऊ , बहीण मोठे झाले..कमावते झाले..
” तुला वाढदिवसाला फक्त काय पाहिजे ते सांग…”
जे पाहिजे ते मिळू लागलं होतं…पैसा आड येतच नव्हता…
पण लहानपणाची भेटवस्तूंची ओढ मात्र कुठेतरी आटली होती…. वाढदिवसाचं महत्त्व, लहानपणी वाटणारं कौतुक तारुण्याच्या रेट्यात कुठंतरी हरवून गेलं होतं..
लग्न झालं नि चित्रपटातल्या नायक-नायिकांच्या वाढदिवसाच्या भुताने झपाटलं..
वाढदिवसाला ” अलगदपणे गळ्यात हि-याचा नाजुकसा नेकलेस घालणारा ” किंवा ” वाढदिवसाला अचानक विमानात बसवून स्वित्झर्लंडला नेणारा ” किंवा ” शे-दोनशे लोकांना भव्य घराच्या भव्य हॉलमधे बोलावून पत्नीच्या वाढदिवसाची सरप्राईज पार्टी करणारा ” नायक आणि त्याने पत्नीला दिलेल्या भेटवस्तू प्रमाण होऊ लागल्या…
…… नि ” अगं हे सगळं तुझच आहे..तुला पाहिजे ते घेऊन ये ” असं म्हणून कर्तव्याला प्राधान्य देत कामाला निघून जाणारा नवरा …त्या नायकापुढे अगदीच फिका पडू लागला..
प्रत्यक्षातलं आयुष्य हे चित्रपटापेक्षा फार वेगळं असल्याचा धडा या वाढदिवसाच्या भेटवस्तुंनी शिकवला …नि स्वत:च्या वाढदिवसाची खरेदी स्वत:च करायची सवय लागली…
लेकीच्या बालपणाबरोबर मात्र बालपणाने पुन्हा आयुष्यात प्रवेश केला…
तिचा थाटाने साजरा केलेला पहिला वाढदिवस…
ती छान दिसावी म्हणून तिला टोचत असतानाही तिला घातलेले महागडे ड्रेस,
स्वत:च्या लेकरांच्या वाढदिवसांना फारशी हौस न पुरवू शकलेल्या आजी-आजोबांनी दिलेल्या सोन्या-चांदीच्या भेटवस्तू , काका, मामा, मावशी, आत्यांनी दिलेल्या गिफ्ट्स, निमंत्रितांकडून आलेले आहेराचे ढीग….
” सगळं तुझं तर आहे, तुला हवं ते तू जाऊन आण ” असं म्हणणा-या नव-याने स्वत: जाऊन लेकीसाठी आणलेल्या भेटवस्तू….. या सा-यांनी आयुष्यातल्या रिकाम्या जागा भरून काढल्या…
तिच्या वाढदिवसाला शाळेत वाटलेल्या भेटवस्तू, अगदी पेढेसुद्धा…
तिला पाहिजे तसे घेतलेले कपडे, दागिने, वस्तू..
तिच्या मित्र-मैत्रिणींना बोलावून साजरे केलेले वाढदिवस…
आणि दोस्त कंपनीकडून मिळालेल्या गिफ्ट्सनी सुखावलेली नि त्यांना कुशीत घेऊन स्वप्नांच्या राज्यात माझ्यासारखीच सैर करणारी माझी छकुली…!!
शिंप्याकडच्या कपड्यांची जागा ब्रॅंडेड वस्तुंनी घेतली… चिवडा-लाडुच्या जागी इडली, पावभाजी, पिझ्झा-बर्गर आला.
…. पण वाढदिवस नि भेटवस्तुंच्या बाबतीतल्या भावना मात्रं तिच्या नि माझ्या अगदी तशाच होत्या…तरल..हळव्या..!!
दरम्यानच्या काळात आई-वडील, सासुसासरे यांचे साठावे, पंच्याहत्तरावे वाढदिवस साजरे करून त्यांच्या अख्ख्या आयुष्यात कधीही साज-या न केलेल्या वाढदिवसांचं उट्टं काढण्याचा नि त्यांना मोठाल्या भेटवस्तू देऊन त्यांच्या ऋणातून मुक्त होण्याचा केविलवाणा प्रयत्न केला…
पण त्यांनी दिलेल्या “रिटर्न गिफ्टने ” अक्षरश: चपराक मिळाली नि आमच्याऐवजी त्यांनीच आमच्या सा-या वाढदिवसांचं उट्टं भरून काढलं!!
काळ फार वेगाने सरला..
वाढदिवसाला भरभरून आशीर्वाद देणारे अनेक हात काळाचं बोट पकडून दूरवर निघून गेले…
” हॅं…वाढदिवस घरी कसला साजरा करायचा !! ” या वयाला लेक पोचलीय…
आता बहीण -भाऊ, दीर -नणंद यांच्या मुलांच्या मुलांचे म्हणजे नातवंडांचे वाढदिवस साजरे होतायत..
मी आजी म्हणून त्यांना उदंड आशीर्वाद देतेय…
” थीम पार्टीज, डेकोरेशन, चकाकणारे भव्य हॉल, “खाता किती खाशील एका तोंडाने ” अशी अवस्था करून टाकणारी विविध क्युझिन्स…
मुलांचा आनंद नव्हे तर स्वत:ची प्रतिष्ठा दाखवण्यासाठी दिलेल्या नि घेतलेल्या भेटवस्तू….
मुलाचे नि आईचे वाढदिवसासाठी घेतलेले हजारोंच्या किंमतीतील ब्रॅंडेड कपडे..
या झगमगाटात मला मात्रं दिसते ती माझी माऊली..वर्षभर पैसे साठवून लेकरांचा वाढदिवस साजरा करणारी….. रात्रभर जागून मुलांच्या वाढदिवसासाठी बेसन भाजणारी…
नि आपल्या लेकराच्या आनंदासाठी भेटवस्तू म्हणून स्वत:कडच्या चारच साड्यातील एक साडी फाडून कपडे शिवणारी.. त्यागाची मूर्ती…!!
आता माझीही पन्नाशी सरलीय…
वाढदिवस येतात नि जातात..
भेटवस्तुंचं आकर्षण कधीचच विरलय … आहेत त्याच वस्तू अंगावर येतात..
पण तरीही वाढदिवसाची ओढ मात्रं आजही वाटते…
…. कारण त्यानिमित्तांने कितीतरी जीवलगांचे , सुहृदांचे फोन येतात.. शुभेच्छा मिळतात..
आणि आपण आयुष्यात केवढी माणसं कमावली याची सुखद जाणीव होते…!!
आपण अंबांनींपेक्षाही श्रीमंत असल्याची भावना मनाला शेवरीपेक्षा तरल करून टाकते…
दिवसाच्या शेवटाला या शुभेच्छारूपी भेटवस्तुंना कुशीत घेऊन मी समाधानाने पुढच्या वाढदिवसाची वाट पहात झोपी जाते…!!
लेखिका : सुश्री नीला महाबळ गोडबोले
सोलापूर
प्रस्तुती : अंजली दिलीप गोखले
मोबाईल नंबर 8482939011
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈