हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 400 ⇒ सदा दिवाली संत की… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सदा दिवाली संत की।)

?अभी अभी # 400 ⇒ सदा दिवाली संत की? श्री प्रदीप शर्मा  ?

क्या आपने कभी संतों को दीवाली मनाते देखा है, अथवा किसी भूखे को उपवास करते देखा है। आम आदमी ना तो रोज दशहरा दिवाली मना सकता है और ना ही सप्ताह में चार चार दिन व्रत उपवास रख सकता है। एक भूखे का तो यूं ही रोज उपवास रहता है, ठीक उसी तरह संतों की भी रोज दिवाली रहती है।

कबीर हमें यूं ही नहीं याद आ जाते ;

सदा दिवाली संत की, बारह मास बसंत।

प्रेम रंग जिन पर चढ़े, उनके रंग अनंत।।

आप मानें या ना मानें, जबसे हमारी मध्यप्रदेश सरकार ने लोकसभा में शत प्रतिशत सफलता 29/29 पाई है, उस पर होली और दिवाली दोनों का रंग एक साथ चढ़ गया है। हम एम पी वाले अपनी खुशी बर्दाश्त नहीं कर पा रहे। कबीर की मस्ती हम पर दिन रात छाई रहती है और हमारी इसी स्थिति को देखकर हमारी सरकार ने रात को भी दिन में बदलने का निर्णय लिया है, अब एम पी के कुछ शहर 24×7 जागते रहेंगे।

वैसे तो स्मार्ट शहर कभी सोते नहीं। अब तक तो हमने केवल बंबई(मुंबई) को ही रात की बाहों में देखा था, अब हमारे इंदौर सहित कुछ प्रदेश भी आपका रात की जगमगाती रोशनी में बाहें फैलाकर आपका स्वागत करेंगे।।

हमें इंदौर के वे पुराने दिन अनायास ही याद आ गए, जब कपड़ा मिलों की चिमनियां लगातार धुंआ उगलती थी, और मिलों के सांचे कभी रुकने का नाम नहीं लेते थे। मिल मजदूरों के कारण पूरा इंदौर रात भर जागता रहता था। होटलें और चाय की दुकानें कभी बंद ही नहीं हो पाती थी।

दिवाली की रोशनी और होली और रंग पंचमी की रंगारंग हुड़दंग छोड़िए, गणेशोत्सव का दस दिन का उत्साह अपनी जगह, और अनंत चतुर्दशी के रोज तो पूरा इंदौर रात भर जागता रहता था। आसपास के शहर, गांव और कस्बों की भीड़ की भीड़ मिलों की झांकियां और अखाड़ों के प्रदर्शन के लिए दौड़ी पड़ती थी। इंदौर के छविगृह भी सुबह से देर रात तक विशेष शोज़ चलाते थे। प्रदेश का एकमात्र शहर था इंदौर जहां उस दिन रतजगा रहता था।।

घरों में तो लोग रात रात भर जाग ही रहे हैं, टीवी मोबाइल और इंटरनेट कहां किसी को आजकल सोने देता है। आज की युवा पीढ़ी रात को तीन बजे सोती है, कभी किसी का जन्मदिन तो कभी रात रात भर पढ़ाई। घर घर रात भर डीजे की आवाज सुनी जा सकती है और बेचारा जोमैटो वाला रात को बारह बजे तक होम डिलीवरी किया करता है, पिज्जा, पास्ता, केक, पेस्ट्री और मन्च्युरियन की। देशी विदेशी का अपना अपना नशा है।

अब घरों में शांति रहेगी, बाहर जाइए रात भर एन्जॉय कीजिए, जो लोग घरों में आठ घंटे चैन की नींद सीना चाहते हैं, उनके लिए यह खुशखबर है।

सरकार भी खुश आप भी खुश। संत और आज की युवा पीढ़ी अपने अपने हिसाब से दिवाली और वसंत मना रहे हैं। इधर हम भी दोनों नावों में सवार होना चाहते हैं, झूठ क्यूं बोलें ;

साक़िया, आज मुझे नींद नहीं आयेगी।

सुना है तेरी महफ़िल में

रतजगा है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 183 ☆ # “कोई वजह तो होगी” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “कोई वजह तो होगी ”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 183 ☆

☆ # “कोई वजह तो होगी” #

तुम्हारे दिल में

थोड़ी सी जगह तो होगी

मुझे देखकर मुस्कुराने की

कोई वजह तो होगी

 

माना के तुम्हें कत्ल

करने की छूट है

पर मेरा ही कत्ल करने की

कोई वजह तो होगी

 

तुम्हारी आंखों में

छुपी हुई है चमकती बिजली यां

मेरे ही नशेमन पर गिराने की

कोई वजह तो होगी

 

अभी अभी तो

हम मीले है राह में

इतनी जल्दी बिछड़ने की

कोई वजह तो होगी

 

मोबाइल के जमाने मे

यह कैसी झिझक है

‘ मिसकॉल ‘ करके बुलाने की

कोई वजह तो होगी

 

सबसे अलग है

तुम्हारी ये अदायें

‘ श्याम ‘ के तुम पे मरने की

कोई वजह तो होगी /

*

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – वक्त ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता वक्त…‘।)

☆ कविता – वक्त…☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

बिसर गया, कि बिसार दिया,

वक्त ही तो था.

गुजर गया, कि गुज़ार दिया,

वक्त ही तो था.

 

कितने अनजान,अपने बने,

कितने अपने, अनजान बने,

समझ गए, कि समझा गया,

वक्त ही तो था.

 

स्मृति भी अजीब है,यादों की,

धागों की तरह,उलझी थीं,

मिट गई, कि मिटा दिया,

वक्त ही तो था.

 

सभी तो साथ थे,सफर में,

साथ ही चले थे मगर,

किसने थामा,किसने गिरा दिया,

वक्त ही तो था.

 

राज की ही तो बात थी,

राज ही रखना थी मगर,

आसुओं से खुल गया था,

 वक्त ही तो था.

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हलधर… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

श्री तुकाराम दादा पाटील

? कवितेचा उत्सव ?

☆ हलधर… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

कोण मारतो फुंकर आहे

विझत चालल्या अंगारावर

चिथावणीने  नाचत  होते

कुडामुडाचे थकलेले घर

*

संध्याकाळी मावळतीला

तुफान झाले होते वादळ

आभाळाला कळले नाही

तारे  होते  फिरले गरगर

*

दिवस उगवला प्रभात झाली

डोंगर  माथा  बघत  राहिला

चमकत होती  पूर्व दिशेने

पांघरलेली  भगवी  चादर

*

दवात भिजल्या पानफुलांनी

हार  घातले  गळ्यात  सुंदर

भिडला  वारा  आनंदाने

दवमोत्यांची झाली थरथर

*

भिजली माती रानामधली

स्वागतकरण्या तयार झाली

ताडमाड ही  उभे  ठाकले

झुकवत माथा राखत आदर

*

हासत खेळत अखंड होते

बरसत पाणी आभाळाचे

रानामधल्या दगडाला ही

मग मायेचे फुटले  पाझर

*

तेज धरेवर येते तेव्हा

माणसातला फुलतो मानव

मरगळलेला जीव येथला

उत्साहाने  होतो नवथर

*

घामगाळतो मातीवरती

 करतो सेवा तिची निरंतर

स्वतंत्रतेने अविरत राबत

अभिमानाने जगतो हलधर

© प्रा. तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 179 ☆ पाऊस तुझा नि माझा… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 179 ? 

पाऊस तुझा नि माझा… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

पाऊस तुझा नि माझा

तफावत खूप आहे

तुज आवडे रिमझिम

माझे मन, त्यात नं राहे.!!

*

पाऊस तुझा नि माझा

एकच छत्री मला हवी

त्या पावसात सोबती

मज बिलगून तू रहावी.!!

*

पाऊस तुझा नि माझा

कधीच सोबत येत नाही

मी पाहतो वाट तुझी अन्

पाऊस माझा, अंत पाही.!!

*

पाऊस तुझा नि माझा

खेळतो पाठशीवणीचा खेळ

गरम गरम चहा पिण्यातच

जातो मग आपला वेळ.!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – काव्यानंद ☆ भिंगरी घर… – सौमित्र ☆ रसग्रहण – श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? काव्यानंद ?

☆  भिंगरी घर… – सौमित्र ☆ रसग्रहण – श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

आज आपण एक आगळीवेगळी कविता या ठिकाणी पाहणार आहोत… जीवन स्थिर नसतं,पण आपल्याला स्थैर्य हवं असतं… तुम्ही आम्ही सर्व जण कधीच एका जागी स्थिर असत नाही… सतत फिरते … प्रगती विकास च्या नावाखाली हलत राहतो… कधी स्वता तर कधी दुसरा आपल्याला हलवत असतो… गती देत असतो… जशी गती मिळते तेव्हढं आपण स्वता भोवती गिरकी घेत राहतो..

स्वताच्या पायावर उभे राहतो काही क्षण… गती संपताच आपण कलडूंन पडतो..पायाच नसल्या सारखं… एखादी भिंगरी सारखं…. होय आपण ओळखलंत .. कवि सौमित्र यांची भिंगरी घर या कवितेबद्दल बोलतोय…

☆ भिंगरी घर ☆

आधी घर छोटं होतं म्हणून तू बाहेर झोपायचास

नंतर डोक्याला शांतता हवी म्हणून बाहेर असायचास

*

मग गेले वडील तेव्हा त्यांची जागा तुझी झाली

काही दिवसांनी भावाचं लग्न,त्याची बायको घरात आली

गुपचुप उचललास बिछाना आणि हळुच देऊळ गाठलंस

फुटपाथ रस्ता देऊळ दुकान यानांच आपलं मानलंस

*

अचानक मग अधून मधून तू शहराबाहेर जायचास

एकटा एकटा एकटा फिरून पुन्हा परत यायचास

*

पैसे देऊन हक्काची जागा हाॅटेलमधे शोधायचास

काही दिवस काही रात्री काॅंफीडंटली वागायचास

*

एक दिवस प्रेमात पडलायस असं कुठुन कळलं

तुझं सारंच आठवलं अन् काळीज उगाच जडलं

*

एका जागी स्थिरावणार,तू याचंच हायसं वाटलं

शेवटी एकदाचं तुझ्या हक्काचं कुणी तुला भेटलं

*

आणि मग तू लग्न केलंसन घर घेतलस स्वत:च

खरंच खूप छान केलंस,ऐकलंस फक्त मनाचं

*

मग एक दिवस आई म्हणाली,’घर मोठ्ठं आहे तरी?’

तुझी बायको म्हणते,तू अधूनमधूनच असतोस घरी?

*

अंग थरथर कापू लागलं जीभ माझी कोरडली

आईनं हातात पट्टी घेतली,आई माझी ओरडली

*

सांग…सांग तुझी जागा तू कुठे जाऊन फेकलीस?

अशी कशी भिंगरी बाळा पाया लावून घेतलीस?

… छोट्या घरात राहणाऱ्या मोठ्या कुटुंबाची कहाणी… झोपायची अडचण … वडीलधारी मंडळी घरी झोपावीत म्हणून बाहेर झोपणारा मी सतत दुसऱ्याची सोय बघत गेलो… वडील गेले नि घरात जागा झाली हक्काची काही क्षणाची… भावाने लग्न केले मुहूर्तावर बायको आली घरी नि माझी वरात फिरून दारी…पाहता पाहता त्या निरंकुशतेच्या कुशीत शिरलो… तिनं दाखवले ते आकर्षणाचं जगं… एक जागा अशी राहिली नाही सतत बदलत गेलो… फुटपाथ रस्ता देऊळ दुकान सगळा फुकटचा आणि उघडयावरचा कारभार… मग शहाराची लागली चटकं.. ते सुख सुखासुखी सोडवत नव्हते… कधी खिसा गरम असला तर चार पैसे टाकून हाॅटेलच्या गादीवर रात्र काढू लागलो बिनधास्त…

… प्रेमाचं बिंग फुटलं,.. आईला बरंच वाटलं..चंचलेला लगाम बसेल .. मी स्थिर होईन हि आशा वाटली… हक्काची सावली मिळणार होती… लग्न हि झालं तसं स्वताच घरही झालं… आता भिरभिरणाऱ आयुष्य संपलं असं त्यांना वाटलं…. पण ते माझं मन मला कासाविस करू लागलं… हक्काचं ते असून बाहेरचं सुख सुखासुखी सोडवत नव्हते…बायकोची तडफड आईला समजली… फैलावर घेत ती मला म्हणाली… घर असताना का भिकेचे डोहाळे लागले…. भिंगरी लावून घर घर का भिरभिरतोस … आता तरी स्थिर हो…

भिंगरीचं घर रुपक  सतत दुसऱ्यानं गती दिली तर फिरते… तेव्हा ती स्वताचं भान हरपते.. स्वताच्या पायावर तोल सा़भाळते स्थिर दिसते पण गती संपताच कलंडून कोलमोडून पडते… पायाच नसल्या सारखी.. अडगळीत पडल्या प्रमाणे…  माणसं भि़गरी सारखी गरगर फिरतात स्वताच्या जीवनामध्ये … स्थैर्य हवं असतं म्हणून… कुणाला लाभलं असं वाटतं तर कुणाला नाही … साराच भासआभासाचा खेळ असतो तो….

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “भिती…” ☆ श्री कौस्तुभ परांजपे ☆

श्री कौस्तुभ परांजपे

? विविधा ?

☆ “भिती…” ☆ श्री कौस्तुभ परांजपे ☆

नुसता विचार आला की मनात येणारी, वाटणारी, आणि आपल्याच अवतीभोवती पिंगा घालणारी. आणि विचार थांबवला की हळूहळू कमी होणारी एक अदृश्य गोष्ट म्हणजे भिती.

लहानपणी गंमत म्हणून कोणीतरी दाखवलेली भिती नंतर पाठ सोडत नाही. खरंतर पाठ काय, ती आपल्यालाच सोडत नाही. सतत वाटत नसली आपल्याला वाटते तेव्हा ती अवतीभवतीच फिरत असते. बटन दाबल्यावर चटकन दिवा लागावा, तशीच ती विचार केला की तात्काळ येते. पण बटन बंद केल्यावर दिवा लगेच बंद होतो, तशी मात्र ती लगेच जात नाही.

फटाका फुटल्यानंतर त्याचा वास काहीकाळ तसाच राहतो. तसाच विचार बंद केल्यावरही भिती काहीकाळ मनात रेंगाळते.

भितीची कारणं, वेळ, प्रसंग हे वेगवेगळे असतात. वयानुसार हि कारणं बदलतात सुध्दा. पण संबंध असतो तो विचारांशी.

धडपडणं, लागणं ही जी भिती मोठेपणी असते, ती कदाचित लहानपणी जवळपास सुध्दा फिरकत नाही. कारण तशा भितीचा विचारच नसतो. पण अंधार, अभ्यास, परिक्षा, रिझल्ट, मिळणारे मार्क हि लहानपणची साधीसाधी कारणं असतात. कारण हा विचार मनात आला नाही तरी याचा विचार कर…… असं कोणीतरी सांगत असतं.

नौकरी, नुकसान, फसवणूक, चोरी, अपयश, हि कारणं वाढत्या वयात येतात.

प्रवास, कार्यक्रम या गोष्टी व्यवस्थित पार पडतील नां… वेळेवर काही गोंधळ होणार नाही नां… अशी भिती त्या त्या वेळी असतेच.

मन लाऊन आणि व्यवस्थित केलेला पदार्थ सुध्दा… काही वेळा चवीसाठी दिला जातो. आणि कसा झाला आहे?… हे विचारतांना तो चांगला झाला असेल याची खात्री असली तरी पण… मनात एक भिती असते.

उतारवयात तर म्हातारपण हिच भिती त्यांच्या बोलण्यात जाणवते. यात अतिवेग, मोठ्ठा आवाज यांचीपण भिती वाटते.

राजकारण, व्यवसाय, पेशा अशा वेगवेगळ्या क्षेत्रात काम करतांना सुध्दा एक प्रकारची भिती वाटत असते.

एकच भिती कायम असते असंही नसतं. ती बदलते सुध्दा. आणि हा भितीचा बदल विचारांबरोबर बदलत असतो.

राजकीय भिती, सुरक्षेची भिती, सामाजिक घडामोडींची भिती, देशांतर्गत व आंतरराष्ट्रीय स्तरावरील भिती वाटतेच. पण पाल, विंचू , झुरळ, साप असे काही प्राणी. कोसळणाऱ्या पावसात कडाडणारी वीज. दहीहंडीसाठी केलेला उंच मानवी मनोरा. यांची सुध्दा भिती वाटते. जेवढे विषय तेवढी भिती.

आपल्या मनातली भिती दुसऱ्याला सागितल्यावर कधी कधी तो आपल्याला सावरतो. पण कधी त्याच्याही मनात तीच भिती निर्माण होते ज्याचा त्याने अगोदर विचारच केलेला नसतो.

थोडक्यात, भिती हि हाॅटेल मधल्या मेनू कार्ड सारखी असते. म्हणजे मेनू कार्डवर बरेच पदार्थ असतात, तशीच भितीची अनेक कारणं असतात. मेनू कार्ड वाचून हे पदार्थ आहेत हे समजतं . पण ते चविला कसे, आणि प्लेटमध्ये म्हणजे quantity किती असेल ते काहीवेळा माहीत नसतं. तसंच भितीच काहीवेळा असतं. नक्की कशी, का, आणि किती वाटते हे समजत नाही. पण ती वाटते.  हाॅटेल मधले पदार्थ आपण मागवले तरच मिळतात. तसंच भितीचं आहे, विचार केला तरच ती वाटते…….. केलाच नाहीतर…

आनंदी आनंद गडे…

“भय इथले संपत नाही.” किंवा “शूर आम्ही सरदार आम्हाला काय कुणाची भिती.” या सारख्या गाण्यांवरुन कवींना सुध्दा भिती या शब्दाची भुरळ पडल्याचं लक्षात येत.

©  श्री कौस्तुभ परांजपे

मो 9579032601

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ दोन बोधकथा : विकतची डिग्री / आंधळे प्रेम ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल ☆

सुश्री वर्षा बालगोपाल 

? जीवनरंग ?

☆ दोन बोधकथा – विकतची डिग्री / आंधळे प्रेम ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल 

(१) विकतची डिग्री 

अतिशय श्रीमंत बापाचा सुमेध एकुलता एक मुलगा. काही म्हणजे काहीच कमी नव्हते त्याला.म्हणेल तेव्हा म्हणेल ते, ज्यावर बोट ठेवेल ती गोष्ट त्याला मिळत होती.

दिवसेंदिवस त्याच्या मागण्या वाढत होत्या आणि त्या तत्परतेने पूर्ण करण्यात आई बाप स्वतःला धन्य मानत होते.

सहाजिकच सुमेध हेकेखोर तर झालाच पण अभ्यासात ही त्याचे लक्ष लागतं नव्हते. कसाबसा पास होत तो दहावीत पोहोचला. पण परीक्षेच्या वेळी तो घाबरला. आता कसे होणार? पण वडिलांनी त्याला फक्त परिक्षा दे म्हणून सांगितले आणि मग पैशाच्या बळावरच तो पास झाला. त्याला सायन्सला ऍडमिशन मिळाली. दहावीचाच कित्ता पुढे गिरवला गेला आणि तो बारावीच नाही तर डॉक्टरही झाला.

पैसा असल्याने त्याला मोठे हॉस्पिटल बांधून दिले. आणि मग काय डिग्री हातात, मोठे हॉस्पिटल नावावर कोणताही पेशन्ट आल्यावर त्यावर स्वतः उपचार न करता या डॉकटरकडे त्या डॉक्टरांकडे पाठवायचे आणि पेशंटला लुटायचे अशी प्रॅक्टिस सुरु झाली.

एकदा सुमेधचे वडीलच खूप आजारी पडले. नातेवाईकांनी त्यांना सुमेधच्याच हॉस्पिटलमध्ये आणले.

वडिलांना पाहून सुमेधला रडू फुटले. रडत रडत तो बाबांना म्हणाला मला माफ करा बाबा. मी तुमच्यावर उपचार नाही करू शकत. तुम्हाला मी दुसऱ्या चांगल्या डॉक्टरांकडे पाठवतो. माझाच मित्र, त्याला माझ्यापेक्षा कमी डिगरी आहे पण त्याचे निदान एकदम बरोबर असते. तो स्वतः त्याच्या पेशंटना बरे करतो. आणि हो मी पाठवलेले पेशन्ट सुद्धा तो अगदी खडखडीत बरे करतो.

बाबांना सुद्धा लक्षात येते.’ केवळ डिगरी मिळवली म्हणजे ज्ञान मिळालेले असतेच असे नाही.’ 

वडील मित्राच्या हॉस्पिटल मधे जाऊन चांगले बरे होतात. मित्राचा हातगुण पाहून म्हणतात हेलिकॅप्टरने अती उंच शिखरावर पोहोचून शिखर सर केल्याच्या आनंदापेक्षा अवघड वाटेने स्वतःच्या मेहनतीने थोड्या कमी उंचीवर पोहोचले तरी ती उंची गाठल्याची किंमत ही वरच्या मुलापेक्षा जास्तच असते. पैशाने डिग्री मिळवता येते. ज्ञान नाही. पैशाने मिळवलेली डिग्री लोकांच्या प्राणासाठी घातकही ठरू शकते.

(२) आंधळे प्रेम 

सुखवस्तु कुटुंबात राहणारा सुशील. खुप हुशार, सगळ्यांचा लाडका पण थोडा खोडकर. त्याचा लहानसहान खोड्यांकडे अजून तो लहान आहे म्हणून दुर्लक्ष केले जाई. आजी तर म्हणे आमचा कृष्ण आहे तो. करू दे खोड्या.

प्रेमाच्या नादात कोणी त्याला समजावून सांगण्याच्या भानगडीत पडले नाही. किंबहुना त्याला समजावयाला गेले तर तो मुद्दाम जास्त खोड्या काढायचा. मग डॉक्टर पण म्हटले काही मुले असतात  व्रात्य, over active, पण नंतर समज वाढली की होतात शांत आपोआप.

असेच दिवस जात होते. मुलाच्या खोड्या काही कमी होत नव्हत्या. अचानक किरकोळ आजाराचे निमित्त झाले आणि सुशीलच्या वडिलांना देवाज्ञा झाली.

कुटुंबावर दुःखाचा डोंगरच कोसळला. आधीच खोडकर असलेल्या सुशीलवर सहानुभूतीचा दयेचा वर्षाव होऊ लागला. त्यामुळे तो निर्ढावू  लागला. छोट्या मोठ्या खोड्यांचे स्वरूप शेजाऱ्या पाजार्यांना त्रासदायक होऊ लागले. तशा तक्रारी त्यांनी आईकडे केल्या.

आई पण मोठ्या कंपनीत कामाला असल्याने आर्थिक बळ खूपच होते. आईला मुलाला आई आणि वडील दोघांचेही प्रेम द्यावे लागतं होते आणि ती ते द्यायचा पूर्ण प्रयत्न करत होती. याच भावनेतून तिला आपल्या मुलाला कोणी काही बोललेले सहन व्हायचे नाही. ती पैशाने त्या व्यवहारावर पाणी फिरवत होती.

मुलाने कोणाची गोष्ट तोडली, दे त्यांना नवी गोष्ट आणून, कोणाच्या घरातून पैसे चोरले, किती पैसे चोरले विचारून पैसे परतफेड करणे, कोणाच्या वळवणात पाणी ओतले एवढे नुकसान झाले का दे भरून…

कोणी काही मुलाला म्हणू नाही म्हणून आई सढळ हात ठेवत होती. त्याने शेजाऱ्यांचे समाधान होत नव्हते पण बाई माणसाला कसे सांगायचे, वडीलाविना पोराला वाढवतीय जाऊदे असे म्हणून सोडून देत होते.

असे करून एक प्रकारे आपण मुलाचे नुकसान करत आहोत हेच मुळी तिच्या लक्षात येत नव्हते. माझ्या मुलाला कोणी काही बोलायचे नाही, आमचे आम्ही पाहून घेऊ अशीच तिची भूमिका असायची.

दिवस, महिने, 5 वर्ष लोटली पण वागण्यात काहीच फरक नव्हता ना सुशिलच्या ना त्याच्या आईच्या. सोसायटीतले लोक पण मांजराच्या गळ्यात घंटा बांधणार कोण असा विचार करून गप्पच होते.

एक दिवस त्याने शाळेतल्या मुलीची छेड काढली. पोलिसांनी पकडून नेले पण वय जास्त नसल्याने कोणी त्याला मारलेही नाही. आईनेही येऊन मध्यस्थी केली पैसे देऊन हे प्रकरण मिटवले. पोलिसांनी कडक शब्दात समज देऊन त्याला सोडून दिले.

सुशील तर अजूनच निर्ढावला.आई त्याला चकार शब्दाने बोलत नव्हती. तिला पण त्रास होत होता पण बापाविना पोर वाढवायच्या नादात ती त्याला घडवत नव्हती.

शेवटी एक वयस्क बाई तिच्या आईसारखी असणारी तिने सुशिलच्या आईला सांगून बघायचे ठरवले.

सुट्टीच्या दिवशी दुपारी निवांतपणे त्या सुशीलकडे गेल्या. गप्पा मारता मारता सुशिलचा विषय काढला मात्र सुशिलची आई चवताळली. ती त्या आज्जीना काही बोलणार एवढ्यात एक शेजारी सुशीलची तक्रार घेऊन आले. पार्किंगमधल्या गाडीचा सायलेन्सर काढून त्याने आईच्या गाडीच्या डिकीत ठेवला होता. हे पाहून तक्रार करत असताना सुशीलही तेथे आला. त्याने मी काही केले नाही असे म्हणून ती गोष्ट उडवून लावली आणि नेहमीप्रमाणे आईने काही पैसे देऊन त्या शेजाऱ्याला गाडी दुरुस्त करून घे. पैसे कमी असतील तर अजून देईन सांगून त्याचे तोंड बंद केले.

शेजारी निघून जाताच आजीने सुशीलला आवाज दिला सुशील येताच त्यांनी आईला दटावायला सुरुवात केली आणि दटावताना एक आईच्या मुखात लगावून द्यायचे धाडसही दाखवले.

अनपेक्षित घटनेमुळे दोघेही सुन्न झाले. ते रागाने आजीकडे पहातच होते पण त्यांना बोलण्याची संधी न देताच आजीच बोलू लागली…

“ मला माहिती आहे तुम्ही माझ्यावर खूप रागावलाय. पण माझाही नाईलाज झाला आणि माझ्याकडून हे कृत्य घडले. सुशील बेटा चूक तुझी होती पण शिक्षा आईला झाली. कसं वाटलं रे तुला?” 

सुशील तर पार चक्रावून गेला होता. पण घाव वर्मी बसला होता आपल्यामुळे आपल्या आईला शिक्षा झाली हे त्याने पहिल्यांदाच पाहिले होते. ते त्याच्या मनाला एकदम लागले. तो फक्त डॊळे मोठे करून पहात बसला.

आई म्हणाली “ काय हो मला का मारलेत? मी काय केलं? “ तसे आजी म्हणाली “ तू आंधळं प्रेम केलंस. आपल्या पोराने चूक केली आहे हे समजून सुद्धा दरवेळी त्याला पाठीशी घातलंस. त्याच्या चुका निस्तरण्यासाठी तुझा कष्टाचा पैसा खर्च केलास पण त्यातून मुलाला काही बोध नाही दिलास. अजून वेळ गेलेली नाही. मुलाला वाढवणे म्हणजे त्यांना त्यांची मनमानी करू देणे नव्हे. त्यांच्या चुकांवर पांघरूण घालणे नव्हे. तर त्यांना घडवण्यासाठी वेळेवर कठोर व्हायलाच हवे. त्यांना शासन आईच करू शकते. कृष्णाला सुद्धा त्याच्या यशोदा मय्याने बांधून ठेवणे, मारणे, अबोला धरणे यातून तो चांगला घडावा म्हणून शासन केलेच होते. जन्म न देता मुलाच्या चांगल्या भवितव्यासाठी माय शिक्षा देऊ शकते तर मग ज्या मुलाला तू जन्म दिला आहेस त्या मुलाला घडवताना सांगून पटत नसेल तर शासन आईनेच करावे लागते ना?  मुलाला वाढवताना त्याला चांगले घडवावे पण लागते. घडवताना थोडे कठोरही व्हायचे असते. आंधळे प्रेम मुलाला पांगळे तर करतेच पण त्याच्या आयुष्याचेही नुकसान करते. सोन्याचा दागिना घडवताना त्याला घाव तर सोसावे लागतातच पण अग्निदिव्यातूनही जावे लागते. ते काम सोनाराला कुशलतेने करावे लागते.

मडके घडवताना त्याला आकार देताना थापटावे लागते, चाकावर फिरावे लागते आकार देताना थोपटले तरी आत आधाराचा हात द्यायला पाहिजे आकार घेताच हळूच हात काढून भट्टीत तावून सुलाखून काढले पाहिजे हे काम त्या कुंभाराला करायला पाहिजे. दागिना नीट नाही झाला, मडके कच्चे राहिले तर दोष सोनार, कुंभारालाच दिला जातो,  म्हणून मी शिक्षा तुला दिली. अजूनही वेळ गेलेली नाही. तू मुलाला सुधार, घडव. त्याच्या दोन कानाखाली वाजवून गांभीर्य समजावून सांग मग बघ…” 

.. .. असे म्हणून आजी निघून गेली आणि आईला प्रेम आणि आंधळे प्रेम यातला फरक कळला 

© सुश्री वर्षा बालगोपाल

मो 9923400506

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “समुपदेशन…  कुणाचे ?” – लेखक : श्री अभय देवरे ☆ प्रस्तुती – श्री मोहन निमोणकर ☆

श्री मोहन निमोणकर 

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☆ “समुपदेशन…  कुणाचे ?” – लेखक : श्री अभय देवरे ☆ प्रस्तुती – श्री मोहन निमोणकर ☆

मागच्याच महिन्यात माझे एक टेम्पोचालक परिचित त्यांच्या दहावीची परीक्षा दिलेल्या मुलाला घेऊन आले आणि मला म्हणाले, “या आमच्या मुलाला दुकानात ठेवून घ्या.”

पण मी त्यांना म्हटलं की, “असं कसं घेणार ? त्याचे वय अठरा नाही. त्यामुळे मी त्याला नोकरी देऊ शकत नाही.” त्यावर ते म्हणाले, “नोकरीला म्हणून ठेवून घेऊ नका. त्याला पैसे दिले नाहीत तरी हरकत नाही. दहावीची परीक्षा झाली आहे. तो मोकळाच आहे. शिक्षणातही त्याला फारशी गती नाही. जर तुमच्याकडे काम केले, तर त्याला अनुभव येईल आणि तुमच्याकडे चांगले संस्कार घडतील.”

शिक्षणासाठी त्या मुलाला ठेवायचे म्हटल्यानंतर मी तयार झालो. तो मुलगा दुसऱ्या दिवशीपासून यायला लागला. त्याच्या प्रकृतीला, उंचीला झेपेल इतकेच काम त्याला द्यायला सुरुवात केली. तोही तसा बर्‍यापैकी प्रामाणिकपणे काम करत राहिला. त्याचे मित्रही अधूनमधून यायचे आणि त्याच्याशी काहीतरी बाहेर जाऊन बोलायचे. पण मी फारसे लक्ष दिले नाही. एक महिन्यांमध्ये त्याने सहा दांड्या सुद्धा मारल्या, पण तेसुद्धा स्वीकारले.  कारण तो शिकायला आलेला होता. जरी त्याचे वडील म्हणाले होते की, मुलाला तुम्ही काहीही देऊ नका…  तरी त्याच्याकडून फुकट काम करून घेणे मला प्रशस्त वाटले नसते. महिना झाल्यानंतर मी त्याला अडीच हजार रुपये पगार घ्यायचा ठरवला. आणि सांगितलं की, आज पहिल्या महिन्यात मी तुला अडीच हजार रुपये पगार देतो. तीन महिन्यांमध्ये तुझे काम बघून वाढवतो. सहा दिवसाच्या सुट्या वजावट करून उर्वरित पगार त्याच्या हातावर ठेवला, तेंव्हा तो नाराज झालेला दिसला; पण माझ्या व्यवसायातली काहीही माहिती नसलेल्या आणि केवळ शिक्षणासाठी म्हणून दुकानात आलेल्या मुलाला अडीच हजार रुपये हे विद्यावेतन म्हणून योग्य आहे असे मला वाटले.

शिवाय उद्या त्याचे कॉलेज सुरू झाल्यावर कॉलेजची वेळ सांभाळून इथे काम करण्याची सवलतही त्याला दिली होती. आणि त्याच्या वडिलांनी  माझ्यावर संस्कार करण्याचीही जबाबदारी टाकली होती त्यामुळे सध्या प्रत्येक क्षेत्रात असणारी स्पर्धा, त्याला तोंड देण्यासाठी करावयाचे प्रयत्न याविषयी हळूहळू समजावून सांगत होतो. शिवाय व्यवसाय चालवायचे मला जेवढे ज्ञान आहे ते सर्व देण्याचा प्रयत्न करत होतो, तेसुद्धा त्याला विद्यावेतन देऊन ! त्याने काहीतरी चांगले वाचावे म्हणून मी त्याला भारताचे राजदूत श्री ज्ञानेश्वर मुळे यांचे ‘ माती, पंख आणि आकाश ‘ हे आत्मचरित्र वाचायला दिले. मराठी माध्यमात शिकलेला एक मुलगा स्वकर्तृत्वावर किती मोठा होऊ शकतो हे त्याला कळावे व त्याच्या मनात कष्टाचे स्फुल्लिंग जागृत व्हावे हा माझा उद्देश !

पण पठयाने त्यातील एकही ओळ वाचली नाही आणि पुस्तक परतही केले नाही. शेवटी मीच आठवण करून दिल्यावर वडिलांनी आणून दिले. नाराजीने त्याने पगार घेतला, आणि त्यादिवशी दुकान संपल्यावर जो गेला तो आज पर्यंत परत आला नाही. त्याला पहिल्या पगारातच स्मार्टफोन घ्यायचा होता, असे त्याच्या वडिलांनी सांगितले. दहावीसुद्धा न झालेल्या मुलाला महिना दहा हजार रुपये पगार मीतरी देऊ शकत नव्हतो.

हीच गोष्ट माझ्या एका प्लम्बिंग कॉन्ट्रॅक्टर मित्राला सांगितली, कारण मुलाचे वडील आम्हा दोघांचेही कॉमन मित्र ! मित्र म्हणाला, आपल्या मराठी मुलांना अनुभव न घेताच पगार हवा असतो. त्यामुळे बाहेरची मुले येऊन नोक-या घेऊन जातात. त्याने एक उदाहरणही दिले.

सातारच्या हायवे जवळ एक नवीन चारमजली कपड्यांचा मोठ्ठा मॉल झाला आहे. तिथे त्याचे प्लम्बिंगचे काम चालू आहे.  मालक सिंधी आहे. मॉलमध्ये दीडशे मुले काम करतात. सगळी मुले बिहार, उत्तरप्रदेश, झारखंड येथील आहेत. सकाळी नऊ ते रात्री नऊ अशी बारा तास ड्युटी असते. सर्व मुलांची राहण्याची, जेवणाची सर्व सोय मालकाने केली आहे. सगळी मुलं इतक्या तन्मयतेने काम करतात की, आलेला ग्राहक खरेदी न करता परत जातच नाही. आता हीच मुले सर्व शिकून घेतील आणि भविष्यात आपल्या महाराष्ट्रात स्वतःची दुकाने उघडतील. आपल्या नाकर्तेपणामुळे एकाच ठिकाणच्या दीडशे नोक-या आणि संधी गेल्या की हो ! याचा खेद, खंत आहे कोणाला ? आणि आमची मराठी मुले शिवाजी महाराजांसारखी दाढी वाढवून, चंद्रकोरीचे गंध लावून, वडिलांनी घेतलेल्या बुलेटला भगवा झेंडा लावून फिरतात ! शिवाय तथाकथित मराठीप्रेमी नेते या मुलांना तोडफोड करायला लावून त्यांचे आयुष्य बरबाद करतात……

अरे, या अमराठी लोकांना हाकलून दिले, तर त्यांचे काम किती मराठी तरुणांना येते ? सुतारकाम, गवंडीकाम, टाईलफिटर असे कितीतरी व्यवसाय मराठी व्यावसायिकांच्या हातातून निघून गेलेत. मी माझ्या दुकानासाठी कामगार पाहिजे अशी जाहिरात देतो, तेंव्हा आलेल्या उमेदवारांची मी मुलाखत घेण्यापूर्वी ती मुले माझीच मुलाखत घेतात. त्यांचे तीन प्रश्न ठरलेले असतात, पगार किती देणार ? सुट्टी केंव्हा असते ? आणि कामाचे तास किती ? पण कोणीही विचारात नाही की काम काय आहे ? त्यामुळे आता या मराठी मुलांचा भविष्यकाळ काय असेल या विचाराने माझा थरकाप होतो.

या सर्वाला आपण पालक जबाबदार आहोत असे वाटते. आपण आपल्या मुलांच्याभोवती अती सुरक्षिततेचे कवच निर्माण केले आहे. त्यांना जगाचा अनुभव घेण्यासाठी बाहेर फेकून द्यायला हवे. एकापत्य संस्कृतीत नको तेवढे मुलांना जपत आहोत आपण.  मागितले की सारे क्षणार्धात त्यांच्यासमोर हजर करत आहोत आपण त्यामुळे कोणतीही गोष्ट कष्टाने मिळवावी लागते हेच मुलांना माहीत नाही.

दोष मुलांचा नाही, आपला आहे. आपण कष्टात दिवस काढले, मुलांना कशाला त्रास हा विचार त्यांची भवितव्य बिघडवतो आहे हे आपल्याला कधी कळणार ? आज जेंव्हा रोज पिझा, बर्गर खाऊन थूलथूलीत झालेली अन कानात बुचे घालून मोबाईलसमोर वाकलेली मुले पाहतो तेंव्हा त्यांच्या पालकांनाच समुपदेशनाची गरज आहे असे वाटते.

लेखक : श्री अभय शरद देवरे.

प्रस्तुती : मोहन निमोणकर 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ डार्क वेब : भाग – 1 ☆ श्री मिलिंद जोशी ☆

श्री मिलिंद जोशी

? इंद्रधनुष्य ?

 ☆ डार्क वेब : भाग – 1 ☆ श्री मिलिंद जोशी ☆ 

(ही अतिशय महत्वपूर्ण माहिती देणारी लेखमाला दर सोमवारी आणि मंगळवारी प्रकाशित होईल) 

मी महाविद्यालयात शिकत असताना लोकांमध्ये संगणकाबद्दल खूप आकर्षण होते. कारण त्याबद्दल फारशी माहिती नव्हती. मी असेही अनेक महाविद्यालयात शिकवणारे शिक्षक बघितले आहेत जे म्हणायचे, “तुमच्या कांपूटरपेक्षा आमचे कालकूलेटर भारीये.” एक शिक्षक तर त्याही पुढे जाऊन म्हणायचे, “क्याम्पूटर लैच भारी असतो, बटन दाबलं का माहिती भायेर…” महाविद्यालयात शिकविणाऱ्या शिक्षकांची ही गत होती तर सामान्य माणूस कसा असणार? इथे मी त्या शिक्षकांना नावे ठेवत नाही. ठेवणारही नाही. कारण जे विषय ते शिकवत होते त्यात ते पूर्णतः पारंगत होते. आणि संगणक हा त्यांचा विषयही नव्हता. त्यावेळी मला तरी कुठे अंतरजालाबद्दल ( इंटरनेट ) काही माहिती होती? पण हे सांगायचा उद्देश इतकाच की संगणकाबद्दल इतके अज्ञान लोकांमध्ये होते. त्यामुळे त्याबद्दल कुतूहलही जास्तच.

त्यावेळी ‘हम आपके है कौन’ चित्रपट प्रदर्शित झाला होता. त्यातील नायिका, माधुरी दीक्षित हिच्या तोंडी एक वाक्य देण्यात आले होते. तिला विचारले जाते, “बाई गं, तू काय शिकतेस?” आणि ती सांगते “कम्प्युटर्स…” ( हे संवाद हिंदीत होते हं ) तिच्या तोंडी दिलेला तो शब्द ‘ती किती हुशार आहे’ हे सांगण्याचा प्रयत्न होता. आणि त्यात दिग्दर्शकाला यशही आले होते. 

१९९२ मध्ये शाहरुखखानचा एक चित्रपट आला होता. “राजू बन गया जंटलमन”. त्यात एक प्रसंग येतो. चित्रपटाचा नायक अभियंता ( इंजिनिअर ) म्हणून मुलाखत द्यायला जातो. मुलाखत घेणारे त्याला काही प्रश्न विचारतात. नायक आपली हुशारी दाखवत त्या लोकांनी केलेल्या आधीच्या कामात ५ करोड रुपये कसे वाचवता आले असते हे सांगतो. मुलाखत घेणारे लगेच संगणकासमोर बसलेल्या यंत्रचालकाला (  कॉम्प्युटर ऑपरेटर हो ) विचारतात, ‘बाबारे, तुझा संगणक काय सांगतोय?” आणि संगणकासमोर बसलेला माणूस त्याच्या समोरील कळफलकावर ( कीबोर्ड ) आपली बोटे चालवतो. आणि सांगतो, ‘या व्यक्तीने सांगितलेले पूर्णपणे बरोबर आहे.’ हा चित्रपट श्रीरामपूरमध्ये १९९३ मध्ये मी बघितला होता. आणि तो प्रसंग बघून त्यावेळीही मला हसू आवरले नव्हते. का? अहो जी गोष्ट मुख्य अभियंत्याला जमली नाही, ती गोष्ट एक साधा यंत्रचालक अगदी आठ दहा सेकंदात सांगतो हे कितपत पटू शकेल? बरे हे सांगत असताना संगणकाच्या पडद्यावर काय दिसते तर ‘आज्ञावलींची यादी.’ ( फाईल लिस्ट ). त्यावेळी आम्ही ‘DIR/W’ ही आज्ञा संगणकातील आज्ञावलींची यादी बघण्यासाठी वापरत होतो. मग हसू नाही येणार तर काय? पण ही गोष्टही त्यावेळी प्रेक्षकांनी खपवून घेतली.

आता काळ बराच बदलला आहे. चित्रपटही जास्तीत जास्त लोकांचा विश्वास बसेल अशा गोष्टी दाखवू लागले आहेत. परवानगीशिवाय एखाद्याच्या संगणकाचा वापर करणाऱ्या ( हॅकिंग ) विषयावरील चित्रपट याचे चांगले उदाहरण आहे. पण त्याचसोबत युट्युबवर आजकाल असेही अनेक चलचित्र ( व्हिडिओ ) आपल्याला सापडतात, जे एकतर अर्धवट माहितीवर आधारित असतात किंवा काल्पनिक माहितीवर. आणि विशेष म्हणजे अनेक लोक आजही त्यावर विश्वास ठेवतात. अनेकांच्या मनात त्याबद्दल विनाकारण भीती निर्माण होते. याचे चांगले उदाहरण म्हणजे ‘काळेकुट्ट अंतरजाल’. ( डार्क वेब हो ) त्याबद्दलच्याच अनेक गोष्टी मी अगदी छोट्या छोट्या लेखांमार्फत वाचकांसमोर मांडायचा प्रयत्न करणार आहे. याचा उद्देश फक्त लोकांच्या मनातील विनाकारण भीती कमी करणे इतकाच असेल. 

(या आधीही काही जणांनी मला विचारणा केली होती की मी शक्य तितक्या मराठी शब्दांचा वापर का करतो? हे मी माझ्यासाठी करतो. माझा मराठी भाषेतील शब्दसंग्रह वाढावा यासाठीचा माझा हा प्रयत्न आहे.)

– क्रमशः भाग पहिला 

©  श्री मिलिंद जोशी

वेब डेव्हलपर

नाशिक

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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