(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “रूहे उदास को कुछ लगा यूँ…” ।)
ग़ज़ल # 130 – “रूहे उदास को कुछ लगा यूँ…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
writersanjay@gmail.com
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
श्रवण मास साधना में जपमाला, रुद्राष्टकम्, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना करना है
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मेरी पसंद…“।)
अभी अभी # 428 ⇒ ✓ मेरी पसंद… श्री प्रदीप शर्मा
मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना
कुंडे कुंडे नवं पयः।
जातौ जातौ नवाचाराः
नवा वाणी मुखे मुखे।।
मेरी आपकी पसंद एक हो ही नहीं सकती, पसंद एक होते ही हम एक दूसरे को पसंद करने लगते हैं। परिचय पसंद की पहली कड़ी है, जिसमें बच्चे हमसे कई गुना आगे हैं। जितनी जल्दी वे आपस में घुल मिल जाते हैं, उतनी जल्दी हम बड़े लोग नहीं।
कहीं कहीं तो परिचय में ही फिल्म खत्म हो जाती है, पसंद नापसंद का तो सवाल ही नहीं, जब पता चलता है कि वह तो उन सक्सेना जी का बेटा है, जिनसे आपका छत्तीस का आंकड़ा है। कहां की पसंद नापसंद कहां तक असर कर डालती है। इसे आप दुराग्रह अथवा पूर्वाग्रह भी कह सकते हैं।।
कहीं कहीं तो पसंदगी का कोई कारण नहीं होता और इसी प्रकार नापसंदगी का कोई कारण नहीं होता। आप चाहें तो इसे माइंड सेट अथवा कंडीशनिंग भी कह सकते हैं। एक विशिष्ट अखबार, पत्रिका अथवा लेखक आपकी पसंद का हो सकता है। सालों से एक ही दर्जी, एक ही नाई, एक ही अखबार वाला, दूध वाला और किराने वाला, एक ही पेस्ट, एक ही ऑयल और बालों की एक ही स्टाइल। क्या कर सकते हैं, पसंद अपनी अपनी।
समझ और जानकारी होते हुए भी खानपान और रहन सहन में अपनी पसंद हमें एक दूसरे से अलग बनाती है। क्या हमारी पसंद हमारा जुनून अथवा आदत बन जाती है। सुबह की चाय हमारी पसंद है, मजबूरी है, अथवा आदत, हम खुद ही नहीं जानते। जरूर सुबह की चाय का संबंध आपकी जुबां के साथ साथ पेट से भी है।।
किसी को घूमना फिरना पसंद है तो किसी को पढ़ना लिखना। किसी को अधिक बात करना पसंद है तो किसी को कम बात करना। अगर समय के साथ अगर समझौता नहीं किया जाता तो आपकी पसंद किसी को अखर भी सकती है। मुझे अखबार के फ्रंट पेज पर न्यूज पसंद है, लेकिन मुझे अक्सर वहां विज्ञापन नजर आता है। इसलिए मैने अखबार पढ़ना ही छोड़ दिया। लोग मुझे सनकी कहें तो कहें। मैं जानता हूं, अखबार सिर्फ मेरे लिए नहीं छपता।
पसंद से ही तो रुचि शब्द बना है। वैसे तो रुचि को taste भी कहते हैं और सुरुचि को good taste.
Rich taste वालों को, ऊंचे लोग, ऊंची पसंद वाला कहा जाता है। कभी आपको गुलाबजामुन पसंद था, और अमिताभ बच्चन भी, लेकिन उम्र के साथ, अब दोनों से अरुचि हो गई है। एक समय था जब कपिल कपिल किया करते थे, अब तो धोनी धोनी कहते कहते भी थक गए। आप करते रहिए विराट विराट।।
अब काहे की अपनी पसंद, बस किसी तरह दिन काट रहे हैं। महंगाई को रोएं या भ्रष्टाचार को। ना आजकल पुरानी जैसी फिल्में बनती हैं और ना ही पुरानी फिल्मों जैसा संगीत। सहगल और रफी को छोड़ कौन बाबा सहगल और हिमेश रेशमिया को सुनेगा।
हमारी उम्र में जो मन करा खाया और जब मर्जी करी, साइकिल से घूमने निकल गए। जेब में अगर दो रुपए हुए तो हम शहंशाह। आज का पिज्जा, बर्गर और पास्ता मनचूरियन हम खाते नहीं, रात भर डीजे पर नाचते नहीं। लोग सोचते हैं, हमारी पसंद को क्या हो गया है, और हम सोचते हैं, आज की पीढ़ी को क्या हो गया है। पसंद अपनी अपनी, खयाल अपना अपना।।
☆ पुस्तक समीक्षा ☆ मन चरखे पर (काव्य-संग्रह)- कवयित्री – नीलम पारीक ☆ समीक्षक – प्रो. नव संगीत सिंह ☆
पुस्तक चर्चा
पुस्तक – मन चरखे पर (काव्य संग्रह)
कवयित्री – नीलम पारीक
प्रकाशक – पुस्तक मंदिर, बीकानेर
पृष्ठ – 96
मूल्य – 250/-
☆ नारी-मन की सहज और सुकोमल भावनाओं को दर्शाता काव्य-संग्रह : मन चरखे पर – प्रो. नव संगीत सिंह ☆
नीलम पारीक अपने पहले काव्य संग्रह ‘कहां है मेरा आकाश’ द्वारा हिंदी काव्य जगत में पहले से ही चर्चित हो चुकी हैं। सिरसा (हरियाणा) में जन्मी नीलम ने कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में पीजी, और महाराजा गंगा सिंह विश्वविद्यालय, बीकानेर से बीएड, राजस्थानी साहित्य में पीजी, पत्रकारिता में यूजी किया है और वर्तमान में केसरदेसर जाटान, बीकानेर में अंग्रेजी शिक्षिका के रूप में कार्यरत हैं। उन्होंने हिंदी और राजस्थानी भाषा में कविताएं और कहानियां लिखने के अलावा कुछ हिंदी लघुकथाएं लिखीं और बाल साहित्य पर भी काम किया है।
समीक्षाधीन काव्य-पुस्तक ‘मन चरखे पर’ (पुस्तक मंदिर, राजीव गांधी मार्ग, स्टेशन रोड, बीकानेर, राजस्थान; पृष्ठ 96; मूल्य 250/-) को कवयित्री ने तीन खंडों में विभाजित किया है- वसंत, हेमन्त और ग्रीष्म। इसमें कुल अट्ठावन कविताएँ हैं। सबसे अधिक कविताएँ वसंत खंड (31) में हैं, उसके बाद ग्रीष्म खंड (14) और सबसे कम कविताएँ हेमंत खंड (13) में हैं। वसंत खंड में प्रेम-कविताएँ हैं, हेमंत खंड में जीवन की मीठी-तीखी यादें हैं; स्त्री विमर्श की कविताएं ग्रीष्म अनुभाग में कलमबद्ध की गई हैं।
कविता भाव-अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम है। कविता में ही कोमल भावनाओं को अच्छी तरह व्यक्त किया जा सकता है। जब भी किसी व्यक्ति के मन में भावनाओं और संवेदनाओं के बादल उमड़ते हैं तो वह काव्यात्मक उड़ानों के माध्यम से उन्हें सहेज लेता है। पुरुष और महिलाएं अलग-अलग भाव-जगत से संबंधित हैं। जहां पुरुष कठिन परिश्रम के लिए जाने जाते हैं, वहीं महिलाएं करुणा, सहनशीलता का दूसरा नाम हैं।
किताब के नाम के मुताबिक इसमें मन से जुड़ी चार कविताएं हैं- मन चरखे पर, मन मलंग, मन हिरण (वसंत खंड) और औरत का मन (ग्रीष्म खंड)। चूँकि पहला भाग प्रेम-कवितायों का है, इसलिए इसमें चार प्रेम-रंग की कविताएँ भी हैं – पाती प्रेम भरी, प्रेम, प्रेम, प्रेम-रंग। इस संग्रह में माँ/नारी पर आधारित 6 कविताएँ शामिल हैं – माँ, माँ-2, स्त्री, पचास साल की औरतें, औरत का मन, हे स्त्री।
नीलम स्वयं एक महिला हैं और स्त्री-मन की बहुमुखी प्रकृति को जानती हैं। उन्होंने नारीत्व की अनेक परतों को छुआ है- दुःख, सुख, पीड़ा, आकांक्षा, विपदा आदि। बचपन से लेकर जवानी तक, जवानी से लेकर बुढ़ापे तक कई पड़ाव आते हैं और एक महिला इन सभी पड़ावों से गुजरती है, बिना किंतु, परंतु किये। बेटी की शादी की चिंता, दहेज की चिंता, पोते-पोतियों/नाते-नातिन को लाड़-प्यार करना, व्रत रखने वाली महिलाएं कैसे अपनी पीड़ा को सहती हैं, कैसे वे अपनी बीमारी की चिंता छोड़कर दूसरों के लिए हंसती हैं – यह सब कुछ ब्यान हुआ है- ‘पचास साल की औरतें’ (पृष्ठ 79-80) कविता में।
संग्रह के अंतिम भाग की कुछ कविताएँ चुनौतीपूर्ण हैं। मनुष्य को मनुष्य बनने की सीख देने वाली कविता ‘हे मानव’ (87-88) में कवयित्री ने मनुष्य को अहंकार त्यागने की सलाह दी है और कहा है कि उसे आने वाली पीढ़ियों के लिए कुछ सोचना चाहिए! अपने अहंकार में डूबकर पर्यावरण को बिगाड़ना, प्रदूषण बढ़ाना मनुष्य को शोभा नहीं देता। समाचार-पत्रों में भ्रूणहत्या, बलात्कार, आतंकवाद आदि की खबरें पढ़कर स्त्री का कोमल हृदय विचलित हो उठता है और स्वप्न में भी वह इस भयानक दृश्य को याद करके चीत्कार मचा देती है। कवयित्री ने नारी की सहनशक्ति का आख्यान करते हुए कितना सत्य कहा है कि वह खाना बनाते समय वाशिंग मशीन में कपड़े भी धो लेती है; खाना खाते समय उसे सास-ससुर की दवा और दूध-जूस भी याद रहता है; बच्चों को होमवर्क करवाते समय धुले और सूखे कपड़े उतार लाती है; रात को बिस्तर पर जाने से पहले वह अगले दिन बनाने वाली सब्जि की व्यवस्था भी करती है, ऑफिस में ड्यूटी करते समय बिजली-पानी-मोबाइल का बिल भरना भी याद रखती है और सबसे बढ़कर ससुराल वालों द्वारा अपने मायके को दिए जाने वाले ताने सहती है। लेकिन एक महिला की वजह से घर के सभी सदस्य एक सूत्र में बंधे रहते हैं, जुड़ा रहता है घर :
क्योंकि जानती है वो
क्या याद रखना है याद रखकर
और क्या भूल जाना है
याद रखकर भी
जबकि सच तो यह है कि
स्त्री कुछ नहीं भूलती
कुछ भी नहीं…
(पृष्ठ 76)
माँ के पास कहाँ था वक्त…
सिखाने का, समझने का,
बैठाकर गोद में अपनी,
फिर भी सिखा दिया,
हर हाल में जीना,
हर पल को जीना,
अपने लिये,
अपनों के लिये।
(पृष्ठ 59)
संग्रह में बचपन की मीठी यादें (आ लौट चलें), मां का आँचल (जादू), पिता से दूर होने का एहसास (शतरंज) आदि का वर्णन विशेष रूप से रेखांकित किया गया है।
दरअसल, संग्रह की सभी कविताएँ रिश्तों की पवित्रता पर केंद्रित हैं। रिश्तों के इंद्रधनुषी रंगों से भरी ये कविताएं स्त्री के मन में एक अस्पष्ट आकार से साकार हो उठती हैं और फिर बनती है – शुद्ध और निर्मल कविता, बिना किसी उदात्त के, बिना किसी बनावटी आभा के। राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर के वित्तीय सहयोग से प्रकाशित कविता की यह पुस्तक स्त्री मन की अनदेखी/अनजानी राहों की गहराई को पहचानने की कोशिश करती है। जीवन की आपाधापी, महानगरीय संस्कृति, जीवन के विविध रंगों को दर्शाती नीलम पारीक की यह पुस्तक भावनाओं की कोमलता को सरल, सहज शब्दों में प्रस्तुत करती है।
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना – “दुनियां में अकेले हैं…”। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ काव्य धारा # 187 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – दुनियां में अकेले हैं… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
☆
दुनियाँ में अकेले हैं नहीं कोई हमारा, तकदीर के मारों का भला कौन सहारा ?
सरिता ने बुझाई मुझे जीवन की पहेली, देती रही हैं हौसला बस लहरें अकेली ।
दिखता जिन्हें है दूर का भी पास किनारा ।।१।।
*
दुनियाँ में अकेले हैं
थक के हों चूर, ओठों में होंगी नहीं आहें ये पग न डगमगायेंगे चलते हुये राहें
मिलती उसी को जीत जो मन से नहीं हारा ।।२।।
*
दुनियाँ में अकेले
कहते हैं उसे राह दिखाते हैं सितारे, चलता चले आगे कभी हिम्मत न जो हारे
सबसे बड़ा दुनियाँ में है अपना ही सहारा ।।३।।
*
दुनियाँ में अकेले
आ पहुंचे यहाँ तक जो तो फिर देर कहाँ है ? पाना है जिसे वो तो सभी पास यहां है।
Poem of Capt. Pravin Raghuvanshi is to be recited in the BYRON 200 Poetry event at Nottingham, U K
☆ Bicentennary Celebration of Lord Byron – BYRON 200 Poetry Event by Kavyrang ☆
It is with great pride and pleasure, We would like to inform that poem लावण्यपूर्ण रात्रि अभिसारिका (Lavanya poorn Ratri Abhisarika)of Capt. Pravin Raghuvanshi has been chosen to be recited in the BYRON 200 Poetry Event, which is being organised by Kavya Rangwith NAAC as a part ofMultilingual Poetry Eventto commemorate the Bicentennary Celebrations of Lord ByroninNottingham, England. This poem is based on Lord Byron’s legendary poem She Walks in Beauty.
Byron 200is a varied programme of exhibitions, events and activities that celebrate the sensational life and legacy of Lord Byronthrough the year, focussed at Newstead Abbey, his inspirational home.
Date:Saturday 27th July 2024, 1pm-4pm
Venue:Newstead Abbey, Nottingham, U K
इस सन्दर्भ में हम आपसे एक महत्वपूर्ण जानकारी साझा करना चाहेंगे। डॉ विजय कुमार मल्होत्रा जी (पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय,भारत सरकार) को इसी जून 2023 में यूनाइटेड किंगडम के प्रसिद्ध शहर नॉटिंघम जाने का अवसर मिला। प्रवास के दौरान उन्हें हिन्दी कवयित्री और काव्यरंग की अध्यक्षा श्रीमति जय वर्मा जी ने अंग्रेज़ी के प्रसिद्ध कवि लॉर्ड बायरन की विरासत से भी परिचित कराया. रॉबिनहुड और लॉर्ड बायरन के नाम से प्रसिद्ध इस शहर में महात्मा गाँधी भी कुछ समय तक रुके थे. जहाँ बायरन ने Don Juan जैसी कविताएँ लिखीं, वहीं She Walks in Beauty जैसी प्रेम और प्रकृति की मिली-जुली कल्पनाओं पर आधारित कविताएँ भी लिखीं.
डॉ विजय कुमार मल्होत्रा जी के ही शब्दों में “कालजयी रचनाओँ को हिंदी-अंग्रेज़ी में अनूदित करने का बीड़ा उठाने वाले मेरे मित्र कैप्टन प्रवीण रघुवंशी ने “चलती-फिरती सौंदर्य प्रतिमा” शीर्षक से इसका हिंदी में अनुवाद भी कर दिया. मैंने पावर-पॉइंट (PPT) के माध्यम से दी गई अपनी प्रस्तुति में इस कविता को मूल अंग्रेज़ी के साथ-साथ हिंदी में भी प्रतिभागियों को सुनाया. सभी ने इसके हिंदी अनुवाद की भूरि-भूरि प्रशंसा की.”
यह अनुवाद इंग्लैंड में हिन्दी प्रोफेसरों को बहुत पसंद आया था। उन्होने कई देशों में इसका अपने भाषणों में उपयोग भी किया है जिसका सबसे सहृदय प्रतिसाद प्राप्त हुआ।
आइए…हम लोग भी इस कविता का मूल अंग्रेज़ी के साथ-साथ हिंदी में भी रसास्वादन करें और अपनी प्रतिक्रियाओं से इसके हिंदी अनुवादक कैप्टन प्रवीण रघुवंशी को परिचित कराएँ.
Original English Poem By Lord Byron
☆ She Walks in Beauty☆
She walks in beauty, like the night
Of cloudless climes and starry skies;
And all that’s best of dark and bright
Meet in her aspect and her eyes;
Thus mellowed to that tender light
Which heaven to gaudy day denies.
One shade the more, one ray the less,
Had half impaired the nameless grace
Which waves in every raven tress,
Or softly lightens o’er her face;
Where thoughts serenely sweet express,
How pure, how dear their dwelling-place.
And on that cheek, and o’er that brow,
So soft, so calm, yet eloquent,
The smiles that win, the tints that glow,
But tell of days in goodness spent,
A mind at peace with all below,
A heart whose love is innocent!
– Lord Byron
लार्ड बायरन की मूल कविता का कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा हिंदी अनुवाद
☆ लावण्यपूर्ण रात्रि-अभिसारिका ☆
अप्सरा की भाँति, वो सौन्दर्य-प्रतिमा,
बादलों से विहीन, तारों भरी रात्रि में
अतिशय प्रकाश की अप्रतिम छटा लिये
वो निरंतर चहलकदमी करती रही…
आकर्षक डील-डौल, मृगनयनी चक्षु
भीनी-भीनी चाँदनी में पिघलता यौवन
ऐसी लावण्यपूर्ण वो दिव्य अनामिका
वो रमनीय सौन्दर्य जो कदापि
ईश्वर प्रदत्त भी संभव नहीं,
एक स्वर्गिक रंगीन छटा लिए,
लहराती स्याह वेणियां से युक्त
अर्ध-प्रच्छादित मुखाकृति को
और भी निखारती हुई…
अभिलाषा की वो परम उत्कटेच्छा…
जहाँ विचार मात्र ही मधु-सुधा टपकाते…
कितना पवित्र, कितना प्यारा उसका संश्रय…!
दैवीय कपोलों, के मध्यास्थित,
उन वक्र भृकुटियों में वो इतनी निर्मल, शांत,
फिर भी नितांत चंचल एक विजयी मुस्कान लिए!
वो दैदीप्यमान आभा,
सौम्यता में व्यतीत क्षणों को
अभिव्यक्त करते हुए
एक शांतचित्त मन
एक निष्कपट प्रेम परितृप्त
वो कोमल हृदय धारिणी नवयौवना…!
– कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, पुणे
The e-abhivyakti family congratulates Capt. Pravin Raghuvanshi ji for this great achievement.
(आषाढी एकादशीच्या आदल्या दिवशी सर्व पालख्या पंढरपूरच्या अलीकडील गावी वाखरीला पोहचतात. तिथे पालखीतील शेवटचे उभे रिंगण होते आणि दुसऱ्या दिवशी पहाटे पालख्या पंढरपूरला येतात. त्या आदल्या दिवसाचे वर्णन करण्याचा प्रयत्न या अभंगामध्ये केला आहे.)
|| वाखरीला आलो ||
☆
विठ्ठल विठ्ठल| एकची गजर|
लागली नजर| वेशीवरी|
*
वाखरीला आलो| भरून पावलो|
भक्तीरसा न्हालो| रिंगणात||
*
अवघ्या पालख्या| भेटी जणू सख्या|
प्रेमाची ही व्याख्या| काय सांगू||
*
शिजे परी दम| निवे परी नाही|
वाट आता पाही| पहाटेची||
*
पंढरी येऊन| माथा टेकवून|
दर्शन घेऊन| सुखी होई||
☆
कवी : म. ना. देशपांडे
(होरापंडीत मयुरेश देशपांडे)
+९१ ८९७५३ १२०५९
https://www.facebook.com/majhyaoli/
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
अंधेरी रातों में..सुनसान राहोंपर कुणी मसीहा निकले ना निकले…पण या ठिकाणी खरे शहेनशाह असतात ती ही मंडळी! (या वाक्यातील अंधेरीचा मुंबईतील अंधेरीशी काहीही संबंध नाही.) तर…ही मंडळी चतुष्पाद वर्गातील आणि केनाईन प्रकारातील असतात. आता कुणी केनाईन (म्हणजे फ्रेंच-इंग्लिश भाषेतील कुत्रा हा शब्द) ला K-9 असं समजू आणि लिहू शकत असेल तर त्याला आपण काय करणार?
लहानपणी तमाम बालकवर्ग यांना भूभू या संबोधनाने ओळखातो…पण हा भूभू जेंव्हा भोभो करीत मागे लागतो तेंव्हा बालकांची बोबडी वळते, हेही खरेच. पुल्लींगी कुत्रा म्हणजे एक कुत्रा. आणि स्त्रीलिंगी कुत्री. अनेकवचन कुत्रे असे असतात. पण अनेक कुत्री असा अर्थ प्रचलित आहे. फार वेगळ्या अर्थाने,विशेषत: महिला वर्गात ‘कुत्री’ हा एकवचनी अपशब्द वापरात आहे. परेश रावलांच्या तोंडी ‘कुत-या’ ही शिवी तर सिनेरसिकांना अत्यंत गोड लागते. खरं तर हिंदीवाले कुत्र्या हा शब्द कुतरीया असा उच्चारतात. असो.
श्वान मानवाच्या जवळ आले आणि अगदी घरचे झाले त्याला खूप वर्षांचा इतिहास आहे. इथे श्वानप्रेमी आणि श्वानविरोधक असा विषय काढला तर खूपच लिहावे लागेल..म्हणून थांबतो. पण भटके कुत्रे हा एक अत्यंत गंभीर विषय म्हणावा लागेल….रात्री उशीरा घरी आणि तेही एकट्या-दुकट्याने (हो…दुचाकीवर दोघे असले तरी) परतणा-या वाटसरु लोकांना हा विषय पक्का माहीत आहे. भय इथले संपत नाही याचा अनुभव अनेकांनी घेतलेला असेल.
कुत्रे धावत्या वाहनांचा, विशेषत: दुचाकी वाहनांचा पाठलाग का करीत असावेत, यावर खूप संशोधन झालेले आहे. दुचाकी,हलकी वाहने(कार,रिक्षा इ.) आणि नंतर अवजड वाहने असा श्वानांचा पसंतीक्रम असतो, हेही निरीक्षण आहे.
कुत्रे दुचाकीच्या मागे लागले आहेत…आणि दुचाकीस्वाराच्या पोटरीचा लचका तोडला आहे, असे फार क्वचित झालेले असावे…आणि झालेच असेल तर त्याचे कारणही निराळेच असावे! कार चालक मात्र या चाव्यातून बचावतात…कारण ते आत सुरक्षित असतात. दुचाकीचालक जखमी होतात ते घाबरून वाहन दामटताना वाहन घसरल्यामुळे किंवा कुठेतरी धडकून. वाहन एका जागी स्थिर थांबले की कुत्रेही थांबतात आणि काहीच सेकंदात शांत होऊन निघून जातात, असा अनुभव आहे. इराक मध्ये अमेरिकी सैन्य घुसले आणि तिथे काहीच न सापडल्याने गोंधळून गेले होते. यावर ताईम्स ऑफ इंडिया मधल्या एका स्तंभात जग सूर्या नावाने लिहिणा-या लेखकाने इराक म्हणजे धावती कार..तिच्यामागे धावणारे अमेरिकी सैन्य…थांबलेली कार आणि आता करायचे नक्की काय? अशा संभ्रमात पडून जागच्या जागी थांबलेले कुत्रे असे चित्र शब्दांनी रंगवले होते. हो…या स्तंभ शब्दावरून आठवले….कुत्रे आणि खांब यांचा खूप निकटचा संबंध आहे. पण खूप बारीक पाहिलं तर कुत्र्यांना खांबच पाहिजे असतो, असे नाही. उभ्या असलेल्या कोणत्याही वस्तूवर हे प्राणीमित्र आपला ठसा उमटवू शकतात. कारण त्यांचे साध्य ठरलेले आहे..साधन नव्हे!
सर्वच हिंस्र श्वापदं आपला आपला इलाखा निश्चित करण्याच्या बाबतीत खूप सतर्क असतात. आता या सीमारेषा ठरवायच्या कशा? यावर त्यांनी एक अत्यंत सोपा उपाय शोधून काढला आहे…अनादी कालापासून. लघुशंका! इथे लघु म्हणजे अत्यंत थोडे असा अर्थ घेण्यास हरकत नाही. एन.जी.सी.,डिस्कवरी वाहिन्यांच्या कृपेने सामान्य लोकांना फक्त चित्रे,प्राणीसंग्रहालये यांतून पहावे लागणारे प्राणी घरबसल्या पाहण्याची सोय झाली. त्यातून मग प्राण्यांची इत्यंभूत माहिती दिसू लागली…(बिचा-या प्राण्यांच्या खाजगी जीवनाचा भंग मात्र पदोपदी होतानाही दिसू लागला!)
वाघ,सिंह आपल्या सीमा कोणत्या आहेत,हे इतरांना सहज समजावे म्हणून परिसरातील झाडांवर आपल्या मूत्राचा अगदी मोजक्या प्रमाणातील फवारा मारताना आपण पाहिले असेल. म्हणजे संबंधित जागा मालक जवळपास नसतानाही आगंतुकास सहज समजावे की Tresspassers will be prosecuted! आणि तरीही कुणी घुसलाच तर त्याचं काही खरं नसतं..हे समस्त प्राणीजगत जाणून असते. बरं, हे marking करताना ज्याच्या साठी ह्या खाणाखुणा पेरलेल्या असतात त्याला सहज गंध मिळेल याचीही काळजी घेतली जाते…नाहीतर आपले सरकारी फलक…वाहन उभे करून झाल्यावरच समजते की आजतर P-2. आणि तोपर्यंत इटुकली पिटुकली पावती फाडून झालेली असते.
दुस-या प्राण्याच्या नाकासमोर ही खूण असेल, त्याला ती सहज हुंगता यावी, अशाच उंचीवर ही फवारणी अचूक केली जाते. आता, आपले कुत्रे जरी आपल्या आश्रयाने रहात असले तरी त्यांनी आपापसात आपले जागावाटप निश्चित करून घेतलेले असते. त्यांची वार्डरचना अगदी अचूक असते. बाहेरचा कुणी आला की त्याला सीमेच्या पलीकडे पिटाळून लावणे एवढंच काम सर्व मिळून करतात. बाकी संघर्ष टाळण्याचाच प्रयत्न जास्त असतो. म्हणून कुत्रे विजेच्या खांबावर विशिष्ट उंचीवरच खूण करून जातात. दुस-या कुत्र्याला उभ्याउभ्याच (अर्थात आडव्या आडव्याच) तो वास हुंगता यावा आणि तिथून मुकाट पुढे निघून जाता यावं) गोष्टी लक्षात याव्यात,अशी योजना असते. आता खांब कमी असतील आणि परिसर मोठा असेल तर मग कुत्रे अन्य मार्ग शोधतात. दुचाकी,मोटारी यांचे टायर्स अगदी सोयीचे ठरतात. रबरावरील खुणा लवकर मिटत नाहीत…यासाठीच टायर long lasting म्हणवले जात असावते! म्हणून कुत्रे याच वस्तूवर टांग वर करतात! बाहेरून आलेला कुत्रा अगदी सहज ह्या पाट्या पाहतो…आणि शारीरिक ताकद मर्यादित असेल तर पुढील मार्गावर निघून जातो..शेपूट योग्य त्या ठिकाणी लपवून.
आता आपण जर आपली ही गंधीत दुचाकी घेऊन निघालो आहोत…आणि हा गंध भलत्याच श्वानांचा असेल तर आपण ज्या गल्लीतून जातो निघालो आहोत त्या गल्लीतील बाहु(दंत)बली सभासद लोकांना आक्षेप असणं साहजिकच नव्हे काय? हे लोक दुचाकी,कारच्या नव्हे तर त्यांच्या टायर्स वरील शत्रूपक्षाच्या सुकलेल्या खुणांचा मागोवा घेत धावत असतात..आणि आपल्याला वाटतं की ते आपल्या मागे धावताहेत! असं घडत असताना (दुचाकीवरील) व्यक्तींनी आपलेही पाय थोडे वर उचलून धरले आणि सरळ रेषेत मार्गाक्रमण करीत राहिले तर काम होते…ते पहारेकरी त्यांच्या सीमा ओलांडून पुढे येत नाहीत..उलट मागून येणा-या दुस-या वाहनांच्या मागावर…नव्हे वासावर राहतात…त्यांचे आपले वैय्यक्तिक वैर असण्याचं काही कारण नाही!
पण आपण नेहमीच त्यांच्या मार्गातून ये जा करीत असू, आणि ती ही रात्री…तर काही दिवसांनी हे ड्युटीवर असलेले पहारेकरी आपल्या ओळखीचेही होऊ शकतात. त्यांना अधोन्मधून चापानी देत गेलं की तर मग आपली साधी तपासणीही होत नाही. पण एखादेवेळी पहारेकरी बदलला गेला आहे आणि आपल्याला ते ठावे नाही, तर अशावेळी अतिआत्मविश्वास नडू शकतो.
एवढं सगळं असलं तरी भीतीही वाटतेच. यावर उपाय म्हणून काही लोक मार्ग बदलतात. पण असे मार्ग नसतातच मुळात. दाट मनुष्यवस्ती ,गर्दी किती आहे! यावर एक गमतीशीर उपाय सांगणारा एक विडीओ सध्या खूप बघितला जातो आहे…काही लोक रात्री दुचाकीवरून गल्लीत घुसले आहेत…..अर्थात जागरूक कुत्रे त्यांच्या मागे धावाताहेत…दुचाकीवरील लोक ओरडून म्हणताहेत…लोकल ही भाई…इधर के ही हैं….(आम्ही इथलेच आहोत भावांनो! स्थानिक निवासी आहोत…!) आणि हे ऐकून ते कुत्रे आपले आक्रमण रहित करतातही…असे दिसते!) टोल नाक्यावर साधारण असा संवाद ऐकू येत असतो..पण हा मोकाट टोळश्वानांच्या तावडीतून सुटण्यासाठी वापरलेला फंडा मात्र अजब आणि मनोरंजन करणारा आहे. मात्र ही सबब सर्वच कुत्र्यांना समजेल असे नाही! त्यामुळे सावधान! आणि हो…शक्य झाल्यास वरचेवर वाहनांचे टायर्स पाण्याने स्वच्छ करीत जावे, हे उत्तम!
(या लेखात एकट्या मुलाला, व्यक्तीला गाठून त्याचा चावे घेऊन जीव घेणा-या कुत्र्यांचा विचार केलेला नाही! हा अत्यंत गंभीर प्रकार आहे. दिल्लीत एका व्यक्तीचा मोकाट कुत्र्यांनी जीव घेतल्याची घटना ताजी आहे!)