डा. मुक्ता

हे राम!

 

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं सार्थक कविता ‘हे राम!’)

 

हे राम!

तुम सूर्यवंशी,आदर्शवादी

मर्यादा-पुरुषोत्तम राजा कहलाए

सारा जग करता है तुम्हारा

वंदन-अभिनन्दन,तुम्हारा ही अनुसरण

 

तुम करुणा-सागर

एक पत्नीव्रती कहलाते

हैरान हूं….

किसी ने क्यों नहीं पूछा,तुमसे यह प्रश्न

क्यों किया तुमने धोबी के कहने पर

अपनी जीवनसंगिनी सीता

को महल से निष्कासित

 

क्या अपराध था उसका

जिसकी एवज़ में तुमने

उसे धोखे से वन में छुड़वाया

इसे लक्ष्मण का भ्रातृ- प्रेम कहें,

या तुम्हारे प्रति अंध-भक्ति स्वीकारें

क्या यह था भाभी अर्थात्

माता के प्रति प्रगाढ़-प्रेम व अगाध-श्रद्धा

क्यों नहीं उसने तुम्हारा आदेश

ठुकराने का साहस जुटाया

 

इसमें दोष किसका था

या राजा राम की गलत सोच का

या सीता की नियति का

जिसे अग्नि-परीक्षा देने के पश्चात् भी

राज-महल में रहना नसीब नहीं हो पाया

 

विश्वामित्र के आश्रम में

वह गर्भावस्था में

वन की आपदाएं झेलती रही

विभीषिकाओं और विषम परिस्थितियों

का सामना करती रही

पल-पल जीती,पल-पल मरती रही

 

कौन अनुभव कर पाया

पत्नी की मर्मांतक पीड़ा

बेबस मां का असहनीय दर्द

जो अंतिम सांस तक

अपना वजूद तलाशती रही

 

परन्तु किसी ने तुम्हें

न बुरा बोला,न ग़लत समझा

न ही आक्षेप लगा

अपराधी करार किया

क्योंकि पुरुष सर्वश्रेष्ठ

व सदैव दूध का धुला होता

उसका हर ग़ुनाह क्षम्य

और औरत निरपराधी

होने पर भी अक्षम्य

 

वह अभागिन स्वयं को

हर पल कटघरे में खड़ा पाती

और अपना पक्ष रखने का

एक भी अवसर

कभी नहीं जुटा पाती

युगों-युगों से चली

आ रही यह परंपरा

सतयुग में अहिल्या

त्रेता में सीता

द्वापर में गांधारी और द्रौपदी का

सटीक उदाहरण है सबके समक्ष

जो आज भी धरोहर रूप में सुरक्षित

अनुकरणीय है,अनुसरणीय है।

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

 

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