हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 432 ⇒ छाता और बरसात… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “छाता और बरसात।)

?अभी अभी # 432 ⇒ छाता और बरसात? श्री प्रदीप शर्मा  ?

उधर आसमान को पता ही नहीं कि सावन आ गया है, लोग बेसब्री से बारिश का इंतजार कर रहे हैं और इधर एक हम हैं जो पंखे के नीचे बैठकर छाते की बात कर रहे हैं। याद आते हैं वे बरसात के दिन, जब उधर आसमान से रहमत बरसती थी और इधर हम बंदूक की जगह छाता तानकर उसका सामना करते थे। आज हमने सीख लिया, जब रहमत बरसे, तो कभी छाता मत तानो, बस रहमत की बारिशों में भीग जाओ।

जब हमारा सीना भी छप्पन सेंटीमीटर था, तब हम भी बरसती बारिश में सीना तानकर सड़क पर निकल जाते थे, क्योंकि तब घर में कोई नहीं था, जो हमारे लिए बिनती करता, नदी नारे ना जाओ श्याम पैंया पड़ूं। तबीयत से भीगकर आते थे, मां अथवा बहन टॉवेल लेकर हमारा इंतजार करती थी, कपड़े बदलो, और गर्मागर्म दूध पी लो।।

तब कहां आज की तरह सड़कों पर इतनी कारें और दुपहिया वाहन थे। इंसान बड़ी दूरी के लिए साइकिल और कम दूरी के लिए ग्यारह नंबर की बस से ही काम चला लेता था। शायद ही कोई ऐसा घर हो, जिसमें तब छाता ना हो। खूंटी पर टोपी, कुर्ते के साथ आम तौर पर एक छाता भी नजर आता था, काले रंग का। जी हां हमने तो पहले पहल काले रंग का ही छाता देखा था।

एक छाते में दो आसानी से समा जाते थे, और साथ में आगे छोटा बच्चा भी। उधर बच्चा बड़ा हुआ, उसके लिए भी एक बेबी अंब्रेला, यानी छोटा छाता।

अपने छाते से बारिश का सामना करना, तब हमारे लिए बच्चों का ही तो खेल था।

छाता भी क्या चीज है, खुलते ही छा जाता है, हमारे और बरसात के बीच, और छाते से छतरी बन जाता है। एक थे गिरधारी, जिन्होंने अपनी उंगली पर इंद्रदेव को नचा दिया था, छाते की जगह पर्वत ही उठा लिया था।

कलयुग में गलियन में गिरधारी ना सही, छाताधारी ही सही।।

समय के साथ, साइकिल की तरह छाते भी लेडीज और जेंट्स होने लग गए।

रंगबिरंगे फैशनेबल छाते, जापानी गुड़िया और मैं हूं पेरिस की हसीना ब्रांड छाते। हमें अच्छी तरह याद है, छातों में ताड़ी होती थी, जिससे बटन दबाते ही छाता तन जाता था और काले मोट कपड़े पर शायद धन्टास्क लिखा रहता था।

छाता कभी आम आदमी का उपयोग साधन था। कामकाजी संभ्रांत पुरुष डकबैक की बरसाती, हेट और गमबूट पहना करते थे, जेम्स बॉन्ड टाइप। कामकाजी महिलाओं के लिए भी लेडीज रेनकोट उपलब्ध होते थे। हर स्कूल जाने वाले बच्चे के पास बारिश के दिनों में बरसाती भी होती थी।।

समाज में एक तबका ऐसा भी है, जो पन्नी(पॉलिथीन) ओढ़कर ही बारिश का सामना कर लेता है। हमने कई बूढ़ी औरतों को गेहूं की खाली बोरी ओढ़कर जाते देखा है।

आज भी छाते की उपयोगिता कम नहीं हुई है। जो पैदल चलते हैं, उनकी यह जरूरत है। जो कार में चलते हैं, उन्हें भी बरसते पानी में, कार में बैठते वक्त और उतरते वक्त छाते का सहारा लेना ही पड़ता है।।

क्या विडंबना है, नीली छतरी वाले और हमारे बीच भी एक छतरी। रहमत बरसा, लेकिन छप्पर तो मत फाड़। कुंए, नदी, तालाब, पोखर, लबालब भरे रहें, लेकिन हमारे सब्र के बांध की परीक्षा तो मत ले। अब तो हमें तेरी तारीफ के लिए बांधे पुलों पर भी भरोसा नहीं रहा, बहुत झूठी तारीफ की हमने तेरी अपने स्वार्थ और खुदगर्जी की खातिर। हमें माफ कर।।

छाते का एक मनोविज्ञान है, एक छाते में दो प्रेमी बड़ी आसानी से समा जाते हैं।

प्रेम भाई बहन का भी हो सकता है और पति पत्नी का भी। साथ में भीगना भी, और भीगने से बचना भी, तब ही तो प्रेम छाता है। किसी अनजान व्यक्ति को भीगते देख उसे अपनी छतरी में जगह भी वही देगा, जिसके दिल में जगह होगी। हर इंसान तो नेमप्लेट लगाकर नहीं घूम सकता न ;

तेरा साथ रहा बारिशों में छाते की तरह,

भीग तो पूरा गए, पर हौंसला बना रहा।

(अनूप शुक्ल से साभार)

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 33 – ताक झांक…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – ताक झांक।)

☆ लघुकथा – ताक झांक ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

माँ अच्छा हुआ जो मैं आपके साथ तीर्थ में जगन्नाथ पुरी आई।

बहुत कुछ देखने और सीखने को मिल रहा है। देखो माँ जो हमारे साथ ट्रेन में महिला थी उसे सब लोग सहयात्री कैसे बुरा भला बोल रहे हैं। देखो जरा इसे, अपने अंधे पति को लेकर आई है क्या जरूरत है इसको…।

माँ ये लोग मंदिर की लाइन में दर्शन के लिए खड़े हैं लेकिन बुराई कर रहे हैं।

माँ ! उस महिला के पास चलते हैं।

उसे देखकर बहुत हिम्मत मिलती है ।

आप यहां खड़े रहो मैं उसे अपने साथ यहां पर बुला लेती हूँ।

नमस्कार पहचाना हम आपके सामने वाली सीट पर बैठे ट्रेन में बैठे थे।

हां पहचाना।

देखो न लोग कैसे कह रहे हैं?

मेरे पति की पहले आंखें थी धीरे-धीरे आंखों में कुछ रोग हो गया और उनकी दृष्टि चली गई मेरी नजर से वह दुनिया देखते हैं। वे देख नहीं सकते पर महसूस तो सब कुछ करते हैं।

बच्चे तो सब बाहर चले गए हैं लेकिन नौकरी कर रही थी। दोनों बच्चे खुश हैं। नाम के लिए दो बेटे हैं।

हम उनके लिए भर हैं। हम उनके लिए बोझ हैं ।

मैं गवर्नमेंट स्कूल में  टीचर थी। अब रिटायर हो गई हूं घर में बैठकर अकेले क्या करूंगी?

हम दोनों तीर्थ यात्रा पर निकले है। क्या मुझे जीने का हक नहीं ?

रीमा ने धीरे से कहा-

बिल्कुल है आंटी।

चलिये आंटी आप मां के और मेरे साथ वहां पर खड़े हो जाइए तो हम चारों एक साथ रहेंगे।

काश! एक बिटिया होती दो बेटे नहीं..,

और वह रोने लगते हैं।

आंटी मेरे भी पिताजी नहीं है।

मां ने मुझे मुश्किल से पाला है मैं उनके साथ रहती हूं।

अब मैं छुट्टी में उनके साथ घूमती फिरती रहती हूं।

जीवन है तो क्यों ना हम हॅंस कर जिये।

बेटा तुमने बहुत अच्छी बात कही चलो अब हमारी यात्रा और अच्छी हो जाएगी हम लोग भगवान के दर्शन करते।

बहन जी आपकी बेटी बहुत प्यारी है।

लेकिन लगता है आजकल की दुनिया में लोगों के पास बहुत समय है, दूसरों की जिंदगी में ताक-झांक करने का…।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 112 – जीवन यात्रा : 7 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  “जीवन यात्रा“ की अगली कड़ी

☆ कथा-कहानी # 112 –  जीवन यात्रा : 7 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

मां और पिता के 100% सुरक्षाकवर शिशु वत्स की यात्रा को आगे बढ़ने से नहीं थाम सकते क्योंकि जीवन सिर्फ संरक्षित होकर आगे बढ़ते जाने का नाम नहीं है,ये तो विधाता की योजनाबद्ध प्रक्रिया है जिसमें उसका अगला पड़ाव होता है भिन्नता,सामंजस्य, उत्सुकता,अपने जैसा कोई और भी होने का अहसास.शिशु के व्यक्तित्व के अंकुरित होने की अवस्था. और ये इसलिये आ पाती है कि अब प्रविष्ट होते हैं भाई और बहन, बहुत थोड़े से आयु में बड़े और साथ ही पेट्स भी. ये कहलाते हैं हमजोली जो अपने साथ लाते हैं खिलंदड़पन. अब सिर्फ खिलौने से काम नहीं चलने वाला बल्कि साथ खेलने वाला भी अपनी ओर खींचता है और ये काम तीनों ही बहुत सहजता और सरलता से करते हैं. पेट्स भी समझ जाते हैं कि ये हमारे जैसा ही है, हमारा मालिक नहीं बल्कि हमजोली है जिसका रोल न तो सिखाने का है न ही अनुशासित करने का बल्कि ये तो खेल खेल में अनजाने में वह सिखा जाने वाला है जो प्रतिस्पर्धा के साथ जीतने का गर्व या हारने पर फिर जीतने की कोशिश करना सिखाता है और खास बात भी यही है कि यहां जीत घमंडमुक्त और हार निराशा मुक्त होती है. हर खेल का प्रारंभ हंसने से और अंत भी हंसने से ही होता है. पेट्स भी खेल के आनंदरस में बाल खींचने या कान उमेठने की पीड़ा उसी तरह भूल जाते हैं जैसे जन्म देने की खुशी में प्रसवपीड़ा.

यही बचपन है, यही बालपन है और यही संपूर्ण रामायण का बालकांड भी.

क्रमशः…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 240 ☆ गज़ल – रंग सारे पाहिले की… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 240 ?

गज़ल – रंग सारे पाहिले की☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

कोणत्याही सत्यतेला शक्यतो टाळू नको

त्या जुन्या नात्यास आता व्यर्थ सांभाळू नको

*

रंग सारे पाहिले की, मैफलींचे तू इथे

मौन त्यांनी पाळलेले तू तरी पाळू नको

*

श्वापदांची काळजीही घेतली जातेच की

माणसांच्या भावनांना,  जास्त कुरवाळू नको

*

कोण आहे राव येथे, चोरट्यांनी हेरले

अक्षरांची रत्नमाला कुंतली माळू नको

*

तूच जा परतून आता, थांबली आहेस  का ?

काळ तो बदलून गेला, पुस्तके चाळू नको

*

मान्य आहे फक्त  पूर्वी ,खेडकर पूजा इथे

तू न कोणी संत वेडे, आसवे ढाळू नको

*

वेगळे आहे जगाचे वागणे आता “प्रभा”

त्या जुन्या चाफ्यासवे आकंठ गंधाळू नको

☆  

© प्रभा सोनवणे

१३ जुलै २०२४

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- sonawane.prabha@gmail.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ झळा श्रावणाच्या… ☆ श्री राजकुमार कवठेकर ☆

श्री राजकुमार दत्तात्रय कवठेकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ झळा श्रावणाच्या… ☆ श्री राजकुमार कवठेकर ☆

कधी ऊन.. पाऊस..वारा सुगंधी 

                  धरा तृप्त.. ओसंडणारी तळी

*

खुले वैभवाचेच भांडार झाले 

                 भराव्या कश्या अन् किती ओंजळी 

*

दिशातून उस्फूर्त आनंद धावे

                 प्रफुल्ले उदासी, निवाल्या धगी

*

सरे दुःख.. दुष्काळ रानी..मनीचा 

                 सुरू जाहलेली सुखाची सुगी

*

क्षणी विध्द पक्षी निवा-यास येई

                 उदासीन डोळे..भिजे..गारठे

*

आता ऊन.. पाऊस..वारा.. झळांचा

                 ऋतू श्रावणाचा दिसेना कुठे…

© श्री राजकुमार दत्तात्रय कवठेकर

संपर्क : ओंकार अपार्टमेंट, डी बिल्डिंग, शनिवार पेठ, आशा  टाकिज जवळ, मिरज

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ पाच पैशांचे पाणी ! ☆ श्री संभाजी बबन गायके ☆

श्री संभाजी बबन गायके

? विविधा ?

पाच पैशांचे पाणी ! ☆ श्री संभाजी बबन गायके 

१९१० मध्ये शेगांवी श्री गजानन महाराज समाधिस्त झाले आणि तिथे आता काही उरले नाही असे लोकांना वाटू लागले..आणि ते स्वाभाविक होते !

पण देह लौकिक अर्थाने विलुप्त झाला तरी चैतन्य मागे राहतेच. आणि याचा पडताळा पुढे येऊ लागला आणि अगदी आजही तो येतच असतो.

साधारणतः १९३० मधील ही घटना आहे. शेगाव पासून तशा बऱ्याच दूर वर राहणारा एक पोलिस कर्मचारी कचेरीच्या कामासाठी शेगावकडे येण्यास निघाला. त्यावेळी एकतर वाहनाची सोय नव्हती. आणि या माणसाकडे गाडी भाड्याला पुरेसे पैसेही नव्हते. त्यामुळे स्वारी पैदलच निघाली होती. उन्हाळ्याचे दिवस आणि त्यात विदर्भ. सूर्य डोईवर आलेला आणि घसा कोरडा पडत चाललेला होता. रस्त्याने एक दोन ठिकाणी पाणी मिळू शकेल असे या पोलिस कर्मचाऱ्यास वाटले होते. पण कुठे पाणी काही नजरेस पडेना. वस्ती अतिशय विरळ त्यामुळे वाट वाकडी करून कुणाच्या घरी,मळ्यात जावे म्हटले तरी ते शक्य दिसेना. अजून बराच वेळ लागणार होता. पायी जायचे म्हणून मुख्य सडकेपेक्षा रानातून थोडे अधून मधून चालले होते. आता तहान खूपच जोर धरू लागली !

त्यांना वाटेवर त्यांच्यापुढे एक वयस्कर गृहस्थ चालताना दिसले. पोलिसाने त्यांना मागून हाक दिली..” बावाजी, पियाले पाणी भेटेन का कुठे? “

त्या गृहस्थाने मागे वळून पाहिले. “ तुला इथे कुठे पाणी दिसते तरी का? पण मी तुला देऊ शकतो पाणी तहान भागवण्याइतपत…पण तुझ्याकडे मला देण्यासाठी काही आहे?”

“ काही नाही,बावजी! “

“ अरे,बघ..असेल काही तरी .. “

पोलिसाने खिसा चाचपला…पाच पैशाचं नाणं हाती लागलं. ते त्यांनी त्या गृहस्थाच्या हाती ठेवलं. गृहस्थ हसले! त्यांनी ते नाणं तळहातांवर मध्ये ठेवलं आणि जोरजोरात दोन्ही हातांच्या तळव्यांत घासायला आरंभ केला….काही क्षणात तळहातातून पाण्याची धार पडू लागली !

हा चमत्कार होता याचं तहानेने भान हरपलेल्या त्या माणसाने दोन ओंजळी भरून पाणी घशाखाली उतरवले…डोळे मिटून! तहान निवू लागली होती!

डोळे उघडले तर समोर, आगे मागे कुणी दिसेना. हात मात्र ओलेच होते. खिशात पाच पैसे नव्हते…मात्र त्या पाच पैशांच्या पाण्याने देहाची तहान भागली तर होतीच पण मन ही ओलेचिंब झाले होते!

पोलिस समाधी मंदिरात पोहोचले..दर्शन घेतले! मुर्तीमधील गजानन माऊली जणू काही झालेच नाही अशा आविर्भावात मुद्रा शांत ठेवून बसली होती! 

काहीच वेळापूर्वी घशाखाली गेलेलं पाणी..त्यातील काही थेंब आता या पोलिसाच्या नेत्रांतून खाली ओघळून आले! गजानन महाराज कुठेही गेलेले नव्हते..याची त्यांना खात्री पटली होती !

गण गण गणात बोते…हे भजन म्हणतच ते पोलिस गृहस्थ आपल्या कचेरीकडे निघून गेले! पाच पैशांत यापेक्षा आणखी काय ठेवा मिळू शकतो गरीबाला? मनाने अतिश्रीमंत होऊन ते कृतकृत्य झाले होते!

– – – नुकत्याच झालेल्या शेगाव भेटीत एका पोलिस कर्मचाऱ्याच्या तोंडून त्यांच्या आजोबांना आलेला अनुभव समजला आणि तो जसाच्या तसा वर्णन केला आहे! सामान्य माणसांनी देव पाहिला नाही..पण देवापर्यंत पोहोचवू शकणारे परोपकारी संत मात्र पाहिले…याबाबत महाराष्ट्र सुदैवी आहे !जय गजानन !) – 

– – –  भाविकांसाठी लिहिले आहे. ‌प्रश्न भावनेचा आणि उत्तर भक्तीचे असते ! दर्शनासाठी आलेल्या एका शिक्षिकेला प्रसाद देताना कुणा एका सेवकाने तुमची बढती निश्चित आहे,असे सांगितल्याचा भास झाला ! बढती होण्याची कोणतीही शक्यता नसतानाही त्यांना मुख्याध्यापिका पदी बढती मिळाली..

– – – ही वस्तुस्थिती आहे ! या गोष्टींवर अविश्वास दाखवण्याचे काहीही कारण दिसत नाही. अर्थात विवेक तर आहेच प्रत्येकाजवळ!

© श्री संभाजी बबन गायके 

पुणे

9881298260

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ ढवरा… – भाग – २ ☆ प्रा. विजय काकडे ☆

प्रा. विजय काकडे

? जीवनरंग ❤️

☆ ढवरा… – भाग – २ ☆ प्रा. विजय काकडे 

(आमंत्रित, निमंत्रित पाहुणेमंडळी यांनी जेवण करण्यास बसून घेण्याची कृपा करावी. अशी मालकाची आग्रहाची नम्र विनंती आहे.” ते ऐकून आमचा चालण्याचा वेग अधिकच वाढू लागला. “ – इथून पुढे) 

आम्ही कार्यक्रम स्थळी पोहोचेपर्यंत सुज्याच्या दारात जेवणाची पहिली पंगत बसली होती. सुजाच्या घरासमोर आणखी शे -दीडशे माणसं जेवणाच्या प्रतीक्षेत उभी होती. घराच्या उजव्या बाजूला चुलवानावर एक मोठं तपेलं ठेवलं होतं. त्यात बहुतेक मटण शिजवलं असावंकारण दोन माणसं त्याला भकाभका जाळ घालत होती.तर एकजण मोठ्या पळ्याने मटण बाजूच्या मोठया परातीत काढत होता. दोन जाणती माणसं मटणाच्या खड्याचे द्रोण अंदाजाने भरून देत होती.सुजाच्या घरासमोर 200 वॉटचा मोठा बल्ब लावला होता. त्याच्या उजेडात पंगत बसली होती. आम्ही पुढे जाताच आमच्या तोंडावर उजेड पडला ते पाहून मोठ्या मुलांनी, ” हितं नग, आपुन तिकडं चला, आडबाजूला,” असा इशारा केला. कारण उजेड सोडून थोडा अंधारात उभे राहणं त्यांनी पसंत केलं. त्यांनी तसं का केलं ते मला काही समजत नव्हतं त्यामुळे मी मात्र उजेडात उभा राहून माझा वर्गमित्र असलेल्या सुज्याला शोधत होतो…

 तेवढ्यात कुठून कसं काय माहित सुज्याने मला पाहिलं आणि धावत माझ्याकडं आला. “आयला इज्या (लहानपणी मला कोणी ‘ विजय ‘म्हणत नव्हते इज्या प्रेमाने माझ्या नावाचा केलेला  अपभ्रंशच प्रचलित होता)आलाच व्हयं?लय भारी वाटलं…!” मी म्हटलं, “व्हयं आम्ही समधी आलोय. कुठं हाईत बाकीची?”

 “ती काय तिकडं अंधारात उभी राहिल्यात समदी. त्यांनला लाज वाटतीय उजेडात उभं राह्यची.”

“बरं, बरं असूदे, चल, तुला आमची शेरडं दाखवतो.” असं म्हणत सुजाने माझ्या सदऱ्याला धरून मला ओढतच त्याच्या शेळयांच्या गोठ्याकडे नेलं. तिथं मला त्याने त्यांच्या आठ ते दहा शेळ्या आणि दोन-चार करडं दाखवली. त्याच्याकडं इतक्या शेळ्या अन त्याचं पत्र्याचं मोठं घर बघून तो खूप श्रीमंत असल्याचं जाणवत होतं. त्यामुळे  मित्र म्हणून मला त्याचा खूप अभिमान वाटत होता…!

“सुजा, आयला लईच भारी वाटतंय इथं येऊन,”मी सुजाचा हात धरून म्हटलं.

तोपर्यंत इकडं पहिली पंगत जेवण करून उठली होती आणि दुसरी पंगत बसत होती. तेवढ्यात मला आमच्यातल्याच कुणीतरी हाताला धरून ओढत नेलं,”चल, जेवायला उशीर व्हाईल अंधार पडलाय रात व्हईल आपल्याला घरी जायला,” मोठा भाऊ मला म्हटला.

मी म्हटलं ” सुज्या, चल की आपण दोघं शेजारी बसून जेऊ. ” 

” व्हयं गड्या, मलाबी लय भूक लागलीया,”सुज्या उत्तरला.

पंगतीच्या शेवटच्या टोकाला सुज्या मग मी आणि मग एकेक करून आम्ही सगळे पंगतीत बसलो होतो. मोठी पोरं मला काहीतरी इशारा करत होती,” सुज्याला  नगं हित आपल्या शेजारी जेवायला बसवू. ” असं काहीतरी म्हणत होती पण मी म्हटलं, “मी सुज्या बरोबरच जेवणार…!  शाळेतबी आम्ही दोघं संगच जेवतो.”

माझ्या या हट्टा पायी पुढे काय घडणार याची मोठ्या मुलांना चाहूल लागत होती. आणि झालेही तसेच. कोणीतरी सुज्याच्या अन माझ्या तोंडावर अचानक बॅटरीचा उजेड मारला…!  मग बाकीच्यांच्या तोंडावर सुद्धा मारला. मोठ्या पोरांनी तेव्हा माना खाली घालून आपली तोंडे लपवली…

पत्रावळेवाला आम्हाला पत्रावळ्या वाढणार तेवढ्यात सुजाला त्या बॅटरीवाल्या इसमाने त्याच्या बखोटीला धरून फराफरा ओढत त्याच्या घराकडे नेलं….

त्यानंतर तावातवाने एक जण ओरडला, ” ये उठा, उठा, च्याआयला  पाहुण्यावाणी ऐटीत जेवायला बसलाय की सगळी? उठा बघू? व्हा  तिकडं?सगळे पाहुणे जेवून झाल्यावर तुम्हाला बोलावतो, “असे म्हणून त्या गृहस्थाने आम्हाला भर पंगतीतून उठवले….!  

तिथे एकच गोंधळ उडाला…! आरडाओरड, शिवीगाळ ऐकू येऊ लागली. 

हा काय प्रकार आहे? ते मला काही समजत नव्हतं आणि ते समजण्याचं माझं वय सुद्धा नव्हतं…!

सगळ्यांची जेवणं झाल्यावर शेवटच्या पंगतीला आपल्याला जेवायला मिळणार इतकंच काय ते मला मोठ्यांनी समाजावून दिलं.

पण आत्ता पंगतीतून उठवून आपल्याला शिव्या का घालतायेत  तेच मला कळत नव्हतं…! 

मोठी पोरं पण काहीच बोलत नव्हती कारण त्यांना या गोष्टींची  अगोदर पासूनच सवय होती.त्यांनी फारसं मनाला लावून घेतलं नव्हतं. कधी का असेना शेवटी जेवायला मिळण्याशी त्यांचा मतलब होता.

त्या वस्तीवर तिथे वडाची तीन मोठाली झाडे होती. तिथल्या एका मोठ्या वृक्षाच्या बुडक्यात आम्ही सगळे गोळा होऊन बसलो होतो. तीन वडांच्या झाडाचा तो सुंदर गुच्छा होता. कदाचित त्यामुळेच तर त्या वस्तीला  ‘वडाचामळा’ असे नाव पडले होते.

पुरुषांच्या दोन-तीन मोठ्या पंगती झाल्यावर मग महिलांच्याही दोन पंगती बसल्या होत्या. आमच्या पोटात तर कावळे ओरडत होते त्याही पेक्षा काळाकुट्ट अंधार पडल्याने आपण घरी कसे जाणार याची मला भीती वाटत होती. जेवायला आपला कधी नंबर येणार ते काहीच समजत नव्हतं…

अखेर सगळे जेवून झाल्यावर एका भल्या माणसाने आम्हाला आवाज दिला, ” ये पोरांनो? या जेवायला… ”  त्याच्या त्या हाकेने त्याही परिस्थितीत आम्हाला इतका आनंद झाला होता की काही विचारू नका…! 

आम्ही सगळे अक्षरशः धावत जाऊन एका ओळीत जेवायला बसलो. मग पत्रावळी आल्या,द्रोण आले…

पत्रावळ्यावर ज्वारीची भाकरीवाढली गेली. भाकरी कसली?सगळ्यात शेवटी आता फक्त भाकरीचे  तुकडेच उरले होते…! तेच वाढले होते.

मटणाचा रस्सा द्रोणात वाढला तो सुद्धा अगदी ढवळून निघालेला होता. कोणाच्यातरी द्रोणात शेळीच्या लेंढी एवढा मटणाचा खडा पडत होता. मग तो शेजारच्यांना खिजवायचा… पण आम्हाला त्याची फिकीर नव्हती. त्यांनी जे पानात वाढलं होतं तेच आम्हाला त्यावेळी पक्वानाहूनही अधिक प्रिय होते. पण काही असो, जे काही शिल्लक होते ते त्या भल्या माणसांनी आम्हाला अगदी भरपेट वाढले होते.

रस्सा म्हणजे कडान पिऊन आमची पोटे अगदी गच्च झाली होती. माझं लक्ष अधनंमधनं सुज्याच्या घराकडं जात होतं.  पण कशाचं काय?तो जो एकदाचा घरात गेला तो पुन्हा काही शेवटपर्यंत बाहेर आलाच नाही… 

आम्ही जेवून उठलो घरचा रस्ता चालू लागलो. रस्त्याने काही दिसत नव्हते. खूप रात्र झाली होती. कुणी डोळ्यात बोट घातले तरी समोरचे काही दिसणार नव्हते इतका अंधार गुडूप तिथे झाला होता…

गावापासून लांब वस्ती असल्याने तिथे स्ट्रीट लाईट नव्हत्या. 

पण आमचे म्होरके तयारीचे होते. ते अंधारातून नीट वाट काढत होते.

आम्ही जेवून परतताना अंदाजे रात्रीचे दहा वाजले असतील. आम्ही कोणाशी काही न बोलता अगदी गुपचूप चाललो होतो. तेवढ्यात इतका वेळ शांत झालेल्या स्पीकरचा आवाज अचानक कानावर आला… कुणीतरी माईकवर जोरात ओरडले, ” शेरडं घरात बांधा, लांडगे आलेत…! ”  बापरे…! लांडगे असा शब्द ऐकल्याबरोबर आमची एकच गाळण उडाली…! मी, भूषण, रवी आणि विकास आम्ही लहान होतो त्यामुळे लंडग्याच्या भीतीने आम्ही जोरजोराने रडू लागलो. त्यातच कुणीतरी ओरडलं, ” आज आमोशा हाय. मागं-पुढं भूतबी असत्याल नीट चला …!” मग काय आम्ही त्या रानात ठो ठो बोंब मारायचेच बाकी होते पण लगेच माझ्या भावाने त्या सगळ्यांना दरडावून आमच्या भोवती सगळ्यांनी कडं केलं आणि मग आम्ही लहान मुले त्यामधून चालू लागलो तेव्हा कुठे आम्हाला धीर आला. तरीपण भीती ही वाटतच होती. आम्ही भीतीने अक्षरशः थरथर कापत होतो…! तो प्रसंग आजही आठवला तरी माझ्या अंगावर काटा उभा राहतो…! 

आम्ही गावच्या ओढ्यात आलो तेव्हा सुद्धा, ” लांडगा आला…!  शेळ्या घरात बांधा..!”अशी अनाउन्समेंट स्पीकरवर चालूच होती.

आम्ही गावात शिरलो तोपर्यंत गाव मात्र सामसूम झाले होते…

जागी होती ती फक्त गावात रात्री पहारा देणारी मोकाट कुत्री…! 

आमची झुंड पाहताच ती  जोरजोराने भुंकू लागली. त्यातून कसेबसे बाहेर पडून आम्ही घरी पोहोचलो…

दुसऱ्या दिवशी शाळेत गेल्यावर सुज्या म्हणाला, ” काय इज्या?हाणलं का मटण दाबून?”

मी म्हटलं, ” व्हयं गड्या,  निब्बार हाणलं लयं मज्जा आली …!” 

— समाप्त — 

© प्रा. विजय काकडे

बारामती. 

मो. 9657262229

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ ऋतू बाभुळतांना…” ☆ सुश्री शीला पतकी ☆

सुश्री शीला पतकी 

? मनमंजुषेतून ?

☆ “ऋतू बाभुळतांना” ☆ सुश्री शीला पतकी 

ऋतू गाभूळताना ही माझ्या एका मैत्रिणीची सुंदर कल्पना आणि त्या कल्पनेचा विलास खूपच छान तिच्या निरीक्षणाला किती दाद द्यावी तेवढी कमी. मुख्य म्हणजे “गाभूळताना” हा शब्द तिने वापरला आहे तोच किती सुंदर आणि समर्पक आहे … आणि सहज माझ्या लक्षात आलं माझ्याच पेशातला ऋतू गाभूळत नाही तो बाभूळतो!… मंडळी आता तुम्हाला प्रश्न पडला असेल बाभूळतो हा शब्द कुठे मराठीत?… अगदी बरोबर आहे तो आस्मादिकांचा शोध आहे.. म्हणजे गाभूळतो म्हणजे काय तर आंबट असलेली चिंच तिला एका विशिष्ट कालावधीत एक गोड स्वाद यायला लागतो आणि ती जी तिची अवस्था आहे त्याला आपण गाभूळणे असे म्हणतो!.. अगदी तसेच बाभूळणे  या शब्दाचा अर्थ आहे. म्हणजे पहा शाळा सुरू होण्याचा कालावधी हा तसा गोड आहे आणि काटेरी सुद्धा आहे..

 पालकांना वाटतं पोर शाळेत जाते चार पाच तास निवांत… पण त्याला साधारणपणे दीड महिना रिझवताना पालक मेटाकुटीला आलेले त्यामुळे मुलगा एक वर्ष पुढच्या इयत्तेत जातोय हा आनंद चार पाच तास घरात शांतता हे सुख पण त्याबरोबर शाळेची भरावी लागणारी भरमसाठ पी पुस्तक वह्या गणवेश ट्युशन कोचिंग क्लासेस सगळ्या चिंता सुरू होतात म्हणजे एकूण काटेरी काळ सुरु होतो त्या पोराचं करून घ्यायचा अभ्यास त्याला बसला वेळेवर सोडणे हे सगळं धावपळीचं काम सुरू होत मग ते सगळं काटेरीच नाही का? मग गोड आणि काटेरी याच मिश्रण करून मी शब्द तयार केला बाभूळणं! आता वळूयात आपल्याला लेखाकडे

ऋतू बाभूळताना…….!

सकाळी सकाळी वर्तमानपत्र घराच्या दारात येऊन पडतं मोठी हेडलाईन असते सरकारी यंत्रणेच्या माध्यमातून दहा लाख पुस्तकांचे वितरण झाले.  बचत गटाला बारा लाख गणवेशाची तयारी करण्याचे दिलेले काम वेळेत पूर्ण झाले… वृत्तपत्रात व टि व्ही वर अशा बातम्या सुरू झाल्या, शाळेच्या स्वच्छतेच्या छायाचित्रांचे नमुने यायला लागले ,शाळेत कसे स्वागत करावे याबद्दलच्या विविध कल्पना, विविध शाळेच्या माध्यमातून वृत्तपत्रात छापून यायला लागल्या की खुशाल समजावे ऋतू बाभूळतोय!

एप्रिल महिन्याच्या पाच सात तारखेला परीक्षा संपून पालक आणि विद्यार्थी हुश्श झाले. त्यानंतर शाळा संपल्या आणि घरामध्ये पोरांचा धुडगूस सुरू झाला!.. कॅरम बोर्ड बाहेर निघाले सोंगट्या आल्या पावडरी आणल्या गेल्या.. वाचण्यासाठी मुद्दाम आजोबांनी छोटी छोटी पुस्तक आणून ठेवली.. क्रिकेटच्या स्टम्स बॅट बॉल यांची नव्याने खरेदी झाली. विज्ञान उपकरणाचे किट्स यांचे नवीन बॉक्सेस घरी आले व्हिडिओ गेम फार खेळायचे नाहीत या अटीवर या सगळ्या गोष्टी दिल्या गेल्या घरातल्याच एका खोलीत ड्रॉइंग चे पेपर खडू कागद हे सगळं सामान इतस्ततः  विखुरलेलं …फ्लॅटमध्ये अनेक छोट्या मुलींच्या भातुकलीचे घरकुल…. या सगळ्या विखुरलेल्या सामानाची आवरावर सुरू झाली की खुशाल समजावं ऋतू बाभूळतोय…!

मोबाईलच्या व्हाट्सअप ग्रुप वर  शाळेचा मेसेज येतो … पेरेंट्स आर रिक्वेस्टेड टू अटेंड द मीटिंग विच विल बी हेल्ड ऑन धिस अंड दिस…. मग शाळापूर्वतयारीची सूचना देण्यासाठी पालकांच्या सभेची गडबड चालू होते. शाळा युनिफॉर्म चे दुकान सांगते वह्या घेण्याचे दुकान सांगते पुस्तके घेण्याचे दुकान सांगते  सगळी दुकान वेगवेगळी… मग लगबग सुरू होते आणि गर्दीत जाऊन वह्या पुस्तके गणवेश.. पिटीचा गणवेश विविध रंगाचे दोन गणवेश.. ते कोणत्या वारी घालायचे ते दुकानदारच आम्हाला सांगतो. रस्त्यावर मग छत्री रेनकोट स्कूल बॅग्स डबे पाण्याच्या बॉटल्स यांची प्रदर्शना मांडली जातात आणि खरेदीची झुंबड उडते मग बूट मोजे  पुस्तक वह्या यांचे कव्हर्स ही सगळी खरेदी सुरू झाली की समजावं ऋतू बाभूळतोय. .!

घरामध्ये आजोबांची सर्व वह्यांना कव्हर घालून देण्याची गडबड सुरू होते मग कात्री डिंक यांची शोधाशोध त्याबरोबर आम्ही आमच्या वेळेला कसे कव्हर घालत होतो.. जुन्या रद्दीच्या पानांची वही कशी शिवत होतो या कथाही ऐकायला मिळत अशा कथांची पुनरावृत्ती सुरू झाली की समजावं ऋतू बाभुळतोय…

 किचन मधल्या खोलीत आई आणि आजी यांची आठ दिवस मुलांना डब्यात काय काय द्यायचं याची कच्ची तयारी सुरू झाली की समजावं ऋतू बाभळतोय…! मुलाचे कोणते विषय कच्चे आहेत याचा पुन्हा एकदा अभ्यास करून कोणाकडे त्याच्या खास ट्युशन लावाव्यात याची पालक मैत्रिणींशी तासंतास फोनवर गप्पा आणि चर्चा सुरू होते आणि एक गठ्ठा निर्णय घेऊन त्या सगळ्या  पालकिणी त्या शिक्षकांना भेटायला जातात…. तेव्हा खुशाल समजाव की ऋतू बाभुळतोय !

कॉलनीच्या मधल्या मैदानातलं पोरांचं गोकुळ नाहीस होऊन ती शाळेत जाणारी पोरं गंभीर चेहऱ्याने घरात एकत्र आली आणि त्यांच्या चर्चा सुरू होतात…. आता सुरू झाला बाबा ते होमवर्क पूर्ण करा त्या क्लासेस ना जा शिवाय  मम्मीचा अट्टाहास ..एखादी कला पाहिजे म्हणून त्या तबल्याच्या क्लासला जा..! एक म्हणतो मी तर रोज देवाला प्रार्थना करतो ती खडूस टीचर आम्हाला येऊ नये काय होणार कुणास ठाऊक?… दुसरा म्हणतो ती टेमीना मॅडम आम्हाला आली तर फार छान रे.. ती शिकवते पण छान आणि पनिश पण फार करत नाही…. स्कूलबस चे अंकल तेच असावेत बाबा जे गेल्या वर्षी होते ते खूप मज्जा करतात…. अशा चर्चा सुरू झाल्या की खुशाल  समजावं ऋतू बाभूळतोय!

कॉलनीतल्या सगळ्या मुलांनी आणि पालकांनी मिळून केलेली सहल कॉलनीच्याच प्रांगणात केलेले एक दिवसीय शिबिर भेळ ..आईस्क्रीम  सहभोजन ..वॉटर पार्क.. हॉटेलिंग सगळं संपून गुमान घड्याळाच्या काट्याला बांधून चालायचे दिवस आले की खुशाssल समजावं ऋतू बाभूळतोय….!

© सुश्री शीला पतकी

माजी मुख्याध्यापिका सेवासदन प्रशाला सोलापूर 

मो 8805850279

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ ब्रह्मर्षी अंगिरा ऋषी… ☆ सौ कुंदा कुलकर्णी ग्रामोपाध्ये ☆

 कुंदा कुलकर्णी ग्रामोपाध्ये 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ ब्रह्मर्षी अंगिरा ऋषी… ☆ सौ कुंदा कुलकर्णी ग्रामोपाध्ये ☆

अग्नि वायु रविभ्यस्तु त्र्यं ब्रह्म सनातनम |

दुदोह यज्ञसिध्यर्थमृगयु:  समलक्षणम् ||

अर्थ:-  परम्यात्माने सृष्टीमध्ये मनुष्याला निर्माण करून चार ऋषींकडून चार वेद ब्रम्हाला प्राप्त करून दिले. त्या ब्रह्माने अग्नी, वायू, आदित्य आणि तू म्हणजेच अंगिरा ऋषींकडून चार वेदांचे ज्ञान प्राप्त केले. असे मनुस्मृतीमध्ये लिहिले आहे. म्हणजेच अग्नी, आदित्य, वायू आणि अंगिरा ऋषींकडून ब्रह्मा ने  वेदांचे ज्ञान प्राप्त केले.

ब्रह्मर्षी अंगिरा वैदिक ऋषी होते. त्यांना प्रजापती असेही म्हणतात. त्यांच्या वंशजांना अंगीरस असे म्हणतात. त्यांनी अनेक वैदिक स्तोत्रे आणि मंत्र यांची निर्मिती केली. 

अथर्ववेदाला अथर्व अंगीरस असेही नाव आहे.त्यांचे अध्यात्मज्ञान दिव्य होते. त्यांच्याकडे योग बल, तपसाधना व मंत्र शक्ती खूप होती.

अग्नीचं एक नाव अंगार असे आहे. एकदा अग्नीदेव पाण्यात राहून तपसाधना करत होते. जेव्हा त्यांनी अंगिरा ऋषींना पाहिले, त्यांचे तपोबल पाहिले तेव्हा ते म्हणाले, हे महर्षी, तुम्हीच प्रथम अग्नी आहात. तुमच्या तेजासमोर मी फिका आहे. तेव्हा अंगिरा ऋषींनी अग्नीला देवतांना हविष्य पोहोचवण्याचं मानाचं काम दिलं. तेव्हापासून यज्ञामध्ये अग्नीला आहुती देऊन देवतांना हविष्य प्राप्ती देण्याची प्रथा सुरू झाली. अंगीरा ऋषींनी आपल्या छोट्या आयुष्यात खूप मोठे ज्ञान संपादन केले असे मनुस्मृतीमध्ये लिहिलेले आहे. ते लहान असतानाच मोठे मोठे लोक त्यांच्याकडे येऊन शिक्षण घेत असत. एकदा ते म्हणाले,

पुत्र का इति‌ होवाच ज्ञानेन परिगृह्य तान् |

ते ऐकून तेथे बसलेल्या अनेक वृद्धांना राग आला. त्यांनी देवांकडे तक्रार केली. तेव्हा देव म्हणाले, अंगिरा योग्य बोलले ,कारण …. 

न तेन वृद्धो भवती येनास्य पलीतं शिर: |

यो वै युवाप्यधीयानस्तं देव: स्थविरं विदु: ||

अर्थ:-डोक्यावरचे सगळे केस पांढरे झाले म्हणजे माणूस वृद्ध होत नाही. तरुण असूनही जो ज्ञानी असतो त्याला वृद्ध म्हणतात. तेव्हा  सर्व वृद्धांनी अंगिरा ऋषींचे शिष्यत्व पत्करले.महर्षी भृगु ,अत्री यांच्यासारख्या अनेक ऋषींनी अंगिराजींकडून ज्ञान प्राप्त केले. राजस्थान येथील अजमेर येथे महर्षी अंगिरा आश्रम आहे.महर्षी शौनक यांना त्यांनी परा आणि अपरा या दोन विद्या शिकवल्या.

त्यांना स्वरूपा, सैराट, आणि पथ्या अशा तीन पत्नी होत्या. स्वरूपा मरीची ऋषींची कन्या. तिच्यापासून बृहस्पतीचा जन्म झाला. बृहस्पती  देवांचे गुरु.त्यांना खूप मुले झाली. सैराट किंवा स्वराट् ही कर्दम ऋषींची कन्या.तिचे पुत्र महर्षी गौतम, प्रबंध, वामदेव उतथ्य आणि उशीर.  पथ्या ही मनु ऋषींची कन्या.तिचे पुत्र विष्णू, संवर्त, विचित, अयास्य  असीज. महर्षी संवर्त यांनी वेदातील ऋचा रचल्या. त्यांनी अंगीरास्मृती हा ग्रंथ रचला. अंगिरा ऋषींना अनेक मुले झाली. देवांचे शिल्पकार ऋषी विश्वकर्मा हे त्यांचे नातू.

त्यांच्याबद्दल म्हणतात …. 

तुम हो मानस पुत्र ब्रह्मा के,

तुम सभी गुणोंमें  समान ब्रम्हा के,

दक्ष सुता स्मृती है भार्या तुम्हारी,

अग्नि से भी अधिक तेज तुम्हारा,

विश्वकर्मा जननी 

योगसिद्ध है सुता तुम्हारी,

ऋग्वेदमें वर्णन तुम्हारा जितना,

नही और किसी ऋषी का इतना,

ऋषी पंचमी पर मनाते जयंती तुम्हारी,

मंत्र तंत्र के ज्ञाता, नाम ऋषी अंगिरा तुम्हारा

 

….. अशा ब्रह्मर्षी अंगिरा यांना कोटी कोटी प्रणाम

लेखिका : सौ. कुंदा कुलकर्णी ग्रामोपाध्ये 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ जेव्हा-जेव्हा सूर्य पश्चिमेला जातो… – लेखक : अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सौ. स्मिता पंडित ☆

? वाचताना वेचलेले ?

☆ जेव्हा-जेव्हा सूर्य पश्चिमेला जातो…– लेखक : अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सौ. स्मिता पंडित ☆

” जेव्हा-जेव्हा सूर्य पश्चिमेला जातो तेव्हा तो मावळतो. हे या जगात त्रिवार सत्य आहे “.

आपल्याकडे आधीच अमृताने भरलेली भांडी असताना…

आपण ते अमृत फेकून चिखलाने का भरतोय…? ह्याचा जरा विचार करा..

☀️ मातृनवमी होती तर मग Mother’s day का आणला?

☀️ कौमुदी महोत्सव आहे तर Valentine day कशासाठी?

☀️ गुरू पूर्णिमा आहे तर Teacher’s day कशाला हवाय ?

☀️ धन्वंतरी जयंती आहे तर Doctor’s day कशासाठी?

☀️ विश्वकर्मा जयंती आहे Technology day कशासाठी?

☀️ सन्तान सप्तमी आहे तर Children’s day कशासाठी?

☀️ नवरात्री आणि कन्या भोजन आहे तर Daughter’s day कशासाठी?

☀️ रक्षाबंधन आहे तर Sister’s day कशासाठी?

☀️ भाऊबीज आहे तर Brother’s day कशासाठी?

☀️  वळे नवमी, तुळशी विवाह साजरा करणारे हिंदूंना Environment day  ची काय आवश्यकता ?

आपल्या हिन्दुंचे सर्व उत्सव किती सुन्दर आहेत बघा: 

मकर संक्रांती, वसंत पंचमी, महाशिवरात्री, होळी, चैत्र नवरात्री, राम नवमी, अक्षय तृतीया, नाग पंचमी, जन्माष्टमी, गणेशोत्सव, दसरा, दिवाळी, चंपाषष्ठी, दत्तजयंती इत्यादी सणवार असतात. हे सर्व सणवार गर्वाने साजरे करा.

आपल्या कडुन पाश्चिमात्यांचे आंधळेपणाने अनुकरण होणार नाही ह्याची काळजी घ्या…  

“जेव्हा-जेव्हा सूर्य पश्चिमेला जातो तेव्हा तो मावळतो.” हे या जगात त्रिवार सत्य आहे.

आपल्या सनातनी, सांस्कृतिक आणि शाश्वत मुळांकडे परत या.

आपले व्रत-वैकल्य, उपवास, विविध सणवार आणि उत्सव साजरे करा. आपली सनातनी हिन्दु संस्कृती आणि सभ्यता जिवंत ठेवा.

卐 ॐ शुभम् भवतु  卐

कवी :अज्ञात

प्रस्तुती : स्मिता पंडित 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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