(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – क्षण-क्षण
कविता का एक दिवस होता है। लघुकथा का एक दिवस होता है। कहानी का एक दिवस होता है। नाटक का एक दिवस होता है। नृत्य का एक दिवस होता है। हर विधा, हर कला का एक दिवस होता है। कविता दिवस पर रचता हूँ कविता, लघुकथा दिवस पर लिखता हूँ लघुकथा। जैसा दिन होता है, वैसा सृजन करता हूँ, मैं हूँ जो सबसे हटकर जीता हूँ।
..सुनो, हर क्षण अनुभूति का होता है। हर क्षण अभिव्यक्ति का होता है। अनुभूति स्वयं चुनती है अभिव्यक्ति। अभिव्यक्ति स्वयं चुनती है अपनी विधा। हर अनुभूति, हर अभिव्यक्ति, हर कला, हर विधा का हर क्षण होता है।
…हर क्षण सृजन का होता है, हर क्षण विसर्जन का होता है। हर क्षण जीवन का होता है और हर क्षण मरण का भी होता है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
writersanjay@gmail.com
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
श्रवण मास साधना में जपमाला, रुद्राष्टकम्, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना करना है
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकारश्री अरुण कुमार दुबे जी,उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “लिख दिया गर नसीब में क़ातिब…“)
☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 67 ☆
लिख दिया गर नसीब में क़ातिब… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गरीबी की रेखा…“।)
अभी अभी # 425 ⇒ गरीबी की रेखा… श्री प्रदीप शर्मा
तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो।
क्या ग़म है, जिसको छुपा रहे हो।।
गरीबी भाग्य का खेल है, या पुरुषार्थ का अभाव, यह अभिशाप है अथवा सियासी देन, इस पर संवाद विवाद से कभी कोई निष्कर्ष नहीं निकला है, और जमीनी हकीकत यही है कि गरीबी भी उतनी ही फल फूल रही है, जितनी अमीरी। वास्तव में सुख दुख और लाभ हानि की तरह ही अमीरी गरीबी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
क्या दोनों के बीच कोई खाई है, अथवा यह छोटी मछली और बड़ी मछली वाला मामला है। लेकिन सच्चाई तो यही है, समंदर में छोटी मछली भी है और बड़ी भी।।
अगर इसे रेखाओं का खेल मानें तो जरूर हमारे हाथ में भाग्य और जीवन रेखा की तरह कोई गरीबी की रेखा भी होगी। एक हस्त रेखा विशेषज्ञ जब किसी व्यक्ति का हाथ देखता है, तो कई बार हाथ को टेढ़ा मेढ़ा और ऊपर नीचे करता है, मानो किसी डंडी चूम स्कूटर की पेट्रोल टंकी में पेट्रोल ढूंढ रहा हो। जब दृष्टि काम नहीं करती, तो मैग्निफाइंग ग्लास का उपयोग करता है। और जब फिर भी कुछ पल्ले नहीं पड़ता तो दूरदृष्टि का सहारा लेता है, जिसमें सारे ग्रहों का योगदान होता है और बात पुखराज, नीलम और गंडे ताबीज पर आ जाती है। लेकिन उस भले आदमी को कोई गरीबी की रेखा नजर नहीं आती।
रेखाओं का खेल है मुक़द्दर. रेखाओं से मात खा रहे हो.
इस बात में कितनी सच्चाई है, हम नहीं जानते, लेकिन केवल एक सरकार को ही यह कड़वी सच्चाई पता है कि कितने लोगों के हाथ में यह गरीबी रेखा है, और केवल मुफ्त राशन ही उनके चेहरे पर कुछ वक्त के लिए मुस्कुराहट ला सकता है।।
तकदीर की काट केवल तदबीर यानी युक्ति और प्रयास है। जो भाग्य के भरोसे रहते हैं, वे कहीं के नहीं रहते। जब हमने अच्छी तरह से ठोक बजाकर देख लिया है, और तसल्ली कर ली है, कि हमारे हाथ में कोई गरीबी की रेखा है ही नहीं, तो हम मुफ्त में चिंता क्यों पालें।
ऐसे में साहिर दो कदम आगे आते हैं और हमारा हाथ थाम लेते हैं। वे कहते हैं ;
(डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी बेंगलुरु के नोबल कॉलेज में प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं एवं साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिकता, दो कविता संग्रह, पाँच कहानी संग्रह, एक उपन्यास (फिर एक नयी सुबह) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपकी एक लम्बी कविता को इंडियन बुक ऑफ़ रिकार्ड्स 2020 में स्थान दिया गया है। आपका उपन्यास “औरत तेरी यही कहानी” शीघ्र प्रकाश्य। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता प्रकृति… ।)
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – पत्थर दिल।)
दादी ओ दादी दरवाजा खोलो जोर-जोर से बाहर घंटी बजने की और दरवाजे को पीटने की आवाज आ रही थी।
कौन है मुझे परेशान कर रहा है दोपहर में चैन से सोने भी नहीं देता कमला जी धीरे-धीरे दरवाजे की ओर आई।
दादी में चीकू हूं ।
दोपहर में चैन से मुझे सोने क्यों नहीं देते हो घर के सामने पार्क होना भी एक मुसीबत हो गई है?
आज मुकेश नहीं आया है आप लोग बगीचे से स्वयं अपनी गेंद ले लो और मुझे तंग मत करो?
कमला जी ने जोर से चीकू से कहा।
दादी मुझे गेंद नहीं चाहिए मेरे दोस्त बंटी को चोट लग गई है थोड़ी सी हल्दी दे दीजिए उसे बहुत जोर से खून निकल रहा है।
आज मुकेश नहीं आया है इसलिए घर का काम भी नहीं हुआ है और खाना भी नहीं बना है खाना मैंने बाहर से ऑर्डर देकर मंगवाया है, कुछ भी नहीं मिलेगा।
मेरी बड़ी कोठी को देखकर सब लोग जलते हैं और तुम बच्चे अपने घर में क्यों नहीं जाते हो आए दिन कुछ न कुछ मांगने चले आते हो 1 दिन कुछ दे दिया तो रोज-रोज चले आओगे अपने घर जाओ और अपनी मां से मांगो।
दादी भी तो मां होती है मेरा घर थोड़ा दूर है मेरे दोस्त का बहुत खून निकल रहा है आप कुछ दवाई बता दीजिए जिससे उसका खून बंद हो जाए।
बहाने मत बनाओ यहां कुछ नहीं मिलेगा यहां से भाग जाओ।
कमला जी ने सोचा यदि इसे दया करके आज मैंने हल्दी दे दी तो रोज का कुछ ना कुछ लगा रहेगा…।
पोते और बेटों ने छोड़ दिया है और तुम अकेली इस घर में भूत की तरह रहती हो सब लोग तुम्हें ठीक ही कहते हैं मैं तो सामान के बहाने हाल समाचार लेने को खटखट किया करता था लेकिन तुम तो पत्थर दिल हो पड़ी रहो अकेले। चीकू रोता हुआ वहां से चला जाता है।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख “जीवन यात्रा“ की अगली कड़ी।)
☆ कथा-कहानी # 111 – जीवन यात्रा : 6 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
शिशु वत्स जब खड़े होकर पग पग चलते हुये आत्मनिर्भर बनने की दिशा में आगे बढ़ने की शुरुआत करता है तो इस वक्त उसका हाथ पकड़ने जो कठोर मगर मजबूत हाथ साथ में आते हैं, वह हाथ होते हैं “पिता” के. बाबूजी, पापा, डेडी, बाबा के अलावा भी कई भाषाओं में अलग अलग नाम हैं जीवनयात्रा के इस पात्र के पर अर्थ एक ही है, संकेत एक ये भी है कि “ठुमक चलत रामचंद्र बाजत पैजनिया ” के बाद अगला पड़ाव आ गया है. ये मृदुलता, सौम्यता, ममता, सांत्वना से साहस, कठोरता, अनुशासन, परिश्रमशीलता और ज्ञानार्जन, प्रशिक्षण की ओर बढ़ने की यात्रा है.
पिता का साथ और उन पर धीरे धीरे जागता विश्वास, हवा में उछाले जाने पर भी शिशु को खिलखिलाने का साहस देता है. वो होता अबोध है पर वह समझ जाता है कि हवा से धरातल पर उसकी यात्रा रोमांचक होने के साथ साथ सुरक्षित भी है, तभी तो वह निश्चिंत होकर हंस पाता हैं. पिता के ये मज़बूत हाथ ही उसे बाहर की दुनियां में प्रवेश करने लायक आत्मिक शक्ति और कुशलता के लिये प्रशिक्षण देंगे. ये पितृत्व का संरक्षण, उसके जीवन में गति लेकर आता है जो उसे दौड़ना सिखाता है, साइक्लिंग सिखाता है, बात करने की कला सिखाता है और अनुशासन में बंधना सिखाता है. सुबह सुबह गहरी नींद में जगाने का काम प्राय: पिता ही करते हैं. भले ही बचपन, मन में ये गुनगुनाये कि “बापू सेहत के लिये तू तो हानिकारक है ” पर वास्तविकता इससे उलट होती है. हमारी सेहत, पढ़ाई लिखाई, कलात्मक प्रशिक्षण और गणित, विज्ञान से लेकर संगीत और सामान्य ज्ञान भी हम पिता से ही लिखते हैं. हमारी क्लास में प्रदर्शन, परसेंटेज़, पोजीशन की सबसे ज्यादा चिंता, खुशी पिता को ही होती है. डांटते भी सबसे ज्यादा पिता ही हैं जब हम उनकी अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पाते पर यह डांट ही हमें सफल होने, कुछ बनने की दिशा, उत्साह, देती है हमें अपने लक्ष्य के प्रति फोकस करना सिखाती है. हम जानते हैं कि हमारी सफलताओं पर बिना जश्न मनाये अंदर ही अंदर सबसे ज्यादा खुश होने वाले पिता ही होते हैं. हम अपनी असफलताओं को अपनी मां से शेयर करते हैं पर सफल होने पर दिल से चाहते हैं कि ये समाचार सबसे पहले पिता सुनें. उनकी हल्की सी मुस्कुराहट किसी स्वर्ण पदक से कम नहीं होती. जीवनयात्रा का यह भाग पिता और पुत्रों को समर्पित है.
शाळेत’ कार्यानुभव’ हा विषय होता. त्यात कधीतरी तुकड्या तुकड्यांचा कोलाज घरून करून आणणे, असा गृहपाठ असायचा. रंगबिरंगी घोटीव पेपर आणून ते कापायचे आणि हवे तसे चिकटवायचे. चिकटवतांना ठाऊक नसायचं की पूर्ण झाल्यावर कसे दिसेल ? वर्गात सर्वांचे कोलाज पाहिल्यावर कळायचे की आपल्याच रंगाचे कागद वापरून एखाद्याने फारच सुंदर ते केले असायचे. रंगसंगतीची जाण आणि तुकडा योग्य ठिकाणी लावणं या दोन गोष्टी कोलाज सुंदर करतात, हे समजायचं. आपण हा तुकडा इथे, तो तिथे लावायला हवा होता असं वाटायचं. हे कोलाज करायाचेच काम आयुष्यभर करायचे आहे, हे तेव्हा ठावूक नव्हतं.
दोन जीवांच्या कोलाजमधून एक नवीनच जीवाचा तुकडा जन्माला येतो. तो जन्माला आला की आईचं मातृत्वाचं कोलाज चित्र पूर्णत्वाला जातं. वयाची चार-पाच वर्ष हा ‘दिल का टुकडा’ आईचंच कोलाज विश्व आपलं समजत असतो. हळूहळू स्वतःच कोलाज तो तयार करायला सुरुवात करतो.
ही कोलाज करण्याची क्रिया अखरेच्या श्वासापर्यंत सुरुच असते.
शक्य असतील त्या वस्तू घेऊन आपण आपला संसाराच्या कोलाजचा सांगाडा उभा करतो आणि आयुष्यात आलेल्या व्यक्तींना त्यांच्या भावछटांसह त्यात ठेऊन संसाराचे हे कोलाज रंगीत करत असतो.
मनुष्य हाच मुळात एकसंध नाही, त्याचं आयुष्य एकसंध नाही.. तेही तुकड्या तुकड्याचे…तुकडे तुकडे एकत्र येऊन तयार होणारे कोलाज. पुन्हा आयुष्यातले तुकडेही बदलणारे… बालपणाचे मित्र, कॉलेजचे मित्र, आताचे मित्र, बदलणारे. नातंवाईक, त्यांचे प्रेमसंबंध बदलणारे. कुणाला आपण नकोसे तर कुणी आपल्याला नकोसे. हवीहवीशी व्यक्ती कायम सोबत राहीलच याचीही शाश्वती नाही. या सर्व परिस्थितीत हाती जे जे आहे त्याचे सुंदर कोलाज करून त्याचा आनंद घेणं, हेच कौशल्य आहे.
अनुभव घेणारं मन, त्याला अनुभवापर्यंत नेणारा देह आणि या मन आणि देहाला विवेकाने हाकणारी बुद्धी या तिन्ही गोष्टी जागेवर शाबूत असल्या की, त्या त्या वेळी असणाऱ्या तुकडयांची जागा (Placement) योग्य ठरविली जाते. कोणाला किती महत्व दयायचं, कोणाला केंद्रस्थानी ठेवायचं, कोणाला कोणाजवळ ठेवायचं हे हळूहळू कळतं, हळूहळू आत्मसाद होतं.
काही तुकडे असे वाटतात की डोळे मिटून कुठेही ठेवा, शोभून दिसतात, आनंद देतात,असे वाटते. काही मात्र कुठेच मॅच होत नसतांनाही ठेवावे लागतात,असे वाटते.हा सगळा त्या तुकड्यांना असणारा वरवरचा रंग पाहून आपल्या ठिकाणी निर्माण होणाऱ्या भावनेचा खेळ आहे,
ही भावनाच सकारात्मक आणि निर्मोही झाली की या कोलाजचा खरा आनंद मिळतो. समोरच्या तुकड्याने आपले केलेले ‘दिल के टुकडे’ आठवायचे की त्यांने आपल्याला कधीकाळी दिलेला भरपुर आनंद आठवायचा ? हाच खरा प्रश्न आहे.
आपल्या आयुष्यात आलेल्या प्रत्येक तुकड्याला आणि आपल्यालाही एक काळी बाजू असते आणि एक रंगीत बाजू असते.रंगीत बाजू सन्मुख,डोळ्यासमोर ठेऊन कोलाज केले तरच ते सुंदर होते…सुंदर दिसते.
आयुष्याचा कोलाज म्हणजे जोडलेल्या तुकड्यांच्या रंगीत भावछटांचा तुकड्या तुकड्यांनी घेतलेला आनंद. त्या तुकड्यांना एकसंध करून त्यात फार गहन अर्थ शोधण्याचा प्रयत्नही करू नये. सर्वसंगपरित्याग करून आत्म्याच्या भेटीसाठी तपसाधना करणाच्या संत सत्पुरुषांची जीवने सोडली तर आपणा सर्वांची जीवने निरर्थकच. तेव्हा त्यात अर्थ शोधून बुद्धी झिजवा कशाला! एका प्रसिद्ध चित्रकाराला, “त्याने काढलेल्या ॲबस्ट्रॅक्ट चित्रात काय अर्थ आहे?” असे विचारले. तो उत्तरला “या चित्रात अर्थ शोधायचा नसतो. त्यातल्या वेगवेगळ्या दिसणाऱ्या आकृती आणि विविध
रंगछटा केवळ भोगायच्या असतात.. त्यांचा आनंद घ्यायचा असतो.” आपलेही जीवनाचे कोलाज असेच ॲबस्ट्रॅक्ट.त्यात अर्थ न शोधता रंगांचा फक्त आनंद घ्यायचा.
हे कोलाज म्हणजे विविध व्यक्ती,त्यांच्या वेगवेगळ्या रंगछटा-भावछटांचे,स्वभाव छटांचे.. तुकड्या- तुकडयांचे जोडकाम. त्यातल्या त्यात सकारात्मक, आपल्याला भावतील, आनंद देतील असे तुकडे हाताशी घ्यावेत. त्यांच्या दोषांची काळी बाजू
नजरेआड करून गुणांची रंगीत बाजू सन्मुख करावी. आपली समज आणि कौशल्य यानुसार ते हृदयात किंवा हृदयापासून हव्या तेवढ्या अंतरावर ठेवावेत आणि रंगीत कोलाजचा घेता येईल तेव्हढा आनंद घ्यावा, हेच बरे.
अर्थात हे करताना कागदाचे कोलाज आणि आयुष्याचे कोलाज यातला एक मुख्य फरक समजून घेतला पाहिजे.कागदाच्या कोलाजचे तुकडे एकदा चिकटले की चिकटले. त्यांना कागदाला,एकमेकांना सोडून जायचे स्वातंत्र्य नाही. पण माणसाच्या जीवनातील कोलाज मधील माणसे (तुकडे) मात्र सोडून जाऊ शकतात. कधी त्यांच्या इच्छेने तर कधी नाईलाजाने. या कोलाजमधले आजूबाजूचे तुकडे सोडून गेले तर फारसा फरक पडत नाही. पण मधलेच..केंद्रस्थानी असलेले,हृदयातले तुकडे सोडून गेले तर मात्र कठीण होते. संपूर्ण कोलाजची पुन्हा नवीन मांडणी करावी लागते… नवीन तुकड्यांना सोबत घेऊन… आयुष्य आहेच असे की, हा जुन्या-नवीनचा खेळ अव्याहत सुरूच असतो.अशावेळी असे का घडले? याचा विचार करून बुद्धी शिणवण्यापेक्षा आहे त्या तुकड्यांची पुनर्मांडणी करून नव्या उत्साहाने त्याच्या रंगाचा, भावछटांचा आनंद घेणं ज्याला जमलं त्याला प्रत्येक क्षणी हे कोलाज,त्यातल्या व्यक्ती आनंद देतात,आवडतात.तुकड्या तुकड्यांच्या खंडप्राय आयुष्यात आनंद मात्र अखंड,एकसंध राहतो.
(नवरदेव, त्याचे आई वडील व इतर नातेवाईक (मध्यस्थ) पोलीस स्टेशनात लाॅकअप मध्ये बंद झाले) – इथून पुढे.
“अरे विजय, अजून आप्पा, काका इतर मंडळी कोणीही आली नाही. काय समस्या आहे रे बाबा, मला तर काही समजेनासं झालंय. काय करू मी ? कसं करू ?
“आक्का शांत हो आणि मन घट्ट करुन ऐक. नवरदेव, त्याचे आई वडील व इतर मध्यस्थ पोलीस लाॅकअप मध्ये आहेत.” ” अरे देवा, हे काय घडलंय रे.माझी छकुली वधूवेषात, अंगाला हळद, लग्नमंडपात लोक जमलेले, दाराशी सजवलेला घोडा, वाजंत्रीवाले, एक हजार लोकांच्या जेवणावळीची तयारी. आणि हे काय घडलंय विपरीत. काय करू मी आता ? कसं सांगू छकुलीला ? कोणत्या तोंडानं सांगू ? केवढी अपराधी आहे मी तिची.देवा हा दिवस दाखविण्यापूर्वीच तू मला मारलं का नाहीस.”
“चूप, असं अशुभ बोलू नकोस ” छकुलीचा हात माझ्या ओठांवर होता.” माझं नशीब बलवत्तर कि त्या माणसाचा खरा चेहरा लग्नापूर्वीच माझ्यासमोर आला.लग्नानंतर ही घटना घडली असती तर मी किती अभागी ठरली असती. अशा नीच, नालायक माणसाच्या चेहर्यावरचा सभ्यतेचा बुरखा वेळीच निघाला ही आपली पुण्याई. मी ही शिकलेली आहे, सुविद्य आहे, आर्थिक पाठबळही आहे माझ्याजवळ. मग मला घाबरण्याचं कारण काय आहे.नकोय मला असला माणूस. त्याने कितीही माफी मागितली आणि लग्नाला तयार झाला तरी पण मला तो नकोय.उतरवते मी माझा मेकअप. लोकांना मात्र जेवण करून जायला सांगा.”
मी तर अगदी दिग्ड,मूढचं झाले होते.काय करावे सुचतच नव्हते.जणू मी निर्जीव पुतळाच झाले होते.छकुलीच्या लहानपणीच तिचे वडील एका अपघातात निवर्तले आणि मी माहेरी भावाच्या आश्रयाला आले.भावाने मात्र मला भक्कम सहारा दिला.मी ही मला जमेल तसे काम करीत राहिली.माझी छकुली मोठी गुणी पोर, आईचं दुःख जाणत होती ती.कधी कोणत्या गोष्टीचा हट्ट केला नाही कि कोणती गोष्ट मागितलीही नाही.आहे त्यात नेहमी समाधान मानलं. चांगली शिकली, माहिती व तंत्रज्ञान क्षेत्रात प्राविण्य मिळवलं आणि आज स्वतःच्या मजबूत अशा पोलादी पायांवर ती उभी होती.आर्थिक स्वावलंबन तर होतंच पण तिचा आत्मविश्वासही दांडगा होता.अन्यायाविरूद्ध चीड होती. सत्याची चाड होती.अडलेल्यांना मदतीचा हात देणारी होती.तर दुष्टांना त्यांची जागा दाखवून देणारी मर्दानी दुर्गा होती, तेजस्विनी होती.
“छकुली छकुली,मला पुढचं बोलताच येईना.” नको रडूस आई, तुझं दुःख जाणते मी.पण आमचा यात काही दोष नाही. आम्ही कोणतंही पाप केलं नाही.मग आम्ही घाबरायचं कशासाठी ? ” ” पण बेटा हा जाती समाज, आजच्या विवाह सोहळ्याची ही तयारी ” ” कोणता जाती समाज. कोणी काही विचारणार नाही आम्हांला.कारण आमचा दोषच नाही कोणता.बाकी राहिलं जेवणावळीचं. त्याचं उत्तर मी दिलेलंच आहे. सगळ्यांना जेवून जायला सांग. मी कपडे बदलते माझे.”
“नको छकुली, नको कपडे बदलवूस, नको मेकअप उतरवूस.नवरीला एकदा हळद लागली कि धुवायची नसते.अपशकून असतो तो.” ” पण मामी, मी काय करू. लग्न तर मोडलंय.दोषी बसलेत पोलीस लाॅकअप मध्ये. आणि मी तर अशी सडकी विचारसरणी ठेवणार्यांना नक्कीच धडा शिकवीन. मी गप्प बसणार नाही मामी “.
गप्प नकोच बसू तू आणि दोषींना धडाही शिकव. मी सुद्धा यासंदर्भात मदत करीन तुझी. खंबीरपणे तुझ्या पाठीशी उभी राहीन. पण हळद धुवू नकोस पोरी “
“मग काय करू मी,? कोण लग्न करील माझ्याशी ?
“या समाजात चांगली विचारसरणी असलेली मुलेही असतात बेटा. माझ्या आतेभावाचा मुलगा निलेश आहे. तो करील तुझ्याशी लग्न.अर्थात तो तुझ्यासारखा शिकलेला नाही. बी. काॅम झालाय. एका सी ए कडे प्रॅक्टीसही करतोय आणि सी ए चा अभ्यासही करतोय. तुझी इच्छा असेल तर मी बोलू माझ्या भावाशी “
छकुलीनं आपला आश्वासक हात मामीच्या हाती ठेवला.
“काय घडतंय मला तर कळतंच नव्हतं. मी नुसती बघत होती. ” वन्स तुम्हांला पसंत आहे ना निलेश. छकुलीला अगदी सुखात ठेवील तो ” ” होय गं बाई. तुला जे योग्य वाटेल ते तू कर. आता तूच आई हो छकुलीची “
“चला चला नवरदेवाला घेण्यासाठी ” सुक्या” ला पाठवा. माझ्या भाच्यालाच सजवलेल्या घोड्यावर बसवून नवरदेवाला ( निलेशला ) घेण्यासाठी पाठविले,लग्नमंडपातील वर्दळ वाढली होती.दाराशी नवरदेव पोहोचला होता.सुवासिनी औक्षण करीत होत्या.फटाक्यांची आतिषबाजी होत होती.नवरदेव नवरीला फुलांच्या पायघड्या घातल्या जात होत्या.भटजींची मंगलाष्टके चालू होती. आणि तो क्षणही आला
तदेव लग्नं सुनदिन तदेव
ताराबलं चंद्रबलं तदेव ।
विद्याबलं दैवबलं तदेव
लक्ष्मीपते तेंघ्रियुगं स्मरामि
आणि छकुलीनं वरमाला निलेशच्या गळ्यात घातली.
“लग्नाला आलेल्या सर्व पाहुणे मंडळींनी जेवण केल्याशिवाय जाऊ नये ” आप्पा माईकवरून घोषित करीत होते.
“वन्स विहिणींचा मानपान करायचा आहे. येताय ना तुम्ही ” एका स्वप्नातून मी जणू जागी झाले.” अहो वन्स, सर्व निर्विघ्नपणे पार पडलंय. विहिणींचा मानपान करायचाय. येताय ना तुम्ही.” मी उठले.विहिणींना नवीन कपडे, ओटीचं सामान, गोड खाऊ घालणे. सगळे विधी पार पडत होते.नवरदेव नवरीची सप्तपदी चालू होती.
“चला कन्यादान विधी सुरू करायचा आहे ” ” आप्पा, सगळं तू आणि वहिनीनं केलंय. कन्यादानही तुम्हीच करा आता. मी तर सगळी आशाच सोडली होती.आयुष्यभर दुःख भोगलेल्या मला हा धक्का सहन न होणारा होता. पण विघ्नहर्त्या गणेशानं सगळं व्यवस्थित केलं.काही पुण्य असेल माझ्या गाठीला ते कामी आलं आज ” असं बोलत असतांनाच मला भोवळ आली आणि मी कोसळले.” काय झालं आक्का,” सगळे माझ्याभोवती जमले, माझ्या चेहर्यावर पाणी शिंपडले, तशी मी पुन्हा शुद्धीत आले.” वन्स, खूप ताण करून घेतलाय तुम्ही. पण आता सगळं व्यवस्थित पार पडलं ना, आता कसली काळजी. पण शारीरिक थकवा आलाय तुम्हांला. तुम्ही आराम करा पाहू. मी सांभाळेन सगळं ” छकुलीही माझ्याजवळ आली होती.
“काही नाही झालंय बेटा आईला. थोडासा थकवा आहे. बरं वाटेल तिला. तू आपले धार्मिक विधी पार पाड. जा भटजी वाट पाहाताहेत तुझी “
रात्री छकुलीचा विदाई सोहळाही पार पडला. आता मला फार रिते रिते वाटू लागले. उद्या सकाळी वरात परतीच्या प्रवासाला लागणार होती.
“निलेश, एक महत्वाचं काम राहिलंय माझं, ते पार पाडायचं आहे मला ” ” कोणतं काम राणी सरकार. तुझं काम ते माझं काम, आता आम्ही एक आहोत सुख आणि दुःखातही “
” माझ्या पहिल्या नियोजित वरा विरूद्ध स्टेटमेंट द्यायचंय मला पोलीस स्टेशनात.आणि पुढे कोर्टातही केस चालवायची आहे मला. फसवणूकीचा व मानहानीचा दावा करणार आहे मी ” ” जरूर कर राणी या लढाईत मी सुद्धा तुझी सोबत करीन.अशा लोकांना धडा शिकवलाच पाहिजे.”
सकाळी वरात परतीच्या प्रवासाला निघाली आणि माझा ऊर दुःखावेगानं भरून आला.एक पोकळी माझ्या मनात निर्माण झाली.पण माझी तेजस्विनी मात्र हरली नव्हती. कठीण प्रसंगालाही सामोरी गेली.तिचा आत्मविश्वास वाढला होता.आणि या आत्मविश्वासात तिचं व्यक्तिमत्व झळाळून उठलं होतं. आता या तेजस्विनीला एका तार्याची सोबतही लाभली होती.माझ्यासाठी हा क्षण परमोच्च सुखाचा होता.या परमोच्च सुखाच्या क्षणीच परमेश्वरानं माझे डोळे मिटावे ही इच्छा होती.
“आक्का, आक्का, छकुलीला आशीर्वाद दे ना ” एका तंद्रीतुन पुन्हा मी जागृत झाले. माझी तेजस्विनी आता स्वतःच्या घरट्यात विसावणार होती. माझी तपस्या फळाला आली होती.विघ्नहर्ता गणपतीने सगळं व्यवस्थित पार पाडलं होतं. एक कृतार्थ समाधान माझ्या चेहर्यावर होतं.