हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – ☆ समझदारी का त्रासद अन्त ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

☆ समझदारी का त्रासद अन्त ☆

(प्रस्तुत है  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी का एक बेहतरीन व्यंग्य।  डॉ कुन्दन सिंह जी के पात्रों  के सजीव चित्रण का मैं कायल हूँ। लगता है उनके पात्र हमारे आस पास ही हैं। आवश्यकता से अधिक ज्ञान प्राप्त करना और उसे बांटने में अपनी ऊर्जा खत्म कर तनाव झेलना आम हो गया है। फिर ऐसी समझदारी का त्रासद अन्त कैसे होता है वह आप ही पढ़ लीजिये।)

रामसुख अपने नाम के हिसाब से ही हमेशा शान्त और सुखी रहते हैं। दफ्तर से लौटते हैं, थोड़ी देर टाँगें सीधी करते हैं, फिर टहलने निकल जाते हैं। लेकिन उनका टहलना दूसरों के टहलने जैसा नहीं होता। दूसरे लोग स्वास्थ्य-वर्धन के लिए, भोजन पचाने के लिए टहलते हैं, रामसुख सिर्फ दुनिया देखने के लिए, मन बहलाने के लिए टहलते हैं। दाहिने बायें देखते हुए, धीरे धीरे चलते हैं। जहाँ कुछ दिलचस्प दिखा, रुक गये। कोई मजमा, कोई तमाशा, झगड़ा, मारपीट होती दिखी, रुक गये। जितनी देर झगड़ा, मारपीट चलती रही, देखते रहे, फिर धीरे धीरे आगे बढ़ गये। कहीं भाषण होता दिखा तो वहीं रुक गये। थोड़ी देर सुना, फिर आगे बढ़ गये। रास्ते में कोई मंदिर पड़ा तो भीतर जाकर सिर झुकाकर प्रसाद ले लिया। भजन-कीर्तन हो रहा हो तो थोड़ी देर उसमें शामिल हो गये, नहीं तो प्रसाद फाँकते आगे बढ़ गये।

ऐसे ही रामसुख एक शाम एक ऐसी सभा में पहुँच गये जहाँ एक संत का प्रवचन चल रहा था। रामसुख टाइम काटने को भाषण सुनने बैठ गये, लेकिन जल्दी ही उनके कान खड़े हुए। संत बड़ी दिलचस्प बातें कह रहे थे। कह रहे थे—–‘भक्तजनो! हम पुरूष बहुत बड़ी गलती करते हैं कि अपनी पत्नियों को वैधव्य के लिए तैयार नहीं करते। जीवन अनिश्चित है, आज है कल नहीं। सामान सौ बरस का है, कल की खबर नहीं। पति को अचानक कुछ हो जाता है तो पत्नी को न उसके बैंक का पता होता है, न पासबुक का। यह भी पता नहीं होता कि उसका बीमा कितने का है, बीमा दफ्तर कहाँ है। किससे कितना लेना है, किसे कितना देना है। कई स्त्रियों ने तो अपने पति का दफ्तर तक नहीं देखा। पति एकाएक परलोक सिधार जाए तो पत्नी असहाय हो जाती है। उसे समझ में नहीं आता कि कहाँ जाएँ, क्या करें। यह हाल पढ़ी-लिखी स्त्रियों का भी है, बेपढ़ी लिखी स्त्रियों को तो छोड़ ही दीजिए।

‘इसलिए पतियों को चाहिए कि पत्नियों को इस बात की पूरी जानकारी दें कि यदि उनका ऊपर से अचानक बुलावा आ जाए तो उन्हें क्या करना है, किस तरह रहना है। अपने को अमर समझकर नहीं रहना चाहिए।’

सुनकर रामसुख के दिमाग़ में जैसे बल्ब जला। क्या मार्के की बात कही है! जिंदगी का क्या ठिकाना?सौ नयी बीमारियां पैदा हो गयी हैं। अभी सड़क पर चल रहे हैं, दूसरे पल पता चला ऊपर ट्रांसफर हो गया। सड़क पर इतने वाहन चलते हैं। थोड़ा धक्का लगा और छुट्टी। लूट-मार इतनी बढ़ गयी है कि अंधेरे में कहीं से निकलने में डर लगता है। आजकल लौंडे बात बाद में करते हैं, पहले चाकू निकालते हैं। संत जी ने ठीक कहा। पत्नी को सब जानकारी दे देना चाहिए।

घर आये तो खटिया पर लेट गये। पत्नी शकुंतला देवी को बुलाकर पास बैठा लिया। छत की तरफ देखकर दार्शनिक अंदाज़ में बोले, ‘जिन्दगी का कोई ठिकाना नहीं है। आज यहां कल वहां।’

शकुंतला देवी बोलीं, ‘क्या हुआ? कोई मर वर गया क्या?’

रामसुख गंभीर मुद्रा में बोले, ‘नहीं! मैं तो आदमी की जिंदगी के बारे में सोच रहा था। क्या पता कब क्या हो जाए! जिंदगी और मौत के बीच कितना फासला है, किसे मालूम?’

शकुंतला देवी बोलीं, ‘टीवी में किशन जी महाराज जो गीता का परवचन दे रहे हैं, लगता है उसी का असर हो गया है।’

रामसुख बोले, ‘नहीं! आज एक संत जी का भाषण सुना। वे कह रहे थे कि आदमी की जिंदगी का कोई ठिकाना नहीं है, इसलिए पत्नी को घर-द्वार के बारे में सब समझा कर रखना चाहिए।’

शकुंतला देवी गुस्से में बोलीं, ‘चूल्हे में जाएं ऐसे संत। खबरदार जो आगे ऐसी बात मुँह से निकाली। जिंदगी जाए तुम्हारे दुश्मनों की।’

वे झपट कर घर के भीतर चली गयीं। रामसुख तम्बाकू की जुगाली करते, छत की तरफ ताकते, लेटे सोचते रहे।

दूसरी शाम उन्होंने अपनी दोनों पासबुक निकालकर तकिये के नीचे रख लीं, फिर शकुंतला देवी को बुलाया। जब वे आकर बैठ गयीं तो पासबुक निकालकर उन्हें दिखाकर बोले, ‘बताओ ये पासबुक किन बैंकों की हैं।’

शकुंतला देवी भौंहें चढ़ाकर बोलीं, ‘हमें क्या मालूम।’

रामसुख दुखी भाव से बोले, ‘यही तो गड़बड़ी है। देखो, यह काली वाली पासबुक महाराष्ट्र बैंक की है और गुलाबी वाली नागरिक बैंक की।’

शकुंतला देवी बोलीं, ‘होगी। तो हम क्या करें?’

रामसुख बोले, ‘अरे भाई, जरा समझो तो। सब दिन मूरख ही बनी रहोगी। आओ तुम्हें समझायें कि पासबुक में रकम कहाँ लिखी होती है।’

शकुंतला देवी फिर झटक कर खड़ी हो गयीं। बोलीं, ‘तुम पर फिर कल वाला भूत सवार हो गया। पहले तो कभी कभी भांग खाते थे, अब लगता है रोज जमाने लगे हो। ज्यादा आंय बांय बकोगे तो ओझा जी को बुलाकर तुम्हारा भूत उतरवाऊँगी।’

रामसुख चुप्पी साध गये।

लेकिन संत जी की बातें उनके दिमाग़ से निकलती नहीं थीं। अगले दिन फिर उन्होंने शकुंतला देवी को बुलाकर बैठा लिया। पुचकार कर बोले, ‘तुम मेरी बात का बुरा मान जाती हो। अरे, मैं मर थोड़े ही रहा हूँ। देखो न काठी एकदम ठोस है, टनाटन। लेकिन आदमी और औरत गिरस्ती की गाड़ी के दो पहिये होते हैं। दोनों को सब चीजों की जानकारी होनी चाहिए। अब देखो, वर्मा जी बीच में पत्नी को बिना कुछ बताये परलोक चले गये तो मिसेज़ वर्मा को कितनी परेशानी हुई। इसलिए सब बातों की जानकारी रखना जरूरी है।’

अब की बार शकुंतला देवी नाराज़ नहीं हुईं। बोलीं, ‘बाद में देखेंगे। अभी ये रामायण बन्द करो।’

रामसुख खुश हुए। चलो, बीजारोपण हो गया। अब धीरे धीरे सब हो जाएगा।

अगले दिन से वे शकुंतला देवी को पासबुक के बारे में समझाने लगे। कहाँ जमा पैसा लिखा जाता है, कहाँ निकाला हुआ, कहाँ बाकी चढ़ता है। शकुंतला देवी थोड़ी देर सुनतीं, फिर ‘उँह, बाद में देखेंगे, काम पड़ा है,’ कह कर उठ जातीं।

धीरे धीरे शकुंतला देवी की दिलचस्पी बढ़ने लगी। अब वे खुद ही पतिदेव से प्राविडेंट फंड, बीमा वगैरः के बारे में पूछताछ करने लगीं। फुरसत में उनके कागजात उलट-पलट कर समझने की कोशिश करती रहतीं। रामसुख और खुश हुए। एक दिन उन्हें अपनी स्कूटर के पीछे बैठा कर बैंक ले गये। वहाँ समझाते रहे कि पैसा कहाँ और कैसे जमा किया और निकाला जाता है। एक दिन बाहर से उन्हें अपने दफ्तर के दर्शन भी करा लाये।

एक दिन शकुंतला देवी पूछने लगीं, ‘क्यों जी! जिसका बैंक में खाता है, उसे भगवान न करे कुछ हो जाए तो उसका पैसा पत्नी को मिल जाता है न?’

रामसुख उत्साह से बोले, ‘हाँ, हाँ, बैंक में फार्म भरते वक्त उसका नाम देना पड़ता है जिसे पैसा मिलेगा। कोई दिक्कत नहीं होती।’

लेकिन उत्तर देने के बाद रामसुख के मन में ‘टुक्क’ से डंक जैसा लगा। यह तो एकदम मेरे मरने की सोचने लगी।मन कुछ बुझ गया।

एक दो दिन बाद रामसुख खटिया पर लेटे लेटे शकुंतला देवी को सुनाकर बोले, ‘आजकल सरकार ने अच्छा इंतजाम कर दिया है। कोई सरकारी कर्मचारी मर जाता है तो कफन-दफन के लिए चौबीस घंटे के भीतर आठ-दस हजार रुपये मिल जाते हैं।’

शकुंतला देवी सब्जी काटते काटते बोलीं, ‘यह तो अच्छी बात है।’

रामसुख के मन में फिर ‘टुक्क’ हुआ। यह तो ऐसे सहज भाव से बोल रही है जैसे मैं आलू खरीदने की बात कर रहा हूँ।

तीन चार दिन बाद शकुंतला देवी पूछने लगीं, ‘क्यों जी, यह जो आदमी के मरने के बाद औरत को पिंसिन ग्रेचूटी मिलती है उसमें कोई घपला तो नहीं होता? पूरा पैसा मिल जाता है?’

रामसुख भकुर गये। कुढ़ कर बोले, ‘तुम्हें और कोई काम नहीं है क्या? दिन भर यही फालतू बातें सोचती रहती हो।’

शकुंतला देवी बोलीं, ‘अरे भाई, आजकल हर जगह भरस्टाचार मचा है। इसलिए पूछ रही हूँ।’

रामसुख बड़ी देर तक भकुरे लेटे रहे।

अब रामसुख ने शकुंतला देवी को ज्ञान देना बन्द कर दिया था।शकुंतला देवी ही उनसे जब-तब पूछती रहती थीं। अब उनके हर सवाल पर रामसुख को झटका लगता था। उन्हें लगता जैसे वे उनके परलोक सिधारने का इंतज़ार कर रही हों।

एक दिन शकुंतला देवी पूछने लगीं, ‘आदमी नौकरी करता मर जाए तो औरत को कितनी पिंसिन मिलती है?’

रामसुख लेटे थे, उठ कर बैठ गए। खीझ कर बोले, ‘दो चार दिन में मर जाऊँगा तो अपने आप पता लग जाएगा। यही चाहती हो न?’

शकुंतला देवी ठुड्डी पर उंगली रखकर बोलीं, ‘हाय राम! मरें तुम्हारे दुश्मन। तुम्हीं तो कहते थे कि सब जानना चाहिए।’

रामसुख बोले, ‘हाँ, बहुत जान लिया। अब आज से जानना और पूछना बंद करो, नहीं तो मैं पगला जाऊँगा। ज्योतिषी ने कहा है कि मैं नब्बे साल की उमर तक जिऊँगा। बत्तीस साल पेंशन खाऊँगा।’

शकुंतला देवी बोलीं, ‘ए लो। पहले तो हमारे पीछे पड़े रहते थे कि यह जानो वह जानो। अब कहते हैं पगला जाएंगे। हमें क्या करना है, तुम जानो तुम्हारा काम जाने। अब आगे से हमें किन्हीं संत जी की बातें मत बताना।’

 

© कुन्दन सिंह परिहार
जबलपुर (म. प्र.)

 

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ सवाल एक – जवाब अनेक – 8 ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

 

 

 

“सवाल एक – जवाब अनेक (8)”

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के एक प्रश्न का  विभिन्न  लेखकों के द्वारा  दिये गए विभिन्न उत्तरआपके ज्ञान चक्षु  तो अवश्य ही खोल  देंगे।  तो प्रस्तुत है यह प्रश्नोत्तरों की श्रंखला।  

वर्तमान समय में ठकाठक दौड़ता समाज घोड़े की रफ्तार से किस दिशा में जा रहा, सामूहिक द्वेष और  स्पर्द्धा को उभारकर राजनीति, समाज में बड़ी उथल पुथल मचा रही है। ऐसी अनेक बातों को लेकर हम सबके मन में चिंताएं चला करतीं हैं। ये चिंताएं हमारे भीतर जमा होती रहतीं हैं। संचित होते होते ये चिंताएं क्लेश उपजाती हैं, हर कोई इन चिंताओं के बोझ से त्रास पाता है ऐसे समय लेखक त्रास से मुक्ति की युक्ति बता सकता है। एक सवाल के मार्फत देश भर के यशस्वी लेखकों की राय पढें इस श्रृंखला में………

तो फिर देर किस बात की जानिए वह एकमात्र प्रश्न  और उसके अनेक उत्तर।  प्रस्तुत है  आठवाँ  जवाब  अबू धाबी से ख्यातिलब्ध व्यंग्यकारा  सुश्री समीक्षा तेलंगजी  एवं सवाई माधोपुर से श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी की ओर से  –  

सवाल :  आज के संदर्भ में, क्या लेखक  समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?

अबु धाबी से सुश्री समीक्षा तेलंग जी का जबाब ___
यदि आप समाज को घोड़ा मानते हैं तो आप खुद को उसकी आंख या लगाम भी मान सकते हैं। पर मैं, लेखक को स्वयं अश्व मानती हूं। आपने हॉर्सपावर सुना होगा…। किसी भी मशीन की क्षमता इसी इकाई से मापी जाती है। घोड़े की बुद्धि और ताकत का कोई सानी नहीं। वो चाहे तो दुनिया को हांक सकता है। उसकी तीक्ष्ण बुद्धि हवा के वेग से भी ज़्यादा होती है। और मनुष्य से अधिक संवेदनशील भी घोड़ा ही होता है। मैं लेखक को भी उतना ही संवेदशील मानती हूँ। तभी वो सृजन भी करता है।
लेकिन एक बात जो लेखकों को ही अपने आप में बाँटती है वो ये कि लेखक अपनी मानसिकता के हिसाब से लिखता है। कुछ लोगों के लिए वह दिशाविहीन लेखन होता है। कोई उसे सृजनात्मक मानता है। तो कोई उस लेखन को किसी दस्तावेज़ से कम नहीं मानता। एक का ही लिखा पढ़ने वाले की मानसिकता और लेखक की अपनी मानसिकता पर निर्भर करता है।
यदि लेखक घोड़ा है तो समाज उस ताँगे की तरह है, जिसके विचारों को लेखक और सुदृढ़ बनाता है। बशर्ते वह लेखन समाज को ध्यान में रखकर लिखा गया हो। हम भूल जाते हैं कि ताँगे के घोड़े की आँख पर ऐनक चढ़ा होता है। तभी वो अपने ताँगे को सही दिशा में हाँक पाता है, ख़ाली लगाम से नहीं। लगाम उसके वेग को कम ज़्यादा कर सकती है लेकिन दिशा नहीं दिखा सकती।
बग़ैर ऐनक वह आजू बाजू आगे और कुछ हद तक पीछे भी देख सकता है। क्या हो यदि उसे ऐनक न चढ़ाया जाए? वह मात्र भटका हुआ प्राणी हो जाता है। यही स्थिति लेखक की भी है।
मनुष्य भले ही अपनी गर्दन ३६० डिग्री पर नहीं घुमा सकता लेकिन ख़ुद घूमकर सही ग़लत का जायज़ा लेकर समाज में पनप रही विकृतियों को ज़रूर उजागर कर सकता है।
पहले के युद्धों में हरेक राजा का एक प्रिय घोड़ा ज़रूर होता था। किन्हीं स्थितियों तक वह उस राजा की जीत का भागीदार होता था। क्योंकि वह दुश्मन की आहट को बख़ूबी भाँप लेता था। और अपने प्रिय घुड़सवार को उन परिस्थितियों से बचा लेता था।
लेखक की भूमिका समाज के प्रति भी ऐसी ही होनी चाहिए। पीत पत्रकारिता जिस प्रकार समाज को विषैला प्रदूषित कर रही है। उसी प्रकार लेखक के एक एक शब्द का प्रभाव समाज पर भी पड़ता है। इसलिए लेखक, घोड़े की आँख या लगाम बनने से बचें और ख़ुद अश्व बनकर दुनिया की असलियत उजागर करने का दंभ रखें।
– समीक्षा  तैलंग, अबु धाबी (यू.ए.ई.)

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सवाई माधोपुर से श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी का जबाब ___
वर्तमान समाज, बेलगाम घोड़ा है। इसकी लगाम छीन कर कहीं गहरे दफन कर दी गई है। लाख ढूंढो तो भी नहीं मिलेगी। फिर सवाल घोड़े की आंख का है। पहले वे आंखें सीधे ही लक्ष्य पर केन्द्रित होती थीं। भटकने की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। अब, आंखों का वह दिशा नियंत्रक भी नदारद है और यह बेशर्म घोड़ा अब खूब नैन मटक्का करता है। लेखक भी समाज का अंग है। अत:, आज के सन्दर्भ में लेखक घोड़े की आंख है।
– प्रभाशंकर उपाध्याय, सवाई  माधोपुर 

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हिन्दी साहित्य- कविता – ☆ चलो….अब भूल जाते हैं ☆ – सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

☆ चलो….अब भूल जाते हैं ☆

(प्रस्तुत है सुश्री मालती मिश्रा  जी  की  एक अतिसुन्दर भावप्रवण कविता।)

 

जीवन के पल जो काँटों से चुभते हों

जो अज्ञान अँधेरा बन

मन में अँधियारा भरता हो

पल-पल चुभते काँटों के

जख़्मों पे मरहम लगाते हैं

मन के अँधियारे को

ज्ञान की रोशनी बिखेर भगाते हैं

चलो!

सब शिकवे-गिले मिटाते हैं

चलो….

सब भूल जाते हैं….

 

अपनों के दिए कड़वे अहसास

दर्द टूटने का विश्वास

पल-पल तन्हाई की मार

अविरल बहते वो अश्रुधार

भूल सभी कड़वे अहसास

फिर से विश्वास जगाते हैं

पोंछ दर्द के अश्रु पुनः

अधरों पर मुस्कान सजाते हैं

चलो!

सब शिकवे-गिले मिटाते हैं

चलो….

सब भूल जाते हैं….

 

अपनों के बीच में रहकर भी

परायेपन का दंश सहा

अपमान मिला हर क्षण जहाँ

मान से झोली रिक्त रहा

उन परायेसम अपनों पर

हम प्रेम सुधा बरसाते हैं

संताप मिला जो खोकर मान

अब उन्हें नहीं दुहराते हैं

चलो!

सब शिकवे-गिले मिटाते हैं

चलो…..

सब भूल जाते हैं…..

 

©मालती मिश्रा ‘मयंती’✍️
दिल्ली
मो. नं०- 9891616087

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? मी_माझी – #2 – स्वतःपण… ? – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

? मी_माझी  – #2 – स्वतःपण…? 

(स्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की द्वितीय कड़ी  स्वतःपण… । इस शृंखला की प्रत्येक कड़ियाँ आप आगामी  प्रत्येक रविवार को पढ़ पाएंगे। )

 

स्वतःशी बोलता आलं पाहिजे,

बोलता बोलता थांबता आलं पाहिजे…

 

हे कसं जमायचं?

ह्याच विचारात स्वतःशी कधी बोललेच नाही,

आणि जेव्हा बोलले, तेव्हा,

स्वतःची ओळख पटेना !

मी कशी आहे, कशी असायला पाहिजे, कशी होते,

का होते, असे अनेक प्रश्न रुंजी घालतात…

 

उत्तरांच्या जंजाळात मी स्वतःचं स्वतःपण विसरून जाते…

 

खरंच, असं काही आहे का?

 

स्वतः पण…

 

हे काय असतं, कोणी सांगेल का मला?

 

आतून उत्तर येतं, कोणीच सांगू शकणार नाही,

तुलाच ते शोधायचं आहे

आणि त्याबरोबर जगायचं आहे…

स्वतःपण आणि स्वार्थ ह्यात जमीन आसमानचा फरक आहे,

हे विसरू नकोस…

 

मग तुझ्या स्वतःपणला लकाकी येते की नाही बघ…

झोपेतून जागी झाले तेव्हा एवढंच कळलं,

काही तरी नक्की हरवलंय, तेच स्वतःपण नसेल ना !

 

© आरुशी दाते

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मराठी साहित्य – मराठी कविता – ? खरा चेहरा ? –श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? खरा चेहरा ?

(प्रस्तुत है श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी की एक अतिसुन्दर भावप्रवण कविता ।  )

 

तिच्या डोळ्यांपेक्षा

माझा तुझ्यावरच जास्त विश्वास होता

कारण…

माझा खरा चेहरा

फक्त तूच दाखवत होतास

भाव भावनांसह…

कधी कधी मी

तिच्याही डोळ्यांत शोधायचो

माझा खरा चेहरा

पण ती लागुदेत नव्हती थांग

नेमक्या क्षणी

पापण्यांचा पडदा घ्यायची खाली

आणि

ठेवायची कैद करून…

पण तुझं मात्र तसं नव्हतं

खुल्या मनाने दाखवायचास सारं

टिपायचास साऱ्या भाव भावना

जशाच्या तशा…

माझी सुखं, दुःखं, आनंद

सारं सारं मला दिसायचं तुझ्या चेहऱ्यात

कधी कधी तुझा चेहरा

वाटायचा मळकट

मी फिरवायचो आरश्यावरून बोळा

आणि काय आश्चर्य

तू करून टाकायचास

दोन्हीही चेहरे

एकसारखे स्वच्छ…

आज मात्र तू भासलास

तिच्या सारखा

रक्ताचा मागमूसही न ठेवता

किती ओरखडे काढलेस चेहऱ्यावर…

विश्वास आणि आरशाला तडे गेले

की हे असेच होणार…

 

© अशोक भांबुरेधनकवडी

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Amazing Health Benefits of Laughter Yoga ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

Amazing Health Benefits of Laughter Yoga 

The benefits of Laughter Yoga are amazing. Laughter Yoga is a unique exercise routine that combines laughter exercises with yogic breathing which brings in more oxygen to the body and brain making one feel more energetic and healthy. It is a powerful cardio workout. In fact, 10 minutes of hearty laughter is equal to 30 minutes on a rowing machine. The foremost benefit of laughing is that one remains cheerful throughout the day. This sense of wellbeing comes from the release of feel good hormones called endorphins.

It decreases the negative effects of stress on your body which is the root cause of all illness. Laughter Yoga is a single exercise that deals with physical, mental and emotional stress simultaneously. It also strengthens the immune system, lowers blood pressure, CONTROLS BLOOD SUGAR and keeps your heart healthy. It is a powerful antidote against depression – the number one sickness today.

Laughing promotes a healthy heart. In a good bout of laughter, there is a dilation of blood vessels all over the body. We’ve all seen or experienced this as a flushed appearance and feeling of warmth. Pulse rate and blood pressure rise as the circulatory system is stimulated before settling down, below the original levels. In a nutshell, laughter helps tone the circulatory system of the body.

Laughter and breathing exercises help to increase the breathing capacity of the lungs and increase the net supply of oxygen to the body. Laughter sessions, along with deep breathing, are like chest physiotherapy – especially for those who smoke and suffer from bronchitis and respiratory airway obstruction.

A weak immune system is a major cause for almost all sickness and ill health. Laughter boosts immune system. Oxygen is one of the primary catalysts for all metabolic reactions in the human body. Ongoing scientific studies show that lack of oxygen is the major cause of most diseases. Laughter Yoga flushes the lungs and fully oxygenates the blood and major organs leaving one bursting with energy and vitality and free from disease.

Diabetes is emerging as a major health hazard worldwide. Japanese scientist Murakami’s experiment to ascertain the effect of laughter on the blood sugar levels has affirmed that laughter has a lowering impact on blood sugar. Murakami indentified 23 genes that can be activated with laughter. In addition, it also reduces the stress hormone cortisol responsible for increase in sugar levels and stabilizes the immune system, which if weakened, can affect the production of insulin in the pancreas.

Laughter has a profound positive impact on allergies, with many practitioners reporting complete disappearance of all symptoms of asthma, skin and other allergies. Though not an intervention for countering physical causes of allergies; Laughter Yoga is a definite tool to remedy stress. It helps to reduce the risk factors by boosting the immune system, encouraging deep breathing and flushing the lungs of stale air and generating a feeling of wellness.

Those suffering from life threatening diseases not only go through physical pain; they also face immense psychological trauma. Not just the patient, but family, friends and care givers all need positive reinforcement. Having a positive mental attitude greatly influences the course of the disease. We have had many members suffering from cancer, immune disorders, multiple sclerosis and other chronic diseases who have reported relief from their symptoms, thereby reducing their medications.

Depression is often associated with physical pain, feelings of despair, loss of appetite, immobility, insomnia and other cardiovascular problems. Practicing Laughter Yoga regularly helps to resolve most of these ailments as it is one of the fastest ways of boosting heart rate, reducing blood pressure, providing an excellent cardio workout and alleviating pain. Extended hearty laughter is a body exercise with powerful body-mind healing effects.

The combination of natural pain killers with movements in laughter exercises makes Laughter Yoga a powerful tool for physiotherapy. Many practitioners have reported reversal of frozen shoulder and other movement limitations due to stroke, arthritis, and injury. Endorphins released as a result of laughter help in reducing the intensity of pain in those suffering from arthritis, spondylitis and muscular spasms of the body.

Scientific studies have proved that a few days of laughter exercises and deep breathing lowers blood pressure thus reducing the risk of a heart attack. Having too much cholesterol in the blood can lead to the hardening and narrowing of the arteries in the major vascular systems. A daily dose of laughter opens the arteries and allows the blood to flow freely to all parts of the body thus preventing a cardiac failure.

Stress is the number one killer today, and most illnesses are stress related. Laughter Yoga is an instant stress buster which takes care of physical, mental and emotional stress simultaneously. It has been scientifically proven that laughter reduces the level of stress hormones like cortisol and epinephrine and enhances positive emotions.

Laughter exercises are short and easy and can be added to your existing fitness programme. It can be a value addition to Yoga groups, Tai-Chi groups, aerobic centres, meditation centres, health clubs, sports and fun activities. Laughter Yoga is the latest health craze sweeping the world where anyone can laugh without any reason. It is truly a life changing experience for millions. It is scientifically proven and a lot of fun. People can feel the benefits right from the very first session.

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
[email protected]

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (64) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

 

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्‌।

आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ।।64।।

 

मन जिसका स्वाधीन है,राग द्वेष से दूर

इंद्रिय सुख लेते भी वह आंनद से भरपूर।।64।।

 

भावार्थ :   परंन्तु अपने अधीन किए हुए अन्तःकरण वाला साधक अपने वश में की हुई, राग-द्वेष रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है।।64।।

 

But the self-controlled man, moving amongst objects with the senses under restraint, and free from attraction and repulsion, attains to peace. ।।64।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ कविता ☆ – सुश्री सुषमा सिंह

सुश्री सुषमा सिंह 

☆ कविता ☆

(प्रस्तुत है सुश्री सुषमा सिंह जी की भावप्रवण कविता “कविता” ।  सुश्री सुषमा सिंह जी की कविता काव्यात्मक परिभाषा के लिए मैं निःशब्द हूँ। कविता छंदयुक्त हो या छंदमुक्त हो यदि कविता में संवेदना ही नहीं तो फिर कैसी कविता? )

 

प्राणों को नवजीवन दे, जड़ में भी स्पंदन भर दे

दर्द, चुभन, शूल हर ले, मन को रंगोली के रंग दे

उसको कहते हैं कविता

 

हर नर को जो राम कर दे, शबरी के बेरों में रस भर दे

जो हर राधा को कान्हा दे, हर-मन को जो मीरा कर दे

उसको कहते हैं कविता

 

तम जीवन में ज्योति भर दे, मूकता को भी कंपन दे

भावनाओं को जो मंथन दे, प्रियतम को मौन निमंत्रण दे

उसको कहते हैं कविता

 

संबंधों को जो बंधन दे, संस्कृति संस्कार समर्पण दे

भटकन को नई मंज़िल दे, जीवन संकल्पों से भर दे

उसको कहते हैं कविता

 

डगमग पैरों को थिरकन दे, सिखर धूप फागुन कर दे

मन में नई उमंग भर दे, सुंदर सपनों को सच कर दे

उसको कहते हैं कविता

 

यह भावों की निर्झरिणी है,जिस पथ  यह बहती जाती है

मरुथल को यह मधुबन कर दे, इसको कहते हैं कविता

 

आखर  आखर हों भाव भरे, हर-मन बस ऐसा हो जाए

तो चलो  रचें ऐसी कविता, हर मानव मानव हो जाए।

 

© सुषमा सिंह

बी-2/20, फार्मा अपार्टमेंट, 88, इंद्रप्रस्थ विस्तार, पटपड़गंज डिपो, दिल्ली 110 092

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ साहित्यिक सम्मान की सनक ☆ – श्री मनीष तिवारी

श्री मनीष तिवारी 

☆ साहित्यिक सम्मान की सनक ☆

(प्रस्तुत है संस्कारधानी जबलपुर ही नहीं ,अपितु राष्ट्रीय ख्यातिलब्ध साहित्यकार -कवि  श्री मनीष तिवारी जी  की यह कविता  जो आईना दिखाती है उन समस्त  तथाकथित साहित्यकारों को जो साहित्यिक सम्मान की सनक से पीड़ित हैं ।  यह उन साहित्यिकारों पर कटाक्ष है जो सम्मान की सनक में किसी भी स्तर तक जा सकते हैं।  संपर्क, खेमें,  पैसे और अन्य कई तरीकों से प्राप्त सम्मान को कदापि सम्मान की श्रेणी में रखा ही नहीं जा सकता।

साथ ही मुझे डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ जी के पत्र  की  निम्न  पंक्तियाँ  याद आती हैं  जो उन्होने  मुझे आज से  37  वर्ष पूर्व  लिखा था  – 

“एक बात और – आलोचना प्रत्यालोचना के लिए न तो ठहरो, न उसकी परवाह करो। जो करना है करो, मूल्य है, मूल्यांकन होगा। हमें परमहंस भी नहीं होना चाहिए कि हमें यश से क्या सरोकार।  हाँ उसके पीछे भागना नहीं है, बस।”)    

 

सच कह रहा हूँ भाईजान

मेरी उम्र को मत देखिए

न ही बेनूर शक्ल की हंसी उड़ाइए

आईये

मैं आपको बतलाऊँ

मेरी साहित्यिक सनक को देखिए

सम्मान के कीर्तिमान गढ़ रही है,

जिसे साहित्य समझ में नहीं आता

मेरे साहित्य को पढ़ रही है।

 

सनक एकदम नयी नयी है

नया नया लेखन है

नया नया जोश है,

मैं क्या लिख रहा हूँ

इसका मुझे पूरा पूरा होश है।

 

सब माई की कृपा है

कलम घिसते बनने लगी

कितनी घिसना है

कहाँ घिसना है

कैसी घिसना है

ये तो मुझे नहीं मालूम

पर घिसना है तो घिस रहे हैं।

 

हमने कहा- भाईजान जरूर घिसिये

पर इतना ध्यान रखिये

आपके घिसने से कई

समझदार साहित्यकार पिस रहे हैं।

वे अकड़कर बोले,

मेरा हाथ पकड़कर बोले-

आप बड़े कवि हैं

हम पर व्यंग्य कर रहे हैं

अत्याचार कर रहे हैं

आपको नहीं मालूम

पूरी दुनिया के पाठक

मेरी साहित्यिक सनक की

जय जयकार कर रहे हैं।

 

मेरा अभिनंदन कर रहे हैं

मैं उन्हें बाकायदा धनराशि देता हूँ

पर वे लेने से डर रहे हैं।

जबकि मैं जानता हूँ

मेरे जैसे लोगो का

अभिनन्दन करने वाले

अपना घर भर रहे हैं।

 

हमारी रचनाएं अनेक देशों में

साहित्यिक रक्त पिपासुओं द्वारा

भरपूर सराही जा रही हैं।

घनघोर वाहवाही पा रही हैं।

 

हमने कहा- भाईसाब

मेरा ये ख्याल है

इसी सनकी प्रतिभा का तो हमें मलाल है।

जो कविता हमें और

हमारे साहित्यिक कुनबे को

समझ में नहीं आ रही है

आपकी सर्जना को

सिरफिरी दुनिया सिर पर उठा रही है।

 

आखिर आप क्यों?

हिंदी साहित्य में स्वाइन फ्लू फैला रहे हैं,

और अफसोस

उस बीमारी को समझकर भी

लोग तालियां बजा रहे हैं।

 

आप क्या समझते हैं

आपके तथाकथित सृजन और पठन से

श्रोता जाग रहे हैं,

आपको पता ही नहीं आपका नाम सुनते ही

श्रोता दहशत में हैं और भाग रहे हैं।

आयोजकों के पीछे डंडा लेकर पड़े हैं,

हाल खाली है और दरवाजे पर ताले जड़े हैं।

 

लगता है विदेशियों ने

साहित्यिक षड्यंत्र रचा दिया है

जैसे पूरी दुनिया ने

भारतीय बाजार पर कब्ज़ा कर

कोहराम मचा दिया है।

 

ये लाईलाज बीमारी है

आपके अनर्गल प्रलाप को सम्मानित कर भारत के

गीत, ग़ज़ल, व्यंग्य, कथा, कहानी और

नाटक को कुचलने की तैयारी है।

 

आप अपने सम्मान पर गर्वित हैं, ऐंठे हैं

आपको पता नहीं

आप एक बारूद के ढेर पर बैठे हैं।

आपको पता नहीं चल रहा कि

आपकी दशा है या दुर्दशा है

आपको सम्मान का अफीमची नशा है।

 

आपको पता ही नहीं कि

आपके सम्मान के रंग में

कितनी मिली भंग है,

सच कहूं आपकी सृजनशीलता

पूरी तरह से नंग धड़ंग है।

 

मर्यादा का कलेवर आपके

तथाकथित अभिमान को ढक नहीं सकता

और, मेरे मना करने पर भी

आपका इस तरह लेखन रूक नहीं सकता।

 

आप अपनी वैचारिक विकलांगता

साहित्यिक विकलांगों के बीच में ही रहने दो

आप अपनी कीर्ती के कमल

गंदगी के कीच में ही रहने दो।

 

आपने हिंदी साहित्य का गला घोंटने

अपना जीवन अर्पित कर दिया,

परिणामस्वरूप स्वम्भू साहित्यकारों ने

आपको सम्मानित किया और चर्चित कर दिया।

आपके सम्मान से साहित्य के सम्रद्धि कलश भर नहीं सकते

और सायनाइट में भी डुबोने पर भी

आपके अंदर हलचल मचा रहे

साहित्यिक कीटाणु मर नहीं सकते।

 

आपकी गलतफहमी है

इक्कसवीं सदी के प्रारंभिक दशकों के

साहित्यिक सांस्कृतिक अवदान में

आपका भी नाम लिखा जाएगा

ध्यान रखना

वास्तविक साहित्यिक समालोचक

आपको आईना दिखा जाएगा।

 

आप आत्ममुग्ध हो

अपने सम्मान से स्वयं अविभूत हो

आप सोचते हो कि

अनन्तकाल तक जीते रहोगे

भूत नहीं बन सकते,

प्रेमचंद, परसाई, नीरज, महादेवी, दुष्यंत और

जयशंकर प्रसाद के वंशज

आपके तथाकथित साहित्य को

अलाव में भी फेंक दें पर

आप भभूत नहीं बन सकते।

 

मैंने पढ़ा है-

दूषित धन की कभी शुद्धि नहीं हो सकती

ऐसे ही

दूषित विचारों के रचनाकार की

शुद्ध बुद्धि नहीं हो सकती।

आपकी इस तरह की सृजनशीलता से

राष्ट्र की वैचारिक अभिवृद्धि नहीं हो सकती।

 

आपका पेन सामाजिक, सांस्कृतिक,

कुरीतियों, कुप्रथाओं पर

अमोघ बाण नहीं हो सकता

आप जैसे सनकियों से

राष्ट्र का कल्याण नहीं हो सकता।

 

हे ! माँ सरस्वती

या तो इनकी कलम को

शुभ साहित्य से भर दीजिये

या इन्हें तथाकथित साहित्यिक सम्मान की

सनक से मुक्त कर दीजिए।

 

©  पंडित मनीष तिवारी, जबलपुर

 

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ हेलो व्हाट्सएप ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव “विनम्र”

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव “विनम्र”

☆ हेलो व्हाट्सएप ☆

 

(प्रस्तुत है श्री विवेक  रंजन  श्रीवास्तव जी  का  सटीक एवं सार्थक व्यंग्य।  हमारी और हमारी वरिष्ठ पीढ़ी ने पत्र ,टेलीग्राम और टेलीफ़ोन से कैसे दिन गुजारे होंगे इसका एहसास, कष्ट और मजा नई पीढ़ी को क्या मालूम। उन्होने तो ऑर्कुट  या इससे मिले जुले डिजिटल सोशल मीडिया मंच से लेकर व्हाट्सएप तक की ही यात्रा तय की है। अभी भी हमारी वरिष्ठ पीढ़ी इन डिजिटल सोशल मीडिया मंचों से सहज नहीं है। जिन्होने स्वयं को अपडेट नहीं किया है इसका कष्ट वे ही जानते हैं।)

 

स्टेटस सिंबल के चक्कर में लांच के साथ ही लेटेस्ट माडेल महंगी कीमत पर स्मार्ट फोन खरीदा गया है. पत्नी से मोबाईल खरीदी का बजट स्वीकृत करवाने में उनका  तर्क बहुत वजनदार था,  “महिलाओ के पास तो ज्वेलरी, कभी जभी ही पहने जाने वाली साड़ियां, इंटरनेशनल ब्रांड के बैग और परफ्यूम, लाइटवेट ब्रांडेड फुटवियर और तो और किसी और को न दिखने वाले इनर वियर हर कुछ कीमती होता है” जबकि बेचारे पुरुष के पास स्टेटस सिंबल के नाम पर एक मोबाईल ही तो होता है. श्रीमती जी ने तर्क दिया कि  कहने को तो आप १० पैसे मिनट टाक वैल्यू का प्लान रिचार्ज करते हैं पर आपकी बातें १० रु मिनट से कम की नही पड़ती. उन्होने  चौंकते हुये पूछा आखिर कैसे ? प्लान तो दस पैसे मिनिट वाला ही है. पत्नी ने जबाब दिया,  आप किसी से भी मेरी तरह लम्बी बातें नहीं करते इसलिये आपकी मोबाईल का टोटल यूज टाइम बहुत कम है, मुश्किल से साल भर में या तो मोबाईल गुमा देते हैं या मोबाईल टूट जाता है या  फिर माडल बदल लेते हैं, तो मोबाईल की मंहगी कीमत में जितनी देर बातें हुई उससे तुलना करें तो आप की प्रति  मिनिट बातचीत दस रु मिनिट से ज्यादा  ही पड़ेगी. पत्नी के जबाब में दम था . फिर भी पत्नी ने थोड़ा तरस खाते और थोड़ा प्यार जताते हुये, मंहगा लेटेस्ट एप्पल लांच के साथ ही दिलवा ही दिया था. भले ही वे वन एप्पल ए डे न खाते हो पर अपना न्यू लेटेस्ट माडेल का एप्पल मोबाईल सदैव हाथो में गर्व से थामे रहते हैं, सारे दिन दो पांच मिनिट के अंतर से  उस पर दृष्टि बनाये रखते हैं, प्ले स्टोर से डाउनलोडेड अनेकानेक एप्स पर निरंतर सर्फिंग करते रहते हैं.

युग व्हाट्सअप का है. वे सोकर उठते ही वे पाखाना जाने से पहले व्हाट्सअप मैसेजेज चैक करते हैं. हाजमा ठीक रहा और हाजत तेज हुई तो मोबाईल सहित स्वच्छ कमोट पर भीतरी तन से फिजकली  आउटगोईंग  और मस्तिष्क में व्हाट्सएप से वर्चुएल वैचारिक  इनकमिंग साथ साथ जारी रहती है. आखिर इतने मंहगे  मोबाईल और घोटाला मुक्त सस्ती दरो पर सुलभ फोर जी स्पीड का क्या फायदा यदि समय पर दूर बैठे आत्मीय जनो को सचलितचित्र गुड मार्निग ही नही की . ये और बात है कि छै बाई छै के सुकोमल बैड पर बाजू में ही पसरी सात जनमो की साथिन की ओर मुस्कान भरी निगाहें तक डालने का ध्यान इस व्हाट्सअप अपडेट के चक्कर में नही जाता. वैसे भी  अब कौन सी नई नवेली शादी है. एप्पल का मोबाईल जरूर बीबी से बहुत नया है.

व्हाट्सएप उन्हें मोबाईल मय बनाये रखने में सर्वाधिक मदद करता है. हर थोड़े अंतराल पर व्हाट्स अप नोटिफिकेशन उनके वैश्विक संबंधो की पुष्टि करता है. कहीं गलती से कुछ घंटे वे मोबाईल न देख पायें तो विभिन्न ग्रुप्स से प्राप्त पेंडिग मैसेजेज की गिनती हजारो में पहुंच जाती है. वो तो भला हो मैसेजेज का कि वे वर्चुएल होते हैं, वरना होली, दीवाली, ईद, न्यूईयर जैसे  मौको पर तो व्हाट्सएप मैसेजेज से मोबाईल ऐसा भर जाता है कि यदि ये मैसेज वर्चुएल न होते तो शायद उन्हें संभालना मुश्किल हो जाता. दरअसल ये मैसेज अनेकता में एकता के राष्ट्रीय चरित्र के परिचायक होते हैं.  गणतंत्र दिवस और स्वाधीनता दिवस का अंतर भले ही पता न हो पर इन राष्ट्रीय त्यौहारो पर भी बड़े प्रेम से हर मोबाईल धारक अपनी डी पी बदलने से लेकर हर कांटेक्ट को मैसेज करना नही भूलता. स्कूल के, कालेज के, साहित्य के, कार्यालय के, शहर के स्वजातीय बंधुओ के  ग्रुप्स ने कनेक्टिविटी ऐसी बढ़ा दी है कि पास के लोग दूर और दूर के लोग पास हो गये हैं. ससुराल के ग्रुप, परिवार के ग्रुप और बच्चों के ग्रुप की नोटीफिकेशन टोन ही उन्होने बिल्कुल अलग रख ली है, जिससे वे सदैव सबके निकट  बने रहें.

यदि व्हाट्सअप को मालूम हो जावे कि उनका कार्यालय ही व्हाट्सअप पर चल रहा है तो निश्चित ही इसके एवज में व्हाट्सअप कुछ रायल्टी क्लेम कर सकता है. आजकल आफिस में मीटिंग की सूचना से लेकर फोटो सहित कम्पलाइंस रिपोर्ट व्हाट्सअप पर ही ली दी जा रही हैं. इधर मैसेज में दो नीली टिक हुई नहीं कि दूसरे छोर से अपेक्षा की जाती है कि साइट से फोटो सहित रिपोर्ट आ जावे. ग्रुप में परिपत्र डालकर यह मान लिया जाता है कि सभी को सूचना मिल चुकी है. वे जमाने यादें बनकर रह गये हैं, जब डाकिया लिफाफा लाता था, रिसीप्ट क्लर्क शाम को सारी डाक खोलकर तरीके से सील ठप्पे लगाकर डाक पैड में बांधकर करीने से टेबिल के कोने में रखा करता था, फिर हम इत्मिनान से एक एक पत्र पढ़ते और उसके मार्जिन में सबार्डिनेट्स को इंस्ट्रक्शन्स लिखा करते थे.

पहले  लोग सामूहिक ठहाके लगाते थे, एक जोक सुनाता था सब हंसते थे, अब जमाना व्हाट्सअप युगीन है, मैसेज पढ़कर मैं मंद मंद मुस्करा रहा था, मित्र ने देखा तो कहा मुझे भी फारवर्ड कर दे मैं भी हंसू. तो व्हाट्सअप युग के साक्षी बने रहिये जब तक कोई और इसे धक्का मारने न आ जावे, मौलिकता छोड़िये,  फारवर्ड करिये, डाउनलोड करिये अपलोड करिये बस दिल पर लोड मत लीजिये.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव  “विनम्र”

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

 

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