Shri Jagat Singh Bisht
(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)
Shri Jagat Singh Bisht
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डा. मुक्ता
हे राम!
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं सार्थक कविता ‘हे राम!’)
हे राम!
तुम सूर्यवंशी,आदर्शवादी
मर्यादा-पुरुषोत्तम राजा कहलाए
सारा जग करता है तुम्हारा
वंदन-अभिनन्दन,तुम्हारा ही अनुसरण
तुम करुणा-सागर
एक पत्नीव्रती कहलाते
हैरान हूं….
किसी ने क्यों नहीं पूछा,तुमसे यह प्रश्न
क्यों किया तुमने धोबी के कहने पर
अपनी जीवनसंगिनी सीता
को महल से निष्कासित
क्या अपराध था उसका
जिसकी एवज़ में तुमने
उसे धोखे से वन में छुड़वाया
इसे लक्ष्मण का भ्रातृ- प्रेम कहें,
या तुम्हारे प्रति अंध-भक्ति स्वीकारें
क्या यह था भाभी अर्थात्
माता के प्रति प्रगाढ़-प्रेम व अगाध-श्रद्धा
क्यों नहीं उसने तुम्हारा आदेश
ठुकराने का साहस जुटाया
इसमें दोष किसका था
या राजा राम की गलत सोच का
या सीता की नियति का
जिसे अग्नि-परीक्षा देने के पश्चात् भी
राज-महल में रहना नसीब नहीं हो पाया
विश्वामित्र के आश्रम में
वह गर्भावस्था में
वन की आपदाएं झेलती रही
विभीषिकाओं और विषम परिस्थितियों
का सामना करती रही
पल-पल जीती,पल-पल मरती रही
कौन अनुभव कर पाया
पत्नी की मर्मांतक पीड़ा
बेबस मां का असहनीय दर्द
जो अंतिम सांस तक
अपना वजूद तलाशती रही
परन्तु किसी ने तुम्हें
न बुरा बोला,न ग़लत समझा
न ही आक्षेप लगा
अपराधी करार किया
क्योंकि पुरुष सर्वश्रेष्ठ
व सदैव दूध का धुला होता
उसका हर ग़ुनाह क्षम्य
और औरत निरपराधी
होने पर भी अक्षम्य
वह अभागिन स्वयं को
हर पल कटघरे में खड़ा पाती
और अपना पक्ष रखने का
एक भी अवसर
कभी नहीं जुटा पाती
युगों-युगों से चली
आ रही यह परंपरा
सतयुग में अहिल्या
त्रेता में सीता
द्वापर में गांधारी और द्रौपदी का
सटीक उदाहरण है सबके समक्ष
जो आज भी धरोहर रूप में सुरक्षित
अनुकरणीय है,अनुसरणीय है।
© डा. मुक्ता
पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी, #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com
(मेरे विशेष अनुरोध पर (डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन) द्वारा रचित मेरी प्रिय कविता “पहले क्या खोया जाए ” का मराठी भावानुवाद “काय राह्यलय हरवण्यासारखं ?” कविराज विजय यशवंत सातपुते जी द्वारा किया गया।
यह कविता इतनी मार्मिक है कि मैं कविराज विजय सातपुते जी के शब्दों में – “ये कविता इतनी भावपूर्ण थी कि मै खुद को रोक न सका. रोते रोते ये अनुवाद संपन्न हुआ. मूल रचनाकार जी को शत शत नमन. आज जिन चुनिन्दा लोगों को ये कविता और अनुवाद दिखाया सभी ने एक ही प्रतिक्रिया भेजी . . . . . निःशब्द.”
और मैं स्वयम भी निःशब्द हूँ। )
हिन्दी की मूल कविता एवं मराठी भावानुवाद दोनों ही स्वरूप आपके अवलोकनार्थ प्रस्तुत हैं।
इस अतुलनीय साहित्यिक कार्य के लिए श्री विजय जी का विशेष आभार और मेरा मानना है कि ऐसे प्रयोग होते रहने चाहिए।
काय राह्यलय हरवण्यासारखं ?
सर्वात अगोदर
काय असत हरवायच ?
आता काय राह्यलय
हरवण्यासारख ?
मऊ,रेशमी मुलायम,
पश्मीना शालीच्या नादात
आधीच हरवून बसलोय
माझा मौल्यवान बाप.
आता हरवायला
आई तेवढी बाकी राह्यलीय.
काही केल्या हरवतच नाही.
आपल्याच नादात गुणगुणत रहाते
”अशी हरवल्यावर थोडीच कळते
आपल्या माणसांची किंमत.”
.”तुझा बाप समजुतदार ,
वेळीच हरवला आणि
दाखवून दिली आपली किंमत.
येईल. . . माझीही वेळ येईल.
कळेल तुला माझी ही किंमत”
मला एक कळत नाही
कधीतरी वेळ येणारच
कशाला लावतेय इतका वेळ
द्यायची दाखवून आपली किंमत
विनाकारण करावी लागते
निरर्थक धडपड
आईला विसरण्याची
करतो प्रयत्न ती
एखाद्या तीर्थक्षेत्री
हरवून जाण्यासाठी
किंवा एखाद्या जत्रेत
दिसेनाशी होण्यासाठी.
आईची किंमत जाणून घेण्यासाठी
आणि . .
हरवतो माझ्याच विचारात.
माणूस असताना
त्याचे मोल जाणले नाही
आता हरवल्यावर तरी
त्याचे मोल जाणून घेऊ.
हाच एक यशस्वी उपाय
जो तो करतो आहे.
पण अशा वागण्यात
हरवत चाललीय नाती
हरवताहेत माणस
आजी आजोबा, काका काकू
मामा, मामी माझा बाप
आता तर कोणी
देवदूत देखिल नाही
किंवा मार्क्स एखादा
माझ्या शिलकित . .
या गरीबा जवळ
एकुलती एक
आई फक्त उरलेय
किंवा एखादी फाटकी गोधडी.
या दोनच वस्तू
हरवायच्या बाकी राह्यल्यात.
या दोघात अधिक मौल्यवान कोण
जो मला मायेची ऊब देईल
आता मी देखिल
इतका लहान राहिलो नाही
की आईच्या कुशीत शिरून
ती ऊब मिळवू शकेन.
अशा परिस्थितीत
कुणीतरी सांगा
काय राह्यलय हरवण्यासारख
फाटकी गोधडी की
जीर्ण झालेली माझी माय. . . . !
(भावानुवाद – विजय सातपुते)
विजय यशवंत सातपुते, यशश्री पुणे.
मोबाईल 9371319798
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मूल कविता
श्रीमद् भगवत गीता
पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
द्वितीय अध्याय
साँख्य योग
( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )
अर्जुन उवाच
कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन ।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ।।4।।
अर्जुन ने कहा-
भीष्म द्रोण गुरू पूज्य हैं , करने को संहार
रण में बाणों से उन्हीं का, कैसा प्रतिकार ? ।।4।।
भावार्थ : अर्जुन बोले- हे मधुसूदन! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ूँगा? क्योंकि हे अरिसूदन! वे दोनों ही पूजनीय हैं॥4॥
How, O Madhusudana, shall I fight in battle with arrows against Bhishma and Drona, who are fit to be worshiped, O destroyer of enemies? ।।4।।
© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर
मो ७०००३७५७९८
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
Shri Jagat Singh Bisht
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श्री जय प्रकाश पाण्डेय
© जय प्रकाश पाण्डेय, जबलपुर
(श्री जय प्रकाश पाण्डेय, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा हिन्दी व्यंग्य है। )
सुश्री ऋतु गुप्ता
बेटी
(सुश्री ऋतु गुप्ता जी रचित अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर का एक सार्थक कविता ‘बेटी’।)
बेटी शब्द का आगाज होते ही
हृदय में सम्पूर्ण माँ बनाने की अद्वितीय अनुभूति होती है
बगैर बेटी जन्मे मानो नारी अधूरी होती है।
उसका पहली बार माँ बोलना
हृदय को मुदित ममतामयी कर जाता है
हर उदित उमंग उल्लासित कर
गरिमामयी पद अतुल्य अभिनंदन पाता है।
कदम पहला उसका उठते ही बेचैन
मन मुद्रा मुसकुराती छवि हो जाती है
उसकी इक-इक भाव भंगिमा
एकटक निहारते नैनों की चमक अद्भुत हो जाती है
विस्मय से भरता जाता उसका बड़ा होना
घर पूरा गूँजता मानों चिड़िया चहचहाती है
पग घूम-घूम जहाँ-जहाँ रखती
धरा धन्य हो अपार आभार प्रकट कर जाती है।
बेटी कभी नहीं होती पराई
जिस्म से कभी नहीं अलग होती परछाई
बड़ी होने पर भी वही आँचल आगोश सदैव लालायित रहते हैं ।
बोझ नहीं आन वह कलेजे का टुकड़ा गौरवान्वित हो कहते हैं।
© ऋतु गुप्ता
* शौर्यराणी *
श्रीमद् भगवत गीता
पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
द्वितीय अध्याय
साँख्य योग
( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ।।3।।
पार्थ ! न कायर तुम बनो ,अनुचित यह व्यवहार
तज दुर्बलता हदय की , हो लड़ने तैयार।।3।।
भावार्थ : इसलिए हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा ।।3।।
Yield not to impotence, O Arjuna, son of Pritha! It does not befit thee. Cast off this mean weakness of the heart. Stand up, O scorcher of foes! ।।3।।
© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर
मो ७०००३७५७९८
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
Shri Jagat Singh Bisht
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