हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 65 – हैं बाण विषबुझे सब, उनकी जुबान के… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – हैं बाण विषबुझे सब, उनकी जुबान के।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 65 – हैं बाण विषबुझे सब, उनकी जुबान के… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

कमरे खुशी से खाली दिल के मकान के

आने से भर गये हैं इक मेहमान के

*

बाँकी वो उनकी चितवन, कितनों की जान लेगी 

पैने हैं तीर, उनकी भ्रू की कमान के

*

जिनने सबक सिखाया, इन्सानियत का हमको 

बदले हैं अर्थ हमने, गीता-कुरान के

*

नफरत, घृणा, अदावत, आतंकवाद जैसे 

सामान मजहबी हैं, उनकी दुकान के

*

लाशों के ढेर जिनकी आवाज पर लगे हैं 

हैं बाण विषबुझे सब, उनकी जुबान के

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 138 – बूढ़ी आजी माँ और मैं☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “बूढ़ी आजी माँ और मैं। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 138 – बूढ़ी आजी माँ और मैं ☆

मैं

टकटकी लगाए

देख रहा हॅूं ,

उन हाथों को

जो कर्मठता के

प्रतीक थे ।

माटी के लौंदो में

सने वे हाथ

अपने व अपने-

जिगर के टुकड़ों के लिए

घरौंदा बनाने

कितने उतावले थे ।

संग्रह की प्रवृत्ति ने

उन्हें कहीं का न छोड़ा था ,

तन तार-तार कर दिया था –

और सम्पूर्ण जीवन

लगा दिया था, दाँव पर ।

तब कहीं जा कर

एक घर बना था ।

ऐसा घर, जहाँ पूरा

कुनबा का कुनबा

रह रहा था-बड़े ठाट से,

बड़े आराम से ।

आज वही हाथ

झुर्रियों से भऱे थे –

और काँप रहे थे ,

किसी सहारे की आस में ।

इस कोने से उस कोने

घिसट- घिसट कर

लोगों के दिलों में

बैठने भर के लिये

स्थान ढूँढ़ रही थी ।

पर जगह तो

बिल्कुल सिमट कर

रह गयी थी ।

अब तो वह मात्र

पूजा गृह से बुहारे गये

बासे फूलों

और शेष बचे हवन के

कचरे जैसी थी ,

जिसे यूँ ही झाड़ कर

कहीं भी नहीं डालते

क्योंकि ऐसा करने से

लगता है -पाप ।

फिर तो उसे अभी कुछ दिन और

एक कोने में पड़े रहना है ।

जब तक वह ढेर न हो जाये,

ऐसा करने से किसी को भी

पाप नहीं लगेगा ।

और साथ ही सब पुण्य के

भागीदार बनेंगे ।

बस सभी को इंतजार है,

उनकी मृत्यु और उनसे मुक्ति का ।

जीवन का यह अंतिम सत्य

इसी तरह बार-बार दुहराया जाता है ।

इसीलिए कभी -कभी

मुझे अपना शरीर भी

झुर्रियों के आवरण से ढॅंका,

कमानी सा झुका,

खाँसता खखारता-

और हड्डियों के ढाँचे सा

किसी डॉक्टर की डिस्पेंसरी में टंगा

कैडलॉक सा नजर आता है।

बूढ़ी आजी के

काँपते तन के समान

स्वयं को पाता हूँ ।

और लगता है- मैं भी

उस कचरे के समान पड़ा हूँ ,

एक किनारे

ढेर होने के लिए ।

कोई आए और मुझे भी

विसर्जित कर आए ।

शायद इसी को

प्रत्येक के जीवन की

नियति कहते हैं ।

या कृतघ्नता की

पराकाष्ठा ।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चुप्पी – 33 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  चुप्पी – 33 ? ?

(लघु कविता संग्रह – चुप्पियाँ से)

-कुछ कहो

तुम्हारी चुप्पी

बरदाश्त नहीं होती,

मैंने कोरा कागज़

मोड़कर थमा दिया,

-पढ़ लो, सारा कुछ

इस पर लिख दिया है,

ज़िंदगी भी

एक करवट ले चुकी

उसका बाँचना

बदस्तूर जारी है,

सोचता हूँ

इतना ज़्यादा तो

नहीं लिखा था मैंने!

© संजय भारद्वाज  

12:25 बजे

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्रवण मास साधना में जपमाला, रुद्राष्टकम्, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना करना है 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 20 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग -3 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – भूटान की अद्भुत यात्रा)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 20 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग – 3 ?

27 मार्च 2024

हम लोग सुबह ही 9 बजे दोचूला पास देखने के लिए रवाना हुए। यहाँ एक पहाड़ी के ऊपर 108 स्तूप बने हुए हैं। यहाँ काफी सर्द हवा चल रही थी। यह एक खूबसूरत स्थान है। यहाँ 2003 में जो मिलीटरी ऑपरेशन हुए थे उन भूटानी शहीद सैनिकों की स्मृति में ये स्तूप बनाए गए हैं। इसे द्रुक वाँग्याल चोर्टेन्स कहा जाता है। ऊपर से दृश्य अद्भुत सुंदर है। मेघ ऐसे उतर आते हैं मानो वे स्तूपों के साथ उनका अनुभव साझा करना चाहते हैं। हमने यहाँ खूब सारी तस्वीरें खींची। स्वच्छ और नीले आकाश से बादलों के टुकड़े बीच- बीच से झाँकते रहे। चारों ओर पहाड़ों पर हरियाली थी। मेघ के टुकड़े रूप बदलते हुए सरक रहे थे। देखकर ऐसा लग रहा था कि हम उन्हें अपने हाथों में भर लें। हवा सर्द थी। घंटे भर बाद हम वहाँ से नीचे उतर आए और हमारे दूसरे दर्शनीय स्थान की ओर बढ़े।

यह था फर्टीलिटी टेम्पल। यह गोलाकार ऊँची बड़े भूखंड पर बना एक मंदिर है। इसे चिमी लाख्यांग टेम्पल कहते हैं। मंदिर में शिश्न की बड़ी आकृति रखी रहती है जिसे फुलाका कहा जाता है। भूटान के लोगों का विश्वास है कि इस मंदिर में पूजा करने पर संतान की प्राप्ति होती है। संतान की स्त्री अपने हाथ में फुलाका पकड़कर तीन बार प्रदक्षिणा करती है। संतान प्राप्ति के पश्चात नवजात के नामकरण के लिए सपरिवार इस मंदिर में दर्शन करने आता है। यह चौदहवीं शताब्दी में बनाया गया मंदिर है। वास्तव में देखा जाए तो भारत के कई राज्य में भी संतान प्राप्ति हेतु माता के मंदिर हैं। अंतर इतना ही है कि भूटान में फुलाका का महत्त्व है। हमारे यहाँ माता शक्तिरूपा है इसलिए माता की पूजा होती है। थाइलैंड में एक विशाल शिवलिंग बना हुआ है जिसकी पूजा वहाँ के निवासी संतान के जन्म की अभिलाषा से करते हैं। स्मरण करा दें कि थाईलैअंड भी बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं।

मंदिर में दर्शन लेकर हम अब पुनाखा द्ज़ॉंग देखने के लिए निकले। यह एक महल है। पत्थर और नक्काशीदार लकड़ियों से बनी इमारत है। सन 1637-38 में ज़ाब्दरंग नाग्वांग नामग्याल इसी राजा ने भूटान की स्थापना की थी। इससे पूर्व यह सारा देश छोटे -छोटे कबीलो में बँटा हुआ था।

भूटान में दो नदियाँ बहती हैं जिनका नाम है फो चू और मो चू ये दोनों नदियाँ पिता और माता के रूप में मानी जाती हैं। यह इमारत इन्हीं दो नदियों के संगम स्थान पर बनी हुई है।

राजा का विश्वास था कि पुरुष और स्त्री दोनों के सहयोग से परिवार, समाज और राज्य बनता है साथ ही दोनों मिलकर ही ऊर्जा देते हैं ठीक इन नदियों की तरह। ये दोनों नदियाँ लंबी यात्रा करती हैं और यथेष्ट पानी से नदियाँ भरी रहती हैं।

द्ज़ॉंग इमारत धार्मिक तथा शासकीय व्यवस्थाएँ चलाने के उद्देश्य से सन 1950 तक काफ़ी कार्यशील रही। यहाँ कई प्रकार के धार्मिक कार्यक्रम होते रहे। साथ ही भूटान के राजा उज्ञेन वाँगचुक का राजतिलक भी यहीं पर हुआ था। यहीं से वाँगचुक परिवार राजा बनते आ रहे हैं और आज यहाँ पाँचवे वर्तमान राजा जिग्मे खेसर नामग्याल वांगचुक हैं। उनकी पत्नी जेत्सुन पेमा वांगचुक रानी हैं। संसार के सबसे जवान और कम उम्र में बने राजा हैं जिग्मे।

इस विशाल इमारत में आज भी कई धार्मिक उत्सव मनाए जाते हैं। इसका विशाल परिसर, स्वच्छ और सुंदर आँगन, बड़ी सी इमारत न केवल स्थानीय लोगों को आकर्षित करती है बल्कि पर्यटकों को यह सब कुछ बहुत ही सुंदर और शांति प्रदान करने वाली जगह प्रतीत होती है।

इस इमारत से थोड़ी दूरी पर श्मशान भूमि है क्योंकि यहाँ नीचे नदी बहती है। फिर एक कच्ची और उबड़-खाबड़ रास्ते से हम ससपेन्शन ब्रिज देखने पहुँचे।

यह ब्रिज थाँगटॉन्ग ग्याल्पो ने बनया था। इस ससपेन्शन ब्रिज की कई बार मरम्मत भी की गई है। इसे पुनाखा डोज़ॉन्ग से उस पार के अन्य गाँवों से जोड़ने के लिए बनाया गया था। यह ब्रिज 180 मीटर लंबा है। यह फो चू नदी पर बनाया हुआ है। इस पर चलते समय थोड़ा डर अवश्य प्रतीत होता है क्योंकि यह लोहे से बना पुल केवल इस पार से उस पार तक झूल रहा है। बीच में कोई आधार नहीं है। हवा चलने पर पुल हमारे भार से लहराने लगता है। पुल के दोनों ओर असंख्य प्रार्थना पताकाएँ बाँधी हुई हैं। यह स्थानीय लोगों की आस्था का प्रतीक भी है। देर शाम तक घूमने के बाद हम अपने होटल में लौट आए। हमारा दिन आनंदमय और जानकारियों से परिपूर्ण रहा।

28/3/24

आज हम पारो पहुँचे। पहाड़ी के ऊपर स्थित एक भव्य तथा सुंदर होटल में हमारे रहने की व्यवस्था थी। होटल के कमरे से बहुत सुंदर मनोरम दृश्य दिखाई दे रहा था। नीचे नदी बहती दिखाई दे रही थी।

पारो पहुँचने से पूर्व हमने पारो एयर पोर्ट का दर्शन किया। ऊपर सड़क के किनारे खड़े होकर नीचे स्थित हवाई अड्डा स्पष्ट दिखाई देता है। यह बहुत छोटा हवाई अड्डा है। भूटान के पास दो हवाई जहाज़ हैं। यहाँ आनेवाले विदेशी पर्यटक दिल्ली होकर आते हैं क्योंकि भूटान एयर लाइन दिल्ली और मुम्बई से उड़ान भरती है। कई बार भारतीय विमान के साथ भी व्यवस्था रहती है। इस हवाई अड्डे पर दिन में एक या दो ही विमान आते हैं क्योंकि छोटी जगह होने के कारण रन वे भी अधिक नहीं हैं। साफ़ -सुथरा हवाई अड्डा। दूर से और ऊपर से देखने पर खिलौनों का घर जैसा दिखता है।

दोपहर का भोजन हमने एक भारतीय रेस्तराँ में लिया जहाँ केवल निरामिष भोजन ही परोसा जाता है। पेमा और साँगे के लिए अलग व्यवस्था की गई थी और उन्हें अलग टेबल पर बिठाया गया था। वहीं पर उन दोनों को अपने परिचित कुछ चालक और गाइड भी मिले। भोजन के पश्चात पेमा ने बताया कि उन्हें लाल भात, मशरूम करी और दाल परोसी गई। पेमा ने बताया कि अपने साथ घूमने वाले पर्यटकों को जब वे ऐसे बड़े रेस्तराँ में लेकर आते हैं तो उन्हें कॉम्प्लीमेन्ट्री के रूप में (निःशुल्क ) भोजन परोसा जाता है। पर यह भोजन फिक्स्ड होता है। अपनी पसंदीदा मेन्यू वे नहीं ले सकते। पर यह भी एक सेवा ही है। वरना आज के ज़माने में मुफ़्त में खाना कौन खिलाता है भला! वहाँ आनेवाले हर ड्राइवर और गाइड को भरपेट भोजन दिया जाता है। यहाँ बता दें कि भूटानी तेज़ मिर्चीदार भोजन पसंद करते हैं।

रेस्तराँ से निकलते -निकलते दो बज गए। हमारी सहेलियाँ वहाँ के लाल चावल और कुछ मसाले खरीदना चाहती थीं तो हम उनके लोकल मार्केट में गए। वहाँ कई प्रकार की स्थानीय सब्ज़ियाँ देखने को मिलीं जो हमारे यहाँ उत्पन्न नहीं होतीं। कई प्रकार की जड़ी बूटियाँ दिखीं जिसे वे सूप पकाते समय डालते हैं जिससे वह और अधिक पौष्टिक बन जाता है।

कुछ मसाले और चावल खरीदकर अब हम एक ऐसी जगह गए जहाँ सड़क के किनारे कई दुकानें लगी हुई थीं। इन में पर्यटकों की भीड़ थी क्योंकि वे सोवेनियर की दुकानें थीं।

यहाँ महिलाएँ ही दुकानें चलाती हैं। हर दुकान के भीतर सिलाई मशीन रखी हुई दिखी। महिलाएँ फुरसत मिलते ही बुनाई, कढ़ाई, सिलाई का काम जारी रखती हैं। कई प्रकार के छोटे पर्स, थैले, पेंसिल बॉक्स, शॉल आदि बनाती रहती हैं। कुछ महिलाओं के साथ स्कूल से लौटे छोटे बच्चे भी थे। शाम को सात बजे सभी दुकानें बंद कर दी जाती हैं। खास बात यह है कि सभी महिलाएँ व्यवहार कुशल हैं और हिंदी बोलती हैं। हमें उनके साथ बात करने में आनंद आया। कुछ उपहार की वस्तुएँ खरीदकर गाड़ी में बैठने आए तो गाड़ी काफी दूर लगी हुई थी।

इसबाज़ार की एक और विशेषता देखने को मिली कि दुकानी वाले अहाते में यहाँ गाड़ियाँ नहीं चलतीं। सभी खरीददार बिना किसी तनाव या दुर्घटना के भय से दूर रहकर आराम से हर दुकान के सामने खड़े होकर वस्तुएँ देख, परख, पसंद कर सकते हैं। दुकानों और मुख्य सड़क के बीच कमर तक दीवार बनाई गई है। ग्राहकों के चलने के लिए फुटपाथ है। ऐसी व्यवस्था हमें गैंगटॉक और लेह में भी देखने को मिली थी। इससे पर्यटकों को भीड़ का सामना नहीं करना पड़ता है। अब तक पाँच बज चुके थे। पेमा ने हमें पूरे शहर का एक चक्कर लगाया और हम होटल लौट आए।

पारो शहर स्वच्छ सुंदर है। खुली चौड़ी सड़कें, विद्यालय से लौटते बड़े बच्चे जगह -जगह पर खड़े होकर हँसते -बोलते दिखे। पहाड़ी इलका और प्रकृति के सान्निध्य में रहनेवाले ये खुशमिजाज़ बच्चे हमारे मन को भी आनंदित कर गए।

स्थान -स्थान पर चेरी के और आलूबुखारा के फूलों से लदे वृक्ष दिखे। ये गुलाबी रंग के सुंदर फूल होते हैं। दृश्य अत्यंत मनोरम रहा। कहीं कहीं छोटे बगीचे भी बने हुए दिखाई दिए।

हम होटल लौट आए। चाय पीकर हम तीनों फिर ताश खेलने बैठीं।

क्रमशः… 

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani1556@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 165 ☆“संभवामि युगे युगे” – लेखक … श्री कुमार सुरेश ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री कुमार सुरेश द्वारा लिखित पुस्तक “संभावामि युगे युगे” (जीवनी) पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 165 ☆

“संभवामि युगे युगे” – लेखक … श्री कुमार सुरेश ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

संभवामि युगे युगे

आई एस बी एन ९७८.९३.८९४७१.५०.२

कुमार सुरेश

विद्या विहार नई दिल्ली

मूल्य ३०० रु

चर्चा …. विवेक रंजन श्रीवास्तव

मो ७०००३७५७९८

श्रीमद्भगवत गीता के चौथे अध्याय के आठवें श्लोक “परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥ “से श्री कुमार सुरेश ने किताब का शीर्षक लिया है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि दुष्टों के विनाश के लिये मैं हर युग में हर युग में फिर फिर जन्म लेता हूं। विदेशी आक्रांताओ के विरुद्ध भारत की निरंतर संघर्ष गाथा का इससे बेहतर शीर्षक भला हो भी क्या सकता था। कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन सारा जहाँ हमारा। प्रगति के लिये अस्तित्व का यह संघर्ष रूप बदल बदल कर फिर फिर हमारे समाज में खड़ा होता रहा है, आज भी जारी ही है। कुमार सुरेश मूलतः एक अध्येता और विचारक बहुविध लेखक हैं। कभी उनका व्यंग्यकार उनसे तंत्रकथा जैसा मारक व्यंग्य उपन्यास लिखवा डालता है, तो कभी वे व्यंग्यराग लिखते हैं जिसमें वे अपने स्फुट व्यंग्य संग्रहित कर साहित्य जगत को सौंपते हैं। कभी उनके अंदर का कवि “शब्द तुम कहो”, “भाषा सांस लेती है”, “आवाज एक पुल है ” जैसी कविताओ के महत्वपूर्ण संग्रह रच देता है। साहित्य जगत उन्हें गंभीरता से पढ़ता और रजा पुरस्कार या शरद जोशी जैसे सम्मानो से सम्मानित करता है। कुमार सुरेश के पास अनुभव है, उन्होंने प्रकाशन जगत में भी दस्तक दी थी, वे प्रशासनिक अधिकारी रह चुके हैं। उनके पास जन सामान्य पाठक तक पहुंचने वाली अभिव्यक्ति और भाषा सामर्थ्य है। वे मेरे अभिन्न सारस्वत मित्र हैं, और इस किताब की लेखन यात्रा में पाण्डुलिपि पढ़ने, शीर्षक तय करने तथा प्रकाशक कौन हो यह निर्णय लेने में पल पल अवगत रहने का गौरव मुझे रहा है।

अपने इतिहास को जानना समझना प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार भी है और कर्तव्य भी। इतिहास के प्रति जिज्ञासा नैसर्गिक मनोवृत्ति होती है। घर परिवार कुटुम्ब में दादियों की ज्वैलरी के डिब्बे में सिजरे होते हैं जिनमें पीढ़ी दर पीढ़ी खानदान का हाल नाम पते मिल जाते हैं। जिनके घरों में यह नहीं उनकी पुश्तों का हिसाब प्रयाग संगम के पंडो के पास मिल ही जाता है। राजस्थान में वंशावली लेखन की परंपरा है। पुराने राजाओ ने अपने दरबार में इस कार्य के लिये लोगों को रखा था, जो बढ़ा चढ़ा कर राजाओ तथा उनके पूर्वजों और राज परिवार के सदस्यों की वीरता तथा महिलाओ की सुंदरता के किस्से लिखा करते थे। यह वंशावली लेखन की व्यवस्था आज भी राजस्थान में चल रही है। गौरव शाली इतिहास पर नई पीढ़ी गर्व करती है, पुरानी गलतियों से शिक्षा लेती है किंतु यह भी सही है कि इतिहास का ज्ञान वर्तमान में कटुता भी फैलाता है, आज देश में यही देखने में आ रहा है। राजनैतिक दल इसका लाभ लेने से बाज नहीं आ रहे। अस्तु।

संभवामि युगे युगे में कुमार सुरेश ने कालक्रम में प्रामाणिक तथ्यों के आधार पर संदर्भ देते हुये सिकंदर के समय से औरंगजेब के काल तक भारतीय इतिहास को अपनी वांछित तीप के साथ संजोने में सफलता अर्जित की है। पुस्तक के अध्यायों का अवलोकन करें तो पुस्तक लेखन का मूल आशय समझ आ जाता है। वर्तमान में जो इतिहास पाठ्यक्रम में पढ़ाया जा रहा है, उसमें अनेक विदेशी आक्रांताओ का महिमा मंडन पढ़ने मिलता है। संभवतः गंगा जमनी तहजीब की संस्कृति बताकर उन आक्रांताओ का पक्ष सशक्त होने के चलते सामाजिक समरसता बनाये रखने के लिये वामपंथी इतिहास कारों ने ऐसा किया। किन्तु कुमार सुरेश ने पूरी ढ़ृड़ता से ऐसे कई आक्रांताओ की क्रूरता और अत्याचार पर बेबाकी से लिखा है। उन्होंने यह धारणा भी खंडित की है कि समुचा भारतवर्ष पर मुगल साम्राज्य के अधीन था।

पहले अध्याय “भारत सदा से एक राष्ट्र है”, में लेखक ने आर्य संस्कृति को मूलतः भारतीय संस्कृति लिखते हुये हिन्दुओ के देश भर में फैले ज्योतिर्लिंग, देवी पीठों, कुंभ के आयोजनो जैसे तर्क रोचक तरीके से रखा है। पुस्तक में डी एन ए एनालिसिस के वैज्ञानिक आधार पर आर्य तथा द्रविड़ को मूलतः भारत का हिस्सा बताया गया है। उन्होंने उल्लेख किया है कि १९४६ में ही अंबेडकर जी ने सिद्ध कर दिया था कि आर्य बाहर से नहीं आये थे। दूसरा अध्याय “सोने की चिड़िया पर बुरी नजरें ” है। किंचित भारतीय भूगोल, भारत से जुड़ने वाले विदेशी मार्गों के सचित्र वर्णन के साथ अखण्ड भारत की तत्कालीन संपन्नता और इस वजह से विदेशियों की भारत में रुचि पर विशद वर्णन इस अध्याय में है। इस पुस्तक को लिखने के लिये लम्बे समय तक कुमार सुरेश ने गहन अध्ययन किया है, जिनमें दर्जन भर से अधिक अंग्रेजी की किताबें हैं जिन्हें अध्ययन कर उनके वांछित कथ्य अपने तर्क रखने के लिये लेखक ने किया है। यह तथ्य संदर्भांकित पुस्तकों की सूची ही नहीं हर अध्याय में उधृत एतिहासिक अंश स्पष्ट करते हैं। जब सिकंदर आता है कोई पोरुष खड़ा हो जाता है, प्रतिरोध की यह भारतीय मूल प्रवृति ही संभवामि युगे युगे है जिसके चलते आज भी भारत अपनी मूल संस्कृति के साथ यथावत दुनियां में विश्वगुरू बना खड़ा हुआ है। चौथा अध्याय ” सिंध पर अरबों का आक्रमण उनके लिये एक न भूलने वाली असफलता बन गया ” है। भारतीय योद्धाओं ने अधिकांशतः कभी स्वयं किसी पर आक्रमण भले न किया हो पर हमेशा आक्रांताओ के प्रतिरोध में सुनिश्चित हार के खतरे को भांपते हुए भी हमेशा आक्रांताओं का मुकाबला पूरी वीरता और साहस से किया। इतिहास के बड़े-बड़े कालखंड ऐसे थे, जिनमें विदेशी आक्रांताओं को पराजय मिली। ये कालखंड छोटे नहीं, तीन सौ सालों तक लंबे रहे हैं। भारत में अनेक हिस्से ऐसे हैं, जिनमें आक्रांता कभी प्रवेश नहीं कर पाए। आक्रमणकारियों को सदैव भारत पर आक्रमण की बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। बीच में ऐसे काल भी आए, जब विदेशी आक्रांताओं को कुछ सफलता मिली। किंतु जैसे ही मौका मिला, कोई-न-कोई वीर उठकर खड़ा हो गया। किसी-न-किसी क्षेत्र के आम लोगों ने विदेशी शासन के खिलाफ संघर्ष किया और उसे पराजित किया या इतना नुकसान तो जरूर पहुँचाया कि आक्रांता को भारतीय इच्छाओं का आदर करना पड़ा। भारतीय संस्कृति को जीवित रखने की ऊर्जा हमारे जिन पूर्वजों के बलिदानों से प्राप्त हुई है, यह पुस्तक उन पूर्वजों के प्रति लेखक की कृतज्ञता व्यक्त करने का प्रयास है। आठवी सदी में इस्लाम के भौगोलिक विस्तार को नक्शों के जरिये बताया गया है। अगले अध्याय का नाम हिंदूशाही वंश का शौर्य है। जिसमें महमूद गजनी से राजस्थान के योद्धाओ की चर्चा है। मीर तकी मीर ने एक शेर लिखा था ” उसके फरोग हुस्न में झमके है सब में नूर ” जिसमें उन्होंने काबा और सोमनाथ को एक सृदश ही बताया था। महमूद गजनवी की सेना के लौटने से भारतीय समृद्धि की सूचनायें विदेशों तक पहुंची और इसके चलते भारत पर आक्रमण के तांते लग गये। छोटे छोटे अध्यायों में बिंदु रूप से बड़ी बातें कह देने में लेखक ने सफलता अर्जित की है। पृथ्वीराज चौहान की वीरता के किस्से भारतीय इतिहास का गौरव है, उसे एक पूरे चेप्टर ” सम्राट पृथ्वीराज चौहान जिन्हें केवल धोखे से हराया जा सका ” में लिखा गया है। पूर्वोत्तर से भी आक्रांताओ ने भारत पर हमले के प्रयास किये थे पर असम के वीरों ने बक्तियार खिलजी को ऐसी धूल चटाई कि हमेशा के लिये उस ओर से भारत पर विदेशी आक्रमण नियंत्रित बने रहे। भारतीय प्रतिरोध की खासियत पीढ़ी दर पीढ़ी आक्रांता सल्तनतों का विरोध रहा है। राजस्थान के वीरों की ही नहीं वहां की वीरांगनाओ द्वारा उठाये गये कदम अद्भुत रहे हैं। उन पर पूरा अध्याय लिखा गया है। जिस भारतीय संस्कृति की विशेषता ही यह है कि वह हमारी रगों में पल्लवित पोषित होती है। जहां भी भारतीय गये वहां उनके साथ भारतीयता भी गई। लेखक ने स्पष्ट किया है कि १४०० ई तक विदेशी आक्रांता समझ गये कि भारतीय संस्कृति को मिटाना असंभव है। बाबर के आक्रमण का प्रतिरोध, पानीपत की लड़ाई, हेमू का विस्मृत बलिदान, मुगलों को निरंतर चुनौती, औरंगजेब से जाट, मराठों और राजपूतों के संघर्ष, समुद्र के रास्ते पुर्तगाली, डच, डेनिश, फ्रेंच और ब्रिटिशर्स यूरोपियन्स के भारत प्रवेश, १८५७ के संग्राम से पहले भी अंग्रेजो को भारत से निकालने के प्रयास एक चेप्टर में प्रस्तुत किये गये हैं। अंतिम अध्याय है ” यह बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी ” जिसमें लेखक ने अपने एतिहासिक अध्ययन का निचोड़ रख कर हमें गर्व का अवसर दिया है।

इतिहास की २०० से ज्यादा पृष्ठो पर फैली रोचक सामग्री को समेटना दुष्कर कार्य होता है। मैने पुस्तक की विषय वस्तु की बिन्दु रूप चर्चा कर किताब से पाठको को परिचित कराने का प्रयास किया है, किताब अमेजन सहित विभिन्न प्लेटफार्म पर उपलब्ध है, किताब बुलवाईये और पढ़िये तभी आप भारत के गौरवशाली इतिहास को लेखक के नजरिये से समझ सकेंगे। किताब पैसा वसूल तो है ही, संदर्भ के लिये संग्रहणीय है।

चर्चा …. विवेक रंजन श्रीवास्तव

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, apniabhivyakti@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 431 ⇒ चिन्तामणि… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चिन्तामणि।)

?अभी अभी # 430 ⇒ चिन्तामणि? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सरकारी स्कूल में पढ़ने का एक लाभ यह भी हुआ कि सभी प्रमुख हिंदी लेखकों से परिचय हो गया। प्रसाद, प्रेमचंद, निराला, महादेवी और हजारीप्रसाद द्विवेदी। सुमित्रानंदन पंत को व्यक्तित्व के आधार पर महिला समझने की भूल हम भी कर बैठे थे। लेकिन सबसे अधिक हमें जिसने प्रभावित किया, वे थे, आचार्य रामचंद्र शुक्ल।

हिंदी साहित्य का इतिहास तो हमने बाद में पढ़ा, लेकिन मनोभाव और विकारों पर चिंतामणि में संकलित उनके निबंधों ने हमें अधिक प्रभावित किया। हमने अंग्रेजी निबंधकार फ्रांसिस बेकन को भी पढ़ा, लेकिन उनमें वह बात नहीं थी, जो चिंतामणि में हमने पाई। । दूसरा हमारा उनकी ओर झुकाव उनके व्यक्तित्व के कारण था, विदेशी पहनावा, गले में टाई, घनी विशिष्ट प्रकार की मूंछ और आंखों पर मोटा चश्मा। ।

तब से आज तक, उनकी शायद एक ही तस्वीर उपलब्ध है। हमारी उनकी केवल एक ही समानता रही है, मैं भी बचपन से ही उनकी तरह मोटा चश्मा लगाता आ रहा हूं। उनका मोटा चश्मा जहां उनके ज्ञान के आगार, तीक्ष्ण बुद्धि और विद्वत्ता का प्रतीक है, वहीं मेरा मोटा चश्मा मेरी मोटी बुद्धि का प्रतीक। हाथ कंगन को आरसी क्या, आप एक तरफ चिंतामणि रख दीजिए और दूसरी ओर अभी अभी। अंतर स्पष्ट हो जाएगा।

मनोभाव हमारे विचारों का ही तो प्रकटीकरण है। अगर चित्त शुद्ध है तो विचार भी शुद्ध ही होंगे और अगर चित्त विकार युक्त है तो वे विचार मनोविकार कहलाएंगे।

चिंता और चिंतन से भी बेहतर एक मार्ग स्वाध्याय का है, जहां चिंतन, मनन, के साथ अध्यात्म चिंतन भी संभव है। चिंतामणि है तो हमारे अंदर ही, उसे बाहर नहीं खोजा जा सकता ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 201 – सिसकती बूँदें ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “सिसकती बूँदें”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 201 ☆

🌻 लघु कथा🌻 🌧️सिसकती बूँदें🌧️

चंचल हिरनी सी उसके दो नैन, बस इंतजार ही तो कर रहे थे। कई वर्षों से वह चाह रही थी कि घर वालों के साथ सुधांशु उसका अपना हो जाए।

शायद परदेस से आने के बाद मन बदल जाए। सावन हरियाली चारों तरफ छाने लगी थी। मन भी पिया मिलन के सपने संजोए उस पल को तक रही थी, कि कब वह घड़ी आए और उसमें वह व्याकुल धरा सी और अमृत बूँद बनकर वे समा जाए।

महक जाए सोंधी खुशबू से घर आँगन, सारा परिवार और फिर मनाने लगे त्यौहार शायद उसकी कल्पना कल्पना ही रह गई।

शुचि ने जैसे ही पलकों को खोल सामने देखना चाहा बारिश बंद हो चुकी थी। परंतु अभी भी तेज गर्जन की आवाज से वह उसी प्रकार से डरने लगी, जैसे सुधांशु खड़ा गरजती आवाज में कह रहा हो – दरवाजा खोलो कितनी देर लग रही हो। दरवाजा खोलते ही सुधांशु के साथ साथ ही साथ बिल्कुल आधुनिक लिबास में सुंदर सी नवयौवना  गृहप्रवेश करने लगी।

शुचि को समझते देर नहीं लगी वह ठहरी गांव की अनपढ़ शायद इसीलिए वह पीछे सरकती चली गई। तेज बिजली कौंध गई। बारिश की बूँदों का चारों तरफ तेज हवा के साथ गिरना आरंभ हुआ।

आँगन में कपड़े उठते शुचि के चेहरे पर सिसकती बूँद आज बहुत कुछ बोलती, परंतु बस फिर एक तेज आवाज और गिरती सिसकती बूँदें धीरे-धीरे पलकों को छोड़ हाथों के सहारे साड़ी के पल्लू तक पहुंच गई थी।

शायद बारिश की बूँदें भी शुचि की इस दशा पर सिसक-सिसक कर गिरने लगी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 94 – देश-परदेश – मेरे दोस्त पिक्चर अभी बाकी है ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

 

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 94 ☆ देश-परदेश – मेरे दोस्त पिक्चर अभी बाकी है ☆ श्री राकेश कुमार ☆

इस नाम से भी एक पिक्चर बन चुकी हैं। पिक्चर कितनी प्रसिद्ध हुई ? ये जानकारी हमें तो नहीं है, लेकिन इसका उपयोग डायलॉग के रूप में खूब चल रहा हैं।

आडंबर विवाह की चर्चा अभी चल ही रही हैं। सामाजिक मंच कह रहे है, पूरी दुनिया पर राज करने वाले देश की राजधानी लंदन में भी एक बड़े आयोजन की सुगबुघाट जोरों पर हैं।

उनको क्या अंतर पड़ता है, कोई बहुत बड़ा होटल उन्होंने कुछ समय से लीज पर लिया हुआ हैं। वहीं आयोजन हो जाएगा। अंतर तो उनको पड़ेगा, जिनके पास “पार्टी वियर” का सीमित प्रावधान हैं। प्रत्येक कार्यक्रम में भाग लेने वाले के लिए तो धर्म संकट की स्थिति बन गई हैं। एक वर्ष के आसपास से तो विवाह चल रहा हैं। देश में सबसे लंबी आम चुनाव की प्रक्रिया भी पूरी हो गई हैं। नीट का मामला भी सुप्रीम कोर्ट ने सुलटा दिया है। विश्व के अनेक जोड़ों का भी “आडंबर विवाह वर्ष” के दौरान हुआ है, उनके यहां तो नए मेहमान के आने की घोषणा भी हो चुकी हैं। इनमें से कुछ के विवाह विच्छेद की तैयारी में हैं।

पिक्चर अभी बहुत सारी बाकी हो सकती है, क्या पता अमेरिका, फ्रांस जैसे देशों में कोई आयोजन प्रस्तावित हों ?बड़े लोग बड़ी बातें, पेरिस ओलंपिक के उद्घाटन में शिरकत करने के समय, फ्रांस के राष्ट्रपति से मुलाकात भी हुई है। हो सकता है, फ्रांस भी चाहता हो, एक वैवाहिक कार्यक्रम उनके देश में भी आयोजित होना चाहिए।

हम भी चाहते हैं, ये दावतें, खुशियां हमेशा गुलज़ार रहें, ताकि हमें भी कुछ लिखने का मौका मिलता रहे।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचनाएँ/Information ☆ भावनाओं के आकाश में बाल विदुषी – ‘आराध्या तिवारी’ ☆ प्रस्तुती – श्री हेमन्त बावनकर ☆

☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

☆ भावनाओं के आकाश में बाल विदुषी – ‘आराध्या तिवारी’ ☆ प्रस्तुती – श्री हेमन्त बावनकर ☆

यदि उच्च संस्कृति और संस्कार का सानिध्य भी जुड़ जाए तो निश्चित ही नई प्रतिभा रोशनी बनकर संभावनाओं के आकाश में झिलमिलाने लगती है। आज हम ऐसी ही अद्भुत प्रतिभा की धनी बाल विदुषी यानि आराध्या तिवारी की बात कर रहे हैं। स्मॉल वंडर सीनियर सेकेंडरी स्कूल की एक सचमुच की स्मॉल वंडर कक्षा पांचवी की छात्रा आराध्या तिवारी ने बेहद कम उम्र में कई बड़ी उपलब्धियां हासिल की हैं और यह सिलसिला अभी भी बदस्तूर जारी है। बाल भवन, मध्यप्रदेश सरकार, जबलपुर के माध्यम से संगीत का विधिवत प्रशिक्षण प्राप्त कर रही हैं। जिसके संचालक श्री गिरीश बिल्लौरे जी हैं। भातखंडे संगीत महाविद्यालय में नृत्य का भी प्रशिक्षण प्राप्त कर रही हैं। स्वयं के चैनल “प्रियम प्रियम और सिर्फ प्रियम” का संचालन तो करती ही हैं साथ में जबलपुर के विभिन्न साहित्यिक कार्यक्रमों में कविता पाठ करती आई हैं। फिजिकल एक्टिविटी के प्रति भी आराध्या का बड़ा रुझान है। वे नित्य योग, स्केटिंग का अभ्यास करती हैं। खेलों में निरंतर सक्रिय रहते हुए आराध्या ने राइफल शूटिंग, सिललिंग शॉट एवं कराटे की विभिन्न प्रतियोगिताओं में स्वर्ण पदक एवम अनेक प्रमाण पत्र नन्ही सी उम्र में प्राप्त किए हैं। बात कविता, कहानी, या गीत लेखन में रुचि की हो तो ये संस्कार उनको अपने दादा तथा ख्यातिलब्ध वरिष्ठ कवि, गीतकार, साहित्यकार, लेखक, पत्रकार एवं मेरे गुरु डॉ. श्री राजकुमार तिवारी सुमित्र जी से विरासत में मिले हैं। डॉ. सुमित्र जी की परंपरा को निभाते हुए आराध्या कविता, गीत कहानी लेखन में भी धीरे-धीरे पारंगत हो रही हैं।

एक साक्षात्कार पोती के प्रश्न और दादा के उत्तर

संस्कारधानी जबलपुर मध्यप्रदेश की बाल पत्रकार आराध्या तिवारी प्रियम ने अपने दादा प्रख्यात साहित्यकार डॉ राजकुमार तिवारी सुमित्र से लिया साक्षात्कार आइए देखें आराध्या के प्रश्न और दादा के उत्तर क्या स्वप्न उन्होंने बचपन में देखा था क्या वे वैसा बन पाए डॉक्टर सुमित्र ने… बाल पत्रकार आराध्या के प्रश्नों के उत्तर दिये एक अनोखा और अद्भुत इंटरव्यू

प्रतिभाशाली आराध्या तिवारी प्रियम की कुछ विशेष उपलब्धियाँ –

  • रिकॉर्ड होल्डर्स रिपब्लिक इंडिया (RHR) द्वारा सर्टिफिकेट ऑफ एक्ससिलैंस से सम्मानित।
  • देश के पहले साहित्यक चैनल डायनामिक संवाद टी वी में 2018 से निरंतर एंकरिंग कर सराहना व सुर्खियां बटोर रही हैं।
  • कोरोना काल में कोरोना सहायतार्थ निगम प्रशासन को अपनी गुल्लक से 5000 रुपए प्रदान किये।
  • विवेचना रंग मंडल के थिएटर वर्कशॉप में सहभागिता निभाई और प्रख्यात नृत्य निर्देशिका डॉ. उपासना उपाध्याय की लघु फिल्म जो कि सुप्रसिद्ध कवयित्री स्व. सुभद्रा कुमारी चौहान जी की कविता पर निर्देशित लघु फ़िल्म में सराहनीय अभिनय किया।

  • आपका यूट्यूब पर अपना चैनल है “प्रियम प्रियम और सिर्फ प्रियम” जिसकी दर्शक संख्या लगातार बढ़ रही है। 
  • जबलपुर नगर निगम के स्वच्छता सर्वेक्षण 2023 में सबसे कम उम्र की ब्रांड एंबेसडर चुना गया है।

  • बहुत छोटी सी उम्र से ही कराटे, योग शिक्षा, स्केटिंग राइफल, शूटिंग, सीलिंग शॉट में अपना हुनर बखूबी दिखाया है और बहुत सारे मेडल और शील्ड अपने नन्हे हाथों से हासिल किए हैं।
  • बाल भवन जबलपुर से शास्त्रीय संगीत की शिक्षा डॉ. शिप्रा सुल्लेरे से प्राप्त कर रही हैं।
  • इंटरनेशनल बुक ऑफ़ रिकार्ड्स प्रमाण पत्र से सम्मानित।
  • बाल पत्रकार के रूप में आपको जिला प्रशासन द्वारा भी प्रमाण पत्र प्रदान किया गया है।
  • साहित्यिक संस्था वर्तिका द्वारा भी आपको श्रेष्ठ एंकरिंग के लिए भी सम्मानित किया गया है।
  • जबलपुर के लोकप्रिय सांसद राकेश सिंह जी का साक्षात्कार लिया है, जो सोशल मीडिया पर बहुत चर्चित रहा है। इसके साथ ही अनेक राजनीतिक एवं साहित्यिक व्यक्तित्व का साक्षात्कार भी लिया है। https://www.facebook.com/share/v/QSRLGDz7zeSCd9xm/

आराध्या अपनी समस्त उपलब्धियों का श्रेय अपने स्व. दादा जी दादी जी, माता पिता, स्कूल के शिक्षक शिक्षिकाओं, स्कूल प्रबंधन को देती हैं। आराध्या का मानना है कि घर के बाद मेरी पहली पाठशाला स्कूल है जहां से मैं अपने गुरुजनों से निरंतर सीख रही हूं। जहां मुझे जीवन में कुछ बड़ा करने का संकल्प भी प्राप्त हुआ है और निरंतर शक्ति भी।

वर्तमान में आराध्या तिवारी संस्कारधानी के छोटे-छोटे बच्चों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गई हैं। आराध्या तिवारी का स्वप्न है कि वह भी बड़े होकर अपने दादा की तरह एक कामयाब लेखक और पत्रकार बने।  संस्कारधानी जबलपुर में प्रतिभाओं की कमी नहीं है। ज्ञान-मनीषी ओशो से लेकर व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई और बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी की रचयिता सुभद्रा कुमारी चौहान की कर्मभूमि हमेशा से प्रेरणा का स्रोत रही है। जबलपुर शहर की हवा में संस्कार गुंजित होते रहते हैं। इन्ही संस्कारों की नन्ही कोंपल अब आराध्या तिवारी के रूप में सुरभित हो रही है। और शहर की साहित्यिक परंपरा को ध्वजा  को आगे बढ़ा रही हैं। 

ई-अभिव्यक्ति परिवार के सदस्य आराध्या के उज्ज्वल भविष्य के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते हैं।

प्रस्तुती – श्री हेमन्त बावनकर, सम्पादक ई-अभिव्यक्ति, पुणे

≈ श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “वारी पंढरीची…” ☆ सुश्री शीला पतकी ☆

सुश्री शीला पतकी 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “वारी पंढरीची” भाग – २ ☆ सुश्री शीला पतकी 

आली पंढरीची वारी

 झाली आळंदीत तयारी 

निघे पालखी ज्ञानदेवांची 

भेट घेण्या विठूरायाची 

*

झाले पादुकांना स्नान 

 इंद्रायणीच्या जळात 

विठ्ठल नामघोष चाले 

अन् नाद हो टाळात  

*

पुणे मुक्कामी पालखी 

भक्त सागर हो लोटी 

झाले कीर्तन प्रवचन

 हाती प्रसादाची वाटी

*

दिवे घाटात पालखी  

मार्ग अवघड वळण

 क्षीरसागराची नदी  

झेंडे फडके हो निशाण

  *

आले सासवड सासवड  

भेटे सोपान  समाधी

झाली भेटं उराउरी

 पालखी निघाली जेजुरी  

*

वल्ले लोणंद तरटगाव

 तिथे रिंगण सोहळा 

अश्व धावती सरळ 

अन् भेटती देवाला  

*

फलटण पुढे माळशिरस

 गोलरिंगणाचा घाट

आकाशी पाहता दिसे 

ब्रह्मांड सोहळयाचा थाट

*

भजन  कीर्तना आरती 

रोजच चाले हो दिंडीन 

नाही आपपरभाव

 नाचती विसरुन देहभान  

*

आलं बघता बघता

 आली वाखरी वाखरी 

आता उठता बसता 

आलीपंढरी पंढरी 

*

दिसे कळस मंदिरी

 तिथं भेटेल श्रीहरी 

माझी  विठ्ठल रकुमाई

माझी वारी तेच्या पाई

*

नामदेवाची पायरी 

माथा टेकून वलांडिन 

 गरुड खांबाची ती मिठी

  नादब्रह्म कवटाळीन

*

दिसे विठ्ठल सावळा 

माथी चंदनाचा टिळा 

कासे पितांबर नेसला 

गळा शोभे तुळशीमाळा  

*

माय रखमाई साजरी

 वाट पाही लेकराची 

 माझा माथा  तुचे पाय 

जणू भेटली हो माय

*

बुक्क्या चुरमुऱ्याचा प्रसाद

 नेईन जाताना माघारी 

गळा घालीन तुळशीमाळ   

मुखे विठ्ठल हाती टाळ    

॥विठ्ठल विठ्ठल विठ्ठल विठ्ठल   ॥

© सुश्री शीला पतकी

माजी मुख्याध्यापिका सेवासदन प्रशाला सोलापूर 

मो 8805850279

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर

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