English Literature – Weekly Column ☆ Witful Warmth#9 – Just Another Sunday ☆ Dr. Suresh Kumar Mishra ‘Uratript’ ☆

Dr. Suresh Kumar Mishra ‘Uratript’

Dr. Suresh Kumar Mishra, known for his wit and wisdom, is a prolific writer, renowned satirist, children’s literature author, and poet. He has undertaken the monumental task of writing, editing, and coordinating a total of 55 books for the Telangana government at the primary school, college, and university levels. His editorial endeavors also include online editions of works by Acharya Ramchandra Shukla.

As a celebrated satirist, Dr. Suresh Kumar Mishra has carved a niche for himself, with over eight million viewers, readers, and listeners tuning in to his literary musings on the demise of a teacher on the Sahitya AajTak channel. His contributions have earned him prestigious accolades such as the Telangana Hindi Academy’s Shreshtha Navyuva Rachnakaar Samman in 2021, presented by the honorable Chief Minister of Telangana, Mr. Chandrashekhar Rao. He has also been honored with the Vyangya Yatra Ravindranath Tyagi Stairway Award and the Sahitya Srijan Samman, alongside recognition from Prime Minister Narendra Modi and various other esteemed institutions.

Dr. Suresh Kumar Mishra’s journey is not merely one of literary accomplishments but also a testament to his unwavering dedication, creativity, and profound impact on society. His story inspires us to strive for excellence, to use our talents for the betterment of others, and to leave an indelible mark on the world. Today we present his satire Just Another Sunday

☆ Witful Warmth # 9 ☆

☆ Satire ☆ Just Another Sunday ☆ Dr. Suresh Kumar Mishra ‘Uratript’

It was yet another Sunday morning, and the clock had barely struck eight. Mr. Sharma, a mid-level manager with a belly more notable than his job title, and Mrs. Sharma, a seasoned school teacher who dealt with pre-teens and their tantrums all week, were facing the ultimate challenge – the cluttered battleground they called home.

With his overgrown spectacles perched atop his nose and a cup of ginger tea in hand, Mr. Sharma sighed deeply, “Honey, do you see how messy our house looks? But what can we do? We are ‘financially enslaved’.” Mrs. Sharma nodded in agreement as if the couch itself was the throne of their kingdom trashed.

Sitting on a half-broken chair they never managed to fix, Mr. Sharma declared, “Our house is as inviting as a landfill. Every day, our own belongings greet us like long-lost relatives wanting to stay indefinitely.”

Adding to the ambience, the dusty dressing table stood like a relic from a haunted mansion. “We practically live as guests in our own Airbnb home,” groaned Mr. Sharma. Mrs. Sharma’s silence was accentuated by the loud banging of her morning utensils, showcasing her agreement without uttering a word.

A moment of enlightenment occurred. “Next Sunday, we shall clean the house!” declared Mr. Sharma, as if rallying troops for the final battle. A grand list was created, listing out their ‘warrior tasks.’ Mr. Sharma allocated himself the task of tidying the tea table and organizing the newspapers, while Mrs. Sharma was given the kitchen, the dressing table, and the storeroom. Oh, the modern-day Hercules and his relentless Hydra!

“Wake up on time, have toast and tea quickly, and then jump into action. You’ll get a second cup of tea and some biscuits only after you finish half the work,” ordered Mrs. Sharma, invoking the spirit of a taskmaster.

Sunday dawned with the alarm’s shrill cry. Mr. Sharma, immediately rising, gave a smug look to the sleeping Mrs. Sharma. An attempt to awaken the sleeping dragon was met with growls, so he let her be and took upon himself to make the morning tea – an act that involved more spilling than filling.

As he prepared to dive into the perilous pile of newspapers, his eyes caught a glimpse of their wedding album beneath the table. “Hey, look what I found! It’s like finding the elixir of life!” he exclaimed, like an archaeologist discovering a mummy. His enthusiasm was enough to bring Mrs. Sharma to his side, and time flew by as they lost themselves in the sepia-tinted nostalgia.

When reality hit and bellies rumbled, they broke the trance with baingan bharta and jowar roti, crafted with love by Mrs. Sharma.

Tasks remained unfinished, and Sunday slipped away, making way for the relentless Monday. As dawn broke, Mr. Sharma, with a hot cup of tea in hand, approached Mrs. Sharma standing gloomily on the balcony. “What’s wrong, my queen?” he asked with a mix of mockery and concern.

“Today again, all chores remain incomplete!” she lamented. Mr. Sharma chuckled, “No worries, there’s always another Sunday!”

“True, my irreplaceable partner. But this routine is as immutable as your potbelly,” replied Mrs. Sharma, casting a half-hearted smile. The pitiless wheel of weekdays began turning again, engulfing them in its relentless grind.

And so, time continued its indifferent journey. The Sharmas, forever stuck in their Sisyphean task, never managed to completely clean their home. Each Sunday, they remained entangled in their self-created labyrinth of aspirations, witnessing the same futile routine, over and over, till they were both too worn out to care. The house remained a silent testament to their unfulfilled promises – a never-ending satire of their lives.

© Dr. Suresh Kumar Mishra ‘Uratript’

Contact : Mo. +91 73 8657 8657, Email : [email protected]

≈ Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ कुडोज़ टू कविता ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार ☆

डॉ प्रतिभा मुदलियार

☆ आलेख ☆ कुडोज़ टू कविता ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार ☆

कल एक कार्यक्रम में गयी थी। अपने शहर आने के बाद एक बात अच्छी यह हुई है कि यहाँ अकादमिक कार्यक्रम होते रहते हैं और मन खुश रहता है। कल ऐसे ही एक कार्यक्रम में गयी और मन प्रसन्न हो गया। कविता और सूरों का सुंदर मिलन! कार्यक्रम था तो कविता पाठ का लेकिन जिस नाटकियता के साथ प्रस्तुत किया गया वह अपनी एक नवीनता लिए था। वैसे महाराष्ट्र में साहित्य और कला का जो मेल हमें देखने मिलता है वह बहुत ही न्यारा है। खैर, कल का जो कार्यक्रम था उसका शीर्षक ही मन को भा गया.. भाई.. एक कवितेचा शोध। अर्थात भाई मतलब पु, ल देशपांडे।  मराटी साहित्य के दिगज्ज साहित्यकार!मराठी साहित्य जगत में उनका संबोधन पु. ल ही है। इस कार्यक्रम की थीम भी अनुठी थी। इसमें पु. ल. और उनकी पत्नी सुनिताबाई,  दोनों ने मिलकर कविता की जो खोज अपने पुस्तकों के बीच करते है और उस खोज में वे दोनों किसतरह अपनी स्मृति यात्रा में खो जाते हैं उसका लेखा जोखा कविता के माध्यम से करते हैं..इसकी अप्रतिम प्रस्तुति की गई थी। कार्यक्रम की प्रस्तुति, मुक्ता बर्वे का कविता पाठ और उसकी अभिनेयता दिल को खुश कर गयी। कविता हमारे जीवन का अहम हिस्सा है यह बात कितनी सहजता से स्वाभाविकता से इन कलाकारों ने रसिकों तक पहुँचायी… इसके लिए कलाकारों को कुडोज़!! रादर कुडोज़ टू कविता!

पिछले कुछ दिनों से गुलज़ार की जीवनी पढ़ रही हूँ.. और उनके के साथ उनकी नज़्मों की दुनिया में पहुँच रही हूँ। इसलिए मन का विश्व कविता और नज़्मों से सराबोर है। कलवाले कार्यक्रम के कारण कविता मेरे दिलो दिमाग पर लहरा रही है। आज के इस आपाधापि के जीवन में अंतर्मुख करने के लिए कविता एक बहुत बड़ा माध्यम है, जिसका एक सिरा लेकर हम बहुत दूर की यात्रा कर आते है। पता ही नहीं होता कि वह हमें कहाँ कहाँ ले जाती है। पता नहीं किस क्षितिज की यात्रा करा देती है। सुबह शाम के रंग दिखा देती है और दोपहर की कड़ी धूप में हमें ठडंक भी पहुँचाती है। एक अच्छी कविता दिन बना देती है।

कल वॉटसअप पर आयी एक लंबी कविता मेरे भाई ने मुझे फॉरवर्ड की थी और बार बार पूछ रहा था कि क्या, ‘तुमने कविता सुनी’? उसके कहने पर सुनी भी। कविता अच्छी ही नहीं बेहतर भी थी। कविता-पाठ भी बढ़िया था। कविता का भाव यही था कि हमारे जीवन की किताब का पहला पन्ना और आखरी पन्ना तो पहले से लिखा गया है पर इसके मध्य के सारे पन्ने हमें लिखने होते हैं। कितना निरिह है मेरा भाई, मुझे कह रहा था तुम लिख दो वह सारे खाली पन्ने!  मैं! दरअसल हमारे जीवन के सारे खाली पन्ने हमें खुद ही लिखने होते हैं, क्रिएट करने होते हैं। कोई किसी के जीवन का खालीपन भले ही थोड़ी देर के लिए भर दे पर उसके जीवन के कोरे कागज़ पर लिखता तो वही है। खैर, जहाँ तक क्रिएशन … रचनात्मकता की बात है तो सोशल मीडिया से लोग रचनात्मकता से अवगत हो रहे हैं। युवा कलाकारों को, जिनके अंदर एक रचयिता छूपा बैठा है उनको अपनी प्रतिभा प्रदर्शित करने का अच्छा प्लैटफॉर्म मिला है।  इक्कीसवीं सदी में तंत्रज्ञान इतना विस्तार पा गया है कि कुछ लोगों का मानना है कि अब हमारे भीतर का निर्झर सूखता चला जा रहा है। हर उठती उँगली के साथ एक रील देखना और देखते चले जाना यह प्रवृत्ति रचनात्मकता को रिप्लेस करती जा रही है। यह बात सही होने है पर भी इसके साथ ही एक और सच्चाई यह भी है कि इसी तंत्रज्ञान का उपयोग कर आज की युवा पीढ़ि अपनी रचनात्मकता को आगे भी ला रही है। उनकी ‘स्टैंडअप कविता’ मन को छू जाती है। आज युवा वर्ग अपने तईं  अपनी रचनात्मकता बनाए रख रहा है। भले ही उनके प्रतीक, बींब, शैली शिल्प अलग है.. और होने भी चाहिए… नया प्रयोग तो होता ही आया है और साहित्य का कहन तो समय के रहते बदलता ही है और बदलता आ ही रहा है… किंतु वे जुड़े तो है ना लेखन से और लेखनी से…अगर मैं खुद को करेक्ट करूँ तो की-बोर्ड पर अपने फिंगर टीप से…या उससे भी आगे जाकर कहें तो मोबाइल पर अपनी उंगलियाँ चलाकर क्रिएशन करने में। हाँ और एक बात ..अब तो वह ज़माना भी लद गया जह क़ॉपि, डायरी या पेपर लेकर कविता पढ़ी जाती थी… अब तो मोबाइल के स्क्रीन के माध्यम से कविता पाठ होता है….क्यों न हो… यंत्रों का किया जानेवाला सहज उपयोग है यह! आज पुरानी पीढ़ी भी तो उसका महत्व समझ रही है… कागज़ का उपयोग भी कम ही है…। खैर,

यहाँ एक उदीयमान युवा कवियों का मंच है, जहाँ तक मुझे पता है यह बच्चे कुल बीस पच्चीस साल के होंगे जो कविता का पाठ करते है.. खुद की… हिंदी, मराठी, कन्नड और अंग्रेजी भाषा में अपने भाव पिरो देते है… और अपना कविता की प्रस्तुति करते हैं…अच्छा है न…। मुझे खुशी इस बात की है कि कविता आज भी इस यंत्र विश्व में अपना स्थान लिए है… आखिर इन्सान को अपनी भावनाएँ अभिव्यक्त तो करनी ही होती है न… उसके लिए शब्दों की आवश्यकता है ही… इसलिए चाहे कुछ भी हो जाए कविता लुप्त नहीं होगी…इसका भरोसा है। कविता हमारे हाथों से छूटती चली जा रही है यह कहना ही सही नहीं है.. भले ही हम कितने ही खिन्न, अकेले या व्यस्त क्यों न हो कविता ही हमारे भीतर उत्साह  भर देती है। आज के व्यस्ततापूर्ण जीवन में अंजुली में जुही के फूलों को लेकर सुंघने का भी समय नहीं है पर ऐसे में भी कविता हमें अंदर से संपन्न बना देती है, उसके मात्र स्पर्श से मन खिल जाता है।

गुलज़ार कहते हैं,

मुझसे एक नज्म का वादा है, मिलेगी मुझको

डूबती नब्जों में जब दर्द को नींद आने लगे।

दर्द और कविता का पता नहीं क्या रिश्ता है। कितना बड़ा सवाल है कि कविता का जन्म कैसे होता है… पंत तो कहकर गए वियोगी होगा पहला कवि…और शेले ने टी ए स्काईलार्क कविता में कहा है कि  ‘हमारे सबसे मधुर गीत वे हैं जो सबसे दुखद विचार बताते हैं।’ कितना विरोधाभास है न कि तीव्र दुख अक्सर तीव्र खुशी से पहले होता है, और हमारी सबसे गहरी भावनात्मक अभिव्यक्तियाँ अक्सर हमारे सबसे गहरे दुखों से निकलती हैं। मुझे अक्सर लगता है कि कविता के माध्यम से हम खुद से बात करते हैं..अपनी भावनाएँ उतार देते हैं.. पंक्ति दर पंक्ति… और कहीं अपनी ही  भावनाओं के बोझ से रिक्त भी होते जाते हैं… धूमिल ने एक जगह बहुत अच्छी बात कही है, …

कविता

घेराव में

किसी बौखलाए हुए आदमी का

संक्षिप्त एकालाप है।

तो रघुवीर सहाय को कविता को हलफनामा कहते हैं,

कविता शब्दों की अदालत में

मुज़रिम के कटघरे में खडें

बेकसूर आदमी का

हलफनामा है।

वास्तव में कविता एक हलफनामा ही है, जहाँ हम अपने मनन, चिंतन और  रुदन भी शब्दबद्ध कर देते हैं। कुछ पांच छह साल पहले प्रसून जोशी की एक कविता पढ़ी थी.. उसका शीर्षक ही था,.. क्या है कविता.. प्रसून लिखते हैं, “कविता एक दृष्टि देती है। जो दूसरों को नहीं दिख रहा, उसके पार देख लेना कविता है।” कविता क्या है इसको समझाते हुए उन्होंने एक बेहद उम्दा कविता लिखी है। उस कविता की अंतिम पंक्तियाँ मुझे अच्छी लगी थी… 

दो घड़ी ठहर कर 

जीवन की नदी को 

बहते देखना है 

कविता वहीं कहीं है। 

कविता क्या है के बारे में हर रचनाकार सोचता है कि क्या है वह? हर एक के लिए वह कुछ न कुछ होती है.. बहुत कुछ होती है..शायद उससे अधिक कुछ। मेरे लिए वह एक संवाद है….खुद से…उसके माध्यम से ही मैं बात करती हूँ… कभी खुद से तो कभी तुम से। इसलिए एकालाप कहूँ या फिर संवाद!  पर वह है इसलिए मन का संतुलन भी है। इसलिए प्रिय कविते! कुडोज़!!

*********                          

©  डॉ प्रतिभा मुदलियार

पूर्व विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग, मानसगंगोत्री, मैसूरु-570006

मोबाईल- 09844119370, ईमेल:    [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 400 ⇒ सदा दिवाली संत की… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सदा दिवाली संत की।)

?अभी अभी # 400 ⇒ सदा दिवाली संत की? श्री प्रदीप शर्मा  ?

क्या आपने कभी संतों को दीवाली मनाते देखा है, अथवा किसी भूखे को उपवास करते देखा है। आम आदमी ना तो रोज दशहरा दिवाली मना सकता है और ना ही सप्ताह में चार चार दिन व्रत उपवास रख सकता है। एक भूखे का तो यूं ही रोज उपवास रहता है, ठीक उसी तरह संतों की भी रोज दिवाली रहती है।

कबीर हमें यूं ही नहीं याद आ जाते ;

सदा दिवाली संत की, बारह मास बसंत।

प्रेम रंग जिन पर चढ़े, उनके रंग अनंत।।

आप मानें या ना मानें, जबसे हमारी मध्यप्रदेश सरकार ने लोकसभा में शत प्रतिशत सफलता 29/29 पाई है, उस पर होली और दिवाली दोनों का रंग एक साथ चढ़ गया है। हम एम पी वाले अपनी खुशी बर्दाश्त नहीं कर पा रहे। कबीर की मस्ती हम पर दिन रात छाई रहती है और हमारी इसी स्थिति को देखकर हमारी सरकार ने रात को भी दिन में बदलने का निर्णय लिया है, अब एम पी के कुछ शहर 24×7 जागते रहेंगे।

वैसे तो स्मार्ट शहर कभी सोते नहीं। अब तक तो हमने केवल बंबई(मुंबई) को ही रात की बाहों में देखा था, अब हमारे इंदौर सहित कुछ प्रदेश भी आपका रात की जगमगाती रोशनी में बाहें फैलाकर आपका स्वागत करेंगे।।

हमें इंदौर के वे पुराने दिन अनायास ही याद आ गए, जब कपड़ा मिलों की चिमनियां लगातार धुंआ उगलती थी, और मिलों के सांचे कभी रुकने का नाम नहीं लेते थे। मिल मजदूरों के कारण पूरा इंदौर रात भर जागता रहता था। होटलें और चाय की दुकानें कभी बंद ही नहीं हो पाती थी।

दिवाली की रोशनी और होली और रंग पंचमी की रंगारंग हुड़दंग छोड़िए, गणेशोत्सव का दस दिन का उत्साह अपनी जगह, और अनंत चतुर्दशी के रोज तो पूरा इंदौर रात भर जागता रहता था। आसपास के शहर, गांव और कस्बों की भीड़ की भीड़ मिलों की झांकियां और अखाड़ों के प्रदर्शन के लिए दौड़ी पड़ती थी। इंदौर के छविगृह भी सुबह से देर रात तक विशेष शोज़ चलाते थे। प्रदेश का एकमात्र शहर था इंदौर जहां उस दिन रतजगा रहता था।।

घरों में तो लोग रात रात भर जाग ही रहे हैं, टीवी मोबाइल और इंटरनेट कहां किसी को आजकल सोने देता है। आज की युवा पीढ़ी रात को तीन बजे सोती है, कभी किसी का जन्मदिन तो कभी रात रात भर पढ़ाई। घर घर रात भर डीजे की आवाज सुनी जा सकती है और बेचारा जोमैटो वाला रात को बारह बजे तक होम डिलीवरी किया करता है, पिज्जा, पास्ता, केक, पेस्ट्री और मन्च्युरियन की। देशी विदेशी का अपना अपना नशा है।

अब घरों में शांति रहेगी, बाहर जाइए रात भर एन्जॉय कीजिए, जो लोग घरों में आठ घंटे चैन की नींद सीना चाहते हैं, उनके लिए यह खुशखबर है।

सरकार भी खुश आप भी खुश। संत और आज की युवा पीढ़ी अपने अपने हिसाब से दिवाली और वसंत मना रहे हैं। इधर हम भी दोनों नावों में सवार होना चाहते हैं, झूठ क्यूं बोलें ;

साक़िया, आज मुझे नींद नहीं आयेगी।

सुना है तेरी महफ़िल में

रतजगा है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 183 ☆ # “कोई वजह तो होगी” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “कोई वजह तो होगी ”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 183 ☆

☆ # “कोई वजह तो होगी” #

तुम्हारे दिल में

थोड़ी सी जगह तो होगी

मुझे देखकर मुस्कुराने की

कोई वजह तो होगी

 

माना के तुम्हें कत्ल

करने की छूट है

पर मेरा ही कत्ल करने की

कोई वजह तो होगी

 

तुम्हारी आंखों में

छुपी हुई है चमकती बिजली यां

मेरे ही नशेमन पर गिराने की

कोई वजह तो होगी

 

अभी अभी तो

हम मीले है राह में

इतनी जल्दी बिछड़ने की

कोई वजह तो होगी

 

मोबाइल के जमाने मे

यह कैसी झिझक है

‘ मिसकॉल ‘ करके बुलाने की

कोई वजह तो होगी

 

सबसे अलग है

तुम्हारी ये अदायें

‘ श्याम ‘ के तुम पे मरने की

कोई वजह तो होगी /

*

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – वक्त ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता वक्त…‘।)

☆ कविता – वक्त…☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

बिसर गया, कि बिसार दिया,

वक्त ही तो था.

गुजर गया, कि गुज़ार दिया,

वक्त ही तो था.

 

कितने अनजान,अपने बने,

कितने अपने, अनजान बने,

समझ गए, कि समझा गया,

वक्त ही तो था.

 

स्मृति भी अजीब है,यादों की,

धागों की तरह,उलझी थीं,

मिट गई, कि मिटा दिया,

वक्त ही तो था.

 

सभी तो साथ थे,सफर में,

साथ ही चले थे मगर,

किसने थामा,किसने गिरा दिया,

वक्त ही तो था.

 

राज की ही तो बात थी,

राज ही रखना थी मगर,

आसुओं से खुल गया था,

 वक्त ही तो था.

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हलधर… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

श्री तुकाराम दादा पाटील

? कवितेचा उत्सव ?

☆ हलधर… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

कोण मारतो फुंकर आहे

विझत चालल्या अंगारावर

चिथावणीने  नाचत  होते

कुडामुडाचे थकलेले घर

*

संध्याकाळी मावळतीला

तुफान झाले होते वादळ

आभाळाला कळले नाही

तारे  होते  फिरले गरगर

*

दिवस उगवला प्रभात झाली

डोंगर  माथा  बघत  राहिला

चमकत होती  पूर्व दिशेने

पांघरलेली  भगवी  चादर

*

दवात भिजल्या पानफुलांनी

हार  घातले  गळ्यात  सुंदर

भिडला  वारा  आनंदाने

दवमोत्यांची झाली थरथर

*

भिजली माती रानामधली

स्वागतकरण्या तयार झाली

ताडमाड ही  उभे  ठाकले

झुकवत माथा राखत आदर

*

हासत खेळत अखंड होते

बरसत पाणी आभाळाचे

रानामधल्या दगडाला ही

मग मायेचे फुटले  पाझर

*

तेज धरेवर येते तेव्हा

माणसातला फुलतो मानव

मरगळलेला जीव येथला

उत्साहाने  होतो नवथर

*

घामगाळतो मातीवरती

 करतो सेवा तिची निरंतर

स्वतंत्रतेने अविरत राबत

अभिमानाने जगतो हलधर

© प्रा. तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 179 ☆ पाऊस तुझा नि माझा… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 179 ? 

पाऊस तुझा नि माझा… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

पाऊस तुझा नि माझा

तफावत खूप आहे

तुज आवडे रिमझिम

माझे मन, त्यात नं राहे.!!

*

पाऊस तुझा नि माझा

एकच छत्री मला हवी

त्या पावसात सोबती

मज बिलगून तू रहावी.!!

*

पाऊस तुझा नि माझा

कधीच सोबत येत नाही

मी पाहतो वाट तुझी अन्

पाऊस माझा, अंत पाही.!!

*

पाऊस तुझा नि माझा

खेळतो पाठशीवणीचा खेळ

गरम गरम चहा पिण्यातच

जातो मग आपला वेळ.!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – काव्यानंद ☆ भिंगरी घर… – सौमित्र ☆ रसग्रहण – श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? काव्यानंद ?

☆  भिंगरी घर… – सौमित्र ☆ रसग्रहण – श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

आज आपण एक आगळीवेगळी कविता या ठिकाणी पाहणार आहोत… जीवन स्थिर नसतं,पण आपल्याला स्थैर्य हवं असतं… तुम्ही आम्ही सर्व जण कधीच एका जागी स्थिर असत नाही… सतत फिरते … प्रगती विकास च्या नावाखाली हलत राहतो… कधी स्वता तर कधी दुसरा आपल्याला हलवत असतो… गती देत असतो… जशी गती मिळते तेव्हढं आपण स्वता भोवती गिरकी घेत राहतो..

स्वताच्या पायावर उभे राहतो काही क्षण… गती संपताच आपण कलडूंन पडतो..पायाच नसल्या सारखं… एखादी भिंगरी सारखं…. होय आपण ओळखलंत .. कवि सौमित्र यांची भिंगरी घर या कवितेबद्दल बोलतोय…

☆ भिंगरी घर ☆

आधी घर छोटं होतं म्हणून तू बाहेर झोपायचास

नंतर डोक्याला शांतता हवी म्हणून बाहेर असायचास

*

मग गेले वडील तेव्हा त्यांची जागा तुझी झाली

काही दिवसांनी भावाचं लग्न,त्याची बायको घरात आली

गुपचुप उचललास बिछाना आणि हळुच देऊळ गाठलंस

फुटपाथ रस्ता देऊळ दुकान यानांच आपलं मानलंस

*

अचानक मग अधून मधून तू शहराबाहेर जायचास

एकटा एकटा एकटा फिरून पुन्हा परत यायचास

*

पैसे देऊन हक्काची जागा हाॅटेलमधे शोधायचास

काही दिवस काही रात्री काॅंफीडंटली वागायचास

*

एक दिवस प्रेमात पडलायस असं कुठुन कळलं

तुझं सारंच आठवलं अन् काळीज उगाच जडलं

*

एका जागी स्थिरावणार,तू याचंच हायसं वाटलं

शेवटी एकदाचं तुझ्या हक्काचं कुणी तुला भेटलं

*

आणि मग तू लग्न केलंसन घर घेतलस स्वत:च

खरंच खूप छान केलंस,ऐकलंस फक्त मनाचं

*

मग एक दिवस आई म्हणाली,’घर मोठ्ठं आहे तरी?’

तुझी बायको म्हणते,तू अधूनमधूनच असतोस घरी?

*

अंग थरथर कापू लागलं जीभ माझी कोरडली

आईनं हातात पट्टी घेतली,आई माझी ओरडली

*

सांग…सांग तुझी जागा तू कुठे जाऊन फेकलीस?

अशी कशी भिंगरी बाळा पाया लावून घेतलीस?

… छोट्या घरात राहणाऱ्या मोठ्या कुटुंबाची कहाणी… झोपायची अडचण … वडीलधारी मंडळी घरी झोपावीत म्हणून बाहेर झोपणारा मी सतत दुसऱ्याची सोय बघत गेलो… वडील गेले नि घरात जागा झाली हक्काची काही क्षणाची… भावाने लग्न केले मुहूर्तावर बायको आली घरी नि माझी वरात फिरून दारी…पाहता पाहता त्या निरंकुशतेच्या कुशीत शिरलो… तिनं दाखवले ते आकर्षणाचं जगं… एक जागा अशी राहिली नाही सतत बदलत गेलो… फुटपाथ रस्ता देऊळ दुकान सगळा फुकटचा आणि उघडयावरचा कारभार… मग शहाराची लागली चटकं.. ते सुख सुखासुखी सोडवत नव्हते… कधी खिसा गरम असला तर चार पैसे टाकून हाॅटेलच्या गादीवर रात्र काढू लागलो बिनधास्त…

… प्रेमाचं बिंग फुटलं,.. आईला बरंच वाटलं..चंचलेला लगाम बसेल .. मी स्थिर होईन हि आशा वाटली… हक्काची सावली मिळणार होती… लग्न हि झालं तसं स्वताच घरही झालं… आता भिरभिरणाऱ आयुष्य संपलं असं त्यांना वाटलं…. पण ते माझं मन मला कासाविस करू लागलं… हक्काचं ते असून बाहेरचं सुख सुखासुखी सोडवत नव्हते…बायकोची तडफड आईला समजली… फैलावर घेत ती मला म्हणाली… घर असताना का भिकेचे डोहाळे लागले…. भिंगरी लावून घर घर का भिरभिरतोस … आता तरी स्थिर हो…

भिंगरीचं घर रुपक  सतत दुसऱ्यानं गती दिली तर फिरते… तेव्हा ती स्वताचं भान हरपते.. स्वताच्या पायावर तोल सा़भाळते स्थिर दिसते पण गती संपताच कलंडून कोलमोडून पडते… पायाच नसल्या सारखी.. अडगळीत पडल्या प्रमाणे…  माणसं भि़गरी सारखी गरगर फिरतात स्वताच्या जीवनामध्ये … स्थैर्य हवं असतं म्हणून… कुणाला लाभलं असं वाटतं तर कुणाला नाही … साराच भासआभासाचा खेळ असतो तो….

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “भिती…” ☆ श्री कौस्तुभ परांजपे ☆

श्री कौस्तुभ परांजपे

? विविधा ?

☆ “भिती…” ☆ श्री कौस्तुभ परांजपे ☆

नुसता विचार आला की मनात येणारी, वाटणारी, आणि आपल्याच अवतीभोवती पिंगा घालणारी. आणि विचार थांबवला की हळूहळू कमी होणारी एक अदृश्य गोष्ट म्हणजे भिती.

लहानपणी गंमत म्हणून कोणीतरी दाखवलेली भिती नंतर पाठ सोडत नाही. खरंतर पाठ काय, ती आपल्यालाच सोडत नाही. सतत वाटत नसली आपल्याला वाटते तेव्हा ती अवतीभवतीच फिरत असते. बटन दाबल्यावर चटकन दिवा लागावा, तशीच ती विचार केला की तात्काळ येते. पण बटन बंद केल्यावर दिवा लगेच बंद होतो, तशी मात्र ती लगेच जात नाही.

फटाका फुटल्यानंतर त्याचा वास काहीकाळ तसाच राहतो. तसाच विचार बंद केल्यावरही भिती काहीकाळ मनात रेंगाळते.

भितीची कारणं, वेळ, प्रसंग हे वेगवेगळे असतात. वयानुसार हि कारणं बदलतात सुध्दा. पण संबंध असतो तो विचारांशी.

धडपडणं, लागणं ही जी भिती मोठेपणी असते, ती कदाचित लहानपणी जवळपास सुध्दा फिरकत नाही. कारण तशा भितीचा विचारच नसतो. पण अंधार, अभ्यास, परिक्षा, रिझल्ट, मिळणारे मार्क हि लहानपणची साधीसाधी कारणं असतात. कारण हा विचार मनात आला नाही तरी याचा विचार कर…… असं कोणीतरी सांगत असतं.

नौकरी, नुकसान, फसवणूक, चोरी, अपयश, हि कारणं वाढत्या वयात येतात.

प्रवास, कार्यक्रम या गोष्टी व्यवस्थित पार पडतील नां… वेळेवर काही गोंधळ होणार नाही नां… अशी भिती त्या त्या वेळी असतेच.

मन लाऊन आणि व्यवस्थित केलेला पदार्थ सुध्दा… काही वेळा चवीसाठी दिला जातो. आणि कसा झाला आहे?… हे विचारतांना तो चांगला झाला असेल याची खात्री असली तरी पण… मनात एक भिती असते.

उतारवयात तर म्हातारपण हिच भिती त्यांच्या बोलण्यात जाणवते. यात अतिवेग, मोठ्ठा आवाज यांचीपण भिती वाटते.

राजकारण, व्यवसाय, पेशा अशा वेगवेगळ्या क्षेत्रात काम करतांना सुध्दा एक प्रकारची भिती वाटत असते.

एकच भिती कायम असते असंही नसतं. ती बदलते सुध्दा. आणि हा भितीचा बदल विचारांबरोबर बदलत असतो.

राजकीय भिती, सुरक्षेची भिती, सामाजिक घडामोडींची भिती, देशांतर्गत व आंतरराष्ट्रीय स्तरावरील भिती वाटतेच. पण पाल, विंचू , झुरळ, साप असे काही प्राणी. कोसळणाऱ्या पावसात कडाडणारी वीज. दहीहंडीसाठी केलेला उंच मानवी मनोरा. यांची सुध्दा भिती वाटते. जेवढे विषय तेवढी भिती.

आपल्या मनातली भिती दुसऱ्याला सागितल्यावर कधी कधी तो आपल्याला सावरतो. पण कधी त्याच्याही मनात तीच भिती निर्माण होते ज्याचा त्याने अगोदर विचारच केलेला नसतो.

थोडक्यात, भिती हि हाॅटेल मधल्या मेनू कार्ड सारखी असते. म्हणजे मेनू कार्डवर बरेच पदार्थ असतात, तशीच भितीची अनेक कारणं असतात. मेनू कार्ड वाचून हे पदार्थ आहेत हे समजतं . पण ते चविला कसे, आणि प्लेटमध्ये म्हणजे quantity किती असेल ते काहीवेळा माहीत नसतं. तसंच भितीच काहीवेळा असतं. नक्की कशी, का, आणि किती वाटते हे समजत नाही. पण ती वाटते.  हाॅटेल मधले पदार्थ आपण मागवले तरच मिळतात. तसंच भितीचं आहे, विचार केला तरच ती वाटते…….. केलाच नाहीतर…

आनंदी आनंद गडे…

“भय इथले संपत नाही.” किंवा “शूर आम्ही सरदार आम्हाला काय कुणाची भिती.” या सारख्या गाण्यांवरुन कवींना सुध्दा भिती या शब्दाची भुरळ पडल्याचं लक्षात येत.

©  श्री कौस्तुभ परांजपे

मो 9579032601

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ दोन बोधकथा : विकतची डिग्री / आंधळे प्रेम ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल ☆

सुश्री वर्षा बालगोपाल 

? जीवनरंग ?

☆ दोन बोधकथा – विकतची डिग्री / आंधळे प्रेम ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल 

(१) विकतची डिग्री 

अतिशय श्रीमंत बापाचा सुमेध एकुलता एक मुलगा. काही म्हणजे काहीच कमी नव्हते त्याला.म्हणेल तेव्हा म्हणेल ते, ज्यावर बोट ठेवेल ती गोष्ट त्याला मिळत होती.

दिवसेंदिवस त्याच्या मागण्या वाढत होत्या आणि त्या तत्परतेने पूर्ण करण्यात आई बाप स्वतःला धन्य मानत होते.

सहाजिकच सुमेध हेकेखोर तर झालाच पण अभ्यासात ही त्याचे लक्ष लागतं नव्हते. कसाबसा पास होत तो दहावीत पोहोचला. पण परीक्षेच्या वेळी तो घाबरला. आता कसे होणार? पण वडिलांनी त्याला फक्त परिक्षा दे म्हणून सांगितले आणि मग पैशाच्या बळावरच तो पास झाला. त्याला सायन्सला ऍडमिशन मिळाली. दहावीचाच कित्ता पुढे गिरवला गेला आणि तो बारावीच नाही तर डॉक्टरही झाला.

पैसा असल्याने त्याला मोठे हॉस्पिटल बांधून दिले. आणि मग काय डिग्री हातात, मोठे हॉस्पिटल नावावर कोणताही पेशन्ट आल्यावर त्यावर स्वतः उपचार न करता या डॉकटरकडे त्या डॉक्टरांकडे पाठवायचे आणि पेशंटला लुटायचे अशी प्रॅक्टिस सुरु झाली.

एकदा सुमेधचे वडीलच खूप आजारी पडले. नातेवाईकांनी त्यांना सुमेधच्याच हॉस्पिटलमध्ये आणले.

वडिलांना पाहून सुमेधला रडू फुटले. रडत रडत तो बाबांना म्हणाला मला माफ करा बाबा. मी तुमच्यावर उपचार नाही करू शकत. तुम्हाला मी दुसऱ्या चांगल्या डॉक्टरांकडे पाठवतो. माझाच मित्र, त्याला माझ्यापेक्षा कमी डिगरी आहे पण त्याचे निदान एकदम बरोबर असते. तो स्वतः त्याच्या पेशंटना बरे करतो. आणि हो मी पाठवलेले पेशन्ट सुद्धा तो अगदी खडखडीत बरे करतो.

बाबांना सुद्धा लक्षात येते.’ केवळ डिगरी मिळवली म्हणजे ज्ञान मिळालेले असतेच असे नाही.’ 

वडील मित्राच्या हॉस्पिटल मधे जाऊन चांगले बरे होतात. मित्राचा हातगुण पाहून म्हणतात हेलिकॅप्टरने अती उंच शिखरावर पोहोचून शिखर सर केल्याच्या आनंदापेक्षा अवघड वाटेने स्वतःच्या मेहनतीने थोड्या कमी उंचीवर पोहोचले तरी ती उंची गाठल्याची किंमत ही वरच्या मुलापेक्षा जास्तच असते. पैशाने डिग्री मिळवता येते. ज्ञान नाही. पैशाने मिळवलेली डिग्री लोकांच्या प्राणासाठी घातकही ठरू शकते.

(२) आंधळे प्रेम 

सुखवस्तु कुटुंबात राहणारा सुशील. खुप हुशार, सगळ्यांचा लाडका पण थोडा खोडकर. त्याचा लहानसहान खोड्यांकडे अजून तो लहान आहे म्हणून दुर्लक्ष केले जाई. आजी तर म्हणे आमचा कृष्ण आहे तो. करू दे खोड्या.

प्रेमाच्या नादात कोणी त्याला समजावून सांगण्याच्या भानगडीत पडले नाही. किंबहुना त्याला समजावयाला गेले तर तो मुद्दाम जास्त खोड्या काढायचा. मग डॉक्टर पण म्हटले काही मुले असतात  व्रात्य, over active, पण नंतर समज वाढली की होतात शांत आपोआप.

असेच दिवस जात होते. मुलाच्या खोड्या काही कमी होत नव्हत्या. अचानक किरकोळ आजाराचे निमित्त झाले आणि सुशीलच्या वडिलांना देवाज्ञा झाली.

कुटुंबावर दुःखाचा डोंगरच कोसळला. आधीच खोडकर असलेल्या सुशीलवर सहानुभूतीचा दयेचा वर्षाव होऊ लागला. त्यामुळे तो निर्ढावू  लागला. छोट्या मोठ्या खोड्यांचे स्वरूप शेजाऱ्या पाजार्यांना त्रासदायक होऊ लागले. तशा तक्रारी त्यांनी आईकडे केल्या.

आई पण मोठ्या कंपनीत कामाला असल्याने आर्थिक बळ खूपच होते. आईला मुलाला आई आणि वडील दोघांचेही प्रेम द्यावे लागतं होते आणि ती ते द्यायचा पूर्ण प्रयत्न करत होती. याच भावनेतून तिला आपल्या मुलाला कोणी काही बोललेले सहन व्हायचे नाही. ती पैशाने त्या व्यवहारावर पाणी फिरवत होती.

मुलाने कोणाची गोष्ट तोडली, दे त्यांना नवी गोष्ट आणून, कोणाच्या घरातून पैसे चोरले, किती पैसे चोरले विचारून पैसे परतफेड करणे, कोणाच्या वळवणात पाणी ओतले एवढे नुकसान झाले का दे भरून…

कोणी काही मुलाला म्हणू नाही म्हणून आई सढळ हात ठेवत होती. त्याने शेजाऱ्यांचे समाधान होत नव्हते पण बाई माणसाला कसे सांगायचे, वडीलाविना पोराला वाढवतीय जाऊदे असे म्हणून सोडून देत होते.

असे करून एक प्रकारे आपण मुलाचे नुकसान करत आहोत हेच मुळी तिच्या लक्षात येत नव्हते. माझ्या मुलाला कोणी काही बोलायचे नाही, आमचे आम्ही पाहून घेऊ अशीच तिची भूमिका असायची.

दिवस, महिने, 5 वर्ष लोटली पण वागण्यात काहीच फरक नव्हता ना सुशिलच्या ना त्याच्या आईच्या. सोसायटीतले लोक पण मांजराच्या गळ्यात घंटा बांधणार कोण असा विचार करून गप्पच होते.

एक दिवस त्याने शाळेतल्या मुलीची छेड काढली. पोलिसांनी पकडून नेले पण वय जास्त नसल्याने कोणी त्याला मारलेही नाही. आईनेही येऊन मध्यस्थी केली पैसे देऊन हे प्रकरण मिटवले. पोलिसांनी कडक शब्दात समज देऊन त्याला सोडून दिले.

सुशील तर अजूनच निर्ढावला.आई त्याला चकार शब्दाने बोलत नव्हती. तिला पण त्रास होत होता पण बापाविना पोर वाढवायच्या नादात ती त्याला घडवत नव्हती.

शेवटी एक वयस्क बाई तिच्या आईसारखी असणारी तिने सुशिलच्या आईला सांगून बघायचे ठरवले.

सुट्टीच्या दिवशी दुपारी निवांतपणे त्या सुशीलकडे गेल्या. गप्पा मारता मारता सुशिलचा विषय काढला मात्र सुशिलची आई चवताळली. ती त्या आज्जीना काही बोलणार एवढ्यात एक शेजारी सुशीलची तक्रार घेऊन आले. पार्किंगमधल्या गाडीचा सायलेन्सर काढून त्याने आईच्या गाडीच्या डिकीत ठेवला होता. हे पाहून तक्रार करत असताना सुशीलही तेथे आला. त्याने मी काही केले नाही असे म्हणून ती गोष्ट उडवून लावली आणि नेहमीप्रमाणे आईने काही पैसे देऊन त्या शेजाऱ्याला गाडी दुरुस्त करून घे. पैसे कमी असतील तर अजून देईन सांगून त्याचे तोंड बंद केले.

शेजारी निघून जाताच आजीने सुशीलला आवाज दिला सुशील येताच त्यांनी आईला दटावायला सुरुवात केली आणि दटावताना एक आईच्या मुखात लगावून द्यायचे धाडसही दाखवले.

अनपेक्षित घटनेमुळे दोघेही सुन्न झाले. ते रागाने आजीकडे पहातच होते पण त्यांना बोलण्याची संधी न देताच आजीच बोलू लागली…

“ मला माहिती आहे तुम्ही माझ्यावर खूप रागावलाय. पण माझाही नाईलाज झाला आणि माझ्याकडून हे कृत्य घडले. सुशील बेटा चूक तुझी होती पण शिक्षा आईला झाली. कसं वाटलं रे तुला?” 

सुशील तर पार चक्रावून गेला होता. पण घाव वर्मी बसला होता आपल्यामुळे आपल्या आईला शिक्षा झाली हे त्याने पहिल्यांदाच पाहिले होते. ते त्याच्या मनाला एकदम लागले. तो फक्त डॊळे मोठे करून पहात बसला.

आई म्हणाली “ काय हो मला का मारलेत? मी काय केलं? “ तसे आजी म्हणाली “ तू आंधळं प्रेम केलंस. आपल्या पोराने चूक केली आहे हे समजून सुद्धा दरवेळी त्याला पाठीशी घातलंस. त्याच्या चुका निस्तरण्यासाठी तुझा कष्टाचा पैसा खर्च केलास पण त्यातून मुलाला काही बोध नाही दिलास. अजून वेळ गेलेली नाही. मुलाला वाढवणे म्हणजे त्यांना त्यांची मनमानी करू देणे नव्हे. त्यांच्या चुकांवर पांघरूण घालणे नव्हे. तर त्यांना घडवण्यासाठी वेळेवर कठोर व्हायलाच हवे. त्यांना शासन आईच करू शकते. कृष्णाला सुद्धा त्याच्या यशोदा मय्याने बांधून ठेवणे, मारणे, अबोला धरणे यातून तो चांगला घडावा म्हणून शासन केलेच होते. जन्म न देता मुलाच्या चांगल्या भवितव्यासाठी माय शिक्षा देऊ शकते तर मग ज्या मुलाला तू जन्म दिला आहेस त्या मुलाला घडवताना सांगून पटत नसेल तर शासन आईनेच करावे लागते ना?  मुलाला वाढवताना त्याला चांगले घडवावे पण लागते. घडवताना थोडे कठोरही व्हायचे असते. आंधळे प्रेम मुलाला पांगळे तर करतेच पण त्याच्या आयुष्याचेही नुकसान करते. सोन्याचा दागिना घडवताना त्याला घाव तर सोसावे लागतातच पण अग्निदिव्यातूनही जावे लागते. ते काम सोनाराला कुशलतेने करावे लागते.

मडके घडवताना त्याला आकार देताना थापटावे लागते, चाकावर फिरावे लागते आकार देताना थोपटले तरी आत आधाराचा हात द्यायला पाहिजे आकार घेताच हळूच हात काढून भट्टीत तावून सुलाखून काढले पाहिजे हे काम त्या कुंभाराला करायला पाहिजे. दागिना नीट नाही झाला, मडके कच्चे राहिले तर दोष सोनार, कुंभारालाच दिला जातो,  म्हणून मी शिक्षा तुला दिली. अजूनही वेळ गेलेली नाही. तू मुलाला सुधार, घडव. त्याच्या दोन कानाखाली वाजवून गांभीर्य समजावून सांग मग बघ…” 

.. .. असे म्हणून आजी निघून गेली आणि आईला प्रेम आणि आंधळे प्रेम यातला फरक कळला 

© सुश्री वर्षा बालगोपाल

मो 9923400506

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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